Wednesday, June 27, 2012

अनुराग के पास लेखकों की लाइन लंबी थी मुझमें धैर्य नहीं था, गाना लिखने वालों की लाइन छोटी थी, उसमें आ गया

गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने लिखने वाले कुशल गीतकार वरुण ग्रोवर से बातचीत
 गर्मियों की छुट्टियां हैं और एक साल बाद वरुण के माता-पिता उनसे मिलने मुंबई आए हैं। इस बार उनका बेटा स्टैंड अप कॉमेडी वाले टीवी शोज में सटायर लिखने वाला राइटर भर नहीं है, अब वह 'गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी बड़ी हिंदी मूवी के दिनों-दिन हिट हो रहे गानों को लिखने वाला गीतकार हो चुका है। ‘भूस के ढेर में राई का दाना’, ‘ओ वुमनिया’, ‘जिया हो बिहार के लाला’ और ‘आई एम अ हंटर’ उन्होंने ही लिखे हैं। जब उनसे बात होती है तो वह बताते हैं कि उनकी आने वाली फिल्मों में वासन बाला की ‘पेडलर्स’ और आशीष शुक्ला की ‘प्राग’ है, जिनके गाने भी उन्होंने लिखे हैं। कामगारी जिदंगी के इस सफल शुरुआती पड़ाव में उनसे ये बातचीत, इस उम्मीद के साथ की आगे भी बहुत बार बातचीत होगी।

लालन-पालन से लेकर मुंबई आने तक, कैसे?
देहरादून में पांचवीं क्लास तक पढ़ा। फिर लखनऊ 12वीं तक। वहीं पर एक साल कोचिंग की। उसके बाद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर पूना (पुणे) में जॉब लग गई। 2004 में बॉम्बे (मुंबई) आ गया। यहां रहते हुए लिखने का काम कर रहा हूं तब से। यहां राइटर बनने ही आया था। संक्षेप में तो यही यात्रा रही।

कब ये लगा कि जोखिम लेकर मुंबई जा सकता हूं, ये या वो कर सकता हूं?
बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था। बीएचयू में थियेटर का अच्छा माहौल था। फैकल्टी भी थी। कैंपस में, हॉस्टल में रहने से तरह-तरह की परफॉर्मिंग आट्र्स को देखने का मौका मिला। वहां इंटर यूनिवर्सिटी फेस्ट भी होता है, देश भर का टेलेंट थियेटर से आता है, तो वो किस्मत से मिला। उसी से विश्वास आया। 2002 में मेरा नाटक युनिवर्सिटी लेवल पर और उसके बाद यूथ फेस्ट में चुना गया, ईस्ट जोन में गोल्ड जीता, उससे लगा कि इसे थोड़ा आगे ले जाया जा सकता है। लगा, चल सकते हैं बॉम्बे।

मुंबई आने के बाद?
2004 में कुछ खास था नहीं मुंबई में। 2005 में अच्छा टीवी शो मिल गया था, ‘ग्रेट इंड़ियन कॉमेडी शो’। बड़े और अच्छे लोगों की टीम मिली। रणवीर शौरी और विनय पाठक जैसे कई अच्छे एक्टर उसमें थे। सटायर लिखने का मुझे शौक था ही। इसमें स्टैंड अप कॉमेडी लिखने को मिलती थी। अच्छा शो था। एक्सपोजर मिला। तब से गाड़ी पटरी पर आई।

फिर?
टीवी पर पिछले आठ साल में जितने भी सटायर वाले शो आए, उसका हिस्सा रहा। ‘रणवीर विनय और कौन’ था। आज तक पर आने वाला ‘ऐसी की तैसी’ था, जो आठ महीने चला। इसमें रोजाना की न्यूज पर जोक होते थे। फिर ‘कॉमेडी का मुकाबला’, शुरू में उसमें स्टैंड अप का कंटेंट ज्यादा था, उसमें राजू श्रीवास्तव और राजीव निगम थे, अब तो बिगड़ गया है। फिर ‘जय हिंद’ ऑनलाइन है। कलर्स पर लेट ऩाइट शो आता है। जीटीवी और सब टीवी पर भी थे, जो चले भी नहीं और किसी को याद भी नहीं होंगे। फिर ‘जॉनी आला रे’ आया, जॉनी लीवर का, वो चला नहीं। फिर ‘ओए इट्स फ्राइडे’ फरहान अख्तर के साथ, उसमें लिखता था। फिर एक बच्चों की फिल्म थी ‘जोर लगाके हय्या’ वो लिखी। कोई स्टार भी नहीं था और सीरियस इश्यू पर थी तो चली नहीं। साथ में फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखता रहा। पता नहीं था कि यहां हो पाएगा कि नहीं, यहां तो कई साल वैसे भी बीत जाते हैं।

अनुराग कश्यप से कैसे जुड़े? ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में एक गाना आपने लिखा था।
‘...यैलो बूट्स’ में एक कबीर का भजन म्यूजिक डायरेक्टर ने यूज किया वो तो मैंने नहीं लिखा। एक गाना था ‘लड़खड़ाया’ 20-25 सैकेंड का, वो मैंने लिखा था। अनुराग एक छोटी फिल्म बना रहे थे 12 दिन में शूट करके, 20-25 लाख में बनने वाली थी। मैं पहले भी मिलता रहा था कि गाने लिखने वाला चाहिए हो तो... क्योंकि लेखक के तौर पर लंबी लाइन उनके पास है, दूसरा वो खुद भी लिखते हैं तो यहां मौका मिलने में एक लंबा इंतजार था, मुझमें शायद इतना पेशेंस नहीं था, लिरिक्स राइटर की लाइन उनके पास छोटी थी तो मैं पहुंच गया। उन्होंने कहा, ठीक है लिखो, गाने तो हैं नहीं, एक छोटा सा गाना है। उसी दौरान ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तैयारी शुरू हो गई। ऑफिस में बात चल रही थी। मैंने कहा, उसमें भी मौका दो। उन्होंने कहा कि म्यूजिक डायरेक्शन स्नेहा कर रही है तो उससे मिल लो, कुछ बनाकर दिखाओ। अच्छा लगा तो लेंगे। तो मैंने ‘भूस के ढेर में राई का दाना’ लिखा। उन्हें पसंद आया और ले लिया।

क्या माहौल था इस गाने के लिए?
सटायर है, पॉलिटिकल मीनिंग वाला गाना है, ऐसे वक्त में आता है जब इमरजेंसी खत्म हुई है। कैदी लोगों ने जेल में बैठ मंडली बनाई है और गा रहे हैं। एक दिमाग में था कि ‘तीसरी कसम’ वाले सॉन्ग ‘पिंजरे वाली मुनिया’ की तरह कुछ बनाएं। कुछ टेढ़ा हो। जेल का था तो थोड़ा पॉलिटिकल हालत देश की बताने की कोशिश थी कि देश में हर आदमी हताश हो गया है, कि नेहरु जी ने वादा किया था जो 1947 में देश की जनता के साथ, वो बेकार हो गया। तभी गाने में हर लाइन के बाद कहा जाता है ‘ना मिलिहे...’। उसमें आसानी से स्पेल आउट नहीं किया गया है, पर फिल्म देखें तो ऊपर लिखकर आता है। इंस्पिरेशन ‘तीसरी कसम’ था, इसलिए मॉडर्न साउंड वगैरह भी नहीं हैं।

वुमनिया कैसे लिखा गया और बना?
ये शब्द स्नेहा ने दिया। हम कोई शादी का गाना बनाना चाह रहे थे। तीन जेनरेशन है फिल्म में तो शादियों के दो गाने बनाने थे, एक पार्ट वन में एक पार्ट टू में। रिसर्च किया कि शादियों में वहां गाने कैसे होते हैं? किस लेवल का मजाक और बदतमीजी होती है? उसी दौरान स्नेहा के जेहन में ‘वुमनिया’ शब्द आया क्योंकि छेड़छाड़ वाला गाना है। शुरू में मुझे लगा कि सही नहीं है, पर लिखना शुरू किया तो इस शब्द में से ही बहुत सी इंस्पिरेशन निकलकर आई। वुमनिया है तो उसे डिस्क्राइब करने के लिए मॉडर्न शब्द भी जोड़े और देहाती भी। जब लिखना पूरा हुआ... म्यूजिक के बिना लिखा था, फ्री फ्लो में, फिर उसे कंपोज किया गया। उस वजह से तीन अलग फेज में गाना बना। कंपोज करने के बाद मीटर के हिसाब से लाइनें कम लगीं तो मैंने जोड़ा। फिर वो पूरा हुआ। पूरा बनने के बाद लगा कि ऑड नहीं है। क्योंकि मुझे कुछ लोग मिले हैं जो कहते हैं कि सही नहीं है गाना, बिहार के लिंगो के हिसाब से सही प्रयोग नहीं है। पर मुझे लगता है कि ऐसे ही भाषा में नए शब्द आते हैं। अगर भाषा में नहीं तो कम से कम गाने में तो आ ही सकते हैं।

