नंदा हजारों बच्चों-युवकों की हूबहू भौतिक जीवन-यात्रा हो न हो, वह निश्चिततः हिंदुस्तान के बाल सुधार गृहों में परिस्थितियों द्वारा धकेल दिए गए बच्चों-किशोरों का मानस ग्रंथ जरूर है, उनका नियति पथ जरूर है
हिसाब से सिनेमा संसार में 26 अगस्त का दिन उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए। 1955 में इसी दिन सत्यजीत रे ने सैंकड़ों फिल्मकारों की प्रेरणा और भारत का गौरव बनने वाली अपनी फिल्म ‘पाथेर पांचाली' रिलीज की थी। थियेटर में इस बंगाली फिल्म के चढ़ने के बाद भारतीय सिनेमा में कुछ भी पहले सा नहीं रहा था। पिछले महीने ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट की सिने मैगजीन ‘साइट एंड साउंड’ की विश्व की 50 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों वाली सूची (विवादित) भी आई। सूची में ‘पाथेर पांचाली’ को 42वां स्थान मिला। मगर अभी मैं ‘पाथेर पांचाली’ की बात नहीं करूंगा। रे और उनकी फिल्म दोनों ही फिल्मकारी का उत्सव हैं और उस उत्सव का हिस्सा है हरेक वो फिल्म जो पागलपन और ढेर सारे तूफान के साथ बनाई गई है। दक्षिण भारत के तमिल सिनेमा में एक ऐसा ही एक तूफान है बाला।
46 साल के बाला फिल्म निर्देशक हैं, स्क्रिप्ट खुद लिखते हैं और अब निर्माण भी खुद ही करने लगे हैं। बहुत कम बात करते हैं। ज्यादा साक्षात्कार नहीं देते। बस फिल्म बनाते हैं, और जब बनाते हैं तो समीक्षकों के लिए उत्साह का मौका होता है, उनके पास बातें करने और लिखने के लिए बहुत कुछ होने वाला होता है। क्योंकि बाला की फिल्मों की हिंसा या विवादास्पद निरुपण के लिए चाहे बुराई हो या अद्भुत फिल्ममेकिंग के लिए तारीफ, निस्संदेह महत्व के मामले में उस वक्त उसके आसपास भी कोई दूसरी फिल्म नहीं होती है। 1999 में पहली ही फिल्म ‘सेतु’ ने बेस्ट तमिल फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। अभिनेता विक्रम (हिंदी फिल्म ‘रावण’ में नजर आए) सबकी आंखों के तारे बन गए, आखिर कब-कब किसी को ऐसा मेहनत से बनाया गया किरदार निभाने को मिलता है। जिस किसी ने भी सतीश कौशिक द्वारा निर्देशित ‘तेरे नाम’ देखी है, उसे एक बार ‘सेतु’ जरूर देखनी चाहिए, ताकि मूल फिल्म की तीक्ष्णता और विक्रम का बाला के सीधे निर्देशों पश्चात उपजा अभिनय अनुभव कर सकें। सतीश की रीमेक में वह नहीं आ पाता।
एक साल बाद आई, ‘नंदा’, तमिल सिनेमा के एक और अभिनेता सूर्या (रामगोपाल वर्मा की ‘रक्तचरित्र-2’ में सूरी बने थे) के सितारे को चमकाते हुए। ‘नंदा’ वैसे तो महेश मांजरेकर की ‘वास्तव’ से प्रेरित थी, पर आंशिक तौर पर। फिल्म में ‘अग्निपथ’ भी थी और बाला का अपना नजरिया और प्रस्तुतिकरण भी। अगली फिल्म ‘पीथामगन’ में सूर्या और विक्रम दोनों ही थे। उल्लेखनीय रही। मगर चौंकाया ‘नान कडवल’ ने। 2009 में रिलीज हुई इस फिल्म के लिए बाला राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील से बेस्ट डायरेक्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार ग्रहण करते नजर आए। तीन साल की कठोर मेहनत और अघोरी जैसे कठोर मन के साथ बनाई बाला की ये फिल्म स्क्रिप्टवाइज इतनी उत्कृष्ट है कि कलेजा फाड़ देती है, पर अपनी विषय-वस्तु की वजह से फिल्म को आलोचकों ने उठा-उठाकर पटका। बाला की ‘नान कडवल’ पर ही मैं सबसे पहले लिखना चाहता था, पर नहीं, अभी बात कर रहा हूं ‘नंदा’ के बारे में।
सारी कोशिश फिल्म के किरदारों के भीतर और उनके मन में चल रही चीजों को ढूंढने और उनका अनुमान लगाने की है। ये पकड़ने की है कि किरदार गढ़ते और फिल्माते वक्त निर्देशक कितना अधिक इमोशनल हुआ होगा? उसने कितना कुछ सोचा होगा, जो शायद पर्दे पर संप्रेषित नहीं हो पाया? न ही इतना सब-कॉन्शियस परतों वाला विचार लोगों तक पहुंच पाता है, वो तो हमेशा के लिए पटकथा लिखने वाले या फिर फिल्म के निर्देशक के साथ ही पीछे छूट जाता है। ‘नंदा’ पर ये कुछेक शब्द इन्हीं मायनों के साथ लिख रहा हूं।
काले-पके होठ, छोटे-छोटे बाल, साधारण से शर्ट-पैंट, पथरीला बाहरी आवरण, नीली-गहरी-बड़ी-बड़ी आंखें और औसत कद काठी। ये नंदा (सूर्या) का बाहरी आवरण है। जैसे शिवा (नागार्जुन) या सत्या (जे.डी.चक्रवर्ती) का अपनी-अपनी फिल्मी कहानियों में होता है। सख्त, अल्पभाषी, नैतिक, विस्फोटक, बागी, हिम्मती, एक्सपेरिमेंटल, साधारण, हिंसक। ऐसे किरदार तमाम दुनिया की कहानियों (‘ड्राइव’ – रायन गोजलिंग, ‘ट्रांसपोर्टर’ – जेसन स्टेथम) के सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले रहस्यमयी लोग होते हैं। मगर उन किरदारों के विपरीत, दिखने में कोई दस-बारह साल का नंदा, कहीं बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही हिंसक हो जाना शुरू होता है।
