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Thursday, August 6, 2015

मानो मत, जानोः “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” ...परस्पर

“Do not believe, Know!” …is a series about relevant documentary films and filmmakers around the world who’ve devoted their lives to capture the most real, enlightening, shocking, just and humane stories. They’ll change the way you think and see everything. Watch & read them here. 

 Documentary. .Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair (2012), directed by Ajay Bhardwaj.

“धर्मशाला धाड़बी रैंदे, ठाकर द्वारे ठग्ग
विच मसीतां रहण कुसत्ती, आशक रहण अलग्ग”
- मछंदर खान मिसकीन, फिल्म में बुल्ले शाह की काफी उद्धरित करते हैं
अर्थ हैः धर्मशालाओं में धड़वाई (व्यापारी) और ठाकुरद्वारों में लुटेरे बस गए हैं। मस्जिदों में वे रहते हैं जो वहां रहने के योग्य नहीं। आशिक (ईश्वर से प्रेम करने वाले) तो इन सबसे अलग रहते हैं।

पंजाब का सांझा विरसा और उस विरसे की बहुत परिष्कृत मानवीय-धार्मिक समझ अजय भारद्वाज की डॉक्युमेंट्री “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” में नजर आती है। ये फिल्म उनकी “पंजाब त्रयी” सीरीज में तीसरी है। मौजूदा मीडिया और पॉप-कल्चर ने एक सभ्यता के तौर पर हमें जो सिखाना जारी रखा है उससे हमें सुख और सच्ची समझ की प्राप्ति नहीं हो सकती। ये फिल्म भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद दोफाड़ पंजाब में मजबूती से बचे अलग-अलग धर्मों, वर्गों के लोगों में प्रेम, स्नेह और सह-अस्तित्व के निशान तो दिखाती ही है, दर्शन के स्तर पर भी बहुत समृद्ध और सार्थक करके जाती है। शायद ये समझने के लिए “मिलांगे...” हमें पांच-छह बार देखनी पड़े।

A still from "Milange..."
हम इस डॉक्युमेंट्री के पात्रों की बातों और समझ को देख हैरान होते हैं। वे ईश्वर को माही कहते हैं। वे अंतरिक्ष, आकाशगंगा और साइंस पढ़कर घमंडी नहीं हो गए हैं। वे पूरी विनम्रता से आश्चर्य करते हैं कि उस इलाही की महिमा का पार नहीं जो पानी पर धरती को तैराए रखता है। कि कैसे गर्म, धूल भरी हवाएं लहरा रही होती हैं और न जाने पल में कहां से काले बादल आ जाते हैं। इन पात्रों के विचार फकीरी वाले हैं। इनकी धर्म की व्याख्या बेहद आधुनिक, बेहद मानवीय है। ऐसी फिलॉसफी आधुनिक पाश्चात्य नगरीय सभ्यता शायद कभी नहीं पा सकेगी।

पिछली दो फिल्मों (कित्ते मिल वे माही, रब्बा हुण की करिये) की तरह इसमें भी उस पंजाब को तस्वीरों से सहेजा गया है जो भविष्य में न होगा। ईंटों के सुहावने घर, गोबर लीपे आंगन व दीवारें, गलियों में बैठे कुत्ते, टूटे पेड़ की शाख पर बैठे कौवे, खुली नालियां, स्कूल की ड्रेस में जाते भोले-प्यारे बच्चे। मज़ार के बाहर झाड़ू से सीमेंट की चौकी बुहारी-धोई जा रही है। शांति है। सुकून है। पैसा गौण है, प्रेम प्राथमिक है। धर्म सब स्वीकार्य हैं। ऊपर वाले को लेकर कोई लड़ाई, दंगा, फसाद नहीं है। ये हिंदु भगवान को भी मानते हैं, अल्ला को भी, वाहे गुरु को भी। 2015 के भारत में आप धर्म को लेकर जो बपौती की हेकड़ी पाएंगे, जो वैमनस्य की बू पाएंगे, दंगों का भय पाएंगे, दुनिया में हो रहा क़त्ल-ए-आम पाएंगे.. वो इस पंजाब में नहीं पाएंगे। वो पंजाब जो मुख्यधारा की कवरेज से दूर है। वो पंजाब जिसे बंटवारा भौगोलिक रूप से ही बांट पाया।

अजय इसी पंजाब को ढूंढ़ रहे हैं। उनके हर फ्रेम में जाते हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है। यहां धर्म की विवेचना अलग है और देश में अभी के माहौल में धर्म की परिभाषा अलग रची जा रही है। इस परिभाषा से लगता है कि कैसे हमें संकीर्ण सोच वाले दड़बों में हमारे बड़ों, हमारी जाति-धर्म वालों ने घेर रखा है। हम हिंदु हैं तो अन्य हिंदुओं से चिपक रहे हैं, हम मुस्लिम हैं तो रूढ़ि की अलग ही बेड़ी में बंधे हैं। अगर कहें कि ऐसा लग रहा है हम कई सौ साल पहले के युग में पहुंच गए हैं और आक्रांताओं का हमला होने वाला है। या ख़लीफायत स्थापित करने का वक्त आ गया है। तो धर्म की रक्षा को हिंदु और आक्रामक हो गए हैं। ये कितना हास्यास्पद है।

