Sunday, September 18, 2011

कैप्टन अमेरिका दौड़ेगा नहीं पर चलेगा, जरूर चलेगा

फिल्म: कैप्टन अमेरिका - द फस्र्ट अवेंजर (अंग्रेजी)
निर्देशक: जो जॉनस्टन
कास्ट: क्रिस इवान्स, हैली एटवेल, ह्यूगो वीविंग, टॉमी ली जोन्स, सबैश्चियन स्टैन, डॉमिनिक कूपर, नील मेकडॉनफ, डेरेक ल्यूक, स्टैनली टुकी
स्टार: ढाई, 2.5
बहुत सारी खूबियों के बावजूद मैं 'कैप्टन अमेरिका: द फस्र्ट अवेंजर' को औसत फिल्म मानूंगा। दुख की बात है। जब स्टीव रॉजर्स ट्रीटमेंट के बाद सुपर सोल्जर बन जाता है और उसी सीन में नाजी एजेंट के पीछे न्यू यॉर्क की सड़कों पर नंगे पांव दौड़ता है, तो बस यहीं तक फिल्म बहुत ही इंट्रेस्टिंग लगती है। उसके बाद स्क्रिप्ट से इमोशन गायब हो जाते हैं, विलेन का कैरेक्टर स्पष्ट नहीं हो पाता, कहानी में घुमाव नहीं आते, न दर्शकों और लोगों में डर का माहौल बनता है और न सुपरहीरो के आने पर तालियां बजती हैं। अब यहां कैप्टन अमेरिका के गैर-मशीनी स्टंट आगे भी जारी रहते तो फिल्म अद्भुत हो सकती थी, पर ऐसा होता नहीं। आप 2003 में आई 'रनडाउन/वेलकम टू द जंगल' में ड्वेन जॉनसन (द रॉक) को देखिए। जंगल में उनके इंसानी स्टंट कमाल के हैं। वो एक सुपर हीरो फील देते हैं, यहां कैप्टन नहीं दे पाते। फिर भी एक अलग सुपरहीरो टेस्ट के लिए ये फिल्म जरूर एंजॉय कर सकते हैं।

मिलें कैप्टन अमेरिका से
आर्कटिक की बर्फ में 2011 में वैज्ञानिकों को अमेरिकी झंडे में लिपटी गोल ढाल जैसी चीज मिलती है। बता दूं कि ये सुपरहीरो 'कैप्टन अमेरिका' की ढाल है। अब कहानी 1942 में पहुंचती है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाजी अफसर जोहान (ह्यूगो वीविंग) नॉरवे से कोई रहस्यमयी शक्तियों वाला क्रिस्टल चुराता है और अपनी विशेष सेना और ताकत बनाने लगता है। वहीं न्यू यॉर्क में कम कद का दुबला-पतला कमजोर स्टीव रॉजर्स (क्रिस इवॉन्स) सेना की भर्ती में लिया नहीं जाता। पर उसके भीतर छिपे अच्छे इंसान को डॉ. अब्राहम (स्टैनली टुकी) पहचानते हैं और उसे 'सुपर सोल्जर' बना देते हैं। बहुत सी सतहों से होते हुए स्टीव का मुकाबला जोहान से होता है।

कहां क्या लगता है...
# 'द क्यूरियस केस ऑफ बेंजामिन बटन' में बूढ़े पैदा हुए ब्रेड पिट को दिखाने के लिए जो तकनीक बरती गई, वही यहां क्रिस इवॉन्स पर अपनाई जाती है। एक सेकंड भी ऐसा नहीं लगता कि ये दुबला-पतला स्टीव असल में छह फुट से ज्यादा का छरहरा हीरो हो जाएगा।
# समझ नहीं आता कि हर बार एक औसत अमेरिकी को सुपर बनने के लिए कोई डायमंड, क्रिस्टल या कुछ और ही क्यों चाहिए होता है? क्या इंसानी ताकत काफी नहीं। हर बार इस देश के दुश्मन रूसी, जापानी, जर्मन, मुस्लिम और चीनी ही क्यों होते हैं?
# स्टीव का कांधे पर अमेरिकी फ्लैग वाली ढाल लटकाए नाजी आर्मी कैंप में इधर-ऊधर भागना अखरता है।
# सुपरहीरो बनने के बाद स्टीव को रंगीन ड्रेस पहनाकर देश की जनता के सामने प्रोपगेंडा करवाया जा रहा है, वह उदास है। तभी एक बुद्धिभरा सांकेतिक सीन आता है। वह बारिश में बैठा एक चित्र बना रहा है, जिसमें उसकी जगह एक बंदर सुपरहीरो की ड्रेस में छाता लेकर नाच रहा है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, September 17, 2011

