गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

निकोलस जरैकी की आर्बिट्राजः हिरना समझ-बूझ बन चरना

Richard Gere in a still from Nicholas Jarecki's 'Arbitrage.'

'लाल जूतों वाली लड़की', 'कुबड़ा', 'पानी में आग', 'दिल्ली के दरिंदे', 'नीला फूल', 'मैं उससे प्यार करता था', 'नन्हा राजू', 'सोफिया माई लव', 'घर-गृहस्थी', 'खूनी बाज़', 'परोपकारी शरमन', 'गैंग्स ऑफ लुधियाना', 'ग़रीबनवाज', 'डेंजर्स ऑफ पोएट्री', 'अल्वा ने बनाया गाजर का हलवा', 'वीर दुर्गादास राठौड़', 'चंचल चितवन', 'हो जाता है प्यार', 'मेरे सपनों की मल्लिका', 'आखिरी इम्तिहान', 'घबराना नहीं', 'इनडीसेंट वूमन', 'प्ले डे', 'ही विल किल यू' और 'बस गई अब बस करो'। फिल्म का नाम चाहे कोई भी हो, अलग छाप लगाता है। हर नाम, हर दर्शक के मानस रसायनों में अलग चित्रों को लिए घुलता है। जिसे अंग्रेजी ज्यादा न आती हो और ‘आर्बिट्राज’ देखने जाना हो तो वह इस शब्द के पहले अक्षर में आती ‘अ’ की ध्वनि में कुछ सकारात्मक महसूस करेगा या फिल्म कैसी होगी इसको लेकर न्यूट्रल उम्मीदें रखेगा। जो जरा ज्यादा जानता हो और कभी आर्बिट्ररी अदालतों के बारे में सुना हो तो कुछ पंच-पंचायती या बीच-बचाव का अंदाजा लगाएगा। फिर वो जो जानते हैं कि आर्बिट्राज का मतलब उस किस्म के बड़े कारोबारी मुनाफे से होता है जो एक जैसी परिसंपत्तियों या लेन-देन के बीच छोटे अंतर से उठाया गया होता है, हालांकि ये तरीका नैतिक नहीं होता। हम जब फिल्म देखते हैं तो इसके मुख्य किरदार रॉबर्ट मिलर (रिचर्ड गेयर) को जिंदगी के हर मोर्चे पर, चाहे वो कारोबार हो या रिश्ते, ऐसे ही आर्बिट्राज करते पाते हैं। उसकी आदर्श और सफल अमेरिकन बिजनेसमैन होने की विराट छवि के पीछे खोई हुई नैतिकता है, कारोबारी घपले हैं और रिश्तों में आई दरारें हैं। मगर निर्देशक निकोलस जरैकी अपनी इस कहानी में उसे आर्बिट्राज करने देते हैं। उसे इन गलत मुनाफों को कमाने देते हैं। उसे जीतने देते हैं। पर हर सौदा एक टूटन छोड़ जाता है। रॉबर्ट इंडिया और सकल विश्व में बनने वाली बिलियनेयर्स की सूची के हरेक नाम की कम-ज्यादा कहानी है। वो सभी जो आदर्श कारोबारी की छवि ओढ़े हैं, समाज में अपनी रसूख की कमान पूरे गर्व के साथ खींचे हैं और जिनकी कालिख कभी लोगों के सामने नहीं आ पाती, वो रॉबर्ट हैं। 2008 में वॉल स्ट्रीट भरभराकर ऐसे ही लोगों की वजह से गिरी, भारत में हाल ही में उभरे घोटालों में ऐसे ही कारोबारी हाथ शामिल रहे। सब कानून की पकड़ से दूर आर्बिट्राज कर रहे हैं।

कुरुक्षेत्र के युद्ध में धृतराष्ट्र को अधर्म (दुर्योधन) का साथ छोड़ने का उपदेश देते हुए महात्मा विदुर कहते हैं, “हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्। सुह्रदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः”।। जिसका अर्थ होता है कि ‘महाराज, दूसरे का धन छीनना, परस्त्री से संबंध रखना और सच्चे मित्र को त्याग देना, ये तीनों ही भयंकर दोष हैं जो विनाशकारी हैं’। पर रॉबर्ट की बिजनेस वाली दुनिया में जो विनाशकारी है वही रिस्क टेकिंग है। जो भयंकर दोष है वही आर्बिट्राज है। और उसे ऐसे तमाम सौदे पूरे करने हैं। उसकी कहानी कुछ यूं है। वह न्यू यॉर्क का धनी हैज फंड कारोबारी है। समाज में उसकी इज्जत है, आइकॉनिक छवि है। घर पर भरा-पूरा परिवार है जो उसे बेहद प्यार करता है, उसके 60वें जन्मदिन की तैयारी करके बैठा है। वह घर लौटता है और नातियों को प्यार करता है। अपनी सुंदर योग्य बेटी (ब्रिट मारलिंग) और जमाई को थैंक यू कहता है। पत्नी एलन (सूजन सैरेंडन) को किस करता है। सब खाने की मेज पर बैठते हैं और हंसी-खुशी वाली बातें होती हैं। एक आम दर्शक या नागरिक अपने यहां के बिजनेसमैन को इतना ही जानता है। ये कहानी इसके बाद जिस रॉबर्ट से हमें मिलाती है वो अनदेखा है। रात को वह पत्नी को बेड पर सोता छोड़ तैयार हो निकल जाता है। वह जाता है जूली (लीएतितिया कास्टा) के पास। ये खूबसूरत जवान फ्रेंच आर्टिस्ट शादी के बाहर उस जैसे कारोबारियों और धनिकों की आवश्यकता है। घर पर बेटी-बीवी को तमाम अच्छे शब्दों और उपहारों से खुश करता है तो यहां जूली के न बिकने वाले आर्टवर्क को ऊंचे दामों पर लगातार खरीदता रहता है, ताकि उसे सहेज सके। यहां इनका प्रणय होता है। रॉबर्ट किसी देश में बहुत सारा रूपया लगा चुका है। मगर अब उस मुल्क में हालात कुछ और हैं और उसका पैसा डूब चुका है। वह इन 400 मिलियन डॉलर की भरपाई कंपनी के खातों में हेर-फेर करके करता है। इससे पहले कि निवेशक, उसकी बेटी या खरीदार कंपनी पर बकाया इस रकम के बारे में जाने वह अपने वेंचर कैपिटल कारोबार का विलय एक बड़े बैंक के साथ कर देना चाहता है। पर अंतिम आंकड़ों को लेकर बातचीत बार-बार पटरी से उतर रही है। यहां तक रॉबर्ट के पास करने को पर्याप्त कलाबाजियां हैं, पर भूचाल आना बाकी है। अब कुछ ऐसा होता है कि एक अपराध उससे अनजाने में हो जाता है और न्यू यॉर्क पुलिस का एक ईमानदार डिटेक्टिव माइकल ब्रायर (टिम रॉथ) उसके पीछे पड़ जाता है।

