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Sunday, November 20, 2011

जाने को बड़ी औसत है ये शकल

फिल्मः शकल पे मत जा
निर्देशकः शुभ मुखर्जी
कास्टः सौरभ शुक्ला, रघुवीर यादव, शुभ मुखर्जी, प्रतीक कटारे, हर्षल पारेख, चित्रक बंधोपाध्याय, आमना शरीफ, जाकिर हुसैन
स्टारः ढाई, 2.5'शकल पे मत जा’ की बनावट ऐसी है कि पैशनेट काम और कुछ अच्छे पलों के बावजूद आप तृप्त होकर इसकी तारीफ नहीं कर पाते हैं। बहुत सारी कसक और बोरियत मन में रह जाती है। फिल्म शुरू होते ही क्रेडिट्स के साथ दिल्ली की सड़कों पर बहुत तेजी से कैमरा दौड़ाती है। बहुत अच्छा लगता है। फिर हम सीआईएसएफ के देसी जवानों और इन चारों अजीब से बर्ताव करने वाले लड़कों की बातों को सुनते हैं। लगने लगता है कि फिल्म किसी इमैच्योर ने बनाई है। यहां से कहानी को रोचक बनाए हुए आगे ले जाने में बहुत बार गलतियां होती हैं। खुद अंकित के रोल में डायरेक्टर शुभ ही अपने डायलॉग रिपीट करते रहते हैं। 'घासमांडू’, 'लग गई’ और 'फट गई’ जैसे उनके कर्स वर्ड बहुत बारे ठूसे हुए लगते हैं। उनके एक्सप्रेशन बहुत ही लिमिटेड हैं। फिल्म में जान आती है तो सौरभ शुक्ला के आने से, पर फिर वही होता है डायरेक्शन की दिशा का गुम जाना। अगर कुछ अच्छे डायलॉग, फनी हालात और जरा एंटरटेनिंग क्लाइमैक्स न होता तो ये फिल्म नहीं देखने लायक हो जाती। पर फ्रेंड्स के साथ एक बार देख सकते हैं। थोड़ा मजा आएगा। अगर कुछ और बेहतर देखने को है तो मूवी को टाल सकते हैं।

एक्टर कैरेक्टर और उनका असर
सौरभ शुक्ला: चौहान के रोल में उनकी वाइफ का नाम सविता होना और लड़कों के बैग से निकली सविता भाभी की कॉमिक्स का लिंक भिडऩा हंसाता है। उनकी एंट्री अच्छी होती है, मगर बाद में वो अच्छे, बुरे और ढीले लगते हैं। फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी हैं।
रघुवीर यादव: ओमप्रकाश के रोल में उनसे हरियाणवी इतना अच्छा नहीं बना गया। पूरी मूवी में वो 'तेरी भैण का तेरी’ बोलते रहते हैं। चार-पांच बार तो बहुत हंसी आती है, उसके बाद नहीं। रघुवीर का पूरा यूज निर्देशन में
नहीं हुआ। इनका एक डायलॉग याद रहता है, 'बातें तो ऐसी कर रहे हैं जैसे लाल किले को सफेद कर देंगे रात भर में।
शुभ मुखर्जी: फिल्म बहुत बार कन्फ्यूज्ड लगती है तो अंकित के रोल में इनकी एक्टिंग और एक्सप्रेशन के कारण। तुलनात्मक रूप से डायरेक्शन ठीक-ठाक।
प्रतीक कटारे: चाइल्ड आर्टिस्ट प्रतीक अपने किरदार ध्रुव में कुछ खास नहीं कर पाते। बस उनका एक डायलॉग ही याद रहता है, 'मैं छोटा शकील नहीं, वकील बनना चाहता हूं।'
चित्रक: रोहन के रोल में अमेरिकन एक्सेंट की इनकी तुड़ी-मुड़ी हिंदी हजम नहीं होती। शुरू में तो हमें समझना पड़ता है। फिल्म बहुत आगे बढ़ जाती है तो हम कनविंस होते हैं। फिर भी इनका गेटअप और भोंदूपन कहानी को
इंट्रेस्टिंग रंग देता है।
हर्षल: बुलाई के रोल में हर्षल भी रोहन की तरह हमारी नजरों में चढऩे में वक्त लेते हैं। पर उनकी एक्टिंग में चित्रक की ही तरह कोई खामी नजर नहीं आती। हिंदी सिनेमा का एक और भोला किरदार।
आमना शरीफ: अमीना के रोल में आमना शरीफ को न भी लेते तो चलता। यूजलेस।
जाकिर हुसैन: टेरेरिस्ट ओमामा के रोल में जाकिर 'तेरे बिन लादेन’ के मजाकिया ओसामा की याद दिलाते हैं। पर उनका (आदित्य लखिया का भी) अरबी और उर्दू जैसे कुछ बने-बनाए अजीब शब्द (मसलन, अल बकायदा) बोलना पकाता है। दोष दूंगा निर्देशक और राइटर को।