इंसानी कसाईबाड़े में बंद आठ जिंदगियां

फिल्म: फाइनल डेस्टिनेशन 5 (अंग्रेजी)
निर्देशक: स्टीवन क्वेल
कास्ट: निकोलस डोगस्टो, माइल्स फिशर, एलन रो, जेक्लीन वुड, एमा बेल, पी.जे.बायर्न, आर्लन एस्कर्पेटा, डेविड कोएश्चनर, टोनी टॉड
स्टार: तीन, 3.0

सबसे पहले जान लें कि ये हॉरर फिल्म है। वीभत्स है और थ्रीडी में है इसलिए खून और मांस से लथपथ सीन देख बड़े से बड़ा सूरमा भी विचलित हुए बगैर नहीं रह पाएगा। तो फैमिली और बच्चों के साथ देखने का प्लैन बनाने से पहले सोच लें। अपने जॉनर के हिसाब से 'फाइनल डेस्टिनेशन 5' संतुष्ट करती है। मगर कहानी में नया कुछ नहीं है। एक्टिंग सबकी फेल है। मौत का इंतजार कर रहे उन आठ लोगों में सब बारी-बारी मर रहे हैं, मगर बचे हुए लोगों के चेहरे पर भय ही नहीं नजर आता। फिल्म में कभी-कभार फनी डायलॉग भी आ ही जाते हैं। 2000 में आई पहली 'फाइनल डेस्टिनेशन' के सबसे करीब ये फिल्म अपनी थ्रीडी के लिए जानी जाएगी। हर एक्सीडेंटल सीन को नक्काशीनुमा परफेक्शन से बनाया गया है। खासतौर पर ब्रिज गिरने वाला सीन। बाकी सात-आठ भयावह दृश्य और हैं। इस फ्रैंचाइजी के रेग्युलर फैन जरूर देखें।

उन भाग्यशाली आठ की कहानी
एक कंपनी के सभी कलीग घूमने जा रहे हैं। बस नॉर्थ बे ब्रिज पहुंचती है कि सैम (निकोलस डोगस्टो) को आभास होता है कि ब्रिज टूट जाएगा और -एक करके सब मर जाएंगे। उसका ध्यान भंग होता है और वो अपनी गर्लफ्रैंड मॉली (एमा बेल) का हाथ पकड़ सबको चेताते हुए बस से निकलकर भागने लगता है। जो लोग उसके पीछे जाते हैं वो बच जाते हैं बाकी मारे जाते हैं, क्योंकि ब्रिज वाकई में टूट जाता है। अब इन जिंदा बचे आठ लोगों के पीछे मौत लगी है और कहानी आगे बढ़ती है।

बात कमजोरी की
# कहानी में इनोवेशन नहीं है। सब कुछ इस सीरिज की पहली फिल्म जैसे होता है। कुछ लोग टुअर पर निकले हैं। कोई एक बड़े एक्सीडेंट को भांप लेता है। उसके कहने से कुछ लोग भाग लेते हैं और बच जाते हैं। फिर उस एक से पुलिस पूछताछ करती है। फिर सब सीमेट्री पर शोक प्रकट करने जुटते हैं। फिर एक अजीब सी बातें करने वाला बंदा आता है और कहता है, 'डेथ डज नॉट लाइक टु बी चीटेड।' अब यहां तक आते-आते पता चल जाता है कि इस फिल्म में आठों जिस क्रम में उस ब्रिज पर मरने वाले थे उसी क्रम में फिल्म के बाकी हिस्से में मारे जाएंगे।
# आइजेक (पी.जे.बायर्न) के हंसने के तरीके में टॉम हैंक्स की आवाज सुनाई देती है और पीटर (माइल्स फिशर) की पर्सनैलिटी हूबहू टॉम क्रूज जैसी लगती है। हालांकि फिल्म में दोनों ही गुण काम नहीं आते।
# बाकी चार फिल्मों की तरह इसमें भी थीम वही है। मौत के आने की आहट, उसका पूर्वाभास, उससे बच जाना और फिर अंतत: मारा जाना। जब ये इतना एब्सट्रैक्ट विषय है ही तो इसमें कुछ और मेहनत करके स्मार्ट मोड़, डायलॉग या सोच डाली जा सकती थी। राइटर एरिक हाइजरर ने कोई उल्लेखनीय स्क्रीनराइटिंग पहले नहीं की है, तो कमजोर स्क्रिप्ट होने की एक बड़ी वजह तो वो हैं। दूसरा फिल्म के निर्माता, जिनका ज्यादा ध्यान फिल्म को कमर्शियल बनाने और उसके थ्रीडी वर्जन पर टेक्नीकल काम करने में चला गया।

