Thursday, September 1, 2011

शब्दहीन कर देती है बहादुर 'बोल'

फिल्म: बोल (पाकिस्तानी फिल्म)
निर्देशक: शोएब मंसूर
कास्ट: हुमैमा मलिक, मंजर सेहबई, शफकत चीमा, जैब रहमान, अम्र कश्मीरी, आतिफ असलम, इमान अली, माहिरा खान
स्टार: साढ़े तीन, 3.0
अगर आधी रात में भी पांच किलोमीटर दूर जाकर एक 'बोल' देखने की सूरत हो, तो मैं हंसते-हंसते हर सुबह पांच किलोमीटर दूर जाकर एक 'बॉडीगार्ड' देखने को तैयार हूं। खुशी है कि काफी दिन बाद इतनी गले तक तृप्त कर देने वाली फिल्म देखी। ये कोई मनोरंजन करने वाली फिल्म नहीं है, बल्कि उम्दा स्टोरीटेलिंग है। जैसे कि 'मदर इंडिया' है। शोएब मंसूर पाकिस्तानी सिनेमा को नई इज्जत बख्शने वाले फिल्मकार बने हैं। पहले 'खुदा के लिए' से और अब 'बोल' से। फिल्में बनाने के तमाम नियमों को साधारण से साधारण तरीके से फॉलो करती हुई भी ये फिल्म बेहतरीन बनती है, सिर्फ इसलिए कि अपनी कहानी के प्रति ईमानदार बनी रहती है और आखिर तक बनी रहती है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि इसे फैमिली के साथ देखें कि नहीं, पर इतना जरूर कहूंगा कि तमाम एडल्ट कंटेंट होते हुए भी कोई पिता-पुत्र या मां-बेटी असहज हुए बिना इसे देख सकते हैं। ये एडल्ट तत्व परदे पर बिल्कुल भी नहीं आता, पर आप समझ जाते हैं। वाह, कितनी भली बात है। जब फिल्म खत्म होगी तो आप उसी एक्सपीरियंस से गुजर चुके होंगे जिसके लिए फिल्म देखने हम थियेटर जाया करते हैं। ये फील गुड फिल्म तो नहीं, पर मस्ट वॉच है, ताकि आपको पता लगे कि हम बॉलीवुड के दर्शक इस मीडियम के लेकर कितने करप्ट हो चुके हैं, कितने विकल्पहीन हो चुके हैं और कितने पशु हो चुके हैं।

बोल की कहानी
पाकिस्तान
के प्रेसिडेंट फांसी की सजा पाई जैनब (हुमाइमा मलिक) की माफी की अपील खारिज कर देते हैं, पर आखिरी ख्वाहिश के तौर पर उसे देश के मीडिया के सामने अपनी कहानी सुनाने की मंजूरी दे देते हैं। वह सुनाती है। बंटवारे के बाद हकीम साहब (मंजर सेहबई) दिल्ली से लाहौर आ जाते हैं। बेटे की चाहत में सात बेटियां जनते जाते हैं। बेटा सैफी (अम्र कश्मीरी) होता भी है, तो आदमी होकर भी औरतों जैसा होता है। बीवी सुरैया (जैब रहमान) और बेटियां हकीम साहब के दकियानूसी और कट्टर धार्मिक विचारों तले घर को बर्बाद होते देखती हैं। पर बड़ी बेटी जैनब गालियां और पिटाई खाते हुए भी पिता का विरोध करती चलती है। बहनों को पिता पढऩे नहीं देते। घर से बाहर जाने नहीं देते। छोटी बहन आयेशा (माहिरा खान) डॉक्टर मुस्तफा (आतिफ असलम) के साथ मिलकर रॉक बैंड बनाती है, पर छिप-छिपकर। हकीम साहब की जिंदगी में न चाहते हुए भी चकला चलाने वाले साका कंजर (शफकत चीमा) और तवायफ मीना (इमान अली) आते हैं। बीच में मुद्दे हैं इस समाज में आर्थिक तंगी के बावजदू दर्जनों बच्चे जनते पुराने ख्यालों के लोग, जो उसे ऊपरवाले की रहमत मानते हैं। सवाल है, जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो। अहम सवाल इस कट्टर समाज में औरत होने के मायनों का भी है।