आई एम अ हंटर...
करेबियन गई थी स्नेहा, वेस्टइंडीज। रिसर्च के लिए। उसे पता था कि माइग्रेंट हैं जो 1850 के आसपास यूपी और बिहार से गए थे। उसने वो म्यूजिक सुना हुआ था चटनी म्यूजिक, भोजपुरी और करेबियन इंस्ट्रूमेंट और शब्दों से बना हुआ। वह गई कि क्या पता वहां कोई बुजुर्ग सिंगर मिल जाए, ऐसा गाने वाला। गई तो वहां उन्हें वेदेश सुकू मिले। बिहारी ऑरिजन के हैं, पर हैं वेस्टइंडियन। हिंदी बोलते भी हैं तो अपने एक्सेंट में। वो कुछ अश्लील से गाया करते थे। स्नेहा ने उनके पुराने गाने भी सुने, कुछ एक-दो सॉन्ग थे। फिल्म में बंदूकें बहुत हैं इसलिए एक बंदूक का गाना भी चाहिए था। तो बना। पर लोगों को लगा कि कुछ हिंदी भी हो जाए तो ठीक है। हिंदी मैंने लिखा और अंग्रेजी वेदेश सुकू ने। मुझे तो आज तक भी कुछ वर्ड समझ नहीं आते अंग्रेजी के, क्योंकि एक्सेंट भी वैसा है। मुझे लिखने से पहले लगा कि अश्लील नहीं लगना चाहिए। तो 'हम हैं शिकारी, पॉकेट में लंबी गन, ढांय से जो छूटे, तन-मन होवे मगन’ लिखा। मेरे लिए सबसे आसान गाना था।

जिया हो बिहार के लाला...
स्नेहा हर बड़े जिले में घूमी। वहां का फोक म्यूजिक सुनकर आई। मैथिली, अंगिका, मगही, बजिका... चारों भाषाओं में रिकॉर्ड करके लाई, बहुत सारा सामान था हमने घंटों बैठकर सुना। फ्रेज, शब्द, सेंस सब निकाले। उसी में से ‘जिया हो बिहार के लाला, जिया तू हजार साला, तनी नाची के तनी गाई के, तनी नाची गाई सबका मन बहलावा रे भईया...’ ये इतना हमें मिल गया था। नौटंकी मुकाबलों में सिंगर आते हैं स्टेज पर और गाते रहते हैं रियाज के तौर पर 20-20 मिनट, तो हमें लगा कि इसे ही लेना चाहिए। इस गाने को हमने आगे बढ़ाया।

कितनी खुशी है, जिस तरह के संतोष भरे काम का बरसों इंतजार रहता है, आप उसका हिस्सा हैं?
बहुत ज्यादा खुशी है, इतना ज्यादा अच्छा प्रोजेक्ट मिलना क्योंकि ‘...यैलो बूट्स’ में एक ही गाना था। ‘गैंग्स...’ एक फोक प्रोजेक्ट था। इसमें सब के सब गाने इतने अलग हैं। फिर स्नेहा जैसी म्यूजिक डायरेक्टर का होना, जो एसी स्टूडियो में बैठकर काम करना पसंद नहीं करती है। पूरी फिल्म में पीयूष मिश्रा, अमित त्रिवेदी, स्नेहा और मनोज तिवारी के अलावा कोई ऐसा सिंगर नहीं था जिसने पहले कभी स्टूडियो भी देखा हो। सब नए सिंगर थे, फोक थे, जमीन से जुड़े थे। रिजल्ट भी नजर आ रहा है। अनुराग कश्यप खुद इतना ज्यादा फ्रीडम देते हैं, नहीं तो उनके लिए श्रेया घोषाल या सोनू निगम से गाने गवाकर बेच पाना बड़ा आसान होता, म्यूजिक कंपनियां भी राजी होतीं। यहां वो डर रही थीं, कि क्या गाने हैं, मनोज तिवारी को भी उस अंचल में ही लोग जानते हैं, लेकिन अनुराग अपने फैसले पर अड़े रहे। बस एक गाने में हम अटके थे। अनुराग ने कहा था कि बड़ा सिंगर ले लो, पर स्नेहा ने कहा कि नहीं। ‘भूस के ढेर में के लिए...’ जैसे आठ बार गवाया गया अलग-अलग लोगों से, ढूंढते-ढूंढते कि कोई थोड़ा गा दे फिर देखें। फिर आखिर में दिल्ली में मिले टीपू।

घरवालों को घबराहट नहीं हुई कि मुंबई में राइटर बनने जा रह है?
घर से बड़ा सपोर्ट मिला। पापा-मम्मी ने एक बार भी नहीं कहा कि जॉब क्यों छोड़ी। पापा को भी बचपन से शौक है फिल्मों का। उन्होंने जिदंगी भर सरकारी काम किया है तो जानते हैं कि बोर होता है सरकारी काम। खुशी-खुशी सपोर्ट किया।

बाहर बैठकर फिल्मों पर लिखना, उनकी आलोचना करना और बाद में फिल्म के भीतर होने पर उनपर कोई भी बात आलोचनात्मक ढंग से कह पाना कितना आसान रह जाता है?
आसान नहीं रहता। पर कोशिश रहती है कि कुछ तो कहूं। जैसे ‘...यैलो बूट्स’ आई। हमने घंटा अवॉर्ड्स में फिल्म को नॉमिनेट भी किया था। अनुराग पर मैंने ही जोक भी किए थे। तो इतनी फ्रीडम तो होनी ही चाहिए। मेरे पास अलग-अलग मंच भी हैं जहां से मैं बोल सकूं। कोशिश है कि सटायर करता रहूं।

टीवी पर, ट्रेलर्स में, दोस्तों के बीच... जब अपने लिखने गाने आने लगते हैं, तो कुछ आभास होता है सेलेब्रिटी राइटर होने का?
इंडस्ट्री में मुझे नहीं लगता कि राइटर्स की जिदंगी कभी सुधरती है। वो सेलेब्रिटी नहीं होते। पचास साल में सिर्फ जावेद अख्तर और गुलजार ही हुए हैं, अब प्रसून जोशी हैं। वो ही स्टार हो पाए हैं। बाकी राइटर्स को कोई स्टार नहीं मानता। मैंने बहुत कम मीडिया में देखा है, सिर्फ प्रॉड्यूसर्स के ही इंटरव्यू आ रहे होते हैं। ये राइटर्स के लिए सुकून वाली बात है। हां स्कूल के दोस्तों के फोन आऩे लगे हैं। कि ये तू ही है क्या।