राजकुमार हीरानी की दिसंबर में प्रदर्शित फिल्म ‘पीके’ इसका सटीक जवाब देती है। जब स्टूडियो में पीके-तपस्वी संवाद होता है तो छद्म धर्मगुरू तपस्वी धमकाने वाले अंदाज में कहते हैं, “आप हमारे भगवान को हाथ लगाएंगे और हम चुपचाप बैठे रहेंगे? बेटा.. हमें अपने भगवान की रक्षा करना आता है!” जवाब में पीके कहता है, “तुम करेगा रक्षा भगवान का? तुम! अरे इत्ता सा है इ गोला। इससे बड़ा-बड़ा लाखों-करोड़ों गोला घूम रहा है इ अंतरिक्ष मा। और तुम इ छोटा सा गोला का, छोटा सा सहर का, छोटा सा गली में बैठकर बोलता है कि उ की रक्षा करेगा.. जौन इ सारा जहान बनाया? उ को तोहार रक्षा की जरूरत नाही। वो अपनी रक्षा खुदेही कर सकता है”। ये जवाब उन सबको भी है जो खुद को भगवान का संरक्षक या सैनिक मान लेते हैं। जैसे हाल ही में “जय भीम कॉमरेड” और “मुजफ्फरनगर बाकी है” जैसी फिल्मों का प्रदर्शन रोकने वाले। ये खेदजनक है कि अपने भीषण अज्ञान को उन्होंने सर्वोच्च ज्ञान और सार्वभौमिक सत्य मान लिया है जो उनमें उनके पूर्वाग्रहों से है, जो उनमें उनके घर के बड़ों, जातिगत समाजों द्वारा रोप दिया गया है। ये तत्व पशुवत हैं जिनमें सिर्फ अज्ञान और अहंकार है। क्या अहंकार से ईश्वर मिलता है? एक-दूसरे धर्मों से असुरक्षित महसूस करवाए जाने वाले लोग “मिलांगे..” में मछंदर खान को सुनें। वे गुनगुना रहे हैं.. “बालक पुकारते हैं बंसी बजाने वाले। कलजुग में भी खबर लो द्वापर में आने वाले”। सुनकर आप सुन्न हो जाते हैं।

हर पहचान (identity) को अपने में समाहित करने वाले इस धर्म की विवेचना और सूफीयत के अलावा फिल्म बंटवारे के बाद पंजाब में बची सांझी विरासत की मजबूती को भी पुष्ट करती चलती है जो इस “पंजाब त्रयी” की पिछली दो फिल्में भी कर चुकी हैं। शीर्षक में जिन बाबा रतन का जिक्र है वो बाबा हाजी रतन हैं जिनकी दरगाह भटिंडा में स्थित है। उन्हें भारतीय उप-महाद्वीप के अलावा इस्लामी दुनिया में भी श्रद्धा की नजर से देखा जाता है। माना जाता है कि वे पैगंबर मोहम्मद से मिले थे। लेकिन इस अपुष्ट तथ्य से ज्यादा जरूरी बात ये है कि कैसे उन जैसे चरित्र अलग-अलग धर्मों और वर्गों के लोगों द्वारा समान रूप से पूजे जाते हैं। इन सूफी चरित्रों के मेले अनेक वर्षों से पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में लगते रहे जो सब लोगों को करीब लाए। जैसे बाबा हाजी रतन का मेला 1947 के बहुत पहले से लगता था। दूर-दूर से लोग वहां आते थे। ये पंजाब का काफी बड़ा मेला था। फिर छापर का, बाबा मोहकम शाह जगरांव वाले का , नोहरभादरा में गोगामेड़ी का और सरहिंद का जोर मेला भी हैं।

