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Wednesday, December 21, 2011

“इंडिया में शेखर कपूर से अच्छा डायरेक्टर नहीः तिग्मांशु धूलिया”

तिग्मांशु धूलिया फिल्ममेकिंग की जिन भट्टियों से होकर निकले हैं, वो उन्हें सबसे स्पेशल बनाती हैं। कल्ट फिल्मों की मेकिंग में वो शामिल रहे। चाहे मणिरत्नम की 'दिल से’ की स्क्रिप्ट लिखना हो, या शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन’ और आसिफ कपाड़िया की अवॉर्ड विनिंग फिल्म 'द वॉरियर’ की कास्टिंग करना। टीवी को उन्होंने 'जस्ट मोहब्बत’ और 'स्टार बेस्टसेलर् जैसे अनोखे सीरियल दिए। बीते दिनों उनकी अच्छी फिल्म 'साहब बीवी और गैंगस्टर’ आई और अब इरफान खान के साथ बहुप्रतीक्षित फिल्म 'पान सिंह तोमर’ के आने की बारी है। इस सुपर सॉलिड निर्देशक से हुई ये बहुमूल्य बातचीत। संक्षिप्त अंश यहां, संपूर्ण संस्करण यानी अनकट वर्जन फिर कभी।

'पान सिंह तोमर’ कब से तैयार है, रिलीज में देरी क्यों?
हुआ ये कि 'पान सिंह तोमर’ की शूटिंग खत्म हो गई और ये तीन-चार फिल्म फेस्टिवल्स में गई। आबू धाबी, लंदन, न्यू यॉर्क। और बहुत सराही गई। बहुत अच्छे रिव्यूज मिले वहां। एक-आध रिव्यू तो ऐसे मिले कि मुझे खुद शर्म आने लग गई, कि ये फिल्म 'बैंडिट क्वीन’ से भी बेहतर है। मेरे तो गुरू हैं शेखर जी (शेखर कपूर, बैंडिट क्वीन के डायरेक्टर)। उसके बाद क्या हुआ कि 'पान सिंह...’ बिक चुकी थी, सैटेलाइट राइट बिक चुके थे। जब बेचे थे तब सैटेलाइट बतौर टैरेटरी बहुत हॉट नहीं थी, फिर एकदम से हॉट हो गई, क्योंकि बहुत से मूवी चैनल लॉन्च होने वाले थे। तो फिल्म के प्रॉड्यूसर यूटीवी ने चैनलों से प्राइस को लेकर फिर से बातचीत की। उसमें वक्त लग गया। उसके बाद क्या हुआ कि तब से लेकर दिसंबर-जनवरी तक हर हफ्ते इतनी सारी फिल्में है न, कि करेक्ट टाइम नहीं मिल रहा था 'पान सिंह...’ को रिलीज करने का, इसलिए अब फाइनली 9 मार्च 2012 को रिलीज होगी।

आपने मणिरत्नम और शेखर कपूर को असिस्ट किया है। आकांक्षी फिल्ममेकर-राइटर जिसका सपना देखा करते हैं। अपनी जिंदगी और फिल्मों में आपने इन दोनों से क्या लिया?
शेखर जी की पर्सनैलिटी बड़े चार्मिंग आदमी की है। वो चार्म तो मैं ला नहीं सकता। उनका अपना डीएनए है। कोशिश भी करता हूं तो फेल हो जाता हूं। लेकिन बतौर डायरेक्टर ईमानदारी से बोलूं तो इंडिया में उनसे अच्छा डायरेक्टर नहीं है। एक्टरों को कैसे हैंडल करना है, वो मैंने उनसे सीखा। बहुत प्यार से हैंडल करते हैं वो, कोई जोर-जबरदस्ती नहीं, कोई चिल्लाना नहीं, बहुत ही पोलाइट आदमी हैं। रियल लाइफ में भी बहुत तमीज से बात करते हैं। मैं कोशिश करता हूं उनके इस पहलू को पकडऩे का। मणि सर कमाल के डायरेक्टर हैं। विजय आनंद साहब के बाद कोई अगर गाने शूट करता है तो मणि सर करते हैं। दूसरा काम को लेकर उनकी इतनी शिद्दत है, एकदम पूजा की तरह लेते हैं। उसको लेकर मैं बहुत ही इंस्पायर्ड हूं।

