वह उत्तरोतर बढ़ रही हैं। इस साल उनकी कई महत्वपूर्ण फिल्में आएंगी। दिल्ली की घटना पर अपने समूह के साथ बनाए उल्लेखनीय गीत मां नी मेरी, मैं नी डरना, तेरे वरगा मैं नी बणना... वाला होंसला उनमें है। उनसे पहले हुई बातचीत यहां पढ़ सकते हैं।
Swara Baskar. |
और कौन सी फिल्में आ रही हैं?
‘लिसन अमाया’ के अलावा ‘औरंगज़ेब’ है, यशराज फिल्म्स की। उसमें अर्जुन कपूर हैं डबल रोल में और मैं पृथ्वीराज सुकुमारन (अय्या वाले) के ऑपोजिट हूं। इसका निर्देशन अतुल सभरवाल कर रहे हैं। वह फिल्म लेखक रहे हैं। रामगोपाल वर्मा के साथ काम किया है। ‘माई वाइफ्स मर्डर’ फिल्म उन्होंने ही लिखी थी। सोनी पर एक यशराज का सीरियल आता था ‘पाउडर’, अतुल उसके लेखक-निर्देशक थे। फिर ‘रांझणा’ है। उसमें मेरे साथ धनुष (कोलावेरी डी), सोनम कपूर और अभय देओल हैं। बहुत मजेदार रोल है। परफॉर्मेंस ओरिएंटेड है। फिल्म के लेखक-निर्देशक आनंद राय हैं। कुछेक और फिल्में हैं जो इस साल रिलीज हो सकती हैं। ‘सबकी बजेगी बैंड’ मॉडर्न रिश्तों पर बनी एक कॉमेडी है। इसे अनिरुद्ध चावला डायरेक्ट कर रहे हैं, नए निर्देशक हैं। फिर एक हॉरर फिल्म है ‘मछली जल की रानी है’। इसका निर्देशन देबलॉय डे कर रहे हैं। दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था ‘स्वाभिमान’, ये उसके निर्देशक थे। फिर एक फिल्म आई थी ‘चंद्रमुखी’ (1993) जिसमें सलमान खान और श्रीदेवी थे, ये भी उन्होंने ही डायरेक्ट की थी। बाद में वो कैनेडा चले गए थे, अब इस फिल्म के साथ लौट रहे हैं।
‘लिसन अमाया’ की कहानी क्या है?
बड़ी स्वीट सी स्टोरी है। रिश्तों पर और खासकर मां-बेटी के रिश्ते पर आधारित है। दीप्ति नवल मेरी मां का किरदार कर रही हैं, मैं अमाया का किरदार कर रही हूं। अमाया की मां विधवा हैं और अपने फैमिली फ्रेंड (फारुख़ शेख़) से प्रेम करती हैं। अमाया को जब ये पता चलता है तो सबके जीवन में बदलाव आते हैं और तीनों किरदारों की यात्रा आगे बढ़ती है। बड़े सहज और संवेदनशील तरीके से बनाई गई है। कई फिल्म समारोहों में जा चुकी है, पुरस्कार भी मिले हैं। सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और फिल्म का पुरस्कार मिला था ‘न्यू जर्सी इंडिपेंडेंट साउथ एशियन सिनेफेस्ट-2012’ में। अब मार्च में लंदन जा रही है एक और फिल्म समारोह में हिस्सा लेने। जहां-जहां लोगों ने फिल्म देखी है, आखिर में एक मुस्कान साथ लेकर जा रहे हैं। एक संपूर्ण फिल्म है। इसमें हंसी-मजाक भी है, खिलखिलाहट के पल भी हैं, भावुकता भी है और साफ-सुथरी है। परिवार के साथ देख सकते हैं।
फिल्म की निर्देशक-लेखक जोड़ी अविनाश और गीता हैं, उनकी पृष्ठभूमि क्या है?
मूलतः दोनों दिल्ली में विज्ञापन फिल्में बनाते थे, अब पहली फीचर फिल्म बनाने मुंबई आए हैं।
माइक मिल्स की ‘बिगीनर्स’ हो या महेश मांजरेकर की ‘अस्तित्व’ या फिर नागेश कुकनूर की ‘मोड़’... ये बड़ी महत्वपूर्ण फिल्में रहीं, सिनेमा की व्यावसायिक मजबूरियों के कोलाहल से परे, कम किरदार, बांधे रखने वाला कथ्य और अच्छी कहानी लिए। जैसे कि संभवतः ‘लिसन अमाया’ है। मगर क्या ऐसा नहीं है कि ये भी उन्हीं फिल्मों की तरह कुछेक तक ही सिमट कर रह जाएगी या फिर फिल्म बनाने से पहले ही ये आप लोगों को स्पष्ट था?
Poster of Listen Amaya. |
मुंबई नगरिया में कैसे-कैसे अनुभव हो रहे हैं? ‘तनु वेड्स मनु’ के बाद प्रकार-प्रकार की स्क्रिप्ट आ रही होंगी?