पिछली डॉक्युमेंट्री के दयालु पात्र प्रो. करम सिंह चौहान की लिखी पुस्तक ‘बठिंडा’ से हम इन मेलों और विरसे को नजदीक से जानते है। वे बाबा रतन मेले के बारे में लिखते हैं, “यहां मुस्लिम सूफी संत आते थे, कव्वालियां गाते थे, गजब मेला लगता था। बुल्ले शाह, शाह हुसैन और अन्य गाए जाते थे। इस दौरान खास याद आती है बाबू रजब अली की गायकी। विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। 35 साल वहां रहने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। वे वहां रह-रहकर अपनी जन्मभूमि के लिए आंसू बहाते रहे। भठिंडा की धरती पर बाबू रजब अली शाह अली गाते थे, दहूद गाते थे वहीं साथ ही साथ गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों के बलिदानों की कहानी गाकर श्रोताओं की आंखों में पानी ले आते थे”। इस बीच मछंदर कहते हैं कि हालांकि वो मुस्लिम थे फिर भी साहिबजादों की कहानी ऐसे गाते थे कि कोई गा नहीं सकता। वे सूफी फकीर थे और उनका कोई धर्म नहीं होता। रजब अली, महाभारत के किस्से गाते थे, भीम-कृष्ण सब को गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन ओलिया जैसे मुस्लिम धर्म के मेलों में बाबा रतन का मेला चौथा सबसे बड़ा था और यहां हर धर्म के लोग आते थे।

छापर में गुग्गा मढ़ी (जिसे हम राजस्थान में गोगामेड़ी कहते हैं) की दरगाह में बने भित्तीचित्रों से तब के माहौल और व्यापक सोच की झलक मिलती है। इनमें सोहणी है जो दरिया पार कर रही है महिवाल से मिलने के लिए। मिर्जा पेड़ की छांव में सो रहा है और साहिबा उसके पास बैठी है। उधर साहिबा के भाई पीछा कर रहे हैं। पुन्नू ऊंट पर जा रहा है, पीछे सस्सी बैठी है। पंजाब के नामी पहलवान किक्कर सिंह और गुलाम लड़ रहे हैं। छापर के बेहद मशहूर गायक डोगर और उसके साजी हैं जिनके पीछे गांव का जमींदार रूरिया सिंह बैठकर सुन रहा है। मेले में आए लोगों के लिए निहंग कुएं से पानी सींच रहे हैं।

इस दुनिया के पात्रों का दर्शन (philosophy) बहुत ही सुखद है।

मछंदर कहते हैं, “अल्लाह किसी को मिला है तो बरास्ता (via) ही मिला है। हीर ने रब को पाया तो रांझे के रास्ते पाया। ससी ने पाया तो पु्न्नू के रास्ते पाया। मजनू ने पाया तो लैला के रास्ते”। वे मजनू का किस्सा सुनाते हैं। एक बार अल्ला का प्रतिनिधि उससे मिला। उसने कहा अल्ला ने याद फरमाया है। फकीर मजनू बोला कि मुझे तो अल्लाह से मिलने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर अल्लाह को मुझसे मिलना है तो मैं क्यों जाऊं वो खुद आए। और हां, जहां भी वो है, वो कभी मेरे सामने न आ जाए। अगर मुझसे चार बातें ही करनी हैं तो लैला बनके आ जाए।

क्या प्रेम की ये पराकाष्ठा इस और उस दोनों जन्मों को सफल नहीं कर देती?

एक बेहद अज्ञानी और गैर-स्मार्ट लगने वाला पात्र कहता है, “नमाज पढ़ लो या गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ लो, बात एक ही है.. बस उस मालिक के आगे सुनवाई होनी चाहिए। सब बोलियां उसी की बनाई हुई हैं। वो सब बोलियां जानता है। हम नहीं जानते”।

(यहां ajayunmukt@gmail.com संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी मंगवा सकते हैं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair” - Watch an extended trailer here:


On the eve of the British leaving the subcontinent in 1947, Punjab was partitioned along religious lines. Thus was created a Muslim majority state of Punjab (west) in Pakistan and a Hindu /Sikh majority state of Punjab (east) in India. For the people of Punjab, it created a paradoxical situation they had never experienced before: the self became the Other. The universe of a shared way of life – Punjabiyat — was marginalised. It was replaced by perceptions of contending identities through the two nation states. For most of us this has been the narrative of Punjab– once known as the land of five waters, now a cultural region spanning the border between Pakistan and India.

However, the idea of Punjabiyat has not been totally erased. In ways seen and unseen, it continues to inhabit the universe of the average Punjabi’s everyday life, language, culture, memories and consciousness. This is the universe that the film stumbles upon in the countryside of east Punjab, in India. Following the patters of lived life, it moves fluidly and eclectically across time, mapping organic cultural continuities at the local levels. It is a universe which reaffirms the fact that cultures cannot be erased so very easily. This is a universe marked by a rich tradition of cultural co-existence and exchange, where the boundaries between the apparently monolithic religious identities of ‘Hindu’, ‘Muslim’ and ‘Sikh’ are blurred and subverted in the most imaginative ways.