आपने 'हासिल’ जैसी कल्ट फिल्म बनाई, पर 'साहब बीवी और गैंगस्टर’ तक आते-आते ऐसा क्यों लगने लगा कि कभी आप कोई मैग्नम ओपस (बहुत बड़ी) बनाना चाहें तो बजट के लिए थोड़ा सा स्ट्रगल करना पड़ता है?
नहीं, ऐसा नहीं है। जिस दिन पिक्चर 'चरस’ रिलीज हुई थी, उसके दूसरे ही दिन ही मैंने अपनी थर्ड पिक्चर की शूटिंग शुरू कर दी थी। थोड़ी एक्सपेरिमेंटल फिल्म थी। 'किलिंग ऑफ अ पॉर्न फिल्ममेकर’ नाम था उसका। इरफान (खान) था उसमें, तो हफ्ते भर शूटिंग की। फिर पता चला कि प्रॉड्यूसर ने उसी पैसे से कोई दूसरी फिल्म शुरू कर दी है, जिसका मुझे इल्म ही नहीं था। उन्होंने वो पिक्चर बना दी, पर आज तक रिलीज नहीं हो पाई और हमारी रुक गई। ऐसे में जो टाइम स्क्रिप्ट लिखने और प्री-प्रॉडक्शन में गया वो बर्बाद हो गया। उसके बाद आप जो बोल रहे हैं मैग्नम ओपस, तो मैंने बहुत बड़ी फिल्म उसके बाद शुरू की, 'गुलामी’ 1857 की क्रांति पर थी। सनी देओल के साथ। उसमें सनी, समीरा रेड्डी, इरफान और लंदन के बहुत सारे एक्टर थे। स्क्रिप्ट लिखने में बहुत वक्त लगा। लोकेशंस ढूंढी, कास्टिंग की, हथियार बनाए, कॉस्ट्यूम बनाई। पीरियड फिल्म थी तो उसमें बहुत टाइम गया। पूना के पास एक जगह है भोर, वहां पर मैंने 70 लाख का सेट लगाया। तीन दिन की शूट के बाद मुझे लगा कि कुछ पैसे की कमी हो रही है, कभी डीजल नहीं आ रहा है, कभी कुछ और। पता चला कि प्रॉड्यूसर के पास पैसे नहीं हैं। शूटिंग रुक गई। हफ्ते भर बाद प्रॉड्यूसर बिल्डिंग से गिर गया और शरीर की सारी हड्डियां टूट गई। वो एक साल बेड पर रहे और पिक्चर समेट ली गई। तो ऐसा नहीं है कि मैग्नम ओपस नहीं बनाऊंगा, जरूर बनाऊंगा उस फिल्म को।

'किलिंग ऑफ अ पॉर्न फिल्ममेकर’ के बारे में पूछना चाहता था कि फिर बंद क्यों हो गई?

इरफान और मैं अपने-अपने काम में लग गए। लेकिन बनाऊंगा मैं उसको, बड़ी इंट्रेस्टिंग स्क्रिप्ट है वो, बड़ी स्पिरिचुअल फिल्म है। रेसिज्म पर है, इंटरनेशनल रेसिज्म पर।