कान और दूसरे फिल्म फेस्ट में दर्शकों ने ‘गैंग्स...’ जैसी फिल्म को कैसे लिया होगा? क्यों चुना होगा? जिसके गाने हिंदी अंचल के हैं, जिनका कोई आइडिया उन दर्शकों को नहीं है, जिसमें ह्यूमर और हाव-भाव समझना विदेशी दर्शकों के लिए इतना आसान भी नहीं।
लोग बाहर के कल्चर को जानने को उत्सुक रहते हैं, इंटरनेट का युग आने के बाद से। वो जानना चाहते हैं और आसानी से स्वीकार भी करते हैं। उनमें जो ‘वासेपुर...’ देखने आए तो जानबूझकर आए। कान जैसे फिल्म फेस्ट में एक-एक घंटा कीमती होता है। हमें भी वहां बुकलेट मिलती है तो प्रेफरेंस ऑफ ऑर्डर में टिक करते हैं कि पूरे दिन क्या देखना है। गूगल करके देख लेते हैं कि कौन है, उसने पहले क्या फिल्म बनाई है। तो जो लोग ‘...वासेपुर’ देखने आए तो वो अनुराग को जानते होंगे, या गैंगस्टर ड्रामा देखने आए होंगे। आपको उनको चौंकाना है तो लिमिट तक ही, यानी कि उम्मीद से जरा ज्यादा। उस वजह से अच्छा रहा। मैंने ये केलकुलेशन पहले नहीं की थी तो सरप्राइज हुआ कि विदेशी लोग हिंदुस्तानी फिल्म के लिए तालियां बजा रहे हैं। मुंबई में पले-बढ़े लड़के को बोलें ‘...वासेपुर’, तो वो नहीं देखेगा पर इंडिया से बाहर के आदमी के लिए भोजपुर और इंडिया का भेद नहीं होता। वो एक ही मुल्क की फिल्म मानते हैं। ओपन माइंड से देखते हैं। यहां के लोग नुक्स बहुत निकालेंगे कि बिहारी ऐसा होता है, नहीं होता है। लोग जजमेंटल होते हैं। बाहर नॉन-जजमेंटल व्यू मिला। अनुराग की फिल्मों को वैसा व्यू मिलता रहता है। वो कुछ कहती हैं।

पर ‘जिया हो बिहार के लाला’ जैसे गानों को कोई विदेशी उनकी पूरी देशज समझ में कैसे देख पाया होगा?
इस फिल्म में बहुत ही वेस्टर्न सेंसेबिलिटी के हिसाब से गाने बने हैं। वो फिल्म के एटमॉसफेयर का हिस्सा हैं, माहौल बनाते हैं, पंद्रह-बीस सेकेंड तक लाउड होते हैं, फिर चले जाते हैं पीछे बजते रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहरी फिल्मों में होता है कि गाना और म्यूजिक मूड बनाता है। यहां भी गाने बहुत हद तक वैसे ही यूज हुए हैं। दूसरा, नीचे सबटाइटल होते हैं, जैसे हमने इनारितू की देखी थी ‘एमेरोस पेरोस’ जिसमें नीचे सबटाइटल में पोएट्री आती है, तो उसे मैं बड़े चाव से देखता हूं। मैं फिल्म बार-बार लगाकर देखता ही उस पोएट्री की वजह से हूं, बाद में बंद कर देता हूं। और गाने की पोएट्री की भाषा ज्यादा यूनिवर्सल होती है। इस फिल्म में ऐसा है तो ये नई चीज है और लोगों को पसंद आए। लास्ट में ‘जिया तू बिहार के लाला’ आया तो कान में लोग काफी देर तक खड़े होकर, नीचे लिखकर आ रही पोएट्री भी पढ़ते रहे, ढूंढते रहे।

अनुराग के नाम, या गैंग्स जैसे टाइटल, या ऑफबीट इंडियन फिल्म, या इंडियन टैरेंटीनो... ऐसी अटकियों की वजह से क्या ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि वहां दर्शकों ने फिल्म देखने से पहले ही उसे इतनी दिव्यता अपने मन में दे दी कि देखना शुरू करने के बाद हर सेकेंड को आलोचनात्मक नजर से नहीं भक्त की नजर से देखा होगा। मसलन, इनारितू को या कोरियाई किम की डूक को ले लें। उन्हें उनके मुल्क के दर्शकों ने उतना सम्मान नहीं दिया जितना कल्ट रुतबा बाहर के दर्शकों ने दिया?
इस पर मैंने ज्यादा नहीं सोचा है पर हां, हो सकता है इस फिल्म के साथ हुआ होगा। एक ये भी वजह है कि फिल्म की हर लेयर को हम नहीं जानते हैं, तो उसे ज्यादा भक्ति या रेवरेंस के साथ देखते हैं। जैसे हम इनारितू की फिल्म को देखते हैं तो वो हमारी फिल्म को देखते हैं। ये जायज भी है।
*** *** *** 
गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, May 22, 2012

संजय लीला भंसाली तो मुझसे भी ज्यादा कमर्शियल हैं, राउडी राठौड़ का टाइटल भी उन्होंने ही दिया थाः प्रभुदेवा

बातचीत  1 जून को रिलीज होने जा रही फिल्म के निर्देशक और मशहूर डांसर प्रभुदेवा से

 ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ के फ्लॉप होने के बाद संजय लीला भंसाली ने अपने असिस्टेंट राघव धर की कहानी ‘माई फ्रेंड पिंटो’ के निर्माण में पैसे लगाए। इस उम्मीद पर कि प्रतीक बब्बर और कल्कि कोचलिन को लेकर बनाई गोवन लिंगो वाली ये चैपलिनछाप कॉमेडी लोगों को पसंद आएगी और उनकी डूबत उबर जाएगी। पर फिल्म नहीं चली। इस दौरान प्रभुदेवा की बतौर निर्देशक हिंदी फिल्मों में या मुंबई के सिनेमा में ‘वॉन्टेड’ वाली करारी पहचान बन चुकी थी। कि... भई ये ऐसा निर्देशक है जो दक्षिण की ग्लैमराइज्ड-स्टायलाइज्ड मारधाड़ को भावनात्मक तार्किकता का जामा पहनाकर लोगों को थियेटर तक लाना जानता है। जो मुहावरा गढ़ने का अंदाज भारतीय सिनेमा में शुरू से रहा है, वह प्रभुदेवा कर पाते हैं। ‘दबंग’ बनाने वाले अभिनव की माफिक।

तो ‘खामोशी’, ‘ब्लैक’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ जैसी फिल्मों से कुछ-कुछ ऑटर थ्योरी में घुसते फिल्मकार संजय लीला भंसाली ने तब छुआ मारक वित्तअस्त्र ‘विक्रमारकुडू’। तेलुगू की इस सुपरहिट फिल्म को हिंदी में बनाने का जिम्मा उन्होंने दिया प्रभुदेवा को। नतीजा हाजिर है। ‘राउडी राठौड़’। कहानी वही है विक्रम राठौड़ वाली। जाहिर है।

अंदरूनी भारत में जो लोग 1993 के बाद एटीएन, डीडीवन और जी के म्यूजिक चैनल देखते हुए और ऑल इंडिया रेडियो सुनते हुए बड़े हुए हैं, उनके लिए प्रभुदेवा एक डायरेक्टर नहीं हैं। उनके लिए वह एक ऐसी छवि है जो ‘हम से है मुकाबला’ के एक गाने में ‘मुक्काला मुकाबला ओ हो होगा... ओ हो लैला...’ गा रहा होता है और गाने के आखिर में काऊबॉय अंदाज में पिस्टल की गोलियां चलती हैं और उस नृतक का सिर, कलाइयां और टखने गायब हो जाते हैं। उसके बाद भी वह पुतला नाचता रहता है। हमारे लिए प्रभुदेवा नाम का वह नृत्य निर्देशक और नृतक ‘उर्वशी-उर्वशी’ और ‘पट्टी रैप’ के अपरिमेय नृत्य के बाद इंडिया का माइकल जैक्सन हो गया था। ये मौका उन्हीं अपरिमेय से बात करने का था।

उनके नृत्य की तरह उनकी विनम्रता भी अपरिमेय सी है। ये इसी का एक और सबूत था कि सफल अभिनेता, निर्देशक और नृत्य निर्देशक होने के बावजूद अक्षय कुमार से जुड़ी हर बात में वह उन्हें अक्षय सर कहकर संबोधित करते हैं, जबकि उनका सफल करियर अक्षय से पहले ही शुरू हो गया था। पूछने पर तुरंत कहते हैं, “उनकी जगह कोई इंडस्ट्री में पांच साल पुराना भी होता तो उसे भी मैं सर ही कहता”। पूरी बातचीत में उनके जवाब यूं ही छोटे-छोटे रहते हैं। कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने तुरंत एक के बाद एक, दो-तीन सैंडविच जल्दी-जल्दी खा लिए। किसी आम भूखे इंसान की तरह। उनके कपड़े भी वैसे ही होते हैं। तभी उनकी फिल्में भी आम इंसानों को सबसे ज्यादा लुभाती हैं। ये सब देखकर बहुत खुशी होती है।