आखिर में
फिल्म में इरीटेटिंग थे मुझसे पीछे बैठे दो पंजाबी दोस्त। हर खौफनाक और खूनी सीन में जब मांस के लोथड़े थ्रीडी चश्मे के लेंस के करीब भक्क से आकर लगते थे, वो दोनों फन के मारे जोर-जोर से हंसने लगते। जैसे मिस्टर बीन का प्रोग्रेम देख रहे हों। इसके उलट पूरे थियेटर में दर्शकों की सांस हलक में अटकी ही रही।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, September 13, 2011

'हीरानी से लडऩे को तरकश में बड़े तीर चाहिए'

इनकी सबसे पहली पहचान बनी 1991 के शुरू में दूरदर्शन पर आने वाले एपिक सीरियल 'चाणक्य' से। लेखक, निर्देशक और मुख्य अभिनेता चाणक्य डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी खुद थे। 2003 में इन्होंने फिल्म 'पिंजर' बनाई और अब ला रहे हैं सनी देओल की मुख्य भूमिका वाली 'मोहल्ला अस्सी'। ये फिल्म मशहूर उपन्यासकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर बनी है। कुछ वक्त पहले बड़ी तुरत-फुरत में हुई इस बातचीत के कुछ अंश:

'काशी का अस्सी' में बहुत सारे किरदार-कहानियां हैं, इसे दो घंटे की स्क्रिप्ट में ढालना कैसा रहा?
आप सही कह रहे हैं। पर किताब के अध्याय 'पांड़े कौन कुमति तोहें लागी' पर ही स्क्रिप्ट का ज्यादातर ढांचा आधारित है।

क्या उपन्यास की तरह फिल्म में भी गालियां उसी प्रवाह में हैं?
देखिए, समाज में गालियों को बुरा माना जाता है, पर इस कहानी में गालियां तृतीय पात्र की तरह हैं। वो आती हैं, पर फिल्म में कथा का पात्र, उसका संघर्ष, बाकी किरदारों की अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और उदारवाद में समाज में क्या-क्या उखड़ रहा है, रिश्ते और सब कुछ कैसे टूट रहा हैं... ये सब भी हैं। बाकी सिर्फ गालियों से कुछ नहीं होता है। हिंदी में हर साल 240 फिल्में बनती हैं, सब गालियों से तो सफल नहीं हो सकती है न। 'काशी का अस्सी' की तो पहचान ही गालियों से है।

मूल एक्शन छवि से सनी को अलग इमेज में लाते वक्त कुछ चिंता नहीं हुई?
नहीं। न ही मैंने इस इमेज की चिंता की और न ही सनी ने। एक अभिनेता वह होता है जो चुनौतियों को स्वीकार करे। दुर्भाग्य से सनी को वैसी भूमिकाएं कभी नहीं दी गई। उनकी एक्टिंग के दूसरे पहलू कभी लोगों के सामने नहीं आ पाए। और हम भूल जाते हैं कि सनी वही एक्टर हैं जिन्हें दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिले हैं। इतिहास गवाह रहा है कि जब भी कोई एक्टर अपनी स्थापित छवि को तोड़ता है तो लोग उसे सिर आंखों पर बिठाते हैं। प्राण साहब अपनी शुरुआती फिल्मों में मशहूर विलेन रहे हैं, पर जब उन्होंने पॉजिटिव चरित्र भूमिकाएं करनी शुरू की तो लोगों ने खूब सराहा। संजय दत्त को लीजिए। वो पहले अलग भूमिकाएं करते रहे, पर जब उन्होंने 'मुन्नाभाई...' की तो किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी।