बहुत कम लोग जानते हैं कि आप 'बैंडिट क्वीन’ के कास्टिंग डायरेक्टर थे। आप एनएसडी से निकले, आपको ऑफर मिला, आपने किया। पर क्या ऐसा है कि कोई कास्टिंग डायरेक्टर नहीं बने रहना चाहता, आखिर में सबको डायरेक्टर ही बनना है?
जब मैंने 'बैंडिट क्वीन’ की तब कास्टिंग डायरेक्टर का बहुत डिसिप्लिन था नहीं। जो बाहर से फिल्में आती थी उसमें होते थे कास्टिंग डायरेक्टर। डॉली ठाकुर और ये लोग करते थे कुछ। लेकिन 'बैंडिट क्वीन’ की कास्टिंग सबको ऑन द फेस लगी। इंट्रेस्टिंग थी। अभी तो इंडस्ट्री में हैं कास्टिंग डायरेक्टर। मुकेश छाबड़ा है, नमिता सहगल है। अच्छा है और अब ये डिसिप्लिन में आ गया है।

मौजूदा वक्त में कौन फिल्ममेकर अच्छी फिल्में बना रहे हैं?
राजू हीरानी तो बेस्ट हैं। जितने अच्छे फिल्ममेकर हैं उतने ही अच्छे इंसान भी हैं वो। इम्तियाज का काम मुझे बहुत अच्छा लगता है। दिबाकर का काम मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगता है। नीरज पांडे की 'अ वेडनसडे’ बहुत अच्छी लगी थी।

इतनी अच्छी राइटिंग कैसे कर लेते हैं?
ड्रामा स्कूल में एक्टिंग में स्पेशलाइज किया था। एक बड़ा रियलिस्टिक नाटक हुआ नॉर्वे के प्ले राइटर हैनरिक इब्सन का। उसका हिंदी में ट्रांसलेशन था जो बहुत खराब था। उसमें मुझे मेन रोल दे दिया गया। मैंने रोल निभाया मगर वो नाटक बहुत बड़ा फ्लॉप हुआ। तब से मैंने खुद से कहा कि मैं बहुत बुरा एक्टर हूं। अब कभी एक्ट नहीं करूंगा। पर इस वाकये के बाद से लगातार लिखने लग गया। हमेशा सोचता था कि एक्टर के लिए ऐसे डायलॉग हों जो थोड़े ड्रमैटिक तो हों, वजन वाले तो हों लेकिन ऐसे न लगें कि लिखे गए हैं। बड़े एफर्टलेस हों और एक्टर को बोलने में सुविधा हो। क्योंकि मैं खुद एक्टर था तो डायलॉग जब लिखता तो पहले बोलकर देखता कि मजा कैसे आएगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, September 13, 2011

'हीरानी से लडऩे को तरकश में बड़े तीर चाहिए'

इनकी सबसे पहली पहचान बनी 1991 के शुरू में दूरदर्शन पर आने वाले एपिक सीरियल 'चाणक्य' से। लेखक, निर्देशक और मुख्य अभिनेता चाणक्य डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी खुद थे। 2003 में इन्होंने फिल्म 'पिंजर' बनाई और अब ला रहे हैं सनी देओल की मुख्य भूमिका वाली 'मोहल्ला अस्सी'। ये फिल्म मशहूर उपन्यासकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर बनी है। कुछ वक्त पहले बड़ी तुरत-फुरत में हुई इस बातचीत के कुछ अंश:

'काशी का अस्सी' में बहुत सारे किरदार-कहानियां हैं, इसे दो घंटे की स्क्रिप्ट में ढालना कैसा रहा?
आप सही कह रहे हैं। पर किताब के अध्याय 'पांड़े कौन कुमति तोहें लागी' पर ही स्क्रिप्ट का ज्यादातर ढांचा आधारित है।

क्या उपन्यास की तरह फिल्म में भी गालियां उसी प्रवाह में हैं?
देखिए, समाज में गालियों को बुरा माना जाता है, पर इस कहानी में गालियां तृतीय पात्र की तरह हैं। वो आती हैं, पर फिल्म में कथा का पात्र, उसका संघर्ष, बाकी किरदारों की अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और उदारवाद में समाज में क्या-क्या उखड़ रहा है, रिश्ते और सब कुछ कैसे टूट रहा हैं... ये सब भी हैं। बाकी सिर्फ गालियों से कुछ नहीं होता है। हिंदी में हर साल 240 फिल्में बनती हैं, सब गालियों से तो सफल नहीं हो सकती है न। 'काशी का अस्सी' की तो पहचान ही गालियों से है।

