अब तक की कृतियों को आप सुन और देख सकते हैं। पंजाब में घूमकर बना टुंग टुंग, बनारस के घाटों पर राम राम, येल्लापुर (कर्नाटक) में बना येरे येरे पाउसा, गोवा में बना सुसेगाडो और कानपुर में फिंगर। सबकी आधे-आधे घंटे की मेकिंग तो रोचक है ही, बाद में तैयार होने वाला तीन-चार मिनट का गाना और भी ज्यादा। जिया हो बिहार के लाला अनुराग कश्यप की आने वाली फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का गाना है। म्यूजिक दिया है स्नेहा है। न सिर्फ इस गाने का बल्कि पांच-छह घंटे की दो भागों में बंटी इस फिल्म के एक-डेढ़ दर्जन दूसरे गानों का भी।
स्नेहा खानवलकर का नाम पहली बार सुनाई दिया था दिबाकर बैनर्जी की फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के रिलीज होने के बाद। उन्होंने इस नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म में संगीत दिया था। ‘तू राजा की राज दुलारी’ और ‘जुगनी’, फिल्म के लिए स्नेहा के बनाए दो उम्दा लम्हे थे, क्योंकि ये कोई आम गाने नहीं थे जिन्हें किसी भी गायक से गवा दिया गया। इन दोनों ही गानों के लिए स्नेहा पंजाब और हरियाणा घूमी, वहां से ऑडियो मटीरियल जुटाया और अंततः कुछ बेहद माटी से जुड़ी आवाजों को ढूंढकर ये गाने गवाए। बाद में उन्होंने ‘लव सेक्स और धोखा’ का संगीत तैयार किया।
भारतीय फिल्म संगीत के साथ हाल ही में हुई सबसे अच्छी घटनाओं में स्नेहा को गिना जा सकता है। वह वक्त के साथ फिल्मों में बदलने वाले संगीत को सीख रही हैं और सीखकर आई हैं। उनमें घूमकर आवाजें ढूंढने का चस्का है, जो मौजूदा वक्त में शायद किसी भी संगीतकार को नहीं है, सब साउंड सॉफ्टवेयरों के मरीज हैं। उनके घूमने से भारत के भीतर की आवाजें, धुनें सामने आ रही हैं। आप बस नजरों में रखिएगा, ये लड़की कुछ करेगी। स्नेहा से हुई एक लंबी बातचीत का एक छोटा सा अंश यहां प्रस्तुत हैः
अनुराग बड़े एक्साइटेड थे कि स्नेहा ने एक डेढ़ दर्जन ठेठ अंचल वाले गाने बनाए हैं 'गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में...
फिल्म के हिसाब से बनाया और अनुराग लाइक्स इट। मैंने क्या किया कि फिल्म का बैकड्रॉप बिहार था तो सब बिहार बिहार ही कर दिया। पहले कभी वहां का म्यूजिक नहीं सुना था इसलिए सुन-सुनकर खुश हो रही थी। वहां बहुत आवाजें हैं। भिखारी ठाकुर जैसे उम्दा कवि वहां हुए हैं। बहुत मीठे लोग होते हैं। पंजाब में भी मीठे होते हैं, पर वहां (पंजाब) आप थोड़े गुस्से से भी गा सकते हैं।
'ओए लक्की...’, 'एलएसडी’ और अब 'गैंग्स...’ का म्यूजिक बनाने के दौरान ही आप नए साउंड ढूंढती गईं या फिर पहले ही तैयार थीं?
डिमांड सिर्फ 'ओए लक्की...’ के एक गाने में हुई थी। मुझे एक कविता ढूंढने को कहा गया था, जो ढूंढने निकली पंजाब में और मिली हरियाणा में। उस वक्त जो घूमते हुए सीखा, वो आज भी साथ है। मैं रिसर्च वगैरह नहीं करती हूं बस खुले मैदान में दौड़ लगा देती हूं। आप नुआंस (बारीकियां) चुनते हो। 'एलएसडी’ में टाइटल ट्रैक एक ही तरह का होना था, तो उसमें मैंने ढिश्क्याउऊं... करके शुरू किया। मुझे डायरेक्टर भी ऐसे मिले, जिनसे कह सकती थी कि ऐसा गाना बनाऊं और वो कहते, हां हां, बनाओ।
इतने घंटों की ऑडियो मटीरियल होती है, उनमें से सिर्फ कुछ नोट्स या पॉइंट लेने होते हैं और बाकी छोडऩे होते हैं...