फिल्म बनाने से पहले रिकवरी की परवाह करते हैं?
मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की। वैसे भी कहानीकारों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। मेरी फिल्म में सनी हैं और वो एक स्थापित कलाकार हैं इसलिए मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है।

फिल्म कब रिलीज होगी?
नवंबर-दिसंबर तक रिलीज करने की सोच रहे हैं। तब बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा भीड़ भी नहीं होती है। जैसे अभी 'सिंघम' की रिलीज टाइमिंग रही।

हाल ही में अलग सिनेमैटिक लेंग्वेज वाली फिल्में आई हैं। सार्थकता के लिहाज से आप उन्हें कितना महत्व देते हैं?
स्टोरीटेलिंग तो देखिए हर दिन बदलती है। नानी-दादी की कहानी भी चलती है और यार-दोस्तों की भी। हमारे बीच हर स्टाइल की कहानी को जगह है। इसमें 'डेल्ही बैली' भी है, अनुराग का सिनेमा भी है और राजकुमार हीरानी का सिनेमा भी है।

इस फिल्म के कथ्य में आपने किस बात का ध्यान रखा है?
मैंने अपनी कहानी का प्रारब्ध, मध्य और अंत ढूंढने की कोशिश की है। एक फिल्मी स्टोरी कहने का जो क्लासिक फॉर्मेट होता है उसे तोडऩे की कोशिश की है।

मौजूदा फिल्ममेकर्स में किसके काम को अच्छा मानते हैं और क्यों?
मैं मानता हूं कि कहानी सबसे बड़ी होती है। राजकुमार हीरानी ने 'लगे रहो मुन्नाभाई' में महात्मा गांधी के किरदार को जैसे इस्तेमाल किया, उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैंने उन्हें फोन किया और कहा कि तुमसे लडऩे के लिए तरकश में बड़े तीर लाने पड़ेंगे क्योंकि तुमने काम ही ऐसा किया है।

हमेशा ऐतिहासिक किरदारों पर ही क्यों काम करते हैं?
मैंने हमेशा एतिहासिक विषयों पर फिल्में बनाई हैं। क्योंकि वर्तमान तो सबके सामने हैं, उसे सब जानते हैं, पर जो गुजर गया है वो अज्ञात है। जिज्ञासा होती है कि वो जब कभी रहा होगा तो उसका स्वरूप कैसा हुआ होगा।

अपनी बातचीत में आप 'वैराग्य' का भाव पैदा होने का जिक्र करते हैं। क्या पहचान या फीडबैक न मिलने से भी ऐसा होता है?
जो तारीफ नहीं मिलने पर वैराग्य की बात करते हैं, वो निराशा का भाव होता है, वैराग्य का नहीं। वैराग्य आपकी वैचारिक और सामाजिक पृष्टभूमि से आता है।

'चाणक्य' आज भी लोगों के क्लासिक डीवीडी कलेक्शन में शामिल है। क्या फिर अभिनय करने का ख्याल नहीं आता?
नहीं यार, बहुत हो गया वो। जितना करना था कर लिया। बाकी अपनी रचनात्मकता को प्रदर्शित करने के मौके अभिनय से ज्यादा निर्देशन में होते हैं।

इतनी कम फिल्में क्यों बनाते हैं?
एक बार सईद अख्तर मिर्जा से किसी ने पूछा था कि आप फिल्में क्यों नहीं बनाते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं कहां नहीं बनाता हूं कोई बनाने ही नहीं देना चाहता है। वही मेरे साथ है। फिल्मों की लागत बहुत बढ़ गई है। एक फ्लॉप हो जाए तो दूसरी बनाने के रास्ते बंद से हो जाते हैं। एक हिट हो जाए तो दूसरी के लिए सोचना नहीं पड़ता। मुझे ये लगता है कि 'मोहल्ला अस्सी' के बाद मुझे दूसरी फिल्म बनाने में कोई मुश्किल नहीं आनी चाहिए।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 11, 2011

इस सबजेक्ट पर बनी फिल्मों के ढर्रे की मरम्मत करती हुई

फिल्म: फ्रैंड्स विद बैनिफिट्स
निर्देशक: विल ग्लूक
कास्ट: जस्टिन टिंबरलेक, माइला क्यूनिस, वूडी हैरलसन, नोलन गाउल्ड, जेना एल्फमेन, रिचर्ड जेनकिंस, पैट्रिशिया क्लार्कसन
स्टार: तीन, 3.0