पाक ईमान से बनी फिल्म
# दिन परेशां है, रात भारी है... जैसे बेहद सिंपल और कारगर गीत और म्यूजिक फिल्म की डार्क टोन को सहलाते चलते हैं।
# भारत-पाकिस्तान का मैच चल रहा है। बेटी मन ही मन सचिन की सेंचुरी पूरी होने की ख्वाहिश रखती है। हकीम साहब आगबबूला हो डांटते हैं। बेटियों को इबादत करने को कहते हैं। पाकिस्तान हारा तो खैर नहीं। यहां जैनब पिता के जड़ विचारों को 'ऑस्ट्रेलिया में तो कोई इबादत नहीं करता फिर भी वो सालों से बेस्ट हैं' जैसे लॉजिक देती है। स्क्रिप्ट में क्रिकेट के साथ 'पाकीजा' और मीनाकुमारी के संदर्भ है। इसलिए कि धर्म के इस हिस्से में फिल्में और संगीत हराम हैं।
# अपने बेटे सैफी के जीने और मरने के फैसला करने के लिए हकीम साब आंख मूंदकर जब अपनी धार्मिक किताब के पन्ने पर अंगुली रखते हैं तो किताब फैसला देती है 'डुबोया मुझको मेरे होने ने, न होता मैं तो क्या होता।' देखिए ऐसी बेजोड़ छोटी-छोटी पंक्तियां स्क्रिप्ट को कितना समृद्ध बनाती हैं।
# फिल्म के आखिर में मेक्डॉनल्ड की तर्ज पर बची बहनों के 'जैनब्स कैफे' खोलने का पश्चिमी पूंजीवादी अंत बहस करने लायक है, अंतिम नहीं।
# हुमाइमा मलिक का अभिनय बहुत अच्छा है। पाकिस्तान के वरिष्ठ थियेटर एक्टर और अभिनेता मंजर सेहबई की अदाकारी इंडियन एक्टर्स के लिए अच्छी-खासी सीख है। बेहतरीन। अम्र कश्मीरी और जैब रहमान की महत्वपूर्ण अदाकारी के बीच रोचक कैरेक्टर साबित होते हैं साका कंजर बने शफकत चीमा। यहां तक कि फिल्म के शुरू में हकीम साहब के घर सैफी को मांगने आए किन्नर का सीन भी आप देखें तो उसका अभिनय दंग कर देता है।

आखिर में दो किस्से...
1. फिल्म खत्म हुई और चंडीगढ़ के थियेटर में आखिर वही लड़के तालियां बजाने के मजबूर हो गए जो शुरू में हर गंभीर और इमोशनल सीन में हंस रहे थे और दूसरों का ध्यान बंटा रहे थे। इनमें वो लड़का था जो इंटरवल में अपने दोस्तों से कह रहा था, 'यार ये क्या फिल्म है। इतनी ज्यादा बैड फीलिंग वाली। मुझसे तो देखी नहीं जा रही चल बाहर होकर आते हैं।'
2. पाकिस्तान में औरतों के हालात का संदर्भ फिल्म में सबसे प्रमुख है और मुस्लिम युवतियों की अपनी इमेज पर वो लड़का रात के दो बजे लिफ्ट में अपने दोस्तों को वाकया सुना रहा था। 'बोल' ने बोलने को जो प्रेरित कर दिया था। मैं भी सामने खड़ा लिफ्ट से नीचे उतर रहा था। दरअसल जब वह किसी एग्जाम के सिलसिले में हैदराबाद गया था। उसने वहां किसी मुहल्ले में एक मुस्लिम लड़की से एग्जाम सेंटर वाली स्कूल का पता पूछा और लड़की बोली, 'यू गो स्ट्रैट एंड टेक लेफ्ट टर्न, यूल बी देयर।' लड़का शॉक सा अपने दोस्तों से कह रहा था 'कम ऑन यार! वो सिंपल सी दिखने वाली लड़की पापड़ बनाती थी और उसके स्मार्ट जवाब ने मेरा दिमाग हिला दिया।' लिफ्ट लोअर बेसमेंट में जा रही थी, मैं उन लोगों की बातों को ओर सुनना चाह रहा था पर मुझे अपर बेसमेंट में उतरना था। मतलब ये कि फिल्म में जो उपाय सुझाया गया है, उसे वह लड़का खुद के साथ हुए वाकये से पुख्ता कर रहा था। माने, फिल्म बनाना सार्थक हुआ।

***************

गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, August 12, 2011

'मिल्खा को शब्दों में शायद समझा न पाऊं'

फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा से मुलाकात
कॉलेज के बाद दिल्ली की गलियों में महीनों यूरेका फोब्र्स के वेक्यूम क्लीनर बेचने वाले राकेश बिल्कुल नहीं बदले। तब दोस्त मल्टीनेशनल्स में लगे और ये सेल्समैन बने। आज साथी फिल्ममेकर सुनी-सुनाई आसानी से बनने वाली कमर्शियल फिल्में बना रहे हैं और वह इंडिया के आइकॉनिक धावक मिल्खा सिंह पर बायोपिक अक्टूबर तक शुरू करने वाले हैं। थोड़ा नर्वस हैं, पर भेड़चाल में घुसने की मंशा नहीं है।
हाल ही में आपने 'तीन थे भाई' प्रॉड्यूस की थी। क्या लगा नहीं था कि वसीयत की कहानी पर दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, तो इसे क्यों प्रॉड्यूस किया जाए?
दुनिया में गिने-चुने प्लॉट ही होते हैं। बस बोलने का तरीका और कहानी में अनोखापन अलग होता है। ये एक कैरेक्टर ड्रिवन स्टोरी थी, सुनते ही मुझे कैरेक्टर्स से प्यार हो गया। इतनी जगह रामलीलाएं होती हैं, कहते तो वो भी एक ही कहानी हैं।

