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Saturday, October 7, 2017

मैं नहीं कहता तब करप्शन अपवाद था, पर अब तो माहौल फ़िल्म (जाने भी दो..) से बहुत ब्लैक है: कुंदन शाह

शनिवार सुबह 7 अक्टूबर को कुंदन शाह का निधन हो गया. बहुत ईमानदार, सच्चे, प्यारे और बेहतरीन इंसान. 2015 में उनसे ये बात की थी. उनकी बड़ी याद.

 Q & A. .Kundan Shah, Writer-director of – Jaane Bhi Do Yaaro, Kabhi Ha Kabhi Na.
  
Naseeruddin & Satish Shah in the epic Mahabharata scene from JBDY.

सईद अख़्तर मिर्जा ने 1980 में फ़िल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ का निर्देशन किया था। एफटीआईआई में उनके साथ पढ़े कुंदन शाह को भी गुस्सा आता था। इस फ़िल्म में सहायक निर्देशक रहे कुंदन ने बाद में अपना गुस्सा पूरी गंभीरता से हंसा-हंसाकर ‘जाने भी दो यारो’ के जरिए निकाला। 1983 में दोस्तों की अनूठी कोशिशों और धारा के उलट बनी इस व्यंग्य विनोद प्रधान फ़िल्म ने समय के साथ बहुत अलग मुकाम फ़िल्म इतिहास में पा लिया है। इसकी पूरी प्रक्रिया और यात्रा के बारे में फ़िल्म ब्लॉगर जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब में काफी विस्तार से लिखा है। अब 32 साल होने को आ रहे हैं, कुंदन शाह अभी भी गुस्से में हैं।

उनकी नई फ़िल्म है ‘पी से पीएम तक’। इसमें मीनाक्षी दीक्षित नाम की अभिनेत्री ने एक ऐसी वेश्या की भूमिका निभाई है जो प्रधान मंत्री पद का चुनाव लड़ने तक का सफर करती है। फ़िल्म शुक्रवार को रिलीज हो चुकी है। केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड ने फ़िल्म में से उन चर्चित नामों को हटा दिया है जिन पर व्यंग्य किया या नहीं किया गया था। जैसे, सलमान खान, जयललिता और सुब्रत रॉय। लेकिन अथक प्रयास के बाद फ़िल्म आ गई है। इस राजनीतिक व्यंग्य के बारे में कुंदन का अनुरोध है कि दिमाग लगाकर देखें। ट्रेलर देखकर लगता है कि ‘जाने भी..’ की तरह इस फ़िल्म की बुनियादी बात भी संभवत: अभी लोग अपनी हंसी में ही उड़ा देंगे। खेदजनक है। उन जैसे निर्देशकों की हमें जरूरत है।

कुंदन ने बीते तीन दशकों में और भी उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने ‘नुक्कड़’ (1986), ‘वागले की दुनिया’ (1988), ‘परसाई कहते हैं’ (2006) जैसे धारावाहिक बनाए हैं जो बेहद सार्थक रहे हैं। वे विधु विनोद चोपड़ा की 1985 में आई गंभीर फ़िल्म ‘ख़ामोश’ की लेखन और निर्देशन टीम का हिस्सा भी रहे। शाहरुख खान को लेकर उन्होंने 1993 में ‘कभी हां कभी ना’ जैसी फ़िल्म बनाई। वो शाहरुख की संभवत: अकेली फ़िल्म है जिसमें हीरो होते हुए भी अंत में वे हार जाते हैं। ‘क्या कहना’, ‘दिल है तुम्हारा’, ‘हम तो मोहब्बत करेगा’, ‘एक से बढ़कर एक’, ‘तीन बहनें’ कुंदन द्वारा निर्देशित अन्य फिल्में हैं।

उनसे बातचीत:

‘पी से पीएम तक’ बनाने की जरूरत कब महसूस हुई?
20 साल हो गए।

कहां से पनपा आइडिया?
देखिए मेरी सारी कहानियां न्यूज़पेपर्स से आती हैं। आप पढ़ते हैं, गुस्सा आ जाता है। एक आइडिया आया था कि जो ये पूरा पॉलिटिकल माहौल है, उसको कैसे बताया जाए? अचानक आइडिया आया कि प्रॉस्टिट्यूट (वेश्या) के किरदार को एक मेटाफर (रूपक) के तौर पर यूज़ करते हैं। कैसे वो एक बायइलेक्शन (उपचुनाव) में फंस जाती है और चार दिन में चीफ मिनिस्टर बन जाती है। उपचुनाव के चक्रव्यूह में कुछ ऐसी-ऐसी चीजें हो जाती हैं। उसे चीफ मिनिस्टर नहीं बनना है, न ही पॉलिटिक्स जॉइन करना है लेकिन कैसे वो बन जाती है। आगे की पीएम बनने की उसकी जर्नी क्या होती है। हालांकि वो पीएम बनती नहीं है।

20 साल तक अपने मूल किस्से को संजो कर रखना मुश्किल नहीं था?
मैंने कुछ सात साल पहले एक लाइन लिखी थी। दो पॉलिटिशियंस डिसकस कर रहे हैं कि “ये तो बहुत बड़ा झूठ होगा”। दूसरा बोला, “तो क्या हुआ, झूठ बोलो, सरेआम बोलो, छाती ठोक कर बोलो। लेकिन ऐसे बोलो कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाएं”। यही आज की राजनीति है। मेरे ख़याल से वो आज भी वैलिड है। आप एक चीज का एसेंस (मूल तत्व) पकड़ते हैं, पर्सनैलिटी को नहीं पकड़ते हैं। जो एसेंस है आपके आसपास का वो स्क्रिप्ट को जिंदा रखता है। मैंने जब लिखी 1995 में तब ‘सेज’ (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) का मामला गरम था। फिर वो मेरे ख़याल से ठंडा हो गया। अब वापस गरम हो रहा है। तो क्या है कि वो चीज बनी रहती है।

ये बड़ा अचरज है कि हम तीन घंटे की फ़िल्म देखते हैं या पांच मिनट की कहानी सुनते है फिर आगे बढ़ जाते हैं नई चीज कंज्यूम करने। लेकिन आप अपनी स्क्रिप्ट के साथ इतना लंबा वक्त बिताते हैं, रात बिताते हैं, दिन बिताते हैं। वो फीलिंग क्या होती है, अरुचि या कुछ और? क्यों जुड़े रहते हैं?
मैंने इसे लिखने के बीच में दूसरी फ़िल्में भी बनाईं। लेकिन उसका जो बर्थ आइडिया था वो 20 साल पहले का था। क्या होता है, आइडिया एक्साइटिंग रहता है तो आप उसपे काम करते रहते हैं। आप सोचते हैं। कभी बनाने का मौका मिलता है। क्योंकि मेरे हिसाब से ये यूनीक आइडिया है वर्ल्ड सिनेमा में कि एक प्रॉस्टिट्यूट जिसको कुछ लेना-देना नहीं है, वो बेचारी, उसके अड्डे पे रेड हो जाती है तो वो भागती है। कोई और शहर में जाती है और वहां एक बायइलेक्शन होता है और वहां वो फंस जाती है। और चार दिन में सीएम बन जाती है। तो ये जो प्रिमाइज (आधार) है वो इतना एबसर्ड (अजीब) है, इतना इललॉजिकल (अतार्किक) है, इतना इंट्रेस्टिंग है कि आपको वो अलाइव (जिंदा) रखता है। जैसे आपने जैन डायरीज (हवाला केस) के बारे में सुना होगा। जो एक डायरी मिली थी मि. जैन की जिसमें लिखा था कि किसको कितना पैसा दिया गया है। तो उसपे एक आइडिया आया। फ़िल्म जब बनेगी तब बनेगी। कि मि. जैन को पकड़ लिया है और वो हैलीकॉप्टर में है। उसे बोला जाता है कि कैसे भी साक्ष्य नष्ट कर दो। तो वो डायरी उठा के फेंक देते हैं। वो जाके एक खेत में गिरती है। वो न जाने कौन सा खेत है, न जाने कौन सा ट्राइबल एरिया है वहां जाकर गिरती है। और अब सब लोग उस डायरी को ढूंढ़ रहे हैं। तो इस तरह के आइडिया आप लेते हैं और वो आपको एक्साइट करते रहते हैं। उसको अपनी वास्तविकता से जोड़ते हैं।

ऐसे जितने भी पॉलिटिकल घपले हैं, इस हिसाब से देखें तो आपके पास स्टोरीज़ अनाप-शनाप हो सकती हैं?
बहुत हैं बहुत।

भारत के राजनीतिज्ञों ने इतना क्रिएटिव कंटेंट रखा हुआ है.. 
(खिलखिलाते हैं) बिलकुल। ..

आपके लिए बड़ी दुविधा होती होगी कि किसको उठाएं और किसको छोड़ें। ऐसा कभी होता है?
अभी आपको एक और आइडिया सुनाता हूं। हजारों आइडियाज़ हैं। एक आदमी है उसका एक्सीडेंट हो जाता है। दो एक्सीडेंट होते हैं अलग-अलग अंतराल में। उसकी याद्दाश्त चली गई है। उन दो एक्सीडेंट के बीच अंतर है वो तीन महीना है, छह महीना है या तीन साल है। वो दूसरे एक्सीडेंट से उठता है। पहला एक्सीडेंट हुआ उससे पहले वो फक्कड़ था और अब उसके पास 300 करोड़ है। लेकिन उसके पास 300 करोड़ आया कहां से। लोग उसके आस-पास घूम रहे हैं और उसको कुछ याद नहीं है। अब वो पता कर रहा है कि उसके पास 300 करोड़ कहां से आया। और ये उसकी अपनी गिल्ट (अपराधबोध) की यात्रा है। वो रिवर्स है “हार्ट ऑफ डार्कनेस” (जोसेफ कॉनराड की 1899 में प्रकाशित कहानी, जिस पर 1979 में फ्रांसिस फोर्ड कोपोला ने “अपोकलिप्स नाओ” बनाई) का। उसकी जरा सी याद्दाश्त आए बगैर भी स्क्रीनप्ले पूरा है। तो आइडिया आते हैं। मेरी सारी फ़िल्में न्यूज़पेपर्स से ही आती हैं। ‘जाने भी दो यारो’ से लेकर, ‘थ्री सिस्टर्स’ (तीन बहनें) है, ‘क्या कहना’ है। वहां भी मैंने कुछ न्यूजपेपर्स से लिया था।

पिछली बात हिमांशु शर्मा से हुई थी। उनसे पूछा कि सुबह अखबार पढ़ते हैं या ऑनलाइन खबरें टटोलते हैं तो दिल्ली में बाघ के बाड़े में गिरा आदमी, नेट न्यूट्रैलिटी, राडिया टेप्स, घपले.. इन खबरों पर आपके भीतर का लेखक कैसे रिएक्ट करता है। उन्होंने कहा कि वे एक लेखक के तौर पर इन खबरों को नहीं देखते, एक इंसान या नागरिक के तौर पर देखते हैं।
जहां तक मैं अपने आपको देखता हूं, एक आर्टिस्ट के तौर पर मैं रिएलिटी से इतना जुड़ा हूं कि हमारी जिंदगी में ये सारी चीजें आ जाती हैं। कॉरपोरेटाइजेशन, उसके विक्टिम कहें, फायदे कहो.. हर चीज आ जाती है। आप समझ रहे हैं न। ‘प्यासा’ (1957) का एंड में जो है.. गुरुदत्त बोलता है, “तुम चलोगी मेरे साथ”? या ‘प्रतिद्वंदी’ (1970) सत्यजीत रे का जो गांव चला जाता है। लेकिन आज आप गांव नहीं जा सकते। वहां की भी सच्चाई वही है जो शहर की है। आप भाग नहीं सकते, आपकी जो हकीकत है उससे।

इतनी निराश करने वाली, असल खबरें आप सोचते हैं कि आदमी का पागल होना तय है, उसके बावजूद आप बनाते कॉमेडीज़ हैं।
‘पी से पीएम तक’ का कंटेंट जितना ब्लैक है, उसकी ट्रीटमेंट उतनी ही ब्राइट है। वो संतुलित ऐसे किया है। क्योंकि मेरे पास एक ही हथियार है.. वो है कॉमेडी। उस कॉमेडी को यूज़ करके, सटायर को यूज़ करके आप कैसे वो सबजेक्ट को ऑडियंस के लिए रोचक बना पाते हैं। उसे मजा आए और वो कुछ सोचे। आप जब फ़िल्म देखते हैं तो लोग बोलते हैं अपना दिमाग घर पर रखो, इसमें हम बोलते हैं कि आप प्लीज़ दिमाग अपना लेके आइए। दिमाग से फील कीजिए और दिल से सोचिए।

जैसे मौजूदा सरकार है या अन्यथा भी राजनेताओं के सांप्रदायिक विचार होते हैं.. उसे लेकर बहुत कम कहानियां आती हैं। उस सांप्रदायिक पक्ष पर भी सोचा है आपने पिछले 20 साल में? या ज्यादातर पूंजीवाद और उपभोक्तावाद पर आपका दिमाग ज्यादा खराब होता है?
क्या होता है न.. आपकी बात सही है.. हर डायरेक्टर की एक पर्सनैलिटी होती है। आपकी बात बिलकुल सही है कि जो सांप्रदायिकता है या जो भी हुआ है। बात सही है। पर ओवरऑल आप वो चीज पकड़ते हैं जो आपको अपील करे। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप उसे लेकर चिंतिंत नहीं हैं या उसके बारे में सोचते नहीं हैं कि जो हो रहा है वो नहीं होना चाहिए। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर वो सोचना भी चाहिए।

A still from P Se PM Tak.
‘पी से पीएम तक’ की केंद्रीय पात्र वेश्या है। आपने कॉमेडी का सहारा लेते हुए लोगों के सामने एक टिप्पणी करने की कोशिश की है लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि जो सबसे आधारभूत दर्शक हमारा है जो किसी भी बात पर हंसने लगता है। ऐसा नहीं है कि वेश्या के किरदार पर वो उस लिहाज से हंसने लगेगा जैसे हमारा समाज उसे अपमानजनक ढंग से देखता ही है। ये डर नहीं कि वो दर्शक व्यंग्य को उल्टा ही ले ले?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। आप अभी उसे बाहर से देख रहे हैं। वो मेरी सूत्रधार है, वो मेरी हीरोइन है हालांकि वो एक प्रॉस्टिट्यूट की भूमिका निभा रही है। देखिए, उसकी लाइफ तो इतनी पाप से भरी हुई है तो क्या कर सकते हैं। और पाप वो नहीं करना चाहती है लेकिन उसे करने पड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो मेरी सूत्रधार है। उसको इस अंदाज से पेश करना मेरा काम है। जो आप कह रहे हैं उसका सवाल ही नहीं उठता कि ऐसा फील करेंगे लोग।

पॉलिटिकल कॉमेडीज जितनी भी हैं या हिंदी के बेहद काबिल व्यंग्यकारों की लेखनी है, क्या उनका कभी राजनेताओं की मोटी चमड़ी पर कोई असर हुआ है? आपने बीते 30-40 साल में देखा है क्या? प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से?
इनडायरेक्टली तो निश्चित तौर पर होता है। लेकिन क्या होता है कि ये एक स्तर पर ही असर डालता है। अब खाली मैं एक फ़िल्म बना दूं तो उससे समाज बदल नहीं सकता। लेकिन वो मेरा कर्तव्य है कि मैं कुछ बनाऊं जो समाज से जुड़ा हुआ है। और खासतौर पर आज के लिए। आज का सोचते हुए। क्योंकि आज हम इतने जुड़े हैं कि ग्लोबलाइजेशन है, ये है वो है। आप मुझे एक बात समझाइए आप पत्रकार हैं। आपने, हम लोगों ने एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) इंश्योरेंस में बढ़ा दिया है। कितना पर्सेंट बढ़ाया है आपको पता है? बताइए ना...

जी 49 फीसदी कर दिया है..
और कहां से किया। 25 से किया। क्यों किया? क्या है ऐसी चीज इंश्योरेंस जो हमको बाहर की टेक्नोलॉजी देगी? आप मुझे बताएं किसी न्यूजपेपर ने उठाया? आपने रिपोर्टर के तौर पर ये प्रश्न उठाया? क्यों नहीं उठाया है? क्या फायदा है इसमें? जो 25 से 49 पर्सेंट हुआ है वो इंश्योरेंस में क्या चीज है? आप मुझे बताइए ना...

कोई चीज नहीं है..
इंश्योरेंस में आप पैसे लेते हैं सबसे। करोड़ों से लो और हजारों में दो। तो इसमें हमको कौन सी एफडीआई की जरूरत है यार। किसी मिनिस्टर ने, किसी न्यूजपेपर ने ये सवाल उठाया है ये मुझे बताइए..

नहीं उठाया है..
क्यों नहीं उठाया है? क्या आप नहीं समझते ये बात।

समझते हैं..
तो ये देश के लिए हानिकारक है न?