आमतौर पर जो अभिनेता फिल्म निर्देशन (मसलन, अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह) में उतरते हैं वो उससे तौबा कर लेते हैं, लेकिन प्रभु अलग मिट्टी के बने हैं। “मुझे डायरेक्शन पसंद है। इसमें टेंशन और क्रिेएटिविटी बहुत होती है, जो मुझे बहुत पसंद है”, वह कहते हैं। फिल्म के हिट होने की लालसा पर भी उनका जवाब बड़ा सीधा-सादा होता है। कहते हैं, “मैं भी नॉर्मल इंसान हूं। बाकी डायरेक्टर्स की तरह चाहता हूं कि मेरी फिल्म भी हिट हो। बस”। वह हम जैसे ही सीधे बंदे हैं और संजय लीला भंसाली सौंदर्य और सनक को लेकर अलग ही सेंस रखने वाले। संजय अपनी फिल्म को लेकर बेहद अधिकारात्मक हो जाते हैं। मगर प्रभु इस बात को झुठलाते हैं। वह कहते हैं, “पता नहीं लोगों ने उनके बारे में अलग धारणा बना रखी है, मुझे भी कहा कि वह अलग टाइप के इंसान हैं। पर ऐसा मुझे तो नहीं लगा। हकीकत में तो निर्माता होते हुए भी वह राउडी राठौड़ के सेट्स पर सिर्फ एक बार आए थे और वह भी बस आधे घंटे के लिए”। अब बात आती है, उनके घोर कमर्शियल और संजय के नॉन-कमर्शियल और ज्यादा ही आर्टिस्टिक मिजाज वाला होने के बीच। ऐसे में एक फिल्म क्या खिंचती नहीं रहती? इसके जवाब में वह कहते हैं, “संजय सर तो मुझसे भी ज्यादा कमर्शियल हैं। फिल्म को राउडी राठौड़ जैसा टाइटल भी उन्होंने ही दिया था”।

उन्हें देखते हुए लगता नहीं पर वह मानते हैं और मुझे आश्चर्य होता है कि तेलुगू और तमिल में बन रहे एक्सपेरिमेंटल सिनेमा पर भी वह नजर रखते हैं। चाहे वह नए फिल्मकार थियागराजन कुमारराजा की बनाई कमाल तमिल एक्शन फिल्म ‘अरण्य कांडम’ हो या फिर रामगोपाल वर्मा की कैनन के 5डी कैमरा से महज पांच दिन में बनी तेलुगू फिल्म ‘डोंगाला मुथा’ (वैसे डोंगाला मुथा का जिक्र आया है तो बता दूं कि इस फिल्म के मुख्य अभिनेता भी रवि तेजा ही हैं, वही रवि तेजा जिन्होंने ‘राउडी राठौड़’ की मूल फिल्म ‘विक्रमारकुडू’ में एसीपी विक्रम राठौड़ की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभाई थी)। तो इस जिक्र पर प्रभु संक्षेप में कहते हैं कि हां, मैं ये सब देखता हूं। बड़ी अच्छी बात है कि नया काम हो रहा है, जो सिनेमा में नई चीजें लेकर आएगा।

मेरी रुचि प्रभुदेवा के बचपन और डांस की तरह झुकाव को जानने की होती है और वह बताते हैं, “पढ़ाई में अच्छा नहीं था। करियर का कुछ और ऑप्शन भी नहीं था। चूंकि मैं डांस को लेकर पागल था तो पिताजी से बोला। वो इंडस्ट्री में थे। उन्होंने पूछा क्या करना है तो मैंने बताया और मूवीज में आ गया”। प्रभु के पिता मुगुर सुंदर भी साउथ इंडियन फिल्मों के नामी कोरियोग्राफर रहे हैं। उनके भाई भी कोरियोग्राफर हैं।

‘राउडी राठौड़’ का निर्देशन करने के अलावा प्रभु, रैमो डिसूजा की फिल्म ‘एबीसीडी (एनी बडी कैन डांस)’ में भी अभिनय और डांस करते नजर आएंगे। रैमो की पिछली फिल्म ‘फालतू’ थी। ‘एबीसीडी’ में इंडिया के नामी नृतकों के साथ अमेरिका के डांस रिएलिटी शो की एक प्रतिस्पर्धी भी होंगी। प्रभुदेवा की बतौर डांसर वापसी कराने वाली ये फिल्म संभवत ‘स्टेप अप’ और ‘टेक द लीड’ की तर्ज पर होगी। खैर, बातों का यहीं अंत होता है। फिर कभी उनके अंतर्मुखी से बहुर्मुखी हो जाने और खूब लंबी गहरी बातें करने की उम्मीदों के साथ।

प्रभु से कुछौर प्रश्नोत्तर...
  • सर्वोत्तम नृत्य निर्देशन वाले गाने?
(गाना याद नहीं आता तो ट्यून गुनगुनाकर पूछते हैं कि ये कौन से गाने हैं, हिंट देता हूं और...) ‘डोला रे डोला रे’ (देवदास) और 'आज फिर जीने की तमन्ना है’ (गाइड)।

  • बॉलीवुड और टॉलीवुड को कैसे देखते हैं?
पहली काम करने के लिए मजेदार जगह है और दूसरी मेरा घर, जिसने मुझे बनाया।

  • कोई अगर पूछे कि आपकी फिल्म क्यों देखे तो?
क्योंकि इसमें अक्षय सर की एनर्जी है, गन्स है और फाइटिंग है। क्योंकि यह 'दबंग' के बाद सोनाक्षी सिन्हा की दूसरी फिल्म है। क्योंकि इसमें उन दोनों की कैमिस्ट्री बहुत कमाल की है। क्योंकि 'राउडी राठौड़' में मैं हूं।

  • कोरियाग्राफी अपने पिता से सीखी या खुद ही सीखे?
मैंने पिताजी के साथ काम किया। कुछ इसका भी फर्क पड़ा। दूसरा मैं उस इंडस्ट्री को अच्छे से जानता था। पर बाद में अच्छे से कोरियोग्राफी सीखी भी थी।

  • हिंदी फिल्मों के तीन सबसे बढ़िया डांसर, आपकी नजर में?
ऋतिक रौशन, माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी मैम।

  • ‘वॉन्टेड’ के बाद सलमान खान के साथ काम नहीं किया?
मौका नहीं बना। वह बेहतरीन इंसान हैं। मुझे जब भी बुलाएंगे मैं हाजिर हो जाऊंगा।

  • क्या ‘राउडी राठौड़’ में अक्षय कुमार का डबल रोल 'डॉन’ के अमिताभ जैसा है?
(चौंकते हुए) पहले तो ये बताइए, आपको कहां से पता चल गया कि इसमें डबल रोल है। ....पर हां, डॉन से बिल्कुल अलग है।

  • अक्षय कुमार ने बहुत वक्त से एक्शन नहीं किया था?
पर ये शूटिंग में लगा ही नहीं। फाइट करते हुए तो वह 23-24 साल के लड़के जैसे बन जाते थे।

  • आपकी फिल्मों में एक्शन स्टायलाइज्ड और ग्लैमराइज्ड होता है, क्या बच्चों पर बुरा असर नहीं पड़ेगा?
पहले कभी इस तरह सोचा नहीं इस बारे में। मगर अब आपने कहा है तो आगे से जरूर ध्यान रखूंगा।

*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, May 21, 2012

संवादों की मजबूती वाली एक अच्छी फिल्म 'जन्नत-2'

फिल्मः जन्नत-2
निर्देशकः कुणाल देशमुख
कास्टः इमरान हाशमी, रणदीप हुड्डा, मनीष चौधरी, एशा गुप्ता, मोहम्मद जीशान अयूब, बृजेंद्र काला
स्टारः तीन, 3.0
रेटिंगः ए (एडल्ट)  - गालियों का ध्यान रखें


इसे हथियारों की तस्करी पर बनी एक सस्ती फिल्म माना जा रहा था। इमरान हाशमी की बाकी फिल्मों जैसी ही एक और। कम से कम जरा एलीट किस्म की फिल्में पसंद करने वाले दर्शकों के मन में तो यही पूर्वापेक्षा थी। पर फिल्म बहुत मामलों में अलग हो जाती है। बहुत फर्क पड़ता है संजय मासूम के संवादों से। शुरू से ही इमरान अपने चपल संवादों और वैसे ही हंसी भरे हाव-भाव से अपने किरदार सोनू दिल्ली को बेहद संप्रेषित बनाते जाते हैं। कैसे, इन संवादों के जरिए देखते हैं। सोनू दिल्ली छोटे-मोटे हथियारों की गैर-कानूनी ब्रिकी करता है। ऐसे अपराधियों पर एसीपी प्रताप (रणदीप हुड्डा) की नजर है। उसे लगता है कि सोनू के जरिए वह हथियारों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता तक पहुंच सकेगा। तो वह उसे दिल्ली के एक पुल पर बुलाता है। और इस मुलाकात में सोनू अनजान, भोला और ईमानदार आदमी बनते हुए कहता है... 
क्या बात कर रहे हो साहब
करीना कट पीस
इसी नाम से दुकान है जमना पार अपनी
कभी आ जाओ
अच्छी मलाई वाली चाय पिलाऊंगा...

