Monday, November 7, 2011

मुद्दे उठाती स्मार्ट फिक्शन मूवी

फिल्मः इन टाइम (अंग्रेजी)
निर्देशकः एंड्रयू निकॉल
कास्टः जस्टिन टिंबरलेक, अमांडा सेफ्राइड, एलेक्स पेटीफर, मेट बोमर, सिलियन मर्फी, विंसेंट कार्थाइजर
स्टारः तीन स्टार, 3.0

अफ्रीकन-कैनेडियन नील ब्लोमकांप ने 2009 में 'डिस्ट्रिक्ट 9' जैसी बेहद अदभुत, अनोखी, रियलिस्टक और इनोवेटिव एलियन फिल्म रची। इसमें आज के दौर के पलायन, विस्थापन, एंटी-गवर्नमेंट स्ट्रगल और अंतरराष्ट्रीय हमलों जैसे सीरियस मुद्दे थे। पर एंटरटेनमेंट के साथ। ये सब जेम्स केमरॉन की 'अवतार' में भी था। वीएफएक्स क्रांति, अच्छी स्क्रिप्ट, मुद्दों और मनोरंजन के साथ। अब आई है 'इन टाइम'। राइटर-डायरेक्टर एंड्रयू निकॉल पर हालांकि आरोप लगे कि ये फिल्म बरसों पहले लिखी एक शॉर्ट स्टोरी से प्रेरित है, पर आगे बढ़ते हैं। फिल्म में खास है टाइम को करंसी बनाकर वर्ल्ड की मौजूदा असमानताओं को देखना। कैपिटलिस्ट सिस्टम पर कमेंट करना। जिन्हें आप मौजूदा 'ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट' जैसे आंदोलन से जोड़कर भी देख सकते हैं। जिन्हें आप फ्रांस में बीते कुछ घंटों में दिए इंडियन पीएम मनमोहन सिंह के बयान से जोड़कर भी देख सकते हैं कि महंगाई बढऩे का मतलब ये है कि लोग समृद्ध हो रहे हैं, उनकी खर्च करने की क्षमता बढ़ रही है। यहां जस्टिन टिंबरलेक 'सोशल नेटवर्क' और 'फ्रेंड्स विद बैनिफिट्स' वाले नहीं लगते। फिल्म में अपनी मरी मां की लाश पर उनका फफक-फफक कर रोना यूं ही नहीं आ जाता। यहां तक कि गैंगस्टर फोर्टिस बने एलेक्स पेटीफर भी हर सीन में जान डाल देते हैं। न जाने अमेरिकी फिल्मों में उनका सही इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ। सिलियन मर्फी टाइमकीपर के रोल में बहुत दिन बाद फिल्मों में ठीक-ठाक दिखे हैं। 'इनसेप्शन' की तरह ये बिल्कुल अलग कल्पना वाली फिल्म है। हालांकि इसमें उतना मनोरंजन नहीं है, पर इतने उलझे सब्जेक्ट को सरल से सरल बनाकर ही फिल्म नंबर ले जाती है। क्लाइमैक्स किसी नतीजे पर नहीं पहुंचाता, एक नई शुरुआत लगता है। समझने के लिए मूवी में काफी कुछ है। बिल्कुल देख सकते हैं।

टाइम करंसी की कथा
कहानी थोड़ी काल्पनिक है, ध्यान से समझिएगा। 28 साल का विल सालेस (जस्टिन टिंबरलेक) ऐसे भविष्य में रहता है जहां उम्र करंसी का काम करती है। इंसान को 25 साल का होने के बाद और टाइम कमाना होता है वरना एक साल में मौत हो जाती है। हर सोशल क्लास टाइम जोन में रहती है। डेटन में गरीबों की बस्तियां हैं, वहीं न्यू ग्रीनविच में रईसों ने अपार टाइम जुटा रखा है। फैक्ट्री वर्कर विल, बार में हैनरी हैमिल्टन (मैट बोमर) नाम के आदमी को टाइम लूटने वाले गैंगस्टर फोर्टिस (एलेक्स पेटीफर) से बचाता है। हैनरी के पास 100 से ज्यादा साल हैं। वह विल को बताता है कि दुनिया में सबके लिए टाइम है पर अमीरों ने अमर होने के लिए उसे जमा कर रखा है। इसके पीछे सोच है 'फॉर फ्यू टु बी इममॉर्टल, मैनी मस्ट डाय।' रात में विल को सारा टाइम ट्रांसफर करके हैनरी मर जाता है। अब इस असमान सिस्टम को क्रैश करने और अपना बदला लेने के लिए विल न्यू ग्रीनविच जाता है। पुलिस यानी टाइमकीपर रेमंड लीयोन (सिलियन मर्फी) उसके पीछे है। न्यू ग्रीनविच में एक कैसीनो में विल का सामना टाइमलोन देने वाले बड़े रईस फिलीप वाइज (विंसेंट कार्थाइजर) और उसकी बेटी सिल्विया (अमांडा सेफ्राइड) से होता है।

