Tuesday, July 17, 2012

किंग जूलियन को छोड़ मेडागास्कर-3 में संतृप्ति कुछ भी नहीं, पर बच्चों को भाएगी

फिल्मः मेडागास्कर 3 – यूरोप्स मोस्ट वॉन्टेड (थ्रीडी-अंग्रेजी)
डायरेक्टरः ऐरिक डार्नेल, टॉम मेकग्राथ और कॉनराड वर्नन
आवाजः बेन स्टिलर, क्रिस रॉक, डेविड श्विमर, जेडा पिंकेट स्मिथ, साशा बैरन कोहेन
स्टारः तीन, 3.0
संक्षिप्त टिप्पणी

 बच्चों के लिए दुनिया भर में बनने वाली फिल्में तकरीबन सभी अच्छी होती हैं। चाहे ईरान में बनती माजिद माजिदी की ‘द कलर ऑफ पैरेडाइज’ हो या भारत में बनी रघुबीर यादव के अभिनय वाली ‘आसमान से गिरा’। हॉलीवुड की एनिमेशन और थ्रीडी फिल्में कभी निराश नहीं करती। ‘शार्क टेल’, ‘मेडागास्कर’ और ‘आइस ऐज’ बच्चों की पुराण बन चुकी हैं। ‘मेडागास्कर-3’ उम्मीद जितनी अच्छी तो नहीं है पर बच्चों को इसमें कुछ भी बोरिंग नहीं लगेगा। फिल्म में नई चीजें भी हैं। जैसे, पैरिस पहुंचे एलेक्स को पकडऩे की हैरतअंगेज कोशिशों में लगी फ्रेंच कैप्टन शॉन्तेल दुबुआ। उसका भरे बदन के साथ लाल स्कूटरों पर सवार हो फ्रेंच एक्सेंट में जानवरों की वैन का पीछा करना। साथ ही पेंगुइन्स और किंग जूलियन वाले सीन सबसे मजेदार हैं। बड़ों को फिल्म औसत लगेगी। पहली फिल्म में न्यू यॉर्क के जू से निकल शहरी जानवरों का अफ्रीका पहुंचना और वहां के ठेठ किरदारों से उनका सामना होना नई चीज थी इसलिए फिल्म रोचक बनी। इस बार उनके न्यू यॉर्क लौटने की बात में कोई चाव नहीं था इसलिए ये फिल्म मोटे तौर पर औसत हो गई। कुछ मौके थे जहां फिल्म बड़ी मजेदार हो सकती थी, पर कुछ कसर रह गई। मसलन...

Maurice and King Julien
  • पहली दो फिल्मों जितना चटख ह्यूमर किरदारों में नहीं है। जैसे क्रिस रॉक और बेन स्टिलर की आवाज वाले पात्रों मार्टी और एलेक्स के बीच पिछली फिल्मों में कितनी शानदार हास्य जुगलबंदी होती थी।
  • हांस जिमर का म्यूजिक तो है पर ‘आई लाइक टु मूव इट मूव इट’ जैसा एक भी फनी गाना नहीं है।
  • ‘द डिक्टेटर’ जैसी फिल्म से सुर्खियों में रहे उम्दा एक्टर साशा बैरन कोहेन ने इस सीरिज के सबसे फनी किरदार किंग जूलियन को अपनी आवाज दी है। वह कमाल हैं, लेकिन जूलियन के सीन कम लगते हैं।
एलेक्स को न्यू यॉर्क लौटना हैः कहानी
‘मेडागास्कर-2’ जहां खत्म हुई थी, वहां ये कहानी शुरू होती है। न्यू यॉर्क के चिडिय़ाघर में रहने वाले एलेक्स (शेर), मार्टी (जेबरा), मेल्मन (जिराफ) और ग्लोरिया (दरियाई घोड़ी) अब अफ्रीका में हैं। पेंगुइन्स इन्हें छोड़ मोंटे कार्लो, पैरिस में जुआ खेलने गए हैं। एलेक्स को डर है कि कहीं वह अपने साथियों के साथ अफ्रीका में पड़ा-पड़ा बूढ़ा तो नहीं हो जाएगा। उसे न्यू यॉर्क के चिड़ियाघर की याद सताने लगती है जहां का वह स्टार था। अब वह अपने दोस्तों के साथ पेंगुइन्स को ढूंढने मोंटे कार्लो ही जाने की योजना बनाता है। मगर वहां जाने पर सब कुछ उल्टा पुल्टा हो जाता है। सब न्यू यॉर्क तो पहुंचते हैं पर ढेर सारे एडवेंचर के बाद।
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गजेंद्र सिंह भाटी

दावा था राउडी मनोरंजन का, जो राठौड़ ने कुछ पूरा भी किया

फिल्मः राउडी राठौड़
डायरेक्टरः प्रभुदेवा
कास्टः अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, परेश गनतारा, नासर
स्टारः तीन, 3.0
संक्षिप्त टिप्पणी

कहानियों के मामले में तेलुगू और तमिल फिल्मों में फ्लैशबैक तो अनिवार्य चीज होती है। एक कहानी होगी, उसमें दूसरी कहानी होगी और फिर उसमें सबसे बड़ी महाकहानी होगी। कॉमेडी, क्रूरता, तुरंत न्याय और हीरोइज्म से भरी ऐसी ही एक तेलुगू फिल्म 'विक्रमारकुडू’ की हिंदी रीमेक (ऐसे चार-पांच रीमेक भिन्न-भिन्न भाषाओं में बन चुके हैं) है 'राउडी राठौड़’। इसमें मर्दानगी से भरा मूछों पर ताव देता हीरो है, तो खिलखिलाती तुरंत रीझकर प्यार कर बैठती सुंदर हीरोइन भी है। फिर एक ग्रामीण इलाके में खैनी चबाता, धोती पहनता, जाहिल सा विलेन भी है। हां, ये सब अफीम जैसे एंटरटेनमेंट वाली एक हिट फिल्म बनाने के साउथ के फिक्स फंडे हैं जो हर बार चल भी जाते हैं। अब ‘दबंग’, ‘वॉन्टेड’, ‘सिंघम’ और ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्मों के जरिए हिंदी में भी आ गए हैं।