पर जाहिर है खान नहीं मानता। वह हथकंडे अपनाता है। सोनू से पूछताछ करता रहता है, उसकी हथेली पर चाकू मारकर डराता है, उसे पुल से नीचे यमुना में लटका देने की कोशिश करता है, पर जैसे-तैसे बात निपटती है। यहां से सोनू अस्पताल पहुंचता है। बड़बड़ाता हुआ, हमें हंसाता हुआ। यहां डॉक्टर होते नहीं हैं, रात का वक्त होता है, ड्यूटी पर तकरीबन कोई नहीं होता। एक कमरे के आगे एक आदमी लाइन में लगा होता है। उसे हटाते हुए वह कहता है और हम चकित होते जाते हैं...
भाईसाहब, खून निकल रहा है
पहले मैं दिखा दूं, कहीं एड्स न हो जाए

भोली मक्कारी बरतते हुए वह डॉक्टर जाह्नवी सिंह तोमर के पास पहुंच जाता है। सीरियस मूड में, लंबे कद की खूबसूरत मॉडल जैसी डॉक्टर। अब यहां हाथ से बहते खून का दर्द मिट सा जाता है, और उसे मन ही मन प्यार हो जाता है। जाह्नवी हाथ पर पट्टी बांधते हुए पूछती है, वैसे तुम्हारे हाथ पर क्या हुआ... और वह (वैसे वह जाह्नवी से शुरू में झूठ नहीं बोलता, जैसा एक छोटा-मोटा अपराधी तो हर बात में आसानी से बोलता जाएगा) कहता है...
एक पुलिस वाले को गलतफहमी हो गई थी
उसने हाथ पर चाकू मारकर पुल पर उल्टा टांग दिया था
ये जो नए-नए पुल हैं न
कितने डेंजरस है आज समझ आ रहा है

मुझे इस डायलॉग में छिपा गहरा सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत ज्यादा रास आया। भला कितनी बार ऐसा होता है जब चलताऊ किस्म की मूवीज में इतने गहरे निहितार्थ वाले संवाद डाले जाते हों। महानगरों में जो बड़े-बड़े कंक्रीट के फ्लाइओवर और छह लेन-आठ लेन सड़के बन रही हैं, उनपर तो आलोचनाओं की पोथियां लिखी जा रही हैं, जो विकास के मॉडल पर विमर्श करती हैं। मैं खुद इसे बहुत जरूरी विषय मानता हूं। पर यहां इमरान हाशमी की कमर्शियल सी फिल्म में, वो भी हंसी-भरे संवाद में यह कहना कि ये नए-नए पुल कितने डेंजरस हैं आज पता चल रहा है... औसत बात तो नहीं है। इमरान के हाव-भाव और मैनरिज्म इस फिल्म में कुछ बदले-बदले हैं। उन्होंने खुद के अभिनय में पहले की तुलना में बेहतरी लानी शुरू की लगता है, जिसकी परिणीति ‘शंघाई’ में जरूर होगी।

आते हैं रणदीप हुड्डा पर। उनका खुले बटन वाला लुक और चुस्ती से भागने वाला अंदाज उन्हें आम एसीपीयों में अलग बनाता है। उनका हर रात शराब पीना, फिर अपनी टीम के द्ददा (बृजेंद्र काला) से छुट्टे सिक्के मांगना, टेलीफोन बूथ में जाना और अपने ही घर में बार-बार फोन मिलाना, घंटी का बजना, बाद में मैसेज छोड़ने की प्रतिक्रिया देती टेलीफोन ऑपरेटर की आवाज का बार-बार आना। ये सब कहानी का एक अलग जायकेदार इमोशनल पहलू है। दरअसल प्रताप की जान से ज्यादा प्यारी वाइफ ऐसे ही किसी गैर-कानूनी हथियार से मारी गई थी, जिसके जिम्मेदार थे हथियारों के तस्कर। तो वह ऐसे रैकेट के पीछे पड़ा है। ‘रिस्क’ और ‘डी’ जैसी फिल्मों के बाद से उनके लिए ऐसे धीर-गंभीर और सपट रोल करना आसान हो गया है। हमें उन्हें ऐसी भूमिकाओं में स्वीकार करना भी। उनके हिस्से भी एक बड़ा अच्छा संवाद आता है। जब फिल्म के महत्वपूर्ण अंत की ओर जाते हुए सोनू दिल्ली कहीं पीछे न हट जाए, एसीपी प्रताप उसे कहता है...
जैसे मेरे सिर में अटकी हुई गोली मुझे मरने नहीं देती
वैसे ही बल्ली की मौत तुझे जीने नहीं देगी...

आगे बढ़ने से पहले संक्षेप में कहानी जान लेते हैं। पुरानी दिल्ली की गलियों में सोनू दिल्ली (इमरान हाशमी) कुत्ती कमीनी चीज के नाम से मशहूर है। वह और उसका जिगरी दोस्त बल्ली (मोहम्मद जीशान अयूब) छोटे-मोटे गैरकानूनी हथियार, शराब और पायरेटेड डीवीडी बेचने जैसा काम करते हैं। उन्हीं से उनकी लाइफ चलती है। सोनू को डॉक्टर जाह्नवी (एशा गुप्ता) से प्यार हो जाता है और यहीं से वह शरीफों वाली जिंदगी जीने का मन बना लेता है। मगर इससे पहले उसे एसीपी खान (रणदीप हुड्डा) की मदद करनी होगी, हथियारों के सबसे बड़े सप्लायर मंगल सिंह तोमर (मनीष चौधरी) तक पहुंचाने में। वह ऐसा करने भी लगता है, पर एक के बाद एक उसका रास्ता कठिन होता जाता है।

‘रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ द ईयर’, ‘ब्लड मनी’ और टीवी सीरिज ‘पाउडर’ में दिखने वाले मनीष चौधरी ने इस फिल्म में हरियाणवी रूप धरा है। मंगल सिंह तोमर के रूप में वह उन्हीं मैनरिज्म के साथ नजर आते हैं, उसमें कोई फर्क नहीं आया है। हां, भाषा और उच्चारण में जरा बदलाव वह लाए हैं। सोनू से जब वह मिलते हैं तो कहते हैं...
हम दोनों की कुंडली मिलेगी
लगता है
शनि प्रबल है तेरा
लोहे में फायदा पहुंचाएगा...