‘तनु वेड्स मनु’ के बाद मुझे कई वैसे ही रोल पेश किए गए। इसी वजह से उस फिल्म के कुछ वक्त बाद तक मैं बहुत मना कर रही थी। मेरे कई महीने इनकार करने में निकल गए। फिर ये पांच फिल्में चुनी इस वक्त में, और पांचों में मेरी भूमिकाएं ऐसी हैं कि मैं बहुत खुश हूं। लग रहा है कि आगे भी उत्साहजनक काम आएगा। ‘रांझणा’ का अभी शूट चल रहा है और जैसे मैंने पिछली बार आपसे कहा था कि मुझे मीटी रोल चाहिए तो उस पर खुद भी खरा उतरने के लिए बहुत मेहनत कर रही हूं।
जीवन फिल्मी हो या कोई दूसरा, बहुत बार निराश होकर रोते हैं, जो पाना चाहते हैं या जो करना चाहते हैं, हो नहीं पाता। आपके साथ ऐसा कितनी बार हुआ है कि भूमिकाओं के स्तर की वजह से या खुद के अभिनय को ढूंढने की कोशिश करते हुए पर ढूंढ न पाते हुए, आप निराश हुई हों?
मुंबई में कोई भी एक्टर हो, स्थापित या नया... उसकी जिदंगी में ये आती-जाती रहती है, निराशा या असुरक्षा। मैं ‘तनु वेड्स मनु’ के तुरंत बाद वाले दिनों में निराश तो नहीं, पर परेशान हो जाती थी। क्योंकि मुझे आठ-नौ ऐसे रोल पेश किए गए जो पायल के किरदार की हूबहू नकल थे। मुझे तो लगा कि अपने फोन में रिंगटोन लगवा लूं कि “अगर आप मुझे हीरोइन की फ्रेंड के रोल के लिए फोन कर रहे हैं तो अभी रख दीजिए, नहीं तो मैं उठा रही हूं फोन”। मगर उसके बाद से मैं बहुत भाग्यशाली रही हूं। कुल-मिलाकर निराशा से बची हुई हूं। जब मैं शूट नहीं करती हूं तो काफी सारे एक्टिंग वर्कशॉप करती रहती हूं। चूंकि मैं एन.एस.डी. या एफ.टी.आई.आई. जैसे किसी स्कूल से नहीं हूं तो कहीं एक्टिंग करना भूल न जाऊं इस लिहाज से व्यस्त रहती हूं। मुंबई में हमारा छोटा सा थियेटर ग्रुप है, ‘स्वांग’, जिसके साथ हम थियेटर की वर्कशॉप या नाटक करते रहते हैं।
फिर भी परेशानी की घड़ी में तुरंत राहत पाने के लिए क्या करती हैं? कौन सी फिल्म देखती हैं, किताब पढ़ती हैं, मां को फोन करती हैं?
मैं बहुत परेशान हो जाती हूं तो दिल्ली चली जाती हूं अपने माता-पिता से मिलने। नहीं तो ‘अमर अकबर एंथनी’ देखती हूं और ‘केसाब्लांका’ देखती हूं। ये मेरी दो फेवरेट फिल्में हैं। बहुत ज्यादा खाना खाती हूं, मीठा खा लेती हूं बहुत ज्यादा। कुल मिलाकर बच ही जाती हूं।
जब दिल्ली न जाना हो पाए या तीन घंटे ‘अमर अकबर एंथनी’ देखने के लिए न हों तो क्या सूत्रवाक्य रहता है?
मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों के जो गाने हैं, वो जिंदगी की सबसे बढ़िया फिलॉसफी होते हैं। वो मुझे हमेशा काम आए हैं और अकसर याद रहते हैं। जैसे, “ओ राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है दुख तो अपना साथी है...” (दोस्ती, 1964)। मुझे लगता है कि इससे सच्ची बात लाइफ में इन चीजों को लेकर नहीं बोली गई है। दूसरा, देवआनंद साहब का गाना, “मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया…” (हम दोनों, 1961)। मुझे कमाल लगते हैं ये दोनों दर्शन। इन्हें अगल-बगल में इंसान रखकर चले तो कट जाएगी।
‘स्वांग’ के बारे में बताएं, इसे कितना वक्त देती हैं?