इस विश्लेषण को छोड़ दें तो ‘राउडी...’ जो दावा करती है, वो देती है। फिल्म कहती है कि एंटरटेन करूंगी और वो करती है। रंग-बिरंगी लोकेशन, खूबसूरत कॉस्ट्यूम और आसान कोरियोग्रफी भरे तीन-चार अच्छे गाने हैं। जिसमें ‘आ रे प्रीतम प्यारे’ गाने में शक्ति मोहन, मुमैद खान और मरियम जकारिया का नृत्य बेहद जानदार है। कहानी की सिचुएशन में बिल्कुल फिट। बहुत दिनों बाद आया ऐसा आइटम नंबर जिसकी कोरियोग्रफी अनूठी है, जो बिल्कुल भी वल्गर नहीं लगती। इसके अलावा अक्षय-सोनाक्षी की जोड़ी कुछ बिखरी मगर लुभाने वाली है। शिवा के कॉमिक अवतार में अक्षय एकरूप नहीं रह पाते। कभी सीरियस हो जाते हैं, कभी नॉर्मल तो कभी बहुत ज्यादा फनी। एएसपी विक्रम राठौड़ का रोल छोटा मगर दमदार है, दो-तीन सॉलिड डायलॉग और एक्शन से भरा। मगर शिराज अहमद के पास इस कहानी में धांसू डायलॉग लिखने की अच्छी-खासी गुंजाइश थी, जो उन्होंने खो दी। प्रभुदेवा के निर्देशन में मेहनत बहुत सारी है, पर उन्हें धार तेज करनी होगी। एडिटिंग पर ध्यान देकर फिल्म को और व्यवस्थित करना होगा। ये फिल्म अच्छी है पर मुझे ‘विक्रमारकुडू’ अपनी इंटेंसिटी और चुस्ती के लिहाज से ज्यादा बेहतर लगी। एक्टिंग में अक्षय से बेहतर हैं इसके तेलुगू वर्जन के हीरो रवि तेजा।

कहानीः व्यवहार में मजाकिया और अलग सा शिवा (अक्षय कुमार) मुंबई में अपने दोस्त के साथ मिलकर लोगों को ठगता और लूटता है। उसे प्रिया (सोनाक्षी सिन्हा) से प्यार हो जाता है। इस बीच उसे चोरी के बक्से में एक पांच-छह साल की बच्ची नेहा मिलती है, जो उसे अपना पापा कहती है। शिवा अपनी लाइफ में आई इस प्रॉब्लम से कन्फ्यूज है तभी उसे पता चलता है विक्रम राठौड़ नाम की एक शख्सियत का, जिसकी शक्ल हूबहू उसके जैसी है। बहादुरी, बदले और रोमांच से भरी इस कहानी में आगे ढेरों मोड़ आते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

प्रेम करने वालों को प्रिय लगेगी तेरी-मेरी कहानी

फिल्मः तेरी मेरी कहानी
डायरेक्टरः कुणाल कोहली
कास्टः शाहिद कपूर, प्रियंका चोपड़ा, प्राची देसाई
स्टारः ढाई, 2.5
संक्षिप्त अल्पकालीन टिप्पणी...

कुणाल कोहली की ‘तेरी-मेरी कहानी’ देखें। अगर उम्मीद से कम इंट्रेस्टिंग क्लाइमैक्स और जरा ढीली स्क्रिप्ट को छोड़कर देख सकें तो। प्रेमी जोड़े और ट्विटर-फेसबुक जेनरेशन वाले युवा भी फिल्म देखने जा सकते हैं। ज्यादा उम्मीदें न करें। पर फिल्म में कहीं कुछ स्टूपिड भी नहीं है। कुणाल की कोशिश ईमानदार और मेहनत भरी है। उन्होंने बड़े भावुक तरीके से ये लव स्टोरी कही है। उनका फिल्म प्रस्तुत करने का तरीका भी ताजा है। 1960 के बॉम्बे को दर्शाने वाले सीन खास हैं। सब कम्प्यूटर एनिमेशन से बनाए गए हैं। फिल्म के आखिरी क्रेडिट जब आते हैं तो बड़े ही रोचक अंदाज में सीन कैसे बने, ये बताया जाता है। रुककर जरूर देखें।

इस दौर की कहानी में डायरेक्टर साहब ने बारीकियों पर ध्यान दिया है। चाहे वॉटसन स्टूडियो का बोर्ड हो, चाल की रखवाली करने वाले पठान चाचा हों, कॉटेज ब्रैंड वाली दियासलाई हो या हीरोइन का मेकअप करते बंगाली मेकअप दादा। मगर 1910 के लाहौर में कुछ गलतियां रह जाती हैं। मसलन, जावेद (शाहिद) के एक डायलॉग में धर्मेंद्र की मिमिक्री झलकती है। जेल में ‘हमसे प्यार कर ले तू’ गाने पर नाचते हुए भी वह धर्मेंद्र के ‘प्रतिज्ञा’ फिल्म वाले फेमस स्टेप्स इस्तेमाल करते हैं। यहां फिल्म के डायरेक्टर का ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि प्रतिज्ञा 1975 में आई थी और आप कहानी 1910 की सुना रहे हो। यंग दर्शकों को लंदन में पढ़ रहे कृष और राधा के कपड़े और एक्सेसरीज में काफी कुछ स्टाइल फॉलो करने को मिलेगा।

जनम जनम का साथ है: कहानी
 1910 के सरगोजा, लाहौर में जावेद और आराधना। 1960 के पूना में गोविंद और रुकसार। 2012 के लंदन में कृष और राधा। इन तीन जन्मों में दो जवां दिल (शाहिद और प्रियंका चोपड़ा) एक-दूसरे से मिलते हैं, फिर प्यार होता है, पर मिलन की राह में मुश्किलें आ जाती हैं। इन मुश्किलों से निकलकर इनका साथ हो पाता है कि नहीं, यहीं कहानी का ट्विस्ट है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, July 16, 2012