जरैकी अपने इस किरदार को जीतने देते हैं लेकिन बताते हैं कि ये जीत रिश्तों में बड़ी टूटन छोड़ जाती है। एक-एक रिश्ते में। पत्नी एलन वैसे तो पहले भी एक रईस कारोबारी की बीवी होने के साथ आई शर्तों से वाकिफ होती है और चुप होती है, पर जब बात आर-पार की आती है तो वह रॉबर्ट से अपनी बेटी के लिए पद और पर्याप्त पैसे मांगती है। वह मना कर देता है तो एलन कहती है, “पुलिस मुझसे बात करने की कोशिश कर रही है और मैं तुम्हारे लिए झूठ नहीं बोलने वाली”। कुछ रुककर वह फिर कहती है, “आखिर तुम्हें कितने रुपये चाहिए? क्या तुम कब्र में भी सबसे रईस आदमी होना चाहते हो?” ब्रूक पिता के कारोबार की सीएफओ है। अब तक वह खुद को पिता का उत्तराधिकारी समझती है पर जब खातों में हेर-फेर का पता चलता है और ये भी कि ये पिता ने ही किए हैं तो वह भाव विह्अल हो जाती है। रॉबर्ट उसे वजह बताता है पर वह सहज नहीं हो पाती। गुस्से में कहती है कि “आपने ये किया कैसे, आपके साथ मुझे भी जेल हो सकती है”। रॉबर्ट कहता है, “नहीं तुम्हें कुछ नहीं होगा”। वह कहती है, “मैं इस कंपनी में आपकी हिस्सेदार हूं, मैं भी दोषी पाई जाऊंगी”। तो वह कहता है, “नहीं, तुम मेरे साथ काम नहीं करती हो तुम मेरे नीचे काम करती हो”। बेटी का आत्मविश्वास और भ्रम यहां चूर-चूर हो जाता है। हालांकि रॉबर्ट एक पिता के तौर पर उसे बचाने के उद्देश्य से भी ये कहता है कि तुम मेरे साथ नहीं मेरे अंडर काम करती हो, पर ब्रूक को ठेस लगती है। फिल्म में आखिरी सीन में जब एक डिनर पार्टी में बड़ी घोषणा की जाती है और अपने पिता के बारे में ब्रूक भाषण पढ़ती है और उन्हें सम्मानित करते हुए स्टेज पर बुलाती है तो दोनों औपचारिक किस करते हैं और वहां ब्रूक के चेहरे पर नब्ज की तरह उभरता तनाव इन सभी घरेलू रिश्तों के अंत की तस्वीर होता है। रॉबर्ट रिश्ते हार जाता है।

फिल्म के प्रभावी किरदारों में टिम रॉथ हैं जो पहले ‘रिजरवॉयर डॉग्स’, ‘पल्प फिक्शन’ और ‘द इनक्रेडेबल हल्क’ में नजर आ चुके हैं। एक पिद्दी सी सैलरी पाने वाले डिटेक्टिव होते हुए वह अरबपति रॉबर्ट मिलर का पेशाब रोक देते हैं। जब ब्रायर बने वह रॉबर्ट के पास तफ्तीश के लिए जाते हैं तो पूछते हैं, “ये आपके माथे पर क्या हुआ”। रॉबर्ट कहता है, “कुछ नहीं, दवाइयों वाली अलमारी से टकरा गया”। तो उस अनजानेपन से वह जवाब देता है, जिसमें दोनों ही जानते हैं कि सच दोनों को पता है कि “हां, मेरे साथ भी जब ऐसे होता है तो बड़ा बुरा लगता है”। कहानी में इस अदने से जांच अधिकारी का न झुकना और सच को सामने लाने में जुटे रहना अच्छी बात है। ये और बात है कि रॉबर्ट उसे सफल नहीं होने देता। केस में एक जगह वह टिम और पुलिस विभाग को अदालती फटकार दिलवा देता है तो दर्शक खुश होते हैं जबकि असल अपराधी रॉबर्ट होता है। फिल्म में अच्छे-बुरे की पहचान और दर्शकों की सहानुभूति का गलत को चुनना परेशान करने वाला चलन रहा है और रहेगा।

जैसा कि हम बात कर चुके हैं रॉबर्ट आदर्श अमेरिकी कारोबारी की छवि रखता है। सेल्फ मेड है। हो सकता है अमेरिकी संदर्भों में उसके आर्बिट्राज सही भी हों। पर रिचर्ड गेयर अपने इस किरदार की पर्सनैलिटी की तहों में काफी ब्यौरा छोड़ जाते हैं। सेल्समेन और सेल्सगर्ल्स के इस युग में सभी को आर्थिक सफलता के लिए डेल कार्नेगी या उन जैसों की लिखी सैंकड़ों रेडीमेड व्यक्तित्व निर्माण की किताबें मुहैया हैं, जिनमें सबको चेहरे पर खुश करना सिखाया जाता है। “सर आपने आज क्या शर्ट पहनी है”... “कल तो जो आपने कहा न, कमाल था”... “आपने जो अपने आर्टिकल में लिखा वो मुझे... उसकी याद दिलाता है”। रॉबर्ट मिलर भी इन्हीं सूत्रों से सफल बना है। वो सूत्र जो ऊपर-ऊपर बिन्नैस और रिश्तों को सुपरहिट तरीके से कामयाब रखना सिखाते हैं, पर उतनी ही गहराई में जड़ें खोखली करते हैं। क्योंकि पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट वाले इसका जवाब नहीं देते कि आखिर जब रॉबर्ट ने भी ये नियम सीखे थे तो क्यों बुरे वक्त में फैमिली ने उसका साथ न दिया? क्यों उसने रिश्तों में वफा नहीं बरती? क्यों उसमें सच को कहने की हिम्मत नहीं बची?