इस दुनिया की झलकियां
# हर इंसान की त्वचा पर हरे अंकों में टाइम वॉच चलती है। यही उम्र है, यही करंसी।
# एक-एक दिन के मोहताज विल के पास 100 से ज्यादा साल देखकर दोस्त कहता है 'वेयर डिड यू गेट दिस' 'यू नो देट दिस विल गेट यू किल्ड'
# टाइम जोन के बॉर्डर पर टोल टैक्स की तरह एक महीना, दो महीना और एक साल तक डिपॉजिट करना पड़ता है।
# जिस गंदली बस्ती में कुछ घंटों या दिनों की चोरियां होती हैं, वहां 100 साल चोरी हो गए तो टाइमकीपर (पुलिसवाले) जांच कर रहे हैं।
# कार खरीदने की रेट है 59 साल प्लस टैक्स। डिलीवरी चार्ज अलग।
# सिंपल, सोबर, आधुनिक, सॉफिस्टिकेटेड और एलीट जमाने को दिखाने के लिए शहरों, कारों और ब्रिजों की डिजाइन स्लीक और सपाट सी है।
# आज वाले हालात हैं। बस्तियों में तकरीबन सारी आबादी बसी है और उनके हिस्से का टाइम यानी संपत्ति और भौगोलिक इलाका चंद एक-दो पर्सेंट रईसों के पास है।
# यहां होटलों में और पार्टियों में म्यूजिक वैसा बजता है जैसा मुंबई के ताज लैंड्स एंड या दूसरे फाइव स्टार होटलों में।

**************
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, November 5, 2011

क्या हम लुटने के लिए बने हैं

फिल्मः लूट
निर्देशकः रजनीश ठाकुर
कास्टः गोविंदा, सुनील शेट्टी, जावेद जाफरी, महाक्षय चक्रवर्ती, रवि किशन, प्रेम चोपड़ा, महेश मांजरेकर, दिलीप ताहिल
स्टारः दो स्टार, 2.0

ऑडी का रिबन हटने का इंतजार करते आपके कदम 'लूट' के पोस्टर के आगे ठिठक जाते हैं। सब किरदार हाथ में पटाखे थामे पोज दे रहे हैं। फिल्म दीपावली रिलीज के लिहाज से प्लैन की गई थी, हो नहीं पाई। ये फिल्म इन दिनों आ रही ज्यादातर मसाला फ्लॉप फिल्मों का मसाला लेकर आई है। अफसोस होता है कि करोड़ों रुपये और बेशकीमती संसाधन खर्च होते हैं और दर्शक ढाई घंटे बाद ठगा हुआ महसूस करते हैं। 'लूट' में सबसे बेस्ट है इसके डायलॉग। इन्हें बोलने में अव्वल रहते हैं अकबर के किरदार में जावेद जाफरी जो 'शोले' में अपने पिता जगदीप की याद दिलाते हैं। बेहतरीन। उसके बाद हैं पंडित बने गोविंदा। ऐसा लगता है कि 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपय्या' में उनके नॉर्थ इंडियन डायलॉग फैंकू रोल की तर्ज पर ये रोल बुना गया। ये और बात है कि कैमरा और डायरेक्टर इन डायलॉग और सिचुएशंस को उतने ड्रमैटिक ढंग से नहीं कैप्चर कर पाते, जितना एक औसत फिल्म में भी होता है। कहीं शॉट ओके करने में, तो कहीं पटाया की गलियों में घूमते मीका और किम शर्मा को हैंडल करने में नए डायरेक्टर रजनीश ठाकुर साफतौर पर नौसिखिया लगते हैं। हां, जब रवि किशन गुलजार की लिखी मिर्जा गालिब पढ़ते हैं और प्रेम चोपड़ा 'पाकीजा' और 'वो कौन थी' जैसी फिल्मों की डीवीडी मंगवाते दिखते हैं तो लगता है कि ये फिल्ममेकर डफर तो नहीं हो सकता। बस उनका कॉमिक सेंस फिल्मी सेंस में कैरी नहीं हो पाता। क्या हमारे पास ऐसी कहानियों की कमी पड़ गई है जिसमें चंद रुटीन हीरो चोरी-चकारी और रास्कलगिरी न करते हों और जिन्हें पटाया बैंकॉक न जाना पड़ता हो? लगता तो यही है। फिल्म के म्यूजिक और एडिटिंग से बिल्कुल भी उम्मीद न करें। जरा सी डायलॉगबाजी पसंद करते हों तो जा सकते हैं, अन्यथा ये एक कंप्लीट एंटरटेनर नहीं है।