कॉकटेल पर कुछ अल्पकालीन शब्द

फिल्मः कॉकटेल
डायरेक्टरः होमी अदजानिया
कास्टः सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण, डियाना पेंटी, बोमन ईरानी, डिंपल कपाड़िया, रणदीप हुड्डा
स्टारः तीन, 3.0
अल्पकालीन सुझाव: अच्छी फिल्म है। एक बार अपने पार्टनर के साथ, फ्रेंड्स के साथ जरूर देख सकते हैं। एंजॉय करेंगे, कई बातें भा जाएंगी। कहानी एडल्ट लोगों के उलझे प्यार की है इसलिए फैमिली ऑडियंस या बच्चों के लिए ज्यादा कुछ है नहीं।

 'हम तुम’ और 'ओमकारा’ के बाद सैफ अली खान का कुछ बहुत अच्छा काम है 'कॉकटेल’ में। मसलन, उनके किरदार गौतम का केपटाउन के तट पर एकांत में बैठकर मीरा (डियाना पेंटी) को मिमिक्री करके हंसाना, या फिर मामा रैंडी (बोमन ईरानी) के साथ उनकी शुरुआती हंसी-मसखरी। ये अपनी एक्टिंग में जायका लाने की कोशिश करते हुए सैफ थे। ऐसा जितना 'बीइंग सायरस’ जैसी अच्छी फिल्म बनाने वाले होमी अदजानिया के डायरेक्शन की वजह से हुआ, उतना ही 'रॉकस्टार’ फेम डायरेक्टर इम्तियाज अली की लेखनी की वजह से भी। फिल्म के राइटर इम्तियाज और साजिद अली हैं। अब देखिए न, अंग्रेजी टोन वाली जबान और स्थिर इमोशन वाले सैफ जब मामा रैंडी को बोलते हैं कि “मामू, दिल्ली की पेचीदा गलियों में आपके राज गड़े हैं” तो लगता है कि ये किसी आम स्क्रिप्ट वाले शब्द नहीं लगते, ये किसी अलग बंदे ने डायलॉग लिखे हैं। आगे भी “यार मामा, 15 साल से यहां (लंदन) हो फिर भी सोच लाजपत नगर वाली है” ऐसे संवाद आते रहते हैं। फिल्म में अनिल मेहरा की सिनेमैटोग्राफी और श्रीकार प्रसाद की एडिटिंग कुछ जगहों पर बेहद अच्छी है।

इस मूवी की बड़ी खासियत है किरदारों को जैसे डिफाइन किया गया है। वरॉनिका (दीपिका पादुकोण) शुरू में बेपरवाह, लापरवाह, दारू-डांस में डूबी रहने वाली और बड़े कैजुअल तरीके से किसी से भी से-क्-स करने वाली बनी हैं। जो बाद में प्यार में, फैमिली में पडऩा चाहती हैं। नहीं कर पाती तो रोती हैं। मीरा शांत, शर्मीली, कृतज्ञ और आम हिंदुस्तानी लड़की है। वह हर मोड़ पर नैतिक बने रहना चाहती है, बनी भी रहती है। गौतम का शुरू में राह चलती किसी भी लड़की को फ्लर्ट करने का तरीका अनोखा है। दर्शक मान जाते हैं कि भई ऐसे बोलेगे तो लड़की का पटना जायज है। वह ऐसा ही है। मामा भी उसके मिजाज से वाकिफ हैं। बीच में इस किरदार में थोड़ा कन्फ्यूजन होता है। मीरा को गौतम की बेपनाह प्यार करने की आदत भाती है, जो लंदन में उसका कानूनी पति कुणाल (रणदीप हुड्डा) नहीं कर पाया। कहीं-कहीं दीपिका के अंदाज देख आपको लगेगा कि आप 'लव आजकल’ ही तो नहीं देख रहे, पर फिल्म अलग रहती है। बस औरतों की नैतिक बॉलीवुड छवि से अलग औरतें गढ़ती है।

'कॉकटेल’ की जान है म्यूजिक। गिप्पी ग्रेवाल और हनी सिंह का गाना 'अंग्रेजी बीट ते’ फिल्म में दीपिका का बेहद पावरफुल इंट्रो देता है। आरिफ लोहार का 'जुगनी’ फिल्म में तब के इमोशन के हिसाब से बड़ा लाउड हो जाता है, पर अलग लगता है। क्रेडिट्स में मिस पूजा का गाया 'सेकेंड हैंड जवानी’ भी आता है, पूजा की आवाज को पेंडू ठप्पे से मुक्त करते हुए।

 गौतम, मीरा, वरॉनिका का लव कॉकटेलः कहानी
लंदन में रहने वाला गौतम हर खूबसूरत कुड़ी से प्यार कर बैठता है, एक-दो दिन वाला प्यार। उसके फ्लर्ट करने की आदत का जवाब एक दिन उससे भी बड़ी बिंदास लड़की वरॉनिका (दीपिका) देती है और गौतम उसका दीवाना हो जाता है। मगर जब मां (डिंपल कपाडिय़ा) लंदन आ जाती है तो बचने के लिए कह देता है कि वरॉनिका के साथ रहने वाली भारतीय सी दिखती मीरा (डियाना) से वह प्यार करता है। पासे पलटते हैं, उसे अब मीरा से प्यार हो ही जाता है। अब मीरा कैसे उस वरॉनिका को धोखा दे पाएगी जिसने परदेसी जमीन पर उसका साथ तब दिया जब मीरा के सगे पति ने उसे धोखा दे दिया था।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, June 27, 2012

अनुराग के पास लेखकों की लाइन लंबी थी मुझमें धैर्य नहीं था, गाना लिखने वालों की लाइन छोटी थी, उसमें आ गया

गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने लिखने वाले कुशल गीतकार वरुण ग्रोवर से बातचीत
 गर्मियों की छुट्टियां हैं और एक साल बाद वरुण के माता-पिता उनसे मिलने मुंबई आए हैं। इस बार उनका बेटा स्टैंड अप कॉमेडी वाले टीवी शोज में सटायर लिखने वाला राइटर भर नहीं है, अब वह 'गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी बड़ी हिंदी मूवी के दिनों-दिन हिट हो रहे गानों को लिखने वाला गीतकार हो चुका है। ‘भूस के ढेर में राई का दाना’, ‘ओ वुमनिया’, ‘जिया हो बिहार के लाला’ और ‘आई एम अ हंटर’ उन्होंने ही लिखे हैं। जब उनसे बात होती है तो वह बताते हैं कि उनकी आने वाली फिल्मों में वासन बाला की ‘पेडलर्स’ और आशीष शुक्ला की ‘प्राग’ है, जिनके गाने भी उन्होंने लिखे हैं। कामगारी जिदंगी के इस सफल शुरुआती पड़ाव में उनसे ये बातचीत, इस उम्मीद के साथ की आगे भी बहुत बार बातचीत होगी।

