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Saturday, September 17, 2011

इंसानी कसाईबाड़े में बंद आठ जिंदगियां

फिल्म: फाइनल डेस्टिनेशन 5 (अंग्रेजी)
निर्देशक: स्टीवन क्वेल
कास्ट: निकोलस डोगस्टो, माइल्स फिशर, एलन रो, जेक्लीन वुड, एमा बेल, पी.जे.बायर्न, आर्लन एस्कर्पेटा, डेविड कोएश्चनर, टोनी टॉड
स्टार: तीन, 3.0

सबसे पहले जान लें कि ये हॉरर फिल्म है। वीभत्स है और थ्रीडी में है इसलिए खून और मांस से लथपथ सीन देख बड़े से बड़ा सूरमा भी विचलित हुए बगैर नहीं रह पाएगा। तो फैमिली और बच्चों के साथ देखने का प्लैन बनाने से पहले सोच लें। अपने जॉनर के हिसाब से 'फाइनल डेस्टिनेशन 5' संतुष्ट करती है। मगर कहानी में नया कुछ नहीं है। एक्टिंग सबकी फेल है। मौत का इंतजार कर रहे उन आठ लोगों में सब बारी-बारी मर रहे हैं, मगर बचे हुए लोगों के चेहरे पर भय ही नहीं नजर आता। फिल्म में कभी-कभार फनी डायलॉग भी आ ही जाते हैं। 2000 में आई पहली 'फाइनल डेस्टिनेशन' के सबसे करीब ये फिल्म अपनी थ्रीडी के लिए जानी जाएगी। हर एक्सीडेंटल सीन को नक्काशीनुमा परफेक्शन से बनाया गया है। खासतौर पर ब्रिज गिरने वाला सीन। बाकी सात-आठ भयावह दृश्य और हैं। इस फ्रैंचाइजी के रेग्युलर फैन जरूर देखें।

उन भाग्यशाली आठ की कहानी
एक कंपनी के सभी कलीग घूमने जा रहे हैं। बस नॉर्थ बे ब्रिज पहुंचती है कि सैम (निकोलस डोगस्टो) को आभास होता है कि ब्रिज टूट जाएगा और -एक करके सब मर जाएंगे। उसका ध्यान भंग होता है और वो अपनी गर्लफ्रैंड मॉली (एमा बेल) का हाथ पकड़ सबको चेताते हुए बस से निकलकर भागने लगता है। जो लोग उसके पीछे जाते हैं वो बच जाते हैं बाकी मारे जाते हैं, क्योंकि ब्रिज वाकई में टूट जाता है। अब इन जिंदा बचे आठ लोगों के पीछे मौत लगी है और कहानी आगे बढ़ती है।

बात कमजोरी की
# कहानी में इनोवेशन नहीं है। सब कुछ इस सीरिज की पहली फिल्म जैसे होता है। कुछ लोग टुअर पर निकले हैं। कोई एक बड़े एक्सीडेंट को भांप लेता है। उसके कहने से कुछ लोग भाग लेते हैं और बच जाते हैं। फिर उस एक से पुलिस पूछताछ करती है। फिर सब सीमेट्री पर शोक प्रकट करने जुटते हैं। फिर एक अजीब सी बातें करने वाला बंदा आता है और कहता है, 'डेथ डज नॉट लाइक टु बी चीटेड।' अब यहां तक आते-आते पता चल जाता है कि इस फिल्म में आठों जिस क्रम में उस ब्रिज पर मरने वाले थे उसी क्रम में फिल्म के बाकी हिस्से में मारे जाएंगे।
# आइजेक (पी.जे.बायर्न) के हंसने के तरीके में टॉम हैंक्स की आवाज सुनाई देती है और पीटर (माइल्स फिशर) की पर्सनैलिटी हूबहू टॉम क्रूज जैसी लगती है। हालांकि फिल्म में दोनों ही गुण काम नहीं आते।
# बाकी चार फिल्मों की तरह इसमें भी थीम वही है। मौत के आने की आहट, उसका पूर्वाभास, उससे बच जाना और फिर अंतत: मारा जाना। जब ये इतना एब्सट्रैक्ट विषय है ही तो इसमें कुछ और मेहनत करके स्मार्ट मोड़, डायलॉग या सोच डाली जा सकती थी। राइटर एरिक हाइजरर ने कोई उल्लेखनीय स्क्रीनराइटिंग पहले नहीं की है, तो कमजोर स्क्रिप्ट होने की एक बड़ी वजह तो वो हैं। दूसरा फिल्म के निर्माता, जिनका ज्यादा ध्यान फिल्म को कमर्शियल बनाने और उसके थ्रीडी वर्जन पर टेक्नीकल काम करने में चला गया।

आखिर में
फिल्म में इरीटेटिंग थे मुझसे पीछे बैठे दो पंजाबी दोस्त। हर खौफनाक और खूनी सीन में जब मांस के लोथड़े थ्रीडी चश्मे के लेंस के करीब भक्क से आकर लगते थे, वो दोनों फन के मारे जोर-जोर से हंसने लगते। जैसे मिस्टर बीन का प्रोग्रेम देख रहे हों। इसके उलट पूरे थियेटर में दर्शकों की सांस हलक में अटकी ही रही।
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गजेंद्र सिंह भाटी