गूंगी-बहरी मां के आंचल में सिमट जाने को आतुर रहने वाला प्यारा बेटा, जब देखता है कि बाप उसकी और मां की गैरमाजूदगी में घर दूसरी औरत के साथ था (पहले भी माहौल में ये आधार बन सा चुका होता है) तो उसकी आंखों की पुतलियां और भी फैल जाती है। बड़ी - बड़ी मोटी आंखों से उसके भीतर उफन रहे दावानल का अंदाजा होने लगता है। फिर अगले एक-दो मिनट में कुछ ऐसा होता है कि उसके एक प्रहार से उसका पिता मारा जाता है। मां, अपने चौगुने हो चुके कष्टों पर आंसू बहा भी पाए उससे पहले ही उसे नंदा की आंखों में सदैव कायम रहने वाली हिंसा नजर आती है। वह उससे ज्यादा डर जाती है। उसे लगता है कि इतनी क्रूर नीली आंखें उसके बेटे की तो नहीं हो सकती। ये तो कोई हत्यारा ही है। शायद यहीं पर उसकी ममता जल्दबाजी कर जाती है क्योंकि अगर उस वक्त वह नंदा को फिर से अपनी ममतामयी छाया में लौटा लाती तो शायद अंत उतना बुरा न तैयार हो रहा होता।
असल में भी हिंदुस्तान और तमाम मुल्कों में अपराध के बचपन की यही कहानी होती है। काश! कोई उस वक्त हो जब अपराध का बीज जन्म ले! उस वक्त जब कोई हिंसा का पथ ले! उस वक्त जब कोई सदा के लिए नाशवान राह पर चल पड़े!... उस वक्त कोई हो जो उसे रोक ले। प्यार से, ममता से, धोखे से, छल से, फुसलावे से। बस रोक ले। नंदा की मां (राजश्री) नहीं रोक पाती। इस मां की तरफ से बरती गई यही सबसे बड़ी भूल होती है। दूसरी भूल, जब वह नंदा से मिलने जेल जाती है और वहां भी दुर्योगवश वह (जेल में ये उसकी पहली और आखिरी हिंसा दिखाई जाती है) अपने बेटे को किसी दूसरे लड़के को पीटते हुए पाती है।
वैसे भूल का दूसरा पहलू ये भी है कि नंदा की मां होने के अलावा वह एक गूंगी- बहरी स्त्री भी है, भीतर ही भीतर घुट रही, पति के प्यार से वंचित। वह एक बीवी भी रही, वह एक छोटी सी बच्ची की मां भी है। वह एक ऐसे समाज में भी रहती है जहां रोज दो वक्त का भोजन जुटाने के लिए उसे कितनी मेहनत करनी पड़ती है। वैसे तमिल एक्ट्रेस राजश्री के निभाए इस किरदार और बाला की फिल्म की इस मां के साथ ट्रैजेडी यही है कि उसके मन का दर्द जानने वाले दर्शक न के बराबर होंगे, उनके लिए सरसरी तौर पर फिल्म देखकर समझना ही तुरत-फुरत वाला चारा बचता है।
तो शुरुआत के लिहाज से नंदा हमारी फिल्मी कहानियों के सत्या और शिवा से यूं अलग है। हां, वह मां के प्यार के लिए सदा यूं ही तरसता है जैसे ‘अग्निपथ’ का विजय (अमिताभ या फिर ऋतिक) तरसता रहता है। मैं मानना चाहूंगा कि बाला, 1990 में आई मुकुल आनंद की ‘अग्निपथ’ के पक्के दीवाने रहे होंगे। क्योंकि नंदा और उसकी मां का रिश्ता हूबहू वैसा ही है जैसा मुकुल आनंद की फिल्म में मां सुहासिनी चौहान (रोहिणी हट्टंगडी) और बेटे विजय (अमिताभ) के बीच होता है। सुहासिनी विजय के हिंसक रास्ते से इत्तेफाक नहीं रखती, पर विजय को मांडवा चाहिए। वो मांडवा जहां उसके आदर्शों-सिद्धांतों पर चलने वाले शिक्षक पिता दीनानाथ को चरित्रहीन करार देकर मार डाला जाता है। विजय को गलत होकर उस दुनिया को जीतना है, जो जरूरत के वक्त ‘उसके सही’ का साथ नहीं दे पाई। उसे हर उस पेट्रोल पंप को आग लगा देनी है जहां उसकी या किसी भी मां की आबरू पर हाथ डाला गया।
इन मायनों में नंदा चाहे अलग हो जाता है, अन्यथा वह विजय दीनानाथ चौहान ही है। उसे अपनी मां के हाथ से जिंदगी में बस एक बार दाल-भात खाना है। पुरानी फिल्म में अमिताभ का यादगार खाने की मेज पर मां से बातचीत का दृश्य ले लें, या फिर ऋतिक रोशन करण मल्होत्रा की ‘अग्निपथ’ में ज्यों खाते हैं, नंदा भी यूं ही एक बार मां से झगड़ता है। वह जबरन उसके हाथ में दाल-भात देकर खाने की कोशिश करता है। जाहिर है ये उन दोनों ‘अग्निपथ’ फिल्मों का प्रतिकृति दृश्य है। ये मजबूत विजुअल संवाद हैं। इसी बीच नंदा की कहानी से कहीं न कहीं जुड़ने की कोशिश करती है महेश मांजरेकर की ‘वास्तव’। चूंकि 1999 में ‘वास्तव’ की रिलीज के एक साल बाद ही नंदा भी लगी थी, तो सीधे तौर पर उसे ‘वास्तव’ के ज्यादा करीब ही माना जाता है। समानताएं भी हैं। ‘वास्तव’ और ‘नंदा’ का पटाक्षेप एक सा है। शांता (रीमा लागू) अपने बेटे रघु (संजय दत्त) को आखिर में अपने हाथ से खाना खिला ही देती है, जैसे कि नंदा की मां उसे।
खाना खिलाने वाला ये दृश्य बेहद मार्मिक दृश्य है। बेटे की चाहत पूरी हो रही है। आज मां उसे अपने हाथ से खाना खिला रही है। बरसों बाद अपने हाथ से वह नंदा को पहला कोर दे रही है जबकि वह बौखलाया है, उसके पैर जमीन पर नहीं है, वह खाना खा रहा है, प्यार की भूख तृप्त होगी। मां खिलाती है.. पर ये क्या पहले निवाले को मुंह में लेते ही उसके मन में कुछ चलता है। इतने वक्त और इस निवाले के बीच जो हुआ वह चलता है। विचार करता है, समझ जाता है कि उसकी अपनी मां उसे जहर खिला रही है। मां दूसरा कोर दे रही है और वह फिर भी खा रहा है, रो रहा है, आंखों से आंसू बह रहे हैं। कि, देखो मेरी ही मां मुझे मार देना चाहती है। इस वक्त उसके दिमाग में ये भी चल रहा हो सकता है कि कितना नफरत करती होगी न वो मुझसे। इस वक्त वह ये भी सोच रहा हो सकता है कि जिंदगी भर के हिंसा भरे माहौल और असामान्य जीवन से वह मुझे मुक्ति दे रही है। वह ये भी सोच रहा हो सकता है कि नंदा, खा ले, मां के हाथ का निवाला है, जहर भी हो तो भी खा ले, क्या पता ये फिर मिले न मिले?
