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Thursday, August 6, 2015

मानो मत, जानोः “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” ...परस्पर

“Do not believe, Know!” …is a series about relevant documentary films and filmmakers around the world who’ve devoted their lives to capture the most real, enlightening, shocking, just and humane stories. They’ll change the way you think and see everything. Watch & read them here. 

 Documentary. .Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair (2012), directed by Ajay Bhardwaj.

“धर्मशाला धाड़बी रैंदे, ठाकर द्वारे ठग्ग
विच मसीतां रहण कुसत्ती, आशक रहण अलग्ग”
- मछंदर खान मिसकीन, फिल्म में बुल्ले शाह की काफी उद्धरित करते हैं
अर्थ हैः धर्मशालाओं में धड़वाई (व्यापारी) और ठाकुरद्वारों में लुटेरे बस गए हैं। मस्जिदों में वे रहते हैं जो वहां रहने के योग्य नहीं। आशिक (ईश्वर से प्रेम करने वाले) तो इन सबसे अलग रहते हैं।

पंजाब का सांझा विरसा और उस विरसे की बहुत परिष्कृत मानवीय-धार्मिक समझ अजय भारद्वाज की डॉक्युमेंट्री “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” में नजर आती है। ये फिल्म उनकी “पंजाब त्रयी” सीरीज में तीसरी है। मौजूदा मीडिया और पॉप-कल्चर ने एक सभ्यता के तौर पर हमें जो सिखाना जारी रखा है उससे हमें सुख और सच्ची समझ की प्राप्ति नहीं हो सकती। ये फिल्म भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद दोफाड़ पंजाब में मजबूती से बचे अलग-अलग धर्मों, वर्गों के लोगों में प्रेम, स्नेह और सह-अस्तित्व के निशान तो दिखाती ही है, दर्शन के स्तर पर भी बहुत समृद्ध और सार्थक करके जाती है। शायद ये समझने के लिए “मिलांगे...” हमें पांच-छह बार देखनी पड़े।

A still from "Milange..."
हम इस डॉक्युमेंट्री के पात्रों की बातों और समझ को देख हैरान होते हैं। वे ईश्वर को माही कहते हैं। वे अंतरिक्ष, आकाशगंगा और साइंस पढ़कर घमंडी नहीं हो गए हैं। वे पूरी विनम्रता से आश्चर्य करते हैं कि उस इलाही की महिमा का पार नहीं जो पानी पर धरती को तैराए रखता है। कि कैसे गर्म, धूल भरी हवाएं लहरा रही होती हैं और न जाने पल में कहां से काले बादल आ जाते हैं। इन पात्रों के विचार फकीरी वाले हैं। इनकी धर्म की व्याख्या बेहद आधुनिक, बेहद मानवीय है। ऐसी फिलॉसफी आधुनिक पाश्चात्य नगरीय सभ्यता शायद कभी नहीं पा सकेगी।

पिछली दो फिल्मों (कित्ते मिल वे माही, रब्बा हुण की करिये) की तरह इसमें भी उस पंजाब को तस्वीरों से सहेजा गया है जो भविष्य में न होगा। ईंटों के सुहावने घर, गोबर लीपे आंगन व दीवारें, गलियों में बैठे कुत्ते, टूटे पेड़ की शाख पर बैठे कौवे, खुली नालियां, स्कूल की ड्रेस में जाते भोले-प्यारे बच्चे। मज़ार के बाहर झाड़ू से सीमेंट की चौकी बुहारी-धोई जा रही है। शांति है। सुकून है। पैसा गौण है, प्रेम प्राथमिक है। धर्म सब स्वीकार्य हैं। ऊपर वाले को लेकर कोई लड़ाई, दंगा, फसाद नहीं है। ये हिंदु भगवान को भी मानते हैं, अल्ला को भी, वाहे गुरु को भी। 2015 के भारत में आप धर्म को लेकर जो बपौती की हेकड़ी पाएंगे, जो वैमनस्य की बू पाएंगे, दंगों का भय पाएंगे, दुनिया में हो रहा क़त्ल-ए-आम पाएंगे.. वो इस पंजाब में नहीं पाएंगे। वो पंजाब जो मुख्यधारा की कवरेज से दूर है। वो पंजाब जिसे बंटवारा भौगोलिक रूप से ही बांट पाया।

अजय इसी पंजाब को ढूंढ़ रहे हैं। उनके हर फ्रेम में जाते हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है। यहां धर्म की विवेचना अलग है और देश में अभी के माहौल में धर्म की परिभाषा अलग रची जा रही है। इस परिभाषा से लगता है कि कैसे हमें संकीर्ण सोच वाले दड़बों में हमारे बड़ों, हमारी जाति-धर्म वालों ने घेर रखा है। हम हिंदु हैं तो अन्य हिंदुओं से चिपक रहे हैं, हम मुस्लिम हैं तो रूढ़ि की अलग ही बेड़ी में बंधे हैं। अगर कहें कि ऐसा लग रहा है हम कई सौ साल पहले के युग में पहुंच गए हैं और आक्रांताओं का हमला होने वाला है। या ख़लीफायत स्थापित करने का वक्त आ गया है। तो धर्म की रक्षा को हिंदु और आक्रामक हो गए हैं। ये कितना हास्यास्पद है।

राजकुमार हीरानी की दिसंबर में प्रदर्शित फिल्म ‘पीके’ इसका सटीक जवाब देती है। जब स्टूडियो में पीके-तपस्वी संवाद होता है तो छद्म धर्मगुरू तपस्वी धमकाने वाले अंदाज में कहते हैं, “आप हमारे भगवान को हाथ लगाएंगे और हम चुपचाप बैठे रहेंगे? बेटा.. हमें अपने भगवान की रक्षा करना आता है!” जवाब में पीके कहता है, “तुम करेगा रक्षा भगवान का? तुम! अरे इत्ता सा है इ गोला। इससे बड़ा-बड़ा लाखों-करोड़ों गोला घूम रहा है इ अंतरिक्ष मा। और तुम इ छोटा सा गोला का, छोटा सा सहर का, छोटा सा गली में बैठकर बोलता है कि उ की रक्षा करेगा.. जौन इ सारा जहान बनाया? उ को तोहार रक्षा की जरूरत नाही। वो अपनी रक्षा खुदेही कर सकता है”। ये जवाब उन सबको भी है जो खुद को भगवान का संरक्षक या सैनिक मान लेते हैं। जैसे हाल ही में “जय भीम कॉमरेड” और “मुजफ्फरनगर बाकी है” जैसी फिल्मों का प्रदर्शन रोकने वाले। ये खेदजनक है कि अपने भीषण अज्ञान को उन्होंने सर्वोच्च ज्ञान और सार्वभौमिक सत्य मान लिया है जो उनमें उनके पूर्वाग्रहों से है, जो उनमें उनके घर के बड़ों, जातिगत समाजों द्वारा रोप दिया गया है। ये तत्व पशुवत हैं जिनमें सिर्फ अज्ञान और अहंकार है। क्या अहंकार से ईश्वर मिलता है? एक-दूसरे धर्मों से असुरक्षित महसूस करवाए जाने वाले लोग “मिलांगे..” में मछंदर खान को सुनें। वे गुनगुना रहे हैं.. “बालक पुकारते हैं बंसी बजाने वाले। कलजुग में भी खबर लो द्वापर में आने वाले”। सुनकर आप सुन्न हो जाते हैं।

हर पहचान (identity) को अपने में समाहित करने वाले इस धर्म की विवेचना और सूफीयत के अलावा फिल्म बंटवारे के बाद पंजाब में बची सांझी विरासत की मजबूती को भी पुष्ट करती चलती है जो इस “पंजाब त्रयी” की पिछली दो फिल्में भी कर चुकी हैं। शीर्षक में जिन बाबा रतन का जिक्र है वो बाबा हाजी रतन हैं जिनकी दरगाह भटिंडा में स्थित है। उन्हें भारतीय उप-महाद्वीप के अलावा इस्लामी दुनिया में भी श्रद्धा की नजर से देखा जाता है। माना जाता है कि वे पैगंबर मोहम्मद से मिले थे। लेकिन इस अपुष्ट तथ्य से ज्यादा जरूरी बात ये है कि कैसे उन जैसे चरित्र अलग-अलग धर्मों और वर्गों के लोगों द्वारा समान रूप से पूजे जाते हैं। इन सूफी चरित्रों के मेले अनेक वर्षों से पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में लगते रहे जो सब लोगों को करीब लाए। जैसे बाबा हाजी रतन का मेला 1947 के बहुत पहले से लगता था। दूर-दूर से लोग वहां आते थे। ये पंजाब का काफी बड़ा मेला था। फिर छापर का, बाबा मोहकम शाह जगरांव वाले का , नोहरभादरा में गोगामेड़ी का और सरहिंद का जोर मेला भी हैं।

पिछली डॉक्युमेंट्री के दयालु पात्र प्रो. करम सिंह चौहान की लिखी पुस्तक ‘बठिंडा’ से हम इन मेलों और विरसे को नजदीक से जानते है। वे बाबा रतन मेले के बारे में लिखते हैं, “यहां मुस्लिम सूफी संत आते थे, कव्वालियां गाते थे, गजब मेला लगता था। बुल्ले शाह, शाह हुसैन और अन्य गाए जाते थे। इस दौरान खास याद आती है बाबू रजब अली की गायकी। विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। 35 साल वहां रहने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। वे वहां रह-रहकर अपनी जन्मभूमि के लिए आंसू बहाते रहे। भठिंडा की धरती पर बाबू रजब अली शाह अली गाते थे, दहूद गाते थे वहीं साथ ही साथ गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों के बलिदानों की कहानी गाकर श्रोताओं की आंखों में पानी ले आते थे”। इस बीच मछंदर कहते हैं कि हालांकि वो मुस्लिम थे फिर भी साहिबजादों की कहानी ऐसे गाते थे कि कोई गा नहीं सकता। वे सूफी फकीर थे और उनका कोई धर्म नहीं होता। रजब अली, महाभारत के किस्से गाते थे, भीम-कृष्ण सब को गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन ओलिया जैसे मुस्लिम धर्म के मेलों में बाबा रतन का मेला चौथा सबसे बड़ा था और यहां हर धर्म के लोग आते थे।

छापर में गुग्गा मढ़ी (जिसे हम राजस्थान में गोगामेड़ी कहते हैं) की दरगाह में बने भित्तीचित्रों से तब के माहौल और व्यापक सोच की झलक मिलती है। इनमें सोहणी है जो दरिया पार कर रही है महिवाल से मिलने के लिए। मिर्जा पेड़ की छांव में सो रहा है और साहिबा उसके पास बैठी है। उधर साहिबा के भाई पीछा कर रहे हैं। पुन्नू ऊंट पर जा रहा है, पीछे सस्सी बैठी है। पंजाब के नामी पहलवान किक्कर सिंह और गुलाम लड़ रहे हैं। छापर के बेहद मशहूर गायक डोगर और उसके साजी हैं जिनके पीछे गांव का जमींदार रूरिया सिंह बैठकर सुन रहा है। मेले में आए लोगों के लिए निहंग कुएं से पानी सींच रहे हैं।

इस दुनिया के पात्रों का दर्शन (philosophy) बहुत ही सुखद है।

मछंदर कहते हैं, “अल्लाह किसी को मिला है तो बरास्ता (via) ही मिला है। हीर ने रब को पाया तो रांझे के रास्ते पाया। ससी ने पाया तो पु्न्नू के रास्ते पाया। मजनू ने पाया तो लैला के रास्ते”। वे मजनू का किस्सा सुनाते हैं। एक बार अल्ला का प्रतिनिधि उससे मिला। उसने कहा अल्ला ने याद फरमाया है। फकीर मजनू बोला कि मुझे तो अल्लाह से मिलने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर अल्लाह को मुझसे मिलना है तो मैं क्यों जाऊं वो खुद आए। और हां, जहां भी वो है, वो कभी मेरे सामने न आ जाए। अगर मुझसे चार बातें ही करनी हैं तो लैला बनके आ जाए।

क्या प्रेम की ये पराकाष्ठा इस और उस दोनों जन्मों को सफल नहीं कर देती?

एक बेहद अज्ञानी और गैर-स्मार्ट लगने वाला पात्र कहता है, “नमाज पढ़ लो या गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ लो, बात एक ही है.. बस उस मालिक के आगे सुनवाई होनी चाहिए। सब बोलियां उसी की बनाई हुई हैं। वो सब बोलियां जानता है। हम नहीं जानते”।

(यहां ajayunmukt@gmail.com संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी मंगवा सकते हैं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair” - Watch an extended trailer here:


On the eve of the British leaving the subcontinent in 1947, Punjab was partitioned along religious lines. Thus was created a Muslim majority state of Punjab (west) in Pakistan and a Hindu /Sikh majority state of Punjab (east) in India. For the people of Punjab, it created a paradoxical situation they had never experienced before: the self became the Other. The universe of a shared way of life – Punjabiyat — was marginalised. It was replaced by perceptions of contending identities through the two nation states. For most of us this has been the narrative of Punjab– once known as the land of five waters, now a cultural region spanning the border between Pakistan and India.

However, the idea of Punjabiyat has not been totally erased. In ways seen and unseen, it continues to inhabit the universe of the average Punjabi’s everyday life, language, culture, memories and consciousness. This is the universe that the film stumbles upon in the countryside of east Punjab, in India. Following the patters of lived life, it moves fluidly and eclectically across time, mapping organic cultural continuities at the local levels. It is a universe which reaffirms the fact that cultures cannot be erased so very easily. This is a universe marked by a rich tradition of cultural co-existence and exchange, where the boundaries between the apparently monolithic religious identities of ‘Hindu’, ‘Muslim’ and ‘Sikh’ are blurred and subverted in the most imaginative ways.

Moreover, one finds in this universe, mythologies from the past sanctifying such transgressions and reproducing themselves in the present; iconographies of Hindu gods and Sikh gurus share space with lovers, singers and wrestlers, creating a rich convergence of the sacred, the profane, and the subversive. Nothing represents this more than the Qissa Heer, a love balled exemplifying a unique Punjabi spirituality identified with love, whose multiple manifestations richly texture this landscape. Yet, there are absences to deal with. Strewn across this cultural terrain are haunting memories which have become second skin —of violence of 1947; of separation from one’s land; of childhood friends lost forever; of anonymous graves that lie abandoned in village fields. Accompanying this caravan of seekers and lovers are the ascetic non believers in whom a yearning for love and harmony turns into poetry against war and aggression. Such is the land of Punjab where miracles never cease to capture the imagination.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Monday, April 7, 2014

मानो मत, जानोः “राम के नाम” ...साधो, देखो जग बौराना

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत व विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय, परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .In The Name Of God (1992), directed by Anand Patwardhan.

हरित भूमि तृण संकुल समुझि परहिं नहीं पंथ
जिमि पाखंड विवाद ते लुप्त होहिं सदग्रंथ...
"जब घोर बरसात होती है तो इतनी घास उग जाती है कि जो सही रास्ते हैं वो दिखाई नहीं पड़ते। उसी तरह से कि पाखंडियों की बात से सही बात छिप जाती है। जैसे किसी आदमी ने खा लिया कोई नशा। नशा जब तक उसके शरीर में रहेगा, तब तक कोई भी क्रिया वो कर सकता है। पागल भी हो सकता है, हमला भी कर सकता है, स्वयं की हत्या कर सकता है। ये सब उन्माद होते हैं। विचार, चिंतन, सब नष्ट हो जाते हैं। लेकिन ये वर्षा ऋतु थोड़ी ही देर के लिए होती है। बाद में लोगों की समझने की, सोचने की क्षमता लौटती है। आज जो लोगों में ये बातें हैं वो उन्माद है और जब असलियत सामने आ जाएगी, जब लोग जान जाएंगे कि हां ये बात गलत कही गई, हम लोगों को गुमराह किया गया, तो अपने ही लोग उनका बहिष्कार कर देंगे। मैं बहुत दुख महसूस करता हूं। तब भी अपना उतना ही संयम, उतना ही धैर्य बनाए रखा है। तूफान है, लेकिन उस तूफान से हमें विचलित नहीं होना चाहिए। ये भाटे (लहर) की तरह आया और गया।"
- लालदास जी, विवादास्पद रामजन्मभूमि मंदिर के तत्कालीन पुजारी, अरण्य कांड का दोहा उद्धरित करते हुए, डॉक्युमेंट्री बनने के एक साल बाद उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई...

