:: अमेरिकन हार्ट :: 1993 :: निर्देशक मार्टिन बेल :: कलाकार जेफ ब्रिजेज व एडवर्ड फरलॉन्ग ::
‘अमेरिकन हार्ट’ के निर्देशक मार्टिन बेल की पत्नी मैरी ने सीएटल की गलियों में विचरने वाले बच्चों की तस्वीरें खींची। उनका ये फोटो-आलेख लाइफ मैगजीन में छपा। ‘स्ट्रीटवाइज’ शीर्षक से। बाद में मार्टिन ने इसी नाम से इसी विषय पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई, जिसके बारे में हम फिर जरूर बात करेंगे। फीचर फिल्म उसका तीसरा रूप रही। जेफ ब्रिजेज के जो ‘द बिग लेबोवस्की’ और ‘द ट्रू ग्रिट’ वाले लोकप्रिय लुक्स हैं, उससे बिल्कुल अलग हैं वह ‘अमेरिकन हार्ट’ में। उघाड़े, लंबी पतली बाहों, लंबे बालों और लंबी मूछों में छोटे-छोटे टी-शर्ट और बेलबॉटम पैंट्स में वह गली के आवारा लगते ही हैं। जाहिर है ये छवि हिप्पियों वाली ज्यादा है। कहानी में वह जेल से छूट कर आए हैं, अपने 12 साल के बेटे के साथ वक्त बिता रहे हैं। पर हैं वैसे ही। बाप-बेटे का अद्भुत रिश्ता तो है ही, पर सड़क पर गलियों में पलने वाले बच्चों की कहानी ज्यादा है। गैर-अमेरिकी लगने वाली फिल्म है। कमाल।
फिल्म में 12 साल के लड़के की भूमिका एडवर्ड फरलॉन्ग ने निभाई है जो ‘टर्मिनेटर 2: जजमेंट डे’ में साराह कॉनर के लड़के जॉन कॉनर बने थे। दोनों ही फिल्मों के वक्त वह बाल कलाकार थे। असल जिंदगी में विडंबना देखिए कि आज एडवर्ड की लाइफ कुछ वैसी ही है जैसी इस फिल्म में जेफ ब्रिजेज निभाते हैं। एडवर्ड 36 के हो गए हैं, उनके एक छोटा बेटा है और वाइफ ने तलाक के लिए फाइल कर दिया है। ड्रग्स लेने के लिए भी वह कई बार पकड़े गए हैं। 2001 में एक मैगजीन को उन्होंने कहा कि उनके पास कुछ नहीं बचा है। समझ नहीं आता कि इस फिल्म में ऐसे ही किरदार में जेफ को ऑब्जर्व करने के बाद भी वह क्यों नहीं सही राह चल पाए? उन्हें ड्रग्स की आदत कहां से लगी? अचरज है।
फिल्म की कहानी संवदेनशील है। रॉ है। धूसर है। बाप-बेटे का रिश्ता भी हकीकत भरा है। हां, भारतीय सेंसेबिलिटी के हिसाब से हो सकता है हमें ज्यादा ही फ्रेंक लगे। पर है नहीं। ‘अमेरिकी’ की एक ऐसी तस्वीर फिल्म दिखाती है जो बाहरी मुल्कों में कभी ‘सीएनएन’ और ‘बीबीसी’ जैसे जरियों से बाहर नहीं जा पाई। अगर ऐसी दस-बारह फिल्में लाइन में बन जातीं तो एक सच सामने आ जाता कि धनप्रधान व्यवस्था वाला समाज बनने से आर्थिक खाई कितनी चौड़ी होती जाती है। हम भी तो अब वैसे ही होने जा रहे हैं। अब हमने अपने राज छिपाने शुरू कर दिए हैं। हम फिल्में बना रहे हैं, खूब बना रहे हैं, पर कितनी ऐसी हैं जो आर्थिक असमानता को लेकर नीति-निर्माण करने की जरूरतों को जगाने के लिहाज से बना रहे हैं। अब हम मॉल दिखाते (बुड्ढा होगा तेरा बाप) हैं, फॉरेन ट्रिप्स (जिंदगी न मिलेगी दोबारा) दिखाते हैं, उनकी जरूरतें जगाते हैं, अंग्रेजी टाइटल और उसी व्यवस्था वाली मानसिकता की बातें करते हैं। हम पंच-पंचायतों की बातें सिर्फ प्रियदर्शन की फिल्मों में ही देखते हैं। बाकी तो मुंबई या दूसरे महानगरों में ही जीते हैं। साउथ की फिल्मों में लुंगियां, धोतियां, पंचायतें, सरपंच, खेती सब दिखाते हैं पर बेहद अजीब नकली तरीके से। वह भी हिंदी सिनेमा या हॉलीवुड को कॉपी करने वाले अंदाज में ही सब करते हैं। बाला बनाते तो हैं पर हिंसक किस्म की अलग फिल्में।