बिलकुल..
तो फिर चुप क्यों रहते हैं? तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं। मेरे कहने का मतलब ये है कि अभी आप नहीं उठा रहे हैं लेकिन एक वर्ग है जो इसकी बहुत भारी तरीके से कीमत चुकाता है। जितना करप्शन हो.. अभी ये मोदी साहब कहते हैं कि नहीं मैं खाऊंगा नहीं, और न खाने दूंगा लेकिन यहां महाराष्ट्र में तो फड़नवीस (देवेंद्र, सीएम) साहब हैं जिन्होंने डीपी (विकास योजना) प्लान ऐसा बनाया है कि यार हमको मुश्किल ही हो जाएगी यार। अगर इतनी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनने लगीं, न ही रास्ते हैं, न ही कुछ है, कैसे होने वाला है ये सब। वो सोचते हैं रिएल एस्टेट चलता है तो उससे इकोनॉमी को आगे बढ़ाएंगे। उनका यही सोचना है। इकोनॉमी को फिलिप (प्रोत्साहन) मिले ऐसा वो सोच तो रहे हैं तो गलत सोच रहे हैं। सही क्या सोचना है वो उनको पता नहीं है। शायद। मैं छोटा आदमी हूं। लेकिन मेरा एक ड्यूटी बन गया है कि मैं भी आज इकोनॉमिक्स पढ़ूं। अब मैं लिट्रेचर पढ़ता ही नहीं हूं, अब मैं इकोनॉमिक्स ही पढ़ता हूं। मेरा लाइफ इकोनॉमिक्स से ही संचालित होता है।

आपने अपनी शुरुआती फ़िल्म से लेकर आज तक जो भी बताने की कोशिश की है, चेताने की कोशिश की है, आपको नहीं लगता कि प्रोसेस इतना इर्रिवर्सिबल (न मोड़ा जा सकने वाला) हो गया है बीते सालों में कि अब तो नष्ट होना ही तय है?
इसका जवाब तो देना बहुत मुश्किल है। क्या होता है न.. आपने वो ‘नीरोज़ गेस्ट्स’ डॉक्युमेंट्री देखी है न। पी. साईंनाथ ने जो बनाई है। एक नीरो था। रोमन सम्राट था। इतना अंधाधुंधी थी उसके राज में। तो क्या होता है न कि आप जो हिस्टोरिकल पीरियड देखते हैं ... 1947 में हमको आजादी मिली.. 65 से ज्यादा साल हो गए। लेकिन आपने इतने से वक्त में पूरी मानवता का समझ लिया है कि हम समझ ही नहीं सकते? हिंदुस्तान में वही हो रहा है जो पूरे विश्व में हो रहा है। हम ये मान लेते हैं जो इतने साल में है वो बदल ही नहीं सकता। कि ये तो खराब होगा और। आप यही सोच रहे हैं ना..

जी..
ऐसा आर्टिस्ट नहीं सोचता। वो पूरा हिस्टोरिकल दृष्टिकोण में सोचता है न। 65 साल को आप बोलते हैं कि ये ही सच है। और तो कोई सच ही नहीं है, बस ये ही है। ऐसा ही होगा। कम्युनल ही होंगे। लोग मरेंगे। करप्शन होगा। तो अभी मैं क्या जवाब दूंगा? इसकी कीमत कोई न कोई तो चुका रहा है न। जब आपको पांच करोड़ की रिश्वत मिलती है, ओवरऑल इकोनॉमी में किसी से तो पांच करोड़ छिन रहे हैं न.. जो आपको ऐसे ही मिल गए। तो कोई तो तबका होगा जो इसकी प्राइस पे कर रहा है। इसकी कीमत अदा कर रहा है। आप समझ रहे हैं न। एक आर्टिस्ट के तौर पर हम तो ऐसे ही सोचेंगे न।

लेकिन आपके इतना पॉजिटिव होने की क्या वजह है .. कि अंततः चीजें हो सकता है ठीक हो जाएं।
अब मैं आपको उल्टा बात बोलूं? मैं टेलीविजन पर इतनी बार सुन रहा हूं कि अगर हम चेंज नहीं लाएंगे तो the country is driving for a revolution आपने सुना है ये। एम. जे. अकबर ने बोला है।

जी.. जो बीजेपी में आ गए हैं अब।
अब बीजेपी है या जो भी है, थोड़ा अकल वाला आदमी है। उसका लैंड एक्विजिशन (भूमि अधिग्रहण) के बारे में ये कहना था कि भई चलो हम आगे बढ़ते हैं, यार इंडस्ट्री को डालते हैं लेकिन वो जब बोलते हैं तो उसका मतलब क्या होता है। जब आदमी के पास रोटी नहीं रहेगी, कुछ नहीं रहेगा तो वो करेगा क्या। वो न्यूज़पेपर में नहीं आता है इतना। वो क्यूं बोल रहे हैं कि रेवोल्यूशन आएगा? किस आधार पर बोल रहे हैं?

जी..
नहीं नहीं वो क्या न्यूज़पेपर पढ़ के बोल रहे हैं?

वैसे वो न्यूज़ बिजनेस में ही हैं तो उस हिसाब से बोल रहे हैं
वो वो बोल रहे हैं जो न्यूज़ में नहीं आता है पर हकीकत है।

मैं यही तो बोल रहा हूं कि जब न्यूज में चीजें छप नहीं रहीं..
नहीं नहीं, आप हमसे ये हक मत छीनो कि हम क्या बोल सकते हैं या मॉरल स्टैंड लेना है या वैल्यू की बात ही करनी है।

नहीं नहीं मैं...
नहीं नहीं। आप मुझे टटोल रहे हैं तो मैं कहता हूं कि आज ऑनेस्ट रहना एक बहुत बड़ी लग्जरी है। अखबारों के मालिक कोल माइंस डालते हैं तो कॉरपोरेटाइजेशन से जुड़े हुए हैं न, उन चीजों से? क्या आप अपनी नौकरी छोड़ दोगे? अगर आप अवेयर हैं तो वही है। फ़िल्म आपको जागरूक करना चाहती है। कि भई हम ऐसे हैं तो क्या किया जाए? कैसे करें इसको?

मैं पूछता हूं ताकि या तो आशा मिल जाए या निराशा मिल जाए। क्योंकि सबसे जरूरी खबरें आज दबी हैं और जो नॉन-इश्यू है वो...
हां, अभी आप ही बोल रहे हैं...

मैं खुद बोल रहा हूं
जब हम न्यूज़पेपर पढ़ते हैं तो ये पढ़ते हैं कि लाइन्स के बीच में क्या है। तो लाइन्स के बीच में हमें तो हकीकत मिलने वाली नहीं है।

देखिए अन्य अखबारों की तो बात नहीं कर रहा लेकिन जैसे द हिंदु है। द इंडियन एक्सप्रेस है। द हिंदु में सबसे भरोसेमंद चेहरे थे वो चले गए। तीन-चार जो बेहद विश्वसनीय थे..
पी. साईंनाथ..

..उन्होंने, सिद्धार्थ वरदराजन ने। ऐसे कई लोगों ने ने छोड़ दिया..

करेक्ट

..वो कहते हैं कि अब प्रेस रिलीज बेस्ड हो गया है सारा। और प्रेस रिलीज ही लगानी है तो हमारी क्या जरूरत है। 8 रुपया 9 रुपया देकर भी द हिंदु मंगाने को तैयार हैं, दो रुपये का अखबार छोड़ के। इंडियन एक्सप्रेस में भी चीजें बदल चुकी हैं।
सही बात है आपकी लेकिन पी. साईंनाथ तो नहीं बदल गया है न।

वैकल्पिक मंच पर आ गए हैं
यार वो क्या है न, एक लग्जरी है मैं मानता हूं। लेकिन हम 70 साल को पूरी दुनिया के ये नहीं कह सकते कि ये ही सच्चाई है। आज की सच्चाई भी यही है और कल की सच्चाई भी यही रहेगी, ये सोचना गलत है।

उस संदर्भ में आप कह रहे हैं कि जैसे पूरी दुनिया हजारों साल से है तो हजारों बार उतार-चढ़ाव का चक्र रहा है.. ये प्रक्रियाएं रही हैं..
जब आफत आती है तो आप सोचते हैं लेकिन.. । मैं ये नहीं बोलता हूं कि नया सूरज उगेगा.. कम्युनिस्ट बातें नहीं कह रहा हूं लेकिन हम एक डार्क पीरियड को बोलते हैं कि यही सच्चाई है तो गड़बड़ हो जाते हैं। तो हम तो यही मानते हैं और कोशिश कर रहे हैं। एक नई चीज सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। और क्या कर सकता है आदमी। हमारे पास एक ही हथियार है ऑडियंस तक पहुंचने का वो है कॉमेडी।

पारंपरिक राजनीतिक दलों को लेकर व्यंग्य और उनकी हंसी-किरकिरी हम हमेशा देखते आए हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी की बात करें तो आप कैसे लेते हैं दो साल में इनकी मेकिंग...
आम आदमी पार्टी ने जो संसद व विधायी सीटें जीतीं वो आम आदमी पार्टी की जीत नहीं है, वो किसकी जीत है आप मुझे बताइए ना? वो लोगों की जीत है। पीपल। लोग। लोगों की जीत है। वो (पार्टी) फेल हुए, उन्होंने (लोगों) बोला “हम एक और चांस देंगे। आप ऑनेस्ट रहिए, पांच साल में कुछ मत करिए हम समझेंगे, लगेगा कोई और नहीं है तो हम आपको ही रखेंगे”। देखिए जनता ने कितना साफ-साफ बताया है यार। और न ही उसमें किसी ने मुसलमान के तौर पर वोट किया, न ही उसमें ईसाई के तौर पर किया, न ही उसमें सिख के तौर पर किसी ने वोट किया। Aam Aadmi is not Kejriwal alone, या प्रशांत भूषण या जो भी है। Aam Aadmi is the people yaar.. क्या.. क्या तमाचा मारा है यार लोगों ने? तो जीत लोगों की होनी चाहिए न? आपको एक उत्साह होना चाहिए, एक बहुत बड़ी आशा होनी चाहिए। हम समझते हैं बदलाव नहीं होगा, अब ये बीजेपी हिल गई न? नहीं, बीजेपी हिल गई या नहीं? और सब लोगों को सच्चाई मालूम पड़ गई क्योंकि लोग सच के साथ हैं। बहुत मुश्किल हो गया है यार लोगों के लिए। पानी टैंकर से आता है। माफिया है। ये लोग कैसे जिएंगे यार। हमारा जो वॉचमैन है वो पूछता है आज मोदी साहब ने क्या कहा? मोदी साहब उसके लिए खुदा बन गए हैं। मोदी हो या जो भी हो आप समझ रहे हैं न। कब वो आदमी ऐसा सवाल करता है जब बिचारा गिरा हुआ है।

Ravi Baswani as Sudhir & Naseer as Vinod in the film.
32 साल पहले सुधीर-विनोद हारे थे, तरनेजा-आहूजा जीते थे? अब 2015 में आपके जेहन में समाज कैसा है? वो ही लोग जीत रहे हैं, वो ही लोग हार रहे हैं?
तब क्या है, मैं नहीं कहता कि करप्शन अपवाद था। लेकिन अभी तो सब माहौल ही बदल गया है। ये फ़िल्म (जाने भी दो यारो) से बहुत-बहुत ज्यादा ब्लैक है। जो हम कहना चाहते थे तब वो बहुत ब्लैक था लेकिन अब तो आप बात करेंगे तो लोग आपका टेबल छोड़कर चले जाएंगे। वैल्यू की बात करते हैं लोग टेबल छोड़कर चले जाते हैं। कहते हैं, इस आदमी से क्या बात करें। आप समझ रहे हैं? आप समझ रहे हैं?

जी..
क्योंकि सब समझ रहे हैं, ऐसा ये 70 साल में हो गया तो अब वही चलेगा। मेरे ख़याल से ऐसा नहीं है। ये भी कि टेक्नोलॉजी अपना बदलाव ला रही है। अभी वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है जिससे बहुत बड़ा धक्का आने वाला है। ऑटोमेशन है। रोबोटिक्स है। उससे बिचारा वर्कर और भी रिडंडेंट (बेकार) हो जाएगा। तो जब तक उसके लिए चारा (रास्ता) और नहीं बनेगा तो ये समस्या है बहुत। भई, टेक्नोलॉजी अपने लेवल पर चलेगी। टेक्नोलॉजी को आप रोक नहीं सकते। देखो, इकोनॉमिक्स टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ है। टेक्नोलॉजी और इकोनॉमिक्स फ़िल्म से जुड़ा हुआ है। उससे वो जो फ़िल्म बनाता है वो जुड़ा हुआ है। आज की तारीख में हम सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वो ये फ़िल्म दिखा रही है। मुझे ये लगता है।

‘जाने भी दो यारो’ में हम बात करते हैं बिल्डर-राजनेता-पुलिस की आपराधिक गुटबंदी की। शहरी बसावट की बात करते हैं जो तेजी से बदल रही है। फ्लाइओवर बन रहा है। आर्थिक असमानता है। ईमानदारी कितनी मुश्किल है, बेईमानी कितनी आसान है। सिहर जाते हैं वो सब देख कर। हम जब इसे बता रहे हैं तो क्या ये इतना अनिवार्य है हम हंसा कर ही बताएं? क्योंकि जिस पर बीतती है उससे मिलकर जानें कि कितना क्रूर है मामला उसके साथ। मैं इसे गलत नहीं कह रहा लेकिन क्या ये दर्शक बहुत घमंडी है जो कहता है I don’t care? मैंने पैसा दिया है मुझे हंसा के ही ये चीज बताओ? जबकि उसी के काम की चीज बताई जा रही है।
 आपका सवाल बहुत वैलिड है लेकिन क्या होता है न कि अभी.. ये आपका सवाल बहुत ही वैलिड है.. पर आप ये सवाल पूछिए कि आपका न्यूज़पेपर ये काम क्यों नहीं करता? क्यों ये सवाल नहीं उठाता? आपका टेलीविजन ये क्यों नहीं करता? आपकी गवर्नमेंट ये क्यों नहीं करती? आपके मंत्री ये क्यों नहीं करते? तो क्या होता है न हम भी इन सबसे जुड़े हुए हैं। अगर ये पाबंदियां न होतीं तो शायद हम अपना एक्सप्रेशन बदल देते। आप ये कहना चाहते हैं कि क्यों डायरेक्ट नहीं हो सकते? क्यों ये एजिटेटेड प्रोपोगैंडा (गुस्सैल रवैया) आप नहीं कर सकते। एजिटेटेड हैं ना कि चेंज आना चाहिए? उसके लिए क्या करना चाहिए? सही है आपका सवाल। डॉक्युमेंट्री भी ऐसी बनती हैं। लेकिन जब आप फ़िल्म बनाते हैं तो अलग होता है। आप उसमें इतना पैसा खर्च करते हैं तो आपको वायेबल (व्यावहारिक) होना है। लोगों तक बात पहुंचानी है। .. डॉक्युमेंट्री आप फ्री में दिखाएंगे टेलीविजन पे। अगर फ़िल्म फ्री में दिखाएंगे तो मैं बना दूंगा ऐसी फ़िल्म।

‘जाने भी दो यारो’ के समय में कॉमेडी जो थी और लोगों ने खुद को जैसे एंटरटेन किया उससे, आज के दर्शक उस कॉमिक सेंस को उतनी ही ताजगी से लेंगे या उनमें कोई बदलाव 20-30 साल में आप पाते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। ये सवाल, सवाल ही नहीं है। ऑडियंस हर चीज के लिए है भाई। जहां आप सच्चाई की बात करेंगे वहां ऑडियंस क्यों नहीं होगी? आप ये सोचते हैं कि जो डेविड धवन का दर्शक है वो ही आपकी फ़िल्म देखने आएगा? क्यों आप ऐसा मान लेते हैं? या ऐसा क्यों सोचते हैं कि जो डेविड धवन की फ़िल्म देख रहे हैं वो आपकी फ़िल्म देखकर एंजॉय नहीं कर सकते? सबसे प्योर चीज है ऑडियंस। अगर आपकी फ़िल्म फ्लॉप होती है किसी कारणवश। मैं ये नहीं कर रहा हूं कि हमेशा फ़िल्म खराब है इसलिए फ्लॉप होती है। लेकिन ऑडियंस बहुत प्योर होती है। वो बिचारी पैइसा देकर आती है तो वो करेगी वो। बहुत सी फ़िल्में हैं जो चलती हैं, बहुत सी फ़िल्में हैं तो तारीफ पाती हैं। अलग-अलग कारणों से।