मुंबई में हमारा ये लेखकों, निर्देशकों, अभिनेताओं और संगीतकारों का छोटा सा समूह है। सब अलग-अलग कोशिश कर रहे हैं बॉलीवुड में जाने की। सब उसी जनवादी कला और थियेटर से आते हैं। कुछ लोग इप्टा के सदस्य थे, कुछ दिल्ली की एक और संस्था के सदस्य थे। अलग-अलग समूहों से थे और मुंबई आकर हम सभी जुड़े। यहां हमने एक बड़ा अच्छा नुक्कड़ नाटक तैयार किया, पंजाब के नामवर कवि पाश की कविताओं पर आधारित, उसका नाम था ‘बीच का रास्ता नहीं होता’। पुणे और मुंबई में उसके शो किए। पहली बार कविता को नुक्कड़ नाटक के प्रारूप में किया जा रहा था और प्रतिक्रियाएं बहुत अच्छी रहीं। अभी इस ग्रुप ने एक गाना बनाया है, ‘मां नी मेरी मैं नी डरना’, दिल्ली की घटना के संदर्भ में। इसे रविंदर रंधावा ने लिखा और ग्रुप में संगीतकार हैं रोहित शर्मा उन्होंने कंपोज किया है।
‘रांझणा’ में फिर आनंद राय के साथ काम कर रही हैं…
बहुत खुश हूं। मुझे लग रहा है कि शायद इस बार मैं उनको बेहतर समझ पा रही हूं, उनके निर्देशों को बेहतरी से ले पा रही हूं। हम लोग 31 दिसंबर को बनारस में ही थे और न्यू ईयर सेलिब्रेशन हमने गंगा नदी में एक बोट पर किया था। वहां मैंने आनंद सर को कहा था कि “पता है अगर मैं ये फिल्म हॉल में देखती और मैं ये किरदार नहीं निभा रही होती तो मेरा दिल टूट जाता इसलिए थैंक यू सो मच”। बहुत कमाल का कैरेक्टर हैं। राइटर हिमांशु शर्मा ने कमाल लिखा है। इसमें बिंदिया का रोल कर रही हूं जो शायद पायल से भी मजबूत होगा। मैं पूरी उम्मीद कर रही हूं कि ये वैसे ही निकले जैसे लिखा गया था। दर्शकों को बिंदिया जरूर याद रहेगी, क्योंकि अभी तक जितने किरदार किए हैं उनमें सबसे मजेदार ये रहा है।
एक्सेंट बनारस का पकड़ा होगा?
कोशिश तो की है। बहुत ज्यादा भी भोजपुरी नहीं जा रहे थे। ऐसी भाषा रखी है जो एक आम हिंदी भाषी को समझ में आए और महाराष्ट्र, गुजरात, बेंगलुरु के दर्शकों को भी। फुल भोजपुरी नहीं है पर हां एक टच देने की कोशिश की है। मेरी नानी दरअसल बनारस की हैं, उनकी पैदाइश और परवरिश वहां की रही है।
‘औरंगज़ेब’ में क्या किरदार है?
ज्यादा तो नहीं बता पाऊंगी पर एक एक्शन ड्रामा है। मेरा किरदार एकदम अलग किस्म का है। उसके आसपास इतना कुछ हो रहा है पर बाकी सभी से ये बिल्कुल अलग दिखती है। ‘लिसन अमाया’ की अमाया, ‘रांझणा’ की बिंदिया और ‘औरंगज़ेब’ की सुमन ये तीनों विपरीत किरदार हैं। एकदम अलग-अलग दिशाओं में खड़ी औरतें हैं। ‘औरंगज़ेब’ शायद 17 मई को रिलीज हो रही है और ‘रांझणा’ शायद 28 जून को, तो उस वक्त तक मैं बिल्कुल अलग-अलग रोल कर चुकी होऊंगी।
तीन-चार महीने में दोनों पूरी हो चुकी होंगी?
हां, तकरीबन शूट तो हो ही चुका है। ‘रांझणा’ का म्यूजिक ए. आर. रहमान साहब तैयार करने में लगे हैं।
इन दिनों टेलीविजन पर माधुरी दीक्षित का ओले क्रीम का विज्ञापन चल रहा है, उसमें (क्रीम बरतने के बाद परिणाम के तौर पर) उनका चेहरा फोटोशॉप से ज्यादा गोरा और समतल बनाकर दिखाया गया है। 2011 में ब्रिटेन की एक विज्ञापन नियामक एजेंसी ने जूलिया रॉबर्ट्स के ऐसे ही विज्ञापन पर, इसी वजह से रोक लगा दी थी। फिर प्राकृतिक खूबसूरती के साथ डॉक्टरी छेड़छाड़ के उदाहरण लें तो लगता है अनुष्का शर्मा ने अपने ऊपरी होठ को हाल ही में ज्यादा रसीला बनाया है। कटरीना-कंगना और कई दूसरी संभवतः ऐसा पहले करवा चुकी हैं। हो सकता है आपको भी कभी ऐसे फैसले लेने पड़ें। तो सवाल ये है कि इन कदमों से आप कितनी सहमत हैं? दूसरा, ब्यूटी की जो मौजूदा परिभाषा अभी की फिल्में और इन अभिनेत्रियों के डॉक्टरी फैसले गढ़ रहे हैं, वो परिभाषा कितना प्रतिनिधित्व करती है पायल और बिंदिया जैसी औसत हिंदुस्तानी लड़कियों का, निम्न-मध्यमवर्गीय लड़कियों को छोड़ भी दें तो?