ये है कहानी
दिल्ली एयरपोर्ट में सीआईएसएफ के गाड्र्स ने चार लड़कों को एक लैंड कर रही अमेरिकी एयरलाइंस का वीडियो बनाते हुए पकड़ा है। ये हैं अंकित शर्मा (शुभ मुखर्जी) उसका छोटा भाई ध्रुव (प्रतीक कटारे), लंबे बालों वाला भोला दोस्त बुलाई (हर्षल पारेख) और हिंदी कम समझने वाला भोंदू दोस्त रोहन मल्होत्रा (चित्रक बंधोपाध्याय)इंस्पेक्टर ओमप्रकाश (रघुवीर यादव) इनसे पूछ-पूछकर थक जाता है और उसे कुछ संदिग्ध लगता है तो एटीएस ऑफिसर चौहान (सौरभ शुक्ला) को बुला लेता है। इस एयरपोर्ट पर आतंकियों और बम धमाके की पक्की सूचना आती है और इस बीच ये चारों फंसे हुए हैं। फिर कहानी में असली आतंकियों की एंट्री होती है। क्लाइमैक्स भागमभाग भरा है।

आखिर में...
फिल्म में रघुवीर यादव और उनकी एयरपोर्ट सिक्योरिटी में लगी सीआईएसएफ टीम में ज्यादातर हरियाणवी हैं। रघुवीर भी तेरी भैंण की तेरी... बोलकर ही हरियाणवीपन दिखाने की कोशिश करते हैं पर असफल रहते हैं। असली हरियाणवी छाप तो हमारी फिल्मों में वो कैरेक्टर आर्टिस्ट ही ला पाया है जो 'दिल से में अमर वर्मा बने शाहरुख को थप्पड़ जड़ता है और 'रॉकस्टार में बस स्टैंड पर गिटार बजाते जर्नादन जाखड़ को।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 30, 2011

एक स्क्रिप्ट जिसे रद्दी में होना था

फिल्म: गांधी टु हिटलर
निर्देशक: राजीव रंजन कुमार
कास्ट: रघुवीर यादव, नेहा धूपिया, नलिन सिंह, निकिता आनंद, अमन वर्मा, लकी वखारिया
स्टार: एक 1.0

पचास मिनट। पचास मिनट हैं आपके पास। ये फिल्म झेलने के लिए। क्योंकि ज्यादा चांस यही है कि उन चार लोगों की फैमिली की तरह आप भी पचासवें मिनट तक थियेटर से उठकर चले जाएंगे। मैं हिम्मती था तो बैठा रहा। ऐसा नहीं है कि लोग सीरियस फिल्में देखना नहीं चाहते। बस राकेश रंजन कुमार का डायरेक्शन हो और नलिन सिंह का लेखन हो तो सीरियस, पॉलिटिकल और विचाराधारा वाले विषयों पर बनी हिंदी फिल्मों से विश्वास उठ जाता है। हिटलर का भय क्या होता है और उसका ऑरा क्या था ये जानना है तो आप 2008 में आई निर्देशक ब्रायन सिंगर की फिल्म 'वॉलकायरी' देखिए। इसमें हिटलर बने डेविड बैंबर को देखिए, कर्नल स्टॉफनबर्ग बने टॉम क्रूज को देखिए। 'गांधी टु हिटलर' में हम कहानी कहने के निहायती गैर-गंभीर तरीके से किसी भी फिल्मी मनोरंजन वाले भाव को तरस जाते हैं। फिर होता ये है कि रोने वाले सीन में भी हम निर्दयी बनकर हंसते हैं। मेरी सख्त चेतावनी - ये फिल्म कभी न देखें।