Moreover, one finds in this universe, mythologies from the past sanctifying such transgressions and reproducing themselves in the present; iconographies of Hindu gods and Sikh gurus share space with lovers, singers and wrestlers, creating a rich convergence of the sacred, the profane, and the subversive. Nothing represents this more than the Qissa Heer, a love balled exemplifying a unique Punjabi spirituality identified with love, whose multiple manifestations richly texture this landscape. Yet, there are absences to deal with. Strewn across this cultural terrain are haunting memories which have become second skin —of violence of 1947; of separation from one’s land; of childhood friends lost forever; of anonymous graves that lie abandoned in village fields. Accompanying this caravan of seekers and lovers are the ascetic non believers in whom a yearning for love and harmony turns into poetry against war and aggression. Such is the land of Punjab where miracles never cease to capture the imagination.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Thursday, February 13, 2014

मानो मत, जानोः “रब्बा हुण की करिये” ...बंटवारे की टीस

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Thus Departed Our Neighbours (2007), by Ajay Bhardwaj.

लाल सिंह दिल नजर आते हैं, शुरू में। पहली डॉक्युमेंट्री में वे इस्लाम के प्रति अपने अनूठे नेह और दलितों के साथ मुस्लिमों को भी सदियों के व्यवस्थागत-सामाजिक शोषण का पीड़ित बताते हैं। यहां उनकी संक्षिप्त झलक मिलती है। वे उर्दू की बात करते हैं। तेजी से दौड़ता और फिर लौटकर न आने वाला दृश्य उनका कहा सिर्फ इतना ही सुनने देता है, “...पंजाबी दी ओ तु पख्ख है। उर्दू, अरबी-पंजाबी नाळ इ मिळके बणया है। ओ अपणी लैंगवेज है। आप्पां अपणे पांडे बार सिट सिरदे हैं, वी साड्डे नी है साड्डे नी है। हैं साड्डे...। (उर्दू पंजाबी का ही तो हिस्सा है। ये अरबी और पंजाबी से ही तो मिलकर बनी है। ये हमारी ही भाषा है। हम अपने ही असर को बाहर फेंक रहे हैं कि ...हमारे नहीं हैं... ये हमारी ही है।)”

Pro. Karam Singh ji, in a still.
फिर इस डॉक्युमेंट्री के सबसे अहम पात्र प्रो. करम सिंह चौहान आते हैं जो बठिंडा, पंजाब से हैं। वे मुझे देश के सबसे आदर्श व्यक्तियों में से लगते हैं। जैसे हम में से बहुतों ने अपने गांवों में देखें होंगे। मख़मली ज़बान वाले, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, बेहद सहनशील, अनुभवों से समृद्ध, हर किसी के लिए रब से प्रार्थना करने वाले, समाज की समग्र भलाई की बात कहने वाले और उन्हें तक माफ कर देने वाले जो बंटवारे के क़ातिल थे। सिर्फ ‘रब्बा हुण की करिये’ की ही नहीं, अजय भारद्वाज की तीनों डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों की बड़ी ख़ासियत, ऐसे पात्र हैं। हर फ़िल्म में ऐसे एक-दो, एक-दो लोग हैं जिन्हें कैमरे पर लाना उपलब्धि है। इन सलवटी चेहरों के एक-एक शब्द को सुनते हुए कलेजा ठंडा होता है, मौजूदा दौर की बदहवासी जाती है, समाजी पागलपन का नशा टूटता है और समाज का सही पर्याय दिखता है। अगले 10-15 साल बाद ऐसे विरले बुजुर्ग सिर्फ दंतकथाओं में होंगे। मैं सिर्फ करम सिंह जी को सुनने के लिए ‘रब्बा हुण की करिये’ को पूरी उम्र देख सकता हूं। वे हमें तमाम तरह की अकड़ की जकड़ से निकालते हैं। उन जैसे लोग हमारे लिए मानवता का संदर्भ बिंदु हैं।