जब आप थियेटर में होते हैं तो प्रार्थना करते हैं कि फिल्म शुरू होने तक टॉर्चर देने वाले चाय, क्रीम या रियल एस्टेट के एड न दिखाए जाएं। ऐसे में जब बैक टु बैक 'मनीबॉल', 'जूकीपर', '30 मिनट्स' और 'अनॉनिमस' जैसी चार बेहतरीन और अलग टेस्ट वाली फिल्मों के ट्रेलर दिखते हैं तो मूड फ्रैश हो जाता है। उसके बाद शुरू होती है 'फ्रेंड्स विद बैनिफिट्स' और बड़े ऑर्डिनरी से पोस्टर वाली ये फिल्म उस मूड को खराब नहीं होने देती। जस्टिन टिंबरलेक और माइला क्यूनिस अपने आप में कोई मेगास्टार नहीं हैं, पर फिल्म के स्मार्ट और चपल डायलॉग्स के साथ सुकून देते हैं। गुदगुदाने का बाकी काम जीक्यू के स्पोट्र्स एडिटर टॉमी बने वूडी हैरलसन और डिलन का भांजा सैमी (नोलन गोउल्ड) करते हैं। सैमी की फेल होती मैजिक ट्रिक्स और टॉमी के 'यू श्योर, योर नॉट गे?' सबसे ज्यादा याद रहते हैं। एक नॉन-कॉमिक जॉनर वाली फिल्म में हंसी की संतुलित मात्रा इस फिल्म जितनी होती है, ये आदर्श पैमाना हो सकता है। इस सब्जेक्ट वाली ज्यादातर हॉलीवुड फिल्मों में स्क्रिप्ट जो ढर्रा लिए होती है, वो यहां नहीं है। इसे जरूर देख सकते हैं।

दोस्ती के दौरान
डिलन (जस्टिन टिंबरलेक) लॉस एंजेल्स में इस छोटी इंटरनेट कंपनी में आर्ट डायरेक्टर है। उसका काम बहुत अच्छा है इसलिए जीक्यू मैगजीन उसे इंटरव्यू करना चाहती है। उसकी भर्ती सुनिश्चित करने का काम एक एग्जीक्यूटिव रिक्रूटर जैमी (माइला क्यूनिस) को मिलता है। पर डिलन एलए छोड़कर न्यू यॉर्क नहीं आना चाहता। जैमी की कोशिशों से वह न्यू यॉर्क जीक्यू में आ जाता है। फिर दोनों सिर्फ दोस्त रहने और उससे आगे न बढऩे की शर्त पर फिजिकल होते हैं। पर प्यार का क्या है वो तो होना ही होता है।

रिश्तों की समझाइश
सिर्फ फ्रेंड होने या बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड हो जाने और सिर्फ फिजीकल रहने या प्यार कर बैठने की कशमकश है डिलन और जैमी के बीच। महाशहरी इंग्लिश स्पीकिंग यंगस्टर्स और वर्किंग प्रफेशनल्स इस सब्जेक्ट के दायरे में आते हैं। उन्हें ये फिल्म सबसे ज्यादा पसंद आएगी। जो लोग हॉलीवुड की फिल्में देखते हैं और सुनकर तुरंत समझते हैं, उन्हें फिल्म देखने वक्त राहतभरा मजा आएगा। इसी के तहत फिल्म में जो फिजीकल होने के सीन हैं वो फनी लगते हैं। उनमें वल्गैरिटी या कहीं भी भद्दापन नहीं है। बल्कि यहां भी दर्शक कंफर्टेबल रहते हुए ठहाके लगाते हैं। डिलन के अपने पिता (रिचर्ड जेनकिंस) और बड़ी बहन एनी (जेना एल्फमैन) के साथ रिश्ते को भी अच्छे फ्रेम में जड़ा गया है। वो फिल्म की जरूरत लगते हैं। ठीक वैसे ही जैमी की बोल्ड मदर (पैट्रिशिया क्लार्कसन) भी फिल्म में फिट लगती हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, September 10, 2011

सोडरबर्ग का इंफेक्शन, एक ईमानदार कोशिश

फिल्म: कंटेजियन (अंग्रेजी)
निर्देशक: स्टीवन सोडरबर्ग
कास्ट: मैट डेमन, केट विंस्लेट, ग्वेनैथ पॉल्ट्रो, जूड लॉ, मेरियन कोटिलार्ड, लॉरेंस फिशबर्न
स्टार: तीन, 3.०