इस वक्त नंदा के भीतर जो भी हो रहा होता है, उसकी गूंगी-बहरी और पत्थर हो चुकी मां के भीतर जो भी हो रहा होता है, वह भावनाओं और आंसुओं का परमाणु विस्फोट सा होता है। ऐसा दुख जिसकी कल्पना भी कर पाना असंभव है। आज के असंवेदनशील समाज में तो बिल्कुल ही असंभव। पर बाला ये सब फिल्माकर दिखाते हैं। मैं इस आखिरी सीन को हिंदी सिनेमा के कुछ सबसे बेहतरीन (सिर्फ सिनेमैटिक सुंदरता के लिहाज से नहीं) भावनात्मक कोलाहल वाले पलों के रूप में याद रखूंगा। ऐसे सीन और यहां तक पहुंचने की कहानी की परिणीति हमारी कहानियों में बहुत कम रची गई है।
फिल्म को सबसे अधिक मानवीय और सम्प्रेषक बनाता है लोडुकू पंडी (लंगड़ पांडे) का किरदार। इसे निभाया है करुणास ने। तमिल फिल्मों के हास्य अभिनेता। उनका लंगड़ाकर दौड़ने के अंदाज में चलना और गाने गाना और गोल-गोल घूमना ये सब वो मैनरिज्म हैं जो उनके निर्देशक बाला और उनके इम्प्रोवाइजेशन से निकले लगते हैं। बाला ने तमाम किरादारों के व्यावहारिक लुक के बीच लोडुकू पंडी के किरदार पर भी एक खास रंग-रूप रख छोड़ा है। जैसे उसके सीधे तरफ की कनपट्टी पर एक छोटी सी चोटी लटकी रहती है। ऐसे किरदार इस किस्म की चोटियों के साथ हमारे गांव-देहात में होते हैं। वो ऐसी चोटियां या बाल क्यों रखते हैं इसकी वजह तो नहीं बता सकता है पर फिल्मी भाषा में ऐसे पेंतरे काम करते हैं, उसपर भी अगर बाला जैसा निर्देशक हो और अपने कथ्य को गंभीरता और आसान तरीके से आगे बढ़ाए तो ये पेंतरे या युक्तियां दर्शकों पर अमिट असर छोड़ती है। घर जाने के बाद भी लोग ऐसे किरदार को और उसके लुक को नहीं भूलते। ऐसे लुक और मैनरिज्म (जो मौलिक है) की वजह से ही एक करुणास, दर्शकों के लिए कोई तमिल हास्य अभिनेता नहीं रह जाता है, वह उनके लिए नंदा नाम के एक लड़के का दोस्त लोडुकू पंडी हो जाता है।
यह नंदा का बेहद हंसोड़ और जिंदादिल किस्म का दोस्त है, जिसे चोरी करने की बड़ी अच्छी आदत है। अच्छी यूं कि लोग हंसते हैं, बुरी यूं कि मूलतः वह अपराध करता है। पर इसी बीच मद्देनजर दृश्य वह भी है जहां लोडुकू नंदा और कल्याणी (लैला) के लिए स्टोव पर रोटियां बना रहा होता है। घर ईंटों का है। कोई सुख सुविधा नहीं है। वह बिल्कुल साधारण है। उसकी कोई महत्वाकांक्षा रईस बनने की नहीं है। वह तो बस अपने सुख - सुविधाहीन जीवन में भी किसी न किसी कारण से खुश रहना चाहता है। न वो कभी किसी लड़की पर बुरी नजर डालता है। हर वक्त हंसता रहता है। कल्याणी के धर्मभाई का फर्ज अच्छे से निभाता है। ऐसे में अगर उसकी चोरियां आती हैं, तो वो सच्ची भी लगती हैं और उसके लिहाज से हमें हंसाती हैं। खैर, चोरी तो चोरी है और उसके लिए कानून भी है, लोगों को ही हमेशा चुनना होता है कि वो भावुक होकर उसे चोरी की सजा से बरी करके अपने दिल में जगह देना चाहते हैं कि कानूनी दिमाग से उसे चोर ही मानते हैं, उसके अलावा कुछ नहीं। अभी के लिए तो ये पुख्ता तौर पर कह सकता हूं कि विश्व के किसी भी सिनेमा के दर्शक अंततः भावुक ही होना पसंद करते हैं।
नंदा पर पेरियावर (राजकिरण) की सरपरस्ती है। वो हिंदी या अमेरिकी फिल्मों की स्वाभाविक बुरे इंसान वाली छवि से बिल्कुल उलट है। वह राजाओं के परिवार से है। शहर की तकरीबन हर सार्वजनिक इस्तेमाल की जगह उसके दादा और पिता की बनाई हुई है। राजपाट चला गया तो सबकुछ सरकारी हक में चला गया। इस जगह में कहने को सरकार का नियम-कायदा चलता है, पर लोगों की असली मदद वही करता है। वह मुखिया है। एक अघोषित कानून (जो गैंगस्टर्स जैसा, या बुरा या मतलबी नहीं है) चलता है। वह स्थिर है। नंदा जब किशोर सुधार गृह से नौजवान बनकर लौटता है तो फिर से सामान्य सामाजिक जीवन में लौटना चाहता है, ताकि उसकी मां उसे स्वीकार कर ले। उसका सबसे प्यारा दोस्त लोडुकू पंडी कहता है कि “यार तू तो पढ़ाई लिखाई में होशियार भी है, आगे पढ़ ले। हम जैसे ही लोगों के बीच से ही निकला था वो, क्या नाम था उसका, मंडेला, उसे भी पढ़ाई ने ही रास्ता दिखाया था”। तो यहां नंदा कॉलेज जाने का मन बनाता है। पर प्रिंसिपल उसके जूवेनाइल होम की पृष्ठभूमि को देखते हुए कहता है कि “कॉलेज में तभी प्रवेश मिल पाएगा जब मुखिया जी कहेंगे”। मुखिया पहली ही नजर में नंदा को देखता है और कहता है “तुम्हें एडमिशन क्यों नहीं मिलेगा। जाओ, मैं तुम्हारे बारे में उनसे बात कर लूंगा”। इस तरह बिना किसी मानसिक भ्रष्टाचार और बुराई के वह नंदा का साथ देता है।
राजकिरण का ये किरदार श्रीलंकाई शरणार्थियों के मुददे पर भी एक पक्ष लेता है। (बाला की फिल्मों में जहां भी श्रीलंकाई तमिलों का जिक्र आता है, वहां वो उनका पक्ष लेते दिखाई देते हैं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि जिन दिग्गज सिनेमैटोग्राफर-डायेक्टर बालू महेंद्रा की फिल्मों में असिस्टेंट रहकर बाला ने फिल्मों का अमृत रहस्य जान लिया है, वो बालू श्रीलंकाई मूल के हैं। तो काफी वक्त साथ रहने का ये असर आता ही है।) जब उनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता है और सिविल सर्वेंट हाथ पर हाथ धरकर सरकारी मंजूरी का इंतजार कर रहे होते हैं तब तत्क्षण मुखिया, नंदा और कुछ खाली बोट लेकर जाता है और सबको लेकर आता है। वह ट्रांजिट कैंपों में भी निस्वार्थ भाव से मदद करता रहता है। कॉलेज में जब एक लड़की की इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा गुंडा लड़की के ही हाथों मारा जाता है तो नंदा उसे सबकी नजरों से बचाता है। लड़की का पिता बेटी को लेकर मुखिया के पास आता है। बेटी पर कोई केस तो नहीं कर देगा, उसने ये हत्या जानबूझकर तो नहीं की है, अपनी रक्षा में की है। ऐसी बातें कहता है। इस पर मुखिया उसके पिता को आश्वस्त करता है कि तुम जाओ तुम्हारी बेटी को कुछ नहीं होगा। जब बाद में नंदा की मां मुखिया के पास आती है और कहती है कि मुझे अपना बेटा बस जिंदा चाहिए, उसने पैदा होने के बाद से कभी कोई सुख नहीं देखा। मैं मेरे लिए नहीं, बस उसके और उसकी होने वाली बीवी के लिए चाहती हूं कि वो जीवित रहे। इन सभी मौकों पर मुखिया अपनी सत्यनिष्ठा को साबित करता है।
मुखिया के रोल में राजकिरण की गंभीर अदाकारी एक समुद्री एंकर का काम करती है। फिल्म के एक सिरे पर वह खड़े रहते हैं, उनके चेहरे पर ही नहीं भीतर भी मुखिया पलता है। जो सिद्धांतवादी है, और सिद्धांतों के लिए, दूसरों की मदद के लिए हिंसा का सहारा लेने से नहीं चूकता। हां, पर हिंसा फिजूल भी नहीं करता। राजकिरण खुद एक उम्दा अभिनेता और फिल्म निर्देशक हैं। तमिल फिल्मों में उनकी अदाकारी वैसी ही है जैसी हिंदी फिल्मों में अपनी चरित्र भूमिकाओं में अमरीश पुरी की होती है। मसलन, ‘विरासत’। मुझे आश्यर्च होता है कि हिंदी फिल्मों ने आज तक कभी उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया है?