देश के मौजूदा हाल में आनंद पटवर्धन की 1991 में, बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से एक साल पहले बना ली गई ये डॉक्युमेंट्री बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। 2014 के आम चुनाव होने वाले हैं। ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि उसी दल की सरकार आएगी जिसने देश में हिंदुओं-मुस्लिमों के बीच वर्षों से कायम प्रेम को नष्ट किया, अयोध्या में राम मंदिर बनाने की धर्मांधता पूरे मुल्क में फैलाई, दंगों को जन्म दिया, हजारों-हजार निर्दोष नागरिकों की हत्या करवाई। संबंधित दल के भाषणों, निराश करने वाले रवैये और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोर सांप्रदायिक छवि ने समाज के कई तबकों में डर भर दिया है। डरने की बात भी है। आनंद “राम के नाम” में उस भय का चेहरा करीब से दिखाते हैं। आश्चर्य की बात है, भारत में सीमित लोगों ने इस बेहद जरूरी फ़िल्म को देखा है। इसे बड़ी आसानी से अपने विषय, फुटेज और कालखंड के लिए सर्वकालिक महान दस्तावेज़ों में गिना जा सकता है।

Ram Ke Naam
इसकी शुरुआत नारों से होती है। “मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मंदिर का निर्माण”, “इफ देयर इज नो राम… देयर इज नो सरवाइवल”, “सौगंध राम की खाते हैं... हम मंदिर वहीं बनाएंगे” और “बच्चा-बच्चा राम का... रामभूमि के काम का”। नारे, जो 1990 में एक सोचे-समझे राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए भारत की सड़कों पर उगा दिए गए। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता लालकृष्ण आडवाणी रथ के आकार में बनी आरामदायक टोयोटा में 10,000 किलोमीटर लंबी यात्रा पर निकले। इरादा अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाना जो उनके मुताबिक भगवान राम का जन्मस्थल था। राम जो भारत में जन्मे मर्यादावान और आदर्श राजा थे। वे तत्कालीन या समकालीन वक्त में जिंदा होते तो इस पाखंड का विरोध करते। खैर, नारों के बीच सड़क के किनारे मोटरसाइकिल पर अंग्रेजी बोलता व्यक्ति रुकता है। फैशनेबल ऐनक लगाए वह पूरे यकीन के साथ कैमरे के आगे हिंदु होने के मायनों पर बोलता है। ऑयल बिजनेस करता है। पूरी फ़िल्म के दौरान आनंद लोगों से उनकी जाति और पेशा पूछते चलते हैं ताकि मतिभ्रष्ट और सद्बुद्धि वाले लोगों की पृष्ठभूमि का अंदाजा रह सके।

इस मसले का आधार जल्दी से रख दिया जाता है। बताया जाता है, “बाबरी मस्जिद का निर्माण अयोध्या में सन 1528 में हुआ। उसके तकरीबन 50 साल बाद तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ लिखकर रामकथा को आम लोगों तक पहुंचाया। 19वीं सदी तक अयोध्या नगरी राम मंदिरों से भर गई। इनमें से कई मंदिरों का ये दावा रहा कि राम यहीं जन्मे हैं। इस समय तक अंग्रेज़ों के पैर भारत में जम चुके थे पर वे हिंदु-मुस्लिम भाइचारे से अपना तख़्ता पलट जाने का ख़तरा महसूस करते थे। शायद इसीलिए अंग्रेज़ इस अफवाह को हवा देने लगे कि मुग़ल शहंशाह बाबर ने बाबरी मस्जिद का निर्माण रामजन्मभूमि मंदिर को तोड़कर किया था। आपसी तनाव के बावजूद हिंदु मस्जिद के प्रांगण में राम-चबूतरे पर पूजा करते रहे, जबकि मुसलमान मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ते रहे। इस समझौते का अंत 1949 में हुआ जब कुछ हिंदुओं ने मस्जिद में घुसपैठ कर राम-मूर्तियां रख दीं। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के. के. नय्यर ने दंगा-फसाद की आशंका जाहिर करते हुए मूर्तियों को वहां से हटाने से इनकार कर दिया। बाद में वे जनसंघ में शामिल हो गए और संसद सदस्य भी बने। मस्जिद को सील बंद कर मामला कोर्ट में दर्ज कर दिया गया। कोर्ट ने पुजारी नियुक्त किए और हिंदु मस्जिद के बाहर पूजा करने लगे। आज हिंदु कट्टरपंथी कसम खा रहे हैं कि कोर्ट का फैसला जो भी हो, वे मस्जिद की जगह एक भव्य मंदिर का निर्माण करेंगे। दुनिया भर से राम शिलाएं और चंदा इकट्ठा हो रहा है...”

...आगे विश्व हिंदु परिषद् का वीडियो आता है जिसे लोग खड़े बकरियों की तरह देख रहे हैं। स्थानीय वीडियो में अभिनय और फ़िल्ममेकिंग के जरिए छद्म-प्रचार दिखता है। इसमें भक्त रूपी एक व्यक्ति कहता है, “23 दिसंबर की रात मैंने देखा कि बाबरी मस्जिद में यकायक चांदनी सी फूटी... और उस तेज रोशनी में मैंने देखा... कि एक 4-5 साल का बेहद खूबसूरत लड़का (कृष्ण/राम) खड़ा है। जब बेहोशी टूटी तो मैंने देखा कि सदर दरवाजे का ताला टूटकर जमीन पर पड़ा था। सिंहासन पर बुत (मूर्ति) रखा हुआ था और लोग आरती उतार रहे थे...” ये कैसेट चल रही है और भी दावे हो रहे हैं कि दरअसल भगवान कब और कैसे जन्मे थे, व सामने भीड़ में खड़ा एक 16-17 साल का लड़का भावुक होकर रो रहा है।

अयोध्या और आसपास के मुस्लिम निवासियों में भय व्याप्त है। अवाकपन है। बाबरी में नमाज पढ़ने जाने वाले मूर्ति रखने की घटना के पीछे की साजिश बताते हैं। एक बुजुर्ग कहते हैं, “आज यतनी नफरत पैदा कर दी गई है कि ज़नाब हमारी सूरत से लोग बेज़ार हैं”। दंगों में आगे 2500 से ज्यादा लोगों की जानें जाती हैं। वे बुजुर्ग फ़िल्म के आखिर में बेहद विकल होकर बोलते हैं, “कल क्या होगा? कल ये होगा कि हमारी मौत होगी!” साथ खड़े मुस्लिम सज्जन बोल पड़ते हैं, “देखिए जयपुर को फूंक दिया, सारा भारत हमरा जल रहा है इसी एक प्रॉब्लम पे। पहले कोई सोच नहीं सकता था कि हमारे-आपके ताल्लुकात में कोई फर्क आएगा। लेकिन आज माहौल ऐसा कर दिया गया है कि हम एक-दूसरे से भय कर रहे हैं, डर रहे हैं। बोलते हुए घबराता है आदमी, बात करते हुए घबराता है, मिलते हुए घबराता है। ऐसी भावना खराब कर दी गई है इस हिंदुस्तान की कि साहब कोई जवाब ही नहीं मिलता है। परिक्रमा करने तो तमाम मुसलमान जाते थे शौकिया। कुछ यारी दोस्ती में। कि भैया क्या फर्क पड़ता है! परिक्रमा करने वालों को पानी पिलाते थे। ...धार्मिक मामला ऐसा होता है कि हम-तुम एक थाली में बैठकर खाएं। लेकिन जहां मामला आया बाबरी मस्जिद-राम मंदिर का, तुनक कर आप उधर खड़ी हो गईं, मैं इधर खड़ा हो गया। न आप बहन रही न मैं भाई रहा (महिला साक्षात्कारकर्ता को संबोधित करते हुए)”। वहां बैठे एक अन्य व्यक्ति कहते हैं कि उनके गांव में हिंदु-मुसलमान जैसी कोई बात नहीं है। वे कहते हैं, “मेरे यहां शादी होती है हम परसते हैं वो खाते हैं, उनके यहां होती है वो परसते हैं हम खाते हैं। अयोध्या के 10-15 किलोमीटर के दायरे में जितने गांव हैं वहां कोई दिक्कत नहीं है। जब तक बाहरी सांप्रदायिक तत्व नहीं आते सब ठीक है, वो आ जाएंगे तो झगड़ा होना ही होना है”।

आगे हम लालदास जी से मिलते हैं जो विवादास्पद रामजन्मभूमि मंदिर के कोर्ट नियुक्त पुजारी हैं। विश्व हिंदु परिषद् के मंदिर बनाने के कार्य पर कहते हैं, “ये तो एक राजनीतिक मुद्दा है। विश्व हिंदु परिषद् ने कार्यक्रम चलाया है, ... पर मंदिर तो बनाने के लिए कोई रोक नहीं थी। हमारे यहां ऐसा कोई विधान नहीं है कि भगवान को किसी अलग जगह हटाकर रखा जाए क्योंकि भगवान जहां विराजमान होते हैं हम उसे मंदिर ही मानते हैं। चाहे वो किसी मकान में रख दिए जाएं तब भी हम उसको मंदिर ही कहते हैं। फिर अलग से मंदिर बनाने का कोई औचित्य नहीं होता है। अलग से बनाया भी जाता है तो उस इमारत में जहां भगवान विराजमान हैं। हम उसको तोड़ना भी नहीं चाहते हैं। और जो लोग तोड़ना चाहते हैं वो इसलिए कि पूरे हिंदुस्तान में तनाव की स्थिति पैदा हो, और हिंदु मत हमारे पक्ष में हो। उनको ये चिंता नहीं है कि कितना बड़ा जनसंहार होगा, कितने लोग मारे जाएंगे, कितने कटेंगे, कितनी बर्बादियां होंगी। या जो मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में हिंदु रहते हैं उनकी क्या परिस्थिति होगी। हमारे देश के सामने तमाम ऐसी समस्याएं हैं। 1949 से आज तक किसी मुसलमान ने वहां कोई अवरोध नहीं पैदा किया। लेकिन जब इन्होंने ये नारा दिया कि ‘बाबर की संतानों से खून का बदला लेना है...’ तब पूरा देश जो है वो दंगाग्रस्त हो गया और कम से कम हजारों लोग इसमें मारे गए ...मौत के घाट उतार दिए गए। लेकिन तब भी इन लोगों ने ये जरा भी महसूस नहीं किया कि ये तनाव जो फैल रहा है, हिंदु-मुस्लिम की एकता जो हमारे देश में बनी हुई थी... तमाम मुस्लिम शासकों ने मंदिरों को जो जागीरें दीं ... आज जानकी घाट में माफीनामा मिला, हनुमान गढ़ी के बहुत से भाग मुसलमानों के बनाए हुए हैं, फकीरी रामजी का मंदिर मुसलमानों का माफीनामा है। ये तमाम जागीरें जो हैं, मुसलमान शासकों द्वारा मंदिरों में दी गईं। और अमीर अली और बाबा रामचरण दास के जो समझौते थे कि हम हिंदु और मुसलमान दोनों एक मिलकर के रहेंगे, उसी जन्मभूमि के हिस्से के दो भाग किए गए कि एक तरफ मुसलमान नमाज पढ़ेंगे, दूसरी तरफ हिंदु पूजा करेंगे। ये सारी बातें जो थी उस पर इन लोगों ने पानी फेर दिया”।

आगे राम के नाम पर क़त्ल-ए-आम करने को जगाए जा रहे ख़ौफ़नाक चेहरे खड़े दिखते हैं, ख़ौफ़नाक सोच नजर आती है। एक व्यक्ति तलवार लेकर खड़ा है। इलैक्ट्रिशियन है। साथ में भगवा वस्त्र धरे कई अन्य खड़े हैं। सब इतने आश्वस्त हैं जैसे उन्हें इतिहास की पूरी जानकारी है। वे जानते हैं वे क्या करने जा रहे हैं। जबकि उन्हें कोई अंदाजा भी नहीं है कि ‘मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंट’ क्या होता है। आज 2014 में भी नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी तक आते-आते इस मामले में तरक्की ज्यादा नहीं हुई है। खैर, फ़िल्मकार इन हथियार धारियों से पूछते हैं, रामजी का जन्म कब हुआ था? तो कोई जवाब नहीं दे पाता। वो तलवार लेकर खड़ा बिजली वाला भी नहीं। वो लॉ का फर्स्ट ईयर स्टूडेंट भी नहीं जिसके हाथ में भारतीय जनता पार्टी का झंडा है, और आंखों पर आधुनिकता की निशानी काला चश्मा है। कैमरा आगे बढ़ता है, एक बुजुर्ग से लगने वाले पुजारी से पूछते हैं, राम का जन्म कब हुआ था? उसे भी नहीं पता... बस इतना पता है कि हजारों साल पहले। कोई कहता है लाखों साल पहले तो उसकी बात काटकर कहता है, “नहीं-नहीं, हजारों साल पहले”। गाड़ी के अंदर से उतर रहे एक अन्य सीनियर पुजारी कहते हैं, “द्वापर युग में हुआ था”। सुनकर लगता है, क्या रक्तपात करने के लिए ये दो पंक्तियां काफी हैं? माहौल के अन्य दृश्य दिखते हैं। पेड़ों पर एक ही तरह के झंडे लगे हैं। देखकर लगता है, ये एक ही धर्म के लोगों का देश है।

इस दौरान जब ऊंची जातियों के लोग (सभी नहीं) मंडल आयोग के फैसलों से नाराज हैं, शोषित वर्गों में नई जागरूकता उभर रही है, ऐसा बताया जाता है। हम भवानीदेवी से मिलते हैं। वे गौमतीनगर में रहती हैं। सिलाई का काम करती हैं। उनकी कपड़े की दुकान है। पहली बार कैमरे के सामने बोलने की थोड़ी झिझक है, पर पवित्र भाव लिए कहती हैं, “मजूरी खेती-बाड़ी करते थे। खेती-बाड़ी करते थे उनकी जो मंदिर में बैठते हैं, पूजा करते हैं। काट-बीटकर करते थे तो वो खाते थे, लेकिन गल्ला आ जाता था तो कहते थे तुम अछूत हो, हमारे घर में कदम नहीं रखना है। उसके बाद हम लुटिया छूना चाहेंगे तो छूने नहीं देंगे। हमारे बुजुर्गों की भी यही हालत थी। इन्हीं लोगों ने, मंदिर के पुजारियों ने उन्हें सताया है”। आश्चर्य की बात ये होती है कि इस सामूहिक पागलपन के दौर में सिर्फ नीची जाति के, पिछड़े और वंचित तबके के लोग ही हैं जो भाइचारे की बात करते हैं। रथयात्रा जिस रास्ते से निकलने वाली है, उसके किनारे किसी गांव में कोई व्यक्ति खड़े हैं। पूछने पर कहते हैं, “न जाने मंदिर कब बना? जो 40 साल से है तो अब क्यों तोड़ दिया जाए! वो भी देवता है, वो भी देवता। मुस्लिम भाई नमाज पढ़े, वो पूजा करे। अब बिगाड़ने से कोई नहीं होने वाला है”। आनंद की आवाज पूछती है, आप कौन सी जाति से हैं? वह कहते हैं, “हम रैदास...” फिर रत्ती भर रूक कर कहते हैं, “चमार जिसको कहते हैं, वही हैं”। उन्हें सुनकर श्रद्धा पैदा होती है।

इसी तरह पटना में लोग इस सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुट हुए। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सम्मानित और समझदार नेता ए. बी. बर्धन मंच से बोल रहे हैं। सधी आवाज में, सही मुद्दों को उठाते हुए, रथयात्रा पर लगे कमल के राजनीतिक चिन्ह पर सवाल उठाते हुए। इस डॉक्युमेंट्री में सुनाई देने वाली एक और बेहद सुलझी हुई आवाज। वे रैली में आए अनेक लोगों को संबोधित करते हैं, जो आज भी कारगर है। लोग सुन रहे हैं, “अगले चुनाव में 88 से 188 कैसे हों, ये करने के लिए पूरे देश में बीजेपी का झंडा लहराते हुए वे घूम रहे हैं। मंदिर बनाएंगे और मस्जिद तोड़कर बनाएंगे! यही राम की मर्यादा है? माना कि ये उनकी अस्मिता का सवाल है। लेकिन कोई आडवाणी या कोई और कह दे कि अयोध्या का वो कौन सा कोना है जो राम की याद से पवित्र नहीं। बेशक अयोध्या में बनाएं, भव्य बनाएं मगर ये हठ न करें कि मस्जिद तोड़कर बनाएंगे। हम चाहे लाल झंडे वाले हैं या कोई और लेकिन एक धर्म की आस्था के लिए दूसरे धर्म की नहीं तोड़ सकते!”

यहां से हम दूसरे मंच की ओर बढ़ते हैं, जहां नारा लग रहा है “देशद्रोहियों सावधान, जाग उठा राम भगवान”। मंच पर प्रमोद महाजन, शत्रुघ्न सिन्हा, लालकृष्ण आडवाणी और गोपीनाथ मुंडे खड़े हैं। आज बेहद शांत, सौम्य, पाक़-साफ नजर आने वाले आडवाणी यहां गरजते हैं, “अदालत थोड़े ही तय करेगी कि रामलला का जन्म कहां हुआ था। आप तो बस रास्ते में मत आओ”। उन्हें सुनते हुए लगता है कि उन्होंने और उनके दल ने धर्म के नाम पर इतने वर्षों में लोगों को कितना बरगलाया है। इन गर्जनाओं का असर भी होता है। खबरों में देश में फैले तनाव की जानकारी मिलती है। एक अख़बार में शीर्षक होता है, “बंद के दौरान हिंसा में 30 मरे”। अलग-अलग बुलेटिन में सुनाई पड़ता है, “जयपुर में आर्मी बुलानी पड़ी। गुजरात में बीजेपी और वीएचपी के एक दिन के बंद में 8 लोग मारे गए। राजस्थान में 49 लोगों के मरने की ख़बर”।

एक दीवार पर नारा लिखा दिखता है, “30 अक्टूबर को अयोध्या चलो”। इससे उलट, कहीं, सड़क के किनारे खड़े तीन-चार ग्रामीण बातें कर रहे हैं। समाज के सबसे निचले तबके के हैं। अद्भुत बातें हैं। कह रहे हैं, “हम तो कहें कि फैसला हो। वो अपना मस्जिद बनाएं, हम अपना मंदिर बनाएं। कोई बिसेस बात नहीं। अब दोनों पक्षों में इतनी लड़ाई होगी, नुकसान ही होगा, फायदा कोई नहीं होगा। अब कहीं लड़ाई कोई हो तो पैसा लगे। इधर से पैसा, उधर से पैसा। किसी का कोई घाटा नहीं बस हम लोगों का घाटा है। चौराहे पर दुकान खोलें तो कोई एक पैसे का काम न हो। बस हमार लोगों का गल्ला सस्ता है और सब महंगाई है...”। फ़िल्मकार उन्हें टटोलता है कि क्या यहां भी दोनों संप्रदायों में झगड़ा होता है। वे कहते हैं, “हमरे यहां कोई ऐसी बात नहीं है। कभी झगड़ा नहीं हुआ। ये तो बाहर-बाहर का है सब...”। तभी फ्रेम में एक अन्य सज्जन आते हैं। आर्थिक रूप से थोड़े बेहतर लगते हैं। बोलते हैं, “ये सब बेकार की बातें हैं। अब मस्जिद तोड़ के मंदिर कैसे बने? अब बगल में बना लिया, ब कोई बात नहीं झगड़ा शांत करें। लेकिन अब एक उठाव (लड़ाई) वाली बात है”। आनंद पूछते हैं, आप हिंदु हैं कि कौन हैं? वे कहते हैं, “नहीं हम तो हिंदु हैं”। आनंद फिर पूछते हैं, तब भी आप सोचते हैं कि मस्जिद नहीं टूटनी चाहिए? वे कहते हैं, “बिलकुल। भई, अब हमारे मंदिर कोई तोड़े लागे तो कैसे बात जमे। अगर तुम्हें मस्जिद बनाना है तो अलग बना ल्यो। या जिसे भी लोगों को मंदिर बनाना है तो अलग बना ल्यें दूर, मस्जिद न तोड़ें। जिससे एक चीज बनी है तो तोड़ना नहीं चाहिए”। अन्य दो-तीन सज्जन पहले बात कर रहे थे वे विश्वकर्मा जाति से हैं। लौहार। आनंद पूछते हैं, तो आप लोगों में से ब्राह्मण-राजपूत तो कोई नहीं है? वे सज्जन कहते हैं, “नहीं ब्राह्मण कोई नहीं है। ब्राह्मण लोग तो चाहते हैं कि मस्जिद टूट के मंदिर बन जाए। सीधा मामला उनका यही है”।