अगर मैं गोविंदा की फ़िल्में देखकर हंसा, आपकी देखकर हंसा लेकिन जो घर के युवा बच्चे हैं उनका कॉमेडी को लेकर नया टेस्ट ऐसा है कि शायद हमें इस कंटेंट के लिए हेय दृष्टि से देखे। कि इतनी प्रिटेंशस चीजें आप क्यों देख रहे हो?
नहीं नहीं। वो बच्चे एंजॉय करेंगे। इन फैक्ट आज का स्टैंडर्ड मापने का पैमाना ‘सब टीवी’ हो गया है। SAB TV is becoming the definition of humor.. तो वो बहुत मुश्किल है न। कॉमेडी कॉमेडी होती है। वहां ‘सब टीवी’ तो आपको ठूंस रहा है। आपके मुंह के अंदर वो ठूंस रहा है। कि लो लो लो, ये कॉमेडी है। एक वीक में वो आपको छह बार वो प्रोग्राम दिखाते हैं। और ऐसे आठ प्रोग्राम रोज दिखाते हैं। बोलते हैं ये हम कॉमेडी कर रहे हैं आप हंसो। तो अभी क्या, ऑडियंस वही लेती है जो उनको मिलता है।

जैसे केले के छिलके पर फिसलकर कोई गिरता था तो उस पर हम हंसते थे? आज फ़िल्म में ऐसे दृश्य काम करेंगे? दूसरों के दुख का हमारा मनोरंजन हो जाना, क्या अब भी है?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। एक चीज रिपीट होगी तो वो काम नहीं करेगी। उसको अलग लेवल पे यूज़ करेंगे। अभी जब केले के छिलके का जिक्र ही कर दिया है तो मेरी फ़िल्म में (पी से पीएम तक) केले के छिलके हैं (खिलखिलाते हैं)।

मुझे नहीं पता था..
हां, मैंने यूज़ किए हैं छिलके। अभी वो अच्छे लगें, नहीं लगे वो मुझे नहीं मालूम। अलग तरीके से किया है। किसी को मजा आया तो ठीक है नहीं तो हम गलत है। ... अब जैसे परसाई (हरिशंकर) है। क्या परसाई को आज पढ़कर नहीं एंजॉय कर सकते। वो आज भी इतने वैलिड हैं यार। मुझे दूरदर्शन ने बोला था आप परसाई पर एक सीरियल बनाओ। तेरह कहानियां। उसमें एक कहानी में है कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट घोषणा करता है जो भी राशन ब्लैक में रखेगा, जमा करेगा, उस पर हम छापा मारेंगे। तो परसाई जी का कैरेक्टर जाता है डीएम के पास और बोलता है सर ये आदमी है, इसने इतना माल अपने गोदाम में रखा है आप रेड कीजिए। बोले, “वैरी गुड, गुड इनफॉर्मेशन”। उसे बाद में मालूम चलता है कि गोदाम वाले को उन्होंने नोटिस भेजी है, “कि भई हमें खबर मिली है कि आपने इतना माल रखा है क्या ये सही है”? परसाई का किरदार बोला, “ये आप क्या कर रहे हो। माल हटा देगा वो”। तो डीएम बोलता है, “नहीं नहीं हमको तो प्रोसीजर से जाना पड़ेगा न”। तो अभी मुझे बताओ ये कैसे हो रहा है? ये दोबारा हो रहा है आपकी जिंदगी में। आप पत्रकार हैं मुझे बताइए कौन कर रहा है और कहां हो रहा है। मुझे बताइए..। फेल हो जाएंगे आप..

अ..
रोज आ रहा है यार। तो आप क्या पेपर पढ़ते हैं!

नहीं पढ़ता जी..
ये है ब्लैक मनी का। हम रेड कर देंगे, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे। ये परसाई सामने आ रहे हैं आपके। आ रहे हैं कि नहीं? वो जेटली (अरुण) परसाई बन रहे है। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। हंसी नहीं आती आपको? वो रोज बोल रहे हैं “हम ये कर देंगे.. उसके पास ब्लैक मनी है हम ऐसा करेंगे”। ये सब तुम ऐसे ही बोल रहे हो। कोई जेल नहीं जाएगा। कोई कुछ नहीं होगा। ये कॉन्ग्रेस को बोलते हैं क्रोनी कैपिटलिस्ट थी तो ये कौन से कम हैं यार। अभी पब्लिक को थोड़ा झांसे में रखना है तो अपने-अपने लेवल पर कर रहे हैं। उनका ये ... कौन सा स्वच्छ भारत हो रहा है डेढ़ साल में @#$*...

कुछ नहीं हुआ..
कुछ नहीं हुआ है एक साल में.. 2019-20 तक कर देगा क्या वो? बोलते हैं न कि सपने देखने में क्या बुराई है। मोदी जी तो यही बोलेंगे। कौन स्वच्छ.. पहले स्वच्छ दिमाग करो यार। ..खैर, फ़िल्म पर आते हैं। हमने दिल से बनाई है और ऑडियंस से कहते हैं कि प्लीज़ दिमाग साथ में लेकर आइए। हमारा मानना है कि जब थियेटर से बाहर जाएंगे तो फ़िल्म आपके साथ जाएगी। हमने कोशिश की है। एक बहुत छोटी फ़िल्म है। हमारे पास न ही स्टार हैं, न ही कुछ है। खाली कॉमेडी है, एक ही हथियार। आप आके देखिए क्या है। अरे प्रॉस्टिट्यूट को इसलिए सलेक्ट किया है कि वो हमारे समाज के सबसे नीचे के तबके की है। एकदम नीचे की है। जबकि पॉलिटिशियन कितने गंदे हैं ये दिखाने के लिए फ़िल्म है। रूपक के स्तर पर इस्तेमाल किया है। और वो प्रॉस्टिट्यूट है उसकी ट्रैजेडी है, क्योंकि हर प्रॉस्टिट्यूट की एक ट्रैजेडी है। उसके जीवन में इतना दुख भरा हुआ है। क्योंकि पॉलिटिकल मेटाफर यूज़ कर रहे हैं तो उससे कॉमेडी करवाई है, उससे स्लैपस्टिक करवाई है। और ट्रीटमेंट टोटल ब्राइट है। जितनी उसकी लाइफ डार्क है, जितना उसका सबजैक्ट डार्क है, जो हम कहना चाहते हैं डार्क है, उसी को दिखाने की कोशिश की है दोस्त।

‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखने गया था। दस मिनट हुए थे शुरू हुए। मेरे पास दो युवक बैठे थे। तभी टिकट वाला आया। छह-सात औरतों और बच्चों की सीटें दिखा रहा था। उसने उन लड़कों से कहा, “तुम अपने टिकट दिखाओ”। वो कहते हैं “तुमसे पहले एक आदमी था, उसने बोला था टिकट उसे दिखा दी, उसने हमको बिठा दिया”। तो उसने कहा “दोबारा दिखाओ मैं नया आदमी हूं अभी आया हूं”। तो टिकट वो धीरे-धीरे निकाल रहे थे। उसने पूछा “तुम कौन सी फ़िल्म देखने आए हो, तो कहते हैं हमको तो गब्बर देखनी है”। उसने कहा, “गब्बर देखनी है तो तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में क्यों बैठा है दस मिनट हो गए तेरा अक्षय कुमार दिखा क्या?”
(खिलखिलाते हैं)...

चौंक गया अपने साथी दर्शकों को देखकर ...
नहीं नहीं, इसमें सबको मत गिनो। एक अलग वाकया सबको डिफाइन नहीं करता। लेकिन अच्छा है ये वाकया अच्छा है। (हंसते हैं)

लेकिन फ़िल्मों से इतर भी हालात बहुत निराशाजनक हैं
नहीं, नहीं ठीक होगा। यहां मुंबई में तो हालात बहुत ही खराब हैं। मैं एक किस्सा बताता हूं। जब निर्भया वाला मामला हुआ तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक खबर छापी कि वडाला में – वडाला हमारा बंबई में एक सबर्ब है, जैसे बांद्रा है वैसे वडाला है – वहां एक लड़का और लड़की बस में ट्रैवल कर रहे थे। लड़के और लड़की में कुछ अनबन हो गई और लड़की नीचे उतर गई। पता नहीं वो बॉयफ्रेंड- गर्लफ्रेंड थे या दोस्त थे कॉलेज के .. वो बात मायने नहीं रखती .. तो लड़का उसके पीछे जा रहा था उसको मनाने के लिए। आगे पांच लोग खड़े थे। पांच लोग खड़े थे और वो देख रहे थे। वो लड़की को देख रहे हैं, फिर बोल रहे हैं.. “मान जा मान जा, हम भी तो खड़े हैं लाइन में, कमी है तो सिर्फ एक सरिए की”। ………..आप सुन रहे हैं।

…सुन रहा हूं बिलकुल सुन रहा हूं
“कमी है तो…” …ये लोग में इतनी सिकनेस (बीमारी) कैसे पैदा हो गई? आपने देखी निर्भया पर (लेस्ली उडविन की डॉक्युमेंट्री ‘इंडियाज़ डॉटर’).. आपको लिखना चाहिए उस पर। वो फ़िल्म सब स्कूल में दिखानी चाहिए ये मेरा मानना है। बैन कर दी गवर्नमेंट ने। लेकिन उसमें सबसे समझ वाली बात उस साइकेट्रिस्ट ने कही है। वो बोल रहा है कि यार ये लोग सिक नहीं हैं मेंटली, ये लोग एंटी-सोशल लोग हैं। ये जहां रहते हैं वहां औरतों को ऐसे ही ट्रीट किया जाता है। नॉट एग्जैक्टली ये.. पर वो जो देखते हैं वैसे ही ट्रीट करते हैं वो लोग एंटी सोशल हैं। वो जो साइकेट्रिस्ट ने बात कही वो किसी न नहीं छापी। ये क्राइम भी सामाजिक वजहों से आ जाता है। एक हर्ष मंदर का आर्टिकल आया था जब निर्भया का केस चल रहा था कि Who are these boys who did this? और ये डॉक्युमेंट्री कुछ तीन दृष्टिकोण से बताती है। कि बिचारी वो लड़की.. वो तो बहुत बड़ी ट्रैजेडी ही है यार। लेकिन क्यों हुआ ये? आप फांसी दे देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे.. उससे क्या। यार क्यों करते हैं लोग वो आप नहीं सोचते। “करेंगे तो हम मारेंगे..” ये सोचते हैं। क्राइम क्यों हो रहा है ये तो कहेंगे तो फंस जाएंगे क्योंकि इसमें फिर समाज को सुधारना पड़ेगा खुद को सुधारना पड़ेगा गवर्नमेंट को बहुत काम करना पड़ेगा। तो गवर्नमेंट छोटा काम कर देती है और चलो।

यहीं पर फ़िल्मों के लिए मन में बहुत सम्मान होता है। जैसे ‘आशीर्वाद’ (1968) फ़िल्म आपने देखी होगी अशोक कुमार की...
हां देखी है.. एक और फ़िल्म बनाई थी ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘सत्यकाम’। वो फ़िल्म देखकर मेरे दोस्त (रंजित कपूर, ‘जाने भी दो यारो’ के सह-लेखक) की जिंदगी बदल गई। वो क्राइम करने जा रहा था, उसको वो फ़िल्म देखनी ही नहीं थी उसको कोई एंटरटेनमेंट वाली देखनी थी। पर वो फ़िल्म देखी उसने तो बोला “ये मैं क्या करने जा रहा हूं?” पिक्चर देखके उसने रास्ता बदल लिया। और जब ऋषिकेश मुखर्जी को सालों बाद पता चला कि एक आदमी ने अपनी जिंदगी का रास्ता बदल लिया तो वो इतने खुश हो गए कि मैं क्या बताऊं आपको। और मेरा दोस्त इसके बाद ही फ़िल्म इंडस्ट्री में आया। तो आप सोचिए ...

आप देखिए ‘आशीर्वाद’ कितनी अकल देती है। उसमें प्रांगण में खुले घूमते या अन्यथा कैदियों के बारे में जेलर (अभि भट्टाचार्य) और डॉक्टर (संजीव कुमार) जैसे पात्र विचार रखते हैं कि वे कोई शेर भालू हैं जो पिंजरे में बंद रखे जाएं। जेल के बारे में ये ही तो भ्रांति है। जैसे शरीर के रोगों के लिए अस्पताल है, वैसे ही मानसिक बीमारी के लिए जेल है। आदमी यहां आता है ताकि समाज और परिवार से दूर अपने साथ एकांत में वक्त बिता सके और फिर समाज में लौट सके। कितनी सार्थक-सुलझी सोच देकर जाने वाले थे हमारे फ़िल्मकार...
ऐसी फ़िल्में बनना बहुत जरूरी है। जैसे देखो, एक शरीर को ख़ुराक़ चाहिए, रोटी चाहिए, दाल चाहिए। वैसे भी दिमाग को भी कुछ तो चाहिए न ख़ुराक़। तो ऐसी फ़िल्में बनना जरूरी है। ऐसे न्यूजपेपर की जरूरत है, ऐसे लोगों की जरूरत है। बहुत से लोग बिचारे काम कर रहे हैं यार। अब हम भी एक हैं यार। तुम बोलोगे बदलाव नहीं आया तो नहीं आया यार। कोशिश तो करते हैं।

 आप किसपे लिखते हैं? की-बोर्ड पर या पेन से?
अरे साब मैं बहुत फास्ट टाइपिस्ट हूं। मेरे पिताजी ने बोला था, “टाइपिंग सीखो भूखे नहीं मरोगे”। तब उस जमाने में सीखा। अब भी मैं हिंदी में भी टाइप करता हूं दोनों हाथों की पांचों अंगुलियों से। अच्छा टाइपिस्ट हूं। अच्छी स्पीड भी है। कंप्यूटर पर लिखता हूं।

आप कौन सी फ़िल्मों को देखकर सबसे ज्यादा हंसे हैं?
बहुत सी फ़िल्में हैं। एक है.. फ्रैंकली में पहली या दूसरी बार बता रहा हूं जहां से मुझे डेड बॉडी का आइडिया “जाने भी दो यारो” में आया था वो एक फ़िल्म है “डेथ ऑफ अ ब्यूरोक्रैट” (1966)। क्यूबन फ़िल्म है मेरे ख़याल से। उसमें क्या हो जाता है कि वो आदमी मर जाता है। तो उसका जो पेंशन कार्ड है वो दफनाते वक्त साथ चला जाता है। अब कार्ड चाहिए तो बोलते हैं कि दफनाया है उससे बाहर निकालना पड़ेगा। उसे बाहर निकालने का जो पूरा ब्यूरोक्रैटिक प्रोसेस है तो पूरी ब्यूरोक्रेसी है यार उसमें। इसे देखकर बहुत हंसा। बहुत सी और भी फ़िल्में हैं जो आपको हंसाती हैं साथ ही सोचने पे मजबूर करती हैं। एक और पुरानी फ़िल्म है स्टैनली कुबरिक की “डॉ. स्ट्रेंजलव ऑरः हाउ आई लर्न्ड टु स्टॉप वरिंग एंड लव द बॉम्ब” (1964)।

जो बच्चे एफटीआईआई (भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे) में एडमिशन नहीं ले सकते वो सेल्फ-स्कूलिंग कैसे कर सकते हैं?
आजकल तो फ़िल्म इंस्टिट्यूट इंटरनेट पर भी हैं। बहुत से लोग हैं जो फ़िल्मों से ही फ़िल्ममेकिंग सीखे हैं। जब आप फ़िल्म को देखते हैं फ़िल्म एप्रीसिएशन सीखना पड़ेगा। जैसे एक डॉक्टर डेड बॉडी लेकर परीक्षण करता है कि उसकी धमनियां कहां हैं, ये कहां है, वो कहां है? काट के वो देखते हैं। वैसे ही फ़िल्म का पूरा विश्लेषण करना पड़ेगा। कि ये सीन क्या करता है? ये डायलॉग क्यों है? ये पूरा डीटेल में खुद से पूछना पड़ेगा। फिर उसको मालूम पड़ेगा कि ये क्यों कैसे बनी है फ़िल्म? नहीं तो बस आप ऊपर से देख लेते हैं कि ये हो जाता है लेकिन फ़िल्म क्षेत्र में आने के लिए आपको पूरा फ़िल्म विश्लेषण करना पड़ेगा। ये सारी चीजें आज इंटरनेट पे हैं। बहुत सारे फ़िल्म इंस्टिट्यूट हैं इंटरनेट पर वो बताएंगे कि आपको क्या करना है। फिर आप करेंगे वो देखेंगे कि कैसा है।

लेकिन क्या वो महंगा नहीं होगा?
अरे वो फ्री है। मैं सब मोफत का बात कर रहा हूं। बहुत सारी हिंदी स्क्रिप्ट्स भी ऑनलाइन हैं अभी।

“जाने भी..” को छोड़ दें तो कौन सी पॉलिटिकल सटायर आपको पसंद आई है?
एक थी “तेरे बिन लादेन”। वो अच्छी है। उसमें मुझे सेकेंड हाफ में अच्छा लगा। कि वो पूरा सीआईए को इनवॉल्व करता है। एक झूठा लादेन पैदा करता है। वो फंस जाते हैं और सीआईए आ जाती है। बस अंत गड़बड़ था कि आप क्या कटाक्ष कर रहे हैं, व्यंग्य कर रहे हैं अमेरिका पर, लादेन के जरिए। और लादेन ही अमेरिका पहुंच जाता है। तो लगता है कि यार ये कहां हो गया।

“फंस गए रे ओबामा” ?
उसमें वो था न किडनैप, फिर और किडनैप। अच्छी है कॉमेडी के लेवल पर। मैंने देखी नहीं है। उसमें जो आर्टिस्ट है वो जबरदस्त है। संजय मिश्रा। जिन्होंने “आंखों देखी” की। जबरदस्त आर्टिस्ट है।

आर्टिस्ट आमतौर पर सनकी होते हैं। आपको दोस्त और परिवार वाले किस श्रेणी में रखते हैं?
ये तो उन्हीं से पूछना पड़ेगा। कभी-कभी परिचित या एक्टर या एक्ट्रेस बोल देते हैं कि सर तो वैसे हैं, पर मुझे लगता है मैं सही हूं। वैसे ये जवाब बहुत मुश्किल है।

जो युवा फ़िल्मों में आ रहे हैं उनके सामने क्या दो ही रास्ते हैं? एक कमर्शियल फ़िल्में बनाओ या सार्थक फ़िल्में बनाकर भूखे रहो? कुछ और विकल्प है? 
देखो रास्ता तो अपना ढूंढ़ना पड़ेगा। सफलता की कोई गारंटी नहीं है। फ़िल्म लाइन में यही है। क्योंकि एक डायरेक्टर बनता है तो सौ खो जाते हैं। निर्णय तो आपको लेना पड़ेगा। कमजोर दिल वाले हैं वो खो जाते हैं। जो बनते हैं बन जाते हैं, जो नहीं बन सकते नहीं बनते। ये ट्रैजेडी ही है। क्या करें?