'कंटेजियन' को देखने से पहले मैं फिल्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता था, तो उसे बिना किन्हीं उम्मीदों के देख पाया। चूंकि निर्देशक स्टीवन सोडरबर्ग के सिनेमा से भी वाकिफ हूं तो यहां उनके उस एफर्ट को समझ पाया जो उन्होंने 'बबल', 'सेक्स लाइज एंड वीडियोटेप्स' और 'चे' बनाकर किया था। संक्रमण, वायरस या फ्लू पर बनने वाली हॉलीवुड़ फिल्मों में लोगों के डर और मानवता पर खतरे के इमोशन को फिल्म में लार्जर देन लाइफ बनाकर भुनाया जाता है। लोगों को जॉम्बी बनाकर, सूने हो चुके शहर की सड़कें दिखाकर, न्यूक्लियर यूज के साथ आर्मी को लाकर और एक-दो लोगों को हीरो बनाकर एक धांसू एंटरटेनिंग फिल्म बना दी जाती है। जो कोई बुरी बात नहीं है, पर यहां ऐसा नहीं है। केट विंस्लेट, ग्वेनैथ पॉल्ट्रो और मेरियन कोटिलार्ड यूं आती और चली जाती हैं जैसे सोडरबर्ग के लिए उनकी फिल्म की कहानी से जरूरी और ऊंचा कोई नहीं है। इस फिल्म में हम ऐसी भयावह बीमारियों के उभरने और फैलने के प्रोसेस को समझते हैं। जान पाते हैं कि कैसे गवर्नमेंट एजेंसियां काम करती हैं। कितनी बेइमानी और ईमानदारी से। ये भी कि सरकारों के लिए मुश्किल वक्त आने पर जनता कितनी कम जरूरी हो जाती है। ऐसे किरदार भी दिखते हैं जो हकीकत जानते हैं और लोगों की मदद कर सकते हैं पर उन्हें दबा दिया जाता है। मसलन यहां जूड लॉ का किरदार, जो मल्टीनेशनल कंपनियों पर कमेंट करता है और लगातार बोलता रहता है। इतनी जानकारी देने और मानवता पर आन पड़ी आपदा को सरल तरीके से दिखाने के गुण के बावजूद फिल्म कोई डॉक्युमेंट्री नहीं लगती, एक संपूर्ण हॉलीवुड फिल्म लगती है। पहली बात ये कि 'कंटेजियन' बोरिंग नहीं है, दूसरी ये कि ये मसाला एंटरटेनर भी नहीं है। हां, इतना जरूर है कि '28 डेज लेटर', 'रेजिडेंट ईविल' और 'आउटब्रेक' जैसी फिल्मों के बीच हमें इस फिल्म जैसी बेहद ईमानदार कोशिश नजर आती है। डैनी बॉयेल की '28 डेज लेटर' में हम देखते हैं कि चिंपाजिंयों पर हुए क्रूर मानवीय प्रयोगों से पैदा हुआ वायरस कैसे 28 दिन बाद शहर को खाली कर देता है, वहीं इस फिल्म में उन 28 दिन तक हम कैसे पहुंचते हैं, ये देखते हैं। सुलझी हुई इस बेहद मैच्योर फिल्म को एक बार जरूर देखना चाहिए।

जमीन से जुड़ी कहानी
हॉन्ग कॉन्ग में अपनी बिजनेस ट्रिप से अमेरिका लौटी बैथ (ग्वेनैथ पॉल्ट्रो) अगले दिन अपने घर में बेहोश होकर गिर जाती है। हस्बैंड मिल्च (मैट डेमन) अस्पताल ले जाता है पर डॉक्टर उसे मृत घोषित कर देते हैं। धीरे-धीरे अमेरिका और दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी लोग इस वायरस से इन्फैक्टेड होने लगते हैं और मौतें होने लगती हैं। चमगादड़ और सूअर के जरिए फैले इस वायरस की तह तक जाने में डब्ल्यूएचओ, अमेरिकी डिजीज कंट्रोल और प्रिवेंशन सेंटर और बाकी एजेंसियां एक्टिव हो जाती हैं। फिर कहानी में एक ब्लॉगर-जर्नलिस्ट एलन (जूड लॉ) आता है, जो शुरू से सब कुछ जानता है पर कोई उसकी सुनता नहीं। वैकल्पिक मीडिया में उसके लाखों फॉलोवर बनते हैं और साथ ही साथ गवर्नमेंट की फेल हो चुकी लीडरशिप, ध्वस्त शहरी ढांचा और बेबस अमेरिकी जनता दिखती है। फिल्म की कहानी में मौजूद हर मैलोड्रमैटिक संभावना को कम से कम बढ़ाने-चढ़ाने की कोशिश की गई है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