लालन-पालन से लेकर मुंबई आने तक, कैसे?
देहरादून में पांचवीं क्लास तक पढ़ा। फिर लखनऊ 12वीं तक। वहीं पर एक साल कोचिंग की। उसके बाद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर पूना (पुणे) में जॉब लग गई। 2004 में बॉम्बे (मुंबई) आ गया। यहां रहते हुए लिखने का काम कर रहा हूं तब से। यहां राइटर बनने ही आया था। संक्षेप में तो यही यात्रा रही।

कब ये लगा कि जोखिम लेकर मुंबई जा सकता हूं, ये या वो कर सकता हूं?
बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था। बीएचयू में थियेटर का अच्छा माहौल था। फैकल्टी भी थी। कैंपस में, हॉस्टल में रहने से तरह-तरह की परफॉर्मिंग आट्र्स को देखने का मौका मिला। वहां इंटर यूनिवर्सिटी फेस्ट भी होता है, देश भर का टेलेंट थियेटर से आता है, तो वो किस्मत से मिला। उसी से विश्वास आया। 2002 में मेरा नाटक युनिवर्सिटी लेवल पर और उसके बाद यूथ फेस्ट में चुना गया, ईस्ट जोन में गोल्ड जीता, उससे लगा कि इसे थोड़ा आगे ले जाया जा सकता है। लगा, चल सकते हैं बॉम्बे।

मुंबई आने के बाद?
2004 में कुछ खास था नहीं मुंबई में। 2005 में अच्छा टीवी शो मिल गया था, ‘ग्रेट इंड़ियन कॉमेडी शो’। बड़े और अच्छे लोगों की टीम मिली। रणवीर शौरी और विनय पाठक जैसे कई अच्छे एक्टर उसमें थे। सटायर लिखने का मुझे शौक था ही। इसमें स्टैंड अप कॉमेडी लिखने को मिलती थी। अच्छा शो था। एक्सपोजर मिला। तब से गाड़ी पटरी पर आई।

फिर?
टीवी पर पिछले आठ साल में जितने भी सटायर वाले शो आए, उसका हिस्सा रहा। ‘रणवीर विनय और कौन’ था। आज तक पर आने वाला ‘ऐसी की तैसी’ था, जो आठ महीने चला। इसमें रोजाना की न्यूज पर जोक होते थे। फिर ‘कॉमेडी का मुकाबला’, शुरू में उसमें स्टैंड अप का कंटेंट ज्यादा था, उसमें राजू श्रीवास्तव और राजीव निगम थे, अब तो बिगड़ गया है। फिर ‘जय हिंद’ ऑनलाइन है। कलर्स पर लेट ऩाइट शो आता है। जीटीवी और सब टीवी पर भी थे, जो चले भी नहीं और किसी को याद भी नहीं होंगे। फिर ‘जॉनी आला रे’ आया, जॉनी लीवर का, वो चला नहीं। फिर ‘ओए इट्स फ्राइडे’ फरहान अख्तर के साथ, उसमें लिखता था। फिर एक बच्चों की फिल्म थी ‘जोर लगाके हय्या’ वो लिखी। कोई स्टार भी नहीं था और सीरियस इश्यू पर थी तो चली नहीं। साथ में फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखता रहा। पता नहीं था कि यहां हो पाएगा कि नहीं, यहां तो कई साल वैसे भी बीत जाते हैं।

अनुराग कश्यप से कैसे जुड़े? ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में एक गाना आपने लिखा था।
‘...यैलो बूट्स’ में एक कबीर का भजन म्यूजिक डायरेक्टर ने यूज किया वो तो मैंने नहीं लिखा। एक गाना था ‘लड़खड़ाया’ 20-25 सैकेंड का, वो मैंने लिखा था। अनुराग एक छोटी फिल्म बना रहे थे 12 दिन में शूट करके, 20-25 लाख में बनने वाली थी। मैं पहले भी मिलता रहा था कि गाने लिखने वाला चाहिए हो तो... क्योंकि लेखक के तौर पर लंबी लाइन उनके पास है, दूसरा वो खुद भी लिखते हैं तो यहां मौका मिलने में एक लंबा इंतजार था, मुझमें शायद इतना पेशेंस नहीं था, लिरिक्स राइटर की लाइन उनके पास छोटी थी तो मैं पहुंच गया। उन्होंने कहा, ठीक है लिखो, गाने तो हैं नहीं, एक छोटा सा गाना है। उसी दौरान ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तैयारी शुरू हो गई। ऑफिस में बात चल रही थी। मैंने कहा, उसमें भी मौका दो। उन्होंने कहा कि म्यूजिक डायरेक्शन स्नेहा कर रही है तो उससे मिल लो, कुछ बनाकर दिखाओ। अच्छा लगा तो लेंगे। तो मैंने ‘भूस के ढेर में राई का दाना’ लिखा। उन्हें पसंद आया और ले लिया।

क्या माहौल था इस गाने के लिए?
सटायर है, पॉलिटिकल मीनिंग वाला गाना है, ऐसे वक्त में आता है जब इमरजेंसी खत्म हुई है। कैदी लोगों ने जेल में बैठ मंडली बनाई है और गा रहे हैं। एक दिमाग में था कि ‘तीसरी कसम’ वाले सॉन्ग ‘पिंजरे वाली मुनिया’ की तरह कुछ बनाएं। कुछ टेढ़ा हो। जेल का था तो थोड़ा पॉलिटिकल हालत देश की बताने की कोशिश थी कि देश में हर आदमी हताश हो गया है, कि नेहरु जी ने वादा किया था जो 1947 में देश की जनता के साथ, वो बेकार हो गया। तभी गाने में हर लाइन के बाद कहा जाता है ‘ना मिलिहे...’। उसमें आसानी से स्पेल आउट नहीं किया गया है, पर फिल्म देखें तो ऊपर लिखकर आता है। इंस्पिरेशन ‘तीसरी कसम’ था, इसलिए मॉडर्न साउंड वगैरह भी नहीं हैं।