क्या है लूट की कहानी
ये ऐसी कहानी है जिसके राइटर का नाम भी ताउम्र दर्शकों को पता नहीं चल पाता। आगे बढ़ें। बिहारी एक्सेंट बोलते पंडित (गोविंदा) और कुछ सूरमा भोपाली-हैदराबादी सी जबान में अकबर (जावेद जाफरी) मुंबई में चोरियां करते हैं, बाटलीवाला (दिलीप ताहिल) के लिए। चोरियां कम होती हैं, गलतियां ज्यादा। इन्हें मूर्ख समझ बाटलीवाला अपने आदमी बिल्डर (सुनील शेट्टी) के साथ एक चोरी करने पटाया, बैंकॉक भेजता है। पटाया से परिचित मूर्ख से गुंडे विल्सन (महाक्षय चक्रवर्ती) को भी बिल्डर साथ ले लेता है। यहां ये चोरी गलती से कुख्यात पाकिस्तानी डॉन लाला उर्फ तौफीक उमर भट्टी (महेश मांजरेकर) के यहां कर लेते हैं। मुझे माफ करिएगा पर मैं कहानी का ये मोड़ भी बता रहा हूं। चोरी के इस माल में वो टेप भी होती हैं जिनमें बैंकॉक के सबसे बड़े लेकिन बुजुर्ग होते डॉन खान साहब (प्रेम चोपड़ा) की हत्या की साजिश रिकॉर्ड है। अब इन चारों के पीछे लाला के आदमी, इंडियन इंटेलिजेंस एजेंट वीपी सिंह (रवि किशन) और कुछ दूसरे लोग पड़े हैं। जाहिर है इन्हें बच निकलना है।

डायलॉग बाजी वैसे बुरी नहीं
#
अगर अपने ही इज्जत नहीं करेंगे तो बाहर वाले क्या खाक करेंगे, और बिना इज्जत के भाईगिरी वैसे ही है जैसे बिना मीना कुमारी के 'पाकीजा।'
# अबे इसकी भैंस की तिल्ली मारूं।
# जब तिल्ली से काम चल सकता है तो तलवार की क्या जरूरत है।
# (तुम जानते नहीं मैं कौन हूं?) ... चोरी क्या जान पहचान के लिए की जाती है क्या।
# पचास साल पहले हिंदुस्तान को दिलाई गांधी जी ने आजादी और पचास साल बाद हिंदुस्तान की हो गई 100 करोड़ आबादी।
# लोग तो खजूर में अटकते हैं ये तो खजुराहो में अटक गए।
# गन्ना हिला के लपुझन्ना बना गई लौंडिया। (चीप डायलॉग्स वाले एक लंबे सीन में से एक नमूना)
# सूचना के लिए आभारी हैं, मगर हम चार इस शहर पर भारी हैं।
# मुकर जाने का कातिल ने अच्छा बहाना निकाला है, हर एक को पूछता है इसको किसने मार डाला है।