एक और सुबह का सामना होता है। अयोध्या में। एक छत पर महंत भोलादास बैठे हैं। सरल, स्पष्ट, निष्कपट। बताते हैं कि 35 साल से एक मंदिर में पुजारी हैं। फ़िल्मकार पूछते हैं, ये जो हो रहा है उसके बारे में क्या सोचते हैं? भोलादास जी बताते हैं, “पहले तो बहुत बढ़िया अयोध्या था। कोई बवाल नहीं था, कोई प्रपंच नहीं था। भगवान की नगरी एकदम शांत स्वभाव था। अब तो बवाल ही बवाल, बवाल ही बवाल चलता है”। अगला सवाल होता है, यहां पे मंदिर बहुत सारे हैं न? वे कहते हैं, “बहुत सारे हैं। कोई 5000 थे पुराने जमाने में। अब घर-घर में लोगों ने बना लिए है”। फिर फ़िल्मकार पूछते हैं, मस्जिद भी बहुत हैं? वे बोलते हैं, “हां बहुत हैं। अंग्रेजों के जमाने में कई मुसलमान थे पर कोई बवाल नहीं था। एक जमींदार थे अच्छन मियां। ये अमावा कोठी है, ये सब मुसलमानों की ही थी। ये मणि पर्वत है जो कब्र ही कब्र है। वहां कोतवाली के पीछे मस्जिद भी हैं वहां। कब्र भी है। कोई बवाल नहीं था। कौनों प्रपंच नहीं था। ये तो रामजन्मभूमि के मुद्दे पे ही शुरू हुआ। वो नय्यर साहब रहे, तभी। पहले कहां बवाल रहे। ...अब भगवान जन्म लिया था, अभी ये नहीं मालूम कि ये घर में लिया था कि उस घर में लिया कि वहां पर लिया कि वहां पर लिया। भगवान अयोध्या में जनम लिया। अब ये कैसे कहो कि उस मस्जिद में ही जनम लिया?” उनकी बातें भी कुछ राहत देती हैं।

फिर लालदास जी पर लौटते हैं। वे कह रहे हैं, “आज तक जो पूरे हिंदुस्तान में दंगे फैलाए गए, कुर्सी और पैसे के लिए फैलाए गए, न कि रामजन्मभूमि के लिए। मैं रामजन्मभूमि मंदिर का पुजारी हूं और बिलकुल सत्य कह रहा हूं कि आज तक विश्व हिंदु परिषद् के लोगों ने वहां पर एक माला भी नहीं चढ़ाई है। भगवान की पूजा-अर्चना तक नहीं करवाई है। बल्कि उन्होंने व्यवधान डाला है। हमने हाईकोर्ट में रिट डाला और उससे भोग की व्यवस्था चालू करवाई। तो यहां के जनमानस ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया। लेकिन कुछ किराए के साधु जिनको पैसा चाहिए, पैसे पर खरीदे गए। राम शिलाएं घुमाई गईं। उन रामशिलाओं को उन्होंने अपना कमरा अपना मकान बनाना शुरू कर दिया। काफी जनभावनाओं को उन्होंने दोहन करके और बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें तैयार कर लीं। करोड़ों-अरबों रुपया इन लोगों ने इकट्ठा किया। विभिन्न बैंकों में डाला। तो लोगों की हत्याएं हो जाएं, लोग नष्ट हो जाएं, इससे इनको कोई मतलब नहीं। इनको मतलब पैसा मिले, कुर्सी मिले। यहां जो लोग हिंदु राष्ट्र की बात करते हैं, राम के नाम पर तनाव फैलाते हैं, हिंसा करते हैं, ये सभी ऊंची जाति के लोग हैं और सब के सब सुविधाभोगी हैं। इनमें त्याग और तपस्या और जनमानस का हित लेशमात्र नहीं है। ये केवल धार्मिक भावनाओं को उभार करके और केवल स्वयं को सुख-सुविधा किए हुए हैं। ये जनहित की बात कर ही नहीं सकते हैं। लेकिन आज बड़े-बड़े मठ हैं, करोड़ों-अरबों की संपत्ति उसमें है। और हम पैदल छोड़कर के एयरमेल से चलते हैं। फर्स्ट क्लास की टिकट पर चलते हैं। एयर कंडीशन के कमरे में रहते हैं। तो जहां पर हम एक तरफ भौतिकवादी व्यवस्था से अलग होकर के त्याग, तपस्या और जनहित की बात सोचते थे, उस जगह हम उसको त्यागकर पूरी तरह भौतिकवादी व्यवस्था में लिप्त हो चुके हैं तो हम भौतिकवाद की ही बात सोचेंगे। उससे परे हट नहीं सकते हैं। ...ये आज के धर्माचार्यों को आप क्या कहेंगे? मैं तो भौतिकवादी व्यवस्था का पोषक मानता हूं इन्हें। ये जो पूंजीपति कहते हैं कि हिंदु धर्म की रक्षा, हिंदु धर्म की रक्षा। अशोक सिंघल जो आज ये बात कह रहे हैं कि हम बहुत बड़े राम के भक्त हैं। क्या राम का यही आदर्श है कि 90 परसेंट लोग भूखों मरें? अगर आप बड़े पूंजीपति हैं, आपके पास पैसा है, आपके (धर्माचार्यों के) कहने में एक पूंजीपति समुदाय देश का है तो उनसे पैसा लेकर के गरीबों में लगाइए आप। जैसे मदर टैरेसा कर रही है”।

विषय जब बाहर से आ रहे चंदे और धन की राह लेता है तो हम इनकम टैक्स के डिप्टी कमिश्नर विश्व बंधु गुप्ता से मिलते हैं जिन्होंने तब विश्व हिंदु परिषद् के अकाउंट टटोलकर समन जारी किए थे। अशोक सिंघल को भी। वे बताते हैं कि ऐसा करने के 24 घंटे में वीएचपी का बड़ा प्रदर्शन प्रधानमंत्री आवास के बाहर किया गया। उसी दिन उनका मद्रास तबादला कर दिया गया। तब जो सरकार थी उसने उस जांच को दबा दिया। फिर उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। बताते हैं कि अशोक सिंघल ने कभी अपने इनकम टैक्स रिटर्न के काग़ज नहीं दिए। परिषद् के नेताओं का आपस में झगड़ा भी हुआ कि 1 करोड़ 66 लाख का जो पैसा आया वो बोगस था, उसमें लोग पैसा खा गए।

6 दिसंबर 1992 को आतंकियों ने बाबरी ढहा दी। दंगों ने पूरे देश को जकड़ लिया। हजारों मार दिए गए। वो स्टिंग ऑपरेशन तो हाल ही में आया है जिसमें बताया गया कि बाबरी विध्वंस पूर्व-नियोजित था। लेकिन इस डॉक्युमेंट्री को देखते हुए ये बात पहले ही साफ हो जाती है। सोमवार 7 अप्रैल, 2014 को यानी आज भारतीय जनता पार्टी ने फिर से अपने चुनावी घोषणापत्र में अयोध्या में इसी स्थान पर राम मंदिर बनाने का वायदा किया है। 23-24 साल पहले देश को कसाईबाड़ा बनाया गया था, वो ख़ौफ़ फिर लौट रहा है। अफसोस इस बात का है कि बहुत से लोगों ने पहले से कोई सबक नहीं लिया है। आज पहली बार वोट देने लायक हुए युवाओं में बहुत से ऐसे हैं जो उसी भाषा में बात कर रहे हैं जो नफरत भरी है। बहुत सोचने और बहुत विचारने का वक्त आ चुका है। एक गलत फैसला सभी पर बहुत भारी पड़ सकता है। सड़कें बनाने और कॉरपोरेट इमारतें खड़ी कर देने को विकास की संज्ञा नहीं दी जा सकती, ये बात समझने की जरूरत है। धार्मिक सौहार्द से समझौता किसी भी कीमत पर नहीं किया जा सकता। आज जब मीडिया 2002 के गुजरात पर बात करना बंद कर चुका है, 1992 के अयोध्या पर बात करना बंद कर चुका है, आनंद पटवर्धन व उनके साथियों की ये डॉक्युमेंट्री फ़िल्म हमारे बीच मौजूद है और अनेक वर्षों से इन बेहद गंभीर प्रश्नों को लेकर अटल खड़ी है। इसे देखने, बांटने और इससे अपनी नई समझ बनाने की जरूरत है।

आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी जहां कमजोर राजनीतिक दृष्टि के साथ चीजों को देख रही है, तो फ़िल्म से भवानी देवी याद आती हैं। उनका कहा हमारी बातों का समापन हो सकता है। वे कहती हैं, “मंदिर के अंदर हमें जाने ही नहीं दिया जाता है तो मंदिर से हमें क्या लाभ है? मंदिर की मूर्ति एक बार पिस जाए तो दोबारा मसाले से काढ़ करके बना सकते हैं लेकिन हमारी जनता कट जाए तो हम किसी प्रकार का मसाला उसमें नहीं लगा सकते। देखिए हमारी बस्ती बहुत से लोगों की जन्मभूमि हुई है उनको यहां से निकाला जा रहा है। अभी यही गांव में करीब-करीब 150 बस्ती है, उनका निकाला जा रहा है और ये केवल इसलिए कि राम है। उनकी भूमि के लिए लोग कितना परेशान हैं और संख्या भी उसके पीछे दौड़ रही है। अब देखिए, मैं क्यों दौड़ूं?”

“In The Name Of God” - Watch the documentary here:


This documentary focuses on the campaign waged by the militant Vishwa Hindu Parishad (VHP) to destroy a 16th century mosque in Ayodhya said to have been built by Babar, the first Mughal Emperor of India. The VHP claim the mosque was built at the birthsite of the Hindu god Ram after Babar razed an existing Ram temple. They are determined to build a new temple to Ram on the same site. This controversial issue, which successive governments have refused to resolve, has led to religious riots which have cost thousands their lives, culminating in the mosque's destruction by the Hindus in December of 1992. The resulting religious violence immediately spread throughout India and Pakistan leaving more than 5,000 dead, and causing thousands of Indian Muslims to flee their homes. Filmed prior to the mosque's demolition, “In The Name Of God” examines the motivations which would ultimately lead to the drastic actions of the Hindu militants, as well as the efforts of secular Indians - many of whom are Hindus - to combat the religious intolerance and hatred that has seized India in the name of God.

Users can contact Anand Patwardhan at anandpat@gmail.com for the DVDs. You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings and activities.

Thursday, February 27, 2014

Peter Wintonick’s last and unfinished documentary BE HERE NOW: (Interview) Mira Burt-Wintonick on finishing it, on her legendary father & his Utopia

Peter Wintonick 1953-2013
I’ve always loved film and images. I continually watch important works in the history of cinema. Films from Fellini, Chaplin, Donald Brittain, Robert Frank. My mentor, Emile de Antonio, was the godfather of political documentary. A man born to fight, he was the only filmmaker to be put on President Nixon’s Enemies List. If there were ever such a thing as a radical army, de Antonio would have been the progressive general leading the alternative media shock troops into a war against oppression. His war was for independent and free expression. Which brings me to Werner Herzog. Any of Herzog’s 30-odd documentaries would uniquely define the documentary art form. Herzog said: “Perhaps I seek certain utopian things, space for human honour and respect, landscapes not yet offended, planets that do not exist yet, dreamed landscapes. Very few people seek these images today. ”He once told me, “The world is just not made for filmmaking. You have to know that every time you make a film you must be prepared to wrestle it away from the Devil himself. But carry on, dammit! Ignite the fire.”
- Peter Wintonick, In 'Point Of View magzine', 2007

He was a rare man, of the kinds I regret not meeting. For thousands or perhaps millions of documentary makers, thinkers, educationists, activists, journalists and young breed around the world his 1992 documentary “Manufacturing Consent: Noam Chomsky and the Media”, co-directed by another great Mark Achbar, is easily the most powerful reference point of how they see the world today; or how one should see societies, politics, entertainment, civilization and media in these increasingly blurred and manipulated times. It is among the greatest documentaries of all time. He explored this subject in many of his docs. In 1994 came “Toward a Vision of a Future Society “, “Noam Chomsky: Personal Influences”, “Holocaust Denial vs. Freedom of Speech”, “Concision: No Time for New Ideas”, “A Propaganda Model of the Media Plus Exploring Alternative Media” and “A Case Study: Cambodia and East Timor”, all shorts, made by him. There are two other greats that he directed. “Cinéma Vérité: Defining the Moment” released in 1999. It was about the Cinéma Vérité (direct cinema) movement of the '50s and ' 60s which was driven by a group of rebel filmmakers (Jean Rouch, Frederick Wiseman, Barbara Kopple and others) that changed movie-making forever. “Seeing Is Believing: Handicams, Human Rights and the News” came in 2002 which was a remarkable document and extremely dangerous shoot for him.

Peter Wintonick dedicated his entire life to the film medium. Literally, he lived for it. Going to film festivals and helping the filmmakers was all he was seen doing. In China, more than a decade ago, he was one of the first people to support the movement towards independent director-producers. He strove hard to ensure that movies like “Last Train Home” or “China Heavyweight” were produced and widely distributed. He gave advice and encouragement, brought people together and also contributed greatly as a co-producer. He travelled to Indonesia and Burma to see the creation of the first documentary associations there, and to provide them with advice. He came back with projects and lists of emerging talents. In a true sense he was a documentary Guru.

On the morning of November 18, 2013 he passed away quietly and happily. Peter was diagnosed with cancer. As soon as he came to know this he started planning his last film that would reflect on his work, his influence and the philosophy he lived by – “Be Here Now.” His daughter Mira Burt-Wintonick is now completing and directing the film. She co-directed “PilgrIMAGE” with him in 2009, a documentary about documentary filmmaking. She lives in Montreal, Canada. About “Be Here Now” she says that over the past two decades, Peter had been obsessed with Utopia. He shot hours and hours of footage as he journeyed around the world on his quest. She would sometimes ask him why he was travelling in search of something that doesn’t exist. He’d reply that “Utopias place pictures of possible worlds in our minds.” He devoted his life to the idea of a possible world, of a better world, and he believed that documentaries were key in helping us make that world a reality.

This project needs a little nudge to be completed. So please contribute in your capacity and share it with others. It is our honour to be part of Peter’s better world. I’m sure we won’t get another chance.

Watch “Be Here Now” Trailer:
  

I talked to Mira about her father, his ideas, his personality, UTOPIA and much more.
Read on:

What is the meaning of your name Mira? Did your father name you after the Indian mystic poet and devotee of Krishna, 'Mira/Mirabaai'?
My parents named me Mira because Mir means Peace in Russian and they are both strong believers in peace and social justice. Peter also liked that Mirabaai was a musical devotee of Krishna, and music and poetry were very important to him. Mira also means ‘look’ in Spanish, and Peter was always looking, observing the world.

What do you do? Tell us about your life and professional journey so far.
I’m a radio producer at CBC, Canada’s national public broadcaster. I produce a show called WireTap, which is a playful and poetic radio show, mixing fictional and documentary storytelling. It’s a fun, challenging job. I studied film and sound production from Concordia University, but have been working primarily in radio for the past 9 years.

Given the gender bias and atrocities against women across civilizations over the centuries, there are very few human beings who know how to raise a child (esp. girl child) in a needful way, so that the next generation become more equal, kind, giving, vocal and correct. Peter was one of those human beings. How did he raise you?
My parents are both feminists, so they always raised me to not be satisfied with anything less than complete equality and respect. Peter understood that human beings are defined by what is in their head and their heart so he encouraged me to develop my intellect and compassion. He always had high expectations of me and encouraged me to dream big. I believe he treated me exactly the way he would have treated me had I been a son.

What were the things that made him such a wonderful human being? That changed the course of his life? How did he know so much about society, world, future, development models, governments, people, history, truths and lies?
Peter was a voracious reader. He was always, always reading. He had a huge appetite for learning, even from a young age, according to his mother, Norma. His intelligence made him a bit of a rebel at school. He was always questioning authority and making sure that he fundamentally agreed with any rules that he was expected to follow, otherwise he rejected them. He was a critical thinker and never took anything at face value, but always dug deeper, to get at the Hows and Whys.

Peter and Mira while making PilgrIMAGE.
If you can share what his childhood was like, it’ll be fulfilling.
When he was young, Peter’s father gave him his first 8mm camera, which he used to make short films as a child. He also started a newspaper at his school where he’d publish poetry and satirical essays. My grandmother says he had a very quick sense of humour, even as a child. His father died when Peter was only 9, and I believe that inspired him to make the most of each day, because life is short.

How did your parents meet and their story take place? What were the most learning things about their relationship?
My parents met at a film production company, in 1976. My mum, Christine, was working on one floor and Peter on another, but the coffee machine was right in front of my mum’s desk so the upstairs people would come down and mingle in front of her workspace. My mum was part of a group of women activists who protested in various ways, including a clandestine stickering campaign targeting sexist ads. Peter thought that was just the kind of woman for him. They both had an avid curiosity about the world and how it works, and bonded through intellectual discussion and a shared love of art. They are both very unique individuals and had a somewhat unconventional relationship, fostering each other’s independence and personal development. They never married until a few days before Peter died.

Whenever I think of him, I feel bad for not meeting him, ever. Do you miss him and for what reasons?
Yes, of course I miss him very much. His laughter, his perspective on life… but I feel like his spirit is still alive within everyone who knew him, so I take comfort in that.

What is Peter Wintonick's "Utopia?" Why did he have such a conviction in this idea?
Peter didn’t believe in a specific, perfect place, but he believed that imagining Utopia was itself a worthy pursuit. He said that “Utopias place pictures of possible worlds in our minds”, and I think that what he meant by that is that it’s important to carry around that picture of how things could be better as a reminder not to be satisfied with the way things are. The idea of Utopia is a reminder that any injustices in our society are unnecessary, and that we can and should do better.

In 2009, you co-directed “PilgrIMAGE” with him. Can you tell us his process of filmmaking?
Peter travelled much of the year to various film festivals and such, so making PilgrIMAGE was a way for us to travel together for a change, to spend time together. During the shoot, he was very spontaneous and determined. We even got kicked out of a couple locations because we didn’t have a permit to shoot, but Peter kept on rolling, refusing to let anyone stop him from making the film he wanted to make. Although he was a workaholic, he also believed in enjoying the process and not taking anything too seriously, so much of our trip was spent exploring and having fun.

What is your Peter Wintonick favourite? “Manufacturing Consent” (1992), “Cinema Verite” (1999) or “Seeing is Believing” (2002)?
I think Manufacturing Consent is absolutely brilliant. I was only 6 when it was released and I would accompany my parents to the screenings and feel very confused as to why all these people were interested in watching this boring old man talk on screen for over 2 hours. I make a brief appearance in the film, about 30 minutes in, so I’d always watch until that point and then take a nap. But as I got older, I started to appreciate Chomsky’s ideas, as well as the very creative ways that they are expressed in the film. It’s really quite impressive how they visually portray some very complex and academic thinking. Peter was very adept at that kind of thing.