खैर, अगर अब उसके उद्योगपति लोक-व्यवहार को देखें तो वह जरा कम सहनशील हो चुका है। जैसे अपनी आलीशान महंगी कार में बैठकर वह फोन पर अपने अर्दली से कहता है, “बस पता लगाओ कि मेफिल ने हमें अभी तक फोन क्यों नहीं किया है?” तो वह जवाब देता है, “लेकिन मैं कैसे पता लगाऊं”। इस पर रॉबर्ट जरा भड़ककर कहता है, “अरे यार, क्या हर चीज मुझे खुद ही करनी पड़ेगी क्या, बस पता लगाओ। ...लगाओ यार, ...प्लीज। थैंक यू”। ये फटकार वाली लाइन आखिर में जो ‘प्लीज’ और ‘थैंक यू’ शब्द लिए होती है, ये चाशनी का काम करते हैं और लोक-व्यवहार की कला को कायम रखते हैं। जब बैंक के प्रतिनिधि से बात करने एक नियत जगह पर पहुंचता है तो मुश्किल हालातों में नहीं हो पा रहे विलय का गुस्सा उतारते हुए कहता है, “मैं ग्रेसी चौक का शहंशाह हूं (आई एम द ऑरेकल ऑफ ग्रेसी स्क्वेयर), मैं तुम्हारे पास नहीं गया था तुम मेरे पास आए थे...” पर जब सामने वाला कहता है, “रॉबर्ट मुझे लगता है हम बेकार बात कर रहे हैं (उसकी अरुचि दिखने लगती है, हो सकता है वह उठकर ही चला जाए)” तो तुरंत अपना रुख बदलते हुए रॉबर्ट कहता है, “अच्छा छोड़ो, छोड़ो, डील को भी भूल जाओ...”। यूं कहकर वह बात बदल देता है और बाद में उसी बिंदु पर घूमकर ज्यादा बेहतरी से आता है।

निकोलस जरैकी की ये पहली फीचर फिल्म है, इससे पहले वह टीवी सिरीज और डॉक्युमेंट्री फिल्मों व फीचर फिल्मों के तकनीकी पक्ष से जुड़े रहे हैं। वह मशहूर जरैकी परिवार से हैं। उनके माता-पिता दोनों न्यू यॉर्क में ही कमोडिटी ट्रेडर रहे हैं। आर्थिक जगत की कहानी का विचार उन्हें इसी पृष्ठभूमि से आया। उनके तीन भाई हैं। एक एंड्रयू जो फिल्म पोर्टल और वेबसाइट ‘मूवीफोन’ के सह-संस्थापक रहे हैं और जिन्होंने 2003 की मशहूर डॉक्युमेंट्री ‘कैप्चरिंग द फ्रीडमैन्स’ बनाई थी। दूसरे हैं थॉमस जो वित्त अधिकारी हैं। तीसरे हैं यूजीन जो खासतौर पर अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने ‘वाइ वी फाइट’, ‘फीक्रोनॉमिक्स’ और ‘द हाउस वी लिव इन’ जैसी कई चर्चित डॉक्युमेंट्री बनाई हैं।

प्रतिभाशाली निकोलस ने अपने बूते बिना बड़े हॉलीवुड स्टूडियो के सहयोग के आर्बिट्राज बनाई है। रिचर्ड गेयर और सूजन सैरेंडन समेत सभी अदाकारों के पास ये स्क्रिप्ट लेकर जाना उनके लिए किसी सपने से कम न था। वह गए, सबने स्क्रिप्ट पर भरोसा किया, उन्हें परखा और हां की। किसी भी लिहाज से अमेरिका की बाकी मुख्यधारा की फिल्मों से कम न नजर आने वाली ये फिल्म पूरी तरह चुस्त है और सबसे प्रभावी है इसकी निर्देशकीय प्रस्तुति। सभी वॉल स्ट्रीट फिल्मों के स्टीरियोटाइप्स से परे ये फिल्म देखने और समझने में जितनी आसान है, थ्रिल के पैमाने पर उतनी ही इक्कीस। अगर किसी युवा को महत्वाकांक्षी फिल्म बनानी हो और बजट का भय हो तो उसे आर्बिट्राज देखनी चाहिए जो उसे हौसला देगी और सिखाएगी कि कहानी और स्क्रिप्ट है तो सब कर लोगे। अमेरिकी फिल्मों के आने वाले चमकते चेहरों में निकोलस का नाम पक्का है। वह कसावट और अभिनव रंगों से भरी फिल्में बनाएंगे क्योंकि उनकी फिल्मी व्याकरण का आधार बहुत मजबूत है। बस जितने धाकड़ विषय, उतनी उम्दा फिल्में।
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गजेंद्र सिंह भाटी

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

100 करोड़ की कमाई बकवास बात हैः अभिषेक कपूर

‘रॉक ऑन’ के पांच साल बाद अपनी फिल्म ‘काई पो चे’ लेकर आ रहे निर्देशक अभिषेक कपूर से बातचीत। अगले साल फरवरी में रिलीज होने वाली इस फिल्म में राज कुमार यादव, सुशांत राजपूत, अमित साध और अमृता पुरी जैसे चेहरे नजर आएंगे।

Raj Kumar Yadav, Sushant Rajput and Amit sadh seen in movie's official poster

अभिषेक कपूर से मैं पहली बार सितंबर, 2010 में मिला था। ‘फीयर फैक्टर: खतरों के खिलाड़ी-3’ में वह प्रतिभागी थे। कार्यक्रम के बारे में बात करने वह अपने सह-प्रतिभागी शब्बीर अहलुवालिया के साथ चंडीगढ़, हमारे दफ्तर पहुंचे थे। मुख्यतः उस कार्यक्रम से जुड़े सवाल पूछते हुए मेरे मन में चल रहा था, कि ये वही है जिसने ‘रॉक ऑन’ का निर्देशन किया था? क्या हो गया है इसे? क्यों किसी टीवी कार्यक्रम के करतबों में खुद को जाया कर रहा है? पर वह जिंदगी को लेकर ज्यादा शिकायती नहीं लगे, तो ज्यादा नहीं टटोला। ऐसा नहीं था कि निर्देशन ही उनका इलाका रहा था। अभिनय से उनका गहरा नाता पहले था। 1995 में आई फिल्म ‘आशिक मस्ताने’ की छोटी सी भूमिका को छोड़ दें तो दो हिंदी फिल्मों में बतौर हीरो वह दिख चुके थे। पहली थी ‘उफ ये मोहब्बत’, जिसमें वह ट्विंकल खन्ना के लिए बौद्ध मठों में “उतरा न दिल में कोई इस दिलरुबा के बाद...” गाना गाते हुए एक टिपिकल हिंदी फिल्म हीरो वाले स्टेप्स करते आज भी याद आते हैं। दूसरी थी 2000 में आई ‘शिकार’। दोनों ही फिल्में नहीं चलीं और एक उगते अभिनेता का सूरज ढल गया। 2004 तक आते-आते उन्होंने यश चोपड़ा की फिल्म ‘वीर-जारा’ का स्क्रीनप्ले लिखा। इसके दो साल बाद बॉक्सिंग की कहानी को लेकर सोहेल खान के साथ ‘आर्यन’ बनाई। वह अब निर्देशक बन गए थे। पर संघर्ष जारी रहा। फिल्म नहीं चली। दो साल बाद बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फिल्म ‘रॉक ऑन’ लगी। यहां से उनके लिए दुनिया बिल्कुल बदल गई थी। इस फिल्म ने लोगों के दिल में खास जगह बनाई, फरहान अख्तर को बतौर अभिनेता पहला मंच देते हुए स्थापित भी किया, अर्जुन रामपाल को उनके मॉडल वाले पट्टे से मुक्ति देते हुए ‘जो मेस्केरेनहैस’ जैसा यादगार किरदार दिया और अगले साल दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। उनसे अब दूसरी बार बातें हो रही थीं। वजह थी ‘काई पो चे’। चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यास ‘3 मिसटेक्स ऑफ माई लाइफ’ की कहानी पर बनाई गई ये फिल्म 22 फरवरी, 2013 को भारत और बाहर लगनी प्रस्तावित है।
 