बाला अगर अपनी रचनात्मक विस्फोट भरी फिल्म ‘नान कडवल’ (अहम ब्रह्मास्मि) में अघोरी रुद्रां (आर्या) के हाथों अंधी सुरीली भिखारिन हम्सावल्ली (पूजा उमाशंकर) को मानव जीवन से मुक्त करने जैसा विवादित शास्त्ररूप अर्थों वाला फैसला लेते हैं, तो सात-आठ साल पहले ‘नंदा’ में भी ये टिप्पणी नजर आ चुकी होती है। फिल्म का वो आखिरी मौका जब मुखिया और नंदा बातचीत कर रहे हैं, वो एकमात्र मौका जब मुखिया शराब पीकर अपनी नन्ही सी नातिन को अपने पास प्यार से बुलाता है और वो नहीं आती है, वो पहला और आखिरी मौका जब वो नंदा को अपने दर्शन वाला ज्ञान दे रहा होता है, कहता है, “इस धरती पर जब-जब पाप बढ़ेगा, हम और तुम अवतार लेंगे। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। ऊपर से कोई नीचे आता है तो अधर्म का नाश करने के लिए। तू इसीलिए ऊपर से आया है। और चिंता मत कर हर पल मैं तेरे साथ हूं, हमेशा, साए की तरह। समझ गया न”। जाहिर है हिंदी फिल्मों के और दक्षिण भारत की चार-पांच भाषाओं में बनने वाली मनोरंजक फिल्मों के नायक को अघोषित तौर पर अपने बारे में यही लगता है, कि वह ब्रह्म है। कि “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम” भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हीं के लिए गीता के ज्ञान में कहा था। वैसे बाकी फिल्मों में ऐसा विश्लेषण की अनुमानित परतों में ही छिपा होता है (फिल्म समीक्षकों-आलोचकों के खोजने के लिए) कोई हीरो कहता या सोचता नहीं है, पर वह करता सबकुछ इसी आधार पर है। तो ये बाला का तरीका है। धर्म और शास्त्रों को संदर्भ तारीफ और आलोचना के स्वरों में साथ लेकर चलते हुए।
उनकी इस फिल्म में संगीत युवन शंकर राजा ने दिया है। वह दक्षिण भारत के शीर्ष संगीत निर्देशक इल्याराजा के बेटे हैं। फिल्म के शुरुआती हिस्से को उनका पार्श्व संगीत आधार देता है। वह बांसुरी और देसी साजों का सुमधुर इस्तेमाल करते हैं। ये संगीत कुछ वैसे ही साजों वाला है जो हमने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ जैसे टीवी विज्ञापनों को सुनते हुए महसूस किया होगा, या आजकल डीडी भारती में टीवी के स्वर्णिम युग के कार्यक्रमों का पुनर्प्रसारण देखते वक्त होता है। मगर फिल्म के आधे हिस्से तक पहुंचते-पहुंचते उनका संगीत जैसे गायब सा हो जाता है, जो गाने इस दौरान आते हैं उनमें से एक भी फिल्म के लिये ज्यादा मददगार नहीं होते। ये भी लगता है कि बाला ने फिल्म की वित्तीय सफलता को ध्यान में रखते हुए ये नाच-गाने डालें हों। फिल्म को समग्र रूप में देखें तो युवन का संगीत कहीं-कहीं उभरकर ढीला पड़ा दिखता है। फिर भी फिल्म को उत्साहजनक शुरुआत देने के लिए और उसका आधार मजबूत करने के लिए उनके बैकग्राउंड म्यूजिक को सराहा जा सकता है।
सूर्या, राजकिरण और करुणास अगर फिल्म में मजबूत पहिए हैं तो मां की भूमिका में राजश्री और कल्याणी बनी लैला के रोल फिल्म की परिभाषा में कहीं जुड़ते नहीं हैं। ये वो किरदार हैं, जिनके भीतर काफी कुछ है, पर सतह (चेहरों पर) पर भावनात्मक स्पष्टता नहीं है। मसलन, नंदा की मां गूंगी और बहरी तो है ही, फिर उसका अपने बेटे से बात नहीं करना और उसका मुंह तक नहीं देखना, दोनों के बीच पूरा संचार तोड़ देता है। इसी वजह से मां के किरदार का कम्युनिकेशन दर्शकों से भी टूट जाता है। ‘वास्तव’ में रीमा लागू इस संचार की अहमियत बताती हैं। संभवतः नंदा की मां जिंदगी से इतनी निराश हैं या इतनी ज्यादा टूट चुकी हैं कि वह मुंह उठाकर यह तक नहीं देखना चाहतीं कि वह जिंदा भी हैं कि खत्म हो गईं। यहीं पर अभिनय करने वाले की दुविधा शुरू होती है। कि वह इस किरदार को आगे कैसे बढ़ाए? ऐसे हालत में जब एक किरदार दब रहा हो तो फ्रेम में आ रहा दूसरा किरदार टेकओवर कर लेता है। जैसे, मां के साथ वाले सीन में नंदा पर सबकी नजर स्वतः ही चली जाती हैं। पटाक्षेप वाले दृश्य में भी जहर खिलाती मां से ज्यादा नजर जानबूझकर जहर खा रहे दयापात्र बेटे पर जाती है। दक्षिण भारत की अब रिटायर हो चुकीं, तब की अच्छी-खासी अभिनेत्री लैला का किरदार चाहे डीग्लैम लुक वाला एक सीधी-सादी श्रीलंकाई रिफ्यूजी लड़की का हो, पर अंततः उनका इस्तेमाल भी वैसा ही होता है जैसा किसी भी कमर्शियल हिंदी-तमिल फिल्म में ग्लैमरस हीरोइन का होता है। पहले ही सीन में जब एक द्वीप पर बड़ी तादाद में श्रीलंकाई रिफ्यूजी मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं, तो वहीं भीड़ में लेटी हुई कल्याणी नजर आती है। बस यही वो मौका होता है जब फिल्म उसके रोल को गरिमा देती है। इसके बाद सबकुछ किसी भी मसाला फिल्म की भांति होता जाता है।
इस फिल्म में भी बाला की सबसे बड़ी खासियत यही रहती है कि (गानों को छोड़कर) एक-एक फ्रेम गंभीरता से फिल्माया और एडिट किया गया है। कहीं पर भी रील का एक हिस्सा भी यूं ही नहीं छोड़ दिया गया है। एक-एक सीन सिनेमैटिक बुखार का फल लगता है। करीने से सजाया हुआ। अपने मुख्य किरदारों के उभार में भी बाला विशेषज्ञ हैं। उनके किरदार जब लड़ते भी हैं तो एक्शन धूसर और असली लगता है, कोई भी सीन केबल स्टंट वाला नहीं लगता। कॉलेज में गुंडे को पीटने वाला सीन अपवाद भी है और इस बात की तस्दीक भी।