वुमनिया कैसे लिखा गया और बना?
ये शब्द स्नेहा ने दिया। हम कोई शादी का गाना बनाना चाह रहे थे। तीन जेनरेशन है फिल्म में तो शादियों के दो गाने बनाने थे, एक पार्ट वन में एक पार्ट टू में। रिसर्च किया कि शादियों में वहां गाने कैसे होते हैं? किस लेवल का मजाक और बदतमीजी होती है? उसी दौरान स्नेहा के जेहन में ‘वुमनिया’ शब्द आया क्योंकि छेड़छाड़ वाला गाना है। शुरू में मुझे लगा कि सही नहीं है, पर लिखना शुरू किया तो इस शब्द में से ही बहुत सी इंस्पिरेशन निकलकर आई। वुमनिया है तो उसे डिस्क्राइब करने के लिए मॉडर्न शब्द भी जोड़े और देहाती भी। जब लिखना पूरा हुआ... म्यूजिक के बिना लिखा था, फ्री फ्लो में, फिर उसे कंपोज किया गया। उस वजह से तीन अलग फेज में गाना बना। कंपोज करने के बाद मीटर के हिसाब से लाइनें कम लगीं तो मैंने जोड़ा। फिर वो पूरा हुआ। पूरा बनने के बाद लगा कि ऑड नहीं है। क्योंकि मुझे कुछ लोग मिले हैं जो कहते हैं कि सही नहीं है गाना, बिहार के लिंगो के हिसाब से सही प्रयोग नहीं है। पर मुझे लगता है कि ऐसे ही भाषा में नए शब्द आते हैं। अगर भाषा में नहीं तो कम से कम गाने में तो आ ही सकते हैं।

आई एम अ हंटर...
करेबियन गई थी स्नेहा, वेस्टइंडीज। रिसर्च के लिए। उसे पता था कि माइग्रेंट हैं जो 1850 के आसपास यूपी और बिहार से गए थे। उसने वो म्यूजिक सुना हुआ था चटनी म्यूजिक, भोजपुरी और करेबियन इंस्ट्रूमेंट और शब्दों से बना हुआ। वह गई कि क्या पता वहां कोई बुजुर्ग सिंगर मिल जाए, ऐसा गाने वाला। गई तो वहां उन्हें वेदेश सुकू मिले। बिहारी ऑरिजन के हैं, पर हैं वेस्टइंडियन। हिंदी बोलते भी हैं तो अपने एक्सेंट में। वो कुछ अश्लील से गाया करते थे। स्नेहा ने उनके पुराने गाने भी सुने, कुछ एक-दो सॉन्ग थे। फिल्म में बंदूकें बहुत हैं इसलिए एक बंदूक का गाना भी चाहिए था। तो बना। पर लोगों को लगा कि कुछ हिंदी भी हो जाए तो ठीक है। हिंदी मैंने लिखा और अंग्रेजी वेदेश सुकू ने। मुझे तो आज तक भी कुछ वर्ड समझ नहीं आते अंग्रेजी के, क्योंकि एक्सेंट भी वैसा है। मुझे लिखने से पहले लगा कि अश्लील नहीं लगना चाहिए। तो 'हम हैं शिकारी, पॉकेट में लंबी गन, ढांय से जो छूटे, तन-मन होवे मगन’ लिखा। मेरे लिए सबसे आसान गाना था।

जिया हो बिहार के लाला...
स्नेहा हर बड़े जिले में घूमी। वहां का फोक म्यूजिक सुनकर आई। मैथिली, अंगिका, मगही, बजिका... चारों भाषाओं में रिकॉर्ड करके लाई, बहुत सारा सामान था हमने घंटों बैठकर सुना। फ्रेज, शब्द, सेंस सब निकाले। उसी में से ‘जिया हो बिहार के लाला, जिया तू हजार साला, तनी नाची के तनी गाई के, तनी नाची गाई सबका मन बहलावा रे भईया...’ ये इतना हमें मिल गया था। नौटंकी मुकाबलों में सिंगर आते हैं स्टेज पर और गाते रहते हैं रियाज के तौर पर 20-20 मिनट, तो हमें लगा कि इसे ही लेना चाहिए। इस गाने को हमने आगे बढ़ाया।

कितनी खुशी है, जिस तरह के संतोष भरे काम का बरसों इंतजार रहता है, आप उसका हिस्सा हैं?
बहुत ज्यादा खुशी है, इतना ज्यादा अच्छा प्रोजेक्ट मिलना क्योंकि ‘...यैलो बूट्स’ में एक ही गाना था। ‘गैंग्स...’ एक फोक प्रोजेक्ट था। इसमें सब के सब गाने इतने अलग हैं। फिर स्नेहा जैसी म्यूजिक डायरेक्टर का होना, जो एसी स्टूडियो में बैठकर काम करना पसंद नहीं करती है। पूरी फिल्म में पीयूष मिश्रा, अमित त्रिवेदी, स्नेहा और मनोज तिवारी के अलावा कोई ऐसा सिंगर नहीं था जिसने पहले कभी स्टूडियो भी देखा हो। सब नए सिंगर थे, फोक थे, जमीन से जुड़े थे। रिजल्ट भी नजर आ रहा है। अनुराग कश्यप खुद इतना ज्यादा फ्रीडम देते हैं, नहीं तो उनके लिए श्रेया घोषाल या सोनू निगम से गाने गवाकर बेच पाना बड़ा आसान होता, म्यूजिक कंपनियां भी राजी होतीं। यहां वो डर रही थीं, कि क्या गाने हैं, मनोज तिवारी को भी उस अंचल में ही लोग जानते हैं, लेकिन अनुराग अपने फैसले पर अड़े रहे। बस एक गाने में हम अटके थे। अनुराग ने कहा था कि बड़ा सिंगर ले लो, पर स्नेहा ने कहा कि नहीं। ‘भूस के ढेर में के लिए...’ जैसे आठ बार गवाया गया अलग-अलग लोगों से, ढूंढते-ढूंढते कि कोई थोड़ा गा दे फिर देखें। फिर आखिर में दिल्ली में मिले टीपू।