Kundan Shah was most known for his classic comedy Jaane Bhi Do Yaaro (1983). His other notable works are - TV series Wagle Ki Duniya (1988) and Nukkad (1986), Parsai Kehte Hain. He also made Bollywood films such as Kya Kehna (2000) and Dil Hai Tumhara (2002). His last film P Se PM Tak released on 29 May 2015. Like Jaane Bhi.. it is a political satire. Kundan Shah passed away on Saturday October 7, 2017 following a heart attack. He was 69. What a wonderful, honest and caring human being he was! He will be missed.

(First published on 29/05/2015, this interview was last updated on 07/10/2017)
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Monday, September 28, 2015

मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है, उसमें चाह रहती है कि चीजें इससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं: कनु बहल

.Q & A  .Kanu Behl, film writer and director (TITLI).

Amit Sial, Shashank Arora and Ranvir Shorey in a still from Titli.
ये भी ‘तितलियों’ की हत्या का दौर है। चैतन्यता, प्रेम, आजादी, यौन उन्मुखता, समानता, प्रकृति, फकीरी और सहिष्णुता पर संकट है। इस बीच कनु बहल की फिल्म ‘तितली’ आ रही है। कहानी दिल्ली में रहने वाले एक परिवार की है। तीन भाई हैं। सबसे छोटा है तितली। संवेदनशील है और आपराधिक पेशे से दूर जाना चाहता है, उसका ये नाम संभवत: इसीलिए रखा गया है। ये भूमिका नवोदित शशांक अरोड़ा ने अदा की है। बड़े भाई विक्रम का रोल रणवीर शौरी और प्रदीप का रोल अमित सियाल ने किया है। तितली की शादी नीलू से की जाती है जो किसी और से प्यार करती है। नीलू के रोल में शिवानी रघुवंशी हैं। तीनों भाइयों के पिता की भूमिका वरिष्ठ रंगकर्मी और एक्टर-डायरेक्टर ललित बहल ने की हैं। वे नवोदित निर्देशक कनु के पिता हैं।

दिल्ली में पले-बढ़े कनु की मां नवनिंद्र बहल भी वरिष्ठ अदाकारा और एक्टर-राइटर-डायरेक्टर हैं। नोएडा की एपीजे स्कूल में पढ़े कनु ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज से बिजनेस में बैचलर्स डिग्री ली। 2003 में वे कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (SRFTI) सिनेमा की पढ़ाई करने गए। चार साल बाद 2007 में मुंबई पहुंचे और वहां निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की दूसरी फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए!’ में असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए। उनकी अगली फिल्म ‘लव सेक्स और धोखा’ (2010) में भी वे ए.डी. थे। उन्होंने जर्मनी के चैनल ZDF और जापान के NHK के लिए डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। 2010 में कनु ने अपनी पहली फिल्म ‘तितली’ लिखनी शुरू की जिसकी स्क्रिप्ट 2012 में एनएफडीसी की स्क्रीनराइटर्स लैब में चुनी गई। फिल्म में उनके सह-लेखक हैं शरत कटारिया जो पहले ‘भेजा फ्राय’ जैसी फिल्म लिख चुके हैं और बतौर निर्देशक इस साल उनकी पहली फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ आई है। ‘तितली’ का निर्माण दिबाकर बैनर्जी और यशराज फिल्म्स ने किया है। इसका फिल्मांकन सिद्धार्थ दीवान और एडिटिंग नम्रता राव ने की है। फिल्म पिछले साल फ्रांस के केन (Cannes) फिल्म फेस्ट की विशेष श्रेणी ‘अं सर्तेन रगाद’ (Un Certain Regard) में प्रदर्शित की गई तब से और चर्चा में है। यहां ‘कैमरा दॉर’ (Caméra d'Or) श्रेणी में भी इसे नामांकित किया गया। विश्व के 22 से ज्यादा फिल्म महोत्सवों में अब तक जा चुकी है।

‘तितली’ भारत भर के सिनेमाघरों में 30 अक्टूबर को प्रदर्शित होने जा रही है। इसके अलावा कनु अपनी अगली फिल्म भी लिख रहे हैं। इसका नाम ‘आगरा’ बताया जाता है। ये एक 24 साल के लड़के की कहानी है जो एक लड़की के प्यार में पड़ जाता है। लेकिन जल्द ही ज्ञात होता है कि वो लड़की काल्पनिक है। अभी भारत में प्रेम की परिस्थिति क्या है इसे भी ये कहानी प्रस्तुत करेगी। कनु से उनके जीवन, तितली, सिनेमा और सोच पर बात हुई। प्रस्तुत है:

एक साल पहले ‘तितली’ का ट्रेलर आ गया था और केन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी तब चली गई थी। क्या तब पूरी तरह तैयार नहीं हो गई थी? या भारतीय प्रिंट में समय लगा?
नहीं, दरअसल फिल्म का अंतरराष्ट्रीय चक्र (festival cycle) करीब एक से डेढ़ साल लंबा होता है। एक बार केन (Cannes) चली जाती है तो काफी सारे शीर्ष फेस्टिवल्स में जाती है। हम फेस्टिवल फेरे को पहले पूरा करना चाहते थे। फिल्म पूरे जहां में कुछ सबसे बड़े फिल्म महोत्सवों में गई है। ये रॉटरडैम (Rotterdam) में गई है जो नीदरलैंड्स में होता है। गोटेनबर्ग (Gothenburg) में गई है जो स्वीडन में होता है। एएफआई (American Film Institute), लॉस एंजेलस में गई है। बीएफआई (BFI), लंदन में गई है। इसने 9* पुरस्कार जीते हैं। आमतौर पर ऐसी छोटी फिल्म के लिए काफी प्रयास करने पड़ते हैं। इंटरनेशनल मॉडल को फॉलो करना पड़ता है। इसके पीछे का सारा आधार तैयार करना होता है।

समाज में बहुत सारे विषय और चिंताएं हैं लेकिन पितृसतात्मक (Patriarchal) समाज पर ही आपने अपनी पहली फिल्म क्यों बनाई? ऐसा क्या लिंक रहा इस विषय से?
बहुत ईमानदारी से बोलूंगा। मैंने जब ये फिल्म लिखनी शुरू की थी तो मुझे नहीं पता था कि ये किन-किन थीम्स से रूबरू होगी। मैंने इससे पहले एक और फिल्म लिखी थी जिसकी स्क्रिप्ट मैं एक-डेढ़ साल लेकर घूमा हूं। दिबाकर (बैनर्जी) को भी पढ़ाई। मैंने बनाने की कोशिश की और कहीं न कहीं मुझे अहसास हुआ कि यार, ये ईमानदार फिल्म नहीं है! मैंने बस लिखने के लिए एक फिल्म लिख दी है। इसका कोई मतलब नहीं है। उसके बाद मैं डिप्रेशन में चला गया पांच-छह महीने। घर बैठा। मैंने सोचा कि यार तुमने शुरू क्यों किया था? तुम फिल्म क्यों बनाना चाहते थे सबसे पहले? वो इसलिए कि मुझे कहानी कहनी थी। सच्ची कहानी। जो अपने से जुड़ी हो। फिर वहां से पूरा विचार शुरू हुआ कि इस बार मैं जो लिखूंगा उससे मेरा अपना जीवन और अनुभव जुड़ा होना चाहिए। अच्छे तरीके से और भली-भांति तो मैं अपने परिवार को ही जानता था। सोचने लगा, तो वो एक बहुत ही नेचुरल सब्जेक्ट बन गया मेरे लिए... नॉर्थ इंडिया में रहते हुए, दिल्ली में रहते हुए .. जो कि एक बहुत पेट्रियार्कल सोसायटी है। मेरा अपने पिता से बहुत ही मुश्किल रिलेशनशिप रहा है। कुछ वो चीजें स्क्रिप्ट में ढुलनी शुरू हुईं।

 तो फिल्म बन गई एक ऐसे युवा के बारे में जो अपने बड़े भाई से भागना चाहता है क्योंकि बड़ा भाई बहुत हिंसक है। उसे मारता है, पीटता है, तंग करता है। इसमें कुछ अतिरिक्त बात लाने और इन बिंदुओं को तीखा करने के लिए मैंने और शरत (कटारिया) ने उसे एक फैमिली में सेट किया कि वो एक कारजैकर्स (कार लूटने वाले) की फैमिली से है। क्योंकि ... तभी-तभी ये रेप केस (दिल्ली, 2012) भी हुआ था। उसे भी समझने की कोशिश कर रहे थे। हम लोग लड़खड़ा रहे थे, ढूंढ़ रहे थे कि ये फिल्म है क्या? ये सारी चीजें अभी मैं बोल रहा हूं तो आपको लगेगा कि सोच के करीं, पर सच्चाई ये है कि ये सारे जो फिल्म के दरवाजे थे वो बतौर लेखक हमारे सामने एक-एक करके खुले। हमें ये भी लगा था कि इस फैमिली का हिंसक होना जरूरी है न सिर्फ घर में बल्कि बाहर भी। तो हमने कारजैकिंग की पृष्ठभूमि बनाई और उसके बारे में रिसर्च करना शुरू किया। कहानी के मुझसे जुड़े इमोशंस ये थे कि मेरा अपने फादर से डिफिकल्ट रिलेशनशिप था जो कि अपने आप में ही बहुत कॉमन चीज हैं। शरत का भी अपने पिता से कठिन रिश्ता था, सिद्धार्थ (दीवान) जिन्होंने फिल्म शूट कीं उनका भी अपने पिता से रिश्ता कठिन था। तो ये सबके भी विचार जुड़ते गए फिल्म में, जैसे-जैसे क्रू एड होती गई। शुरुआत यहीं से हुई थी।

 उसे हम पकड़ कर चले और पहला ड्राफ्ट लिखा। इससे ये कहानी चार मर्दों के परिवार की बन गई। एक पुरुषों वाली फैमिली में कोई लड़की आती है और क्या होता है? लेकिन फिर सोचा कि यार, बड़े भाई का किरदार तो आरोपित (accusatory) करने वाला लग रहा है। बड़ा भाई तितली को मार रहा है लेकिन इसमें तो हम गए ही नहीं कि ये ऐसा क्यों कर रहा है? इस घर में बड़ा पैटर्न क्या है? हमने बात करना शुरू किया कि यार अगर हम बोल रहे हैं कि ये जो छोटा लड़का है, वो अपने भाई से भागना चाह रहा है क्योंकि उसे बड़ा भाई जैसा है वैसा पसंद नहीं है तो वो भाई ऐसा बना क्यूं? विचार आया कि ये बाप क्या कर रहा है यहां? इसका क्या रोल है? उसे जब तलाशा तो हमें बाप मिला फिल्म में। एक और ड्राफ्ट लिखा तो लगा कि अच्छा, बड़ा भाई बाप की वजह से ऐसा है। लेकिन फिर हमने सवाल पूछा कि बाप ऐसा क्यों कर रहा है? तो उससे हमें एक दादाजी की फोटो मिली घर में। देखिए, ..फिल्म एक स्पेस है जिसमें हम 100 या 110 दस मिनट में एक स्टोरी कहना चाह रहे हैं.. और जिस दिन हमें आइडिया आया कि घर में एक दादाजी की फोटो है जिसकी पिताजी बार-बार पूजा करते हैं तो वो चक्र (circularity) ज्ञात हुआ। तब हमें पता चल गया कि ये फिल्म किस बारे में हैं?

 असल में फिल्म पितृसत्ता से भी ऊपर उठकर एक फैमिली के बारे में है। परिवार के पावर डायनेमिक्स (power dynamics) आपस में क्या होते हैं उस बारे में है। परिवार में जो ये भूत घूमते रहते हैं न चित्रों के.. और इन एक से दूसरी छवि में जो हस्तांतरित (pass on) होता रहता है.. ये एक्चुअली उसके बारे में है। तब हमें पता चला कि इस लड़के को लगता है कि वो बड़े भाई से भागना चाहता है पर असल में तो वो बाप से या दादा की फोटो से भागने की कोशिश कर रहा है। और शरीर के भागने से कुछ नहीं होगा। आप कितना भी भाग जाओ वो तो हमारे अंदर है। ये करते-करते स्क्रिप्ट की यात्रा रही है। ये मेल डॉमिनेशन से पेट्रियार्की से सर्कुलैरिटी पर चली गई है। मेरे हिसाब से पेट्रियार्की एक रनिंग थीम है फिल्म की। अगर हम सबसे बड़े माले पर जाकर इस पूरी ईमारत को देखें तो सबसे बड़े तौर पर ये फिल्म फैमिली सर्कुलैरिटी के बारे में है।

आपने फिल्म के साथ इतना वक्त बिताया है कि उसे बहुत स्तर पर और बहुत लहजों से जानते हैं। लेकिन बाहर से सिर्फ ट्रेलर देखते हैं तो मोटे तौर पर पेट्रियार्की ही समझ आती है। बड़ा चैलेंज अभी भी हमारे यहां पितृसत्ता वाला समाज है। आप रोज घटनाएं देख रहे हैं। पढ़ने-लिखने के दौरान निराशा ही होती है। ‘मैं हूं मर्द तांगे वाला’ और ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’ के अमिताभ से लेकर हालिया ‘बाहुबली’ के प्रभास को ले सकते हैं जो शिवेंदु का किरदार करते हैं जिसमें हीरोइन (तमन्ना भाटिया) का उद्देश्य होता है कि वो बदला लेना चाहती है तो नायक उसे रोक देता है। अर्थ दिखता है ‘तू खूबसूरत रह, तू मुझसे लव कर, तेरा काम मैं करूंगा’।
बिल्कुल। ‘तितली’ पेट्रियार्की के बारे में ही है लेकिन इससे पहले भी ऐसी फिल्में रही हैं जो शायद इस मसले को डील कर चुकी हैं। हम बात कर रहे थे कि जब ये सारी फिल्में हैं तो हम अपनी फिल्म क्यों बना रहे हैं? यही बात क्यों कह रहे हैं? तो तय हुआ कि हम इस पर ही खत्म नहीं करना चाहते थे कि हमारे यहां पेट्रियार्की है और वो खराब है, हम उससे जूझ रहे हैं। ये तो सबको मालूम है। इस बात पर तो कई सदियों से लड़ाई चल ही रही है। लेकिन एक बार जब हमने मजबूती से तय कर लिया कि ‘तितली’ में इस विषय पर बात करना चाहते हैं तो उसके बाद हमारा पूरा प्रयास इस पर था कि ये क्यों है? और ये कहां से आती है? और इस पूरी डिबेट को खोला कहां जाए? इसकी शुरुआत कहां से होती है? और अगर इसे तोड़ना है तो क्या किया जाए? बात सिर्फ वहीं पर नहीं रुक जानी चाहिए जहां हर फिल्म ले जा चुकी है। बात उससे आगे जानी चाहिए। पेट्रियार्की के ढांचे को कैसे तोड़ा जाए? फैमिली के मायने क्या हैं? क्यों ये जुड़ी तो उसी से है न! प्रयास इसी पर रहा है कि परिवार और पितृसत्ता को समझा जाए और उसमें जो गलत पैटर्न नजर आ रहे हैं उनसे कैसे जूझा जाए। ये प्रॉबल्म इतना बड़ा है तो इसका मामूली सॉल्यूशन से काम नहीं चल सकता। हमने सोचा कि इसके भीतर जाकर कुछ फिल्टर व परदे और खोले जाएं जो हमें नजर (view) दे कि शायद इस मसले का हल यहां से खुल सकता है। क्योंकि पेट्रियार्की का स्ट्रक्चर हम सबसे बड़ा है। हम उन्हीं परिवारों, उसी पितृसत्ता और उन्हीं भूतों से जूझते हुए कुछ समझे बगैर 80 साल का जीवन जी लेते हैं। यही 70-80 साल अगर पेट्रियार्की के स्ट्रक्चर को समझकर उसका समाधान ढूंढ़ने में लगाएं तो शायद उसे बेहतरी से तोड़ पाएंगे, न कि इंसानों से ही लड़ते रहें। तो फिल्म शुरू उसी लड़ाई से होती है।