मूल एक्शन छवि से सनी को अलग इमेज में लाते वक्त कुछ चिंता नहीं हुई?
नहीं। न ही मैंने इस इमेज की चिंता की और न ही सनी ने। एक अभिनेता वह होता है जो चुनौतियों को स्वीकार करे। दुर्भाग्य से सनी को वैसी भूमिकाएं कभी नहीं दी गई। उनकी एक्टिंग के दूसरे पहलू कभी लोगों के सामने नहीं आ पाए। और हम भूल जाते हैं कि सनी वही एक्टर हैं जिन्हें दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिले हैं। इतिहास गवाह रहा है कि जब भी कोई एक्टर अपनी स्थापित छवि को तोड़ता है तो लोग उसे सिर आंखों पर बिठाते हैं। प्राण साहब अपनी शुरुआती फिल्मों में मशहूर विलेन रहे हैं, पर जब उन्होंने पॉजिटिव चरित्र भूमिकाएं करनी शुरू की तो लोगों ने खूब सराहा। संजय दत्त को लीजिए। वो पहले अलग भूमिकाएं करते रहे, पर जब उन्होंने 'मुन्नाभाई...' की तो किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी।

फिल्म बनाने से पहले रिकवरी की परवाह करते हैं?
मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की। वैसे भी कहानीकारों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। मेरी फिल्म में सनी हैं और वो एक स्थापित कलाकार हैं इसलिए मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है।

फिल्म कब रिलीज होगी?
नवंबर-दिसंबर तक रिलीज करने की सोच रहे हैं। तब बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा भीड़ भी नहीं होती है। जैसे अभी 'सिंघम' की रिलीज टाइमिंग रही।

हाल ही में अलग सिनेमैटिक लेंग्वेज वाली फिल्में आई हैं। सार्थकता के लिहाज से आप उन्हें कितना महत्व देते हैं?
स्टोरीटेलिंग तो देखिए हर दिन बदलती है। नानी-दादी की कहानी भी चलती है और यार-दोस्तों की भी। हमारे बीच हर स्टाइल की कहानी को जगह है। इसमें 'डेल्ही बैली' भी है, अनुराग का सिनेमा भी है और राजकुमार हीरानी का सिनेमा भी है।

इस फिल्म के कथ्य में आपने किस बात का ध्यान रखा है?
मैंने अपनी कहानी का प्रारब्ध, मध्य और अंत ढूंढने की कोशिश की है। एक फिल्मी स्टोरी कहने का जो क्लासिक फॉर्मेट होता है उसे तोडऩे की कोशिश की है।

मौजूदा फिल्ममेकर्स में किसके काम को अच्छा मानते हैं और क्यों?
मैं मानता हूं कि कहानी सबसे बड़ी होती है। राजकुमार हीरानी ने 'लगे रहो मुन्नाभाई' में महात्मा गांधी के किरदार को जैसे इस्तेमाल किया, उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैंने उन्हें फोन किया और कहा कि तुमसे लडऩे के लिए तरकश में बड़े तीर लाने पड़ेंगे क्योंकि तुमने काम ही ऐसा किया है।

हमेशा ऐतिहासिक किरदारों पर ही क्यों काम करते हैं?
मैंने हमेशा एतिहासिक विषयों पर फिल्में बनाई हैं। क्योंकि वर्तमान तो सबके सामने हैं, उसे सब जानते हैं, पर जो गुजर गया है वो अज्ञात है। जिज्ञासा होती है कि वो जब कभी रहा होगा तो उसका स्वरूप कैसा हुआ होगा।