करम सिंह जी उर्दू के बारे में बात जारी रखते हुए पंजाब के मानसा जिले की बात करते हैं, “कुछ महीने बाद (विभाजन के) मैं मानसा के रेलवे स्टेशन गया। वहां जाकर क्या देखा, कि वहां जो उर्दू में मानसा लिखा हुआ था, वो नाबूद था। बड़ा दुख हुआ। मैंने सोचा, इन्होंने तो जिन्ना साहब को सच्चा कर दिया, जिन्होंने कहा था कि हम आप लोगों के साथ क्या रहें, आप तो हमारी भाषा को भी नहीं रहने देंगे”। अगले दृश्य में उधम सिंह का 1940 में लिखा ख़त पढ़ा जा रहा है। पास ही में पहली फ़िल्म के पात्र बाबा भगत सिंह बिल्गा बैठे हैं। जिक्र हो रहा है कि ख़त में कैसे उधम सिंह ने अपने लंदन में ब्रिक्सटन जेल के अधिकारी से कहा कि उनका नाम न बदला जाए जो मोहम्मद सिंह आजाद है। बिल्गा बताते हैं कि उधम को जेल में हीर पढ़ना बहुत पसंद था और खासकर हीर व क़ाज़ी के संवाद। फिर हम जालंधर के लोकप्रिय गायक पूरण शाहकोटी की आवाज सुनते हैं जिन्होंने अपने गांव शाहकोट के नाम को अपना नाम बना लिया। वे हीर गा रहे हैं। कहते हैं कि वारिस की हीर और सूफीयत से पंजाब का गहरा ताल्लुक है और आज भी दोनों पंजाबों का सभ्याचार एक ही है। मसलन, हीर। जो एक ही तरह से गाई जाती है। आप सरहद के किसी ओर वाले पंजाब में इसे सुनकर फर्क नहीं बता सकते। पूरण शाहकोटी नकोदर दरबार के अपने मुर्शिद (गुरू/स्वामी) बाबा लाडी शाह, बाबा मुराद शाह का जिक्र करते हैं, जिनके लिए गाने पर उन्हें तसव्वुर मिलता है। यानी सवाल खड़ा होता है कि आपने किसको अलग कर दिया? क्या आप वाकई में अलग कर पाए? क्योंकि ये तो उन्हें आज भी अपना ही मानते हैं। खैर, हम उनसे हीर का अनूठा हिस्सा सुनते हैं। वो हिस्सा जब हीर अपनी मां को गाते हुए पूछती है, “...दो रोट्टियां इक गंडणा नी मा ए, पाली रखणा कि ना ए”। सुनकर नतमस्तक होते हैं। हीर के मायने बड़े गहरे हैं जो सामाजिक टैबू, सांप्रदायिकता और बैर का विरोध करने वाली अजर-अमर छवि है। जैसे मीरा अपने वक्त में थीं। वो अपनी मां से कहती है कि वो बस दो रोटियां और एक प्याज लेगा, इतनी तनख़्वाह में ही उसे अपने जानवर चराने के लिए पाली रख ले मां। (किसी भी तरह से वो रांझे के करीब होना चाहती है)। वाकई तसव्वुर होता है।

इसके बाद करम सिंह जी रात के अंधियारे में बात करना शुरू करते हैं। वे शुरू करते हैं तुलसीदास जी की पंक्ति से, “पैली बणी प्रारब्ध, पाछे बणा शरीर...” यानी पहले आपकी नियति बनी थी, उसके बाद शरीर बना। वे बताते हैं कि उनके गांव में कोई स्कूल नहीं था, कोई पढ़ने का उपाय नहीं था, दो कोस दूर स्कूल था। फिर लुधियाना से करम इलाही नाम के एक पटवारी तबादला होकर उनके गांव आए। उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी, पर उनके कोई बच्चा नहीं था। उनका नाम शम्स-उल-निसा बेग़म चुग़ताई था। उन्होंने उन्हें करमिया कहकर बुलाना, पढ़ाना और स्नेह देना शुरू किया। उन्हीं की बदौलत वे पढ़ पाए। बाद में उन्होंने लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज से 1947 में फ़ारसी में एम.ए. की। करम सिंह द्रवित हो कहते हैं, “बीब्बी जी ने मैनूं बड़ा ही मोह दीत्ता, मिसेज करम इलाही पटवारी ने। मैनूं पार्टिशन दा ए बड़ा दुख औन्दा ए। वी मैं एहे जे बंदेया कौळों बिछोड़या गया”।

फिर हम हनीफ मोहम्मद से मिलते हैं। वे अटालां गांव के हैं जो समराला-खन्ना रोड पर स्थित है। अहमदगढ़ के जसविंदर सिंह धालीवाल हैं। ये दोनों विभाजन के वक्त के क़त्ल-ए-आम के चश्मदीद रहे हैं। हनीफ बच्चे थे और उन्होंने वो वक्त भी देखा जब उनके गांव की गली में पैर रखने को जगह नहीं बची थी, बस चारों ओर लाशें और ख़ून था। जसविंदर ने अपनी छत से खड़े होकर सामने से गुजरते शरणार्थियों के काफिले देखे। क़त्ल होते देखे। वो दौर जब मांओं ने अपनी जान बचाने के लिए अपने बच्चे पीछे छोड़ दिए। करम सिंह जी भी उस दौर के नरसंहार के किस्से बताते हैं। ये भी मालूम चलता है कि, वो लोग जिन्होंने निर्दोषों की बेदर्दी से जान ली और बाद में अपनी क़ौम से शाबाशियां पाईं, बहुत बुरी मौत मरे। तड़प-तड़प कर, धीरे-धीरे।

विभाजन के दौर की ये सीधी कहानियां हैं जो इतनी करीब से पहले नहीं सुनाई गईं। ‘उठ गए गवांडो यार, रब्बा हुण की करिये...” वो पंक्ति है जो बींध जाती है। आप पश्चिमी पंजाब के आज के लोगों के मन में तब सरहद खींच उधर कर दिए गए पड़ोसियों, दोस्तों के लिए अपार प्रेम देखते हैं। ये गीत रातों को और स्याह बनाता है, मन करता है बस सुनते रहें। कि, उन्हें याद करने को और रब से शिकायत करने को, मुझसे कोई नहीं छीन सकता।