हथियारों के इस गैरकानूनी धंधे को करने के पीछे की वजहों में खानदानी रसूख कायम रखने या पाने की न जाने मंगल सिंह की कौन सी कोशिश है। इसमें एक कम्युनिटी, जाति और धर्म की बात भी है। खैर, ये चीज भी नित्य-प्रतिदिन वाली नहीं है। एक सीन में सोनू को समझाते हुए मनीष का किरदार कुछ यूं बोलता है...
सन्यासी, अपराधी और लीडर
इन तीनों के रास्ते में रोड़ा होता है परिवार
इसलिए मैंने अपनी बीवी को मार दिया
क्योंकि मेरे लिए मिशन जरूरी था
पुरखों की कला का लोहा मनवाना था

फिल्म में मेरे पसंदीदा संवादों में एक वह है जिसमें एक इंस्पेक्टर एसीपी बने रणदीप के लिए कहता है (जब वह दारु पीकर अपनी मरी हुई वाइफ को फोन करने की कोशिश करता है) ...अढ़ाया पढ़ाया जाट फिर भी सौलह दूनी आठ।

पहले की फिल्मों में कहानी का लक्ष्य होता था दो दिलों के बीच प्यार होते दिखाना, फिर उसे पाने की लड़ाई और शादी के पहले क्या हुआ ये बताना। मगर ‘विकी डोनर’ और ‘जन्नत-2’ देखते वक्त महसूस होता है कि स्क्रिप्ट बेधड़क हो चली है। शादी इंटरवल से पहले ही हो जाती है। उसके बाद कुछ मोड़ आते हैं और हमें उससे एतराज नहीं होता। फिल्मों में रिसर्च के मामले में हाल ही में ‘पान सिंह तोमर’ का नाम लिया गया। ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में भी कहानी पर शोध किया गया, हालांकि उसमें विषयवस्तु की कमी नहीं थी। ‘जन्नत-2’ के बारे में भी एक वरिष्ठ अभिनेता ने मुझसे एक साक्षात्कार में हाल ही कहा था कि इसके लिए निर्देशक कुणाल देशमुख ने काफी रिसर्च की है। हथियारों की तस्करी, गैरकानूनी मैन्युफैक्चरिंग की जगहों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में।

फिल्म में गालियां बहुत है। आंशिक रूप से जे पी दत्ता की ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ में, सुधीर मिश्रा की ‘ये साली जिंदगी’ में और बाकी कई फिल्मों में पहले हम सुन चुके हैं, मगर इस फिल्म में बहुत हैं। अब ऐसा लगता है कि गालियों वाली फिल्मों के लिए अलग रेटिंग हो जानी चाहिए। क्योंकि फिल्मों की नई पौध में एक किस्म ऐसी है जो रिएलिटी को सिनेमा बना देने में यकीन रखती है और ऐसा करने पर रिएलिटी की बहुतेरी ऐसी चीजें भी इस लोकप्रिय माध्यम में आ जाती है जो सबको नहीं करनी चाहिए, पर लोग करते हैं। फिल्मों में गालियां न हो तो बहुत ही अच्छा, पर कम से कम उम्र को तो रेटिंग में डाला जा ही सकता है। ‘जन्नत-2’ में गालियां मानें तो थोपी नहीं लगतीं। जैसे किरदार हैं, वो जिंदगी के हर पल में ऐसे ही कर्स वर्ड बोलते हैं। और वो इस फिल्म में भी है। तकनीकी तौर पर कहीं कोई खामी नहीं लगती। फिल्म का अंत बड़ा हिम्मती है, पर चतुराई से समेटा गया है। कुल मिलाकर हम दो-ढाई घंटे के शो के बाद ठगा महसूस नहीं करते, न ही हमें कुछ भी फालूदा परोसा जाता है। हथियारों की तस्करी से ये कहानी बहुत आगे जाती है। फिल्म का नाम भी उपयुक्त नहीं है। बस सीक्वल बनाकर जन्नत ब्रैंड से कुछ फायदा दिलाने की कोशिश है, जो बेहद कमजोर बात है। आगे खुद देखें और जानें।
**** **** **** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, May 20, 2012

रियल-फिल्मी के बीच स्मृतियों में नहीं आ पाती इशकजादे

फिल्मः इशकजादे
निर्देशकः हबीब फैजल
कास्टः परिणीति चोपड़ा, अर्जुन कपूर, अनिल रस्तोगी, रतन राठौड़
स्टारः ढाई, 2.5
चेतावनीः अगर आपने फिल्म नहीं देखी है, तो कृपया देखने के बाद ही आगे पढ़ें, क्योंकि कहानी आगे खोल दी गई है।

पूरी फिल्म में श्रेष्ठ है पहला दृश्य। जहां स्कूल से लौट रहे पांच-छह साल के बच्चे जोया और परमा एक दूसरे को बड़ी-बड़ी मासूम गालियां दे रहे हैं। “तेरा बाप सूअर, नहीं तेरा बाप सूअर। तू सूअर का पिल्ला, तू सूअर की बच्ची। तेरा बाप कुत्ता, तेरा बाप डॉग कुत्ता, तू डॉग कुत्ते का पिल्ला। यू ब्लडी फूल। नहीं, तू ब्लडीफूल”। साथ में रेल की पटरियां दौड़ रही हैं। पटरियों के साथ-साथ सड़क पर साइकिल रिक्शा, जिसमें लड़कियां बैठी हैं और लड़के पीछे पैदल चल रहे हैं। इनकी आपसी गालियां और कुत्ते-बिल्ली वाला झगड़ा रेल के गुजरने के सुर में धीमा होता जाता है।... इतना स्मृतिसहेजक दृश्य है कि रोम-रोम खुश और हैरान हो जाता है। छोटी जोया के रोल में इस बच्ची का अभिनय बरसों याद रहने वाला लगता है। इसके बाद पूरी फिल्म में स्मृतियों का सामान बस एकआध जगह ही है।

शुरू करते हैं कहानी के साथ। उत्तर भारत में कहीं बड़ा बंदूक-तमंचों वाला जिला है अल्मौड़। यहां के दो एमएलए कैंडिडेट हैं चौहान (अनिल रस्तोगी) और कुरैशी (रतन राठौड़)। इनके पॉलिटिकल बैर का असर शुरू से ही बच्चों परमा चौहान (अर्जुन) और जोया कुरैशी (परिणीति) पर भी रहा है। फिलहाल चुनाव की तैयारियां चल रही हैं और दोनों बच्चे भी इसमें जोरदार तरीके से शामिल हैं। जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार। पर इस बीच नोक-झोंक प्यार में बदल जाती है, जिसमें बीच में एक बड़ा पेंच आता है। इस पेंच के बाद में इनका प्यार हकीकत हो जाता है, पर भारतदेश में समाज, परिवार और परिवार की इज्जत नाम की चीजें भी होती हैं। फिर ऑनर किलिंग नाम की चीज भी है। यहां भी इनके परिवार वाले इनके परिवार को स्वीकार कर लें, यह असंभव ही हैं।

यशराज बैनर की हालिया फिल्मों में ‘बैंड बाजा बारात’ माफिक बुनावट दिखने लगी है। इनमें फ्रेम्स की डीटेलिंग और बुनियादी चीजों में रिएलिटी भरी होती है और कहानी में काल्पनिक वेल्डिंग वाले स्पर्श होते हैं। इससे किरदार, जगहें और इमोशन हमें हमारे बीच के ही असली लगने लगते हैं, पर कहानी में कहीं न कहीं कुछ नकली पैकेजिंग होती है। ‘इशकजादे’ भी हमें ऐसे ही असमंजस में डालती है। फिल्म में अल्मौड़, कुरैशी-चौहान फैमिली, एमएलए का चुनाव, कस्बाई सभ्यता और परमा-जोया-द्ददा जैसे नाम हमें बिल्कुल नए और असली लगते हैं, पर किरदारों का व्यवहार और उनकी कहानी ड्रामैटाइज्ड।