फिल्मी फिल्म है, एन्जॉय करें और भूल जाएं

फिल्म: मेरे ब्रदर की दुल्हन
निर्देशक: अली अब्बास जफर
कास्ट: इमरान खान, कटरीना कैफ, अली जफर, मोहम्मद जीशान अयूब, तारा डिसूजा, बृजेंद्र काला
स्टार: तीन, 3.0

फिल्म देखते हुए मुझे कुछ झुंझलाहट हुई। क्यों? जानने से पहले 'हम आपके हैं कौन' के अंताक्षरी सॉन्ग पर चलते हैं। जिसके पास तकिया आता है वह कोई न कोई फिल्मी गाना गाता है या डायलॉग बोलता है। अनुपम खेर अपनी बारी आने पर प्लास्टिक की कुर्सी पर खड़े हो, हाथ में मिनरल वॉटर की बोतल ले, रीमा लागू को बसंती और आलोकनाथ को मौसी बनाकर 'शोले' का मशहूर डायलॉग सुसाइड... बोलते हैं। ये सीक्वेंस शानदार बन पड़ता है, मगर जीप के बोनट पर खड़ी होकर जब कटरीना सुसाइड... वाला डायलॉग इस फिल्म में बोलती हैं तो छाती चौड़ी नहीं होती कि मैं ये फिल्म देखने आया। 'ओम शांति ओम' और 'बुड्ढा होगा तेरा बा' जैसी फिल्मों में इतना बॉलीवुड डाल दिया जाता है कि ये फिल्में खुद कुछ नहीं रह पातीं। ऐसा ही 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' के साथ है। चूंकि इस फिल्म का नाम और स्टोरी इतने अनुमानित हैं कि ढाई घंटे दिखाने को कुछ बचता नहीं। इस कसर को ढकने के लिए डायरेक्टर अली अब्बास जफर हिट फिल्मों के गानों की कोरियोग्रफी, पोस्टर और डायलॉग फिल्म में ठूसते जाते हैं और हम फ्रैश कंटेंट को तरसते जाते हैं। उन्हें समझना होगा कि कटरीना और तारा डिसूजा के किरदारों को बीड़ी, सिगरेट या दारू पिला देने से वह कुछ नया नहीं करते। नयापन स्क्रिप्ट और अदाकारी में चाहिए जो मिसिंग है। हालांकि फैमिली और फ्रैंड्स के साथ जाएंगे तो फिल्म आपको ठीक-ठाक एंटरटेनमेंट देगी, बावजूद इसके मुझे ये टोटके थोथे और इरीटेट करने वाले लगे।

बात कुछ यूं है
लंदन में रहने वाला लव अग्निहोत्री (अली जफर) अपनी पांच साल से गर्लफ्रेंड रही गुजराती लंदन बोर्न लड़की पियाली (तारा डिसूजा) से ब्रेकअप कर लेता है। अब शादी करके सेटल होना चाहता है। दिल्ली में छोटे भाई कुश (इमरान खान) को फोन करके अपने लिए लड़की ढूंढने को कहता है। कुश देहरादून अपने पेरंट्स के पास जाता है। जुबां पर गाना लिए 'दिल से हो दिल्ली, हो धड़कन से लंदन... मेरे ब्रदर की दुल्हन'। उसकी तलाश डिंपल दीक्षित (कटरीना कैफ) पर आकर रुकती है, जिसे वह पहले भी मिल चुका है। बात आगे बढ़ती है और फिर कुछ ऐसा होता है कि कुश को डिंपल से प्यार हो जाता है। चूंकि फिल्म बिल्कुल भी गंभीर नहीं है इसलिए बिना किसी बड़ी टेंशन के हम क्लाइमैक्स में पहुंचकर थियेटर से बाहर निकल आते हैं।