मैं इस पर तो कुछ नहीं कहूंगी कि कौन सी एक्ट्रेस ने क्या किया, क्या नहीं किया। निजी पसंद भी होती है लोगों की। आपका शरीर है आपको जो करना है उसके साथ। मैं सिर्फ अपनी बात बोलूंगी। मुझे किसी ने एक बार लैला-मजनू की कहानी सुनाई थी, शायद सच हो, कि किसी ने लैला को देखा तो मजनू के पास आकर बोले, “भई तुम पागल-वागल हो क्या, मतलब काली है”। तो मजनू हंसकर बोले, “भई लैला की सुंदरता देखने के लिए तुम्हें मजनू की आंखें चाहिए”। मुझे भी ऐसा ही लगता है। ब्यूटी का कोई एक नोशन या पैमाना नहीं होता है और नहीं भी होना चाहिए। कहावत भी है कि ‘सुंदरता देने वाले की आंखों में होती है’। हां, ये जरूर है कि मुंबई की इंडस्ट्री ऐसी जगह है जो आपको असुरक्षित बना सकती है। एक एक्टर या औरत के तौर पर सुंदरता को लेकर, उम्र को लेकर, मोटापे और पतलेपन को लेकर। मैं खुद हर वक्त यही सोचती रहती हूं कि मोटी हो रही हूं, पतली हो रही हूं, छोटी हो रही हूं, क्या हो रही हूं। अगर उस पथ पर अग्रसर हो जाएं तो आप बहुत असुरक्षित हो सकते हैं। लेकिन मैं अपने बारे में बोलूंगी कि मैं बहुत कोशिश करती हूं एक संतुलन बनाकर चलने की। जहां तक सर्जरी या सर्जिकल प्रोसेस का सवाल है, तो मैं इन सबसे अभी तक तो बची ही हुई हूं। आगे भी बचूंगी। मुझे बस एक ही डर लगता है कि अगर एक बार आप शुरू हो गए तो फिर कहां रुकेंगे। ये भी ठीक नहीं लगेगा, वो भी ठीक नहीं लगेगा। दिमाग जो है न वो सच में शैतानखाना है और मैं अपने आप को जानती हूं, अगर मैं एक बार शुरू हो जाऊंगी तो पता नहीं कहां जाकर रुकूंगी। इसलिए अच्छा है कि मैं उस पथ पर जाऊं ही ना। जहां तक इन गोरेपन और कालेपन वाले विज्ञापनों की बात है तो मुझे बड़े ऑफेंसिव लगते हैं ये। जैसे ये फेयर एंड लवली वाले विज्ञापन या इस किस्म का जो रंग को लेकर फितूर है हमारे देश में, खासकर लड़कियों को लेकर, ये मुझे बहुत नारी विरोधी लगता है। बहुत बुरा लगता है। ये हम लोगों के जीवन में एक रियल प्रॉब्लम हो सकती है। जैसे मेरी क्लास में ही लड़कियां होती थीं और लड़के उन्हें काली-काली कहकर परेशान करते थे। ये बड़ा मूर्खतापूर्ण है।
‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में ऋचा चड्ढा की भूमिका को ही लें तो अब किरदार ऐसे लिखे जा रहे हैं कि उनके लिए आपको खास हिंदी-अंग्रेजी उच्चारण, विशेष चेहरे-मोहरे या आकार की जरूरत नहीं पड़ेगी। एक औसत हिंदुस्तानी लड़की वाले नाक-नक्श चलेंगे।
हां, ये बहुत अच्छी बात है। क्या रोल था, ऋचा ने कमाल का परफॉर्मेंस दिया है। मैं स्कूल टाइम से ही उसे बहुत अच्छे से जानती हूं। उसने बहुत बढ़िया काम किया और बहुत अच्छी एक्ट्रेस है वो। जैसे एक सीन है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ में जहां वो गाना आता है “तार बिजली से पतले हमारे पिया...” उसमें ऋचा एक जगह गाते हुए ही रोने लगती हैं... क्या कमाल का सीन किया है। मैंने उसे फोन करके कहा भी था कि यार तुमने तो शानदार निर्वाह किया है। तो ऐसे रोल लिखे जा रहे हैं, वाकई में अच्छी बात है। ऐसे ही रोल में आपको अपना अभिनय दिखाने का मौका मिलेगा।
मुंबई में नए-नए फिल्मकार पंख फैलाने की तैयारी में हैं, आपकी उन पर नजर है?
मैं किसी समूह का हिस्सा तो नहीं हूं, पर जानती हूं कि मुंबई में सिनेमा के लिए बहुत अच्छा दौर अभी है। सब अवसर खुल रहे हैं। युवाओं को, नए अभिनेताओं को, राइटर्स को, डायरेक्टर्स को मौके मिल रहे हैं। मैं भी चाहती हूं कि अच्छे रोल करूं। मैंने तो पहले भी कहा है कि एक लालची एक्टर हूं। मैं चाहती हूं कि मुझे और बेहतर, बेहतर, बेहतर काम मिले और बेहतर परफॉर्मेंस करने का मौका मिले। कि मैं ऐसी फिल्म करूं जिसे करने के बाद थक गई हूं, दस किलो वजन घट गया है, दिमाग खाली हो गया है, कुछ समझ नहीं आ रहा है, इमोशनली आप बह गए हो। बहुत ख्वाहिश है कि उस स्तर का अनुशासन एक एक्टर के तौर पर खुद के अंदर ला पाऊं। इस लिहाज से मैं खुद को एक नए और छोटे बॉलीवुड का हिस्सा मानती हूं।
आपकी मां सिनेमा पढ़ाती हैं और सिनेमा पढ़ाते हुए जिन चीजों की आलोचना करती हैं या सिनेमा को जिस तरह देखना सिखाती हैं या खुद जैसे देखती हैं, उसका कितना असर आप पर पड़ा है, फिल्मों को देखने के आपके तरीके पर और रोल करने के आपके फैसले पर?