जैसे...
  • परमा को शादी के बाद अपना शरीर और आत्मा सौंप देने वाली जोया को जब लगता है कि उसे धोखा दिया गया है, तो उसके चेहरे पर ठगा जाने वाला भाव अद्भुत है। काया फट जाने को होती है। मगर जब वह परमा की मां के कमरे में होती है और उसे धोखे के बाद पहली बार मिलती है तो बदले की तीव्रता-तीक्ष्णता कुछ बिखरी और दिशाहीन लगती है।
  • वैसे परमा बिल्कुल सिरफिरा और गुस्सैल है। छोटी सी बात पर कैरोसीन डिपो वाले के झोपड़-गोदाम में आग लगा देता है। जरूरत न होते हुए भी कुरैशियों के हथियारबंद घर से चांद बेबी (गौहर खान) को उठा लाता है। ... अब जब दद्दा ने ही उसे इस किस्म का असभ्याचारी जानवर बनाया है तो इस बात पर परमा को थप्पड़ को जड़ देता है। और नाराज होने की बजाय परमा हंस क्यों पड़ता है?
  • मां की बातें उसके पल्ले क्यों नहीं पड़ती? वह मां का बेटा बनकर नहीं द्ददा का पोता बनकर क्यों रहता है?
  •  सबसे कचोटने वाली बात यह रहती है कि जब उसकी आंखों के सामने दादा उसकी मां को गोली मार देता है तो (हबीब फैजल उसे और जोया को जानवर कहकर परिभाषित करते हैं) वह गुस्से में वापस उसी क्षण दादा को गोलियों से क्यों नहीं भून देता? छोड़ क्यों देता है? क्यों फिल्म में यहां तक हमें यह नहीं समझाया गया है कि वह इतना सहनशील भी हो सकता है?
  • मरती मां कहती है, परमा अपनी गलती सुधार। और, शॉक की मनःस्थिति होते हुए भी न जाने कैसे वह अगले तीन-चार मिनट में कपड़े पहन, बैग और बाइक ले जोया को बचाने अल्मौड़ा की गलियों में आ जाता है। मां के मरने का गम इतना जल्दी मिट गया?
  • रुतबे वाले कुरैशी साहब की बेटी जोया को देखने और सगाई करने जावेद आए हैं। पार्टी रखी गई है। कोठे वाली चांद बेबी (गौहर खान) मर्दों के बीच नाच रही है। तभी सहेलियों का हाथ थामे जोया का प्रवेश होता है। अब सगाई समारोह के उपलक्ष्य में एक बड़े इज्जतदार-रसूखदार घर में नचनिया नाच ही रही है कि रिएलिटी फिल्म फिल्मी हो जाती है। चांद बेबी के साथ जोया भी नाचने लगती। चारों और मर्द हैं। जो मर्द चांद बेबी को हवस की नजर से देखकर नाच का लुत्फ उठा रहे, क्या वो जोया को भी ऐसे ही नहीं देखेंगे। ये सब उस स्थिति में हो रहा है कि अल्मौड़ एक दकियानूसी सामाजिक मनःस्थिति वाले लोगों का जिला है और कुरैशी साहब के घर का माहौल भी उतना ओपन नहीं है। तो जोया का नाचना अजीब लगता है। अगर यहां निर्देशक साहब उसे नचा सकते हैं तो फिल्म के क्लाइमैक्स में भी दोनों इशकजादों के इशक को भी कुछ फिल्मी बना देते। अगर कुरैशियों के घर में जोया नचनिया के साथ नाच सकती है तो उसके प्यार को भी तो कुरैशी साहब कुबूल कर रही सकते थे।
  • फिल्म के आखिरी सीन में गजब का विरोधाभास है। हमें बताया जा रहा है कि भारत में जोया और परमा जैसे प्यार करने वालों का यही हश्र होता है। यानी कि उन्हें जान ही देनी पड़ती है। मान लिया। मगर इतने रियलिस्टिक अंत के तरीके पर नजर डालिए। जोया और परमा ने एक दूसरे के पेट में पिस्टल लगा रखी है और एक के बाद एक गोलियां मार रहे हैं। त्वचा से गोली भीतर जा रही है और जोया का चेहरा शिकनहीन है। कोई अजीबपना नहीं, कोई दर्द नहीं, कोई ठेस सी नहीं, कोई असहजपना नहीं। वह मुस्कुरा रही है, मुस्कुरा रही है और मुस्कुरा रही है। अब बताइए थियेटर से बाहर क्या मुंह और क्या हासिल लेकर निकलें।

विस्तृत तौर पर फिल्म पर आऊं तो 'इशकजादे की कहानी में कब, कहां, क्या होगा, अनुमान नहीं लगा सकते। यहीं इसकी खासियत भी है। फिल्म अरिष्कृत, कच्ची और जिलों वाली जिंदगी सी धूल-मिट्टी भरी है। मसलन, पहले ही सीन में जीप में तीन लड़कों का मिट्टी का तेल लेने आना। मिट्टी का तेल कुरैशियों के यहां न जाए और चौहानों के यहां आए, इस बात पर डिपो वाले की झोंपड़ी फूंक देना। कमसकम मैदान के समानांतर बनी दीवार के पास की कच्ची सड़क पर बराबर दौड़ती जीप और उड़ती धूल से तो अपना-अपना जिला सभी को याद आ ही जाता है। परमा का चप्पल पहनकर जीप चलाना भी और दबंग लिखा लोअर पहनना भी। हां, भाषा के लिहाज से अर्जुन जरा भी अल्मौड़ के नहीं हो पाए हैं। शुरू में परमा और उसके दोनों दोस्तों को ‘तेरा आशिक झल्ला वल्ला...’ गाते देख भी अजीब लगता है क्योंकि तब तक उस गाने का कोई संदर्भ नहीं होता है।

निर्देशक हबीब फैजल और परिणीति चोपड़ा ने हिंदी सिनेमा को जोया के रूप में एक ऐसी लड़की दी है जिसके इमोशन गेहुंए रंग के हैं। परिणीति जैसे फ्रैश इमोशन मौजूदा वक्त की कोई भी हीरोइन शायद ही दे पाए। मसलन, स्मूच करते हुए, दो से एक होते हुए, तमंचा चलाते हुए और प्यार में ठगा महसूस करते हुए। अर्जुन कपूर का किरदार परमा कुछ जटिल है। उसके मन में क्या चल रहा है, आप जो चाहें अनुमान लगाएं, छूट है। पर कहीं स्क्रिप्ट के स्तर पर यह कैरेक्टर स्पष्ट नहीं हो पाया है, या हमें स्पष्टता से समझाया नहीं गया है। जिसके कुछ अंश ऊपर आ चुके हैं। पर कुल मिलाकर दोनों नए अभिनेताओं का काम आगे के लिहाज से ठीक-ठाक रहा है।

हबीब ने 'दो दूनी चार’ में राह सुझाई थी, मैसेज दिया था। पर 'इशकजादे’ में बस कमेंट किया है। एक्टिंग सबकी अच्छी है। मुश्किल इतनी ही है कि फिल्म सच्चाई और एंटरटेनिंग होने के बीच कन्फ्यूज होती झूलती है। आप चौंकते है, तारीफ करते हैं, पर टेंशन फ्री नहीं हो पाते। फन महसूस नहीं कर पाते। जैसी भी है इस कोशिश के लिए हबीब फैजल और पूरी कास्ट की हौसला अफजाई कर सकते हैं, तमाम सवालों के बीच।
**** **** **** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी

वर्मा का डिपार्टमेंट खराब हो रहा है और हमारा टाइम

फिल्मः डिपार्टमेंट
निर्देशकः राम गोपाल वर्मा
कास्टः राणा डगुबाती, संजय दत्त, अमिताभ बच्चन, विजय राज, अभिमन्यु सिंह, मधु शालिनी, अंजना सुखानी, लक्ष्मी मांचू
स्टारः डेढ़, 1.5

‘शिवा’ 1990 में आई थी। रामगोपाल वर्मा की पहली हिंदी फिल्म। तब के बड़े स्टार नागार्जुन, वर्मा के सिनेमा सेंस से बड़े प्रभावित हुए थे और उन्होंने फिल्म के निर्माण में पैसा लगाया। मेरी नजर में ‘शिवा’ वर्मा की अब तक की सबसे पैनी सिनेमैटिक फिल्म है। कैमरा, कहानी, किरदारों की प्रस्तुति, उनकी इमेज मेकिंग, इमोशंस का उठाव और भराव और निर्देशन में ब्लंट फैसले... सब के सब बड़े संतुलित थे।

‘डिपार्टमेंट’ तक आते-आते मामला बिल्कुल उल्टा हो जाता है। सब सिनेमैटिक पहलुओं का संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाता है। दर्शक थियेटर में जिस कहानी को सुनने आते हैं, उसकी जगह रामगोपाल उन्हें माचिस की डिबिया जितने छोटे कैमरों की करामातें दिखाते हैं। कहानी सुनाने की बजाय उनका पूरा ध्यान कैमरों को चाय की प्याली, पानी की गिलास, चाय के भगोने, डगुबाती के माथे, अमिताभ के हाथ, संजय की लात और पिस्टल पर बांधने में रहता है। हालांकि कैमरों से खेलने की उनकी इन्हीं आदतों ने उन्हें दूसरों से खास बनाया है। ‘नॉट अ लव स्टोरी’ और ‘डोंगाला मुथा’ को रामगोपाल ने कैनन 5डी से शूट किया, पारंपरिक मोटे-मोटे कैमरों को त्यागते हुए। अब ‘डिपार्टमेंट’ शूट हुई ईओएस 5डी कैमरों से। मैंने ‘रक्तचरित्र’ और ‘रक्तचरित्र-2’ के वक्त लिखा था कि फिल्ममेकिंग के स्टूडेंट्स इन फिल्मों से बहुत कुछ सीखेंगे, मगर ‘डिपार्टमेंट’ इस बात में बड़ा सबक है कि क्यों टेक्नीक के लिए स्टोरीटेलिंग और किरदारों को ताक पर नहीं रखना चाहिए।