ये कैसे करती हैं? बहुत मुश्किल होता है। आई एम ग्लैड कि आपने पूछा। किसी भी साउंड की मां बनकर सिर्फ उससे ही पूरा गाना बना सकते हो। जैसे, अगर कुछ बूदें भी रिकॉर्ड हुई हैं और उन्हीं से कुछ बनाया जाए तो उसकी फ्रीक्वेंसी तय करेगी कि रिदम या गाना कैसा होगा। जरा टेक्नीकल है समझाना।
प्रोग्रैम और पंजाब की यात्रा के बारे में बताने वाली थीं...
हां, मैं चार साल पहले 'ओए लक्की...’ के लिए पंजाब आई थी। तब लगा कि सब म्यूजिक एक्सप्लोर कर चुकी हूं। लेकिन 'टुंग टुंग’ बनाने के दौरान नए-नए साउंड मिलते ही गए। यहां के 76वें किला रायपुर रुरल ओलंपिक्स से लेकर जालंधर की क्रिकेट बैट फैक्ट्री तक में घूमी। शानदार साउंड मिले। ज्योति और सुल्ताना नूरां दो कमाल की सिंगर लड़कियां हैं। मैं उनसे चार साल पहले मिली थी, इस दौरान भी मिली। बड़ा मजा आया। उन्हीं के घर में स्टूडियो सेटअप लगाया और उन्हीं की आवाज में रिकॉर्डिंग की। गाने में तुंबी, अलगोजा और टड बजाने वाले प्लेयर्स को मैं नहीं भूली हूं। जैसे तुंबी के लिए चंडीगढ़ से तुरिया जी आए थे।
कैसे-कहां सीखा म्यूजिक डायरेक्शन?
बचपन में जितने भी गाने अच्छे लगते थे, मुझे आज भी उनका एक-एक पिक अप, इंटरल्यूड और फिलर याद है। इतना पैशन था। म्यूजिक के सॉफ्टवेयर खुद सीखे। मम्मी के घर ग्वालियर घराने में क्लासिकल सिंगिंग सुनकर बड़ी हुई। हमें बिठाकर सिखाया जाता था। त्यौहार के दिन सुबह चार बजे ही तानपुरा लग जाता था। दादाजी वगैरह के पास होते थे। पहले मजबूरन गाना पड़ता फिर अच्छा लगने लगा। मेरे बेसिक्स ठीक हो गए। पापा मेरे खूब गवाते थे। कहते कि नहीं-नहीं ऐसा गाओ। वो फोर्सफुली गवाया अब काम आ रहा है।
परवरिश के दौरान भीतर म्यूजिक कैसे पलता गया?
मम्मी की फैमिली का म्यूजिक करेक्ट सुर-ताल वाला था, करेक्ट प्रोजेक्शन घराना टाइप का। लेकिन हमसे 'बाजे रे मुरलिया’ गाने को कहा जाता था तो हम 'चप्पा चप्पा चरखा चले’ भी गाते थे, थाली बजाकर। 'तुनक तुनक तुन’ भी गाते थे। रहमान के गाने भी गवाए जाते थे, जैसे द जैंटलमैन का गाना 'मैं दीवाना आवारा पागल’। हम बहनें प्यारी-प्यारी हरकतें करती थीं। मराठी में शांता जी, ह्रदयनाथ मंगेशकर और भीमसेन जोशी का 'बाजे रे मुरलिया’ और कुमार गंधर्व के भजन गाते थे। मेरे यंग कजिन थे, जो बड़े थे वो हरिहरन की गजलें सुनते थे, बीटल्स को भी। मेरा इंटरनेशनल म्यूजिक को एक्सपोजर 10वीं के बाद हुआ क्योंकि इंदौर में ऐसा माहौल नहीं था। फिर धीरे-धीरे बॉलीवुड, इंग्लिश वाली जंगल बुक, फिडलर ऑन द रूफ.. ये सब। बड़ी हुई तो 12वीं में आने के बाद गिटार और कॉलेज वाला कनेक्शन यंग लड़कों के साथ समझ आने लगा। फिर मैंने सारी म्यूजिकल्स फिल्में सुननी शुरू की। डांस म्यूजिक सुनना शुरू किया।
फिल्में-कहानियां कौन सी पसंद है?
गो कॉमिक्स बहुत पसंद है। फिल्मों में 'प्यासा’ पसंद है। जिसे देखने के बाद कुछ दिन के लिए गुरुदत्त की तरह हो जाती हूं। कवियों की तरह बातें करती हूं। बुक्स में मुझे रोल्ड डाल (ब्रिटिश नॉवेलिस्ट) की अडल्ट शॉर्ट स्टोरीज और ग्राफिक नॉवेल बहुत पसंद है। यूशीहीरो तात्सूमी (जापानी मंगा आर्टिस्ट) को भी पढ़ती हूं।
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गजेंद्र सिंह भाटी