डॉक्युमेंट्री के आखिर में करम सिंह जी जो कहते हैं, वो हमारी सामूहिक प्रार्थना है। 1947 की मानवीय त्रासदी के प्रति। बर्बरता से, नृशंसता से मार दिए गए दूसरी क़ौम के हमारे ही भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों से क्षमा-याचना है। उनकी रूहों की शांति के लिए। जिन्होंने क्रूरता की हदें पार की, उनके लिए भी। उनकी रूहों को भी नेक रास्ते लाने के लिए। वे क़लमा पढ़ते हैं, हम भी...

“ मज़लूमों, थोड्डा
थोड्डा
इल्ज़ाना देण वाला
अल्ला-पाक़ ए
रहमान-ओ-रहीम ए
ओस ने थोड्डा
होया नुकसान
थ्वानूं देणा ए
ते मैं दुआ करदा हां,
परमात्मा थ्वानूं जन्नत बख़्शे
ओन्ना मूर्खा नूं
ओन्ना पूलयां नूं वी
रब्ब
ओन्ना दीयां रूहां नूं
किसे पले रा पावे
किसे नेक रा पावे
ओन्ना उत्ते तेरी मेहरबानी होवे
इनसान आख़िर नूं
तेरा इ रूप ए
तेरा इ बंदा ए
इनसान ने इनसान उत्ते कहर करेया
जिदे उत्ते इनसान सदा रौंदा रहू
जेड़ा इनसानियत नूं समझदा ए
या अल्ला
तेरी मेहर…”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Thus Departed Our Neighbors” - Watch an extended trailer here:


While India won her independence from the British rule in 1947, the north western province of Punjab was divided into two. The Muslim majority areas of West Punjab became part of Pakistan, and the Hindu and Sikh majority areas of East Punjab remained with, the now divided, India. The truncated Punjab bore scars of large-scale killings as each was being cleansed of their minorities. Sixty years on, ‘Rabba Hun Kee Kariye’ trails this shared history divided by the knife. Located in the Indian Punjab where people fondly remember the bonding with their Muslim neighbours and vividly recall its betrayal. It excavates how the personal and informal negotiated with the organised violence of genocide. In village after village, people recount what life had in store for those who participated in the killings and looting. Periodically, the accumulated guilt of a witness or a bystander, surfaces, sometimes discernible in their subconscious, other times visible in the film. Without rancour and with great pain a generation unburdens its heart, hoping this never happens again.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Wednesday, July 17, 2013

मानो मत, जानोः “कित्ते मिल वे माही” ...अभूतपूर्व पंजाब

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Where the twain shall meet (2005), by Ajay Bhardwaj.

“ जो लड़ना नहीं जाणदे
  जो लड़ना नहीं चौंदे ...
  ... ओ ग़ुलाम बणा लये जांदे ने ”
           - लाल सिंह दिल, क्रांतिकारी कवि और दलित
              जीवन के बाद के वर्षों में इस्लाम अपना लिया

Lal Singh Dil, in a still.
उस दुपहरी में अपने पड़ोसी के साथ ऐसे पार्क में बैठे लाल सिंह दिल, जहां कोई न आता हो। जरा नशे में, पर होश वालों से लाख होश में। वहां का सूखापन और गर्मी जलाने लगती है, उन्हें नहीं मुझ दर्शक को। वो तपन महसूस करवा जाना अजय भारद्वाज की इस फ़िल्म की कलात्मक सफलता है, कथ्यात्मक सफलता है और जितनी किस्म की भी सफलता हो सकती है, है। इस डॉक्युमेंट्री को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। कभी नहीं। लाल सिंह दिल जैसे साक्षात्कारदेयी और उनके उस दोस्त और पड़ोसी शिव जैसा साक्षात्कारकर्ता मैंने कभी नहीं देखा। विश्व सिनेमा के सबसे प्रभावी साक्षात्कार दृश्यों में वो एक है। अभिनव, अद्भुत, दुर्लभ।