आते हैं कहानी पर। ये मुंबई है। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट महादेव (संजय) फिल्म शुरू करते हैं। सरकारी रजामंदी से वह डिपार्टमेंट नाम की एक टीम बनाते हैं, जो कानूनी होते हुए भी गैरकानूनी काम करती है। यानी सीधे अपराधियों का एनकाउंटर। वह बड़े काबिल मगर सस्पेंडेड इंस्पेक्टर शिव (डगुबाती) को भी टीम में लेते हैं। अब शिव इस बात को लेकर कन्फ्यूज है कि यहां कौन सही है और कौन गलत? क्योंकि महादेव एक गैंगस्टर मोहम्मद गौरी (जो कभी नजर ही नहीं आता) के लिए काम करता है। फिर अपनी जान बचाने के बदले में कभी गैंगस्टर रह चुके मिनिस्टर सरजीराव (अमिताभ) शिव को बुलाते हैं, उसे फ्लैट देते हैं और इशारों पर नचाने लगते हैं। कहानी में सावतिया (विजय राज) का गैंग भी है, जिसमें डीके (अभिमन्यु सिंह) और उसकी महबूबा नसीर (मधु शालिनी) बगावती तेवर अपनाए हुए हैं। कर्तव्य और करप्शन के खेल में फंसे किरदारों की कहानी मरती-मारती आगे बढ़ती है।

अभिमन्यु सिंह और विजय राज (संदर्भ के लिए विजयराज ‘जंगल’ में और अभिमन्यु ‘रक्तचरित्र’ में) का इतना शानदार इस्तेमाल हो सकता था, मगर दोनों के किरदार बोरियत भरी फूं फा ही करते रह जाते हैं। अमिताभ बच्चन ने ‘आग’ और ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’के बाद इस फिल्म में भी इतना अजीब बनने की कोशिश की है। या कहूं तो रामू ने उन्हें बनाने की कोशिश की है। मसलन, हाथ में घंटी बांधने वाला लॉजिक। बचकानेपन की इंतहा। मुझे अभी भी याद है जब रामगोपाल के असिस्टेंट रह चुके पुरी जगन्नाथ के निर्देशन में बनी ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ रिलीज हुई थी और लोगों ने फिल्म को पसंद नहीं किया था, तब रामगोपाल ने वही ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने कथित तौर पर अभिताभ बच्चन को प्यार से गंदी गालियां दी थी। उनके मुताबिक एक फैन के तौर पर साउथ में रहते हुए उनके और पुरी के मन में अमिताभ की जो फैंसी एंग्री यंग मैन वाली इमेज थी, उसे बुड्ढे के तौर पर फिल्म में सही से फिल्माया गया। जबकि बतौर आम दर्शक हमें ये तर्क हजम नहीं होता। वक्त बदला है, फिल्में भी और लोगों की सेंसेबिलिटीज भी। मगर रामगोपाल अडिग रहे हैं, चाहे वह सही हो या चाहे गलत। उन्होंने अपनी मर्जी की ही फिल्में बनाई है। इन लापरवाहियों का ही नतीजा है कि फिल्म दो घंटे से कुछ ज्यादा की होते हुए भी चार घंटे की लगने लगती है। इसके लिए 'अज्ञात’ लिखने वाले भी नीलेश गिरकर जिम्मेदार हैं, जिन्होंने ‘डिपार्टमेंट’ की कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। निराशाजनक। रही सही कसर संगीत पूरी कर देता है। कहीं तो ये म्यूजिक ‘सरकार’ और ‘सरकार राज’ में फिल्म को नए आयामों पर ले गया था पर यहां सिरदर्दी है। खासतौर पर फिल्म में डाला गया तथाकथित चर्चित आइटम सॉन्ग। गाना नहीं मीट की दुकान है।

वर्मा इसे एक सीधी-साधी फिल्म भी बनाने निकलते तो काफी था। पर इतना भी वह नहीं कर पाए। कोई आश्चर्य नहीं कि 'शिवा’ को लेकर उन्होंने अपने ब्लॉग में बहुत पहले लिखा था, “मुझे बस फिल्ममेकिंग में एंट्री लेनी थी, और उस वक्त मौका था, इसलिए बहुत सारी फिल्मों को कॉपी करके शिवा बना दी, ताकि बाद में अपने मन की फिल्में बना सकूं”। यही कहूंगा कि वह फिल्म अच्छी थी और अब जो वह अपने मन की कर रहे हैं वह लोगों के लिए व्यर्थ है। एक ऐसी ही व्यर्थ मन की चलाई चीज है डिपार्टमेंट, जिसे थियेटर में देख पाना बड़ा ही मुश्किल है। हां, टीवी पर प्रसारण के दौरान हो सकता है, खाली वक्त में कुछ अच्छी चीजें भी ढूंढी जा सकेंगी।
**** **** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, May 19, 2012

Growing impatient with Shahrukh Khan!

An actor’s ego at times leads to unseemly situations at public places. ON the recent controversy where Shahrukh Khan allegedly misbehaved with the Wankhede stadium, Mumbai security staff after an IPL match. 



This is one race of people for whom psychoanalysis is of no use whatsoever. For the popular medium of cinema and its artisans at least, I’d agree with what Austrian neurologist Sigmund Freud says here, the man who gave us the discipline of psychoanalysis. It was at the time of Ketan Mehta’s "Maya Memsaab", around 1993. Shahrukh Khan threatened a journalist for writing an article about him, Deepa Sahi and Ketan Mehta booking a room in a hotel and rehearsing an intimate scene of the movie, later, which turned out to be the Maya Memsaab sex scene controversy. It was the only day of today’s King Khan’s life that he was jailed.

As if it wasn’t enough, he called that reporter and said something like this, “I’m going to come to your house right now and f*** you in front of your parents”, and he went, till the gates of his house, shouting and threatening. Don’t know about Tuesday’s Wankhede Stadium episode but the star was at best of his abusive language then. A year or two later Khan met with the same journalist at a party, hugging and saying sorry to him, realising that the article was written by someone else from the magazine.

I find it a curious case of ego. An artist’s ego. And if you don’t count cinema as an art, then call it an actor’s ego. If it creates ruckus at public places, it determines your ace on stage and before camera too. Remember Shia Labeouf, who was beaten to the ground by a shirtless man named Mike after a reported heated exchange inside a bar in Vancouver, Canada last October. It was said that Shia was pretty intoxicated, like it is being said about Shahrukh, which wasn’t proven by paparazzi though. The ego that got Shia punched in the head, made him the star actor of “Transformers: dark of the moon” too.

There is a long history, as to what we are talking about. Salman Khan and his on record brawls with media persons, charged by his artistic ego and anger were pretty regular until recently.

A few film journalists many times say about Amitabh Bachchan that you can’t be in talking terms and criticising him at the same time. He only likes the ones who admire him. You talk something that makes him unhappy and he’ll make sure you never get to interview him ever again.

This is with filmmakers too. Few days back, the director of "Char Din Ki Chandni" Samir Karnik lashed out at critics saying in saalon ko to bulana bhi nahi chahiye, in kutton ko to marna chahiye, mera hi popcorn khate hain aur meri hi film ko ek aur aadha star dete hain (these dogs and bastards must be beaten, must be banned, they eat my popcorn, watch my movie and give half or one star).

Neither Shahrukh nor Shia are bad human beings, it just that they have a responsibility in public sphere, which is time and again broken. And who’s accountable? Art, ego, stardom, human behaviour, consumerism, market, money or a highly intolerable society we’re living in? Maybe all. But, it doesn’t matter until we start talking about society as a whole, humanity as a whole. It all starts from here only.

*** *** *** *** *** *** *** ***
Gajendra Singh Bhati