तो इस बार उन्हें देख रहा था बदले स्वरूप में। गालों पर घनी काली दाढ़ी छा चुकी थी। बीच-बीच में कुछ सफेद बाल निकल आए थे। आंखों पर जॉन लूक गोदार जैसे ऑटरों के माफिक काला चश्मा लगा था। बातों में निर्देशकों वाली खनक ज्यादा थी। समझदारी थी। इस अवतरण के इतर वह ट्विटर पर जॉन लेनिन, जी. बी. शॉ और विलियम ब्लेक को उद्धरित करने लगे थे। उनके निर्देशक दिमाग को जरा और समझने की इच्छा हो तो कुछ वक्त ट्विटर पर ही हो आ सकते हैं। यहां वह ज्यादातर दर्शन की बात करते हुए लिखते हैं... “रचनात्मकता तब जिंदा हो उठती है जब हम अपने आराम के दायरे से बाहर निकलते हैं. जब हम डर के भ्रम को तोड़ डालते हैं. प्रदीप्ति बस उसी के बाद है. जादुई!” और... “ये जो दो गहरी सांसों के बीच हम आराम पाते हैं न, कई बार पूरे दिन में बस वही एक सबसे जरूरी चीज होती है.” सपट भावों को बिना छाने, आने देने की प्रवृति भी कभी उनमें नजर आती है। मसलन... “आहहहह!! मैंने अपना बटुआ खो दिया.. लग रहा है कि मैं एक मूर्ख हूं... मुझे वो वापस चाहिए.. हे विश्व क्या तुम सुन रहे हो!” या “एयरपोर्ट पर आज मेरा सबसे बुरा अनुभव रहा.. थाई एयरवेज तुम्हारी ऐसी की तैसी...” सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी वह भावुक और समझदार टिप्पणी करते हैं। इसमें इजरायल-फिलीस्तीन हिंसा है तो कसाब की फांसी भी। “इजरायली और फिलीस्तीनी जो एक-दूसरे के साथ कर रहे हैं उसे देख दिल टूटा जाता है। हालात बेहद नाजुक लग रहे हैं। दुआ है कि अक्लमंदी बरपे”। और  “कसाब को लटकाने को लेकर लोगों की खुशी को मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इससे न तो हो चुके नुकसान की भरपाई हो पाएगी, न ही अपने पड़ोसी मुल्क के साथ अपनी मुश्किलों को दूर करने में हमें मदद मिलेगी”। उनकी निजी जिंदगी, बीते अफेयर और एकता कपूर के ममेरे भाई होने के पेशेवर फायदों वाले सवालों से ज्यादा रुचिकर है एक निर्देशक वाले मन में झांकना। क्योंकि इससे ज्यादा बेहतरी से पता चलता है कि ‘काई पो चे’ बनाने वाला व्यक्तित्व भावुक, तार्किक, शैक्षणिक और बौद्धिक तौर पर कैसा है, और वही जानना जरूरी भी है।
Abhishek Kapoor, In conversation.

तो, काई पो चे! सबसे पहली तो अनूठा नाम रखने की बात और इस तीन शब्दों वाले नाम के मायने। अभिषेक बताने लगते हैं, “जब पतंग कटती है तो गुजरात में काटने वाला चिल्लाता है काई पो चे। यानि कि वो काटा। इस नाम में मुझे जिस किस्म की ऊर्जा महसूस हुई, किसी दूसरे नाम में नहीं हो सकती थी। ऊर्जा भरा नाम इसलिए भी जरूरी था क्योंकि युवा मन और यूथ की फिल्म है। कहानी के केंद्र में ढेर सारी एनर्जी है। फिल्म की पृष्ठभूमि गुजरात है तो ये नाम सटीक बैठता है। एक अहम निहित अर्थ ये भी है कि फिल्म की थीम में जैसे तीन यारों की दोस्ती एक बिंदु पर टूटती है, वैसे ही है पतंगों का कटना। दोनों ही बातों में एक किस्म का सांकेतिक जुड़ाव है”। पहले ऐसा भी बताया जा रहा था कि फिल्म चेतन के ही अंग्रेजी उपन्यास ‘टू स्टेट्स’ पर बन रही है, मगर ऐसा नहीं हुआ। इस बारे में अभिषेक बताते हैं कि उन्हें ‘टू स्टेट्स’ और ‘3 मिसटेक्स...’ में से कोई एक कहानी चुननी थी। ऐसे में उन्होंने दूसरे उपन्यास की कहानी इसलिए चुनी क्योंकि बतौर फिल्मकार दूसरी कहानी में बदलाव करने की गुंजाइश ज्यादा थी। इसमें लव स्टोरी भी थी, भूकंप भी, पॉलिटिक्स भी और दोस्ती भी। और जाहिर है उन्हें दोस्ती ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, तो फिल्म की मुख्य थीम दोस्ती हो गई। जब ये तय हो गया तो लिखने की बारी आई। हालांकि ‘रॉक ऑन’ सफल रही थी पर उसके पहले उनकी राह में काफी संघर्ष रहा, ये वह यहां स्वीकारते हैं। जब ‘काई पो चे’ को लेकर बाकी योजनाएं बन गई तो उन्होंने 8-10 महीने की छुट्टी ली और फिल्मी प्रारुप में इस कहानी को लिखा। वह कहते हैं, “जब आप किताब या उपन्यास को एडेप्ट करते हो फिल्मी स्क्रीनप्ले में, तो बहुत टाइम लगता है। खुद को दीन-दुनिया से पूरी तरह काटना पड़ता है”।