काफी अलग है हमारी सोच। क्योंकि मां स्कॉलर, शिक्षक और विश्लेषक के तौर पर फिल्मों को देखती हैं। एक लिहाज से जिसे आप सिनेमा एप्रीसिएशन कह सकते हैं। जब मेरे पास स्क्रिप्ट आती है तो मैं एक्टर के नजरिए से देखती और सोचती हूं। थोड़ा ये देखती हूं कि मेरा रोल कैसा लग रहा है, क्या है इसमें, कितनी बड़ी फिल्म है, कितनी छोटी फिल्म है... ये सब मैं भी सोचने लगी हूं, थोड़ी दुकानदारी में लग गई हूं, यू नो। कुछ साल मुंबई में रहते हुए हो गए तो इस मामले में खुद को बिल्कुल दूध की धुला नहीं मानूंगी।
लेकिन जब आप सिनेमा की दुनिया में नहीं आईं थीं तब तक तो आप पर असर रहा होगा क्योंकि जैसी फिल्मों या उससे जुड़े साहित्य का ढेर आपके घर लगा रहता होगा...
कभी-कभी मेरी मम्मी कहती हैं कि तुम मुझे बिल्कुल घर की मुर्गी दाल बराबर ट्रीट करती हो। सारी दुनिया आकर मुझसे फिल्म ले जाती है और तुम्हें कोई कद्र नहीं है मेरी फिल्मों की। लेकिन हां, मैं अपनी मां के कई लेक्चर में बैठी हूं, बहुत अच्छी टीचर हैं और मजेदार ढंग से पढ़ाती हैं। उनके साथ कई फिल्में भी देखी हैं। यहां तक कि मैंने अंतरराष्ट्रीय फिल्में बहुत कम देखी हैं पर जितनी भी देखी हैं मां के साथ ही देखी हैं। जाहिर है असर तो रहा ही है और संभवतः फिल्मों के लिए मेरे अंदर जो प्रेम है वो मुझे मेरी मां से मिला है विरासत में। अब तो वो व्यस्त रहती हैं और कुछ-कुछ मैं भी।
विदेशी फिल्में जो आपने उनके साथ देखीं और हिल गईं?
‘डांसर इन द डार्क’। मेरी हालत खराब हो गई। इसके निर्देशक हैं लार्श वॉन त्रियर। मैं इतनी डिस्टर्ब कभी किसी फिल्म को देखकर नहीं हुई हूं जितनी ‘डांसर इन द डार्क’ (2000) को देखकर हुई। और कमाल का परफॉर्मेंस था, और जो सिंगर्स इसमें लिए हैं... ये मैंने अपनी मां के साथ देखी थी। पेड्रो एल्मोडोवर की कई फिल्में देखी हैं, जैसे एक थी ‘ऑल अबाउट माई मदर’ (1999)। तो ये दो फिल्में आज भी जेहन में ताजा हैं।
कॉमोडोर भास्कर (पिता) ने आपकी कौन सी फिल्म देखी है, उनको कैसी लगी?
वैसे बिल्कुल फिल्में नहीं देखते पर मेरी सारी फिल्में देखते हैं। जब मैं ज्यादा परेशान कर रही होती हूं तो इन दिनों धमकाते हुए कहते हैं, “देखो तुम मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो मैं भी आ जाऊंगी मुंबई, एक्टर बनने”। तो मैं कहती हूं कि नहीं प्लीज मुंबई मत आना। तो मेरी सारी फिल्में मेरे पेरेंट्स देखते हैं, मेरे करियर में पूरे जोश से रुचि लेते हैं। जब मुझे पिछले साल नॉमिनेशन मिले थे तो पेरेंट्स साथ आए थे अवॉर्ड सेरेमनी में।
अपने किरदारों को आप कैसे सुनती है? कैसे समझती हैं? कैसे आत्मसात करती हैं? कैमरे के सामने कैसे खुद को अभिव्यक्त करती हैं? जैसे सीन्स के बीच में, कुर्सी पर बैठे हुए, उस दिन का शेड्यूल खत्म कर घर जाते हुए रास्ते में, रात को सोते हुए, सुबह उठकर स्पॉट पर पहुंचते हुए... क्योंकि आपको हर किरदार में जान डालनी है तो ऐसी कई क्रियाएं करनी पड़ती हैं। जैसे मैंने दीपक डोबरियाल से बात की थी तो उन्होंने अपनी अनूठी क्रिया बताई, इरफान खान भी ऐसा करते हैं। नतीजतन ‘तनु वेड्स मनु’ में जिस किस्म के पप्पी भैया दीपक बने थे शायद वैसा यू.पी. वाला किरदार कोई पहले नहीं आया है, आता भी है तो बड़ा घिसा-पिटा। फिर ‘नॉट अ लव स्टोरी’ में उन्होंने चौंका दिया। आपकी क्या प्रक्रिया रहती है, आप खुद से कैसे बात करती हैं? किरदार सुनने से लेकर कैमरे के आगे अभिव्यक्त करने के बीच क्या-क्या चीजें हो जाती हैं?