फ़िल्म बनाते वक्त आपमें
बैठे प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर पर किसका प्रैशर होता है, मार्केट का या क्रिएटिव हूक का?
मेरा तो मेरे से ही होता है, अपने आप से। कि एक्सीलेंस का पीछा करता रहूं, काम अच्छा हो जाए। गलतियां तो इस दौरान होती रहती हैं। पर आपका छोटा सा प्रयास भी ऑडियंस को छूता है। हमारी ऑडियंस बहुत ब्रिलियंट है, वो दो मिनट में पहचान जाती है, कि किसने क्या किया है।

'भाग मिल्खा भाग' की शूटिंग चंडीगढ़ के आस-पास शुरू होने वाली थी। पर मैंने कहीं पढ़ा कि आप थोड़ा सा नर्वस हो रहे हैं?
थोड़ा सा? मैं रातों को सो नहीं पाता। इसके लिए थोड़ा सा कहना तो बहुत कम होगा। बड़ी चैलेंजिंग स्टोरी है। एक रियल लाइफ स्टोरी पर काम करने और उसे ड्रमैटिक बनाने में जरूरतें ही कुछ और हो जाती हैं। रियल इंसान पर बात कर रहे हैं तो हकीकत से जुड़े रहने होता है, सिनसियर बने रहना है, स्टोरी से जस्टिस करना है। मैं जब इस जर्नी में घुसता हूं तो दिल में इमोशन उमडऩे लगते हैं, शायद मैं आपको जुबां से समझा न पाऊं।

80-100 करोड़ में फिल्में बन रही हैं, स्टार्स करोड़ों फीस ले रहे हैं, पर रिजल्ट अच्छा नहीं दे रहे है?
ये स्क्रिप्ट तय करती है कि पैसा कितना लगे। अगर द्वितीय विश्व युद्ध पर या आजादी पर या कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्म बना रहे हैं तो बजट बड़ा होगा। अगर आप 'शोले' बना रहे हैं जिसमें ट्रेन सीक्वेंस है या बहुत सी रॉबरी हैं तो बजट बड़ा होगा। मगर सिंपल आइडिया पर रोमेंटिक या कॉमेडी बना रहे हैं तो बजट कम होना चाहिए। हमें अपने बजट को स्टार्स की तुलना पर नहीं लाना चाहिए। सौ-डेढ़ सौ करोड़ की फिल्म बनाइए पर वो परदे पर दिखना चाहिए। पर जरूरत से ज्यादा खर्चा खराब है। मैं दूसरों की बात क्यों करूँ, मैंने 'दिल्ली-6' बनाई और जहां एक रुपया खर्च करना था वहां दो रुपए खर्च किए। पर अब मैं सीख चुका हूं।

'दिल्ली-6' में काला बंदर था, तो 'अक्स' में नेगेटिव पॉजिटिव का चेंज-इंटरचेंज। लोगों को ये एब्सट्रैक्ट पॉइंट समझ नहीं आए, ऐसे में फिल्ममेकर के तौर पर क्या बीतती है?
यही सोचता हूं कि मेरे को सीखना चाहिए। जो मैं बोल रहा हूं वो सही है, बस उसके बोलने के तरीके को और सहज करूं तो और फिल्म का आधार और व्यापक हो जाएगा। जरूरी ये नहीं कि फिल्म पांच या सात करोड़ में बनी है, जरूरी ये है कि उसकी कीमत सौ रूपए जितनी है कि नहीं। अपनी मेहनत से कमाए 100 रुपए से टिकट खरीदकर ऑडियंस फिल्म देखने जाती है, तो उसको उसकी कीमत मिलनी चाहिए। कई बार उसे 100 में हजार रूपए का अनुभव होता है, कई बार प्राइसलेस। जैसे लगा कि 'रंग दे बसंती' में हमने लाखों का अनुभव ले लिया, पर कई बार ऐसे नहीं हुआ।

'रंग दे बसंती' में क्रांतिकारियों की फुटेज और मौजूदा दौर को जैसे मिक्स किया, क्या वैसा ही 'भाग मिल्खा..' में भी करना पड़ेगा?
रंग दे.. में एक फिल्म में दो फिल्में चल रही थी। एक 1920 की क्रांति थी, जो चंद्रशेखर आजाद से होते हुए भगतसिंह तक पहुंची थी। पर मिल्खा जी की स्टोरी में हम मिल्खा जी पर ही फोकस्ड रहे हैं। फिल्म में हमें एक तो ग्यारह साल के मिल्खा को दिखाना है और एक बीस से अठाइस साल तक के मिल्खा को।

पर वो ब्लैक एंड वाइट दौर तो क्रिएट करना होगा न?
हां, पर आज मिलता नहीं है। आज की सड़कें देख लीजिए, तब मिट्टी की सड़कें होती थी। पहले टीवी, उसके एंटीने, मोबाइल टावर्स कुछ नहीं होते थे, तो ऐसी जगहें ढूंढनी पड़ेंगी। ईंटें भी अलग होती थी, मिट्टी के घर होते थे, अलग गाडिय़ां होती थी, तो वो सब ढूंढ-ढूंढ कर लानी पड़ेगी।