यानी आप उपाय भी साथ में बताने की कोशिश कर रहे हैं जो ज्यादातर फिल्मकारों द्वारा नहीं किया जाता। सत्यजीत रे की ‘महानगर’ बहुत चतुराई से दर्शक से कहती है कि घर की औरत को बाहर निकालो, शुरू में दिक्कत होगी आपको, मां-बाप को लेकिन बाद में बदलाव स्वीकार हो जाता है। ‘अशनी संकेत’ में जाति व्यवस्था पर बहुत मानवीय तरीके से बता देते हैं जहां उनका ध्यान इंसान की बुराई पर नहीं समस्या के ढांचे पर है कि ये समस्या रहेगी अगर आप इसे ऐसे रहने देंगे तो। ‘पाथेर पांचाली’ भी ऐसी थी। या अरुणा राजे की ‘रिहाई’ बहुत ही मजबूत नारीवादी फिल्म थी। आपने कहा कुछ पहले फिल्में रहीं जो इस विषय पर बात कर चुकी हैं, आप के जेहन में कौन सी थीं?
मैं इतनी फिल्में नहीं देखता आजकल। पिछली बार फिल्में फिल्म स्कूल में ही देखी थीं। मैं लिट्रेचर से ज्यादा जुड़ा था। इस संदर्भ में आर. डी. लैंग (R. D. Laing) हैं पॉपुलर साइकैट्रिस्ट, उनकी किताब है ‘द पॉलिटिक्स ऑफ द फैमिली’ (The Politics of the Family)। ये हमारा प्रमुख दस्तावेज बनी थी फिल्म के लिए। मेरी जो समझ है वो इससे बनी, और इससे मेरा वास्ता संयोग से ही हुआ था। मैंने किसी को स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट पढ़ने के लिए दिया था कि हम क्या कर रहे हैं और हम बहुत एक्साइटेड हो गए थे कि ये देखो हमें लग रहा है कि हमने कुछ नया ढूंढ़ िलया है। ये सर्कुलैरिटी की बात किसी ने नहीं की थी। उन्होंने पढ़ी और जवाब दिया कि ‘आपने कभी आर. डी. लैंग पढ़ा है?’ मैंने और शरत ने बोला, नहीं सर हमने तो नहीं पढ़ा है। तो बोले, ‘आप ये किताब पढ़ो।’ जब पढ़ी तो अहसास हुआ कि हम जो सोच रहे थे कि हमने नया ढूंढ़ा है दरअसल एक इंसान अपना पूरा जीवन इसी बारे में बात करते हुए निकाल के गया है। इस पेशे में उन्होंने जो भी पचास-साठ साल बिताए वो इसी इश्यू पर लिख रहे थे। सर्कुलैरिटी पे ही लिख रहे थे। कि कैसे पीढ़ियों में व्यक्तित्व यात्रा करते हैं। एक जेनरेशन की पर्सनैलिटी दूसरे पे आती है। हम अपने ही आसपास के लोगों से लड़ते रहते हैं, ब्लेम करते रहते हैं लेकिन शायद ये साइकल ब्रेक करना ज्यादा जरूरी होता है। बाकी फिल्में तो हैं ही लेकिन हमने स्क्रिप्ट लिखते हुए कोई फिल्म नहीं देखी जो परिवार से जुड़ी हो। हमने फिल्मों के अपने सामान्य ज्ञान से ही बातें लीं कि वे कहां तक पहुंची हैं। मेरा तो फिल्म स्कूल जाने का पूरा इरादा ही यही था कि क्या फिल्में बन चुकी हैं और कहां आगे जाया जा सकता है? सेम फिल्में दोबारा बनाने का कोई सेंस नहीं है।

शरत कब जुड़े ‘तितली’ से? और सवाल ये था कि एक निर्देशक या लेखक जो मूल कॉन्सेप्ट अपने दिमाग में पैदा करता है उसे किसी सह-लेखक की जरूरत क्यों पड़ती है? दूसरा, आपके विचार को वो उतनी ही आत्मीयता या मौलिकता से कैसे जान सकता है? क्योंकि वो तो दूसरा आदमी है। और फिर प्रोसेस क्या रहता है लिखने में? वो क्या मदद कर पाता है? जैसे ‘मसान’ में नीरज (घेवन) ने वरुण ग्रोवर को साथ जोड़ा था। तो अच्छी बात बन बड़ी। आपकी फिल्म में भी शरत हैं। क्या सह-लेखक एक बाहरी ही नहीं बना रहता?
Sharat and Kanu.
मेरे हिसाब से फिल्ममेकिंग बहुत सहयोगपूर्ण (collaborative) काम होता है। शरत से लेकर सिद्धार्थ (जिन्होंने शूट की) से लेकर नम्रता (जिन्होंने एडिट की) तक हर इंसान अपनी कहानी इस फिल्म में लेकर आया। इसीलिए ये फिल्म इतनी अच्छी बनी है। शरत तो इसका सबसे पहला हिस्सा था जब कोई नहीं था। शरत का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उससे मैं मिला था करीब अक्टूबर 2012 में। और हमें करीब डेढ़ साल लगा ये फिल्म लिखने में। उसका आना बहुत जरूरी इसलिए था क्योंकि एक तो मुझे लगता है हर स्क्रिप्ट एक जीता जागता इंसान होती है। मुझे लगता है उसमें इतनी सारी चीजें, इतने सारे किरदार होते हैं कि एक आदमी का उस पर खेलना थोड़ा सीमित हो जाता है। दो लोग जब मिलकर खेल रहे हैं और उनमें लेन-देन होता है बातचीत का तो हर पात्र के अंदर जो जीवन है थोड़ा बढ़ता है। और खिल उठता है। और उसके अंदर का प्ले ज्यादा दिखता है। हम दोनों के व्यक्तित्व भी थोड़े विरोधाभासी हैं। तो विरोध थे। लेकिन बहुत जल्द ही हमें एक कॉमन चीज को मिल गई, वो ये कि हम दोनों एक ही जगह से थे। कम और ज्यादा हम दिल्ली के समान इलाकों से थे। मैं पटपड़गंज में रहता था और शरत वेस्ट दिल्ली में रहता था। जिन लोगों के बारे में हम बात कर रहे थे उनको मैं और वो बहुत अच्छे से जानते थे। वहीं पर हमको एक बहुत स्ट्रॉन्ग कॉमन ग्राउंड मिल गया। जब हम किसी भी चीज के बारे में बात करते थे तो बहुत जल्दी हमारा एक कोड बन जाता था। शरद की मजबूती है राइटिंग की, वो है कैरेक्टर्स और डायलॉग्स.. और मेरा स्ट्रक्चर का सेंस है और कहानी का सेंस है तो वो एक बहुत अच्छी चाबी बनी और हम दोनों जुड़ गए। वो बहुत बड़ी ताकत थी।

.. मैं ऑथर स्टोरी में बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखता हूं। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर कोई ऑथर होता है या कोई बहुत बड़ी चीज होता है। मुझे लगता है डायरेक्टर अपना बहुत राजनीतिकरण करते हैं। जबकि फिल्म में टीम वर्क होता है। शरत टीम का सबसे पहला हिस्सा था और दोनों के आने से कहानी कोई तीसरी ही चीज बन गई। मेरे न होने से भी वह नहीं होती और उसके न होने से भी। जब दोनों साथ आए और बात करनी शुरू की, कि भई ये क्यों हो रहा है? शरत बोला कि भई तू तो तितली को बिल्कुल ही पीड़ित (victim) दिखा रहा है और बड़ा भाई बस विलेन ही बन रहा है। उस सवाल पर हम आगे बढ़े। उसके बाद मैंने सवाल पूछे उसके शरत ने जवाब दिए। ये जो मंथन होता है इसके बिना सिर्फ एक राइटर-डायरेक्टर के लिए - कम से कम मेरे मामले में अगर मैं दूसरों की बात न भी करूं - प्रोसेस थोड़ा सा एकाकी (lonely) हो जाता है और थोड़ा सा लाइफ उसमें से जाती रहती है। मुझे लगता है एक को-राइटर के होने से एक वैधता (validity) मिलती है, कहानी को सार्वभौमिकता (universality) मिलती है। क्योंकि वो सिर्फ आपकी कहानी नहीं होती.. आपके पास मौका आ जाता है ये देखने का कि ये किसी और की कहानी भी बन सकती है कि नहीं? या ये सिर्फ मेरी कहानी है? और जिस पल आपको पता चलता है कि हां ये किसी और की कहानी बन सकती है इसका मतलब.. सही है। इसका मतलब आप एक ऐसी विशेष (archetypal) चीज बोल रहे हैं जो आपसे आगे बढ़कर एक बड़ी परिस्थिति के बारे में भी बात कर रही है।

क्या ऐसा होता है कि जिस स्क्रिप्ट या कहानी पर आप जितना वक्त बिताते हैं वो उतनी अच्छी होती जाती है.. या उल्टा? जैसे ‘पीके’ है तो उसमें राजकुमार हीरानी और अभिजात जोशी ने तीन-चार साल बिता दिए और आपने इस पर डेढ़ साल और शायद एक साल पहले किया होगा। या ऐसा भी होता है कि दस दिन या एक-दो सिटिंग में आपने लिख दी हो वो भी आइकॉनिक बन सकती है?
नियम तो कोई नहीं है। मैं सिर्फ इतना बोल सकता हूं कि अच्छी फिल्में एक कहानी के बारे में नहीं होती, कैरेक्टर्स के बारे में होती हैं। मेरे हिसाब से। और कैरेक्टर आता है आपकी लाइफ के निचोड़ से, अनुभव से। जितना ज्यादा आप उसे समय देते हैं वो कैरेक्टर उतना ही ज्यादा आपसे बात करने लग जाता है। और एक्चुअली बहुत सारी लिखाई होती है कैरेक्टर के पास पहुंचने तक.. वही सारा जो एफर्ट होता है, सारा जो डिजाइन होता है वो वही होता है कि कब आप अपने और कैरेक्टर के बीच की दीवार हटा दें और वो आपसे सच्चाई से बात करने लगे। कुछ लोग होते हैं जो दस-दस दिन में भी स्क्रिप्ट लिख लाते जाते हैं और बड़ी अच्छी होती है। लेकिन मेरा विश्लेषण ये है कि ऐसे लोग थोड़े से बिखरे (sporadic) हो जाते हैं। उनकी एक स्क्रिप्ट बहुत अच्छी होती है, फिर एक नहीं, फिर एक बहुत अच्छी होती है। वो थोड़ा सा त्रुटि वाला प्रोसेस (Error sticken process) होता है। कभी कभी हो जाता है कभी नहीं होता है। लेकिन जितना टाइम आप किसी चीज को दें उतना वो आपको वापस देती है, ये तो तय है। अगर आप उतना ही समर्पित हैं अपने प्रोसेस को लेकर.. सिर्फ टाइम के लिए टाइम लगाएंगे तो जाहिर है कुछ नहीं होगा.. अगर आप उतने ही समर्पण के साथ अपनी कहानी और पात्रों के पीछे जा रहे हैं और उनकी पूंछ पकड़कर बोलें कि हां भई बताओ तुम क्या कहना चाहते हो.. तो मुझे लगता है ज्यादा टाइम हमेशा फायदेमंद ही होता है।

‘तितली’ को लेकर एक्टर्स, सिनेमैटोग्राफर, एडिटर और बाकी टीम को आपका ब्रीफ क्या रहा?
हमने सबसे पहले तो सबको वो किताब पढ़ाई। फिर कुछ म्यूजिक था। एक-दो गाने थे जो मैंने सबको सुनाए। जो मूड देते हैं फिल्म का। कि हम ये मूड देना चाहते हैं.. 

गाने मतलब?
मैंने जो म्यूजिक सुना हुआ था लाइफ में जिससे मुझे पता लगा कि हम इस मूड का पीछा कर रहे हैं। वो गाने। और हमारा एक शब्द था - मैं अपनी हर फिल्म में एक शब्द रखता हूं जो कहानी का पूरा निचोड़ होता है। ‘तितली’ में वो शब्द था उत्पीड़न (oppression)। ‘तितली’ हर तरह के ऑप्रेशन के बारे में है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यही थी कि ये फिल्म चक्र (circularity) के बारे में है। इस बारे में है कि कैसे जिस इंसान की पर्सनैलिटी से आप सबसे ज्यादा दूर भागना चाहते हो.. आप जितना दूर उससे भागते हो वो उतना ही आपके अंदर जागना शुरू हो जाता है। आप दूर भाग तो जाते हो लेकिन क्योंकि आप इतना उसके बारे में सोच रहे हो कि उसकी लौ आपके अंदर उतनी ही जलनी शुरू हो जाती है। इस फिल्म का हर पात्र, हर पल, हर कॉस्ट्यूम, हर प्रॉपर्टी, हर बात इसी बारे में है। इसे इसी लेंथ से देखना है। इसके अलावा ये बात की कि तुम्हारी लाइफ में क्या अनुभव थे जो इस चीज से जुड़ते हैं? और जब भी किसी से ये बात करते थे तो कोई न कोई नया अनुभव जुड़ता था। देखिए, फैमिली ऐसी चीज है कि जिससे हर कोई जुड़ा होता है। तो हरेक का अनुभव है और हम मानवों के पैटर्न इतने समान हैं कुल मिलाकर कि हर किसी की फैमिली में कुछ न कुछ झगड़ा या परेशानी होती था। बात करते थे तो वो वहीं से निकल कर आता था। कि हां यार, मैं अपने पिता जैसा नहीं बनना चाहता था लेकिन अब मैं बड़ा हो रहा हूं तो उन्हीं के जैसा बनता जा रहा हूं। कि हां मैं अपनी मां से इतना ज्यादा कुढ़ती थी, पूरी कोशिश करी कि कभी अपनी मां जैसी न बनूं लेकिन अब मुझे लगता है कि यार मैं तो बिलकुल वैसी ही होती जा रही हूं।

आपका बचपन ज्यादा कहां बीता? पंजाब में या दिल्ली में? कैसा था? किस किस्म के बच्चे थे? क्या तब घर में माहौल लिट्रेचर या कहानियों का था?
मेरे लिए तो अपने बारे में कहना थोड़ा मुश्किल ही है कि कैसा था? मेरे माता-पिता से शायद आपको बात करनी चाहिए.. लेकिन घर में माहौल था। मेरे पिता (ललित बहल).. वो भी फिल्म में हैं। इसमें पिता का रोल कर रहे हैं। वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। उनकी फीचर डेब्यू है ‘तितली’। माहौल शुरू से था। पापा एक्टर हैं, प्रोड्यूसर हैं, डायरेक्टर हैं... उन्होंने दूरदर्शन के लिए काफी काम किया। जब सैटेलाइट चैनल्स नहीं आए थे उससे पहले। शॉर्ट फीचर्स करते थे वो। दिल्ली में काफी जाने-माने हैं अपने वर्क के लिए। मेरी मां एक्टिंग टीचर हैं। वे प्रोफेसर थीं पटियाला के डिपार्टमेंट ऑफ टेलीविजन एंड थियेटर में। खुद लिखती भी हैं। वे दोनों साथ में टीम की तरह ही काम करते थे। मेरी मां लिखा करती थीं जो मेरे पिता डायरेक्ट करते थे या उल्टा होता था मां डायरेक्ट करती थी और पिता लिखते थे। तो आप कह सकते हैं कि वातावरण तो था ही। मैं बच्चा था तो याद है कि मां के साथ जाया करता था ‘द टेन कमांडमेट्स’ (The Ten Commandments, 1956) जैसी फिल्में देखने। ‘बेन हर’ (Ben-Hur, 1959) देखने। दिल्ली में शकुंतलम (सिनेमाघर) था तो वीकेंड पर मुझे याद है हम लोग वहां चले जाया करते थे। कोई न कोई क्लासिक लगी होती थी। मेरी शुरुआती याद भी ‘बेन हर’ की ही है। कि इसमें इतनी बारीकी से ह्यूमन लाइफ को कैप्चर किया गया है। सोचता था कि ये क्या दुनिया है? तो वो सब माहौल था, लिट्रेचर भी था ही, पढ़ने पर एक ज़ोर था। मेरे शुरू के करीब 8-9 साल पटियाला में गुजरे, उसके बाद मैं दिल्ली आ गया। फिर मैं 20-22 की उम्र तक दिल्ली में ही रहा। उसके बाद कैलकटा गया सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट। वहां पढ़ा चार साल। और 2007 से मैं बॉम्बे में हूं। कुछ सात-आठ साल हो गए यहां।