अपनी बातचीत में आप 'वैराग्य' का भाव पैदा होने का जिक्र करते हैं। क्या पहचान या फीडबैक न मिलने से भी ऐसा होता है?
जो तारीफ नहीं मिलने पर वैराग्य की बात करते हैं, वो निराशा का भाव होता है, वैराग्य का नहीं। वैराग्य आपकी वैचारिक और सामाजिक पृष्टभूमि से आता है।

'चाणक्य' आज भी लोगों के क्लासिक डीवीडी कलेक्शन में शामिल है। क्या फिर अभिनय करने का ख्याल नहीं आता?
नहीं यार, बहुत हो गया वो। जितना करना था कर लिया। बाकी अपनी रचनात्मकता को प्रदर्शित करने के मौके अभिनय से ज्यादा निर्देशन में होते हैं।

इतनी कम फिल्में क्यों बनाते हैं?
एक बार सईद अख्तर मिर्जा से किसी ने पूछा था कि आप फिल्में क्यों नहीं बनाते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं कहां नहीं बनाता हूं कोई बनाने ही नहीं देना चाहता है। वही मेरे साथ है। फिल्मों की लागत बहुत बढ़ गई है। एक फ्लॉप हो जाए तो दूसरी बनाने के रास्ते बंद से हो जाते हैं। एक हिट हो जाए तो दूसरी के लिए सोचना नहीं पड़ता। मुझे ये लगता है कि 'मोहल्ला अस्सी' के बाद मुझे दूसरी फिल्म बनाने में कोई मुश्किल नहीं आनी चाहिए।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, July 21, 2011

'इस बार स्टीयरिंग सिर्फ मेरे हाथ है'

निर्देशक अश्विनी चौधरी को आज भी 10 साल पहले बनाई उनकी हरियाणवी फिल्म 'लाडो' के लिए सबसे ज्यादा पहचाना जाता है। इस पहली ही फिल्म ने उन्हें 47वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिलवाया था। उसके बाद उन्होंने 'धूप' जैसी अच्छी फिल्म भी बनाई। इस रीजन से ताल्लुक रखते हैं, मुंबई में रहते हैं और इन दिनों 'घायल' के सीक्वल 'घायल-2' के निर्देशन को लेकर बहुत एक्साइटेड हैं।

खुद के बारे में कुछ बताएं।
हरियाणा के चौटाला गांव से हूं। करियर इंडियन एक्सप्रेस के जनसत्ता अखबार से शुरू किया। दो साल चंडीगढ़ एडीशन में काम किया। कल्चरल बीट देखता था, लिटरेचर और फिल्म रिव्यू पर लिखता था। फिर दिल्ली एडीशन चला गया और 1999 में पहली फिल्म 'लाडो' बनाई।

फिल्में क्यों बनाने लगे?
घर में पढ़ाई का माहौल था, बाऊजी गांव के कुछ सबसे पढ़े-लिखे लोगों में आते थे। दिल्ली में जॉब के दौरान इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट जाया करता था। एक बार गेस्ट कमल हसन थे। ऑडियंस में मेरे पास बैठा दोस्त बोला, यार कितने साल हो गए, दूसरों की फिल्मों पर तालियां बजाते हैं। तो मैंने कहा, कि अगले साल स्टेज पर मैं होऊंगा और लोगों से तालियां बजवाऊंगा। अगले साल मैंने 'लाडो' बना ली थी।

मतलब आपने फिल्म बनाने की टेक्निकल ट्रेनिंग नहीं ली है?
नहीं ली। पर सिनेमा इज अबाउट स्टोरी टेलिंग। मैं जब सात-आठ साल का था तो राजस्थान बॉर्ड बसे हमारे गांव में ठंड बहुत पड़ती थी। हम बच्चे दिनभर खूब खेलते और रात में रजाई में नानी से दो-ती घंटे लंबी कहानियां-किस्से सुनते। ये बात मुझे बहुत साल बाद पता चली कि अगर आप अपनी कहानी से एक आठ साल के बच्चे को दो-ढाई घंटे तक बांध कर रख सकते हैं तो आप बहुत अच्छे कथावाचक हैं। मेरी नानी कभी गांव की हद से बाहर नहीं गई, पर चाहती तो एक फिल्म बना सकती थी, क्योंकि उसे कहानी कहनी आती थी। बाकी टेक्नीक और क्राफ्ट जरूरी है पर कहानी पहले है। 'लाडो' मेरे लिए वो कहानी थी जिसे मैं कहना चाहता था। मेरी वाइफ कुमुद ने स्क्रिप्ट लिखी।