Please tell us something about "Be Here Now." What is the project about? What kind of response are you getting so far?
Be Here Now is the film Peter started planning shortly before he died. It was to be a portrait of his life and his obsession with Utopia. Of course, the film won’t be the same without him, but will instead become a sort of tribute to Peter and his search for a better world. For the past 15 years or so, Peter had been collecting footage of different Utopian societies and ideals around the world, so the film will draw on that footage in order to paint a portrait of him. The film has been getting a great deal of support. We are in the middle of a fundraising campaign and the response has been overwhelmingly positive. Peter had so many friends around the world and they’ve all been reaching out to offer their encouragement, which has really meant a lot to me. It’s a bit of a daunting project, to complete someone’s dying wish and to paint a portrait of such a talented man, but with the support of the documentary filmmaking community, and EyeSteelFilm who are producing the project, I feel confident that we’ll make it something really special.

Peter once said, "We are very naive documentary filmmakers. When we start to step on toes of the powerful, we think that the powerful won't bite back. But the reason people have powers, because they do address the power, use the power, abuse the power, can smash the lens of documentary filmmaker." Did he or your family feel afraid at any point in time because of the docs he made, which exposed the mighty in big way? How did he deal with his fears of any kind?
Peter was very passionate about social justice and didn’t let fear of retaliation stand in his way. One of his films which perhaps was the most “dangerous” in that sense, though, was “Seeing is Believing”, which he co-directed with Katerina Cizek. During the shoot, they always considered themselves incredibly privileged and tried to keep their fears in check, understanding that they were small in comparison with the very real threats and dangers that the human rights activists portrayed in the film faced every day. For example, the sugar cane companies in the Philippines, where much of the film takes place, were a serious and deadly threat, so much so that the Nakamata Tribe Peter and Katerina were working with, actually posted body guards outside their jungle huts all night. But Katerina says that Peter dealt with any frightening situations with grace and humour. “He always found a way to laugh about it, and keep humble.”

How did your father inspire you?
Broadly speaking, the way Peter devoted himself to his creative endeavours was very inspiring.

What were his thoughts on India, or the documentaries made here?
He loved India and had many friends there. I don’t know how he felt in particular about the film scene there, but he visited often.

How do you wish to take his legacy forward?
He left such an incredible legacy through the films he made and the people he touched that he is sure to be remembered for a long time to come. I can only hope that “Be Here Now” is an adequate tribute and perhaps paints a more personal portrait of him for those who didn’t have the pleasure of meeting him.

He invested in the next generation in a big way. Now when he’s gone, are you contacted by those students of his? What do they share?
Yes, I’ve received many letters and emails from people around the world that Peter inspired personally or that were moved through his work. One email stands out in particular is from a filmmaker in the UK who said that “seeing Manufacturing Consent back when they were in University stuck such a cord with them that they stole the VHS from the school library”. I love hearing stories like that, and knowing how many people Peter reached during his lifetime. It helps make the loss a little easier.

His teachings to you and us all?
To live each moment to the fullest. To never stop dreaming of a better world, and to embrace our responsibility in bringing that world about.

His philosophy in life?
Be Here Now. And have fun.

Reason behind his cool and happiness?
He knew not to take things too seriously.

What turned him on?
Art, laughter, social justice.

What turned him off?
Inequality.

His thoughts on food?
He had a very healthy appetite.

His lifestyle?
Nomadic.

His thoughts on mainstream media?
He knew how to enjoy the occasional Hollywood film, but believed that documentaries were better than fiction.

His most frequent word/line?
Fantastic! Peter thought everything was fantastic and lit up so easily, exclaiming at the wonders of the world.

His ultimate/last wish in life?
To leave the world a better place than he found it, and he did.

His most favourite documentary filmmaker/filmmakers around the world?
He had too many favourites. He loved the creativity of young filmmakers. "Darwin’s Nightmare", by Hubert Sauper was one of his favourites.

His favourite movies?
"Citizen Kane" was one of his all time favourites. He also loved Fellini and Charlie Chaplin.

His favourite quote?
“Live simply, so that others may simply live" - Gandhi.

People he was most impressed with/His idols?
Gandhi, Mandela, Van Gogh, and all activists.

Memories from his last days that stuck?
He became a ball of pure light and love during his final days. He never complained about his suffering and greeted everyone with a big, bright smile. On one of the final nights before he died, he and my mum and I had a dance party around his hotel bed and I will never forget the peaceful joy of that moment.

Here is something worth reading about Peter and his last days...


पीटर विंटोनिक हजारों के प्रेरणास्त्रोत और विश्व के महान डॉक्युमेंट्री फ़िल्मकारों में से थे। वे मॉट्रियल, कैनेडा में रहते थे। नवंबर, 2013 में उनका कैंसर की बीमारी की वजह से निधन हो गया। वे खुशियां बांटते हुए ही गए। डॉक्युमेंट्री फिल्मों और एक आदर्श समाज के लिए उनका जज़्बा, प्रेम और प्रयास अतुलनीय थे। मार्क एकबार के साथ 1992 में आई उनकी डॉक्युमेंट्री “मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंटः नोम चोम्सकी एंड द मीडिया” ने अभूतपूर्ण ख़्याति, पुरस्कार और दर्जा हासिल किया। इसे विश्व की सर्वकालिक फिल्मों में शामिल किया जाता है। “सिनेमा वैरिते” और “सीईंग इज़ बीलिविंगः ह्यूमन राइट्स एंड द न्यूज” उनकी दो अन्य बेहतरीन फ़िल्में रहीं। मृत्यु से कुछ वक्त पहले उन्हें अपनी बीमारी का पता चला और इसके तुरंत बाद वे अपनी आखिरी फ़िल्म को बनाने में जुट गए। इसका नाम “बी हियर नाओ” रखा गया जो बेहतर समाज की रचना करने वालों के तुरंत साथ आ जुटने का आह्वाहन है। अब उनके जाने के बाद उनकी बेटी मीरा बर्ट-विंटोनिक उनकी इस फ़िल्म को पूरा करने में जुटी हैं। मीरा स्वयं पीटर के साथ 2009 में एक फ़िल्म “पिलग्रिमेज” की सह-निर्देशक रह चुकी हैं। मैंने हाल ही में मीरा से संवाद स्थापित किया। पीटर और उनके जीवन के बारे में इसके जरिए प्रेरणादायक विषय-वस्तु सामने आई। उनकी इस फ़िल्म को अपना सहयोग देने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं। 
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Thursday, February 13, 2014

मानो मत, जानोः “रब्बा हुण की करिये” ...बंटवारे की टीस

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Thus Departed Our Neighbours (2007), by Ajay Bhardwaj.

लाल सिंह दिल नजर आते हैं, शुरू में। पहली डॉक्युमेंट्री में वे इस्लाम के प्रति अपने अनूठे नेह और दलितों के साथ मुस्लिमों को भी सदियों के व्यवस्थागत-सामाजिक शोषण का पीड़ित बताते हैं। यहां उनकी संक्षिप्त झलक मिलती है। वे उर्दू की बात करते हैं। तेजी से दौड़ता और फिर लौटकर न आने वाला दृश्य उनका कहा सिर्फ इतना ही सुनने देता है, “...पंजाबी दी ओ तु पख्ख है। उर्दू, अरबी-पंजाबी नाळ इ मिळके बणया है। ओ अपणी लैंगवेज है। आप्पां अपणे पांडे बार सिट सिरदे हैं, वी साड्डे नी है साड्डे नी है। हैं साड्डे...। (उर्दू पंजाबी का ही तो हिस्सा है। ये अरबी और पंजाबी से ही तो मिलकर बनी है। ये हमारी ही भाषा है। हम अपने ही असर को बाहर फेंक रहे हैं कि ...हमारे नहीं हैं... ये हमारी ही है।)”

Pro. Karam Singh ji, in a still.
फिर इस डॉक्युमेंट्री के सबसे अहम पात्र प्रो. करम सिंह चौहान आते हैं जो बठिंडा, पंजाब से हैं। वे मुझे देश के सबसे आदर्श व्यक्तियों में से लगते हैं। जैसे हम में से बहुतों ने अपने गांवों में देखें होंगे। मख़मली ज़बान वाले, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, बेहद सहनशील, अनुभवों से समृद्ध, हर किसी के लिए रब से प्रार्थना करने वाले, समाज की समग्र भलाई की बात कहने वाले और उन्हें तक माफ कर देने वाले जो बंटवारे के क़ातिल थे। सिर्फ ‘रब्बा हुण की करिये’ की ही नहीं, अजय भारद्वाज की तीनों डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों की बड़ी ख़ासियत, ऐसे पात्र हैं। हर फ़िल्म में ऐसे एक-दो, एक-दो लोग हैं जिन्हें कैमरे पर लाना उपलब्धि है। इन सलवटी चेहरों के एक-एक शब्द को सुनते हुए कलेजा ठंडा होता है, मौजूदा दौर की बदहवासी जाती है, समाजी पागलपन का नशा टूटता है और समाज का सही पर्याय दिखता है। अगले 10-15 साल बाद ऐसे विरले बुजुर्ग सिर्फ दंतकथाओं में होंगे। मैं सिर्फ करम सिंह जी को सुनने के लिए ‘रब्बा हुण की करिये’ को पूरी उम्र देख सकता हूं। वे हमें तमाम तरह की अकड़ की जकड़ से निकालते हैं। उन जैसे लोग हमारे लिए मानवता का संदर्भ बिंदु हैं।

करम सिंह जी उर्दू के बारे में बात जारी रखते हुए पंजाब के मानसा जिले की बात करते हैं, “कुछ महीने बाद (विभाजन के) मैं मानसा के रेलवे स्टेशन गया। वहां जाकर क्या देखा, कि वहां जो उर्दू में मानसा लिखा हुआ था, वो नाबूद था। बड़ा दुख हुआ। मैंने सोचा, इन्होंने तो जिन्ना साहब को सच्चा कर दिया, जिन्होंने कहा था कि हम आप लोगों के साथ क्या रहें, आप तो हमारी भाषा को भी नहीं रहने देंगे”। अगले दृश्य में उधम सिंह का 1940 में लिखा ख़त पढ़ा जा रहा है। पास ही में पहली फ़िल्म के पात्र बाबा भगत सिंह बिल्गा बैठे हैं। जिक्र हो रहा है कि ख़त में कैसे उधम सिंह ने अपने लंदन में ब्रिक्सटन जेल के अधिकारी से कहा कि उनका नाम न बदला जाए जो मोहम्मद सिंह आजाद है। बिल्गा बताते हैं कि उधम को जेल में हीर पढ़ना बहुत पसंद था और खासकर हीर व क़ाज़ी के संवाद। फिर हम जालंधर के लोकप्रिय गायक पूरण शाहकोटी की आवाज सुनते हैं जिन्होंने अपने गांव शाहकोट के नाम को अपना नाम बना लिया। वे हीर गा रहे हैं। कहते हैं कि वारिस की हीर और सूफीयत से पंजाब का गहरा ताल्लुक है और आज भी दोनों पंजाबों का सभ्याचार एक ही है। मसलन, हीर। जो एक ही तरह से गाई जाती है। आप सरहद के किसी ओर वाले पंजाब में इसे सुनकर फर्क नहीं बता सकते। पूरण शाहकोटी नकोदर दरबार के अपने मुर्शिद (गुरू/स्वामी) बाबा लाडी शाह, बाबा मुराद शाह का जिक्र करते हैं, जिनके लिए गाने पर उन्हें तसव्वुर मिलता है। यानी सवाल खड़ा होता है कि आपने किसको अलग कर दिया? क्या आप वाकई में अलग कर पाए? क्योंकि ये तो उन्हें आज भी अपना ही मानते हैं। खैर, हम उनसे हीर का अनूठा हिस्सा सुनते हैं। वो हिस्सा जब हीर अपनी मां को गाते हुए पूछती है, “...दो रोट्टियां इक गंडणा नी मा ए, पाली रखणा कि ना ए”। सुनकर नतमस्तक होते हैं। हीर के मायने बड़े गहरे हैं जो सामाजिक टैबू, सांप्रदायिकता और बैर का विरोध करने वाली अजर-अमर छवि है। जैसे मीरा अपने वक्त में थीं। वो अपनी मां से कहती है कि वो बस दो रोटियां और एक प्याज लेगा, इतनी तनख़्वाह में ही उसे अपने जानवर चराने के लिए पाली रख ले मां। (किसी भी तरह से वो रांझे के करीब होना चाहती है)। वाकई तसव्वुर होता है।

इसके बाद करम सिंह जी रात के अंधियारे में बात करना शुरू करते हैं। वे शुरू करते हैं तुलसीदास जी की पंक्ति से, “पैली बणी प्रारब्ध, पाछे बणा शरीर...” यानी पहले आपकी नियति बनी थी, उसके बाद शरीर बना। वे बताते हैं कि उनके गांव में कोई स्कूल नहीं था, कोई पढ़ने का उपाय नहीं था, दो कोस दूर स्कूल था। फिर लुधियाना से करम इलाही नाम के एक पटवारी तबादला होकर उनके गांव आए। उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी, पर उनके कोई बच्चा नहीं था। उनका नाम शम्स-उल-निसा बेग़म चुग़ताई था। उन्होंने उन्हें करमिया कहकर बुलाना, पढ़ाना और स्नेह देना शुरू किया। उन्हीं की बदौलत वे पढ़ पाए। बाद में उन्होंने लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज से 1947 में फ़ारसी में एम.ए. की। करम सिंह द्रवित हो कहते हैं, “बीब्बी जी ने मैनूं बड़ा ही मोह दीत्ता, मिसेज करम इलाही पटवारी ने। मैनूं पार्टिशन दा ए बड़ा दुख औन्दा ए। वी मैं एहे जे बंदेया कौळों बिछोड़या गया”।

फिर हम हनीफ मोहम्मद से मिलते हैं। वे अटालां गांव के हैं जो समराला-खन्ना रोड पर स्थित है। अहमदगढ़ के जसविंदर सिंह धालीवाल हैं। ये दोनों विभाजन के वक्त के क़त्ल-ए-आम के चश्मदीद रहे हैं। हनीफ बच्चे थे और उन्होंने वो वक्त भी देखा जब उनके गांव की गली में पैर रखने को जगह नहीं बची थी, बस चारों ओर लाशें और ख़ून था। जसविंदर ने अपनी छत से खड़े होकर सामने से गुजरते शरणार्थियों के काफिले देखे। क़त्ल होते देखे। वो दौर जब मांओं ने अपनी जान बचाने के लिए अपने बच्चे पीछे छोड़ दिए। करम सिंह जी भी उस दौर के नरसंहार के किस्से बताते हैं। ये भी मालूम चलता है कि, वो लोग जिन्होंने निर्दोषों की बेदर्दी से जान ली और बाद में अपनी क़ौम से शाबाशियां पाईं, बहुत बुरी मौत मरे। तड़प-तड़प कर, धीरे-धीरे।

विभाजन के दौर की ये सीधी कहानियां हैं जो इतनी करीब से पहले नहीं सुनाई गईं। ‘उठ गए गवांडो यार, रब्बा हुण की करिये...” वो पंक्ति है जो बींध जाती है। आप पश्चिमी पंजाब के आज के लोगों के मन में तब सरहद खींच उधर कर दिए गए पड़ोसियों, दोस्तों के लिए अपार प्रेम देखते हैं। ये गीत रातों को और स्याह बनाता है, मन करता है बस सुनते रहें। कि, उन्हें याद करने को और रब से शिकायत करने को, मुझसे कोई नहीं छीन सकता।

डॉक्युमेंट्री के आखिर में करम सिंह जी जो कहते हैं, वो हमारी सामूहिक प्रार्थना है। 1947 की मानवीय त्रासदी के प्रति। बर्बरता से, नृशंसता से मार दिए गए दूसरी क़ौम के हमारे ही भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों से क्षमा-याचना है। उनकी रूहों की शांति के लिए। जिन्होंने क्रूरता की हदें पार की, उनके लिए भी। उनकी रूहों को भी नेक रास्ते लाने के लिए। वे क़लमा पढ़ते हैं, हम भी...

“ मज़लूमों, थोड्डा
थोड्डा
इल्ज़ाना देण वाला
अल्ला-पाक़ ए
रहमान-ओ-रहीम ए
ओस ने थोड्डा
होया नुकसान
थ्वानूं देणा ए
ते मैं दुआ करदा हां,
परमात्मा थ्वानूं जन्नत बख़्शे
ओन्ना मूर्खा नूं
ओन्ना पूलयां नूं वी
रब्ब
ओन्ना दीयां रूहां नूं
किसे पले रा पावे
किसे नेक रा पावे
ओन्ना उत्ते तेरी मेहरबानी होवे
इनसान आख़िर नूं
तेरा इ रूप ए
तेरा इ बंदा ए
इनसान ने इनसान उत्ते कहर करेया
जिदे उत्ते इनसान सदा रौंदा रहू
जेड़ा इनसानियत नूं समझदा ए
या अल्ला
तेरी मेहर…”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Thus Departed Our Neighbors” - Watch an extended trailer here:


While India won her independence from the British rule in 1947, the north western province of Punjab was divided into two. The Muslim majority areas of West Punjab became part of Pakistan, and the Hindu and Sikh majority areas of East Punjab remained with, the now divided, India. The truncated Punjab bore scars of large-scale killings as each was being cleansed of their minorities. Sixty years on, ‘Rabba Hun Kee Kariye’ trails this shared history divided by the knife. Located in the Indian Punjab where people fondly remember the bonding with their Muslim neighbours and vividly recall its betrayal. It excavates how the personal and informal negotiated with the organised violence of genocide. In village after village, people recount what life had in store for those who participated in the killings and looting. Periodically, the accumulated guilt of a witness or a bystander, surfaces, sometimes discernible in their subconscious, other times visible in the film. Without rancour and with great pain a generation unburdens its heart, hoping this never happens again.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Wednesday, July 17, 2013

मानो मत, जानोः “कित्ते मिल वे माही” ...अभूतपूर्व पंजाब

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Where the twain shall meet (2005), by Ajay Bhardwaj.