यूं नहीं लगता कि फिल्मों में एंट्री लेने से पहले बहुत कहानियां थी और अब कुछ भी आइडिया नहीं है?
सौ प्रतिशत ऐसा ही है। कमाल का सवाल है। जो आपके अंदर ये है वो ही बाहर निकलेगा। आप राइट साइड से खाली होते हैं तो अपने आप को भरने की बहुत जरूरत है, इसलिए लाइफ से जुडऩा पड़ता है। जैसे आप जुड़े हुए थे पहले। फ्रैश आइडियाज के लिए लोगों से मिलो, लोगों से प्यार करो, जिंदगी से प्यार करो, सोचो, जिनके लिए आप बनाना चाह रहे हो वैसे ही माहौलों में जाओ। बैसिकली अपने आप को सिंपल रखो, अलग मत रखो। खुद को रीइनवेंट करते रहो।

कौन सी फिल्मों पर काम कर रहे हैं?
दो-चार कहानियां और है। एक 'राजा' हैं, मिथिकल है, 1898 में सेट है। कृष्ण की कहानी है उनकी बांसुरी की कहानी है। 'कैजुअल कामसूत्र' है जो वल्र्ड फैशन में धूसर ग्रामीण अक्स दिखाएगी। कहानियां तो हैं। एक 'भैरवी' है।

कुछ और...
# मेरी फेवरेट फिल्में 50 और 60 के दशक की हैं। जब हम एस्केपिस्ट सिनेमा में नहीं घुसे थे, उससे पहले की। मैं अभी भी उन फिल्मों के इर्द-गिर्द ही घूम रहा हूं।
# सक्सेस को रिपीट करना जिंदगी में सबसे बोरिंग चीज है।
# ये सोचना गलत है कि अमेरिका से फिल्म कोर्स करके आओगे तो फिल्म बनाओगे। बनाओगे भी तो गलत, क्योंकि वो ज्यादा से ज्यादा एक अमेरिकन आइडिया मेड इन इंडिया होगी।
# बदलाव तभी आएगा जब कस्बों और छोटे शहरों से फिल्में बननी शुरू होंगी। जब वहां से सब्जेक्ट आएंगे, वहां से लोग आएंगे।

Monday, August 8, 2011

अधबीच बहस आते वीडियो किस्से

एन. चंद्रा जैसे फिल्ममेकर ने 1993 में मिथुन चक्रवर्ती को लेकर 'युगांधर' बनाई थी। इसमें नक्सलवाद, वामपंथ, पूंजीवाद, जनता, सिस्टम, विचार और भटकाव जैसे उन विषयों पर बात की गई जिनको लेकर हमारे समाज की बहस अधबीच में है। पर इस अधबीच के बीच ही निर्देशक तीन घंटे की फिल्म बनाता है और अपनी मनपसंद साइड ले लेता है। वह बहुत मौकों पर गलत भी होता है। चूंकि फिल्म माध्यम कहानी कहते-कहते हमारा ब्रेनवॉश करने की क्षमता रखता है तो समाज की राय प्रभावित होती है। इस बीच उन ऑडियंस का क्या जो निर्देशक के लॉजिक से इत्तेफाक नहीं रखती। क्या एक लोकतांत्रिक सेटअप में दोनों पक्षों को जगह नहीं मिलनी चाहिए?

चाहती
तो 'युगांधर' भी नक्सली विरोध के विचार में कोई एक पक्ष ले सकती थी, पर ये मूवी हिंसा और अंहिसा दोनों पर वास्तविक स्टैंड लेती है और एक कम हानिकारक राह सुझाती है। एक सीन है। फौज ने पास ही में डेरा डाल दिया है और कृष्णा (मिथुन) अपने लोगों से कहता है, 'हमारे बीच के आधे लोग... औरतें, बच्चे और घायल हैं, मगर हम लड़ेंगे। क्योंकि हमारी लाशें देखकर कोई तो कहेगा कि आखिर इतने लोगों ने क्यों और किस कारण से अपनी जानें दे दी।' फिल्म के आखिर में अहिंसा का रास्ता चुनने वाले कृष्णा को गांधी की तरह असेसिनेट कर दिया जाता है। फिर परदे पर एक गांधी सा लगने वाला आदमी आता है और कहता है, 'देख कृष्णा मुझे मेरी जमीन 20 साल बाद मिल गई है।' इसके बड़े मायने हैं।

अब आते हैं जल्द रिलीज होने जा रही प्रकाश झा की 'आरक्षण' पर। फिल्म में एक डायलॉग है, 'अगर आप आरक्षण के साथ नहीं तो उसके खिलाफ हैं।' फिल्म में सैफ का मूछों वाला रूप और अग्रेसिव संवाद बेहद कैची जरूर हैं, पर समाज में इकोनॉमिक रिजर्वेशन, धार्मिक रिजर्वेशन और जाति आधारित रिजर्वेशन के विरोध में तर्क देने वाले आम लोग और जर्नलिस्ट भी बसते हैं। फिर कहूंगा, बात सही-गलत के साथ एक-दूसरे को बोलने की बराबर जगह देने की भी है। ये भी नहीं है कि हर दर्शक फिल्म पर अपने फीडबैक दे पाए या नई फिल्म बनाकर अपने जवाब दे दे। फिल्में अभी भी वन वे ट्रैफिक ही हैं। थोड़े वक्त पहले एनडीटीवी इमैजिन पर लॉन्च हुआ सीरियल 'अरमानों का बलिदान-आरक्षण' मैरिट की वकालत करता था और आधार बनाता था मंडल कमीशन के दौर को। यहां भी फिल्म मीडियम का इमोशनल इस्तेमाल करके इस सामाजिक बहस को प्रभावित करने की कोशिश की गई। जो फिल्मों को सिर्फ बर्गर की तरह खाते हैं, वो बिना सोचे-समझे उस लॉजिक के हो जाते हैं।