नंदा को एक बार जरूर देखना चाहिए। यह ‘वास्तव’ और ‘अग्निपथ’ का निकोलस वाइंडिंग वेफ्न की फिल्म ‘ड्राइव’ जैसा ट्रीटमेंट लगती है। लगे भी क्यों न, ये उन्हीं बाला की फिल्म है, जिन्हें अनुराग कश्यप ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के शुरुआती क्रेडिट्स में अपनी जड़ों की ओर लौटकर फिल्म बनाने की प्रेरणा देने के लिए खास धन्यवाद कहते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी
Bala, On set of one of his earlier movies. |
46 साल के बाला फिल्म निर्देशक हैं, स्क्रिप्ट खुद लिखते हैं और अब निर्माण भी खुद ही करने लगे हैं। बहुत कम बात करते हैं। ज्यादा साक्षात्कार नहीं देते। बस फिल्म बनाते हैं, और जब बनाते हैं तो समीक्षकों के लिए उत्साह का मौका होता है, उनके पास बातें करने और लिखने के लिए बहुत कुछ होने वाला होता है। क्योंकि बाला की फिल्मों की हिंसा या विवादास्पद निरुपण के लिए चाहे बुराई हो या अद्भुत फिल्ममेकिंग के लिए तारीफ, निस्संदेह महत्व के मामले में उस वक्त उसके आसपास भी कोई दूसरी फिल्म नहीं होती है। 1999 में पहली ही फिल्म ‘सेतु’ ने बेस्ट तमिल फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। अभिनेता विक्रम (हिंदी फिल्म ‘रावण’ में नजर आए) सबकी आंखों के तारे बन गए, आखिर कब-कब किसी को ऐसा मेहनत से बनाया गया किरदार निभाने को मिलता है। जिस किसी ने भी सतीश कौशिक द्वारा निर्देशित ‘तेरे नाम’ देखी है, उसे एक बार ‘सेतु’ जरूर देखनी चाहिए, ताकि मूल फिल्म की तीक्ष्णता और विक्रम का बाला के सीधे निर्देशों पश्चात उपजा अभिनय अनुभव कर सकें। सतीश की रीमेक में वह नहीं आ पाता।
एक साल बाद आई, ‘नंदा’, तमिल सिनेमा के एक और अभिनेता सूर्या (रामगोपाल वर्मा की ‘रक्तचरित्र-2’ में सूरी बने थे) के सितारे को चमकाते हुए। ‘नंदा’ वैसे तो महेश मांजरेकर की ‘वास्तव’ से प्रेरित थी, पर आंशिक तौर पर। फिल्म में ‘अग्निपथ’ भी थी और बाला का अपना नजरिया और प्रस्तुतिकरण भी। अगली फिल्म ‘पीथामगन’ में सूर्या और विक्रम दोनों ही थे। उल्लेखनीय रही। मगर चौंकाया ‘नान कडवल’ ने। 2009 में रिलीज हुई इस फिल्म के लिए बाला राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील से बेस्ट डायरेक्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार ग्रहण करते नजर आए। तीन साल की कठोर मेहनत और अघोरी जैसे कठोर मन के साथ बनाई बाला की ये फिल्म स्क्रिप्टवाइज इतनी उत्कृष्ट है कि कलेजा फाड़ देती है, पर अपनी विषय-वस्तु की वजह से फिल्म को आलोचकों ने उठा-उठाकर पटका। बाला की ‘नान कडवल’ पर ही मैं सबसे पहले लिखना चाहता था, पर नहीं, अभी बात कर रहा हूं ‘नंदा’ के बारे में।
सारी कोशिश फिल्म के किरदारों के भीतर और उनके मन में चल रही चीजों को ढूंढने और उनका अनुमान लगाने की है। ये पकड़ने की है कि किरदार गढ़ते और फिल्माते वक्त निर्देशक कितना अधिक इमोशनल हुआ होगा? उसने कितना कुछ सोचा होगा, जो शायद पर्दे पर संप्रेषित नहीं हो पाया? न ही इतना सब-कॉन्शियस परतों वाला विचार लोगों तक पहुंच पाता है, वो तो हमेशा के लिए पटकथा लिखने वाले या फिर फिल्म के निर्देशक के साथ ही पीछे छूट जाता है। ‘नंदा’ पर ये कुछेक शब्द इन्हीं मायनों के साथ लिख रहा हूं।
Actor Surya as Nandha, a still from the movie where he's talking to his sister. |
काले-पके होठ, छोटे-छोटे बाल, साधारण से शर्ट-पैंट, पथरीला बाहरी आवरण, नीली-गहरी-बड़ी-बड़ी आंखें और औसत कद काठी। ये नंदा (सूर्या) का बाहरी आवरण है। जैसे शिवा (नागार्जुन) या सत्या (जे.डी.चक्रवर्ती) का अपनी-अपनी फिल्मी कहानियों में होता है। सख्त, अल्पभाषी, नैतिक, विस्फोटक, बागी, हिम्मती, एक्सपेरिमेंटल, साधारण, हिंसक। ऐसे किरदार तमाम दुनिया की कहानियों (‘ड्राइव’ – रायन गोजलिंग, ‘ट्रांसपोर्टर’ – जेसन स्टेथम) के सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले रहस्यमयी लोग होते हैं। मगर उन किरदारों के विपरीत, दिखने में कोई दस-बारह साल का नंदा, कहीं बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही हिंसक हो जाना शुरू होता है।
गूंगी-बहरी मां के आंचल में सिमट जाने को आतुर रहने वाला प्यारा बेटा, जब देखता है कि बाप उसकी और मां की गैरमाजूदगी में घर दूसरी औरत के साथ था (पहले भी माहौल में ये आधार बन सा चुका होता है) तो उसकी आंखों की पुतलियां और भी फैल जाती है। बड़ी - बड़ी मोटी आंखों से उसके भीतर उफन रहे दावानल का अंदाजा होने लगता है। फिर अगले एक-दो मिनट में कुछ ऐसा होता है कि उसके एक प्रहार से उसका पिता मारा जाता है। मां, अपने चौगुने हो चुके कष्टों पर आंसू बहा भी पाए उससे पहले ही उसे नंदा की आंखों में सदैव कायम रहने वाली हिंसा नजर आती है। वह उससे ज्यादा डर जाती है। उसे लगता है कि इतनी क्रूर नीली आंखें उसके बेटे की तो नहीं हो सकती। ये तो कोई हत्यारा ही है। शायद यहीं पर उसकी ममता जल्दबाजी कर जाती है क्योंकि अगर उस वक्त वह नंदा को फिर से अपनी ममतामयी छाया में लौटा लाती तो शायद अंत उतना बुरा न तैयार हो रहा होता।