“ जो लड़ना नहीं जाणदे
  जो लड़ना नहीं चौंदे ...
  ... ओ ग़ुलाम बणा लये जांदे ने ”
           - लाल सिंह दिल, क्रांतिकारी कवि और दलित
              जीवन के बाद के वर्षों में इस्लाम अपना लिया

Lal Singh Dil, in a still.
उस दुपहरी में अपने पड़ोसी के साथ ऐसे पार्क में बैठे लाल सिंह दिल, जहां कोई न आता हो। जरा नशे में, पर होश वालों से लाख होश में। वहां का सूखापन और गर्मी जलाने लगती है, उन्हें नहीं मुझ दर्शक को। वो तपन महसूस करवा जाना अजय भारद्वाज की इस फ़िल्म की कलात्मक सफलता है, कथ्यात्मक सफलता है और जितनी किस्म की भी सफलता हो सकती है, है। इस डॉक्युमेंट्री को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। कभी नहीं। लाल सिंह दिल जैसे साक्षात्कारदेयी और उनके उस दोस्त और पड़ोसी शिव जैसा साक्षात्कारकर्ता मैंने कभी नहीं देखा। विश्व सिनेमा के सबसे प्रभावी साक्षात्कार दृश्यों में वो एक है। अभिनव, अद्भुत, दुर्लभ।

लाल सिंह के विचार आक्रामक हैं। वो देश के उन तमाम समझदार लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इसी समाज में हमारे मुहल्लों-गलियों में रहते हैं, पर चूंकि वैचारिक समझ का स्तर सत्य के बेहद करीब होने की वजह से उनका रहन-सहन और एकाकीपन समाज के लोगों की नासमझ नजरों को चुभता है, तो हम एक बच्चे के तौर पर या व्यस्क के तौर पर उनके करीब तक कभी नहीं जा पाते। कभी उनसे पूछ नहीं पाते कि ये दुनिया असल में क्या है? हमारे इस संसार में आने का व्यापक उद्देश्य क्या है? हमारे समाज ऐसे क्यों हैं? ये समाज की प्रतिष्ठासूचक इबारतें कैसे तोड़ी या मोड़ी जा सकती हैं? कैसे इंसान और मानवीय बनाए जा सकते हैं? काश, हम छुटपन में ऐसे किसी लाल सिंह दिल के पास बैठते तो एक बेहतर इंसान होते। समाजी भेदभाव के भविष्य पर दार्शनिक और दमपुख़्त यकीन भरी नजरें लिए एक मौके पर वे कहते भी है न,

“ जद बोहत सारे सूरज मर जाणगे
 तां तुहाडा जुग आवेगा...” 
  When many suns die
  Your era will dawn...

‘कित्ते मिल वे माही’ हमें उस पंजाब में ले जाती है, जहां पहले कोई न लेकर गया। पंजाबी फ़िल्मों, उनके ब्रैंडेड नायकों, यो यो गायकों और पंजाबियों की समृद्ध-मनोरंजनकारी राष्ट्रीय छवि ने हमेशा उस पंजाब को लोगों की नजरों से दूर रखा। जाहिर है उनके लिए वो पंजाब अस्तित्व ही नहीं रखता। सन् 47 के रक्तरंजित बंटवारे के बाद इस पंजाब में न के बराबर मुस्लिम पंजाबी बचे। उनके पीछे रह गईं तो बस सूफी संतों की समाधियां। डॉक्युमेंट्री बताती है कि ये सूफी फकीरों की मजारें आज भी फल-फूल रही हैं। खासतौर पर समाजी बराबरी में नीचे समझे जाने वाले भूमिहीन दलितों के बीच, जो आबादी का 30 फीसदी हैं। जैसे, बी.एस. बल्ली कव्वाल पासलेवाले पहली पीढ़ी के कव्वाल हैं। उनके पिता मजदूरी करते थे और इन्होंने उस सूफी परंपरा को संभाल लिया। सूफी और दलितों का ये मेल आश्चर्य देता है। और इसे सिर्फ धार्मिक बदलाव नहीं कहा जा सकता, ये सामाजिक जागृति का भी संकेत है। महिला-पुरुष का भेद भी यहां मिटता है। जैसे, हम सोफीपिंड गांव में संत प्रीतम दास की मजार देखते हैं, जो दुनिया कूच करने से पहले अपने यहां झाड़ू निकालने वाली अनुयायी चन्नी को गद्दीनशीं कर चन्नी शाह बना गए।

फ़िल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा 1913 से 1947 तक गदर आंदोलन के नेता रहे बाबा भगत सिंह बिल्गा भी हैं। उन्हें देखना विरला अनुभव देता है। वे और लाल सिंह दिल फ़िल्म बनने के चार साल बाद 2009 में चल बसे। ऐसे में जो हम देख रहे हैं उसका महत्व अगले हजार सालों के लिए बढ़ जाता है। डॉक्युमेंट्री के आखिर में लाल सिंह ये मार्मिक और अत्यधिक समझदारी भरी पंक्तियां सुनाते हैं...

“ सामान, जद मेरे बच्चेयां नूं सामान मिल गया होऊ
 तां उनाने की की उसारेया होवेगा…
 ... बाग़
 ... फसलां
 ... कमालां चो कमाल पैदा कीता होवेगा उनाने
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ ”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी 'पंजाब त्रयी' की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Where The Twain Shall Meet” - Watch an extended trailer here:

Punjab was partitioned on religious lines amidst widespread bloodshed in 1947, and today there are hardly any Punjabi Muslims left in the Indian Punjab. Yet, the Sufi shrines in the Indian part of Punjab continue to thrive, particularly among so-called ‘low’ caste Dalits that constitutes more than 30% of its population. Kitte Mil Ve Mahi explores for the first time this unique bond between Dalits and Sufism in India. In doing so it unfolds a spiritual universe that is both healing and emancipatory. Journeying through the Doaba region of Punjab dotted with shrines of sufi saints and mystics a window opens onto the aspirations of Dalits to carve out their own space. This quest gives birth to ‘little traditions’ that are deeply spiritual as they are intensely political.

Enter an unacknowledged world of Sufism where Dalits worship and tend to the Sufi Shrines. Listen to B.S. Balli Qawwal Paslewale – a first generation Qawwal from this tradition. Join a fascinating dialogue with Lal Singh Dil – radical poet, Dalit, convert to Islam. A living legend of the Gadar movement, Bhagat Singh Bilga, affirms the new Dalit consciousness. The interplay of voices mosaic that is Kitte Mil Ver Mahi (where the twain shall meet), while contending the dominant perception of Punjab’s heritage, lyrically hint at the triple marginalisation of Dalits: economic, amidst the agricultural boom that is the modern Punjab; religious, in the contesting ground of its ‘major’ faiths; and ideological, in the intellectual construction of their identity.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Monday, July 15, 2013

मानो मत, जानोः “एक मिनट का मौन” ...बलिदानों के लिए

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फिल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary...A Minute of Silence (1997), by Ajay Bhardwaj.

Chandrashekhar in a still from the film.
1997 में 31 मार्च की शाम, बिहार के सीवान ज़िले में नुक्कड़ सभाएं कर रहे चंद्रशेखर प्रसाद को जे.पी. चौक पर गोली मार दी गई। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े युवा छात्र नेता थे। अपने गृह ज़िले लौटे थे क्योंकि बेहतर दुनिया बनाने का जो ज्ञान ऊंची-ऊंची बातों और मोटी-मोटी किताबों से लिया था, उसे फैंसी कैंपस की बजाय बुनियादी स्तर पर ही जाकर उपजाना था। सीवान के खौफज़दा माहौल में जहां सांसद शहाबुद्दीन का आंतक था, चंद्रशेखर ने आवाज बुलंद की थी। स्थानीय स्तर पर इतने अनूठे, तार्किक और खुले विचारों के सिर्फ दो ही नतीजे निकलने थे। पहला था बदलाव हो जाना, राजनीति में अपराधीकरण खत्म हो जाना और दूसरा था मृत्यु।

इस बार भी हत्यारा उतना ही अलोकतांत्रिक और अपराधी था जितना कि 1989 में पहली जनवरी को लेखक और रंगकर्मी सफ़दर हाशमी की नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के बीच हत्या करने वाला स्थानीय कॉन्ग्रेसी नेता। आज़ाद भारत में इन दो युवा कार्यकर्ताओं की हत्या ने भय के माहौल को और भी बढ़ाया है। लेकिन हौंसला आया है तो उसके बाद देश में हुए व्यापक प्रदर्शनों से। जिनके वो सबसे करीबी थे, वो ही आंसू पौंछकर सबसे आगे डटे थे। सफ़दर की मौत के दो दिन बाद उनकी पत्नी मॉलोयश्री ‘जन नाट्य मंच’ के साथ उसी जगह पर वापस लौटीं और उस अधूरे नुक्कड़ नाटक को पूरा किया। उसी तरह चंद्रशेखर की बूढ़ी मां ने अविश्वसनीय हौंसला दिखाते हुए बिना कमजोर पड़े, दोषियों को सरेआम फांसी देने की मांग की। हर रैली में वह दौड़-दौड़कर आगे बढ़ीं।

चंद्रशेखर प्रसाद की हत्या के बाद दिल्ली, सीवान और देश में बने गुस्से के माहौल को निर्देशक अजय भारद्वाज की ये डॉक्युमेंट्री बेहतर समझ से दस्तावेज़ करती है। स्वर सिर्फ शोक के नहीं होते बल्कि उस बलिदान की सम्मानजनक प्रतिक्रिया वाले भी होते हैं। फ़िल्म के बीच-बीच में बहुत बार खुद चंद्रशेखर को सुनने का मौका मिलता है, उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझने का मौका मिलता है जो कि दीर्घकाल में न जाने कितने युवाओं के काम आ सकता है। फ़िल्म के शुरू में चंद्रशेखर और अन्य गांव वालों के शवों वाले दृश्य भौचक्का करते हैं, शहरों में बैठों का मानवीय समाज में रहने का भरम टूटता है। ‘एक मिनट का मौन’ देखना अपने असल समाजों के प्रति जागरूक होना है। अजय ने बनाकर कर्तव्य निभाया है, हमें सीखकर, लागू करके इस्तेमाल को सार्थक करना है।

“A Minute of Silence - Watch the full documentary here:

It was a late afternoon in Siwan, a small town in the Indian state of Bihar. A young leader, after already having addressed four street corner meetings, is on his way to JP Chowk to address another, quite unmindful of his apparently impossible dreams in a very cynical present. He is sighted by some associates of a local Member of Parliament, a notorious mafia Don. The young leader is Chandrashekhar Prasad. Seconds later he is killed.

The news spreads. Reaches Jawaharlal Nehru University in Delhi. The premier institute of whose students’ union Chandrashekhar was twice the president. There is an anger, a fury which refuses to subside…The Government refuses to respond. The apathy and ignoble silence so uniquely its hallmark and preserve. This apathy, this grief, this indifference, this hurt. This is what ‘Ek Minute Ka Maun’ sets to establish. Piecing together scenes from the agitation and combining with it the portrait of Chandrashekhar. The man and the leader, the rebel and the dreamer. An unwitting pawn, but a willing activist, caught in the spidery web of criminal – political nexus. But dreams do not die after Chandu. They live on, still hopeful, still optimistic. Very much like him.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Wednesday, February 27, 2013

फालके की कालिया मर्दन जंग लगे केन में पड़ी मिट्टी हो जाती, पी. के. नायर ने जोड़ी, सहेजीः शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर

हमारे वक्त की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक सेल्युलॉयड मैन के निर्देशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर से बातचीत, उनकी डॉक्युमेंट्री भारत में फिल्म संरक्षण के पितामह पी. के. नायर के बारे में है


सन् 1912 में मानसून के बाद बंबई के दादर इलाके में ‘राजा हरिश्चंद्र’ की शूटिंग शुरू हुई। ‘मोहिनी भस्मासुर’ 1914 में प्रदर्शित की गई। उनकी तीसरी फिल्म ‘सावित्री-सत्यवान’ थी। ‘लंका दहन’ सन् 1917 में बनकर तैयार हुई। हनुमान की समुद्र पर उड़ान इस फिल्म का मुख्य आकर्षण थी। हनुमान उड़ता हुआ आकाश में पहले बहुत ऊंचाई तक जाता है और फिर धीरे-धीरे छोटा-छोटा होता जाता है। ‘कृष्ण जन्म’ और ‘कालियामर्दन’ दोनों ही फिल्मों में कृष्ण की भूमिका फालके की बेटी मंदाकिनी ने की थी जो उस समय सात वर्ष की थी। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि ‘कालियामर्दन’ में नाग के फन से नदी में कूदते समय मंदाकिनी साहस नहीं कर पाती थीं लेकिन फालके निर्भीकतापूर्वक उसका साहस बढ़ाते रहते थे। फालके की रुचि सिनेमा के रचनात्मक पक्ष में थी। इन कथा फिल्मों के साथ-साथ वे लघु फिल्में भी बनाया करते थे। ‘लंका दहन’ के समय उन्होंने एक लघु हास्य फिल्म ‘पीठाचे पंजे’ बना कर मूल कथा फिल्म के साथ प्रदर्शित की थी। ‘लक्ष्मी का गलीचा’ में उन्होंने ट्रिक फोटोग्राफी और मनोरंजक तरीके से सिक्के तैयार करने की विधि बतायी थी। ‘माचिस की तीलियों के खेल’ में माचिस की तीलियों से बनने वाली विभिन्न आकृतियां दर्शायी गयी थीं। ‘प्रोफेसर केलफा के जादुई चमत्कार’ में फालके ने स्वयं जादूगर का अभिनय किया था। सन 1918 में ही उन्होंने ‘फिल्में कैसे बनायें’ जैसी शिक्षाप्रद फिल्म बनाई थी।

... सोलह फरवरी सन् 1944 को जब दादा साहब फालके का नासिक में देहान्त हुआ, तब तक लोग भारतीय सिनेमा के इस पितामह को भूल चुके थे। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उन्होंने गुमनामी और अकेलेपन में बिताये। वर्षों बाद जब कुछ शोधार्थी नासिक पहुंचे तो वहां उन्हें फालके के घर से फिल्मों के जंग खाये डिब्बे मिले। बहुत सी फिल्में मिट्टी हो चुकी थीं। फालके की फिल्मों के इन टुकड़ों को जोड़कर राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ने एक कार्यक्रम तैयार किया।

मनमोहन चड्ढा की 1990 में आई किताब ‘हिंदी सिनेमा का इतिहास’ में धुंडिराज गोविंद फालके का अध्याय जहां खत्म होता है, हमारी कहानी वहां से शुरू होती है। कहानी पी. के. नायर की। नासिक से पहुंचे जिन शोधार्थियों ने फालके के घर उनकी फिल्मों के जंग खाये डिब्बों की सुध ली थी, वो नायर ही थे। राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के संस्थापक। वो नींव के पत्थर जिन्हें सिनेमा के कद्रदानों के बीच लगभग न के बराबर जाना जाता है। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दशकों में बनी दुर्लभ 1700 फिल्में नष्ट हो गईं और उनमें से 9-10 संरक्षित की गईं तो नायर की बदौलत। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (1913), कालिया मर्दन (1919), अछूत कन्या (1936), जीवन नैया (1936), कंगन (1939), बंधन (1940), किस्मत (1943), कल्पना (1948) और चंद्रलेखा (1949) को आने वाली भारतीय सभ्यताओं के लिए बचाकर रखा है। फिल्म संरक्षण के अलावा भी उनका योगदान मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों और कलाकारों तक रहा। रिलीज के दस साल बाद दिलीप कुमार को पहली बार ‘मुग़ल-ए-आज़म’ अभिलेखागार में से निकाल उन्होंने ही दिखाई थी। आशुतोष गोवारिकर नाम के युवक को अभिनय से निर्देशन में जाने की प्रेरणा देने वाले वही थे। बाद में आशुतोष ने ‘लगान’ और ‘जोधा अकबर’ बनाई। भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे (एफ.टी.आई.आई.) और राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय, पुणे (एन.एफ.ए.आई.) में आने-जाने वाले हजारों-हजार फिल्म निर्माण विधा से जुड़े लोगों की जिंदगी का वह हिस्सा रहे हैं। लेकिन पी. के. नायर ने न तो कभी सुर्खियों में आने की कोशिश की, न अपने किए का श्रेय लेने के लिए हाथ-पैर मारे और न ही ये मुल्क इस लायक था कि उन्हें वो इज्जत दे सके। जिन्होंने दादा साहब फालके का खोया ‘भारतीय सिनेमा के पितामह’ होने का गौरव उनकी विलुप्ति के कगार पर खड़ी फिल्मों को बचाकर लौटाया, उन्हीं नायर को अभी तक फालके सम्मान नहीं मिला है। मगर ऐसा लगता है कि अब हमारी तमाम गलतियां सुधरेंगी।
P. K. Nair at his residence in Thiruvananthapuram, Kerala. Photo: Shivendra Singh Dungarpur
 
मुंबई और डूंगरपुर स्थित फिल्मकार शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने अपने एफ.टी.आई.आई. दिनों के श्रद्धेय व्यक्तित्व नायर साहब पर बीते साल एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई है। उनकी फिल्म ‘सेल्युलॉयड मैन’ नायर के योगदान के अलावा भारत में फिल्म संरक्षण पर बात करती है। बनने के वक्त से ही ये फिल्म दुनिया भर के तमाम विशेष अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है और अभी भी आमंत्रण आ रहे हैं। शिवेंद्र के बारे में बात करें तो वह पहले गुलज़ार की कुछ फिल्मों में उनके सहयोगी रहे और फिर फिल्ममेकिंग की पढ़ाई की। उसके बाद इत्तेफाक (संभावित शीर्षक) फिल्म का निर्देशन शुरू किया जिसमें संजय कपूर, चंद्रचूड़ सिंह, रानी मुखर्जी और करिश्मा कपूर की मुख्य भूमिकाएं थीं। फिल्म पूरी न हो पाई और बाद में वह विज्ञापन फिल्में बनाने लगे। देश के प्रभावी विज्ञापन फिल्मकारों में वह शुमार हुए। बीच में वह ‘गुरुदत्त’ शीर्षक से बायोपिक बनाने वाले थे लेकिन उस पर काम शुरू नहीं हुआ। शिवेंद्र खुद भी लगातार विश्व सिनेमा के संरक्षण में लगे हुए हैं। अल्फ्रेड हिचकॉक की एक फिल्म के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने आर्थिक सहयोग किया था। मार्टिन स्कॉरसेजी को उन्होंने उदय शंकर की दुर्लभ फिल्म ‘कल्पना’ ले जाकर दी, जब मार्टिन को फिल्म मिल नहीं रही थी। शिवेंद्र लगातार विश्व का भ्रमण कर रहे हैं और दुनिया के अलग-अलग मुल्कों के दिग्गज फिल्म निर्देशकों और सिनेमैटोग्राफर्स से वीडियो साक्षात्कार कर रहे हैं। वह अब तक पॉलैंड के आंद्रे वाइदा (Andrzej Wajda), क्रिस्ताफ जेनोसी (Krzysztof Zanussi), वितोल सोबोचिंस्की (Witold Sobociński), येज़े वोइचिक (Jerzy Wójcik), हंगरी के इज़्तवान साबो (István Szabó), मीक्लोश इयांचो (Miklós Jancsó), पुर्तगाल के मेनुवल जॉलिवइरा (Manoel de Oliveira), स्लोवाकिया के यूराई हेरेस (Juraj Herz), चेक रिपब्लिक के यानी निमेच (Jan Němec), यीरी मेंजल (Jiří Menzel), यारोमीर शोफर (Jaromír Šofr), वीरा ख़ित्येरोवा (Věra Chytilová) और फ्रांस के राउल कूतार्द (Raoul Coutard) से मिल चुके हैं और उनके लंबे इंटरव्यू कर चुके हैं। निजी तौर पर अभी के दिनों में मैंने सिनेमा जगत में इससे उत्साहजनक बात नहीं जानी है। यीरी मेंजल पर तो शिवेंद्र फिल्म भी बना रहे हैं जो जल्द ही हमारे सामने आ सकती है।