शिक्षा मंत्री रहते हुए कपिल सिब्बल ने 10वीं क्लास तक फेल-पास सिस्टम को हटाने की बात कही। अब भारत के हजारों अंदरुनी गावों में राजीव गांधी विद्यालयों में टीचर लगे नौजवान शिकायत करते हैं कि बच्चा पढ़ेगा नहीं, कॉपी खाली छोड़ देगा तो भी पास करना पड़ेगा। यहीं पर आती है 'थ्री इडियट्स', एलीट एजुकेशन के दायरे में रहते हुए कुछ फील गुड बात कहती है। फिल्म एक गैर-लिट्रेचर माने जाने वाले अंग्रेजी नॉवेल से प्रेरित थी, पर इसने फिल्म के जरिए एजुकेशन सिस्टम कैसा हो इस बहस पर एक अपने मन की टिप्पणी कर दी थी।

आप इशरत जहान एनकाउंटर और सोहराबुद्दीन शेख-कौसर बी एनकाउंटर के तथ्यों को देख रहे हैं और आपके सामने 'आन: मेन एट वर्क', 'अब तक छप्पन' और 2007 में आई विश्राम सावंत की 'रिस्क' है। इन फिल्मों में हर एक एनकाउंटर के साथ हमें मजा आता जाता है। कभी खुद से पूछा है क्यों? आप कभी पूछते नहीं और आपकी सोशल डिबेट कमजोर हो जाती है। ये जरूर याद रखिए की फिल्मों से किसी भी गलत विचार और इंसान तक को जस्टिफाई किया जा सकता है, फिर ये तो एनकाउंटर है। मधुर भंडारकर की 'आन' से होते हुए पुनीत इस्सर की 'गर्व' और हैरी बवेजा की 'कयामत: सिटी अंडर थ्रेट' तक पहुंचें तो सारे बुरे किरदार मुसलमान हैं। हां, कुछ भले मुसलमान भी स्क्रिप्ट में डाल दिए जाते हैं ताकि दर्शक का लॉजिक चुप हो जाए। ऐसा ही किरदार है सुनील शेट्टी का। एक पाकिस्तानी फौजी अधिकारी से बात करते वक्त भारतीय मुलमानों को देशभक्त बताने में ये स्क्रिप्ट बेहूदगी की हद तक स्टीरियोटिपिकल थी। एक लाइन गौर फरमाएं, 'अरे, पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान तो हिंदुस्तान में रहते हैं।' ये फिल्में ये भी प्रूव कर देना चाहती हैं कि हर आतंकी और अंडरवल्र्ड डॉन मुसलमान ही होता है।

दिल्ली की अदालत ने संविधान की धारा-377 पर एक पॉजिटिव फैसला सुनाया था। पर हिंग्लिश और हिंदी दोनों ही फिल्मों में अब भी फुसफुसाते हुए 'डू यू नो, शी इज लेस्बो' और 'तुम गे हो?' सुनाई दे ही जाता है। इनसे लेकर 'कॉमेडी सर्कस' तक में एलजीबीटी (गे) कम्युनिटी पर भद्दे मजाक किए जाते हैं।

'गुजारिश' में ईथन मेस्कैरेनहस की इच्छा मृत्यु यानी मर्सी किलिंग की याचिका खारिज हो जाती है। हमारे सभ्य समाज और कानून में इसे मंजूरी नहीं हैं पर संजय लीला भंसाली ने अपनी कहानी में फैसला किया कि दोस्त और सर्वेंट सोफिया मरने में ईथन की मदद करेगी। और फेयरवेल पार्टी के साथ ईथन एक हैपी मैन की तरह मरता है।

हाल ही में निर्देशक अश्विनी चौधरी ने माना था कि एक डायरेक्टर को अपनी कहानी का भगवान होने की फीलिंग होती है। वह जब चाहता है बरसात होती है, जब चाहता है कैरेक्टर रोता है और जब चाहता है हंसता है। मगर फिल्मी भगवान के वीडियो किस्सों और चाहत से बहुत कम बार असल जिंदगी के मुद्दे हल होते हैं। नीरज पांडे की ' वेडनसडे' में मुंबई बम धमाकों से पीडि़त एक आम आदमी पूरी कानून व्यवस्था और सिस्टम को अपने हाथ में लेता है, और कथित मुस्लिम आतंकियों को सिस्टम के हाथों फिल्मी अंदाज में मरवा देता है। उसे लगता है कि उसने धमाकों के जवाब में सही प्रतिक्रिया दी है। अगर यही सही है तो ऐसा सिविलियन जस्टिस तो बिहार में चोर को साइकिल के पीछे बांधकर खींचने का भी है। उसे पेड़ से बांधकर जानवरों की तरह मारने में भी है। क्या हम उसे स्वीकार कर सकते हैं?