वैसे भूल का दूसरा पहलू ये भी है कि नंदा की मां होने के अलावा वह एक गूंगी- बहरी स्त्री भी है, भीतर ही भीतर घुट रही, पति के प्यार से वंचित। वह एक बीवी भी रही, वह एक छोटी सी बच्ची की मां भी है। वह एक ऐसे समाज में भी रहती है जहां रोज दो वक्त का भोजन जुटाने के लिए उसे कितनी मेहनत करनी पड़ती है। वैसे तमिल एक्ट्रेस राजश्री के निभाए इस किरदार और बाला की फिल्म की इस मां के साथ ट्रैजेडी यही है कि उसके मन का दर्द जानने वाले दर्शक न के बराबर होंगे, उनके लिए सरसरी तौर पर फिल्म देखकर समझना ही तुरत-फुरत वाला चारा बचता है।
तो शुरुआत के लिहाज से नंदा हमारी फिल्मी कहानियों के सत्या और शिवा से यूं अलग है। हां, वह मां के प्यार के लिए सदा यूं ही तरसता है जैसे ‘अग्निपथ’ का विजय (अमिताभ या फिर ऋतिक) तरसता रहता है। मैं मानना चाहूंगा कि बाला, 1990 में आई मुकुल आनंद की ‘अग्निपथ’ के पक्के दीवाने रहे होंगे। क्योंकि नंदा और उसकी मां का रिश्ता हूबहू वैसा ही है जैसा मुकुल आनंद की फिल्म में मां सुहासिनी चौहान (रोहिणी हट्टंगडी) और बेटे विजय (अमिताभ) के बीच होता है। सुहासिनी विजय के हिंसक रास्ते से इत्तेफाक नहीं रखती, पर विजय को मांडवा चाहिए। वो मांडवा जहां उसके आदर्शों-सिद्धांतों पर चलने वाले शिक्षक पिता दीनानाथ को चरित्रहीन करार देकर मार डाला जाता है। विजय को गलत होकर उस दुनिया को जीतना है, जो जरूरत के वक्त ‘उसके सही’ का साथ नहीं दे पाई। उसे हर उस पेट्रोल पंप को आग लगा देनी है जहां उसकी या किसी भी मां की आबरू पर हाथ डाला गया।
इन मायनों में नंदा चाहे अलग हो जाता है, अन्यथा वह विजय दीनानाथ चौहान ही है। उसे अपनी मां के हाथ से जिंदगी में बस एक बार दाल-भात खाना है। पुरानी फिल्म में अमिताभ का यादगार खाने की मेज पर मां से बातचीत का दृश्य ले लें, या फिर ऋतिक रोशन करण मल्होत्रा की ‘अग्निपथ’ में ज्यों खाते हैं, नंदा भी यूं ही एक बार मां से झगड़ता है। वह जबरन उसके हाथ में दाल-भात देकर खाने की कोशिश करता है। जाहिर है ये उन दोनों ‘अग्निपथ’ फिल्मों का प्रतिकृति दृश्य है। ये मजबूत विजुअल संवाद हैं। इसी बीच नंदा की कहानी से कहीं न कहीं जुड़ने की कोशिश करती है महेश मांजरेकर की ‘वास्तव’। चूंकि 1999 में ‘वास्तव’ की रिलीज के एक साल बाद ही नंदा भी लगी थी, तो सीधे तौर पर उसे ‘वास्तव’ के ज्यादा करीब ही माना जाता है। समानताएं भी हैं। ‘वास्तव’ और ‘नंदा’ का पटाक्षेप एक सा है। शांता (रीमा लागू) अपने बेटे रघु (संजय दत्त) को आखिर में अपने हाथ से खाना खिला ही देती है, जैसे कि नंदा की मां उसे।
इस वक्त नंदा के भीतर जो भी हो रहा होता है, उसकी गूंगी-बहरी और पत्थर हो चुकी मां के भीतर जो भी हो रहा होता है, वह भावनाओं और आंसुओं का परमाणु विस्फोट सा होता है। ऐसा दुख जिसकी कल्पना भी कर पाना असंभव है। आज के असंवेदनशील समाज में तो बिल्कुल ही असंभव। पर बाला ये सब फिल्माकर दिखाते हैं। मैं इस आखिरी सीन को हिंदी सिनेमा के कुछ सबसे बेहतरीन (सिर्फ सिनेमैटिक सुंदरता के लिहाज से नहीं) भावनात्मक कोलाहल वाले पलों के रूप में याद रखूंगा। ऐसे सीन और यहां तक पहुंचने की कहानी की परिणीति हमारी कहानियों में बहुत कम रची गई है।
फिल्म को सबसे अधिक मानवीय और सम्प्रेषक बनाता है लोडुकू पंडी (लंगड़ पांडे) का किरदार। इसे निभाया है करुणास ने। तमिल फिल्मों के हास्य अभिनेता। उनका लंगड़ाकर दौड़ने के अंदाज में चलना और गाने गाना और गोल-गोल घूमना ये सब वो मैनरिज्म हैं जो उनके निर्देशक बाला और उनके इम्प्रोवाइजेशन से निकले लगते हैं। बाला ने तमाम किरादारों के व्यावहारिक लुक के बीच लोडुकू पंडी के किरदार पर भी एक खास रंग-रूप रख छोड़ा है। जैसे उसके सीधे तरफ की कनपट्टी पर एक छोटी सी चोटी लटकी रहती है। ऐसे किरदार इस किस्म की चोटियों के साथ हमारे गांव-देहात में होते हैं। वो ऐसी चोटियां या बाल क्यों रखते हैं इसकी वजह तो नहीं बता सकता है पर फिल्मी भाषा में ऐसे पेंतरे काम करते हैं, उसपर भी अगर बाला जैसा निर्देशक हो और अपने कथ्य को गंभीरता और आसान तरीके से आगे बढ़ाए तो ये पेंतरे या युक्तियां दर्शकों पर अमिट असर छोड़ती है। घर जाने के बाद भी लोग ऐसे किरदार को और उसके लुक को नहीं भूलते। ऐसे लुक और मैनरिज्म (जो मौलिक है) की वजह से ही एक करुणास, दर्शकों के लिए कोई तमिल हास्य अभिनेता नहीं रह जाता है, वह उनके लिए नंदा नाम के एक लड़के का दोस्त लोडुकू पंडी हो जाता है।