**************

गजेंद्र सिंह भाटी

न मिलें तो ही अच्छा

फिल्मः मिलें मिलें हम
निर्देशकः तनवीर खान
कास्टः चिराग पासवान, कंगना रनाउत, नीरु बाजवा, सागरिका घाटके, कबीर बेदी, पूनम ढिल्लों
स्टारः आधा स्टार, 0.5


'मिलें न मिलें हम' उन चंद फिल्मों में से है, जिन्हें मैं जिंदगी में दोबारा नहीं देखना चाहूंगा। किसी भी हाल में नहीं। कहानी किसी कन्फ्यूजन भरे कारखाने में मैन्युफैक्चर हुई लगती है। चिराग (चिराग पासवान) के पिता (कबीर बेदी) और मां (पूनम ढिल्लों) में बहुत पहले तलाक हो गया था। अदालत ने कहा था कि बच्चा छुट्टियों में एक महीने मां के पास रहेगा, एक महीने पिता के पास। दोनों संपन्न हैं। पिता अपने दोस्त की बेटी (नीरू बाजवा) से चिराग को ब्याहना चाहता है तो मां अपनी दोस्त की बेटी (सागरिका घाटके) से। पर दोनों से बचने के लिए वह झूठ ही कह देता है कि एक स्ट्रगलिंग एक्ट्रेस (कंगना रनाउत) से प्यार करता है। क्लाइमैक्स में वह ऑल इंडिया टेनिस चैंपियनशिप भी जीतता है। खैर, ये तो रही कहानी। लंदन के मैडम तुसाद म्यूजियम में खड़े मोम के पुतले भी चिराग पासवान से ज्यादा बेहतर एक्ट कर पाते होंगे। थोड़ा कहूंगा ज्यादा समझिएगा। पहली बार फिल्म में कलर तब आता है जब नीरू बाजवा के सलवार-सूटों और पंजाबियत की एंट्री होती है। फिर कंगना भी कुछ धक्का लगाती हैं। इसके बाद कुछ नहीं।
# हाय, हैलो, गुडमॉर्निंग, नाश्ता, ऑफिस, टेनिस प्रैक्टिस, चौड़े-चौड़े फोन, सिलिकन फेस और इमैच्योरिटी। फिल्म में लेखन और डायरेक्शन के नाम पर यही दिखता है।
# ऐसा लगता है कि फिल्म दर्शकों के लिए नहीं चिराग पासवान को लॉन्च करने के लिए बनाई गई है। फिल्म ये स्थापित कर पाती है कि चिराग की जिंदगी में टेनिस बहुत अहम हुआ। उसके मां-बाप के बीच की दूरी लॉजिकल लगती है और ही कंगना के साथ उसका प्यार स्थापित हो पाता है।
# इमोशनल कहानी का दावा करती इस मूवी में जब एक्टर्स के चेहरे पर मूवी में एक भी आंसू नहीं छलकता तो दर्शकों के कहां से आएगा।

आखिर में...
न चिराग के आगे मेहरा लगाने से कुछ हुआ, न टेनिस जैसे रईस गेम का सॉफिस्टिकेशन लाने से कुछ हुआ, न नीरू बाजवा का पंजाबी और सागरिका घटके का फॉरेन एंगल लाने से कुछ हुआ, न कंगना रनाउत को गजनी की स्ट्रगलिंग एड एक्ट्रेस जैसा दिखाने से कुछ हुआ, न राहत फतेह अली खान से गाना गवाने से कुछ हुआ और न ही आखिर में स्क्रीन पर फिल्मों के ट्रेड एनेलिस्ट तरन आदर्श को दिखाने से कुछ हुआ। इरादे और मेहनत हमेशा सुलझे हुए रहें तो फिल्म बनाने वाले के लिए भी ठीक रहता है और देखने वाले के लिए भी।

**************
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, October 29, 2011

जी.वन सुपरहीरो के एग्जाम में फेल

फिल्मः रा.वन
निर्देशकः अनुभव सिन्हा
कास्टः शाहरुख खान, करीना कपूर, अरमान वर्मा, अर्जुन रामपाल, शहाना गोस्वामी, दिलीप ताहिल, टॉम वू
स्टारः ढाई, 2.5