गजेंद्र सिंह भाटी
**************
साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से

Saturday, August 6, 2011

मूड नहीं आपकी आपात आवश्यकता है 'आई एम कलाम'

फिल्म: आई एम कलाम
निर्देशक: नील माधव पांडा
कास्ट: हर्ष मायर, गुलशन ग्रोवर, हसन साद, पितोबाश त्रिपाठी, बिएट्रिस, मीना मीर
स्टार: तीन, 3.0

चूंकि मैं खुद बीकानेर मूल का हूं इसलिए फिल्म में भाषा और किरदारों के मारवाड़ी मैनरिज्म में रही बहुत सारी गलतियों को जानता हूं। मगर उन्हें यहां भूलता हूं। डायरेक्टर नील माधव सोशल विषयों पर फिल्में और डॉक्युमेंट्री बनाते हैं। उनकी ये पहली फिल्म बच्चों के लिए काम करने वाले स्माइल फाउंडेशन के बैनर तले बनी है। खासतौर पर बच्चों और हर तबके को समझ आए इसलिए फिल्म बेहद सिंपल रखी गई है। ऐसे में बात करने को दो ही चीजें बचती हैं। एक एंटरटेनमेंट और दूसरा मैसेज। दोनों ही मामलों में फिल्म 80-100 करोड़ में बनने वाली फिल्मों से लाख अच्छी है। धोरों पर बिछे म्यूजिक और दृश्यों को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए। एक बार सपरिवार जरूर देखें।

कलाम से मिलिए
अपने धर्ममामा भाटी (गुलशन ग्रोवर) के फाइव स्टार नाम वाले ढाबे पर काम करने लगा है छोटू (हर्ष मायर)। जयपुर रोड़ पर बसे रेतीले डूंगरगढ़ और बीकानेर की लोकेशन है। ढाबे पर बच्चन का बड़ा फैन लिप्टन (पितोबाश त्रिपाठी) भी काम करता है। वह छोटू से जलता है क्योंकि तेजी से फ्रेंच व अंग्रेजी बोलना और भाटी मामा जैसी चाय बनाना सीखकर बाद में आया छोटू सबकी आंखों का तारा बन रहा है। ऊपर से वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी भी बनना चाहता है। पास ही में एक हैरिटेज हवेली है जहां रॉयल फैमिली रहती है और सैलानी भी आकर रुकते हैं। सुबह-सुबह अपनी ऊंटनी पर बैठकर चाय पहुंचाने जाते छोटू (खुद को वह कलाम कहलवाना ज्यादा पसंद करता है) की दोस्ती हवेली के राजकुमार कुंवर रणविजय (हसन साद) से हो जाती है। मगर दोनों की मासूम दोस्ती के बीच ऊंचे-नीचे की खाई है। मगर छोटू के सपने अडिग हैं, उसकी आंखों में भयंकर पॉजिटिविटी है और चेहरे पर हजार वॉट की स्माइल है। बच्चों की शिक्षा और उन्हें सपने देखने देने की सीख के साथ फिल्म खत्म होती है। एक नैतिक शिक्षा की अच्छी कहानी की तरह क्लाइमैक्स करवट बदलता है।

सुंदर निर्मल कोशिश
अपने-अपने बच्चों को हर कोई ये फिल्म आपातकालीन तेजी से दिखाना चाहेगा। इसमें आज के प्रदूषित माहौल का एक भी कार्बन कण नहीं है। अच्छी भाषा और स्वस्थ मोटिवेशन के साथ सिनेमा के आविष्कार को सार्थक करते हुए हम हमारे वक्त की सख्त जरूरत वाली कहानी परदे पर देखते हैं। ओवरऑल आडियंस के साथ खासतौर पर बच्चों के लिए 'चिल्लर पार्टी' के बाद आई दूसरी अच्छी फिल्म है 'आई एम कलाम'।

***************

इस फिल्म की टेक्नीक और शुद्धता-अशुद्धता पर मुट्ठी भर बातें और हो सकती है। कहां इसकी शूटिंग हुई। वो जगह कैसी है। बीकानेर के जिस भैंरू विलास में फिल्म के बहुत बड़े हिस्से को फिल्माया गया, उसका इतिहास क्या रहा है। कैसे उस हैरिटेज हवेली की अपनी एक शेक्सपीयर के नाटकों सी तबीयत वाली कहानी है। वो ढाबा असल में कैसे डूंगरगढ़ रोड़ पर बना है। उस ऊंटनी के मालिक का क्या नाम है। उस ऊंटगाड़ी में बैठे ढोली का नाम क्या है। कैसे फिल्म की स्टारकास्ट के कपड़ों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। कैसे एक उड़ीसा मूल का फिल्म डायरेक्टर मारवाड़ की पृष्ठभूमि, उसकी रेत, उसके भाषाई रंगों, वहां के कल्चर में छिपी सत्कार की शैली और लोगों को अपने तरीके से एक दो घंटे की फिल्म में दिखाता है। कैसे उसके इस परसेप्शन को दुनिया भर के लोग 'आई एम कलाम' देखने के बाद अपना सच बना लेते हैं। चूंकि फिल्म का संदेश पवित्र है इसलिए ये सब बातें और तकनीकियां बाद में भी देखी-भाली जा सकती हैं।