तो ‘सेल्युलॉयड मैन’ के सिलसिले में मेरी शिवेंद्र सिंह से बातचीत हुई।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को लेकर कैसी प्रतिक्रियाएं आईं हैं?
अब तक 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है, कुछ और में जाने वाली है, इस तरह कोई 22-25 फेस्टिवल हो जाएंगे। किसी भी भारतीय डॉक्युमेंट्री फिल्म के लिए ये एक रिकॉर्ड होगा। शाजी करुण की ‘पिरवी’ और सत्यजीत रे की ‘पथेर पांचाली’ ही ऐसी फिल्में थीं जिन्हें सबसे ज्यादा फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया गया। उनके बाद ‘सेल्युलॉयड मैन’ ही है। इसका श्रेय नायर साहब को जाता है। पूरे हिंदुस्तान में प्रिजर्वेशन (फिल्म संरक्षण) का माहौल उभरकर आ रहा है। लोगों में जागरुकता आ रही है। मैंने उम्मीद नहीं की थी कि इतना होगा। आर्काइव्स में हमारी इतनी फिल्में हैं जो यूं ही पड़ी हैं, कोई देखभाल नहीं कर रहा है। मैंने सोचा था कि थोड़ा-बहुत शूट करके कुछ करूंगा। करते-करते तीन साल बीत गए। बिल्कुल नहीं सोचकर चला था कि इतना रिस्पॉन्स आएगा। इतना भारी रिस्पॉन्स कि कुछ ऐसे समारोहों में गई है जहां बहुत ही मुश्किल है जाना। जैसे टेलेराइड जो कोलोराडो में है, वो बहुत ही सलेक्टिव हैं, हॉलीवुड का गढ़ है, वहां बड़ी-बडी हॉलीवुड फिल्में होती हैं, स्टार होते हैं, वहां घुसना बड़ा मुश्किल है, पर उन्होंने चुना। मैं आभारी हूं उनका कि उन्होंने हमें जगह दी और दो-तीन स्क्रीनिंग कराई, अकेडमी (ऑस्कर्स) को दिखाई। फिल्म यूरोप के कई देशों में भी गई है, भारत में हर फिल्म फेस्टिवल में लगी है।

Shivendra at the Il Cinema Ritrovato, Bologna.
सिनेमाघरों में कब तक लाएंगे?
मार्च का सोचा था लेकिन मैं चाहता हूं कि रिलीज ढंग से हो। ये नहीं चाहता हूं कि ऐसी जगह रिलीज हो जाए जहां लोग जाने तक नहीं। इसमें सरकार का भी योगदान चाहता हूं। चूंकि ये एक एजुकेशनल फिल्म है इसलिए पैसे कमाने से ज्यादा जरूरी ये है कि लोगों तक पहुंचे। फ्री होनी चाहिए या इतने कम पैसे की टिकट हो कि लोग बिल्कुल आकर देखें और फिल्म में नायर साहब की बातों का ज्ञान लें। खुद की फिल्म संस्कृति को हम कैसे बचाएं और आगे वाली पीढ़ी के सुपुर्द करें, ये बात है। रिलीज जरूर होगी पर मेरी चिंता यही है कि टिकट की कीमत कम हो, जिनसे भी बात कर रहा हूं ये बात सामने रख रहा हूं। नहीं तो आप उसे मल्टीप्लेक्स में कंपीट करवा रहे हैं और कोई एजुकेशनल फिल्म देखने के लिए पांच सौ रुपये नहीं देगा। आम या आर्थिक तौर पर असमर्थ लोग भी देखना चाहेंगे तो ऐसी फिल्मों में टिकट न्यूनतम कीमत वाली होनी चाहिए।

राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना पी. के. नायर ने की…
हां, एन.एफ.ए.आई. की स्थापना उन्होंने अकेले ही की, और कोई था नहीं उसके साथ। उस वक्त का जमाना अलग था, नेहरुवियन पीरियड था। वो अच्छे विचारों के इंसान थे, कला और कलाकारों के लिए उन्होंने दिल्ली में काफी कुछ किया। मिसेज गांधी भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं तो उन्होंने भी काफी योगदान दिया। ये आर्काइव उसी वक्त खुला जब उन्हें लगा कि हमें एक आर्काइव खोलना है। मेरे ख्याल से नायर साहब ये कर पाए क्योंकि उस वक्त ये लोग उनके साथ थे, सहयोग था। आज के माहौल में अलग बात है। आज सबकुछ होने के बाद भी सरकार का ध्यान इस और नहीं जा रहा।

दादा साहब फालके को फादर ऑफ इंडियन सिनेमा कहा जाता है, इसमें नायर का कैसा योगदान रहा?
बहुत बड़ा योगदान था। नायर साहब नासिक गए, फालके के परिवार से मिले, उनकी यूं ही पड़ीं फिल्में उठाईं और सहेजीं। उनकी एक फिल्म कालिया मर्दन (1919) की फुटेज टुकड़ों में पड़ी थी। पी. के. नायर ने फालके के हाथ से लिखे डायरी नोट्स के आधार पर फिल्म को नए सिरे से जोड़ा। उन्होंने फालके के बड़े बेटे से पूछा, उनकी बेटी मंदाकिनी जिन्होंने कालिया मर्दन में काम किया था उनसे पूछा। इस तरह ये फिल्म बची। बाद में उसे मुंबई में 1970 में हुए फालके सेंटेनरी सेलिब्रेशन में दिखाया गया। 1982 में उसे लंदन के एन. एफ. टी. फेस्टिवल में भारतीय हिस्से के तौर पर दिखाया गया। बाद में एविग्नां, फ्रांस में हुए साइलेंट फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। गुलज़ार साहब ने ‘सेल्युलॉयड मैन’ में कहा है कि अगर हम फालके के बारे में आज कुछ भी जानते हैं, वो नहीं जान पाते अगर नायर साहब नहीं होते। हम फालके के बारे में सिर्फ सुनते लेकिन उनकी फिल्म नहीं देख पाते। नायर साहब की बदौलत हम फालके को आज देख पा रहे हैं। वो हर जगह जाकर खुद फिल्में इकट्ठा करते थे, क्लीन करते थे, कैटेलॉगिंग करते थे और आर्काइव में रखते थे।

एक हिला देने वाला आंकड़ा है कि 1700 मूक (साइलेंट) फिल्में भारत में बनीं और बची हैं सिर्फ 9 से 10। इतनी भी बची हुई हैं सिर्फ नायर साहब की वजह से। नहीं तो पहले ही खत्म हो जाता है। आर्काइव खुला 1964 में और हमारी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनी 1913 में यानी उससे पहले 50 साल तो सब खत्म हो चुका था। 50 साल तक तो कोई संरक्षण हुआ ही नहीं। ये बहुत बड़ा वक्त होता है। और फिर फिल्में भी बदल रहीं थीं, साउंड आ गया था।

मैं विदेश जाता हूं तो लोग हैरान हो जाते हैं सुनकर। आप देखिए स्वीडिश फिल्म आर्काइव की वेबसाइट क्या कहती है। उनकी सिर्फ चार फिल्म मिसिंग है, बाकी आज तक के उनके इतिहास में बनी तमाम साइलेंट फिल्में उनके पास सुरक्षित हैं। चार भी वो गायब हैं जो प्रोड्यूसर्स ने दी नहीं हैं या कोई दूसरा चक्कर है। कभी-कभी तो मैं इतना हैरान हो जाता हूं कि हिंदुस्तान की संस्कृति और परंपरा जो इतनी प्राचीन है उसे बचाने का कष्ट हमने कभी किया ही नहीं। नायर साहब अकेले इंसान कितना कर सकते हैं वो भी ऐसे हिंदुस्तान में जहां हर साल हजार फिल्में बनती हैं और हर इंसान को राजी करना, हर इंसान से बात करना कि आप आर्काइव में फिल्म देने के बारे में सोचिए, आप ही की चीज सहेजी जाएगी लेकिन हर सामने वाला सोचता है कि इनसे मैं कितना पैसा निकाल पाऊं।

आपका बचपन कहां बीता? कैसा बीता? आसपास कैसी फिल्में रहीं? फिर फिल्मकारी में कैसे आए?
मैं डूंगरपुर, राजस्थान का रहने वाला हूं। राजपरिवार (पूर्व) से हूं। राजपरिवार से होने का एक फायदा ये हुआ कि मुझमें प्रिजर्वेशन की परंपरा आई। डूंगरपुर का हाउस सबसे पुराने रॉयल ठिकाणों में से है। हम लोग सब सिसोदिया हैं और चित्तौड़ से हैं। हम ओल्डर ब्रांच हैं उदयपुर से। अरविंद सिंह मेवाड़ मुझे काका बोलते हैं। हमारा परिवार सिसोदिया खानदान में हेड ब्रांच है। हमारा जो पैलेस है जूना महल वो 800-900 साल पुराना है इसलिए हम लोग जानते थे कि हिस्ट्री कितनी जरूरी है, प्रिजर्वेशन कितना जरूरी है। मेरी मां डुमरांव (बिहार) स्टेट से हैं जहां से बिस्मिल्लाह खान थे, वह वहां कोर्ट म्यूजिशियन थे, बाद में उनका परिवार बनारस चला गया था। डुमरांव बक्सर से जरा पहले पड़ता है। पटना में दो सबसे बड़े स्टेट हुआ करते थे। एक था दरभंगा और दूसरा डुमरांव। बहुत बड़ी जमींदारी थी। मेरी पैदाइश पटना में हुई क्योंकि मैं अपने पिता का पहला बच्चा था। मेरे पिता समर सिंह जी आईएएस थे, एनवायर्नमेंट मिनिस्ट्री में थे, वहीं से रिटायर भी हुए। मैं पटना में जन्मा इसलिए अपनी नानी के पास डुमरांव में काफी वक्त बिताया। वह नेपाल से थीं। तब राजपरिवार की काफी शादियां नेपाल में होती थीं। मेरी फर्स्ट कजिन सिस्टर राजमाता साहब (पूर्व) जैसलमेर हैं और महारानी ऑफ कश्मीर भी उनकी फर्स्ट कजिन हैं।

मेरी नानी बहुत शौकीन थीं फिल्मों की। वह मुझे अकसर सिनेमाहॉल ले जाती थीं और पूरा सिनेमाहॉल बुक करवाती थीं। तो मेरे ख्याल से मेरा लगाव फिल्मों से उस तरह हुआ। डूंगरपुर में हालांकि मेरा बचपन बीता मगर वो इतने शौकीन नहीं थे, थोड़ी-बहुत इंग्लिश फिल्में देखते थे, लेकिन डुमरांव का परिवार बहुत जुड़ा हुआ था। मुझ पर नानी का बहुत असर था। उनकी वजह से मैंने फिल्में देखीं। जैसे ‘पाकीजा’ मीना कुमारी की और कई ऐसी फिल्में। मैं जब शिक्षा प्राप्त करने दून बोर्डिंग स्कूल गया तो वहां मैंने ठान लिया कि मैं फिल्मों में डायरेक्टर के तौर पर जुडूंगा। वहां चंद्रचूड़ सिंह (एक्टर) मेरे क्लासमेट थे। उन्होंने ठान लिया था कि वह एक्टर बनेंगे और मैंने ठान लिया था कि मैं डायरेक्टर बनूंगा। इन्हीं भावनाओं के साथ हम वहां से निकले। मैंने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज से हिस्ट्री में ऑनर्स किया, उन्होंने भी। हम साथ ही बॉम्बे आए। काफी दबाव था डूंगरपुर परिवार से। वो चाहते नहीं थे कि मैं फिल्मों से जुड़ूं। मेरे ग्रैंड अंकल डॉ. नागेंद्र सिंह इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (हेग) के अध्यक्ष थे और वह चाहते थे कि मैं ऑक्सफोर्ड जाऊं जैसे मेरे दादा गए और मेरे परिवार के बाकी सदस्य गए। डूंगरपुर का परिवार शिक्षा के मामले में काफी आगे था। ...लेकिन मेरे सबसे बड़े सपोर्ट मेरे काकोसा थे राज सिंह डूंगरपुर (क्रिकेटर)। वो एक ऐसी पर्सनैलिटी थे कि उनके जैसी पर्सनैलिटी मैंने देखी नहीं है कहीं। उन्होंने मुझे बेटे की तरह रखा। मैं बॉम्बे उनके पास आया, वहां गुलजार साहब को असिस्ट करना शुरू किया। उनके पास रहकर मुझे इतनी शक्ति मिली कि ठान लिया इसी लाइन में कुछ करूंगा। गुलज़ार साहब के साथ मैंने ‘लेकिन’ में काम किया। एक थोड़ी अधूरी फिल्म थी ‘लिबास’ और कई डॉक्युमेंट्रीज पर काम करते हुए भी मैं उनके साथ ही रहा। वह मेरे गुरु हैं। उन्होंने सोचा कि मुझे फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफ.टी.आई.आई.) जाना चाहिए जहां मैं और बेहतर शिक्षा प्राप्त कर सकूं। लेकिन उस वक्त मैंने अपने पिता के कहने पर लॉ कॉलेज जॉइन कर लिया था। मैं मुंबई की डी रोड़ पर रहता था, वह वानखेड़े स्टेडियम के ठीक सामने है। राज सिंह जी ने अपना घर हमेशा क्रिकेट स्टेडियम के पास ही रखा था क्योंकि क्रिकेट से ज्यादा उनको कुछ सूझता नहीं था। मेरा लॉ कॉलेज ए रोड़ पर था। मैं सुबह जाता था, क्लास करता था और गुलज़ार साहब के पास चला जाता था लेकिन उन्होंने ठान लिया और आदेश कर दिया था कि आप एफ.टी.आई.आई. जाइए। मैंने आवेदन किया, वहां का एडमिशन प्रोसेस काफी मुश्किल था, एंट्रेंस था, इंटरव्यू थे और सीट सिर्फ छह थीं लेकिन मुझे वहां पर एक स्थान मिल गया। तीन साल यानी 1994 की शुरुआत तक मैं वहां पढ़ता रहा।

वहां से आने के बाद मुझे एक फिल्म डायरेक्ट करने का मौका मिला जिसमें संजय कपूर और रानी मुखर्जी थे। रानी मुखर्जी बिल्कुल नईं थी उस वक्त, उनकी फिल्म रिलीज हो रही थी, मैं उनको कंप्यूटर क्लास में मिलने गया था। चंद्रचूड़ सिंह ने कहा था कि “मेरी क्लास में एक लड़की पढ़ती है, उसका नाम रानी मुखर्जी है और वह काजोल की बहन लगती है और उसको देखिए वो हीरोइन के लिए बहुत जंचेगी।” तो हम उसको मिलने गए। काफी बड़ी कास्ट थी। हमने ए. आर. रहमान को लिया। रहमान उस वक्त काफी नए थे, कोई भी साइन करने को तैयार नहीं था उन्हें। लोग कह रहे थे कि इल्याराजा फ्लॉप हो गए तो रहमान क्या चीज हैं। खैर, उस माहौल में मैंने पिक्चर शुरू की। 40 फीसदी फिल्म बनकर तैयार हुई। फिल्म के प्रोड्यूसर थे मिलन जवेरी, उन्हें पैसा आ रहा था टिप्स से। उस वक्त क्या हुआ कि टिप्स वालों पर गुलशन कुमार मर्डर केस में शामिल होने के आरोप लगे। फिल्म बंद हो गई। और एक-दो पिक्चर जो मैंने साइन की थीं वो भी बंद हो गईं। ये ऐसा वक्त था जब कोई फिल्म पूरी नहीं होती या अटक जाती तो उसे शुभ नहीं मानते थे। अभी दौर बदल चुका है, इंडस्ट्री बदल चुकी है। उस वक्त पुराने यकीनों में लोग चलते थे। उसके बाद काफी स्ट्रगल रहा मेरा। आप विश्वास करिए मुझ पर घर से इतना दबाव पड़ा... उन्होंने कहा कि “तुम ये फिल्म लाइन छोड़ दो, ये क्या है, बकवास है, तुम डूंगरपुर के परिवार से हो, परंपरा से हो, परिवार में पहले कभी किसी ने ऐसा काम नहीं किया है” और बहुत दबाव पड़ा। मेरी मां का मेरे साथ आशीर्वाद था। उन्होंने कहा कि “तुम जो करना चाहो करते रहो।” 1995 से 2001 तक मेरा स्ट्रगल चलता रहा, छह साल स्ट्रगल चला। मैं स्टेशनों पर खाता था खाना। उसी तरह रहता था जैसे कोई स्ट्रगलर रह रहा हो। राजपरिवार से होने का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा। फिर विज्ञापन आए। किसी ने मुझे एड फिल्म ऑफर की और वो दौर आज तक चल रहा है। मैंने स्थापना की डूंगरपुर फिल्म्स की 2001 में। विज्ञापन फिल्म एक के बाद एक करने लगा और बहुत कामयाबी मिली। इतनी कामयाबी मिली कि हम दिल्ली में सबसे बड़े प्रोडक्शन हाउसेज में से बन गए। चार सौ कमर्शियल कर चुका हूं अभी तक लेकिन ध्यान हमेशा फिल्मों में था। विज्ञापन फिल्मों में मैंने बहुत कामयाबी हासिल की लेकिन प्यार फिल्मों से ही था। फिल्मों के लिए ही आया था, फिल्मों के लिए ही जी रहा था। राज सिंह जी ने मुझसे एक बात कही थी कि “तुम इस लाइन को तभी जॉइन करो जब उससे उतना ही प्रेम करो जितना मैं क्रिकेट से करता हूं” मैं उनकी वो बातें आज भी नहीं भूला हूं। उन्होंने मुझे ये पहली शिक्षा दी थी और आज भी मैं फिल्मों से ही जुड़ा हुआ हूं। मेरी जिंदगी फिल्म है, सुबह से शाम मैं फिल्में ही सोचता हूं। फिर एक मौका मिला मुझे फिल्म संरक्षण में घुसने का।