'लाडो' एनएफडीसी ने फाइनेंस की। उसकी फिल्मों के धीमे और नॉन-कमर्शियल पहलू के उलट इसमें गाने हरियाणवी स्टाइल में ही पूरे हिंदी फिल्मों जैसे थे।
फ्राइडे दर्शकों के लिए होता है। लोग पचास-सौ रुपए खर्च करके फिल्म देखने जाते हैं। अगर आप फिल्म में कुछ कहना चाहते हैं तो ऐसे कहिए कि वह दर्शक निराश या चीटेड फील न करे। मैंने 'लाडो' के साथ यही कोशिश की। ये पहली ऐसी हरियाणवी फिल्म थी जिसमें कहानी भी सीरियसली कही गई और मनोरंजन भी पूरा था।

ये फिल्म हरियाणा और राजस्थान के अंदरूनी इलाकों जैसी थी। लड़की की शादी हो गई है और वह अपने देवर से शारीरिक संबंध बनाती है। इन इलाकों में व्यवस्था इतनी क्रूर है कि कहानी के इस मोड़ के बारे में सोचकर ही सिहर जाता हूं। क्या आपको ये सिहरन नहीं हुई?
ये रिएलिटी है। मैं खुद भी वहीं से आता हूं इसलिए हरियाणा-राजस्थान की इस जमीनी सच्चाई को जानता हूं। चूंकि प्रेजेंट सोसायटी पुरुष प्रधान है, तो महिला को यहां दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा गया है। अब खाप और ऑनर किलिंग भी दिखने लगे हैं। तो ये थोड़ा रिस्की तो था पर मुझे सब्जेक्ट उठाना था, मैंने उठाया। पहली फिल्म में मैं स्ट्रॉन्ग कंटेंट चाहता था।

आपकी मूवीज में जब भी कुछ इमोशनल होता है तो बरसात होती है। ऐसा क्यों?
(हंसते हुए) एक जाट ने ये मुझे रोहतक में कहा था कि फिल्म शूट तो आपने हरियाणा में की है लेकिन लगता है असली शूट चैरापूंजी में हुआ है। हर डायरेक्टर का एक ऑब्सेशन होता है। मेरे साथ भी है। शायद सब-कॉन्शियस माइंड में बरसात से कोई लगाव रहा होगा। इससे सीन निखर जाता है।

सोशल रेलेवेंस वाली फिल्मों के बीच आपने 'गुड बॉय बैड बॉय' कैसे बना दी?
सोशल कंसर्न अपनी जगह होती है, पर शाम को बच्चों को खाना भी खिलाना होता है। मैं कोई फिल्मी आदमी नहीं था। पहली ही फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिल गया। पर समाज से, सरकार से जितनी उम्मीद थी उतनी मदद मिली नहीं। हरियाणा में मेरी फिल्म को चलने नहीं दिया गया। कोर्ट केस हुए। घर-वर बिक गया। फिल्म अच्छी बनी पर जिंदगी भर जो कमाया था वो उसमें लग गया। तो फिल्म ने नाम के अलावा मुझे कुछ नहीं लौटाया। ये मेरे लिए बड़ा झटका था। फिर मुंबई आकर 'धूप' और 'सिसकियां' बनाई। पर इस दौरान अस्तित्व पर बन आती है। अपनी लड़ाई खुद लडऩी पड़ती है। इस दौरान कुछ अच्छी फिल्में बनती हैं कुछ बुरी। और मैं अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंचा हूं जहां मैं मार्केट फोर्सेज की परवाह किए बगैर अपने मन की फिल्में बना सकूं।