***************

गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, July 31, 2011

गायें जलाते एलियन और हीरोइक चरवाहे

फिल्म: काऊबॉयज एंड एलियंस (अंग्रेजी)
निर्देशक: जॉन फेवरॉउ
कास्ट: डेनियल क्रेग, हैरिसन फोर्ड, ओलिविया वाइल्ड, सैम रॉकवेल, पॉल डेनो
स्टार: तीन, 3.0

पहले ही दृश्य में जब पथरीले खाली लैंडस्केप में कैमरा शांति से मूव कर रहा होता है। अचानक से फ्रेम में डेनियल क्रेग ठिठक आता है। बेहोशी से जागा हुआ। फिर तीन काऊबॉयज उसे परेशान करने लगते हैं और वह करारा जवाब देता है। अच्छा सीन है। एक और सीन में कर्नल बने हैरिसन के मवेशियों को चराने वाला नदी किनारे दारू के नशे में हल्का होने को होता है कि बड़ा धमाका होता है। वह नदी में गिर जाता है। बाहर आकर देखता है तो सारी गायें और मवेशी जल रहे होते हैं। इन दो सीन में जो गैर-मशीनी रोचक बात है, वह मूवी में आगे भी जारी रह पाती तो मजा आ जाता। हालांकि ये एलियंस से न्यूक्लियर हथियारों के साथ लडऩे वाली फिल्मों से काफी दूर है और हमारा टेस्ट बदलती है। मेरे लिए यही खास है। इस जॉनर की कहानियों में इस तसल्लीबख्श फिल्म को फ्रेंड्स को साथ देख सकते हैं। फैमिली के साथ भी। बस अति-महत्वाकांक्षी होकर न जाएं।

चरवाहों और एलियंस की शत्रुता
एरिजोना के बंजर रेगिस्तान की बात है। जेक लोनरगन (डेनियल क्रेग) की बेहोशी एकदम से टूटती है। याददाश्त गायब है। कलाई पर एक रहस्यमयी चीज बंधी है। वह अगले टाउन में घुसता है। धीरे-धीरे पता चलता है कि वह बड़ा लुटेरा है। इस टाउन के सबसे ताकतवर आदमी कर्नल डॉलराइड (हैरिसन फोर्ड) का सोना भी उसने लूटा था। ये सब अपने पुराने हिसाब चुकता करें, उससे पहले इन पर एलियन विमानों का हमला होता है। कर्नल के बेटे पर्सी (पॉल डेनो) को भी बाकी लोगों की तरह ये विमान उड़ा ले जाते हैं। अब जेक, कर्नल और एक घूमंतू लड़की एला (ओलिविया वाइल्ड) अपने दोस्तों-दुश्मनों सबसे मिलकर इन एलियंस से टक्कर लेते हैं।

कंसेप्ट हमें खींचता है
मॉडर्न अमेरिका में एलियन अटैक हमने बहुत देख लिए। 'बैटलफील्ड: लॉस एंजेल्स', 'इंडिपेंडेंस डे', 'वॉर ऑफ द वल्ड्र्स', 'प्रिडेटर' और 'मैन इन ब्लैक' जैसी दर्जनों फिल्में हमारे सामने हैं। ये जो एलियन-काऊबॉय की लड़ाई है यहां कोई अत्याधुनिक हथियार और फाइटर प्लैन नहीं है। काऊबॉयज को लडऩा है तो ले-देकर अपने घोड़ों पर चढ़कर और पिस्टल-राइफल्स के सहारे। बिल्कुल नया और तरोताजा करने वाला ये कंसेप्ट है। साथ ही गुजरे दौर की तासीर वाले 'बॉन्ड' ब्रैंड डेनियल क्रेग हैं और 'इंडियाना जोन्स' छाप (बूढ़े होते) हैरिसन फोर्ड हैं। चूंकि बात 1873 की है, इसलिए एलियंस को सोना चाहिए।

कहानी के वक्त से न्याय
डेनियल ने उस दौर के हिसाब से अपना वजन कम किया है। एलियंस जानवरों की तरह भागते और शैतानों की तरह दिखते हैं, जो कहानी के टाइम के साथ न्याय करता है। लोकेशन और कॉस्ट्यूम्स में कोई नुक्स नहीं हैं। बस कहानी में बहुत सी जगहों पर गैप नजर आते हैं। इंतजार करना पड़ता है। इसे कमी भी माना जा सकता है और शोर-शराबे से दूर एक पीसफुल अलग टेस्ट वाली एलियन मूवी भी। क्लाइमैक्स में भी ज्यादा खौफ और डर पैदा करने की कोशिश नहीं की गई है। आखिर हमारे हीरो लोगों को अजेय जो बताना है भई। जैसे हमारी साउथ की फिल्मों में होता है। हीरो एक भी मुक्का नहीं खाता है। इस फिल्म पर आते हैं। एलियंस किसी लेजर रोशनी से इंसानों को नहीं सोखते हैं, बल्कि जंजीरों और हुक से खींचकर उड़ा ले जाते हैं। इस तथ्य को भी फिल्म के प्लस में रख लीजिए।
***************
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 30, 2011