लिट्रेचर कैसा था? कॉमिक्स या स्टोरी बुक्स या कुछ और?
मैं सब कुछ पढ़ता था। कॉमिक्स पढ़ता था। उसी से शुरू किया। बॉलीवुड एक गहरा प्रभाव था। फिल्में देखना शुरू किया। 17-18 साल तक मैं सब कुछ देखता था। विश्व साहित्य में भी क्लासिक्स से लेकर नाबोकोव (Vladimir Nabokov 1899-1977) तक जो भी लाइब्रेरी में मिलता था पढ़ लेता था। थोड़ा सा मुझे लगता है स्पलिट पर्सनैलिटी (दोहरा व्यक्तित्व) है, दोस्त भी थे, बाहर भी बहुत रहता था लेकिन कैसे न कैसे अपने आप में भी था और पढ़ने में भी बहुत टाइम निकाल लेता था। पता नहीं मैं दोनों चीजें कैसे करता था। एक्टिव भी था फिजिकली लेकिन साथ ही घर पर बिलकुल अकेला बैठ लगातार दो-तीन दिन तक पढ़ता भी रहता था। ये दोनों ही बातें मुझमें आ गईं कि एक समय में अंतर्मुखी हो जाता हूं और दूसरे ही पल बाहर जाकर लोगों से इंटरैक्ट कर सकता हूं जब भी जरूरत हो।

इतिहास में देखें तो सबसे अमर कहानियां या आर्टवर्क जन्मा है तो भीषण त्रासदी में या अमानवीय घटनाओं से। हिटलर का संदर्भ देखें तो कितने आर्टवर्क और फिल्में रची गईं। वियतनाम युद्ध के बाद हम वॉर पर कितनी कालजयी फिल्में देख पाते हैं। भविष्य में आप और क्रिएटिव रहें, सृजन करते रहें इसके लिए जीवन में कोई कष्ट है जो निश्चित है? जैसे कहते हैं लेखक अगर पीड़ा में नहीं है तो अच्छा नहीं लिख सकता कभी..। आप सोचते हैं कि कष्ट की सप्लाई बंद हो गई तो मिडियोक्रिटी आ जाएगी?
जी बिलकुल सोचा है। आपसे पूरी तरह सहमत हूं। ये तो एक निरंतर चिंता हर आर्टिस्ट की होती ही है। पर मुझे नहीं लगता वो इतना ज्यादा किसी दर्द से जुड़ा होता है। विचार से जुड़ा होता है। ऐसे अगर आप देखें तो ऐसी अतीव-पीड़ा (extra ordinary pain) मेरी लाइफ में कुछ भी नहीं है जो किसी और ने महसूस न की हो। कई लोगों ने मुझसे भी ज्यादा पेन फील किया है लेकिन उन्होंने शायद बाहर आकर इतना अभिव्यक्त नहीं किया होगा जितना मैं करने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे लगता है ये पेन से ज्यादा विचार से जुड़ा होता है। और सक्सेस आने से पेन कम भी हो जाए तो मुझे नहीं लगता है उससे फर्क पड़ता है। फर्क इससे पड़ता है कि आपकी सक्सेस आपके पास समय कितना छोड़ती है विचार के लिए। ..और अपने अंदर मंथन के लिए। और फिर भी उतने ही सवाल पूछते रहें आप। उतना वक्त आपके पास बचता है या नहीं बचता? मुझे लगता है फर्क इसी बात का होता है। ऐसे तो बहुत से लोगों ने सफलतापूर्वक मर्डर के बारे में भी लिखा है जिन्होंने खुद कभी मर्डर नहीं किया। ये प्रतिबिंबित करने के बारे में है। कि आप अपने आसपास की चीजों को कितना गहरे में समझ पाते हैं और उसे रिफ्लेक्ट कर पाते हैं। अंदर की पीड़ा की कितनी थाह ले पा रहे हैं। मेरे लिए हर फिल्म ह्यूमनिस्ट होनी जरूरी है। जैसे तितली में भी पांच किरदार हैं और फिल्म का नाम तितली है लेकिन वो सिर्फ तितली के बारे में नहीं लिखी गई है न? पांचों किरदारों के लिए लिखी गई है। पांचों के दर्द हैं, उन सबके लिए लिखी गई है। मेरा काम एक फिल्मकार के तौर पर ये नहीं है कि मैं अपना दर्द बढ़ाए रखूं या अपना दर्द बरकरार रखूं और सिर्फ उसके बारे में बात करूं। मैं वो कहानियां करना चाहूंगा जिनमें हम सबने जो अपने दर्द बनाए हुए हैं उनके बारे में बात की जाए। ये पूरी तरह प्रतिबिंबित करने से जुड़ा होता है। और वो रिफ्लेक्शन टाइम कैसे बचाऊं मैं अपने लिए, आगे जाते हुए, वो मेरी चिंता है। उसकी तरफ मैं ध्यान दे भी रहा हूं।

जीवन का वो पल कब था जब कहा कि सिर्फ फिल्में ही करनी हैं? आप इतना आश्वस्त क्यों थे कि इसी में पूरी जिदंगी बिता पाएंगे?
कठिन सवाल है। कोई एक पल नहीं था। शायद मैं बहुत भाग्यशाली था क्योंकि मैंने कहानियों को बहुत पास से देखा। 4-5 साल का था, जबसे होश संभाला था कहानियां बनते हुए देख रहा था, उनका पावर देख रहा था। मैंने और कुछ इतना करीब से देखा ही नहीं। लेकिन तब भी.. मैंने बड़े होते हुए अपने माता-पिता को इतना स्ट्रगल करते हुए देखा टेलीविजन में.. जितनी वो मेहनत करते थे जितना काम करते थे मेरे हिसाब से उन्हें इसका उतना फल नहीं मिला। इस वजह से काफी टाइम तक मैं ऑलमोस्ट उल्टे मूड में था। सोच चलती रही। फिर काफी समय बाद वर्ल्ड सिनेमा के संपर्क में आया तो लगा कि ये जगह, ये काम है मेरे लिए, कि ऐसी भी फिल्में होती हैं। मैंने कीज़्लोवस्की (Krzysztof Kieśslowski) की ‘ब्लू’ (Blue, 1993) देखी, या कुबरिक (Stanley Kubrick) की ‘शाइनिंग’ (The Shining, 1980) देखी या ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’ (2001: A Space Odyssey, 1968) देखी.. या फिर कुस्तरिका (Emir Kusturica) की ‘अंडरग्राउंड’ (Underground, 1995) देखी। इस एक्सपीरियंस से जब गुजर रहा था तो मैं हिल गया कि ये बहुत ज्यादा इंस्पायरिंग है.. अगर ये काम है तो मुझे एक कोशिश तो करनी है कुछ महत्वपूर्ण करने की। वो मेरे लिए प्रेरक वक्त रहा 21-22 साल की उमर में। तब पहली बार आत्मविश्वास के साथ मैंने बोला कि हां मुझे ये करना है। फिल्में करनी हैं और मुझे इस तरह की फिल्में करनी हैं।

फिल्ममेकिंग जैसी अस्थिर चीज को जो भी छात्र या आकांक्षी लोग अपने लिए चुनें और उसमें सफल न हो पाएं तो क्या करें? ये तो तय है कि हर कोई सफल न होगा। हर कोई ‘तितली’ या ‘मसान’ तो नहीं बना सकता।
मुझे लगता है आपको फिल्मों में नहीं आना चाहिए अगर ये लगता है कि आगे सफल न हुए तो क्या करेंगे। ये थोड़ा सा पागलों वाला काम है। चाहे जितना भी अव्यावहारिक लगे लेकिन कभी ये सोचें ही नहीं कि मेरा बैकअप प्लान क्या होगा। क्योंकि ये पेशा बैकअप प्लान के लिए नहीं बना है। और ये करियर है भी नहीं। मुझे नहीं लगता फिल्मों को आपको करियर की तरह देखना चाहिए। ये जीवन जीने का एक तरीका (way of life) है। आप कुछ कहानियां कहना चाहते हैं। और वो कहानियां आपके अंदर हैं। और आप उन कहानियों से जूझ के और कई बार अपने आप से लड़कर उन्हें बाहर लाते हैं। तो वो भी एक तरह का ध्यान (meditation) है न! एक तरह का .. थोड़ा घिसा-पिटा (corny) लगता है शब्द पर .. पूजा है! उसके बीच में अगर आप अपना ध्यान हटाएंगे ये सोचने में कि स्थिरता, करियर.. तो आपका मेडिटेशन थोड़ा सा खराब होगा। ये जूझने वाला मामला है। हो जाता है। मैं भी वित्तीय तौर पर कोई बहुत स्थिर या सुरक्षित आदमी नहीं हूं। पर इतना विश्वास तो जरूर होता है कि हम अगला दिन देख लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर आप ‘मसान’ या कुछ खास तरह की फिल्में बनाना चाहते हैं, कहानियां कहना चाहते हैं तो आपका सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है वो ये है कि मुझे ये कहानी कहनी है। वो कैसे हो, कब हो और उससे जुड़ी हुई कठिनाइयां जो हैं उनसे जूझा जा सकता है।

आपने सत्यजीत रे फिल्म संस्थान में जाने से पहले कैसा सिनेमा देखा था और बाद में कैसे सिनेमा से वास्ता हुआ? कैसा तर्जुबा था?
वहां जाने से दो साल पहले से मैं समान किस्म का सिनेमा ही देख रहा था। जाने से पहले मैंने कीज़्लोवस्की देखा था। कुस्तरिका देखा था। लेकिन फिल्म स्कूल में जाकर और भी बहुत देखा। समकालीन भी और क्लासिक सिनेमा भी। ऑरसन वेल्स (Orson Welles, 1915-1985) भी देखा, अब्बास कीरोस्तामी (Abbas Kiarostami, 1940 - ) देखा। समकालीन में ज़ाक ऑर्दियाद (Jacques Audiard) देखा, स्टीव मेक्वीन (Steve McQueen) देखा। स्टीव की ‘हंगर’ (Hunger, 2008) देखी, ‘शेम’ (2011) देखी। हर किस्म का सिनेमा देखा। कोरियन सिनेमा में आजकल क्या हो रहा है। पर मुझे लगता है मेरे लिए जो सबसे बड़ा प्रभाव था जो पूरी तरह अप्रत्याशित था वो था डॉक्युमेंट्री। मैंने डॉक्युमेंट्री के बारे में कभी सोचा नहीं था। इत्तेफाकन ये हुआ कि जिन सालों में मैं फिल्म स्कूल में था उन सालों में डॉक्युमेंट्री मूवमेंट कैलकटा में बहुत स्ट्रॉन्ग हो रहा था और वो इंस्टिट्यूट से ही शुरू हो रहा था। उससे मेरा इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ के प्रति एक्सपोजर बहुत बढ़ा। जिसने मेरी फिल्म को भी काफी प्रभावित किया है। बहुत मैं उसका शुक्रगुजार रहा क्योंकि हमारे यहां डॉक्युमेंट्रीज़ बहुत सीमित और अरुचि वाली हैं लेकिन इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ देखकर मुझे एक अलग तरह की आजादी उनमें मिली। जिसे कहते हैं न कि कहानी से छुटकारा मिला और कैरेक्टर से प्यार हुआ और मुझे ये समझ में आया कि फिक्शन फिल्मों में भी कैसे वो अप्लाई किया जा सकता है? कैसे वो फ्रीडम दिया जा सकता है जहां कहानी के स्ट्रक्चर से ऊपर उठकर आप खाली एक किरदार के साथ चल सकते हैं।

कुछ ऐसी विस्फोटक डॉक्युमेंट्रीज़ जो बहुत प्रासंगिक हैं?
बहुत सारी हैं। कोसोकोवस्की की बहुत इंट्रेस्टिंग हैं। एक रशियन फिल्ममेकर हैं विक्टर कोसोकोवस्की (Viktor Kossakovsky)। उनकी बहुत सारी फिल्में हैं। वो अपने आप में.. बहुत अलग हैं। हमारे यहां इंडिया में निष्ठा जैन की फिल्में हैं जिनकी हाल ही में ‘गुलाबी गैंग’ आई। इससे पहले उन्होंने बहुत अच्छी फिल्में बनाई हैं। एक बहुत कमाल लिथुएनियन फिल्ममेकर हैं ऑड्रियस स्टोनिस (Audrius Stonys )।

डॉक्युमेंट्रीज़ में षड्यंत्र सुझाने वाली या हिला देने वाली फिल्मों की काफी संख्या है और वे इस कदर होती हैं कि उन्हें मान लिया जाए तो जीना मुश्किल हो जाता है। ‘जाइटगाइस्ट’ (Zeitgeist, 2007-2011) है, ‘फूड इंक’ (Food, Inc. 2008) है, वॉलमार्ट (Wal-Mart: The High Cost of Low Price, 2005) के बारे में है, या जापान में डॉल्फिन किलिंग पर बनी ‘द कोव’ ( The Cove, 2009) जिसे ऑस्कर भी मिला। दुनिया में हो रही ये साजिशें (conspiracy theories) देख हम इतने दुखी हो जाते हैं कि लगता है अब कुछ भी नहीं करना चाहिए मुझे मर जाना चाहिए ये दुनिया इतनी खराब है।
हम सब लोग ही इन सब चीजों से तो जूझते ही हैं। पॉइंट ये है कि हम इन सब विचारों का मूल क्या निकालते हैं, इन्हें मजबूत कैसे करते हैं और मुझे लगता है कि जो भी फिल्ममेकर ऐसी कोई फिल्में बनाता है तो इस उद्देश्य से ही बनाता है कि इसे देखकर कोई दुखी हो जाए या असमंजस में पड़ जाए या निराश हो जाए। बाकी हर इंसान जो भी काम कर रहा है और जो भी क्षेत्र उसने चुना है, उसके इर्द-गिर्द कोई मुद्दा फिल्म ने उठाया है तो उस पर जो एक्शन ले सकता है उसे लेना चाहिए। उधर ही आगे जाया जा सकता है। अन्यथा तो जीवन का कोई मतलब ही नहीं है। मेरा इससे डील करने का तरीका यही है कि किसी ऐसी सूचना से या किसी ऐसे इमोशन से एक्सपोज़ होता हूं जो मुझे बहुत डिस्टर्ब करता है या जिससे मैं बहुत ज्यादा प्रभावित होता हूं .. तो मैं वापस उसकी ओर जाता हूं, विचार मंथन करता हूं और उससे कुछ अच्छी चीज या अपना कुछ आउटपुट लेने की कोशिश करता हूं। मैं जितना योगदान दे सकता हूं उस मुद्दे को उठाने में या सॉल्यूशन की ओर जा सकता हूं उतना योगदान में अपने क्षेत्र में कर रहा हूं। वही एक विचार है जो हर वर्क ऑफ आर्ट करना चाहता है। आदर्श रूप से तो वही सबको करना चाहिए।

नम्रता राव एडिटिंग टेबल पर और सिद्धार्थ दीवान विजुअली कौन सी ऐसी चीजें या विचार लाए जो सिर्फ उन्हीं का योगदान था ‘तितली’ में?
ये इतना करीबी और साथ का काम होता है कि मेरे लिए बोलना मुश्किल है... । सिद्धार्थ की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वो कैमरा को छुपा देते हैं। हमने जब सोचा कि हमें इस फिल्म का मिजाज डॉक्युमेंट्री की तरह रखना है। ऐसा देखते हुए आपको लगना ही नहीं चाहिए कि फिक्शन फिल्म देख रहे हो, ऐसा लगे कि एक्सीडेंटली ये लोग रील पर कैप्चर हो गए। कैमरा दिखता नहीं है। ऐसा लगता है कि ये लोगों का जीवन है और पता नहीं हम कैसे इसे देख पा रहे हैं।

 एक हम लोगों का सबसे बड़ा डर इमेज को लेके, फिल्म के विजुअल लुक को लेके ये था कि जब एक खास तबके के लोगों की कहानियां कही जाती हैं तो ये बहुत शोषण भरा (exploitative) हो जाता है कभी कभी। ऐसा लगता है कि फिल्म गंदगी या धूल के बारे में ज्यादा है और लोगों के बारे में कम है जबकि हमारा शुरू से ही ये अटेम्प्ट था कि ये फिल्म इन लोगों के बारे में है और ये लोग इस स्पेस में रहते हैं। तो इस स्पेस को सबसे ज्यादा समग्रता (totality) से कैसे रेप्रेजेंट किया जाए? स्पेस का दुरुपयोग कैसे न किया जाए? मुझे लगता है ये सिद्धार्थ और प्रोडक्शन डिजाइनर पारुल दोनों का योगदान कि इस स्पेस को उसकी गरिमा दी, सही कोनों (areas) की ओर देखा, लोगों की ओर देखा, उनके भावों की ओर देखा, ये देखा कि कैसे उनकी बेचैनी (desperation), कैसे उनके हालात भी आएं लेकिन कैसे वो शोषण भरा (exploitative) न हों? फिल्म का विजुअल टेक्सचर जो कि उभर के आता है उसमें उनका योगदान है। हालांकि हमारी अपनी फिल्म है तो अपनी ही तारीफ लगती है लेकिन मुझे लगता है ये उन सबसे कम फिल्मों में से है जो अपने स्पेस की गरिमा को जिंदा रखती है और इसमें इसे नीचा करके देखने वाली दृष्टि नहीं है जो हमारी सबसे बड़ी चिंता थी।

Shashank, Amit, Lalit Behl, Shivani Raghuvanshi and Ranvir in a scene.