विचारधारा की फेल कहानी
दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मन तानाशाह एडॉल्फ हिटलर (रघुवीर यादव) की सेना कमजोर पड़ रही है। आजाद हिंद फौज बनाने वाले बोस (भूपेश कुमार) जर्मनी छोड़ देते हैं और 1945 में उनके सैनिक जंगलों-पहाड़ों में भटकते हैं। बलवीर सिंह (अमन वर्मा) और उसके पांच-छह साथियों की टुकड़ी भी भटक रही है। बलवीर की गांधीवादी वाइफ अमृता (लकी वखारिया) पति के लौटने का इंतजार कर रही है। इंडिया में गांधी (अविजीत दत्त) अंहिसा का महत्व पढ़ा रहे हैं। कहानी गांधी, हिटलर और बलवीर के तीन सिरों पर चलती है।

सीरियस विषय, बचकाना ट्रीटमेंट
पूरी फिल्म में रघुवीर सैनिक वर्दी की बजाय सूट पहने हैं, जो हिटलर को ऑथेंटिक और प्रभावी नहीं बना पाता। उनका अंग्रेजी एक्सेंट कमजोर है। ऐसे में उनके मुंह से शेक्सपीयर के उद्धरण बेहद अप्रभावी लगते हैं। फिल्म की सबसे बड़ी नाकामी यही है कि इस हिटलर से जरा भी डर नहीं लगता। नलिन शर्मा हिटलर के प्रॉपगैंडा मिनिस्टर जोसफ गॉबेल्स बन हैं। गॉबेल्स को वह क्षण भर भी नहीं जीवित कर पाते। साथी कलाकारों पर वह बोझ की तरह लगते हैं। जर्मनी की गोरी चमड़ी वाली सेना के उलट फिल्म में हिटलर और उनके सब कमांडर सांवले हैं। यही नहीं फ्रांसीसी सेना और रूसी सेना के सैनिक भी सांवले हैं। अब जिसने इतिहास पढ़ा है और ऐसे इश्यू पर बनी हॉलीवुड या यूरोपियन मूवीज देखी हैं, वो इस तथ्य को कैसे निगल पाएगा। इस फिल्म के शॉट्स के साथ दूसरे विश्वयुद्ध की असली रॉ फुटेज मेल नहीं खाती।

फिल्म बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
अविजित दत्त ने गांधी के रोल के साथ न्याय किया है। वो कद, त्वचा, चाल और भावों से ऑथेंटिंक गांधी लगते हैं। पर दो सीन छोड़कर पूरी फिल्म में वह बस चलते रहते हैं। इसका कोई सेंस नहीं बनता। बताया गया था कि हिटलर को गांधी के लिखे खतों पर ये फिल्म आधारित है। फिल्म जब खत्म होने को होती है तब ऐसा जिक्र आता है। दूसरा हिंसा और अहिंसा जैसी सीरियस विचाराधाराओं से साथ न्याय भी नहीं हो पाता है। अमन वर्मा का अभिनय फिल्म में सबसे बेहतर है। मगर जंगलों में भटकते उन्हें अपनी बीवी के और उनकी बीवी को उनके खत कैसे मिलते हैं, ये समझ नहीं आता। स्टोरी डिवेलपमेंट जैसा कुछ भी इस स्क्रिप्ट में नहीं है।
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गजेंद्र सिंह भाटी