यह नंदा का बेहद हंसोड़ और जिंदादिल किस्म का दोस्त है, जिसे चोरी करने की बड़ी अच्छी आदत है। अच्छी यूं कि लोग हंसते हैं, बुरी यूं कि मूलतः वह अपराध करता है। पर इसी बीच मद्देनजर दृश्य वह भी है जहां लोडुकू नंदा और कल्याणी (लैला) के लिए स्टोव पर रोटियां बना रहा होता है। घर ईंटों का है। कोई सुख सुविधा नहीं है। वह बिल्कुल साधारण है। उसकी कोई महत्वाकांक्षा रईस बनने की नहीं है। वह तो बस अपने सुख - सुविधाहीन जीवन में भी किसी न किसी कारण से खुश रहना चाहता है। न वो कभी किसी लड़की पर बुरी नजर डालता है। हर वक्त हंसता रहता है। कल्याणी के धर्मभाई का फर्ज अच्छे से निभाता है। ऐसे में अगर उसकी चोरियां आती हैं, तो वो सच्ची भी लगती हैं और उसके लिहाज से हमें हंसाती हैं। खैर, चोरी तो चोरी है और उसके लिए कानून भी है, लोगों को ही हमेशा चुनना होता है कि वो भावुक होकर उसे चोरी की सजा से बरी करके अपने दिल में जगह देना चाहते हैं कि कानूनी दिमाग से उसे चोर ही मानते हैं, उसके अलावा कुछ नहीं। अभी के लिए तो ये पुख्ता तौर पर कह सकता हूं कि विश्व के किसी भी सिनेमा के दर्शक अंततः भावुक ही होना पसंद करते हैं।
Official poster of Nandha, on it are seen the faces of Rajkiran and Surya. |
नंदा पर पेरियावर (राजकिरण) की सरपरस्ती है। वो हिंदी या अमेरिकी फिल्मों की स्वाभाविक बुरे इंसान वाली छवि से बिल्कुल उलट है। वह राजाओं के परिवार से है। शहर की तकरीबन हर सार्वजनिक इस्तेमाल की जगह उसके दादा और पिता की बनाई हुई है। राजपाट चला गया तो सबकुछ सरकारी हक में चला गया। इस जगह में कहने को सरकार का नियम-कायदा चलता है, पर लोगों की असली मदद वही करता है। वह मुखिया है। एक अघोषित कानून (जो गैंगस्टर्स जैसा, या बुरा या मतलबी नहीं है) चलता है। वह स्थिर है। नंदा जब किशोर सुधार गृह से नौजवान बनकर लौटता है तो फिर से सामान्य सामाजिक जीवन में लौटना चाहता है, ताकि उसकी मां उसे स्वीकार कर ले। उसका सबसे प्यारा दोस्त लोडुकू पंडी कहता है कि “यार तू तो पढ़ाई लिखाई में होशियार भी है, आगे पढ़ ले। हम जैसे ही लोगों के बीच से ही निकला था वो, क्या नाम था उसका, मंडेला, उसे भी पढ़ाई ने ही रास्ता दिखाया था”। तो यहां नंदा कॉलेज जाने का मन बनाता है। पर प्रिंसिपल उसके जूवेनाइल होम की पृष्ठभूमि को देखते हुए कहता है कि “कॉलेज में तभी प्रवेश मिल पाएगा जब मुखिया जी कहेंगे”। मुखिया पहली ही नजर में नंदा को देखता है और कहता है “तुम्हें एडमिशन क्यों नहीं मिलेगा। जाओ, मैं तुम्हारे बारे में उनसे बात कर लूंगा”। इस तरह बिना किसी मानसिक भ्रष्टाचार और बुराई के वह नंदा का साथ देता है।
राजकिरण का ये किरदार श्रीलंकाई शरणार्थियों के मुददे पर भी एक पक्ष लेता है। (बाला की फिल्मों में जहां भी श्रीलंकाई तमिलों का जिक्र आता है, वहां वो उनका पक्ष लेते दिखाई देते हैं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि जिन दिग्गज सिनेमैटोग्राफर-डायेक्टर बालू महेंद्रा की फिल्मों में असिस्टेंट रहकर बाला ने फिल्मों का अमृत रहस्य जान लिया है, वो बालू श्रीलंकाई मूल के हैं। तो काफी वक्त साथ रहने का ये असर आता ही है।) जब उनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता है और सिविल सर्वेंट हाथ पर हाथ धरकर सरकारी मंजूरी का इंतजार कर रहे होते हैं तब तत्क्षण मुखिया, नंदा और कुछ खाली बोट लेकर जाता है और सबको लेकर आता है। वह ट्रांजिट कैंपों में भी निस्वार्थ भाव से मदद करता रहता है। कॉलेज में जब एक लड़की की इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा गुंडा लड़की के ही हाथों मारा जाता है तो नंदा उसे सबकी नजरों से बचाता है। लड़की का पिता बेटी को लेकर मुखिया के पास आता है। बेटी पर कोई केस तो नहीं कर देगा, उसने ये हत्या जानबूझकर तो नहीं की है, अपनी रक्षा में की है। ऐसी बातें कहता है। इस पर मुखिया उसके पिता को आश्वस्त करता है कि तुम जाओ तुम्हारी बेटी को कुछ नहीं होगा। जब बाद में नंदा की मां मुखिया के पास आती है और कहती है कि मुझे अपना बेटा बस जिंदा चाहिए, उसने पैदा होने के बाद से कभी कोई सुख नहीं देखा। मैं मेरे लिए नहीं, बस उसके और उसकी होने वाली बीवी के लिए चाहती हूं कि वो जीवित रहे। इन सभी मौकों पर मुखिया अपनी सत्यनिष्ठा को साबित करता है।
मुखिया के रोल में राजकिरण की गंभीर अदाकारी एक समुद्री एंकर का काम करती है। फिल्म के एक सिरे पर वह खड़े रहते हैं, उनके चेहरे पर ही नहीं भीतर भी मुखिया पलता है। जो सिद्धांतवादी है, और सिद्धांतों के लिए, दूसरों की मदद के लिए हिंसा का सहारा लेने से नहीं चूकता। हां, पर हिंसा फिजूल भी नहीं करता। राजकिरण खुद एक उम्दा अभिनेता और फिल्म निर्देशक हैं। तमिल फिल्मों में उनकी अदाकारी वैसी ही है जैसी हिंदी फिल्मों में अपनी चरित्र भूमिकाओं में अमरीश पुरी की होती है। मसलन, ‘विरासत’। मुझे आश्यर्च होता है कि हिंदी फिल्मों ने आज तक कभी उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया है?