 सिद्धार्थ और पारुल ने फिल्म के जैसे रंग चुने.. हम लोगों को शुरुआती विचार था कि थोड़ा ब्लू (नीले) और यैलो (पीले) में जाएंगे .. फिर जब रेकी पर गए.. असल इलाकों में गए तो हमने देखा कि ज्यादा पिंक (गुलाबी) और ग्रीन (हरा) यूज़ होता है। और क्या होता है कि लोगों के पास कभी-कभी पैसे नहीं होते हैं तो वो एक ही कमरा पेंट करवा लेते हैं। बहुत सारे घर हमने देखे जिसमें मिसमैच कलर थे। एक कलर पिछले पंछे (coat) का रह गया था या नए का रह गया था। और न जाने क्यों चमक (brightness) देने के लिए लोगों का आइडिया पिंक का है... तो पिंक और ग्रीन को यूज करने का विचार था और दूसरा हम उत्पीड़न/दमन (opression) की बात कर रहे थे तो तमाम रेकी के बाद हम तीनों ने सोचा कि पिंक और ग्रीन ज्यादा रियल और अभी के रंग रहेंगे .. ये रंग ही वो लोग हैं.. न कि एक झूठा प्रतिनिधित्व है जो हमेशा ब्लू और यैलो का रहता है कि जो थोड़ा सा वॉर्म कर देता है और फ्रेम को थोड़ा सा उठा देता है। उसके बजाय पिंक और ग्रीन लिए गए, वही थीम हमने रखी। हमारा फिल्म में एक डिवाइड भी ये बना कि घर का स्पेस, कॉलोनी का स्पेस और शहर का स्पेस। .. जब ये (पात्र) बाहर जाते हैं तो मॉल्स और सिटी ज्यादा सिल्वर और ब्लू बन जाते हैं। असल में हमने सिटी को ज्यादा ब्लू और सिल्वर किया, घर को और इनकी गली और इनके स्पेसेज को पिंक और ग्रीन में देखा। तो ऐसे ही एलिमेंट्स और रंगों का इस्तेमाल .. कि इतने मौन (mutedly) ढंग से क्यों हम इनकी कहानी के इमोशन कह रहे हैं। जो इनकी बेचैनी है और जो कहेंगे हालात - बेहतर शब्द की गैर-मौजूदगी में - हैं, सिर्फ रंग से उनका प्रतिनिधित्व कैसे करना है, वो भी आपके सिर में बहुत अवचेतन वाले तरीके (in a subconscious way) से। हमने एक पक्ष लिया कि इस फिल्म में चीजों को हम यूं ही चमका कर या ठूंसकर नहीं दिखा देंगे, ये फिल्म वैसी ही होगी जैसा है। बहुत मौकों पर लगता है कि फिल्में फिल्ममेकर्स को रेप्रेजेंट करती हैं लेकिन एक्चुअली मैं ये मान रहा हूं ... मेरा सबसे फेवरेट फिल्ममेकर है क्यूबरिक (Stanley Kubrick).. क्योंकि कोई क्यूबरिक नहीं है सिर्फ उसकी फिल्में हैं। वो हर एक फिल्म, एक हस्ती है, उसके बीच में क्यूबरिक नहीं आते हैं। वो नहीं बोलते कि मेरी फिल्म है। एक फिल्म जो है वैसे ही प्रस्तुत कर दी जाए, ये भी एक बड़ा टैलेंट है कि हम लोग इसके अंदर न आ जाएं। हम एक-दूसरे की आंखों में झांककर कह सकें कि ये फिल्म इस फिल्म के बारे में ही है और ये जो स्पेस है वो स्पेस रेप्रजेंट होनी चाहिए। तो पारुल और सिद्धार्थ के ये बड़े योगदान थे।

 नम्रता की बात करूं तो लोगों को लेकर उनकी अंतर्दृष्टि और वे कैसे उनकी ओर देखती हैं ये खास है। हम दोनों ने एडिट (editing) पर शुरू से ही तय किया था कि ये फिल्म प्रतिक्रियावादी (reactive) नहीं होगी। ये डायलॉग के बारे में नहीं है। ये इस बारे में है कि जब लोग दूसरे लोगों की ओर देखते हैं, और उन्हें लगता है हम देखे नहीं जा रहे। हम कैसे चोरी छुपे एक-दूसरे को देखते हैं, कैसे एक-दूसरे को ऑब्जर्व करते हैं.. तो एडिट पैटर्न पूरा उस पर निकला। नम्रता की जो बहुत ही महीन समझ है लोगों की, रिश्तों की.. वो इसमें स्थानांतरित हुई कि लोग जब दूसरे लोगों को देखते हैं .. बात करते हुए .. तो वो फिल्म कैसे बदलती है। बहुत सारा एडिट फिल्म के इस नजरिए के साथ है, जो उनके और मेरे दोनों के लिए बहुत रोचक था। क्योंकि उन्होंने भी देखने का एक नया नजरिया विकसित किया।

एक एडिटर फिल्म को कितना तब्दील करता है? आपने अगर स्क्रिप्ट पर डेढ़ साल बिताया है और एक-एक अक्षर बहुत सोच-विचार-शोध के बाद लिखा है कि यहां ये दृश्य ऐसे ही होगा। क्या एडिटर उसे बिलकुल बदल देता है? दृश्यों का क्रम या संरचना बदलता है?
नहीं, ये बहुत बड़ा क्लीशे है। एडिटिंग एक अन्य प्रोसेस है जहां फिल्म दोबारा लिखी जाती है। खासकर तितली जैसी फिल्म जो शूट ही डॉक्युमेंट्री स्टाइल में की गई है और डॉक्युमेंट्री में शुरू से होता है कि फिल्म बना रहे हैं और धीरे-धीरे कैरेक्टर को जान रहे हैं और कैरेक्टर का जैसे-जैसे पता चलता है तो कुछ नई ही फिल्म निकल आती है। हमारे सीमित संसाधनों में ऐसा बहुत हुआ। छोटी सी फिल्म है हमारी, बहुत ज्यादा हम शूट नहीं कर पाए लेकिन उसके बीच में भी बहुत सारी चीजें हमने करी थीं तो नम्रता ने तकरीबन री-कंस्ट्रक्ट ही की फिल्म.. हां ये जरूर था कि नम्रता जब तक आईं तो 8-9 महीने का एडिट हो चुका था। वो फिल्म पर तीसरी एडिटर थीं। मैं इससे पहले दो अन्य एडिटर्स पर काम कर रहा था। चीजें जिस दिशा में जा रही थीं उनसे अंतत: मैं खुश नहीं था। लेकिन जब तक वे आईं बहुत कुछ हो चुका था। लेकिन अगर ओवरऑल प्रोसेस की बात करें तो उस 8-9 महीने के फेज़ में बहुत सी री-राइटिंग हुई थी। हमने बहुत लंबे-लंबे हिस्से शूट किए जो फिल्म में है ही नहीं। ये जानते हुए कि ये फिल्म के लिए जरूरी नहीं हैं। री-राइट और एडिट के प्रोसेस के बाद लगा कि ये जरूरी नहीं हैं। ये इस प्रोसेस का बहुत ऑर्गेनिक हिस्सा है। ये पहले भी हो रहा था और नम्रता के आने के बाद बहुत ज्यादा हुआ। वो आईं तब हमारा 2 घंटे 40 मिनट का कट था, बाद में वो 2 घंटे और 4 मिनट का रह गया। तो ये करीब 30 पर्सेंट कम हो गया था।

दिबाकर के साथ आपने 8 साल बिताए हैं। उन्होंने आपसे कुछ सीखा होगा। आपने उन्हें ऑब्जर्व करते हुए पूरी जिंदगी के लिए क्या सीख ली है?
अनुशासन। ठहराव। दिबाकर के साथ काम करते हुए सबसे बड़ी बात जो मैंने सीखी है वो ये कि सारा काम शांति से हो सकता है और शांति से काम कम से कम दस गुना बेहतर होता है। मैं खुद बहुत गर्म दिमाग था जब मैं फिल्म स्कूल से निकला था। मेरा अनुभव बहुत सीमित था। और मैं वैसे काम करता था जैसा मैंने अपने पेरेंट्स को करते हुए देखा। लेकिन जब मैंने ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के वक्त दिबाकर को जॉइन किया और शांत माहौल देखा तो सोचा, यार ये तो बहुत शांति से काम हो रहा है और कई गुना ज्यादा अच्छा काम हो रहा है। बहुत ही गहन स्तर का अनुशासन, कठोर परिश्रम.. वो हर पहलू पर काम करते रहते हैं .. चाहे स्क्रिप्ट हो, एडिट हो, चाहे उनका शूट करने का तरीका हो.. वो अंतिम छोर तक, सिरे तक चीजों को लेकर जाते हैं, जब तक आपको पूरा विश्वास न हो जाए और उससे ऊपर भी 50 परसेंट पक्का करना और उस पक्के पर भी आपको विश्वास न हो जाए कि इससे ज्यादा अब मेरे पास कुछ बचा नहीं है। ज्यादातर फिल्मकार थोड़े आलसी होते हैं और एक बिंदु के बाद उन्हें कुछ अच्छा मिल जाता है तो उसके आगे नहीं जाते लेकिन ये जो दृढ़ता (rigor) है दिबाकर की.. अच्छे से भी आगे जाना और चलते रहना जब तक यकीन न हो जाए कि अब इससे बेटर अगले पांच साल तक मैं कुछ नहीं कर सकता.. वो मुझे लगता है बहुत महत्वपूर्ण पाठ है जो मैंने सीखा है।

आज आपकी सर्वकालिक पसंदीदा फिल्में कौन सी हैं? जिन्हें बार-बार देखते हैं।
बहुत सारी हैं। कुस्तरिका की ‘अंडरग्राउंड’। कुबरिक की - वैसे तो आप उनकी कोई भी फिल्म उठा लें - ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’। कीरोस्तामी की ‘विंड विल कैरी अस’ (The Wind Will Carry Us, 1999)। ज़ाक ऑर्दियाद की ‘अ प्रोफेट’ (2009)। स्टीव मैक्वीन की ‘हंगर’। डारर्डीन ब्रदर्स (Jean-Pierre & Luc Dardenne) की ‘रॉजे़टा’ (Rosetta 1999)। सब अलग-अलग फिल्में हैं और वर्ल्ड सिनेमा का इतना विस्तृत नजरिया देती हैं कि आप ...। बहुत फिल्में हैं पर मेरे जेहन में एकाएक ये ही आ रही हैं।

टैरेंस मलिक (Terrence Malick) की?
मुझे उनका काम पसंद है पर उनका मैथड.. अपनी फिल्मों को बनाने में वे खुद को जिस प्रोसेस में झोंकते हैं वो बहुत-बहुत मुश्किल होता है। हाल के दिनों में वो कुछ निराशाजनक रहे हैं मेरे लिए लेकिन उनका हर प्रोजेक्ट सांसें थाम देने वाला रहा है। उनके प्रयास का जो दायरा होता है वो एक्सीलेंट है। ‘द ट्री ऑफ लाइफ’ (The Tree of Life, 2011) मुझे काफी अच्छी लगी थी। लेकिन क्रिश्चन बेल वाली उनकी पिछली फिल्म (Knight of Cups, 2015) के साथ ऐसा नहीं था। लेकिन निश्चित तौर पर सिनेमा के मास्टर्स में से एक हैं।

और वर्नर हरजॉग (Werner Herzog)?
वे तो दादाजी हैं। फिल्मों के ग्रांडफादर हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझे उनके बारे में बोलना भी चाहिए। वे अमेजिंग हैं। उनकी सारी डॉक्युमेंट्रीज़, उनका सारा फिक्शन वर्क इस दुनिया से परे है।

बीते एक-दो साल में अच्छी लगी भारतीय या विदेशी फिल्म?
मुझे अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ बहुत अच्छी लगी।

चारों ओर विलाप की स्थिति है, क्या चीज है जो आपको उम्मीद देती है? क्रिएटिव लोगों के पास उम्मीद कहां से आती है जब नेगेटिव चीजों से घिरे हैं?
बहुत इंट्रेस्टिंग सवाल है। इससे हम सभी जूझ रहे हैं। मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, कहीं से भी आ रहा हो वो अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है। उसके अंदर मंथन चलता है, एक गुस्सा होता है, इस गुस्से के कई नाम हो सकते हैं। उसके अंदर एक चाह रहती है कि चीजें जैसी हैं उससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं? कोई भी क्रिएटिव आदमी, आर्टिस्ट कहीं भी काम कर रहा हो वो इसी जरूरत से संचालित होता है कि वो इस बारे में बोलना चाहता है कि ये चीज ऐसी क्यों है और इससे बेहतर होनी चाहिए। वो होप यहीं से आती है कि शायद जिस भी बारे में वो सोच रहा है, जो भी उसे विचलित कर रहा है उसके बारे में बात करने के बाद वो चीज बेहतर हो सकती है। मुझे लगता है इसीलिए कहा जाता है कि क्रिएटिव लोग सबसे विचलित करने वाले टाइम में रहते हैं क्योंकि ये उन्हें ज्यादा ईंधन देता है, ज्यादातर फूड फॉर थॉट देता है ताकि निराशा (hopelessness) के बारे में बात कर सकें। ये आर्टिस्टों के लिए अच्छा है, जितना ज्यादा निराशा होगी उतना ज्यादा उनके काम की क्वालिटी प्रतिबिंबित होगी।

रचनात्मक गतिरोध की अवस्था में उम्मीद कहां से लेंगे? आगे जब आइडियाज़ नहीं सोच पाएंगे या फिल्में कई स्तरों पर फंसने लगेंगी या वित्तीय दुश्वारियां होंगी।
मैं सिंपल सा आदमी हूं। सबकी तरह कनफ्यूज हूं। सबकी तरह परेशान हूं। लेकिन हिम्मत है.. जज्बा है। कोशिश है कि झूठ न बोला जाए। जो कहानी है, जिस पर काम कर रहे हैं, उसे जितनी सच्चाई से बोला जा सके वो बोला जाए.. और उसमें वक्त लगता है। बात ये नहीं है कि फिल्म बन नहीं रही है.. मैं बस अपना समय ले रहा हूं जो भी मैं कर रहा हूं। जो अगली भी फिल्म है। क्योंकि मुझे पता है ये एक बहुत जटिल कहानी है। एक फिल्मकार के तौर पर एक कदम आगे ले जाएगी। प्रोसेस जारी है। मैं अपनी अगली फिल्म लिख रहा हूं। लड़खड़ाहट तो चलती रहती है और उसे तो मान लेना चाहिए हर फिल्मकार को। उसे तो हिस्सा बना लेना चाहिए अपनी जिंदगी का। कनफ्यूजन को, ठोकरों (stumbling) को। सुबह उठकर बोलना चाहिए कि अरे आज मैं कनफ्यूज्ड हूं, आओ आओ.. और आप उस कनफ्यूज़न को गले लगा लें। उसकी ओर मुस्कराएं और कहें, हम फिर से दोस्त हैं इस पूरे दिन के लिए। क्योंकि वहीं से ऊर्जा (kick) आती है। अगर वो नहीं होगा और सुबह उठकर आपको पता होगा कि आप हूबहू क्या लिखने वाले हैं, कौन सी फिल्म बनने वाली है तो उसका मतलब है कि कुछ गलत है। या कुछ गलत जाने लगा है।

फलसफा..?
मेरा मोटो नहीं है पर ये कुछ ऐसा है जो मैं हाल ही में ढूंढ़ रहा हूं और मेरी लाइन होगी कि ‘बस एक और दिन’ (just another day)। हम हर दिन को बहुत ज्यादा महत्व देने की कोशिश करते हैं अपनी लाइफ में। लेकिन अगर वो प्रेशर हम अपने ऊपर से निकाल दें और हर दिन को उस दिन के लिए जिएं, तो हमें अपने आप को और जीवन को जानने में थोड़ी आसानी हो जाती है। मैं अकसर जागता हूं तो खुद से कहता हैं .. बस एक और दिन।

‘तितली’ या ऐसी अन्य जागरूक फिल्में हैं, ये सिर्फ उन्हीं के समझ में आती हैं जो पहले से जागरूक हैं। जैसे ये केन फिल्म फेस्ट में गई तो फ्रेंच समाज इतना विकसित है कि वो बहुत तारीफ करेगा जब भी ऐसे प्रयास देखेगा। लेकिन जो लोग खुद आक्रांता हैं या अत्याचार करते हैं, लोगों का दमन करते हैं वो कभी न ये फिल्म समझने वाले हैं, न मानने वाले हैं?
ऐसा बिलकुल नहीं है। देखिए, ‘तितली’ फेस्टिवल के लिए बिलकुल नहीं बनी थी। मैंने कभी ये सोच के नहीं बनाई थी कि मेरे को ये फिल्म केन लेकर जानी है, ये जो भी हुआ है वो फिल्म जैसी बनी है उसकी वजह से हुआ है।

..मान लें कि मैं संदर्भ के साथ ये समझ चुका हैं कि एक औरत और एक आदमी में समानता होनी चाहिए। और मेरे कुछ दोस्त हैं जो बिलकुल विपरीत हैं, वो ये सब करते हैं घर में और कभी पश्चाताप नहीं करते। तो उस आदमी को तो ‘तितली’ पहले समझ में आनी चाहिए तभी समाज बेहतर होगा लेकिन वो कभी समझेगा ही नहीं और स्वीकार नहीं करेगा।
आपको क्या लगता है क्यों नहीं समझते हैं? आप बोल रहे हैं कि फिल्म कमसमझ आने वाली (obtuse) होती है। बाकी सब की बात तो नहीं कर सकता लेकिन मुझे लगता है कि ‘तितली’ ऐसी (obtuse) नहीं है। वो हाड़ मांस के लोगों के बारे में है। ऐसे लोगों के बारे में है जिनको आप जानते हैं। जिनसे आप रिलेट कर सकते हैं। वो सारे कैरेक्टर भी इसलिए पास हैं आपके जीवन के.. आप ये नहीं बोल पाएंगे ‘तितली’ देख के कि यार समझ में नहीं आ रही। आप ये शायद कह सकते हैं कि यार ये लोग बहुत देखे हुए हैं और मैं अब नहीं देखना चाहता। ये इतने करीब हैं मेरे कि मैं देख कर असहज हो रहा हूं कि मैं नहीं देख पाऊंगा ये फिल्म। ये जरूर बोल सकते हैं आप। लेकिन समझने में कठिन है ये कोई नहीं बोलेगा। मेरा अपना स्टैंड ये है एक फिल्मकार के तौर पर कि मैं फेस्टिवल्स के लिए फिल्म नहीं बना रहा, मैं एक फिल्म बना रहा हूं जो लोगों तक जुड़नी चाहिए। जो मेरे से जुड़ी हुई है कहानी और हाड़-मांस के लोगों के बारे में है, ये शायद मेरी सारी फिल्मों के बारे में सच रहेगा। मैं आपको ये कहना चाहता हूं कि ये केन जाना और बुद्धिजीवी और ये.. 