घरवालों को घबराहट नहीं हुई कि मुंबई में राइटर बनने जा रह है?
घर से बड़ा सपोर्ट मिला। पापा-मम्मी ने एक बार भी नहीं कहा कि जॉब क्यों छोड़ी। पापा को भी बचपन से शौक है फिल्मों का। उन्होंने जिदंगी भर सरकारी काम किया है तो जानते हैं कि बोर होता है सरकारी काम। खुशी-खुशी सपोर्ट किया।

बाहर बैठकर फिल्मों पर लिखना, उनकी आलोचना करना और बाद में फिल्म के भीतर होने पर उनपर कोई भी बात आलोचनात्मक ढंग से कह पाना कितना आसान रह जाता है?
आसान नहीं रहता। पर कोशिश रहती है कि कुछ तो कहूं। जैसे ‘...यैलो बूट्स’ आई। हमने घंटा अवॉर्ड्स में फिल्म को नॉमिनेट भी किया था। अनुराग पर मैंने ही जोक भी किए थे। तो इतनी फ्रीडम तो होनी ही चाहिए। मेरे पास अलग-अलग मंच भी हैं जहां से मैं बोल सकूं। कोशिश है कि सटायर करता रहूं।

टीवी पर, ट्रेलर्स में, दोस्तों के बीच... जब अपने लिखने गाने आने लगते हैं, तो कुछ आभास होता है सेलेब्रिटी राइटर होने का?
इंडस्ट्री में मुझे नहीं लगता कि राइटर्स की जिदंगी कभी सुधरती है। वो सेलेब्रिटी नहीं होते। पचास साल में सिर्फ जावेद अख्तर और गुलजार ही हुए हैं, अब प्रसून जोशी हैं। वो ही स्टार हो पाए हैं। बाकी राइटर्स को कोई स्टार नहीं मानता। मैंने बहुत कम मीडिया में देखा है, सिर्फ प्रॉड्यूसर्स के ही इंटरव्यू आ रहे होते हैं। ये राइटर्स के लिए सुकून वाली बात है। हां स्कूल के दोस्तों के फोन आऩे लगे हैं। कि ये तू ही है क्या।

कान और दूसरे फिल्म फेस्ट में दर्शकों ने ‘गैंग्स...’ जैसी फिल्म को कैसे लिया होगा? क्यों चुना होगा? जिसके गाने हिंदी अंचल के हैं, जिनका कोई आइडिया उन दर्शकों को नहीं है, जिसमें ह्यूमर और हाव-भाव समझना विदेशी दर्शकों के लिए इतना आसान भी नहीं।
लोग बाहर के कल्चर को जानने को उत्सुक रहते हैं, इंटरनेट का युग आने के बाद से। वो जानना चाहते हैं और आसानी से स्वीकार भी करते हैं। उनमें जो ‘वासेपुर...’ देखने आए तो जानबूझकर आए। कान जैसे फिल्म फेस्ट में एक-एक घंटा कीमती होता है। हमें भी वहां बुकलेट मिलती है तो प्रेफरेंस ऑफ ऑर्डर में टिक करते हैं कि पूरे दिन क्या देखना है। गूगल करके देख लेते हैं कि कौन है, उसने पहले क्या फिल्म बनाई है। तो जो लोग ‘...वासेपुर’ देखने आए तो वो अनुराग को जानते होंगे, या गैंगस्टर ड्रामा देखने आए होंगे। आपको उनको चौंकाना है तो लिमिट तक ही, यानी कि उम्मीद से जरा ज्यादा। उस वजह से अच्छा रहा। मैंने ये केलकुलेशन पहले नहीं की थी तो सरप्राइज हुआ कि विदेशी लोग हिंदुस्तानी फिल्म के लिए तालियां बजा रहे हैं। मुंबई में पले-बढ़े लड़के को बोलें ‘...वासेपुर’, तो वो नहीं देखेगा पर इंडिया से बाहर के आदमी के लिए भोजपुर और इंडिया का भेद नहीं होता। वो एक ही मुल्क की फिल्म मानते हैं। ओपन माइंड से देखते हैं। यहां के लोग नुक्स बहुत निकालेंगे कि बिहारी ऐसा होता है, नहीं होता है। लोग जजमेंटल होते हैं। बाहर नॉन-जजमेंटल व्यू मिला। अनुराग की फिल्मों को वैसा व्यू मिलता रहता है। वो कुछ कहती हैं।

पर ‘जिया हो बिहार के लाला’ जैसे गानों को कोई विदेशी उनकी पूरी देशज समझ में कैसे देख पाया होगा?
इस फिल्म में बहुत ही वेस्टर्न सेंसेबिलिटी के हिसाब से गाने बने हैं। वो फिल्म के एटमॉसफेयर का हिस्सा हैं, माहौल बनाते हैं, पंद्रह-बीस सेकेंड तक लाउड होते हैं, फिर चले जाते हैं पीछे बजते रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहरी फिल्मों में होता है कि गाना और म्यूजिक मूड बनाता है। यहां भी गाने बहुत हद तक वैसे ही यूज हुए हैं। दूसरा, नीचे सबटाइटल होते हैं, जैसे हमने इनारितू की देखी थी ‘एमेरोस पेरोस’ जिसमें नीचे सबटाइटल में पोएट्री आती है, तो उसे मैं बड़े चाव से देखता हूं। मैं फिल्म बार-बार लगाकर देखता ही उस पोएट्री की वजह से हूं, बाद में बंद कर देता हूं। और गाने की पोएट्री की भाषा ज्यादा यूनिवर्सल होती है। इस फिल्म में ऐसा है तो ये नई चीज है और लोगों को पसंद आए। लास्ट में ‘जिया तू बिहार के लाला’ आया तो कान में लोग काफी देर तक खड़े होकर, नीचे लिखकर आ रही पोएट्री भी पढ़ते रहे, ढूंढते रहे।