एक दिन मार्टिन स्कॉरसेजी का इंटरव्यू पढ़ा मैंने कि बलोना (इटली) में फिल्म प्रिजर्व होती है। मैं वहां का फेस्टिवल देखने चला गया जो जून-जुलाई में होता है इल सिनेमा रित्रोवातो (Il Cinema Ritrovato)। वहां पुरानी फिल्मों को वो रेस्टोर करके दिखाते हैं। उस दौरान मैंने सोचा कि यार हिंदुस्तान में तो इतना खजाना है, उन फिल्मों का क्या होगा। एफ.टी.आई.आई. में नायर साहब का प्रभाव इतना ज्यादा था कि उनसे डरते थे हम लेकिन पर्सनल लेवल पर मैं नहीं जानता था। तो मैंने दोस्तों के साथ मिलकर सोचा कि जाकर नायर साहब से मिला जाए। तब मार्टिन स्कॉरसेजी को ‘कल्पना’ फिल्म की जरूरत थी इंडिया से और वो ट्राई करके बैठ चुके थे, जाहिर है इंडिया में जो सरकारी पॉलिसी है, वह उनकी मदद नहीं कर पाई। मैंने कहा कि मैं आपको ‘कल्पना’ लाकर देता हूं। मैं आर्काइव्स के चक्कर काटता रहा और उन्हें मनाने में बहुत महीने लग गए। मुझे पता था कि ये एक बेहतरीन फिल्म है, इसे उदय शंकर ने बनाया था। बीच में मैंने और अनुराग कश्यप ने मिलकर एक फिल्म लिखी थी गुरुदत्त पर और मैं यूटीवी के लिए उसे डायरेक्ट करने वाला था। उस वक्त ‘कल्पना’ पर हमारी नजर पड़ी। वो इसलिए क्योंकि उदय शंकर का एक स्कूल हुआ करता था अल्मोड़ा में, जिसमें गुरुदत्त पढ़ते थे और गुरुदत्त ने ‘कल्पना’ को टाइप किया था। तो हमने वो फिल्म देखी थी। क्या कमाल फिल्म थी। जब उसे लेने आर्काइव गए तो मेरी नजर पड़ी, मुझे लगा कि नायर साहब पर कुछ करना चाहिए। वहां से मैंने ‘सेल्युलॉयड मैन’ बनानी शुरू की। ‘कल्पना’ भी तब पुनर्जीवित हुई और मेरा पूरा दौर चला रेस्टोरेशन और प्रिजर्वेशन का। मैं अभी अपना फाउंडेशन खोल रहा हूं जिसमें हम सहेजेंगे और संरक्षित करेंगे। मैंने पूरी फिल्म फिल्म स्टॉक पर शूट की है। मेरा मानना था कि नायर साहब अगर फिल्में इकट्ठा कर रहे हैं और फिल्म केन इकट्ठा कर रहे हैं तो उन पर बनने वाली फिल्म भी फिल्म यानी रील पर ही होनी चाहिए।

नानी मां ने और कौन सी फिल्में दिखाईं? और किसने दिखाई? वो दिन कैसे थे? बाद में क्या पड़ाव आते रहे फिल्म देखने के अनुभवों में?
‘पाकीजा’ का गाना “इन्हीं लोगों ने...” आज भी कहीं चलता है तो मुझे नानी की याद आ जाती है। राज कपूर की ‘श्री 420’ का गाना “रमैया वस्ता वैय्या...” याद है। बिमल रॉय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ देखी थी मैंने। ये कुछ ऐसी फिल्में और फिल्ममेकर थे जिनके गाने सुनते रहते थे हम लोग। मेरे ग्रैंडफादर चार्ली चैपलिन, लॉरेल हार्डी और जॉन फोर्ड की अमेरिकी वेस्टर्नर्स और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में देखते थे। उनके साथ मैंने भी देखी। हमारे यहां डुमरांव में उनका खुद का प्रोजेक्शनिस्ट था, प्रोजेक्टर था तो वो अकसर 16 एमएम फिल्में कैलकटा से लाकर दिखाते थे। ये रोज का होता था। फैमिली की जो रोजाना फिल्में शूट होती थीं वो भी देखते थे। थियेटर में जाकर दो-दो शो देखते थे। कभी पटना में देखते थे कभी डुमरांव में, जहां एक शीला टॉकीज होता था। नानी पूरा शीला टॉकीज बुक करती थीं, वो नीचे बैठती थीं और मैं भी नीचे उनके साथ स्टॉल में बैठता था। मेरे पिता भोपाल में पोस्टेड थे और मैं बहुत मुश्किल से उन्हें मना पाता था। जब मैं चार-पांच साल का था तब ‘शोले’ लगी थी और मुझे वो देखनी थी। पर मुझे याद है उन्होंने मना कर दिया था कि आप नहीं जाएंगे और मैं पूरे दिन रो रहा था। फिर अगले दिन मां ने कहा कि ठीक है इसे जाने दो ‘शोले’ देखने के लिए। मैं बच्चन साहब का बहुत बड़ा फैन था और मेरी दोस्ती चंद्रचूड़ से उस कारण ही हुई। क्योंकि दून स्कूल में हम दोनों उनके दीवाने होते थे। हमारे पास एक डायरी थी जिसमें बच्चन साहब की फिल्मों के पूरे ब्यौरे लिखे होते थे। कार, क्रू, क्रेडिट्स सबकुछ। हम सेंट स्टीफंस में भी थे तो कई बार बात करते थे बच्चन साहब के ऊपर। हम लोग इस वजह से बहुत बार क्लास से बाहर निकाले गए। लेकिन लाइफ में गुलज़ार साहब के आने के बाद उन्होंने मुझे अलग किस्म की फिल्में दिखाईं। मैंने पहली बार ‘पथेर पांचाली’ देखी, सत्यजीत रे की। तब मुझे यकीन हुआ कि फिल्म एक आर्ट फॉर्म भी है और इसका पूरी दुनिया में कितना ज्यादा प्रभाव है। इस चीज ने मेरी मदद की। वहां नायर साहब ने दुनिया की नायाब फिल्में दिखाईं और भारतीय क्लासिक्स दिखाईं जो कमाल थी। उससे मुझे काफी ज्ञान प्राप्त हुआ। नायर साहब की फिल्मों की वजह से ही हम आज जो हैं वो हैं। शायद वो न होते तो हमारा वो विजन और फिल्ममेकर बनने की आकांक्षा नहीं आ पाती। तीन महत्वपूर्ण इंसान हैं मेरी जिंदगी में जो मेरे फिल्ममेकर बनने की वजह हैं। पहली मेरी नानी जिनका नाम महारानी ऊषारानी था। उन्होंने मेरा फिल्मों से लगाव लगाया। दूसरे हैं गुलज़ार साहब, वो गुरु हैं, उन्होंने मुझे दिशा दिखाई। और सबसे महत्वपूर्ण हैं नायर साहब जिन्होंने हमें बनाया और जिनकी वजह से हम हैं।

एफ.टी.आई.आई. में आपके बैचमेट कौन-कौन थे जो आज सफल हो गए हैं?
कैमरामैन काफी हैं। सुबीत चैटर्जी हैं जिन्होंने कई फिल्में शूट की हैं। ‘डोर’, ‘चक दे’, ‘गुजारिश’, ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’। संतोष ठुंडिल मेरे कैमरामैन थे जिन्होंने ‘कुछ कुछ होता है’, ‘पिंजर’, ‘कृष’ और ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्में कीं। डायरेक्शन में कोई इतना उभरकर नहीं आया है। प्रीतम (म्यूजिक डायरेक्टर) मुझसे दो साल जूनियर थे। रसूल पोकट्टी (साउंड मिक्सिंग का ऑस्कर जीते) मेरे से एक साल जूनियर थे।

याद वहां की कोई...
विजडम ट्री तो जिदंगी ही था। वहां बैठकर डिस्कस करते थे क्या फिल्म बनाने वाले हैं क्या नहीं बनाने वाले हैं। पूरी जिंदगी हमारी वहां गुजर गई।

आपने क्या डिप्लोमा फिल्म बनाई थी वहां?
डिप्लोमा फिल्म में इरफान थे पहले, बाद में राजपाल यादव भी थे, शैल चतुर्वेदी करके एक पोएट थे। ये सब थे। अलग फिल्म थी। एक आदमी खुद के प्रतिबिंब से डरता है, उसकी कहानी थी। उसे हमने एक शॉर्ट स्टोरी से लिया था। नाम फिलहाल जेहन में नहीं आ रहा।

एल्फ्रेड हिचकॉक की ‘द लॉजर: अ स्टोरी ऑफ द लंडन फॉग’ क्या आपने डोनेट की थी?
नहीं, मैंने कुछ पैसा दिया था उसे रेस्टोर करने के लिए। हुआ यूं कि मैं हिचकॉक का बहुत बड़ा फैन था। जब मुझे पता लगा कि बीएफआई यानी ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट को पैसा चाहिए उस फिल्म को रेस्टोर करने के लिए तो मैंने कहा कि मैं कुछ पैसा देना चाहूंगा इसके लिए।

उदय शंकर की ‘कल्पना’ (1948) का पुनरुत्थान कैसे हुआ? हाल ही में इसका कान फिल्म फेस्ट में प्रीमियर भी हुआ...
जी, वहां प्रतिक्रिया बहुत ही बेहतरीन रही। देखिए, ‘कल्पना’ इतनी जरूरी फिल्म है, ये अकेली ऐसी फिल्म है जो इतने डांस फॉर्म को एक-साथ फिल्म के रूप में लाती है जिन्हें उदय शंकर ने बनाया था। उनकी डांस एकेडमी में जोहरा सहगल स्टूडेंट रह चुकी हैं, उन्होंने पढ़ाया भी था वहां पर। उनकी डांस एकेडमी बहुत फेमस थी और उन्होंने बड़े इंट्रेस्टिंग और नाटकीय तरीकों से फिल्म को शूट किया था चेन्नई जाकर। जब मुझे पता चला कि ये फिल्म स्कॉरसेजी को चाहिए तो मैंने काम किया और कैसे न कैसे उन्हें लाकर दी। मुझे पता था कि एक बार ‘कल्पना’ रेस्टोर हो गई तो बाकी फिल्मों का भी दौर चालू हो जाएगा और भारत भी उस नक्शे पर आ जाएगा।

नायर साहब की बदौलत अथवा आपकी फिल्म के बाद जो भी प्रिजर्व हुआ है वो लौटकर लोगों तक कितना जा रहा है, या अभी उन्हें आर्काइव्ज में ही रखा जा रहा है?
अभी तक तो आर्काइव में ही रखा है। मैं अपना फाउंडेशन लॉन्च कर रहा हूं। उसका काम होगा फिल्मों को प्रिजर्व करेगी। उसके जरिए हम जितना सेव कर सकते हैं करेंगे, मदद कर सकते हैं करेंगे।

जब फिल्म नई-नई थियेटर में लगती है तो हम बड़ा जजमेंटल होकर देखते हैं, आलोचनात्मक होकर देखते हैं, उनके सामने एक किस्म की प्रतिरोधी शक्ति खड़ी कर देते हैं, लेकिन जैसे ही वो फिल्म कुछ सालों में हमारे नॉस्टेलजिया में जाकर कैद हो जाती है और फिर हमारे सामने आती है तो हम जरा भी जजमेंटल नहीं होते, वो हमारे लिए बस एक प्यार करने वाली, सेहजने वाली चीज बन जाती है। क्या इस सोच या परिदृश्य के बारे में आपने कभी सोचा है?
बहुत सोचा है, बहुत सोचा है। कई बार हम सोचते हैं कि हमें नहीं पता या हम नहीं जानते लेकिन ऐसा होता है कि वही फिल्म कुछ साल बाद जाकर क्रिटिकल तारीफ हासिल करती है। कई बार हम फिल्म को उस वक्त देखते हैं जब हालात कुछ और होते हैं, प्रस्तुतिकरण कुछ और होता है। बाद में देखते हैं तो उसका टाइम कुछ और होता है, फ्रेम ऑफ माइंड कुछ और होता है। कई बार फिल्म वक्त के साथ मैच्योर होती हैं। ये हमेशा रहा है। जब ‘शोले’ की ओपनिंग आई तो लोगों को पसंद नहीं आई, हफ्ते दो हफ्ते शायद कोई नहीं आया लेकिन बाद में माउथ टु माउथ पब्लिसिटी हुई और लोगों ने आकर देखा तो उन्हें कुछ नई चीज लगी।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को बनाने में कितना वक्त लगा और क्या ज्यादा सिनेमैटोग्राफर इस्तेमाल करने की वजह ये थी कि ज्यादा से ज्यादा अपना योगदान देना चाहते थे?
तीन साल लगे। ग्यारह सिनेमैटोग्राफर हैं और सभी इंडिया में टॉप के हैं। के. यू. मोहनन हैं जिन्होंने ‘तलाश’ शूट की, पी. एस. विनोद हैं जिन्होंने फराह खान की आखिरी फिल्म शूट की थी। संतोष ठुंडिल हैं, किरण देवहंस हैं जिन्होंने ‘जोधा अकबर’ शूट की, विकास शिवरमण हैं जिन्होंने ‘सरफरोश’ जैसी कई बड़ी फिल्में शूट की। अभीक मुखोपाध्याय हैं जिन्होंने ‘रेनकोट’, ‘चोखेर बाली’ और ‘बंटी और बबली’ जैसी कई फिल्में शूट कीं। ये सब 11 लोग इस फिल्म से जुड़े इसकी मुख्य वजह ये रही कि ये सब स्टूडेंट रह चुके हैं एफ.टी.आई.आई. के। इन सबने नायर साहब को देखा है और उनसे प्रभावित रहे हैं। तीन साल में फिल्म अलग-अलग क्षेत्र में शूट हुई तो अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से हमने सिनेमैटोग्राफर लिए। मैं ये दिखाना चाहता था कि कैसे इतने लोग लगे होने के बावजूद फिल्म एक लग सकती है। ये भी कि इतने लोग नायर साहब को पसंद करते हैं और उनसे ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं।

आपका फिल्म स्टॉक कोडेक का था या कोई और था?
अधिकतर हमने कोडेक किया। कोडेक 16 एमएम कैमरा और कुछ 35 एमएम है। दिलीप साहब वाला हिस्सा हमने पैनाविजन पर किया क्योंकि मैं जानता था कि दिलीप साहब ये आखिरी बाहर इंटरव्यू दे रहे हैं या उसके बाद कोई उन्हें परदे पर इंटरव्यू के लिए नहीं ला पाएगा और वो भी मूवी कैमरा में क्योंकि आपको मालूम है सेल्युलॉयड कैमरा जा रहा है। 16 एमएम कैमरा आमिर खान प्रॉडक्शन से लिया गया किराए पर। कोडेक हमारा मुख्य आपूर्तिकर्ता था, उन्हीं से ज्यादातर लिया। हालांकि छह-सात केन हमें फूजी ने भी दिया, लेकिन मुख्य कोडेक के साथ था।

Shivendra with Dilip Kumar & Saira Banu at their residence.
इसमें दिलीप कुमार और सायरा बानो भी नजर आएंगे?
हां। दिलीप साहब का पूरा इंटरव्यू सायरा बानो जी ने लिया है। मुख्यतः उन्होंने शायरी वगैरह ही पढ़ी हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ दिलीप साहब ने देखी नहीं थी जब रिलीज हुई क्योंकि उन्हें प्रॉब्लम हो गई थी के. आसिफ साहब के साथ। नायर साहब ने वो फिल्म रखी हुई थी। करीब दस साल बाद उन्होंने दिलीप साहब को वो फिल्म आर्काइव्स में से निकालकर दिखाई। रिलीज के दस-बारह साल बाद दिलीप साहब ने वो फिल्म देखी।

मुख्यधारा के हिंदी फिल्म सितारों का भी नायर साहब से यूं जुड़ाव रहा?
जी, जैसे नायर साहब ने एक बार बताया कि संजीव कुमार सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में काम करना चाहते थे। वो आर्काइव्स में नायर साहब से मिलने आए और बोले कि मैंने आर्काइव्स के बाहर घर ले लिया है और आप मुझे रोज सत्यजीत रे की फिल्में दिखाइए ताकि मैं काफी कुछ सीख सकूं उनकी फिल्म में काम करने से पहले। ये बात सिर्फ संजीव कुमार जैसा एक्टर कर सकता था, यही बात नायर साहब ने कही कि इतना लगाव इतना प्रेम, इसलिए वो इतने बेहतरीन एक्टर थे। तो संजीव कुमार महीना भर आर्काइव्स में आते रहे। देखिए, नायर साहब का योगदान ये रहा है। उन्होंने उभरते निर्देशकों को मदद की, इंडस्ट्री को मदद की। विधु विनोद चोपड़ा तो पागल हैं उनके पीछे। राजकुमार हीरानी पागल हैं। आशुतोष गोवारिकर डायरेक्टर बने ही नायर साहब की वजह से। वो एक्टर थे और वहां पर एप्रीसिएशन कोर्स करने आए थे। नायर साहब फिल्में गांव-गांव लेकर गए। नसीरुद्दीन शाह ने बोला है, जया बच्चन ने बोला है कि हम फिल्मों में हैं तो श्रेय जाता है नायर साहब को। शबाना आजमी हों, जानू बरूआ हों, गिरीष कासरवल्ली हों... सब लोगों ने एक ही बात दोहराई है कि आज वो जो भी हैं, नायर साहब की बदौलत।

विज्ञापन फिल्मों और डॉक्युमेंट्री बनाने की आपकी प्रक्रिया क्या रहती है?
विज्ञापन फिल्मों का तो अलग ही होता है, अगर डॉक्युमेंट्री की बात करें तो मैंने एक कॉन्सेप्ट और ओपनिंग सीन लिखे थे। बाकी सब ऑर्गेनिक था। मैं नायर साहब के साथ बैठा, मैंने सोचा कि क्या क्या करना चाहिए, सवाल लिखे।

वर्ल्ड सिनेमा के अजनबी दिग्गजों को आप जाकर इंटरव्यू कर रहे हैं?
वो मेरा आर्काइवल मामला है। मैं चाहता हूं कि जितना आर्काइव कर सकूं हिंदुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में। तो मैं घूमता रहता हूं और जिन निर्देशकों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है उनसे मिलने चला जाता हूं। उतना अच्छा।