लाल सिंह के विचार आक्रामक हैं। वो देश के उन तमाम समझदार लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इसी समाज में हमारे मुहल्लों-गलियों में रहते हैं, पर चूंकि वैचारिक समझ का स्तर सत्य के बेहद करीब होने की वजह से उनका रहन-सहन और एकाकीपन समाज के लोगों की नासमझ नजरों को चुभता है, तो हम एक बच्चे के तौर पर या व्यस्क के तौर पर उनके करीब तक कभी नहीं जा पाते। कभी उनसे पूछ नहीं पाते कि ये दुनिया असल में क्या है? हमारे इस संसार में आने का व्यापक उद्देश्य क्या है? हमारे समाज ऐसे क्यों हैं? ये समाज की प्रतिष्ठासूचक इबारतें कैसे तोड़ी या मोड़ी जा सकती हैं? कैसे इंसान और मानवीय बनाए जा सकते हैं? काश, हम छुटपन में ऐसे किसी लाल सिंह दिल के पास बैठते तो एक बेहतर इंसान होते। समाजी भेदभाव के भविष्य पर दार्शनिक और दमपुख़्त यकीन भरी नजरें लिए एक मौके पर वे कहते भी है न,

“ जद बोहत सारे सूरज मर जाणगे
 तां तुहाडा जुग आवेगा...” 
  When many suns die
  Your era will dawn...

‘कित्ते मिल वे माही’ हमें उस पंजाब में ले जाती है, जहां पहले कोई न लेकर गया। पंजाबी फ़िल्मों, उनके ब्रैंडेड नायकों, यो यो गायकों और पंजाबियों की समृद्ध-मनोरंजनकारी राष्ट्रीय छवि ने हमेशा उस पंजाब को लोगों की नजरों से दूर रखा। जाहिर है उनके लिए वो पंजाब अस्तित्व ही नहीं रखता। सन् 47 के रक्तरंजित बंटवारे के बाद इस पंजाब में न के बराबर मुस्लिम पंजाबी बचे। उनके पीछे रह गईं तो बस सूफी संतों की समाधियां। डॉक्युमेंट्री बताती है कि ये सूफी फकीरों की मजारें आज भी फल-फूल रही हैं। खासतौर पर समाजी बराबरी में नीचे समझे जाने वाले भूमिहीन दलितों के बीच, जो आबादी का 30 फीसदी हैं। जैसे, बी.एस. बल्ली कव्वाल पासलेवाले पहली पीढ़ी के कव्वाल हैं। उनके पिता मजदूरी करते थे और इन्होंने उस सूफी परंपरा को संभाल लिया। सूफी और दलितों का ये मेल आश्चर्य देता है। और इसे सिर्फ धार्मिक बदलाव नहीं कहा जा सकता, ये सामाजिक जागृति का भी संकेत है। महिला-पुरुष का भेद भी यहां मिटता है। जैसे, हम सोफीपिंड गांव में संत प्रीतम दास की मजार देखते हैं, जो दुनिया कूच करने से पहले अपने यहां झाड़ू निकालने वाली अनुयायी चन्नी को गद्दीनशीं कर चन्नी शाह बना गए।

फ़िल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा 1913 से 1947 तक गदर आंदोलन के नेता रहे बाबा भगत सिंह बिल्गा भी हैं। उन्हें देखना विरला अनुभव देता है। वे और लाल सिंह दिल फ़िल्म बनने के चार साल बाद 2009 में चल बसे। ऐसे में जो हम देख रहे हैं उसका महत्व अगले हजार सालों के लिए बढ़ जाता है। डॉक्युमेंट्री के आखिर में लाल सिंह ये मार्मिक और अत्यधिक समझदारी भरी पंक्तियां सुनाते हैं...

“ सामान, जद मेरे बच्चेयां नूं सामान मिल गया होऊ
 तां उनाने की की उसारेया होवेगा…
 ... बाग़
 ... फसलां
 ... कमालां चो कमाल पैदा कीता होवेगा उनाने
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ ”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी 'पंजाब त्रयी' की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Where The Twain Shall Meet” - Watch an extended trailer here:

Punjab was partitioned on religious lines amidst widespread bloodshed in 1947, and today there are hardly any Punjabi Muslims left in the Indian Punjab. Yet, the Sufi shrines in the Indian part of Punjab continue to thrive, particularly among so-called ‘low’ caste Dalits that constitutes more than 30% of its population. Kitte Mil Ve Mahi explores for the first time this unique bond between Dalits and Sufism in India. In doing so it unfolds a spiritual universe that is both healing and emancipatory. Journeying through the Doaba region of Punjab dotted with shrines of sufi saints and mystics a window opens onto the aspirations of Dalits to carve out their own space. This quest gives birth to ‘little traditions’ that are deeply spiritual as they are intensely political.

Enter an unacknowledged world of Sufism where Dalits worship and tend to the Sufi Shrines. Listen to B.S. Balli Qawwal Paslewale – a first generation Qawwal from this tradition. Join a fascinating dialogue with Lal Singh Dil – radical poet, Dalit, convert to Islam. A living legend of the Gadar movement, Bhagat Singh Bilga, affirms the new Dalit consciousness. The interplay of voices mosaic that is Kitte Mil Ver Mahi (where the twain shall meet), while contending the dominant perception of Punjab’s heritage, lyrically hint at the triple marginalisation of Dalits: economic, amidst the agricultural boom that is the modern Punjab; religious, in the contesting ground of its ‘major’ faiths; and ideological, in the intellectual construction of their identity.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Monday, July 15, 2013

मानो मत, जानोः “एक मिनट का मौन” ...बलिदानों के लिए

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फिल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary...A Minute of Silence (1997), by Ajay Bhardwaj.