रा.वन को देख पाना आसान नहीं है। एक ऐसे दौर पर जब आपके पास दर्जनों बेहतरीन सुपरहीरो मूवीज हैं, आप एक रा.वन को सिर्फ इसलिए नहीं झेल सकते कि उसे मेहनत से बनाया गया है और वह बड़ी महंगी है। फिल्म में विजुअल इफेक्ट्स (वीएफएक्स) को छोड़कर कुछ भी न तो मौलिक लगता है और न ही मनमोहक। प्रतीक और सोनिया का शेखर या जी.वन से रिश्ता ऊपर-ऊपर से निकल जाता है। जी.वन के दिल की जगह लगा हार्ट (एच.ए.आर.टी) धड़कने लगता है पर इस फिल्म से न हमारा हार्ट धड़कता है न आंखों में नरमी आती है। क्यों बोले मौसे मोहन... गाना जब आता है तो शायद पहली और आखिर बार हम इमोशनली मूव होने को होते हैं। बस, उसके अलावा कुछ नहीं। फिल्म को देख पाना मुश्किल इसलिए है क्योंकि साउथ इंडियन के किरदार में शाहरुख पकाते हैं, करीना गालियां बकते हुए रा.वन की सोनिया तो नहीं लग पाती। हां, जब वी मेट की गीत जरूर लगती हैं। क्लाइमैक्स तक ऐसा लगता है जैसे बच्चे प्रतीक का दिल पत्थर का है। पिता के मरने के सदमे से वह चुटकियों में उबर जाता है। कहानी में कहानी जैसा कुछ भी नहीं है। कहां, क्या हो रहा है उसमें पर्याप्त लॉजिक नहीं है। गेमिंग की दुनिया से एक विलेन अपना गेम पूरा करने आया है और जी.वन उससे सामना करता है... ये बड़ा ही फनी है। सुपरहीरो वो नहीं होता जो ऐसी बचकानी वजह से अस्तित्व में आता है, बल्कि वो जो किसी कॉज या बड़े इश्यू के लिए लड़ता है। अगर आपके पास कोई दूसरा ऑप्शन है तो बिलाशक उसे ही ट्राई करिए, रा.वन नहीं। बेवजह परेशान हो जाएंगे।

रा.वन की कथा
कहानी शुरू होती है लंदन में बैरन इंडस्ट्रीज की ईमारत से। यहां जेनी (शहाना गोस्वामी) कंपनी की नई गेमिंग खोज के बारे में बता रही है जिसके बाद इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया की चीजों को भी देखा और छुआ जा सकेगा। यहां से जंप करके हम आते हैं वीडियो गेम डिवेलपर शेखर सुब्रमण्यम (शाहरुख खान) और उसकी फैमिली पर। वाइफ सोनिया (करीना कपूर) इंडियन गालियों पर थीसिस लिख रही है और बेटा प्रतीक (अरमान वर्मा) वीडियोगेम एक्सपर्ट है। अपने पिता की कम कूल और अग्रेसिव पर्सनैलिटी उसे पसंद नहीं। उसे हीरो की बजाय विलेन ज्यादा पसंद आते हैं। अपने बेटे की चाहत पर शेखर रा.वन नाम से ऐसा वीडियोगेम बनाता है जिसमें विलेन हारे नहीं। लॉन्च पार्टी पर जब सब नाच रहे होते हैं, प्रतीक रा.वन के साथ गेम के दूसरे लेवल पर पहुंच जाता है, पर अधूरा छोड़ चला जाता है। उस गेम को पूरा करने रा.वन वर्चुअल से असली दुनिया में जिंदा होकर आता है।


क्यों मौलिक नहीं जी.वन
# जी.वन स्पाइडरमैन की तरह खास सूट पहनता है।
# अमेरिकी फिल्म आयरन मैन में जो पैलेडियम कोर आयरन मैन और उसके कवच को जिंदा रखता है, वैसा ही दिखने वाला हार्ट जी.वन और रा.वन पहनते हैं।
# फिल्म में जी.वन का एक प्रमुख एक्शन सीक्वेंस ट्रेन पर है, वैसा ही जैसा रजनीकांत की मूवी रोबॉट में था।
# हर मूवी की तरह अंत में जी.वन फिर जिंदा हो जाता है।