..नहीं, ये केंद्र नहीं है। मसलन, मेरी बड़ी बहन जो मुश्किल से पूरे जीवन में तीन-चार बार थियेटर भेजी गई हैं, उन्हें मैंने कहा कि ‘पीकू’ देख सकती हैं, अच्छी फिल्म है। बहन गृहिणी हैं। कॉलेज की पढ़ाई भी घर रहकर की। पितृसत्ता वाला समाज रहा। उन्होंने कहा कि इसमें (टॉयलेट कॉमेडी, घर की बातें) जो है वो हम रोज देखते हैं, कुछ मूड फ्रेश करने या खुश करने वाली फिल्म होती तो ठीक रहता। तो सवाल का केंद्र ये है कि उन्हें ही सशक्त करने वाली चीज है जो उन्हें ही नहीं सुहाती। ये चिंता नहीं? आपने अपना प्रयास दिया तितली’ बनाकर, पर जिन्हें समझना चाहिए वो न समझें तो?
मेरा ये सोचना है कि मैं अकेला ये बीड़ा नहीं उठा सकता कि मुझे समाज बदलना है या बड़ा बदलाव लाऊं। मैं एक इंसान हूं एक बहुत बड़े ढांचे में। जो मुझे अपनी सच्चाई से करना है वो मैं कर रहा हूं। इसके बाद मुझे लगता है बीड़ा दर्शकों के हाथ में खुद है, वो उन्हें खुद ही उठाना पड़ेगा। वो कोई चम्मच से उनके मुंह में डालकर बदल भी नहीं सकता। चीजें नहीं बदल सकती जब तक वे खुद पैरों पर खड़े होकर बोलें कि हां हमें कुछ आगे का (evolved) देखना है। जीवन की कुछ विकसित समझ लेनी है। और ईमानदारी से कहूं तो मैं इस चीज से खुद को परेशान भी नहीं करता। मेरा काम है, जो मैं कर रहा हूं वो करना पूरी सच्चाई से। इसके बाद मैं इस विश्वास के साथ फिल्में बनाता हूं कि अगर मैं ये कहानी सिंपल तरीके से कह रहा हूं, सिंपल डायलॉग के साथ, सिंपल किरदार हैं, तो लोग उसे देखेंगे और कंज्यूम करेंगे। और घर जाकर साथ वाले को बोलेंगे यार प्लीज ये देखकर आओ, ये समझ में आ रही है। ऑडियंस का बीड़ा भी उतना ही है जो उन्हें कभी न कभी तो उठाना ही होगा। ये सारी चीजें बहुत बड़े मुद्दों से जुड़ी नहीं हैं, ये सारी चीजें एजुकेशन से जुड़ी हैं, सिस्टम से जुड़ी हैं। ये सब बदलने के लिए एक बड़े स्तर पर बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है। सब मिलकर छोटा-छोटा अपना किरदार निभाकर पूरा कर सकते हैं। वो हम सबको साथ में ही करना है।

जब आप 3 साल की सीरियाई बच्चे ऐलान कुर्दी का समंदर किनारे पड़ा शव या ऐसी कोई भी मानवीय कहानी/छवि देखते हैं तो आपके भीतर क्या प्रक्रिया घटनी शुरू होती है?
मैं भी सबसे पहले एक इंसान के तौर पर ही प्रतिक्रिया देता हूं। क्योंकि मैं फिल्ममेकर बाद में हूं। और मेरे लिए वो कनेक्शन बनाए रखना जरूरी है। कुछ अलग नहीं चलता है। मुझे लगता है ये लंबा प्रोसेस होता है, आप रोज का अपना ह्यूमन एक्सपीरियंस निचोड़ते जाते हैं और उसे एक ह्यूमन की तरह ही कंज्यूम करते हैं। जब भी आप किसी कहानी को लिखना शुरू करते हैं तो उसमें इस निचोड़ के कुछ-कुछ कुछ-कुछ हिस्से बाहर आ जाते हैं। तो मेरे लिए वो इतना कॉन्शियस प्रोसेस नहीं है। और मैं उसे कॉन्शियस रखता भी नहीं हूं। क्योंकि मैं अपने अवचेतन (sub-conscious) को प्रोसेस करने देता हूं जो भी होता है। अगले डेढ़-दो साल तक उसके संदर्भ में जो मेरे अनुुभव बाहर आते हैं पहले ही प्रोसेस किए हुए वो कहानी में जुड़ते जाते हैं। क्योंकि प्रयास यही रहता है कि कहानी को जितना आज की दुनिया से जुड़ा बना सकते हैं उतना बनाएं। कॉन्शियसली अगर आप हर चीज को उस तरह से देखने लग जाएं तो बहुत ही उपभोक्तावादी रवैया (consumerist attitude) बन जाता है। फिर तो आप हर चीज को निचोड़कर स्टोरी बनाना चाह रहे हो। जो कि जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है कि जीवन जिओ और अनुभव करो जो भी अनुभव कर सकते हो। फिर अपनी कहानी आने दो।

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे (FTII) के अध्यक्ष के तौर पर गजेंद्र चौहान (टीवी-सीरीज ‘महाभारत’ के युधिष्ठिर बने थे) की नियुक्ति गलत हैं, इसका छात्र विरोध कर रहे हैं। एक छात्रा-छात्र में एक्टिविस्ट को कहां तक चलकर रुक जाना चाहिए और एक फिल्मकार को सक्रिय हो जाना चाहिए?
देखिए एक्टिविज़्म की तो बात ही नहीं है। सबसे पहले इस पर एक्टिविज़्म का लेबल लगाना बहुत ही ज्यादा गलत है। मुझे लगता है ये एक बहुत ही ज्यादा बेवकूफाना हरकत है जिसने भी गजेंद्र चौहान को नियुक्त किया है। वो बिलकुल भी योग्य नहीं हैं। मैं खुद फिल्म स्कूल से हूं और बिल्कुल समझता हूं जो ये स्टूडेंट मुद्दा उठा रहे हैं। सबसे पहले तो हमें ये समझना चाहिए कि ये स्कूली बच्चे नहीं हैं। 15-16 साल के नहीं हैं। ये सब एडल्ट हैं। 25-26 साल के लोग हैं। जो अपनी शिक्षा खत्म करके एक ऐसी जगह आए हैं जहां उन्हें आजादी से मन की विधा पढ़नी है। ऐसा नहीं है कि स्टूडेंट्स प्रिंसिपल बदलने को बोल रहे हैं। वे ऐसा व्यक्ति चाहते हैं जो उनको आगे लेकर जा सके। ये उनका अधिकार है। ये सब बहुत ही वयस्क नजरिए से आपसे बात कर रहे हैं कि आप किस तरह के फिगरहैड को नियुक्त कर रहे हैं। एशिया का प्रीमियर फिल्म स्कूल है वो, एशिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म स्कूल है जिसे देश-विदेश के संस्थानों के समर्थन वाले ख़त आ रहे हैं कि आप ये क्या कर रहे हैं? ये दुखदायी स्थिति है कि 100 दिन से वो लोग लगे हुए हैं और उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। अगर आप जागरूक लोगों को बोलेंगे कि वो एक्टिविस्ट हैं तो फिर दुनिया का क्या होगा? वो स्टूडेंट तो बस अपने आप-पास होने वाली परिस्थिति से वाकिफ हैं। और पर्याप्त रूप से रूचि रखते हैं दुनिया से संबंध विकसित करने की। जो उन्हें वहां पर सिखाया जाता है। वही तो उस मंदिर की सबसे बड़ी सीख है। वहां सबसे पहले यही सिखाया जाता है कि आपको अपने आंखों-कानों के दरवाजे बंद नहीं करने हैं, उनको खुला रखना है और जो अपने आप-पास का जीवन है उसे निचोड़कर अपने दिल में लेकर आना है। जो उनके मंदिर में हो रहा है उसके बारे में ही बात नहीं करेंगे और इस बात करने को आप एक्टिविज़्म बोलने लग जाएंगे तो ये कितना न्यायपूर्ण है!

ये तर्क दिया गया है गजेंद्र जी के खिलाफ कि उन्होंने ‘खुली खिड़की’ और अन्य सी-ग्रेड फिल्में की हैं। क्या ये स्टूडेंट्स का एलिटिस्ट होना नहीं हो गया? क्या संदर्भ गलत लिया गया है कि सिर्फ वे ही ज्ञानवान हैं?
मैं बिलकुल सहमत नहीं हूं। अगर आपने देखा हो तो और भी लोग जिनकी बात हो रही है उस ओहदे के लिए.. जैसे मान लीजिए अनुपम खेर हैं, उन्होंने भी हर तरह का काम किया है। उन्होंने बहुत सारी अच्छी फिल्में की हैं लेकिन वो खुद सबसे पहले मानेंगे कि उन्होंने खराब फिल्में भी की हैं। ये आपकी खराब फिल्मों के बारे में नहीं हैं, ये आपकी योग्यता के बारे में हैं। जिस इंसान से टेलीविजन इंटरव्यू पर पूछा जाता है कि आपकी फेवरेट इंटरनेशनल फिल्म क्या है? और वो खुलेआम कहता है कि ‘मैं जवाब देने से मना करता हूं’ (I refuse to comment), तो वो खुद ही बोल रहा है कि मैं इस पद को योग्य नहीं हूं। एफटीआईआई के चेयरमैन से आप क्या उम्मीद करते हैं? - कल को अगर वो बात कर रहे हैं किसी एक्सचेंज प्रोग्राम में या कहीं जाकर हमारे स्टूडेंट्स के बारे में बोल कर रहे हैं तो वो वार्ता, सुनने लायक, जागरूक और तथ्यपरक तो होनी चाहिए न? उनका तो अनुभव और शब्दावली ही बॉलीवुड तक सीमित है, बात ये हो रही है। ये फिल्में (सी-ग्रेड) करने के बावजूद अगर उनका ज्ञान होता, अनुभव विस्तृत होता तो मुझे नहीं लगता किसी को भी समस्या होती क्योंकि वो उनकी बातों और व्यक्तित्व में साफ झलकता। और सिर्फ गजेंद्र चौहान की भी बात नहीं है। उनकी नियुक्ति के अलावा जो समिति भी गठित हुई है, उसमें आठ में से चार लोग भी पर्याप्त योग्यता नहीं रखते.. कि वो संस्थान में शैक्षणिक फैसले ले सकें स्टूडेंट्स के प्रतिनिधि के तौर पर जिससे क्रिएटिव माहौल बन सके संस्थान में। ये राजनीतिक होना, एलिटिस्ट होना या एक्टिविस्ट होना नहीं है। ये सिर्फ करिकुलर के उच्च शैक्षणिक पैमानों के बारे में है और रचनात्मकता के बारे में है जो हमारी फिल्म स्कूल में है। सिर्फ वही मसला है।

नई सरकार आने के बाद सेंसर बोर्ड की नीतियां भी बदल गई हैं। मानें कि अगर दो कार्यकाल तक ये सरकार रहती है तो आप कैसे सामना करेंगे? कुछ महीने पहले दिल्ली में फिल्मकारों के एक समूह ने सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ से मुलाकात की थी। उस दौरान उन्हें मुंबई आने और इंडस्ट्री से मेल-जोल बढ़ाने का निमंत्रण दिया तो वे कथित तौर पर बोले, ‘तो आप चाहते हैं मैं आऊं और तुम सबके लिए आइटम नंबर करूं।’ आप इसे कैसे देखते हैं? ये क्या सोच है? फिल्मों की आर्ट फॉर्म का सम्मान न देना।
ये कोई नई समस्या नहीं है। पहले भी थी, आज भी है। 70 के दशक में जब श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल और बहुत सारे अन्य फिल्मकार काम कर रहे थे तब भी ये ही मुद्दे थे, तब भी सरकारें यही करती थीं, ये कोई नई बात नहीं है। ये हमेशा से होता आया है। मैं अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूं। मुझे जो कहना है मैं वो कह सकता हू्ं। उसके बाद जो भी हालात हैं वो बदलते रहते हैं। अभी कुछ हैं कल को कुछ और भी हो सकते हैं। अंतत: बात तो यही है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं, अभी जो सरकार है वो भी लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई है और मान लीजिए ये लोगों के पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो कल को एक और सरकार आ जाएगी। हमें कहीं न कहीं लोकतंत्र में विश्वास तो रखना ही पड़ेगा। और अपने आप में फेथ रखना पड़ेगा। उसके साथ हम अपने मुद्दे उठाकर आगे चलते रहेंगे। ये चीजें एक्चुअली एड करती हैं, ये हमें निराश नहीं करें। बोलें तो अच्छी हैं।

जीवन में कैसे विषय आकर्षित करते हैं जिन पर आगे फिल्में बनाना चाहेंगे?
हर तरह की चीज फेसिनेट करती है। मेरी आजमाइश ये है कि मैं हर तरह की बातों पर बात कर पाऊं। मुझे साइंस-फिक्शन भी उतनी ही रोचक लगती है जितना एक ड्रामा लगता है। जितना थ्रिलर इंट्रेस्ट करता है, जितना एक पोलिटिकल फिल्म इंट्रेस्ट करेगी। मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा। निर्भर करेगा कि मेरी खुद की समझ कितनी है कहानी के बारे में जिंदगी के तब के बिंदु पर। बहुत ही ज्यादा एक गतिशील (dynamic) और बदलने वाली (malleable) सी चीज है। पर मेरी रूचि काफी व्यापक है। मौजूदा समय में मुझे फैमिली स्ट्रक्चर में बहुत रुचि है। न सिर्फ वो एक महीन लेवल पर ह्यूमन अंडरस्टैंडिंग देता है बल्कि व्यापक दुनिया के लिहाज से एक समझ दे जाता है। तो अभी मैं उसमें काम कर रहा हूं क्योंकि उसमें सूक्ष्म और स्थूल (micro & macro) का बहुत अच्छा जुड़ाव नजर आता है। लेकिन अंतत: मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा और सब में गोता लगाना चाहूंगा। इसीलिए मुझे क्यूबरिक जैसा फिल्मकार बहुत ही पसंद है क्योंकि उनकी फिल्में एक-दूसरी से बिलकुल अलग थीं। उनसे भौचक्का हूं।

 
Kanu Behl

Kanu Behl is a young and talented film writer and director based in Mumbai. His directorial debut TITLI is slated to release on October 30 this year. It has gone to several prestigious international film festivals in last one year or so. Most prominently, it was selected in the Un Certain Regard section of the Cannes Film Festival (France) in 2014. It is produced by Dibakar Banerjee and Yashraj Films. Kanu is from Delhi. In 2003, he joined the Satyajit Ray Film and Television Institute and did his PG diploma in cinema. Later he assisted director Dibakar Banerjee on Oye Lucky! Lucky Oye! in 2007-2008 and co-worte Dibakar's next Love Sex aur Dhokha. Kanu as also writing his next titled Agara.

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