Chandrashekhar in a still from the film.
1997 में 31 मार्च की शाम, बिहार के सीवान ज़िले में नुक्कड़ सभाएं कर रहे चंद्रशेखर प्रसाद को जे.पी. चौक पर गोली मार दी गई। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े युवा छात्र नेता थे। अपने गृह ज़िले लौटे थे क्योंकि बेहतर दुनिया बनाने का जो ज्ञान ऊंची-ऊंची बातों और मोटी-मोटी किताबों से लिया था, उसे फैंसी कैंपस की बजाय बुनियादी स्तर पर ही जाकर उपजाना था। सीवान के खौफज़दा माहौल में जहां सांसद शहाबुद्दीन का आंतक था, चंद्रशेखर ने आवाज बुलंद की थी। स्थानीय स्तर पर इतने अनूठे, तार्किक और खुले विचारों के सिर्फ दो ही नतीजे निकलने थे। पहला था बदलाव हो जाना, राजनीति में अपराधीकरण खत्म हो जाना और दूसरा था मृत्यु।

इस बार भी हत्यारा उतना ही अलोकतांत्रिक और अपराधी था जितना कि 1989 में पहली जनवरी को लेखक और रंगकर्मी सफ़दर हाशमी की नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के बीच हत्या करने वाला स्थानीय कॉन्ग्रेसी नेता। आज़ाद भारत में इन दो युवा कार्यकर्ताओं की हत्या ने भय के माहौल को और भी बढ़ाया है। लेकिन हौंसला आया है तो उसके बाद देश में हुए व्यापक प्रदर्शनों से। जिनके वो सबसे करीबी थे, वो ही आंसू पौंछकर सबसे आगे डटे थे। सफ़दर की मौत के दो दिन बाद उनकी पत्नी मॉलोयश्री ‘जन नाट्य मंच’ के साथ उसी जगह पर वापस लौटीं और उस अधूरे नुक्कड़ नाटक को पूरा किया। उसी तरह चंद्रशेखर की बूढ़ी मां ने अविश्वसनीय हौंसला दिखाते हुए बिना कमजोर पड़े, दोषियों को सरेआम फांसी देने की मांग की। हर रैली में वह दौड़-दौड़कर आगे बढ़ीं।

चंद्रशेखर प्रसाद की हत्या के बाद दिल्ली, सीवान और देश में बने गुस्से के माहौल को निर्देशक अजय भारद्वाज की ये डॉक्युमेंट्री बेहतर समझ से दस्तावेज़ करती है। स्वर सिर्फ शोक के नहीं होते बल्कि उस बलिदान की सम्मानजनक प्रतिक्रिया वाले भी होते हैं। फ़िल्म के बीच-बीच में बहुत बार खुद चंद्रशेखर को सुनने का मौका मिलता है, उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझने का मौका मिलता है जो कि दीर्घकाल में न जाने कितने युवाओं के काम आ सकता है। फ़िल्म के शुरू में चंद्रशेखर और अन्य गांव वालों के शवों वाले दृश्य भौचक्का करते हैं, शहरों में बैठों का मानवीय समाज में रहने का भरम टूटता है। ‘एक मिनट का मौन’ देखना अपने असल समाजों के प्रति जागरूक होना है। अजय ने बनाकर कर्तव्य निभाया है, हमें सीखकर, लागू करके इस्तेमाल को सार्थक करना है।

“A Minute of Silence - Watch the full documentary here:

It was a late afternoon in Siwan, a small town in the Indian state of Bihar. A young leader, after already having addressed four street corner meetings, is on his way to JP Chowk to address another, quite unmindful of his apparently impossible dreams in a very cynical present. He is sighted by some associates of a local Member of Parliament, a notorious mafia Don. The young leader is Chandrashekhar Prasad. Seconds later he is killed.

The news spreads. Reaches Jawaharlal Nehru University in Delhi. The premier institute of whose students’ union Chandrashekhar was twice the president. There is an anger, a fury which refuses to subside…The Government refuses to respond. The apathy and ignoble silence so uniquely its hallmark and preserve. This apathy, this grief, this indifference, this hurt. This is what ‘Ek Minute Ka Maun’ sets to establish. Piecing together scenes from the agitation and combining with it the portrait of Chandrashekhar. The man and the leader, the rebel and the dreamer. An unwitting pawn, but a willing activist, caught in the spidery web of criminal – political nexus. But dreams do not die after Chandu. They live on, still hopeful, still optimistic. Very much like him.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)