इसकी क्या जरूरत थी
# अगर कहानी में दम होता तो दर्शकों का ध्यान बटाने के लिए चिट्टी बने रजनीकांत, खलनायक बने संजय दत्त, मुसीबत में फंसी रानी प्रियंका और एक वीडियोगेम में अमिताभ बच्चन का वॉयसओवर नहीं लाना पड़ता।
#अपने इंट्रोडक्टरी सीन में शेखर बने शाहरुख अपनी छोटी सी पीली कार लेकर ऑफिस के पार्किंग में पहुंचते हैं तो मैं समझ जाता हूं कि गाड़ी पार्क करते वक्त ये ऑलरेडी पार्क्ड गाड़ी को अनजाने में धकेल खुद की गाड़ी पार्क कर देगा। ये सीन मिस्टर बीन सीरिज के ट्रेडमार्क कॉमेडी सीन्स में से है।
# सी यू लेटर एलिगेटर और आई विल बी बैक... जैसे वन लाइनर अमेरिकी फिल्मों से उसी संदर्भ में लिए गए हैं पर ये फिल्म को इनोवेटिव नहीं रहने देते।

आखिर में
रा
.वन बने अर्जुन रामपाल रावण दहन को तैयार पुतले को देखकर कहते हैं, जो एक बार मरता हैसे बार बार मारना नहीं पड़ता। मुझे ये फिल्म का सबसे इम्प्रेसिव और मौलिक डायलॉग लगा। काश ऐसे डायलॉग और होते।

**************

गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, October 21, 2011

डरा डालेगा पैरानॉर्मल टॉबी

फिल्मः पैरानॉर्मल एक्टिविटी 3(अंग्रेजी)
निर्देशकः एरियल शूलमन और हैनरी जूस्ट
कास्टः क्लोइ सेंजेरी, जेसिका टाइलर ब्राउन, ब्रायन बोलैंड, लॉरीन बिटनर, क्रिस्टोफर निकोलस, हैली फूटी
स्टारः तीन स्टार, 3.0


जब अरबों रुपयों में बनी अमेरिकी फिल्मों को लोग बेदर्दी से नकार रहे थे तब 'पैरानॉर्मल एक्टिविटी' नाम की होम वीडियो सी लगने वाली कम दाम में बनी एक फिल्म अपनी डीवीडी रिलीज तक को तरस रही थी। स्टीवन स्पीलबर्ग को ये कहीं नजर आई, उन्होंने देखा और वह हिल गए। फिर उन्होंने इस सीरिज की पहली फिल्म को रिलीज किया और फिल्म सुपरहिट हुई। इस सीरिज की ये तीसरी फिल्म है। उसी मिजाज की। घर में किसी साये को कैमरे में रिकॉर्ड कर समझने की कोशिश करती एक फैमिली है। अगर आप और आसानी से समझना चाहें तो 2007 में आई प्रियदर्शन की फिल्म 'भूल भूलैय्या' को लीजिए। उसमें वो सीन याद करिए जिसमें विद्या बालन शाइनी आहूजा के किरदार से बात करते हुए एक हाथ से बहुत पुराना और भारी पलंग सूखे पत्ते की तरह एक हाथ से उठा लेती है। इस फिल्म में वैसा प्रत्यक्ष साया नहीं है, पर चीजें वैसे ही हिलती हैं। आप ठीक उसी तरह और उससे भी ज्यादा डर जाते हैं। पैरानॉर्मल एक्टिविटी की पहली फिल्म को ओरेन पेली ने लिखा-डायरेक्ट किया था। ये तीसरी फिल्म पिछली फिल्मों से ज्यादा मैच्योर लगती है। वो ज्यादा होम वीडियो जैसी थी ये कुछ कम होम वीडियो जैसी है। इस फिल्म में छोटी बच्चियों ने कमाल का काम किया है। दिक्कत एक ही होती है कि वीडियो रिकॉर्डिंग का जो खाली हिस्सा फिल्म में आता है वहां चंडीगढ़ का यूथ उसे डेविड धवन की फिल्म बना डालता है। याने कि फ्रेंड्स के साथ फिल्म के बीच खाली स्पेस आने पर हंसता है। पर जब-जब उस अदृश्य मौजूदगी का एहसास फिल्म में होता है, सब दर्शकों को सांप सूंघ जाता है। हॉरर जॉनर की फिल्में पसंद करने वाले जरूर देखें। क्लाइमैक्स के बारे में मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि नहीं डरने का फैसला भी करके जाएंगे तो भी डर जाएंगे।