बाला अगर अपनी रचनात्मक विस्फोट भरी फिल्म ‘नान कडवल’ (अहम ब्रह्मास्मि) में अघोरी रुद्रां (आर्या) के हाथों अंधी सुरीली भिखारिन हम्सावल्ली (पूजा उमाशंकर) को मानव जीवन से मुक्त करने जैसा विवादित शास्त्ररूप अर्थों वाला फैसला लेते हैं, तो सात-आठ साल पहले ‘नंदा’ में भी ये टिप्पणी नजर आ चुकी होती है। फिल्म का वो आखिरी मौका जब मुखिया और नंदा बातचीत कर रहे हैं, वो एकमात्र मौका जब मुखिया शराब पीकर अपनी नन्ही सी नातिन को अपने पास प्यार से बुलाता है और वो नहीं आती है, वो पहला और आखिरी मौका जब वो नंदा को अपने दर्शन वाला ज्ञान दे रहा होता है, कहता है, “इस धरती पर जब-जब पाप बढ़ेगा, हम और तुम अवतार लेंगे। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। ऊपर से कोई नीचे आता है तो अधर्म का नाश करने के लिए। तू इसीलिए ऊपर से आया है। और चिंता मत कर हर पल मैं तेरे साथ हूं, हमेशा, साए की तरह। समझ गया न”। जाहिर है हिंदी फिल्मों के और दक्षिण भारत की चार-पांच भाषाओं में बनने वाली मनोरंजक फिल्मों के नायक को अघोषित तौर पर अपने बारे में यही लगता है, कि वह ब्रह्म है। कि “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम” भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हीं के लिए गीता के ज्ञान में कहा था। वैसे बाकी फिल्मों में ऐसा विश्लेषण की अनुमानित परतों में ही छिपा होता है (फिल्म समीक्षकों-आलोचकों के खोजने के लिए) कोई हीरो कहता या सोचता नहीं है, पर वह करता सबकुछ इसी आधार पर है। तो ये बाला का तरीका है। धर्म और शास्त्रों को संदर्भ तारीफ और आलोचना के स्वरों में साथ लेकर चलते हुए।
उनकी इस फिल्म में संगीत युवन शंकर राजा ने दिया है। वह दक्षिण भारत के शीर्ष संगीत निर्देशक इल्याराजा के बेटे हैं। फिल्म के शुरुआती हिस्से को उनका पार्श्व संगीत आधार देता है। वह बांसुरी और देसी साजों का सुमधुर इस्तेमाल करते हैं। ये संगीत कुछ वैसे ही साजों वाला है जो हमने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ जैसे टीवी विज्ञापनों को सुनते हुए महसूस किया होगा, या आजकल डीडी भारती में टीवी के स्वर्णिम युग के कार्यक्रमों का पुनर्प्रसारण देखते वक्त होता है। मगर फिल्म के आधे हिस्से तक पहुंचते-पहुंचते उनका संगीत जैसे गायब सा हो जाता है, जो गाने इस दौरान आते हैं उनमें से एक भी फिल्म के लिये ज्यादा मददगार नहीं होते। ये भी लगता है कि बाला ने फिल्म की वित्तीय सफलता को ध्यान में रखते हुए ये नाच-गाने डालें हों। फिल्म को समग्र रूप में देखें तो युवन का संगीत कहीं-कहीं उभरकर ढीला पड़ा दिखता है। फिर भी फिल्म को उत्साहजनक शुरुआत देने के लिए और उसका आधार मजबूत करने के लिए उनके बैकग्राउंड म्यूजिक को सराहा जा सकता है।
Surya as Nandha and Laila as Kalyani, a still from the movie. |
सूर्या, राजकिरण और करुणास अगर फिल्म में मजबूत पहिए हैं तो मां की भूमिका में राजश्री और कल्याणी बनी लैला के रोल फिल्म की परिभाषा में कहीं जुड़ते नहीं हैं। ये वो किरदार हैं, जिनके भीतर काफी कुछ है, पर सतह (चेहरों पर) पर भावनात्मक स्पष्टता नहीं है। मसलन, नंदा की मां गूंगी और बहरी तो है ही, फिर उसका अपने बेटे से बात नहीं करना और उसका मुंह तक नहीं देखना, दोनों के बीच पूरा संचार तोड़ देता है। इसी वजह से मां के किरदार का कम्युनिकेशन दर्शकों से भी टूट जाता है। ‘वास्तव’ में रीमा लागू इस संचार की अहमियत बताती हैं। संभवतः नंदा की मां जिंदगी से इतनी निराश हैं या इतनी ज्यादा टूट चुकी हैं कि वह मुंह उठाकर यह तक नहीं देखना चाहतीं कि वह जिंदा भी हैं कि खत्म हो गईं। यहीं पर अभिनय करने वाले की दुविधा शुरू होती है। कि वह इस किरदार को आगे कैसे बढ़ाए? ऐसे हालत में जब एक किरदार दब रहा हो तो फ्रेम में आ रहा दूसरा किरदार टेकओवर कर लेता है। जैसे, मां के साथ वाले सीन में नंदा पर सबकी नजर स्वतः ही चली जाती हैं। पटाक्षेप वाले दृश्य में भी जहर खिलाती मां से ज्यादा नजर जानबूझकर जहर खा रहे दयापात्र बेटे पर जाती है। दक्षिण भारत की अब रिटायर हो चुकीं, तब की अच्छी-खासी अभिनेत्री लैला का किरदार चाहे डीग्लैम लुक वाला एक सीधी-सादी श्रीलंकाई रिफ्यूजी लड़की का हो, पर अंततः उनका इस्तेमाल भी वैसा ही होता है जैसा किसी भी कमर्शियल हिंदी-तमिल फिल्म में ग्लैमरस हीरोइन का होता है। पहले ही सीन में जब एक द्वीप पर बड़ी तादाद में श्रीलंकाई रिफ्यूजी मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं, तो वहीं भीड़ में लेटी हुई कल्याणी नजर आती है। बस यही वो मौका होता है जब फिल्म उसके रोल को गरिमा देती है। इसके बाद सबकुछ किसी भी मसाला फिल्म की भांति होता जाता है।
इस फिल्म में भी बाला की सबसे बड़ी खासियत यही रहती है कि (गानों को छोड़कर) एक-एक फ्रेम गंभीरता से फिल्माया और एडिट किया गया है। कहीं पर भी रील का एक हिस्सा भी यूं ही नहीं छोड़ दिया गया है। एक-एक सीन सिनेमैटिक बुखार का फल लगता है। करीने से सजाया हुआ। अपने मुख्य किरदारों के उभार में भी बाला विशेषज्ञ हैं। उनके किरदार जब लड़ते भी हैं तो एक्शन धूसर और असली लगता है, कोई भी सीन केबल स्टंट वाला नहीं लगता। कॉलेज में गुंडे को पीटने वाला सीन अपवाद भी है और इस बात की तस्दीक भी।
नंदा को एक बार जरूर देखना चाहिए। यह ‘वास्तव’ और ‘अग्निपथ’ का निकोलस वाइंडिंग वेफ्न की फिल्म ‘ड्राइव’ जैसा ट्रीटमेंट लगती है। लगे भी क्यों न, ये उन्हीं बाला की फिल्म है, जिन्हें अनुराग कश्यप ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के शुरुआती क्रेडिट्स में अपनी जड़ों की ओर लौटकर फिल्म बनाने की प्रेरणा देने के लिए खास धन्यवाद कहते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी