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Saturday, November 5, 2011

न मिलें तो ही अच्छा

फिल्मः मिलें मिलें हम
निर्देशकः तनवीर खान
कास्टः चिराग पासवान, कंगना रनाउत, नीरु बाजवा, सागरिका घाटके, कबीर बेदी, पूनम ढिल्लों
स्टारः आधा स्टार, 0.5


'मिलें न मिलें हम' उन चंद फिल्मों में से है, जिन्हें मैं जिंदगी में दोबारा नहीं देखना चाहूंगा। किसी भी हाल में नहीं। कहानी किसी कन्फ्यूजन भरे कारखाने में मैन्युफैक्चर हुई लगती है। चिराग (चिराग पासवान) के पिता (कबीर बेदी) और मां (पूनम ढिल्लों) में बहुत पहले तलाक हो गया था। अदालत ने कहा था कि बच्चा छुट्टियों में एक महीने मां के पास रहेगा, एक महीने पिता के पास। दोनों संपन्न हैं। पिता अपने दोस्त की बेटी (नीरू बाजवा) से चिराग को ब्याहना चाहता है तो मां अपनी दोस्त की बेटी (सागरिका घाटके) से। पर दोनों से बचने के लिए वह झूठ ही कह देता है कि एक स्ट्रगलिंग एक्ट्रेस (कंगना रनाउत) से प्यार करता है। क्लाइमैक्स में वह ऑल इंडिया टेनिस चैंपियनशिप भी जीतता है। खैर, ये तो रही कहानी। लंदन के मैडम तुसाद म्यूजियम में खड़े मोम के पुतले भी चिराग पासवान से ज्यादा बेहतर एक्ट कर पाते होंगे। थोड़ा कहूंगा ज्यादा समझिएगा। पहली बार फिल्म में कलर तब आता है जब नीरू बाजवा के सलवार-सूटों और पंजाबियत की एंट्री होती है। फिर कंगना भी कुछ धक्का लगाती हैं। इसके बाद कुछ नहीं।
# हाय, हैलो, गुडमॉर्निंग, नाश्ता, ऑफिस, टेनिस प्रैक्टिस, चौड़े-चौड़े फोन, सिलिकन फेस और इमैच्योरिटी। फिल्म में लेखन और डायरेक्शन के नाम पर यही दिखता है।
# ऐसा लगता है कि फिल्म दर्शकों के लिए नहीं चिराग पासवान को लॉन्च करने के लिए बनाई गई है। फिल्म ये स्थापित कर पाती है कि चिराग की जिंदगी में टेनिस बहुत अहम हुआ। उसके मां-बाप के बीच की दूरी लॉजिकल लगती है और ही कंगना के साथ उसका प्यार स्थापित हो पाता है।
# इमोशनल कहानी का दावा करती इस मूवी में जब एक्टर्स के चेहरे पर मूवी में एक भी आंसू नहीं छलकता तो दर्शकों के कहां से आएगा।

आखिर में...
न चिराग के आगे मेहरा लगाने से कुछ हुआ, न टेनिस जैसे रईस गेम का सॉफिस्टिकेशन लाने से कुछ हुआ, न नीरू बाजवा का पंजाबी और सागरिका घटके का फॉरेन एंगल लाने से कुछ हुआ, न कंगना रनाउत को गजनी की स्ट्रगलिंग एड एक्ट्रेस जैसा दिखाने से कुछ हुआ, न राहत फतेह अली खान से गाना गवाने से कुछ हुआ और न ही आखिर में स्क्रीन पर फिल्मों के ट्रेड एनेलिस्ट तरन आदर्श को दिखाने से कुछ हुआ। इरादे और मेहनत हमेशा सुलझे हुए रहें तो फिल्म बनाने वाले के लिए भी ठीक रहता है और देखने वाले के लिए भी।

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गजेंद्र सिंह भाटी