क्या होता है केटी-क्रिस्टी के साथ
'पैरानॉर्मल एक्टिविटी' की बीती दो फिल्मों में हम केटी और उसके पीछे लगे किसी साये को देखते आए हैं। वीडियो रिकॉर्डिंग में हमने वो परछाई और मौजूदगी देखी भी है। 'पैरानॉर्मल एक्टिविटी 3' में ये बताया गया है कि जब केटी और उसकी छोटी बहन क्रिस्टी बच्चे थे, तब क्या हुआ था। ये कहानी 1988 में शुरू होती है। जब केटी और क्रिस्टी अपनी मां जूली और उसके बॉयफ्रेंड डेनिस के साथ रहती हैं। शादी के वीडियो रिकॉर्ड करने वाला डेनिस नोटिस करता है कि क्रिस्टी अपने किसी टॉबी नाम के अदृश्य दोस्त से बातें करती है। घर में अजीब चीजें होने लगती हैं। डेनिस और जूली एक बार अपने शारीरिक संबंध बनाने की टेप बनाते हैं तभी कुछ भूचाल सा आता है। वो बाहर तो निकल आते हैं पर बाद में वीडियोटेप में सीलिंग से गिरती हुई धूल दिखती है, जो किसी आकृति जैसी होती है। यहां से डेनिस पूरे घर को टेप करता है और फिर वह मौजूदगी और गहरी होती जाती है। फिल्म में आखिर तक सस्पेंस रहता है और क्लाइमैक्स रौंगटे खड़े कर देने वाला है।

**************
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, October 16, 2011

देखें जूनियर स्टीवन स्पीलबर्ग और पीटर जैकसन के लिए

फिल्मः सुपर 8 (अंग्रेजी)
निर्देशकः जे.जे.अब्राम्स
कास्टः जोएल कटर्नी, राइली ग्रिफिथ्स, एल फैनिंग, जैक मिल्स, गैब्रिएल बासो, रायन ली, काइल शैंडलर
स्टारः साढ़े तीन, 3.5


चार्ल्स काज्निक का सुपर ऐट कैमरा से फिल्म शूट करना, सब्जेक्ट एक जॉम्बी मूवी होना, प्रॉडक्शन वैल्यू की बातें करना, फिल्म को इंडिपेंडेंट फिल्म फेस्टिवल्स में ले जाने की सोचना और कास्ट-क्रू में स्कूल फ्रेंड्स को रखना। ये सिर्फ 'सुपर 8' नाम की इस फिल्म के कैरेक्टर चार्ल्स की बात नहीं है। इसमें वो समानताएं हैं जो फिल् के प्रॉड्यूसर स्टीवन स्पीलबर्ग की टीनएज लाइफ और फिल्ममेकर पीटर जैकसन की जॉम्बी मूवी बनाने की स्कूली कोशिशों तक जाती है। आज अमेरिकी सिनेमा में जो भी बड़े फिल्ममेकर दिखते हैं, उनके बचपन का अंश इस फिल्म के सभी छह बच्चों में दिखता है। और आखिर में वो भी फिल्म बना लेते हैं। 'सुपर 8' से लगता है जैसे कोई आठ बच्चे सुपरहीरो हैं और एडवेंचर करते हैं। जबकि यहां सुपर ऐट का मतलब मूवी कैमरे से है। खैर, इस फिल्म में खास है जे.जे.अब्राम्स की स्क्रिप्ट और डायरेक्शन। कहीं पर भी हॉलीवुड फिल्मों के क्लीशे की बू नहीं आती। लास्ट में एलियन वाले फैक्टर में आती भी है तो ओवरऑल काम चल जाता है। मैं इस फिल्म को इसकी इनोवेटिव और रियल लगती काल्पनिक स्टोरी के लिए और सब एक्टर्स की बेहतरीन एक्टिंग के लिए फिर से देखना चाहूंगा। बच्चे ये फिल्म देखेंगे तो पाएंगे कि कैसे उन्हीं की उम्र के कुछ बच्चे फिल्म बनाने के अपने पैशन को फॉलो कर रहे हैं और बहादुरी से अपने दोस्तों की मदद कर रहे हैं।