हमने भी अपनी गरीबी छिपानी शुरू कर दी है, जैसे वेस्ट का मीडिया पहले छिपाया करता था। ‘अमेरिकन हार्ट’ इन लिहाजों से एक नायाब फिल्म है। ये अमेरिका के ऐसे वर्गों की प्रतिनिधि फिल्म है जो मीडियागत अपार्थाइड झेल रहे हैं, उन्हें जैसे हॉलीवुड फिल्मों से बैन कर दिया गया है। नजर आ भी जाते हैं तो ‘ब्रूस ऑलमाइटी’ में भीख मांगते भगवान के रूप में, भलमनसाहत का फैंसी संदेश दिलवाए जाते हुए। काश, किज्लोवस्की “अ शॉर्ट फिल्म अबाऊट पूवर्टी” भी बना जाते।
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गजेंद्र सिंह भाटी
Seen in the poster, in their roles, Jeff and Edward. |
फिल्म में 12 साल के लड़के की भूमिका एडवर्ड फरलॉन्ग ने निभाई है जो ‘टर्मिनेटर 2: जजमेंट डे’ में साराह कॉनर के लड़के जॉन कॉनर बने थे। दोनों ही फिल्मों के वक्त वह बाल कलाकार थे। असल जिंदगी में विडंबना देखिए कि आज एडवर्ड की लाइफ कुछ वैसी ही है जैसी इस फिल्म में जेफ ब्रिजेज निभाते हैं। एडवर्ड 36 के हो गए हैं, उनके एक छोटा बेटा है और वाइफ ने तलाक के लिए फाइल कर दिया है। ड्रग्स लेने के लिए भी वह कई बार पकड़े गए हैं। 2001 में एक मैगजीन को उन्होंने कहा कि उनके पास कुछ नहीं बचा है। समझ नहीं आता कि इस फिल्म में ऐसे ही किरदार में जेफ को ऑब्जर्व करने के बाद भी वह क्यों नहीं सही राह चल पाए? उन्हें ड्रग्स की आदत कहां से लगी? अचरज है।
फिल्म की कहानी संवदेनशील है। रॉ है। धूसर है। बाप-बेटे का रिश्ता भी हकीकत भरा है। हां, भारतीय सेंसेबिलिटी के हिसाब से हो सकता है हमें ज्यादा ही फ्रेंक लगे। पर है नहीं। ‘अमेरिकी’ की एक ऐसी तस्वीर फिल्म दिखाती है जो बाहरी मुल्कों में कभी ‘सीएनएन’ और ‘बीबीसी’ जैसे जरियों से बाहर नहीं जा पाई। अगर ऐसी दस-बारह फिल्में लाइन में बन जातीं तो एक सच सामने आ जाता कि धनप्रधान व्यवस्था वाला समाज बनने से आर्थिक खाई कितनी चौड़ी होती जाती है। हम भी तो अब वैसे ही होने जा रहे हैं। अब हमने अपने राज छिपाने शुरू कर दिए हैं। हम फिल्में बना रहे हैं, खूब बना रहे हैं, पर कितनी ऐसी हैं जो आर्थिक असमानता को लेकर नीति-निर्माण करने की जरूरतों को जगाने के लिहाज से बना रहे हैं। अब हम मॉल दिखाते (बुड्ढा होगा तेरा बाप) हैं, फॉरेन ट्रिप्स (जिंदगी न मिलेगी दोबारा) दिखाते हैं, उनकी जरूरतें जगाते हैं, अंग्रेजी टाइटल और उसी व्यवस्था वाली मानसिकता की बातें करते हैं। हम पंच-पंचायतों की बातें सिर्फ प्रियदर्शन की फिल्मों में ही देखते हैं। बाकी तो मुंबई या दूसरे महानगरों में ही जीते हैं। साउथ की फिल्मों में लुंगियां, धोतियां, पंचायतें, सरपंच, खेती सब दिखाते हैं पर बेहद अजीब नकली तरीके से। वह भी हिंदी सिनेमा या हॉलीवुड को कॉपी करने वाले अंदाज में ही सब करते हैं। बाला बनाते तो हैं पर हिंसक किस्म की अलग फिल्में।
हमने भी अपनी गरीबी छिपानी शुरू कर दी है, जैसे वेस्ट का मीडिया पहले छिपाया करता था। ‘अमेरिकन हार्ट’ इन लिहाजों से एक नायाब फिल्म है। ये अमेरिका के ऐसे वर्गों की प्रतिनिधि फिल्म है जो मीडियागत अपार्थाइड झेल रहे हैं, उन्हें जैसे हॉलीवुड फिल्मों से बैन कर दिया गया है। नजर आ भी जाते हैं तो ‘ब्रूस ऑलमाइटी’ में भीख मांगते भगवान के रूप में, भलमनसाहत का फैंसी संदेश दिलवाए जाते हुए। काश, किज्लोवस्की “अ शॉर्ट फिल्म अबाऊट पूवर्टी” भी बना जाते।
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गजेंद्र सिंह भाटी