ये कहानी तीन अमदावादी (अहमदाबादी) लड़कों और नई सदी के नए भारत में उनके सपनों, आकांक्षाओं, टूटन और मिलन की है। मगर तीनों ही किरदारों में अभिषेक ने नए चेहरों को चुना। ईशान, ओमी और गोविंद के ये किरदार निभाए हैं टीवी के ज्ञात चेहरे सुशांत सिंह राजपूत, बिग बॉस में नीरू बाजवा (अब स्थापित पंजाबी हिरोइन) की तस्वीर लिए फफकते रहने वाले अमित साध और इन दिनों बहुत ही तेजी से शानदार फिल्मों में नजर आ रहे राज कुमार यादव (लव सेक्स और धोखा, रागिनी एमएमएस, गैंग्स ऑफ वासेपुर-2, शैतान, चिटगॉन्ग, तलाश, काई पो चे और इनके इतर एक बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म, शाहिद) ने। किसी स्थापित अभिनेता को नहीं लेने की इस बात पर अभिषेक बोले, “ऐसा नहीं है कि मैंने बड़े स्टार्स को इन भूमिकाओं में लेने के बारे में सोचा नहीं था। मैंने सोचा था। मगर जब आप तीन लड़कों की कहानी कह रहे हो और बात एक खास उम्र समूह की कर रहे हो तो फिर उम्रदराज अभिनेता लेने संभव न थे। और फिर मेरे प्रॉड्यूसर्स ने भी इस मामले में पूरी आजादी दी कि मन की कास्टिंग कर सकूं। इस दौरान मैंने कई एक्टर देखे। फिल्म शुरू होने से पहले मैंने डेढ़ साल कास्टिंग करने की चाह में बिता दिए। भई नॉवेल था तो अलग कास्ट होनी भी तो बहुत जरूरी थी। तभी मैंने इन लड़कों को देखा। जब टीवी पर ये नजर आए तो मुझे वही एनर्जी नजर आई जो मेरी फिल्म के किरदारों में होनी थी”।

इस दौरान वह उस सवाल को खारिज कर देते हैं जो फिल्म की रिलीज से पहले बहुत ओर से पूछे जा रहे हैं। कि भला टीवी वाले एक्टर एक बड़ी हिंदी फिल्म में गहन-गंभीर एक्टिंग कैसे दे पाएंगे? अभिषेक कहते हैं कि टीवी वालों की एक्टिंग को किसी अलग श्रेणी में बांटना बकवास बात है। टेलिविजन पर बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं, सभी टेलेंटेड हैं और काम को लेकर बेहद ईमानदार हैं। वह उस 100 करोड़ क्लब वाली फिल्मों के सवाल पर भी नाखुश नजर आते हैं। ये राहत की बात है कि इस आंकड़े के पागलपन के बीच बतौर निर्देशक उनका ये जवाब स्पीडब्रैकर का काम करता है। वह बोलते हैं, “100 करोड़ रुपये की कमाई करने का दबाव मुझे बकवास बात लगती है। मुझे समझ नहीं आता कि ये 100 करोड़-100 करोड़ है क्या? क्यों है? हर तरह की फिल्म होती है और फिल्म अपनी कमाई से बेहतर नहीं होती है। कुछ फिल्मों ने कमाई कर ली तो आखिर बाकियों को भी उसमें छलांग लगाने के लिए क्यों कहा जा रहा है?” बात जब एक और स्टीरियोटिपिकल या सांचे में ढले सतही सवाल (आइटम नंबर) पर आती है तो वह शांत होकर कहते हैं, “जबर्दस्ती का लफड़ा फिल्म पर भारी पड़ सकता है। और फिर ऐसी चीजें सेंसिबल फिल्मों के कथानक को बहुत ज्यादा बाधित करती हैं। हमारी फिल्म एक संजीदा कोशिश है और उसमें कोई ऐसा खतरा हम नहीं उठा सकते थे। हालांकि फिल्म में गाने जरूर होंगे। पर अलग तरीके से और अलग संदर्भों में होंगे”। फिल्म में संगीत अमित त्रिवेदी का है। अभिषेक गुजराती किरदारों के टीवी और फिल्मों में इन दिनों किए जाने वाले स्टीरियोटिपिकल चित्रण से जुड़ी चिंता पर आश्वस्त करते हैं। कहते हैं, “गुजराती लोगों का जैसा घिसा हुआ चित्रण किया जाता है, मैं आपको पूरी तरह भरोसा दिलाता हूं कि इस फिल्म में कतई नहीं होगा”।

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गजेंद्र सिंह भाटी

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

In conversation with Baradwaj Rangan, the man who had the longest ‘conversations with Mani Ratnam’

This old cover of the book I like much. Mani on the set of 'Nayakan.'
(the interview can be read here in Hindi, just have to click on the sixth page of CityLife, then see The Eight Column Affair at the bottom)

At Tiff-2012 (Toronto International Film Festival), a journalist asked a panel of nine Indian Filmmakers as to what they felt of Film Criticism today. Amongst them Anurag Kashyap spoke. His initial sentence was, “The quality of film criticism in India is terrible. Though, there are film critics like Baradwaj Rangan who I immensely respect and I love to read them.” With time, Baradwaj has developed this habit of appearing on the lips of talented filmmakers and passionate cinema readers time and again. He has earned the reputation of a film critic who doesn’t have the notorious set template of film watching. His consistency had won him the Best Film Critic prize in 2005 at the 53th National Film Awards. He lives in Chennai, Tamil Nadu and works as Film Critic & Deputy Editor at The Hindu. Now the N-E-W-S is he’s come up with a very special book called ‘Conversations with Mani Ratnam.’ In this book he's got one of India’s most prominent filmmakers Mani Ratnam to talk the longest about his life, the man who almost never speaks to media. I haven’t got hold of the book yet (ordered) but am sure that it will introduce us to the Mani Ratnam we know not only for ‘Bombay’, ‘Roja’, ‘Nayakan’, ‘Dil Se’, ‘Guru’, ‘Yuva’ or ‘Raavan’ but also for ‘Kannathil Muthamittal’, ‘Anjali’, ‘Mouna Ragam’ and ‘Geethanjali’ and perhaps all his Tamil movies. Hopefully it’ll prove to be a great book for cinema students and for the layman, with equal importance. Here is the conversation I had with him:-

How did Baradwaj Rangan started writing? How did he start writing on cinema so passionately?
Baradwaj Rangan.
I was an engineer for a long time. I was doing software and all that usual stuff. After a while I just decided that I wanted to begin writing seriously. So while I was working, I started sending out snippets reviews of films I saw through mails, to various friends, and, then they started circulating it to other friends and things like that. Somehow things began working and the circle kept growing. Going by the response, sometime then, I felt that something was working. So I think that's how it began and I came back to India. I started writing freelance for Newspapers and Magazines, and then I became full time. That's my overall career. And films started, because, I am one of those people who analyze and things like that. I always try to put into words, my experience of a film rather than just tell people. But, I try to say, ok, I saw the film, this is how I felt, why did I feel that way and things I liked, things I didn't like. Because, I've always believed that there are two components to writing about a film. One is, did I like it or did I not like it, and if so, why? So the reason is as important as the summary or verdict. And, that reveals a lot about the way you watch films.