मेरा थोड़ा अजीब है मामला। चूंकि मैं कॉलेज में लिट्रेचर की स्टूडेंट रही हूं तो मुझे अपने हाथ में सबसे पहले स्क्रिप्ट चाहिए। मैं बहुत असुरक्षित हूं अपनी स्क्रिप्ट को लेकर, मुझे उसे बार-बार छूने की जरूरत पड़ती है। वो हर वक्त मेरे पास रहती है। मुंबई में जैसे आदत होती है कि आपको सीन के प्रिंट मिलते हैं, लेकिन मैं हमेशा कहती हूं, मुझे नहीं चाहिए मेरे पास अपनी स्क्रिप्ट है। मैं दो-तीन बार पढ़ती हूं स्क्रिप्ट को। फिर अपनी समझ के हिसाब से और जो भी डायरेक्टर से ब्रीफ मिला है, उसके नोट्स बनाना शुरू करती हूं। आप अगर मेरी स्क्रिप्ट देखेंगे तो वो पूरी लिखाई से भरी हुई है, आगे-पीछे नोट्स लिखे पड़े हैं। जैसे स्टूडेंट्स वाली हरकतें होती हैं। फिर ये करती हूं कि कहानी में जहां मेरा किरदार आता है उससे पहले जब वो पैदा हुआ, उसके पैदा होने से फिल्म की कहानी में प्रवेश करने तक की पूरी काल्पनिक कहानी अपने मन में बना लेती हूं। फिर फिल इन द ब्लैंक्स की तरह सोचती हूं। मतलब छोटी सी चीजें हैं, स्टूपिड चीजें हैं, कि उसे कौन सी फिल्म पसंद आती होगी? उसके दोस्त कैसे होंगे? वह क्या खाना पसंद करती है? उसे किसके सपने आते हैं? स्टूपिड चीजें... जिसका कोई लेना देना नहीं है फिल्म में लिखी उसकी घटनाओं से। मैं उसकी समग्र (होलिस्किटक) पर्सनैलिटी बनाती हूं। जैसे वो लड़की बीच-बीच में आ रही है फिल्म में, तो जहां-जहां नहीं नजर आ रही है तब क्या कर रही होगी? ये मैं अपने लिए चुन लेती हूं। फिर मेरे लिए बहुत जरूरी है कि लड़की कहां की है? किस परिवार में पैदा हुई है? तबका क्या है? मध्यमवर्गीय या निम्न मध्यमवर्गीय या मजदूर वर्ग की है? उसके हिसाब से उसका बॉडी लैंग्वेज, हाव-भाव तय होगा। मतलब न सिर्फ उसके कपड़े... जैसे एक अंदाज होता है न कि सलवार-कमीज पहनकर भी आप साउथ डेल्ही के ही लगोगे... लेकिन अगर आप स्लम के हो या छोटे शहर के हो तो आपकी चाल अलग होगी। आपके कंधों की मुद्रा अलग होगी। तो इन सब चीजों पर ध्यान देने की कोशिश करती हूं। स्पीच या भाषा को लेकर बहुत जागरुक रहने की कोशिश करती हूं। ये देखती हूं कि आप किस उम्र का किरदार निभा रहे हैं। जैसे ‘लिसन अमाया’ में मैंने एक यंग एनर्जी लाने की कोशिश की है। ‘औरंगज़ेब’ में मेरे किरदार में स्थिरता है तो स्थिरता पकड़ने की कोशिश की है। ‘रांझणा’ में बिंदिया अल्हड़ है पागल है थोड़ी सी। तो उस किस्म की एनर्जी पकड़ने की कोशिश की है मैंने। मूलतः मेरी प्रक्रिया यही रहती है। मैं बार-बार वापस जाती हूं स्क्रिप्ट पर, उसे पढ़ती हूं, नोट्स को बार-बार पढ़ती हूं। ये सारी की सारी कवायद करने के बाद मैं खुद में ही वो सीन विजुअलाइज करती हूं। मतलब बिना डायरेक्टर के डायरेक्शन के, बिना ब्लॉकिंग के। और फिर मैं कोशिश करती हूं कि सेट पर आकर ये सारा भूल जाऊं। ताकि वहां पर आकर जो दूसरे एक्टर्स कर रहे हैं ऑन द स्पॉट उसी इंटरैक्शन में कुछ अच्छा सा इम्प्रोव निकले। मतलब वो इम्प्रोव असल भी लगे और सच्चा भी हो उस किरदार की जड़ों के प्रति।
समकालीन अभिनेता-अभिनेत्रियों में कौन धाकड़ लगते हैं सबसे ज्यादा?