अभिनय के मामले में औसत
फिल्म के लीड एक्टर अपने कैरेक्टर को अपने प्रयासों से कोई आइडेंटिटी नहीं दे पाते हैं। कटरीना का बिंदास अंदाज हो या अली जफर की कुछ-कुछ पाकिस्तानी एक्सेंट में डायलॉग डिलीवरी या फिर इमरान का ब्लैंक फेस, सब इनकी पिछली फिल्मों में हमने देखा है। बृजेंद्र काला (शादी अरेंजर) और मोहम्मद जीशान अयूब (शोभित, कुश का दोस्त) के किरदार कुछ क्षण ही सही अपने परफॉर्मेंस में ताजगी लाते हैं। कैसा ये इस्क है... और मेरे ब्रदर की दुल्हन... गानों के बोल इरशाद कामिल ने मेहनत से लिखे हैं पर जबान पर नहीं चढ़ते, न ही याद हो पाते हैं।

बॉलीवुड की पैरोडी सी है यहां
# ओपनिंग गाने में चल छैंया छैंया (शाहरुख), हुण हुण दबंग दबंग - जवानी फिर ना आए (सलमान), मस्ती की पाठशाला (आमिर).. इन गानों के सिग्नेचर डांस स्टेप हैं।
# ऐसा ही कैसा ये इस्क है... गाने में है। मसलन, इसमें 'जोधा अकबर' के ख्वाजा जी.. गाने के स्टेप हैं।
# 'हम भाग नहीं सकते। मैं 'कयामत से कयामत तक' का आमिर खान और तुम जूही चावला नहीं हो। कि भागकर हम अपनी छोटी सी झोंपड़ी बनाएंगे। मैं फैक्ट्री में काम करूंगा और तुम कपड़े में प्याज-रोटी बांधकर मेरे लिए लाओगी। हम लोग मिडिल क्लास फैमिली से हैं, फिल्म के कैरेक्टर नहीं।'... इमरान के इस डायलॉग में भी फिल्मी संदर्भ है।
# शादी की तैयारियां करवा रहे बृजेंद्र काला कुछ कॉमिक रिलीफ लेकर आते हैं। जब उनसे पूछा जाता है, 'सब कंट्रोल में है... तो वह कहते हैं, 'कंट्रोल से भी कंट्रोल है। आई एम अ कॉम्पलैन बॉय।' पढऩे में खास नहीं लगता, पर परदे पर देखकर हंसी आती है। एक डायलॉग में पूछा जाता है, 'भाई साहब हो गए रेडी?' तो वह कहते हैं, 'ऐसा वैसा रेडी?.. एवर रेडी।'
# 'यूपी आए और भांग नहीं पी तो क्या खाक यूपी आए।' इस सीक्वेंस के दौरान ढाबे पर बैकग्राउंड में 'दबंग' और 'मुगल-ए-आजम' के एकदम नए बड़े पोस्टर खासतौर पर लगाए नजर आते हैं।
# पुराने जमाने का फिलिप्स का रेडियो एक-दो गानों के शुरू होने का लॉजिक बनता है। गैजेट्स के इस बेहद आधुनिक वक्त में चार बड़े निप्पो सेल वाला वो एंटीक रेडियो अलग अनुभव देता है।

आखिर में
...
चूंकि अली अब्बास जफर पहली बार के निर्देशक-लेखक हैं इसलिए फिल्म की थीम और एक और प्रेडिक्टेबल लव स्टोरी के लिए ही उनकी आलोचना करने से बचना चाहिए। बावजूद मेरी झुंझलाहट के मैंने ध्यान इस बात का रखा है कि बड़ी लगन और पागलपन से फिल्म में बॉलीवुड को रखा गया। पहली फिल्म हर किसी का बड़ा सपना होती है और उसके साथ संभवत: कोई भी बेइमानी नहीं करता है। ऐसे में तीन स्टार फिल्म में इन सब चीजों को डालने के जज्बे के लिए है और उस लिहाज से फिल्म ठीक है। थियेटर में बैठे दर्शक भी कहीं बोर होते या नाखुश नहीं होते दिखते। पर जब संदर्भ और तुलना में पिछले पचास साठ साल की फिल्में हर बार होती हैं तो ये फिल्म मुझे झुंझलाहट और दोहराव भरी लगती है।

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गजेंद्र सिंह भाटी