Where did the idea of a book come from and how did Mani Agree to it eventually?
My editor at Penguin had been asking me for a long time to write a book and I kept saying no for various reasons. Because the thing is, a book is a long commitment. Starting a book is easy, but then, once the first chapter is done, your initial enthusiasm kind of fades and then you realise that oh! my god, there is still so much to go. So you need a subject that is going to keep you interested throughout. I kept saying no to various ideas that they had, but, then they looked at some of early articles that I wrote about Mani Ratnam and said, ok! why don't you expand on this and write about him. And, that for some reason appealed to me. I went to meet him. Because, he is in Madras and I am in Madras, and I thought chalo! let's go and tell him that this is something I'm going to be doing. That was after ‘Raavan’ (2010) had been released.

He was sitting there in his office and I think he must have read about me or heard about me or something like that. He said, “You like cinema, I like cinema, so why don't we just talk and see what happens?” So, now this was very unexpected, because I thought I was going to tell him that they've asked me to do a book about you, and I'm doing this book about you. But I didn't expect him to say that let's do this mutually. Then I thought that, ok this is a man who rarely talks, let's just follow this thing and see what happens. If something happens then good. If something doesn't happen then I still have the option of the other book. But then this started to develop rather nicely and it became the book.

Once you decided on it, how long did it take to finish?
I would say, it took close to a year, a little more than a year. Actually, at this point, he was also deciding on various projects and he hadn't yet started completely putting together any film. He started working on a film and that film got shelved. So, he remained free to talk for a long time, otherwise it's very difficult to get people for such a consistent period. So it happened slowly and then started taking shape.

You must have gathered hundreds of hours of audio material. And once you do, you tend to feel that every word or line said by the filmmaker is precious. Sort of impossible to edit them aside. How painful for you was that process? How did you handle it? Include the memories of constant typing, editing, rewriting, connecting.
The horrible thing about transcribing is that you have to type out every word even though you know you cannot always include every word. So as soon as you get back after the session, that's when you remember the exact graph of the interview, what emotions were there and things like that. So after each session I would kind of try to finish up the transcribing before I got over to the next session.

This works for two reasons. One, it is good to finish the thing. Two, before going to the next session I'd go through the notes of first, to make sure that I am not repeating anything, or to refresh my mind about something he said, so that if he contradicted, I'd know. By the time you reach your 10th or 12th session, you have to go through the first, to remember what you did much earlier.

So I followed a pattern of coming back and finishing transcribing a session and figuring out what really worked and then going in for the next one. You cannot avoid transcribing, because the other option is to take notes during the session, and that means you miss out on a lot that's said, and also the incidental emotions. You just have the points. One thing I've tried to maintain in the book is the kind of flow of things in real time. Like, if you notice the first chapter, my questions to him are almost direct and to the point. Whereas, by the time we get to 'Guru' the very first question is very personal and pointed, -I gradually settled down and both of us became comfortable with each other. My questions also got little more elaborate and his answers also became more relaxed. I also, wanted to preserve the experience of what this process was like and not just what he said.

How long did it take, for the both of you to get along and arrive at frank discussions?
I think it took us about five or six sessions of about an hour each. We never talked for more than an hour or an hour and a half at a time. He was also busy with certain other things. Initially you don't see it happening. You are asking someone to open up about their work, life and actions, because even if he says no personal questions, there is a point where your work is going to be a bit personal. So that comfort level takes a little while to come at. And, I think once he understood where I was coming from and what my genuine curiosities were, he became comfortable and it became easier to roll off. I also got to realize how really committed to making the book he was.

What were your initial Mani Ratnam favourites? Why did you like them?
Mouna Raagam (1986).
The reason I liked these films is very easy to say, because I grew up in Madras and his early films were set in Madras. We simply hadn't seen youngsters like us, depicted on screen like that. One of the reasons is also because in earlier Tamil cinema, the youngsters were usually portrayed by directors who were much older. May be they remembered the youngsters of their time. But then Mani Ratnam wrote these really young people. Actually, you realize one thing that even today he sounds so young. He's not one of those people who sounds like a senior. And, I think this quality was brought out in his films and it kind of made the films very electric. So it was like watching us on screen. Like his early Tamil Films such as ‘Mauna Ragam’, ‘Agni Natchathiram’ and ‘Thalapathi.’ But after that a lot of people started imitating his movies, and, today when you ask somebody to look at those movies, he might say oh, what the big deal about them, talking like that. Just like today when somebody sees some great classic of Tamil cinema he says, are isme kya hai yaar, isme kuch khaas waas nahi hai. So his early Tamil films are definitely my favourites, though I like his other films also. 

We tend to bracket a director’s themed movies into trilogies. For instance, Gus Van Sant’s ‘Death Trilogy’ (Gerry, Elephant and Last days) or Mani’s trilogy on terrorism ( Dil Se, Roja and Bombay). Did it come across in the conversation this way?
I didn't talk about the films like that. In the book, each film gets its own chapter. I kind of talked about ‘Roja’ when we discussed ‘Bombay’ to get a sense of continuity, but there was no effort to group films. Grouping is something that happens later, when you see a director's output. It's not happening while the filmmaker is making these films.

Is the book a hardcore cinema & grammar talk, or did you also talk about Mani’s upbringing, childhood memories, movies that mesmerized him, movies that honed his aesthetic-emotional and storytelling senses, personal tragedies (his brothers’ deaths) and initial struggle?
Both me and my publisher, especially my publisher, was very interested in having a book - that is going to expose a student of cinema, say, - to the thought process of a director, a commercial film director. See, one of the things I'm very happy about this book is, usually when people write a book it's always about people who are considered great artists. And, usually when we talk about great artists we don't talk about the mainstream film directors. May be today we talk about Guru Dutt, but in his days he was a big flop, as his latter films didn't do well at all. So, for me it was a great opportunity to write about somebody who's still making films and who has used the commercial mode of storytelling, which is a very Indian mode of storytelling, to good effect. Now you may like a certain film or you may not like a certain film, but, he has worked consistently in this mode and he has tried to make meaningful commercial cinema.