'गुड बॉय...' में जो कमर्शियल कमी रह गई वो क्या 'घायल-2' में पूरी करेंगे?
देखिए सुभाष घई बहुत बड़े प्रॉड्यूसर हैं और मुक्ता आट्र्स जैसे बड़े बैनर ने गुड बॉय... बनाई थी। ये अनुभव बहुत बुरा रहा। उन्होंने मुझे वैसी फिल्म नहीं बनाने दी जैसी मै बनाना चाहता था। क्रिएटिव डिफरेंसेज की वजह से मैंने वो फिल्म 60 पर्सेंट पूरी होने के बाद छोड़ दी थी। फिर बचा डायरेक्शन और एडिटिंग सुभाष जी ने खुद की। पर फिल्म गई मेरे नाम से। इसलिए मुझे मानना पड़ता है कि वो मेरी फिल्म थी, अदरवाइज वो है नहीं।

'घायल-2'से बहुत उम्मीदें हैं, इन्हें बरकरार रखने में सिरदर्दी हो रही है?
ये फिल्म राजकुमार संतोषी ने बनाई थी और अपने टाइम की कल्ट फिल्म थी। ऐसे में जब आप घायल का सीक्वल बनाते हैं तो पहली फिल्म से इक्कीस न हो तो बनाने का कोई मतलब नहीं है। मैं तय करके चल रहा था कि स्क्रिप्ट जब तक बहुत बढिय़ा नहीं होगी फिल्म नहीं बनाउंगा। सनी और मैं बहुत वक्त से इस पर सोच रहे थे, एक दिन दिमाग में कुछ आया और मैंने उसे सुनाया तो वो बहुत एक्साइटेड हो गया। फिर सोच-विचारकर ही हमने फिल्म अनाउंस की।

पिछले ग्यारह-बारह साल में आपने सिर्फ चार-पांच फिल्में ही बनाईं हैं?
पिछले दो साल से मैंने कोई फिल्म नहीं बनाई है। इन 11 साल में कम फिल्में बनाई पर ये वो वक्त होता है जब आप अपने हथियार पैने करते हैं। अब मेरा ब्रेक खत्म हुआ है। आठ जुलाई से आर.माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य और मिलिंद सोमन के साथ एक रोमैंटिक कॉमेडी की शूटिंग शुरू कर रहा हूं। ये फिल्म सितंबर तक खत्म हो जाएगी और अक्टूबर से 'घायल-2' शुरू होगी।

जलेबी-शीला-मुन्नी अब कॉर्पोरेट प्रैशर से फिल्मों में जबरदस्ती रखे जाने लगे हैं। आपकी फिल्मों पर ऐसा कोई दबाव है क्या?
'गुड बॉय..' के अनुभव के बाद मैंने फैसला लिया था कि बेमर्जी की फिल्म नहीं बनाऊंगा। तभी तो लंबे वक्त से फिल्म नहीं बनाई। अब जो माधवन-बिपाशा वाली फिल्म है, उसमें पूरी फ्रीडम है। 'घायल' को भी सनी बना रहे हैं अपने बैनर विजेता फिल्म्स के तले। पिछले एक-डेढ़ साल से चूंकि इसपर काम हो रहा है तो मुझपर उनका भरोसा है।

कैसी फिल्में देखना पसंद करते हैं?
मेरे पसंदीदा इस वक्त राजकुमार हीरानी हैं, उनका कोई जवाब नहीं। अनुराग कश्यप के प्रॉड्क्शन में 'उड़ान' बहुत अच्छी बनी। 'शैतान' देख नहीं पाया हूं। 'दबंग' अच्छी लगी, क्योंकि मैं गया ही उस माइंडसेट के साथ था कि दबंग देखने जा रहा हूं। बाकी मैं हर तरह की फिल्में देखता हूं।