एक स्क्रिप्ट जिसे रद्दी में होना था

फिल्म: गांधी टु हिटलर
निर्देशक: राजीव रंजन कुमार
कास्ट: रघुवीर यादव, नेहा धूपिया, नलिन सिंह, निकिता आनंद, अमन वर्मा, लकी वखारिया
स्टार: एक 1.0

पचास मिनट। पचास मिनट हैं आपके पास। ये फिल्म झेलने के लिए। क्योंकि ज्यादा चांस यही है कि उन चार लोगों की फैमिली की तरह आप भी पचासवें मिनट तक थियेटर से उठकर चले जाएंगे। मैं हिम्मती था तो बैठा रहा। ऐसा नहीं है कि लोग सीरियस फिल्में देखना नहीं चाहते। बस राकेश रंजन कुमार का डायरेक्शन हो और नलिन सिंह का लेखन हो तो सीरियस, पॉलिटिकल और विचाराधारा वाले विषयों पर बनी हिंदी फिल्मों से विश्वास उठ जाता है। हिटलर का भय क्या होता है और उसका ऑरा क्या था ये जानना है तो आप 2008 में आई निर्देशक ब्रायन सिंगर की फिल्म 'वॉलकायरी' देखिए। इसमें हिटलर बने डेविड बैंबर को देखिए, कर्नल स्टॉफनबर्ग बने टॉम क्रूज को देखिए। 'गांधी टु हिटलर' में हम कहानी कहने के निहायती गैर-गंभीर तरीके से किसी भी फिल्मी मनोरंजन वाले भाव को तरस जाते हैं। फिर होता ये है कि रोने वाले सीन में भी हम निर्दयी बनकर हंसते हैं। मेरी सख्त चेतावनी - ये फिल्म कभी न देखें।

विचारधारा की फेल कहानी
दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मन तानाशाह एडॉल्फ हिटलर (रघुवीर यादव) की सेना कमजोर पड़ रही है। आजाद हिंद फौज बनाने वाले बोस (भूपेश कुमार) जर्मनी छोड़ देते हैं और 1945 में उनके सैनिक जंगलों-पहाड़ों में भटकते हैं। बलवीर सिंह (अमन वर्मा) और उसके पांच-छह साथियों की टुकड़ी भी भटक रही है। बलवीर की गांधीवादी वाइफ अमृता (लकी वखारिया) पति के लौटने का इंतजार कर रही है। इंडिया में गांधी (अविजीत दत्त) अंहिसा का महत्व पढ़ा रहे हैं। कहानी गांधी, हिटलर और बलवीर के तीन सिरों पर चलती है।

सीरियस विषय, बचकाना ट्रीटमेंट
पूरी फिल्म में रघुवीर सैनिक वर्दी की बजाय सूट पहने हैं, जो हिटलर को ऑथेंटिक और प्रभावी नहीं बना पाता। उनका अंग्रेजी एक्सेंट कमजोर है। ऐसे में उनके मुंह से शेक्सपीयर के उद्धरण बेहद अप्रभावी लगते हैं। फिल्म की सबसे बड़ी नाकामी यही है कि इस हिटलर से जरा भी डर नहीं लगता। नलिन शर्मा हिटलर के प्रॉपगैंडा मिनिस्टर जोसफ गॉबेल्स बन हैं। गॉबेल्स को वह क्षण भर भी नहीं जीवित कर पाते। साथी कलाकारों पर वह बोझ की तरह लगते हैं। जर्मनी की गोरी चमड़ी वाली सेना के उलट फिल्म में हिटलर और उनके सब कमांडर सांवले हैं। यही नहीं फ्रांसीसी सेना और रूसी सेना के सैनिक भी सांवले हैं। अब जिसने इतिहास पढ़ा है और ऐसे इश्यू पर बनी हॉलीवुड या यूरोपियन मूवीज देखी हैं, वो इस तथ्य को कैसे निगल पाएगा। इस फिल्म के शॉट्स के साथ दूसरे विश्वयुद्ध की असली रॉ फुटेज मेल नहीं खाती।

फिल्म बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
अविजित दत्त ने गांधी के रोल के साथ न्याय किया है। वो कद, त्वचा, चाल और भावों से ऑथेंटिंक गांधी लगते हैं। पर दो सीन छोड़कर पूरी फिल्म में वह बस चलते रहते हैं। इसका कोई सेंस नहीं बनता। बताया गया था कि हिटलर को गांधी के लिखे खतों पर ये फिल्म आधारित है। फिल्म जब खत्म होने को होती है तब ऐसा जिक्र आता है। दूसरा हिंसा और अहिंसा जैसी सीरियस विचाराधाराओं से साथ न्याय भी नहीं हो पाता है। अमन वर्मा का अभिनय फिल्म में सबसे बेहतर है। मगर जंगलों में भटकते उन्हें अपनी बीवी के और उनकी बीवी को उनके खत कैसे मिलते हैं, ये समझ नहीं आता। स्टोरी डिवेलपमेंट जैसा कुछ भी इस स्क्रिप्ट में नहीं है।
***************
गजेंद्र सिंह भाटी