Showing posts with label Aarakshan (2011). Show all posts
Showing posts with label Aarakshan (2011). Show all posts

Monday, August 8, 2011

अधबीच बहस आते वीडियो किस्से

एन. चंद्रा जैसे फिल्ममेकर ने 1993 में मिथुन चक्रवर्ती को लेकर 'युगांधर' बनाई थी। इसमें नक्सलवाद, वामपंथ, पूंजीवाद, जनता, सिस्टम, विचार और भटकाव जैसे उन विषयों पर बात की गई जिनको लेकर हमारे समाज की बहस अधबीच में है। पर इस अधबीच के बीच ही निर्देशक तीन घंटे की फिल्म बनाता है और अपनी मनपसंद साइड ले लेता है। वह बहुत मौकों पर गलत भी होता है। चूंकि फिल्म माध्यम कहानी कहते-कहते हमारा ब्रेनवॉश करने की क्षमता रखता है तो समाज की राय प्रभावित होती है। इस बीच उन ऑडियंस का क्या जो निर्देशक के लॉजिक से इत्तेफाक नहीं रखती। क्या एक लोकतांत्रिक सेटअप में दोनों पक्षों को जगह नहीं मिलनी चाहिए?

चाहती
तो 'युगांधर' भी नक्सली विरोध के विचार में कोई एक पक्ष ले सकती थी, पर ये मूवी हिंसा और अंहिसा दोनों पर वास्तविक स्टैंड लेती है और एक कम हानिकारक राह सुझाती है। एक सीन है। फौज ने पास ही में डेरा डाल दिया है और कृष्णा (मिथुन) अपने लोगों से कहता है, 'हमारे बीच के आधे लोग... औरतें, बच्चे और घायल हैं, मगर हम लड़ेंगे। क्योंकि हमारी लाशें देखकर कोई तो कहेगा कि आखिर इतने लोगों ने क्यों और किस कारण से अपनी जानें दे दी।' फिल्म के आखिर में अहिंसा का रास्ता चुनने वाले कृष्णा को गांधी की तरह असेसिनेट कर दिया जाता है। फिर परदे पर एक गांधी सा लगने वाला आदमी आता है और कहता है, 'देख कृष्णा मुझे मेरी जमीन 20 साल बाद मिल गई है।' इसके बड़े मायने हैं।

अब आते हैं जल्द रिलीज होने जा रही प्रकाश झा की 'आरक्षण' पर। फिल्म में एक डायलॉग है, 'अगर आप आरक्षण के साथ नहीं तो उसके खिलाफ हैं।' फिल्म में सैफ का मूछों वाला रूप और अग्रेसिव संवाद बेहद कैची जरूर हैं, पर समाज में इकोनॉमिक रिजर्वेशन, धार्मिक रिजर्वेशन और जाति आधारित रिजर्वेशन के विरोध में तर्क देने वाले आम लोग और जर्नलिस्ट भी बसते हैं। फिर कहूंगा, बात सही-गलत के साथ एक-दूसरे को बोलने की बराबर जगह देने की भी है। ये भी नहीं है कि हर दर्शक फिल्म पर अपने फीडबैक दे पाए या नई फिल्म बनाकर अपने जवाब दे दे। फिल्में अभी भी वन वे ट्रैफिक ही हैं। थोड़े वक्त पहले एनडीटीवी इमैजिन पर लॉन्च हुआ सीरियल 'अरमानों का बलिदान-आरक्षण' मैरिट की वकालत करता था और आधार बनाता था मंडल कमीशन के दौर को। यहां भी फिल्म मीडियम का इमोशनल इस्तेमाल करके इस सामाजिक बहस को प्रभावित करने की कोशिश की गई। जो फिल्मों को सिर्फ बर्गर की तरह खाते हैं, वो बिना सोचे-समझे उस लॉजिक के हो जाते हैं।

शिक्षा मंत्री रहते हुए कपिल सिब्बल ने 10वीं क्लास तक फेल-पास सिस्टम को हटाने की बात कही। अब भारत के हजारों अंदरुनी गावों में राजीव गांधी विद्यालयों में टीचर लगे नौजवान शिकायत करते हैं कि बच्चा पढ़ेगा नहीं, कॉपी खाली छोड़ देगा तो भी पास करना पड़ेगा। यहीं पर आती है 'थ्री इडियट्स', एलीट एजुकेशन के दायरे में रहते हुए कुछ फील गुड बात कहती है। फिल्म एक गैर-लिट्रेचर माने जाने वाले अंग्रेजी नॉवेल से प्रेरित थी, पर इसने फिल्म के जरिए एजुकेशन सिस्टम कैसा हो इस बहस पर एक अपने मन की टिप्पणी कर दी थी।

आप इशरत जहान एनकाउंटर और सोहराबुद्दीन शेख-कौसर बी एनकाउंटर के तथ्यों को देख रहे हैं और आपके सामने 'आन: मेन एट वर्क', 'अब तक छप्पन' और 2007 में आई विश्राम सावंत की 'रिस्क' है। इन फिल्मों में हर एक एनकाउंटर के साथ हमें मजा आता जाता है। कभी खुद से पूछा है क्यों? आप कभी पूछते नहीं और आपकी सोशल डिबेट कमजोर हो जाती है। ये जरूर याद रखिए की फिल्मों से किसी भी गलत विचार और इंसान तक को जस्टिफाई किया जा सकता है, फिर ये तो एनकाउंटर है। मधुर भंडारकर की 'आन' से होते हुए पुनीत इस्सर की 'गर्व' और हैरी बवेजा की 'कयामत: सिटी अंडर थ्रेट' तक पहुंचें तो सारे बुरे किरदार मुसलमान हैं। हां, कुछ भले मुसलमान भी स्क्रिप्ट में डाल दिए जाते हैं ताकि दर्शक का लॉजिक चुप हो जाए। ऐसा ही किरदार है सुनील शेट्टी का। एक पाकिस्तानी फौजी अधिकारी से बात करते वक्त भारतीय मुलमानों को देशभक्त बताने में ये स्क्रिप्ट बेहूदगी की हद तक स्टीरियोटिपिकल थी। एक लाइन गौर फरमाएं, 'अरे, पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान तो हिंदुस्तान में रहते हैं।' ये फिल्में ये भी प्रूव कर देना चाहती हैं कि हर आतंकी और अंडरवल्र्ड डॉन मुसलमान ही होता है।

दिल्ली की अदालत ने संविधान की धारा-377 पर एक पॉजिटिव फैसला सुनाया था। पर हिंग्लिश और हिंदी दोनों ही फिल्मों में अब भी फुसफुसाते हुए 'डू यू नो, शी इज लेस्बो' और 'तुम गे हो?' सुनाई दे ही जाता है। इनसे लेकर 'कॉमेडी सर्कस' तक में एलजीबीटी (गे) कम्युनिटी पर भद्दे मजाक किए जाते हैं।

'गुजारिश' में ईथन मेस्कैरेनहस की इच्छा मृत्यु यानी मर्सी किलिंग की याचिका खारिज हो जाती है। हमारे सभ्य समाज और कानून में इसे मंजूरी नहीं हैं पर संजय लीला भंसाली ने अपनी कहानी में फैसला किया कि दोस्त और सर्वेंट सोफिया मरने में ईथन की मदद करेगी। और फेयरवेल पार्टी के साथ ईथन एक हैपी मैन की तरह मरता है।

हाल ही में निर्देशक अश्विनी चौधरी ने माना था कि एक डायरेक्टर को अपनी कहानी का भगवान होने की फीलिंग होती है। वह जब चाहता है बरसात होती है, जब चाहता है कैरेक्टर रोता है और जब चाहता है हंसता है। मगर फिल्मी भगवान के वीडियो किस्सों और चाहत से बहुत कम बार असल जिंदगी के मुद्दे हल होते हैं। नीरज पांडे की ' वेडनसडे' में मुंबई बम धमाकों से पीडि़त एक आम आदमी पूरी कानून व्यवस्था और सिस्टम को अपने हाथ में लेता है, और कथित मुस्लिम आतंकियों को सिस्टम के हाथों फिल्मी अंदाज में मरवा देता है। उसे लगता है कि उसने धमाकों के जवाब में सही प्रतिक्रिया दी है। अगर यही सही है तो ऐसा सिविलियन जस्टिस तो बिहार में चोर को साइकिल के पीछे बांधकर खींचने का भी है। उसे पेड़ से बांधकर जानवरों की तरह मारने में भी है। क्या हम उसे स्वीकार कर सकते हैं?

गजेंद्र सिंह भाटी
**************
साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से