डायरेक्टर: रोहित शेट्टी
कास्ट: अजय देवगन, प्रकाश राज, अशोक सर्राफ, काजल अग्रवाल
स्टार: तीन 3.0
इस फिल्म से हमें हमारे वही 'फूल और कांटे' वाले अजय देवगन वापस मिल गए हैं। 'सुहाग', 'दिलजले' और 'नाजायज' वाले भी। मूछों के
साथ खाकी वर्दी और ह्रष्ट-पुष्ट बॉडी में उनके संवादों और महाशक्तिशाली मुक्कों-लातों का असर डबल हो जाता है। रोहित शेट्टी मेहनती फिल्ममेकर हैं और समाज के सबसे बड़े ऑडियंस ग्रुप की सेंसिबिलिटी के हिसाब से फिल्में बनाते हैं, ऐसे में कुछ ऑडियंस को फिल्म हवा-हवाई लग सकती है, मगर कुल मिलाकर ये डीसेंट एंटरटेनर है। आप अपने फ्रेंड सर्किल के साथ जा सकते हैं। फैमिली के साथ भी। कहानी के ताने-बाने में, म्यूजिक में और फिल्म के अंत में कुछ अद्भुत नहीं है इसलिए कमतर लगता है। पुलिसवालों की ईमानदार कोशिशों, पॉलिटिकल प्रेशर और उनकी तकलीफों को कमर्शियली ही सही फिल्में एक बार फिर सामने रखती है।गांव का न्यायप्रिय पुलिसवाला
गोवा के नक्शे पर एक छोटा लेकिन खुशहाल गांव है शिवगढ़। सब-इंस्पेक्टर बाजीराव सिंघम (अजय देवगन) इसी गांव का है और हर मसले को चतुराई से हल करता है इसी वजह से यहां अपराध नहीं है। उसके पिता के दोस्त की बेटी काव्या (काजल अग्रवाल) उससे प्यार करती है। जयकांत शिक्रे (प्रकाश राज) वैसे तो गोवा का बड़ा कारोबारी है, पर असल में धन उगाही, अपहरण, हत्या और गुंडागर्दी का काम करता है। एक मर्डर केस में उसे हाजिरी देने शिवगढ़ जाना पड़ता है। यहां बाजीराव से सामना होने पर उसके अहंकार को चोट पहुंचती है और यहीं से शुरू होता है ट्विस्ट। इसके बाद फिल्म पुलिस सिस्टम, बाजीराव और जयकांत के बीच से आगे बढ़ती है। ये कहानी अपनी मूल तमिल वर्जन वाली 'सिंगम' से इंटरवल के बाद अलग हो जाती है।
जहां सीटियां बजती हैं
बाजीराव सिंघम के किरदार के जितने भी अपीयरेंस हैं उन्हें डायरेक्टर रोहित शेट्टी हीरोइक अंदाज में पेश करते जाते हैं। मंदिर के सरोवर में डुबकी लगाकर निकलने के पहले सीन से लेकर मेघा कद
म (सोनाली कुलकर्णी) को सेल्यूट करने के आखिरी सीन तक बस सीटियां ही बजती हैं। मशहूर फाइट मास्ट एम.बी.शेट्टी के बेटे रोहित अपनी फिल्म में एक्शन पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। स्टंट ऐसे डिजाइन करते हैं जैसे कोई एपिक फिल्म बना रहे हों। 'गोलमाल' जैसी कॉमेडी मूवी में ही इतनी कारें उड़ती हैं तो ये तो फिर 'सिंघम' है। हालांकि चलती गाड़ी से निकलते हुए अजय जैसे गोली चलाते हैं वह सीन पिछले साल आई हॉलीवुड मूवी 'रेड' के ऐसे ही ब्रूस विलिस सीन से हूबहू लिया गया है। फिल्म में तीन बड़े एक्शन सीक्वेंस हैं, जो बहुत खतरनाक हैं। इनका श्रेय जाता है रोहित और स्टंट डायरेक्टर जय सिंह निज्जर को। अशोक सर्राफ (हैड कॉन्स्टेबल प्रभु) के हिस्से आए एक-दो कॉमिक सीन और सचिन खेड़ेकर को गोटिया नाम से बुलाए जाने का शुरुआती सीन फिल्म में कॉमेडी की डोज है। प्रकाश राज भी क्लाइमैक्स के दौरान अपनी उचकती डायलॉग डिलीवरी में हंसाते हैं।ये होता तो अच्छा होता
फिल्म में अजय के कैरेक्टर की इमेज बिल्डिंग और एक्शन सीक्वेंस के अलावा किसी चीज पर खास ध्यान नहीं दिया गया है। एक्टिंग में तो किसी से शिकायत नहीं है, बस काजल अग्रवाल की रंगत में अकडऩ अजीब लगती है। डिजाइनर सलवार-कमीज दिखाने के अलावा उनके रोल की कोई संजीदा प्लानिंग नहीं की गई है। एक सबसे कमजोर हिस्सा है फिल्म का म्यूजिक। पहला इंट्रोड्यूसिंग गाना मन भंवर उठे, तन सिहर उठे, जब खबर उठे, के आवे सिंघम... 'दबंग' के इंट्रो सॉन्ग हुड़ हुड़ दबंग दबंग.. की तर्ज पर है। गाने के बोल अच्छे हैं, बस सुखविंदर की भन्नाती आवाज में समझ नहीं आते। ये बड़ा माइनस पॉइंट है। दूसरा रोमेंटिंक गाना साथिया... भी कोई भावनाएं नहीं जगा पाता। प्रकाश राज की एक्टिंग उनकी सभी कमर्शियल हिंदी फिल्मों (वॉन्टेड, सिंघम, बुड्ढा होगा तेरा बाप) में एक जैसी बासी लगने लगी है। हर फिल्म में उनका थुलथुल शरीर, क्लीन शेव्ड चेहरा, अजीब डायलॉग डिलीवरी और कपड़े एक जैसे लगते हैं, जो कि स्टूपिड बात है। अगर अजय क्लीन शेव्ड से मूछों वाले हो सकते हैं तो प्रकाश की फिजिकल पहचान भी तो कुछ बदली जा सकती थी। मतलब, उन्हें देखकर किसी खूंखार विलेन वाली फीलिंग नहीं होती, जब ऐसा नहीं होता तो फिल्म का नेगेटिव पक्ष कमजोर हो जाता है और हम उसे सीरियसली नहीं लेते। इससे कहानी हमें इमोशनली इस्तेमाल नहीं कर पाती।
आखिर में..
जैकी चेन की फिल्मों की तरह रोहित की फिल्मों की भी ये पहचान बन चुकी है कि अंत में के्रडिट्स के साथ शूटिंग की रॉ फुटेज दिखाई जाती है। ये स्टंट सीन्स की मेकिंग की एक्सक्लूसिव वीडियो होती हैं। इसलिए 'सिंघम' खत्म हो तो सीटों से उठकर दौड़ें नहीं, बैठकर क्रेडिट्स को पूरा देखें।
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गजेंद्र सिंह भाटी