Whether his film flops or not, he's still considered, achcha chalo Mani Ratnam ka picture hai to chalo dekhte hain kya hai, kind of thing. He has that kind of stature. And, for me it was very interesting to get into the mind of somebody who's still making movies. For film students that is good thing to get into. For somebody who is making movies, this is the story of a person who had to struggle for his four or five films and only then did he get to where he is. And, for the lay person and for the person who watches his films, there is this revelation that, achcha, this is also there in the film? Achcha aise bhi sochte hain film banate vakht? It's not just telling a story but also about how something is set up, what was he thinking when he dreamed up his characters? Unhone baki stories kaise likhi hain? Things like that.

What my publisher was very keen that I don't do is things like achcha to iss shot mai kis filter ka istemal kiya hai, and things like that. Because those, only film Institute students can enjoy really, that's why I did not want to talk about the zoom or trolley. We wanted people to be aware that haan there is a lot of technology that goes into the making of a film. It is enough, that you talk about editing, you don't have to go and discuss about the console and avid machine and all. Because, I'm sure you can go to any kind of nitty-gritty and make a book, but the thing is, we wanted a book that would appeal to a large section of people.

You're involved in the production of the paper, writing reviews for Tamil, Hindi and English movies every week and a weekly column. In between the book came. How did you manage time and other things?
I'll tell you something, when you write a book, there is one thing you really need to have, which is bum glue. You have to keep sitting till you're done. You have to miss your parties, your outings, your this and that. But, the thing is also that, at that point, I was a little freer. But any book, whether it is a fiction or a non-fiction, whatever it is, you have to have the discipline to wake up at 4 o'clock and just keep going at it till it happens, which is why it is very important that you choose a subject that interests you.

Because, when you sign a book it's so exciting and you kind of write the first chapter that initial excitement is still there, but then you realize that arre yaar I have to write the second chapter and then third chapter and then fourth chapter, and you realise that you have to keep going back and forth between various drafts, which is why a lot of people start and they kind of stop. But, ya you have to keep going at it. And, I really think that if you draw a time-table and stick to it then nothing is impossible. I mean some sacrifices you have to make. For instance, making a film is not an easy thing, but people do that. It's just a question of prioritising. I don't think that my prioritising is any more difficult than let's say the average housewife who has to juggle a job and come back and raise children and wake up in morning and do this and that. So it's all part of planning I guess.

And you were writing reviews simultaneously.
Yes, but it's not like ki uske liye alag se kuch sochna padata hai. This is what you are and this is what your writing is. See, reviews is also once a week. It's not throughout the week. So, let's say I wouldn't write on Fridays and Saturdays because of the movies and reviews, but you know that the other days are still available. You have to make use of Sundays, that's one of the things one should be prepared for when writing a book. You have to forget that Sundays are holidays.

Like all experienced cinematographers are to debutant inexperienced filmmakers, how instrumental was Balu Mahendra in becoming friend, guide and partial mentor for Mani Ratnam, when he was making ‘Pallavi Anu Pallavi’ (1983)?
Pallavi Anu Pallavi (1983).
Mani Ratnam has said in the book that he wanted to use an experienced cinematographer, because even though he was a big friend of P. C. Sreeram who later shot his films, it is always better to make a first film with an experienced cinematographer, because he can point out what mistakes you're doing and stuff like that. So he was very instrumental in showing him how this could be done and how... and in fact one of the chapter headings is “After three days I told Balu Mahendra, I want to run” or something like that. Because, he'd written a draft on paper and nothing that he imagined on paper was happening in front of his eyes. Because aap paper me hi likhe ho ideally imagine karke, ki hero aisa hoga, aise move karega, heroine aise karegi, vo karegi, things like that. But, you look at it and the person is not the exact person you envisioned in your mind, and then they are not moving the way you want them to, the sun is not coming out the way you wanted to, the light is not correct. Ye sab bahut sari cheezen hai jo location me badal jati hain. So he (Mani) said that I wanted to run away and Balu Mahendra told him that don't do this, keep it for a while. And, then he got the hang of it. So, Balu Mehendra is instumental in not making Mani Ratnam abandon his first film and run away.

Did you talk to him with the same perspective and interpretation when it came to movies like, ‘Dil Se’, ‘Roja’, ‘Bombay’, ‘Nayakan’, ‘Yuva’ and ‘Raavan’, which were about a national connection between him and the Hindi speaking audiences, as you talked about his Tamil films?
No, no. There was no difference. I approach all the films the same way. But, I did ask him at one point what made him want to go and make movies in Hindi. So that thing is definitely there.

How has your way of seeing his movies changed after knowing from him possibly every minute detail of how, why and with what context he made his movies?
I definitely understand why he made certain decisions regarding certain films. I understand his thought process, but understanding that doesn't necessarily mean you’ll like the movie. For instance, you meet somebody for the first time and you're sitting across him and you really don't like a couple of things. For the second time, may be you become comfortable but the same things that irritated you the first time, are irritating you the second time. And then you talk to somebody else, a third person, and understand ki achcha the reason he's so quiet is because of this, or the reason he’s so talkative is this. That understanding you have of that person is going to get you inside that person but that doesn't mean you're going to stop getting irritated by those traits.

So I may understand why Mani Ratnam made this decision in this movie or that decision in that movie but that really doesn't change the fact that the movie is still not working for me. In fact, I think the ‘Roja’ chapter came in exactly the right time during the conversations, because that was his 11th film and because we talked about his movies in progression we had reached a point where we were comfortable with each other. So at that time I was able to ask him about the things in ‘Roja’ that really annoyed me or rather kind of made me not like the movie so much. So he was able to answer those things. Now I understand why he did those things. But I still have problems with those things.

The characters of Pankaj Kapoor (left, in mask) and Arvind Swami in Roja (1992).

Which are your favourite Indian and foreign films and filmmaker?
The most nightmarish question. I love all kinds of movies. I love commercial films, I love art films. I kind of like interesting cinema. So it's very difficult for me to point out. Even now, I saw ‘Aiyyaa’ and it's not an entirely successful film but there are kind of pretty interesting things happening in there. So I really can't point to any one movie.

What I wanted to say is, as a film reviewer you must be having certain principles on which you estimate a film. They could be technical, cinematic, social, message-wise or pure human values. On those terms, which are your favourites? Let’s say mine is ‘Do Aankhen Barah Hath.’
For me, I really like... I'm a fan of Raj Kapoor, so I love ‘Sangam’ for instance. I like ‘Deewar’ very much. I think it's a very-very good example of dramatic commercial film. I like Shantaram (V. Shantaram) a lot. I'm a huge fan of ‘Navrang’, because it is one of the really wonderful musicals. Among foreign films, I like the French director François Truffaut a lot. I love his films. One of my favourite films is ‘The Story of Adele H.’, which is the story of Victor Hugo's daughter who fell in love with his army guy. I love The Marx Brothers. I love ‘Duck Soup’, which is one of my favourite comedies. I mean I can see it any number of times. I love the ‘Monty Python and the Holy Grail’. Every time I see it, I just laugh. You know so it’s like all over the place. There is only one thing that I really don't like and that's horror films.