मुंबई में इस वक्त जिधर नजर घुमाएं उधर बहुत बढ़िया एक्टर हैं। सब नए एक्टर बहुत यंग, टेलेंटेड, सुदंर और एनर्जी से भरे हुए हैं। ये हमारे लिए कॉम्पिटीशन भी हैं और हिंदी सिनेमा के लिए अच्छी बात भी हैं। ऋचा चड्ढा मुझे अच्छी लगती हैं, कमाल की एक्टर हैं। पिछले साल जितने भी नॉमिनेट हुए सारे ही बड़े टेलेंटेड थे। परिणीति चोपड़ा बहुत अच्छी एक्ट्रेस है, बहुत अच्छी एनर्जी है उसकी। अदिति राव हैदरी, हुमा कुरैशी बहुत ही सुंदर एक्ट्रेसेज हैं। बहुत खूबसूरत लड़कियां हैं दोनों। शहाना गोस्वामी बहुत उम्दा एक्ट्रेस हैं। मोनिका डोगरा का प्रेजेंस बहुत अच्छा है। पूर्णा जगन्नाथन की स्क्रीन प्रेजेंस मुझे बहुत अच्छी लगती है। प्रियंका चोपड़ा और इलियाना डिक्रूज का काम ‘बर्फी’ में बहुत कमाल लगा। मतलब क्या कंट्रोल है, इतना नियंत्रित परफॉर्मेंस किया। सोनम मेरे साथ ‘रांझणा’ में है। बहुत अच्छी, उदार और दोस्ताना लड़की है। ऐसा मैंने बहुत कम अभिनेत्रियों में देखा है। बहुत साफ और सच्चे मन की है। लड़कों में मुझे लगता है कि आयुष्मान खुराना में बहुत संभावनाएं हैं। उसकी भाषा बड़ी साफ है, चूंकि वह रेडियो जॉकी रह चुका है। साफ हिंदी बोलता है जो मुझे हमेशा पसंद आता है। नवाज (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) तो खैर कमाल एक्टर हैं। दीपक डोबरियाल मेरे बहुत पुराने और फेवरेट एक्टर हैं। अर्जुन कपूर बड़ा अच्छा एक्टर है, मैंने उसे ‘इशकजादे’ में देखा, अब ‘औरंगज़ेब’ में भी देखा। बहुत बढ़िया काम किया। धनुष के साथ काम करने का मौका मिला। कमाल का एक्टर है। ‘आडूकलम’ मैंने देखी है जिसके लिए उसे नेशनल अवॉर्ड मिला। धनुष जब आया ‘रांझणा’ के लिए तो उसे बिल्कुल हिंदी नहीं आती थी, लेकिन आप उसका काम फिल्म में देखिए, फ्लो देखिए, कमाल का है। पृथ्वीराज हैं, आई थिंक साउथ के एक्टर्स से मैं बहुत प्रभावित हुई हूं। टेलेंटेड हैं और क्या तकनीकी नॉलेज है उनका, इतने अच्छे से वो कैमरा समझते हैं।
2012 में कौन सी फिल्मों ने आपको प्रभावित किया है?
जाहिर तौर पर ‘कहानी’। मुझे बहुत अच्छी लगी। ‘शंघाई’, कमाल की फिल्म लगी। सटीक, अच्छी और कलात्मक। आज शहरी जीवन में हमारे सामने जो सबसे बड़ा संकट मौजूद है झुग्गियों के पुनर्वास (स्लम रीहैबिलिटेशन) का उसे दिबाकर ने बहुत कमाल तरीके से प्रस्तुत किया। मैं मिली तो मैंने उनसे बोला भी था। ‘विकी डोनर’ मुझे बड़ी मजेदार लगी और क्या परफॉर्मेंस था बाप रे बाप। माई गॉड, डॉली जी और अनु जी और जिन्होंने दादी (कमलेश गिल) का रोल किया, कमाल, कमाल। उनके साथ बाद में मैंने एक विज्ञापन भी किया। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ अनुराग ने क्या स्केल पे बनाई है, विजुअली वो शानदार ही बनाते हैं, सबसे ज्यादा तो क्या परफॉर्मेंस रहे उसमें। उसमें मनोज जी, ऋचा और नवाज का काम तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा। ‘पान सिंह तोमर’, माई गॉड क्या फिल्म थी। मैं तो पागल हो गई देखकर। मनोज जी का परफॉर्मेंस ‘गैंग्स...’ में और इरफान का ‘पान सिंह...’ में क्लास था। मुझे ‘बर्फी’ भी काफी अच्छी लगी एक्चुअली। रणबीर का काम बहुत कमाल लगा।
कौन ऑलटाइम फेवरेट हैं?