अनुराग के नाम, या गैंग्स जैसे टाइटल, या ऑफबीट इंडियन फिल्म, या इंडियन टैरेंटीनो... ऐसी अटकियों की वजह से क्या ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि वहां दर्शकों ने फिल्म देखने से पहले ही उसे इतनी दिव्यता अपने मन में दे दी कि देखना शुरू करने के बाद हर सेकेंड को आलोचनात्मक नजर से नहीं भक्त की नजर से देखा होगा। मसलन, इनारितू को या कोरियाई किम की डूक को ले लें। उन्हें उनके मुल्क के दर्शकों ने उतना सम्मान नहीं दिया जितना कल्ट रुतबा बाहर के दर्शकों ने दिया?
इस पर मैंने ज्यादा नहीं सोचा है पर हां, हो सकता है इस फिल्म के साथ हुआ होगा। एक ये भी वजह है कि फिल्म की हर लेयर को हम नहीं जानते हैं, तो उसे ज्यादा भक्ति या रेवरेंस के साथ देखते हैं। जैसे हम इनारितू की फिल्म को देखते हैं तो वो हमारी फिल्म को देखते हैं। ये जायज भी है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, May 22, 2012

संजय लीला भंसाली तो मुझसे भी ज्यादा कमर्शियल हैं, राउडी राठौड़ का टाइटल भी उन्होंने ही दिया थाः प्रभुदेवा

बातचीत  1 जून को रिलीज होने जा रही फिल्म के निर्देशक और मशहूर डांसर प्रभुदेवा से

 ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ के फ्लॉप होने के बाद संजय लीला भंसाली ने अपने असिस्टेंट राघव धर की कहानी ‘माई फ्रेंड पिंटो’ के निर्माण में पैसे लगाए। इस उम्मीद पर कि प्रतीक बब्बर और कल्कि कोचलिन को लेकर बनाई गोवन लिंगो वाली ये चैपलिनछाप कॉमेडी लोगों को पसंद आएगी और उनकी डूबत उबर जाएगी। पर फिल्म नहीं चली। इस दौरान प्रभुदेवा की बतौर निर्देशक हिंदी फिल्मों में या मुंबई के सिनेमा में ‘वॉन्टेड’ वाली करारी पहचान बन चुकी थी। कि... भई ये ऐसा निर्देशक है जो दक्षिण की ग्लैमराइज्ड-स्टायलाइज्ड मारधाड़ को भावनात्मक तार्किकता का जामा पहनाकर लोगों को थियेटर तक लाना जानता है। जो मुहावरा गढ़ने का अंदाज भारतीय सिनेमा में शुरू से रहा है, वह प्रभुदेवा कर पाते हैं। ‘दबंग’ बनाने वाले अभिनव की माफिक।

तो ‘खामोशी’, ‘ब्लैक’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ जैसी फिल्मों से कुछ-कुछ ऑटर थ्योरी में घुसते फिल्मकार संजय लीला भंसाली ने तब छुआ मारक वित्तअस्त्र ‘विक्रमारकुडू’। तेलुगू की इस सुपरहिट फिल्म को हिंदी में बनाने का जिम्मा उन्होंने दिया प्रभुदेवा को। नतीजा हाजिर है। ‘राउडी राठौड़’। कहानी वही है विक्रम राठौड़ वाली। जाहिर है।

अंदरूनी भारत में जो लोग 1993 के बाद एटीएन, डीडीवन और जी के म्यूजिक चैनल देखते हुए और ऑल इंडिया रेडियो सुनते हुए बड़े हुए हैं, उनके लिए प्रभुदेवा एक डायरेक्टर नहीं हैं। उनके लिए वह एक ऐसी छवि है जो ‘हम से है मुकाबला’ के एक गाने में ‘मुक्काला मुकाबला ओ हो होगा... ओ हो लैला...’ गा रहा होता है और गाने के आखिर में काऊबॉय अंदाज में पिस्टल की गोलियां चलती हैं और उस नृतक का सिर, कलाइयां और टखने गायब हो जाते हैं। उसके बाद भी वह पुतला नाचता रहता है। हमारे लिए प्रभुदेवा नाम का वह नृत्य निर्देशक और नृतक ‘उर्वशी-उर्वशी’ और ‘पट्टी रैप’ के अपरिमेय नृत्य के बाद इंडिया का माइकल जैक्सन हो गया था। ये मौका उन्हीं अपरिमेय से बात करने का था।

उनके नृत्य की तरह उनकी विनम्रता भी अपरिमेय सी है। ये इसी का एक और सबूत था कि सफल अभिनेता, निर्देशक और नृत्य निर्देशक होने के बावजूद अक्षय कुमार से जुड़ी हर बात में वह उन्हें अक्षय सर कहकर संबोधित करते हैं, जबकि उनका सफल करियर अक्षय से पहले ही शुरू हो गया था। पूछने पर तुरंत कहते हैं, “उनकी जगह कोई इंडस्ट्री में पांच साल पुराना भी होता तो उसे भी मैं सर ही कहता”। पूरी बातचीत में उनके जवाब यूं ही छोटे-छोटे रहते हैं। कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने तुरंत एक के बाद एक, दो-तीन सैंडविच जल्दी-जल्दी खा लिए। किसी आम भूखे इंसान की तरह। उनके कपड़े भी वैसे ही होते हैं। तभी उनकी फिल्में भी आम इंसानों को सबसे ज्यादा लुभाती हैं। ये सब देखकर बहुत खुशी होती है।

आमतौर पर जो अभिनेता फिल्म निर्देशन (मसलन, अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह) में उतरते हैं वो उससे तौबा कर लेते हैं, लेकिन प्रभु अलग मिट्टी के बने हैं। “मुझे डायरेक्शन पसंद है। इसमें टेंशन और क्रिेएटिविटी बहुत होती है, जो मुझे बहुत पसंद है”, वह कहते हैं। फिल्म के हिट होने की लालसा पर भी उनका जवाब बड़ा सीधा-सादा होता है। कहते हैं, “मैं भी नॉर्मल इंसान हूं। बाकी डायरेक्टर्स की तरह चाहता हूं कि मेरी फिल्म भी हिट हो। बस”। वह हम जैसे ही सीधे बंदे हैं और संजय लीला भंसाली सौंदर्य और सनक को लेकर अलग ही सेंस रखने वाले। संजय अपनी फिल्म को लेकर बेहद अधिकारात्मक हो जाते हैं। मगर प्रभु इस बात को झुठलाते हैं। वह कहते हैं, “पता नहीं लोगों ने उनके बारे में अलग धारणा बना रखी है, मुझे भी कहा कि वह अलग टाइप के इंसान हैं। पर ऐसा मुझे तो नहीं लगा। हकीकत में तो निर्माता होते हुए भी वह राउडी राठौड़ के सेट्स पर सिर्फ एक बार आए थे और वह भी बस आधे घंटे के लिए”। अब बात आती है, उनके घोर कमर्शियल और संजय के नॉन-कमर्शियल और ज्यादा ही आर्टिस्टिक मिजाज वाला होने के बीच। ऐसे में एक फिल्म क्या खिंचती नहीं रहती? इसके जवाब में वह कहते हैं, “संजय सर तो मुझसे भी ज्यादा कमर्शियल हैं। फिल्म को राउडी राठौड़ जैसा टाइटल भी उन्होंने ही दिया था”।