सुपर छह पर जो बीतती है
ये 1979 में अमेरिका के ओहायो स्टेट की बात है। छह बच्चे हैं। जो लैंब (जोएल कटर्नी), चार्ल्स काज्निक (राइली ग्रिफिथ्स), एलिस (एल फैनिंग), प्रेस्टन (जैक मिल्स), मार्टिन (गैब्रिएल बासो) और केरी (रायन ली)। ये अपने 'सुपर ऐट' कैमरा से अपनी जॉम्बी मूवी बना रहे हैं। एक रात ये सब एक पुराने रेल डिपो पर जाते हैं। चार्ल्स सोचता है कि चलती ट्रेन सीन के बैकग्राऊंड में रहेगी तो फिल्म की प्रॉडक्शन वैल्यू बढ़ेगी। ट्रेन आती है सीन शुरू होता है। पर तभी जो देखता है कि पटरियों पर सामने से कोई पिकअप ट्रक चलाकर ला रहा है। भिड़ंत होती है। पूरी मालगाड़ी पटरियों से उतर जाती है। लोहे के भीमकाय ढांचे उछल-उछल कर गिरते हैं। आग लग जाती है। ये दोस्त ट्रक में अपने बायोलजी टीचर डॉ. वुडवर्ड (गिल्स टर्मन) को पाते हैं। वो बच्चों से कहता है कि किसी को कुछ मत बताना। उस मालगाड़ी में शायद कोई गैर-इंसानी सा जीव होता है। खैर, इस रात के बाद से लिलियन के इस कस्बे में यू.एस. एयरफोर्स आ जाती है। अजीब सी चीजें होने लगती हैं। जो के पिता डेप्युटी जैकसन लैंब (काइल शैंडलर) कस्बे से गायब हो रहे पालतू कुत्तों, कारों के रातों-रात चुरा लिए जाते इंजनों और खूनी वारदातों के बीच बढ़ती कर्नल नेलेक (नोआ एमिरिक) और एयर फोर्स एक्टिविटी को संदेह की नजरों से देखते हैं।

ये यूं देखिए
पहले ही सीन से जहां 'जो लैंब' की मां की एक्सीडेंट में मौत हो गई है, वह बाहर झूले पर बैठा है, सब रिश्तेदार और स्कूली दोस्त घर के भीतर बातें कर रहे हैं। वहां आप चार्ल्स बने राइली ग्रिफिथ्स को देखिए। वो यहां इतना धीमे-धीमे और फ्लो में डायलॉग डिलीवर कर रहा है कि अचरज होता है। फिर चार महीने बाद स्कूल में एकदम अलग ही पैशनेट चाइल्ड डायरेक्टर वाले पैशन में हम उसे देखते हैं। ऐसा ही एलिस बनी एल फैनिंग के रेल डिपो पर जॉम्बी मूवी की हिरोइन के तौर पर इमोशनल डायलॉग डिलीवरी करने को देखिए। इसी तरह फनी है केरी बने रायन ली का जॉम्बी बनने की एक्टिंग करना। ये सब छोटे मगर इनोसेंट एफर्ट हैं जो सच्चे लगते हैं। डायरेक्शन में एक खासियत ये है कि इसमें हर सीन में दर्जनों चीजें साथ हो रही होती हैं। जैसे जब चाल्र्स फोन पर अपने दोस्तों से बात कर रहा होता है तो पीछे उसके भाई-बहन ऊधम मचा रहे होते हैं, पिता अपनी बेटी को ढंग के कपड़े पहनने को कह रहे होते हैं, वो पलट कर बहस कर रही होती है और मां अलग।


**************
गजेंद्र
सिंह भाटी