इन इंटरव्यू की लंबाई कितनी है?
तकरीबन तीन-तीन घंटे के होंगे।

भाषाई मुश्किल आई होगी?
नहीं, जहां भी गया वहां मेरे साथ ट्रांसलेटर रहे। हम लोग एंबेसी से बात करके ट्रांसलेट करते थे। काफी लंबा प्रोसेस हो जाता है।

इन्हें शेयर भी करेंगे?
हां, हमारी अगली डॉक्युमेंट्री एक चेज़ फिल्ममेकर हैं जीरी मेंजल (Jiří Menzel), उन पर है। धीरे-धीरे शेयर करेंगे। अगर ये डॉक्युमेंट्री एक साल में तैयार हो जाएगी तो उसे शेयर करेंगे।

कुछ वक्त पहले आपने एक फोटोग्राफर जितेंद्र आर्य की जिंदगी पर भी इस स्टाइल में एक डॉक्युमेंट्री प्रोड्यूस की थी ‘की-फिल कट’?
वह ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में थे और बहुत ही जानी-मानी हस्ती थे। इतने बड़े फोटोग्राफर थे कि उन्होंने बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री के बहुत सारे लोगों को प्रभावित किया था। हमने ये सोचा कि क्यों न उनपर एक छोटी सी डॉक्युमेंट्री बनाई जाए। क्योंकि ये ऐसे लोग हैं जिन्हें धीरे-धीरे सब भूल जाएंगे। उसे एक लड़की है अरवा मामाजी उसने डायरेक्ट किया था।

पर क्या ये प्रसारित हो नहीं पाई?
ये दरअसल उनकी वाइफ के सुपुर्द की गई थी फिल्म। उन्होंने ही इसे बांटा। एक आर्काइवल प्रोसेस था। जितने भी फोटोग्राफी क्लब हैं, सोसायटी हैं, काला-घोड़ा फेस्टिवल है, इन सभी में इसे दिखाया गया। क्योंकि एक तो इसकी लंबाई काफी छोटी थी और दूसरा ये निजी भी थी आर्काइवल महत्व की इसलिए।

किसी चैनल पर दिखाने की कोशिश नहीं हुई?
अब हिंदुस्तान में भला कौन सा चैनल लेगा, उन्हें डेली सोप से फुर्सत ही कहां है।

आपके कश्मीर में साक्षरता और कोढ़ व एड्स पर बनाए सरकारी विज्ञापन बाकी आम विज्ञापनों से जुदा हैं...
दरअसल कोढ़ और एड्स दोनों ही सरकार के प्रोजेक्ट थे तो बनाने का अंदाज मैंने नेचुरल रखा। आइडिया था कि वहीं के लोगों को चुना जाए। वो मेरा निजी मानना था कि लोग वहीं के हों, उस गांव के हों और नेचुरल रहें। ताकि जो बात कहनी है वो जाकर उन्हें छुए। वो जो फिल्म है वो कश्मीर पर है और उसे वहीं कश्मीर के बॉर्डर पर शूट किया, बच्चे भी वहीं के थे। मेरा हमेशा ये अंदाज रहा है कि जितने नेचुरल लोग रहें, जिनती नेचुरल जगह रहें और जितना स्पोंटेनियस मेरा अंदाज रहे तो ही फिल्म अच्छी बना पाएगी।

जब इंटरनेशनल ब्रैंड या मल्टीनेशनल्स के विज्ञापनों को आप करते हैं, बतौर फिल्मकार या बतौर विज्ञापन फिल्मकार आप उनमें संवेदनाएं, मासूमियत और त्याग वाले इमोशंन डालते हैं, रिश्तों को पिरोते हैं। ये सब दिखने में बहुत सुंदर और शानदार बन पड़ता है लेकिन उसकी जो एंटी-कैपिटलिस्ट या सोशलिस्ट आलोचना है कि बड़े ब्रैंड्स का हम मानवीयकरण करके उन्हें बेचने की कोशिश करते हैं, उसे आप कैसे लेते हैं? आपका निजी मत उस ब्रैंड और ऐसा करने पर क्या रहता है? इन लॉजिक को आप ध्यान में रखते हैं या सिर्फ कहते हैं कि मैं तो अपना काम कर रहा हूं, आप बहस या जो समझना है समझो। आप ये समाज पर छोड़ देते हैं?
नहीं, ये डिबेट अकसर रहती तो है। मुश्किल रहता है हमेशा लेकिन मैं एक फिल्ममेकर के तौर पर उसे लेता हूं क्योंकि समाज इतना बेवकूफ नहीं है। मैं ये मानता हूं। आप अगर कोई चीज लेने जा रहे हो मार्केट में तो आपको पूरा यकीन है कि वो क्या है। लेकिन कुछ ऐसे ब्रैंड हैं जो मैं करता नहीं हूं जैसे फेयर एंड लवली हैं। मैंने इन ब्रैंड को हमेशा मना किया है। मेरा उस पर एक निजी टेक रहता है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिनके सिक्के की तरह दोनों पहलू देखता हूं। मैं आपको बताता हूं, एक फिल्म मैंने की, वेदांता पर। पीयूष पांडे उसमें क्रिएटिव थे, वह राजस्थान से हैं, जयपुर के हैं। उन्होंने विज्ञापनों में हिंदुस्तानी परंपरा डाली जो पहले पूरी तरह अंग्रेजों के थे। तो पीयूष भाई मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि एक एड फिल्म बनानी है वेदांता पर, वो भी उदयपुर में और गांव होगा डूंगरपुर के पास में। तुम अपने तरीके से बनाओ। मुझे कई लोगों ने कहा कि वेदांता पर तुम कैसे कर सकते हों शिवी... उनका तो उड़ीसा में और वहां-वहां ये चल रहा है। जब मैंने खोदकर निकाला तो सिटी बैंक और आई.सी.आई.सी.आई. बैंक उन्हें सपोर्ट कर रहे थे, तो मैंने सोचा कि यार 80 फीसदी हिंदुस्तान इन बैंकों से जुड़ा हुआ है और यही बैंक वेदांता को सपोर्ट कर रहे हैं तो किस नजरिए से इसे देखें। क्या सही है क्या गलत है। तो इसका मतलब क्या आई.सी.आई.सी.आई. बैंक को हम बंद कर दें क्या। दरअसल जिस समाज में आज हम रह रहे हैं, उसमें ये बहुत मुश्किल चुनाव हमारे सामने रख दिए गए हैं। क्या गलत है क्या सही है, हर चीज के दो पहलू हैं, हर चीज कैपिटलिस्ट है और हर चीज नहीं भी। आपको बस अपना काम करना है। वो ही जरूरी है कि कितनी ईमानदारी से आप काम कर सकते हो। फिर मैंने गांव में जाकर चुना और अपने तरीके से उसे दिखाया और जो दिखाया वो बातें सच थीं। क्योंकि मैं खुद गया था वहां और स्कूलों में उन्होंने प्रभावित था और दूसरे काम करवाए थे। जितना डेमेज वो कर रहे होंगे, उससे ज्यादा तो कई और लोग कर चुके होंगे। सब कुछ एक चक्र हो चुका है, हम उस चक्र से बने समाज में आ चुके हैं। ऐसे समाज में जो है, अब नहीं बदलने वाला। मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हुए खुद को चॉकलेट, वॉशिंग पाउडर जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल्स पर ही रखा है जहां पर मैं समझता हूं लोग जानते हैं कि कौन सा सर्फ या पाउडर बैटर है। वो तो हमारे रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज है, उसे तो कम्युनिस्ट भी इस्तेमाल कर रहा है। वो भी दुकान में जाकर उसको ले रहा है, चॉकलेट भी खा रहा है। तो कोशिश पूरी करता हूं कि वहां न जाऊं जहां हम बच्चियों-बच्चों को ललचा रहे हैं, पर हो तो रहा है। पर डिबेट तो रहती ही है और मैं नहीं कहता हूं कि मैं बाहर आ गया हूं इससे, मैं भी फंसा हूं इसी चक्र में जैसे बाकी लोग फंसे हैं।

जैसे डोमिनोज का आपका विज्ञापन है, उसे देखकर लगता है कि क्या आप पिज्जा बेच रहे हैं संवेदनाओं के सहारे या फिर आप एक विकल्प दे रहे हैं कि दूसरों के बारे में सोचो या मिल बांटकर खाओ, चाहे पिज्जा हो या जलेबी?
उसमें अगर आप देखें तो डोमिनोज भी बहुत बाद में आता है। उसमें भी हमने बहुत जोर नहीं डाला है। उसे बहुत सामान्य रखा है कि फोन किया, ऑर्डर दिया और डोमिनोज आ गया। आप चाहें तो उसे महज एक फिल्म के तौर पर भी देख सकते हैं बच्चों ने मिलकर एक बुजुर्ग के लिए कुछ किया। बाद में डोमिनोज की तरफ इशारा जाता है तो मेरे ख्याल से वो एड ज्यादा तो बच्चों के बारे में है।

तो क्या जिस चक्र की बात आप कर रहे हैं वो एक न पलटी जा सकने वाली प्रक्रिया बन चुका है?
लेकिन हम ये कोशिश जरूर कर सकते हैं जो भी काम अब करें वो नए सिरे से करें, उस प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए न करें, सच्चाई के लिए करें। बाकी ये दुविधा हमेशा बनी रहने वाली है। हम बस वैल्यूज को बनाए रखें कि जहां हो सके दूसरे के बारे में सोचें, उसकी मदद करें। इससे ज्यादा कुछ करना भी चाहेंगे तो वो छद्म जीवन जीना हो जाएगा।

आपकी जितनी एड फिल्में मैंने देखी, उनमें डीटीएच है, ग्रीनप्लाय है या टाइम्स ऑफ इंडिया है, व्हील है... उनमें काफी रंग, इंसान और परते हैं। इन्हीं सब चीजों से अच्छी-खासी फीचर फिल्में बन सकती थीं, तो फिल्में क्यों नहीं?
मेरी सफलता की एक वजह ये रही कि मैं जब विज्ञापन जगत में आया तो सब लोग स्टूडियो में शूट कर रहे थे, उनके विज्ञापन परफेक्शन और ब्यूटी वाली छवियों से भरे लगते थे। मेरी शुरुआती एड फिल्मों में एक थी विम साबुन की, उसमें रीमा सेन और राजपाल यादव थे। उसे मैंने वीटी स्टेशन के बाहर शूट किया। मुझे कहा गया कि यार ये क्या कर दिया तुमने। लेकिन मैं विज्ञापनों को सड़क पर लेकर गया। क्योंकि तब जितने बन रहे थे उनमें जिंदगी होती ही नहीं थी। जैसे ऐश्वर्या का एक आता है... इतना ब्यूटीफुल सा होता है कि लाइफ लगती ही नहीं है उसमें। मेरे लिए जो जिंदगी मैं जी रहा हूं वही विज्ञापन हैं। अपने हर विज्ञापन में संस्कृति, विविधता और भारतीय डांस फॉर्म को शामिल करता रहा हूं। क्या ये एंटरटेनमेंट नहीं है, अगर आप देखते नहीं हैं तो क्या है नहीं। ये विरोधाभास मैंने दिखाया। वैसे मैं हमेशा से फिल्ममेकर ही था। हर एड को फिल्म समझकर ही शूट किया। क्योंकि न मैंने एड फिल्म बनानी अलग से सीखी थी न मुझे आती थी, मुझे फिल्म बनानी आती थी, मैं उन्हीं से एड फिल्मों में आया था। मुझे लगता है कि जो एडवर्टाइजिंग से फिल्मों में आए हैं वो ज्यादा गहराई में जा नहीं पाते, कुछेक ही हैं जो बहुत सफल हो पाए हैं। क्योंकि एक 30 सैकेंड के एड में आपको कैरेक्टर डिवेलप करना है, उसमें आप अलग माहौल में जी रहे हैं, लोगों की नब्ज के बारे में सोच रहे हैं.. लेकिन अगर आप फिल्मों से एडवर्टाइजिंग में आए हैं तो आपने लोगों को देखा है, उनके जीवन को जाना है।

फीचर फिल्में कब बनाएंगे?
फिल्मों में मैं हमेशा से ही था। बेहद यंग डायरेक्टर था उस वक्त मैं, कोई 23 साल का था और डायरेक्शन कर चुकने के बाद मुझे एड फिल्मों में जाना पड़ा। गुरुदत्त पर भी स्क्रिप्ट लिख रहा था लेकिन कुछ प्रॉब्लम्स आ गईं और वो ठहर गई, बनती तो अभी तक पूरी हो गई होती। अब फिर स्क्रिप्ट लिख रहा हूं, जल्द ही पूरी कर लूंगा, मेरा असल प्यार तो फिल्ममेकिंग ही है न।

शुरू में जो फिल्म बना रहे थे, उसके बारे में बताएं?
उसमें संजय कपूर, करिश्मा कपूर, रानी मुखर्जी, ओम पुरी, चंद्रचूड़ सिंह, काव्या कृष्णन, नम्रता शिरोड़कर, डैनी, फरीदा जलाल, जॉनी लीवर वगैरह सब थे। ए. आर. रहमान का म्यूजिक था। गुलज़ार साहब गाने लिख रहे थे। वो लिखी थी श्रीराम राघवन, मैंने और करण बाली साहब ने। श्रीराम मुझसे एक साल सीनियर थे। करण बाली भी एक साल सीनियर थे, फिलहाल वो एक अच्छी साइट अपरस्टॉल चलाते हैं। उसमें सीनियर पर्सन थीं रेणु रलूजा जो एडिटर थीं, बाकी सब नए थे। शर्मिष्ठा रॉय जो आर्ट डायरेक्टर थीं वो भी नईं थीं। तब उन्होंने यशराज की बड़ी-बड़ी फिल्में नहीं की थीं। उसका संभावित शीर्षक इत्तेफाक रखा था, राइट्स नहीं लिए थे। वो राइट्स बी. आर. चोपड़ा साहब के पास थे।

आपकी हरदम पसंदीदा फिल्में कौन सी रही हैं?
पथेर पांचाली (1955)। एक याशुजीरो ओजू की जापानी फिल्म टोकियो स्टोरी (1953) थी। एक आंद्रेई टारकोवस्की की द मिरर (1975) थी। ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा (1960)। ला वेंचुरा (1960) मिकेलेंजेलो एंटिनियोनी की। अकीरा कुरोसावा की राशोमोन (1950)। विट्टोरियो डि सीका की बाइसिकिल थीव्स (1948)। एल्फ्रेड हिचकॉक की नॉर्थ बाइ नॉर्थवेस्ट (1959)। ग्रैंडफादर जॉन फॉर्ड और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में लाते थे, वो भी थीं। ये सब फिल्में देखकर मेरा दिमाग अलग ही दिशा में चला गया।

अभी भी देखते हैं वर्ल्ड सिनेमा में जो रचा जा रहा है?
हर वक्त। सुबह, शाम, रात फिल्में ही देखता हूं। शूटिंग, मीटिंग, प्रोजेक्ट, फिल्म फेस्टिवल्स इनकी वजह से ट्रैवल बहुत करता हूं। फाउंडेशन का काम चल रहा है। मेरा खुद का वॉल्ट है जहां फिल्में रखता हूं उसकी क्लीनिंग चल रही है। जीरी मेंजल पर डॉक्युमेंट्री बना रहा हूं, सेल्युलॉयड मैन पर काम चल रहा है। एड फिल्में चलती रहती हैं, आर्काइव का काम चलता रहता है, मेरी स्क्रिप्ट चल रही है। चार ऑफिस हैं, उन्हें संभालना आसान नहीं है। दिन कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता, कभी-कभी तो वक्त के इतने तेजी से गुजर जाने से डरता हूं। मैं लिखता भी बहुत हूं। रोज की डायरी है, सेल्युलॉयड मैन की डायरी है उस पर लिखता हूं। आज भी इंक और पैन से लिखता हूं इसलिए मैं मेल बहुत कम लिखता हूं। लेटर्स लिखता हूं, पोस्टकार्ड लिखता हूं... ये सब मेरे शौक हैं। मैं बॉम्बे में एक लैब को स्पॉन्सर करता हूं जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट में गोल्ड प्रिंट निकलता है।

फिल्में देखने का जरिया क्या रहता है?
बड़ी स्क्रीन पर देखता हूं। मेरे ऑफिस में मिनी थियेटर है। वैसे मैं सिनेमा हॉल प्रेफर करता हूं, क्योंकि फिल्ममेकर ने उन्हें इसी लिए बनाया है। मगर जब कोई फिल्म निकल जाती है तो डीवीडी पर।

राजस्थानी फिल्में देखी हैं आपने? वहां का क्या सीन लग रहा है?
मुझे मालूम है कई लोगों ने वहां हिस्टोरिकल फिल्में भी बनाई हैं। लेकिन अभी तक कोई फिल्म नजर नहीं आई है जिसे कह सकूं कि मुझे पसंद आई हो। मुख्य चीज हमारे वहां ये है कि डायलेक्ट या बोलियां बहुत ज्यादा हैं, रीजनल बहुत ज्यादा है इसीलिए वहां हिंदी ज्यादा चल रही है। आप एक रीजन को लेकर बनाएंगे तो वो राजस्थान के बाकी इलाकों में नहीं चलेगी। ये समस्या है। आप रीजनल बंगाली में बना सकते हैं, पूरे बंगाल में वही चलता है। उड़ीसा में उड़िया पूरे में चलती है। कर्नाटक में वहां की एक भाषा है। लेकिन राजस्थान में दिक्कत ये है कि जो भाषा जयपुर में है वो बीकानेर या जैसलमेर में नहीं है, जो वहां है वो बाकी हिस्सों में नहीं है। किसी भी एक में राजस्थान करके फीलिंग नहीं आएगी।

P. K. Nair at the archive, 2009.
Shivendra Singh Dungarpur is an Indian filmmaker. He's directed over 400 commercials. His latest is a 2012 documentary ‘Celluloid Man’. The FB page of Celluloid Man says, "It is a tribute to an extraordinary man called Mr. P.K. Nair, the founder of the National Film Archive of India, and the guardian of Indian cinema. He built the Archive can by can in a country where the archiving of cinema is considered unimportant. The fact that the Archive still has nine precious silent films of the 1700 silent films made in India, and that Dada Saheb Phalke, the father of Indian cinema, has a place in history today is because of Mr. Nair. He influenced generations of Indian filmmakers and showed us new worlds through the prism of cinema. He is truly India’s Celluloid Man. There will be no one like him again."
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