उन्हें देखते हुए लगता नहीं पर वह मानते हैं और मुझे आश्चर्य होता है कि तेलुगू और तमिल में बन रहे एक्सपेरिमेंटल सिनेमा पर भी वह नजर रखते हैं। चाहे वह नए फिल्मकार थियागराजन कुमारराजा की बनाई कमाल तमिल एक्शन फिल्म ‘अरण्य कांडम’ हो या फिर रामगोपाल वर्मा की कैनन के 5डी कैमरा से महज पांच दिन में बनी तेलुगू फिल्म ‘डोंगाला मुथा’ (वैसे डोंगाला मुथा का जिक्र आया है तो बता दूं कि इस फिल्म के मुख्य अभिनेता भी रवि तेजा ही हैं, वही रवि तेजा जिन्होंने ‘राउडी राठौड़’ की मूल फिल्म ‘विक्रमारकुडू’ में एसीपी विक्रम राठौड़ की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभाई थी)। तो इस जिक्र पर प्रभु संक्षेप में कहते हैं कि हां, मैं ये सब देखता हूं। बड़ी अच्छी बात है कि नया काम हो रहा है, जो सिनेमा में नई चीजें लेकर आएगा।

मेरी रुचि प्रभुदेवा के बचपन और डांस की तरह झुकाव को जानने की होती है और वह बताते हैं, “पढ़ाई में अच्छा नहीं था। करियर का कुछ और ऑप्शन भी नहीं था। चूंकि मैं डांस को लेकर पागल था तो पिताजी से बोला। वो इंडस्ट्री में थे। उन्होंने पूछा क्या करना है तो मैंने बताया और मूवीज में आ गया”। प्रभु के पिता मुगुर सुंदर भी साउथ इंडियन फिल्मों के नामी कोरियोग्राफर रहे हैं। उनके भाई भी कोरियोग्राफर हैं।

‘राउडी राठौड़’ का निर्देशन करने के अलावा प्रभु, रैमो डिसूजा की फिल्म ‘एबीसीडी (एनी बडी कैन डांस)’ में भी अभिनय और डांस करते नजर आएंगे। रैमो की पिछली फिल्म ‘फालतू’ थी। ‘एबीसीडी’ में इंडिया के नामी नृतकों के साथ अमेरिका के डांस रिएलिटी शो की एक प्रतिस्पर्धी भी होंगी। प्रभुदेवा की बतौर डांसर वापसी कराने वाली ये फिल्म संभवत ‘स्टेप अप’ और ‘टेक द लीड’ की तर्ज पर होगी। खैर, बातों का यहीं अंत होता है। फिर कभी उनके अंतर्मुखी से बहुर्मुखी हो जाने और खूब लंबी गहरी बातें करने की उम्मीदों के साथ।

प्रभु से कुछौर प्रश्नोत्तर...
  • सर्वोत्तम नृत्य निर्देशन वाले गाने?
(गाना याद नहीं आता तो ट्यून गुनगुनाकर पूछते हैं कि ये कौन से गाने हैं, हिंट देता हूं और...) ‘डोला रे डोला रे’ (देवदास) और 'आज फिर जीने की तमन्ना है’ (गाइड)।

  • बॉलीवुड और टॉलीवुड को कैसे देखते हैं?
पहली काम करने के लिए मजेदार जगह है और दूसरी मेरा घर, जिसने मुझे बनाया।

  • कोई अगर पूछे कि आपकी फिल्म क्यों देखे तो?
क्योंकि इसमें अक्षय सर की एनर्जी है, गन्स है और फाइटिंग है। क्योंकि यह 'दबंग' के बाद सोनाक्षी सिन्हा की दूसरी फिल्म है। क्योंकि इसमें उन दोनों की कैमिस्ट्री बहुत कमाल की है। क्योंकि 'राउडी राठौड़' में मैं हूं।

  • कोरियाग्राफी अपने पिता से सीखी या खुद ही सीखे?
मैंने पिताजी के साथ काम किया। कुछ इसका भी फर्क पड़ा। दूसरा मैं उस इंडस्ट्री को अच्छे से जानता था। पर बाद में अच्छे से कोरियोग्राफी सीखी भी थी।

  • हिंदी फिल्मों के तीन सबसे बढ़िया डांसर, आपकी नजर में?
ऋतिक रौशन, माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी मैम।

  • ‘वॉन्टेड’ के बाद सलमान खान के साथ काम नहीं किया?
मौका नहीं बना। वह बेहतरीन इंसान हैं। मुझे जब भी बुलाएंगे मैं हाजिर हो जाऊंगा।

  • क्या ‘राउडी राठौड़’ में अक्षय कुमार का डबल रोल 'डॉन’ के अमिताभ जैसा है?
(चौंकते हुए) पहले तो ये बताइए, आपको कहां से पता चल गया कि इसमें डबल रोल है। ....पर हां, डॉन से बिल्कुल अलग है।

  • अक्षय कुमार ने बहुत वक्त से एक्शन नहीं किया था?
पर ये शूटिंग में लगा ही नहीं। फाइट करते हुए तो वह 23-24 साल के लड़के जैसे बन जाते थे।

  • आपकी फिल्मों में एक्शन स्टायलाइज्ड और ग्लैमराइज्ड होता है, क्या बच्चों पर बुरा असर नहीं पड़ेगा?
पहले कभी इस तरह सोचा नहीं इस बारे में। मगर अब आपने कहा है तो आगे से जरूर ध्यान रखूंगा।

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गजेंद्र सिंह भाटी