शाहरुख खान। मैं उनसे फिल्मफेयर नॉमिनेशन नाइट पर मिली। पिछले साल जब मैं नॉमिनेट हुई थी ‘तनु वेड्स मनु’ के लिए और वो स्टेज पर कुछ रिहर्स कर रहे थे। मैं स्टेज पर गई और मैंने कहा कि मैं 1995 से इस दिन का इंतजार कर रही हूं। उन्होंने मुझे गले-वले लगाया और मैं स्टेज से गिरने को हुई तो मुझे वापस खींच लिया। मुझे माधुरी दीक्षित बहुत पसंद हैं। बहुत बड़ी फैन हूं उनकी। रानी मुखर्जी की मैं बहुत बड़ी फैन हूं। मधुबाला, वहीदा जी, जूलिया रॉबर्ट्स, मैरिल स्ट्रीप... ये चारों भी मेरी ऑलटाइम फेवरेट में से हैं। मैरिल स्ट्रीप को देखकर तो ये उम्मीद जागती है कि यार उम्र का कोई फर्क नहीं पड़ता। आप अच्छे एक्टर हो तो आप अच्छे एक्टर हो और आपको अच्छा काम मिलेगा।
माधुरी और जूलिया की तो मैंने पहले आलोचना कर दी?
नहीं, ठीक है। एक होता है फिल्म में काम और दूसरा होता है मार्केट का एंगल। दुर्भाग्य से जिस दौर में हम रह रहे हैं उसमें आर्ट पर मार्केट बहुत हावी है। बहुत ज्यादा। कुछ चीजें मजबूरी में भी हो जाती हैं यार, अब क्या करेंगे आप। आप जितने बड़े स्टार बनते जाते हो तो उसका सामना आपको ज्यादा करना पड़ता है। इसीलिए अभी मैं बहुत आसानी से बोल दूं सर्जरी की बात और ये-वो... आगे जाकर आप क्या पता कितने बड़े स्टार बन जाओ और आपको क्या-क्या चीजें एनडोर्स करनी पड़ें। आप दस चीजों का विज्ञापन कर रहे हैं... तो दस शर्तें हैं...। तो ठीक है क्या करेंगे।
लेकिन थोड़ा भिड़ना भी तो चाहिए?
तो फिर ठीक है, हम वहां पहुंचेंगे तो भिड़ेंगे।
मजबूत महिला किरदारों वाली फिल्में देखती या पढ़ती हैं क्या?
मैरिल स्ट्रीप की बात करें तो मुझे उनका काम ‘द ब्रिजेज ऑफ मेडिसन काउंटी’ (1995) में बहुत अच्छा लगा था। बहुत शार्प सा काम था। बहुत शांत तरीके से निभाया है। हाल ही में आई ‘ब्लैक स्वॉन’ (2010) मुझे बहुत अच्छी लगी। मैंने बतौर एक्टर भी उस रोल के बारे में बहुत सोचा। मैं कमर्शियल फिल्में भी उस नजरिए से काफी देखती हूं। श्रीदेवी जी का काम जैसे मैं काफी याद रखती हूं। ‘चालबाज’ हुई, ‘चांदनी’ हुई, ‘मिस्टर इंडिया’… एक्टर के तौर एक एनडियरिंग या प्यारी लगने वाली क्वालिटी उनमें है। मैं हमेशा एक्टिंग ही नहीं देखती हूं, ये छोटी-छोटी चीजें भी मेरे जेहन में रह जाती हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ भी आइकॉनिक फिल्म रही। एक एक्टर के लिए ड्रीम रोल है अनारकली का। ‘मदर इंडिया’ मुझे बहुत पसंद है।
लक्ष्य क्या है जिंदगी का?
एक एक्टर के तौर पर मेरा ऐसा बॉडी ऑफ वर्क हो कि याद रहे। मैं फेम भी चाहूंगी पर सिर्फ फिल्में ही वो जरिया नहीं होंगी उसके लिए... जीवन में फिल्मों के आगे भी बहुत सारी चीजें आएंगी। जो भी मैं करूं उसका असर पड़े लाइफ पर। ऐसा काम जो ज्यादा जमीनी हो और उसमें लोगों से इंटरैक्ट करने का ज्यादा मौका मिले।
Swara Bhaskar is a young, energetic and talented actress. She's from Delhi. She studied in Delhi University and did her masters in sociology from Jawaharlal Nehru University. Her mother Ira Bhaskar is a film studies professor at JNU and father C Uday Bhaskar is a well known strategic expert. After doing films like 'Madholal Keep Walking', ‘Guzaarish’, ‘The Untitled Kartik Krishnan Project’ and 'Niyati', Swara appeared in Anand L. Rai's 'Tanu Weds Manu' as Payal and got rave reviews. Now she's coming up with five good movies this year. Avinash Kumar Singh's 'Listen Amaya' is releasing on 1st of Feb. This movie also reunites veterans like Farooq Sheikh and Deepti Naval after 28 years. Then Swara will be seen as Bindiya in Rai’s ‘Raanjhnaa’ with Dhanush, Sonam Kapoor and Abhay Deol. She plays Suman in Yashraj’s ‘Aurangzeb’ directed by debutant Atul Sabharwal. ‘Machali Jal Ki Raani Hai’ and ‘Sabki Bajegi Band’ is her other projects.
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