If you may have asked, what remains the source of creativity and imagination for Mani Ratnam till today?
He kind of always has two or three ideas that he has toying in his mind, which may have come from the people, around him, or maybe it's a thing he read in the paper. So all of this keeps running about in his mind. He then sometimes starts writing it out and sometimes the idea becomes a film.

Who are the other filmmakers you want to write a book on of conversations?
I don't know. My head is too filled with this thing to kind of think of somebody else. And also, one of the things about Mani Ratnam is, because I have been following him for a very long time, there was a natural progression to it. If I may say so, to write about somebody like Mani Ratnam, you need somebody who's not just seen ‘Roja’ and everything else but also his Tamil Films, because that's where his real origin is. Just like to write about Rahman (A. R. Rahman) to me, it's not enough to know only ‘Rangeela’ or some other films, you have to know ki uske pahale kya karata tha vo, how he was in Ilaiyaraaja's troupe and what happened then and what kind of music existed before him and what happened when he came in. Like if writing about V. Shantaram, you have to know how his Marathi films were. It's not just enough to write about ‘Do Aankhen Barah Haath.’ That is the progression that's there and I think one of the things that made me zero in on Mani Ratnam was also the fact that I had that knowledge of his entire body of work.
Official cover of the book.
Rahman has written the foreward of the book.
Ya, he has written a foreward and that's very nice. It's kind of his tribute to his mentor. Because as you know in Tamil Mani Ratnam is the one who introduced Rahman as a full fledged music director. So it's a sweet forward where he kind of talks about his relationship with him and certain personal traits of Mani Ratnam that he finds interesting. And, Rahman said that it's nice that he (Mani) has talked so much, as he doesn't really likes to talk too much about what he's doing and stuff like that.

What did Mani say about his association with Ilaiyaraaja and Rahman, and their music?
That’s there in the book, working with one, working with the other. See, one of the things that I don't like to ask questions like, How was it like working with Rahman? I like to ask more pointed and specific questions. Like, when Rahman came in, he was riding on a specific technology, uske pahale jab Ilaiyaraaja ke sath Baithte the to harmonium par dhun bajate the, and slowly that did give the outline of the tune. Phir director kahata tha ki haan yaar aise tune aane do... or I don't like this tune. That was the prevalent method of working. But with Rahman, Mani Ratnam used to get samples of a near finished song, like a demo track. So he would get a song that would not just be the outline of a tune on harmonium but actually with production value. So, it'll be about fifty per cent of what the final product would be, with a demo singer, with a track singer and things like that. Those kind of things are also there. Actually you will find that there are very specific instances of how one person works with various collaborators, not just general 'How was working with Aishwarya Rai' type things.

What’s the staunchest criticism he had for your writings and you had for his filmmaking?
I don't know if it is a criticism as such, but he generally doesn't like to analyze movies too much. And, he kind of likes to leave things on the surface. At least he says this, but then you look at the book and when you look at the reasons he takes certain shots and thinks about certain things, you realize that this man has thought beyond the things on the surface. So, that was something that we learnt to respect about each other. Like once, he was holding a bunch of pencils, and I asked him, “ok, so what's the deal with the bunch of pencils?”, and he said, “What? Now you're going to give a meaning to this also.” And we kind of laughed about that. But he understands the thing about criticism, because he has educated himself by reading critics from the western world.

So it’s not like he is unaware of critical tradition or something like that. But he kind of resists, because I have seen a lot of filmmakers, jab khud film banate hain to they think a lot ki ye character aisa karega-vaisa karega but when they talk about it, somewhere they don't like to talk about it in that context. I don't know why but this is not with one director, this is with a lot of filmmakers.

Suppose what you're writing is not being read or you've not written well, you feel that way, you're disappointed in life for certain creative reasons. At the same time a director is not satisfied with his life, he's very much frustrated. Then how do you both talk? How do you gather your energy back, to start again with another thing while this frustration is there and how do you handle it? 
This doesn't have to happen with another project. Even within the sessions of the same project, session one, two, three, five, seven will be really good, you know. The conversation will really be flowing, and - everything will be fine. But may be in session four, my questions will all be nice, but he won't be answering very well. Or, there might be like session 12 where I would really be wracking my brains about how to take this conversation forward because I'm having an off day and he'll be giving really good answers. Or one day both of us will have a bad day. See the thing about being a professional in anything is that you have to respect the fact that there are going to be days when good things happen and there are going to be days when good things don't happen. You just have to say that ok we will try this again. This is the only thing you can do. And, as human beings you have to understand that you're not going to be there 100 per cent there 100 per cent of the time.

Where do you get the positivity and energy every day from? To wake up and do the things you do, even if you're mind is mess that day?
It's part of having a routine. And, one thing is you have to understand, you cannot keep dwelling on too many things. You have a job to do you, and have to get it done. If today the job is not getting done then tomorrow you do it again and try to do this thing better. And that's the only thing. For instance, earlier I used to take time in writing my reviews, because my schedule was to have it up by Sunday morning, which is when the paper would come out. So I could watch a film on Friday morning, then I would have all of Friday afternoon, evening, and the whole of Saturday to write my review. But, now I've to submit it by Saturday morning. So obviously when you know you have the time, your language can be polished and you can improve the piece. Now you have to be prepared to send off your work early. But you can't complain. And, today it's better to have a review that may be you're 60 per cent happy, but which comes soon, rather than a review that you're 100 per cent happy, but by that time the movie is gone. So everything is compromised, there is never something like an ideal 100 per cent situation.

Around a year back, I met Rajeev Masand in Mumbai, we had a chat, about film criticism and all. I ask one of the same questions to you, that filmmakers are always seen not happy with the state of criticism in India. They say, “It's paid. It's not sensitive towards how the films are made. He couldn't understand my point there.” So, what is your criterion of writing about a movie? Do you care as to how much money has gone into the making?
For me, I don't really care about how the film has been made or how much money has gone into and the marketing thing, because the kind of criticism that I do is not really targeted at driving people to the theater. That is the different kind of thing which is the like dekho star deta hai, dekho teen star diya hain. Well I don't really do that. And thankfully, I don't have to do that in the paper. So for me that consideration is not important at all. I don't know whether you have read my stuff but what I try to do is I kind of follow my journey through a film and try to point out some interesting things from it. Now, no two people feel the same way, it rarely does happen. Because, how we respond to something depends on what background we are from, what cultural background we are from, what political background we are from, whether we are male or female. All those kinds of things decide how you view a film.

Like for instance, I had sort of problems with ‘English Vinglish’ even though I feel it's a charming film. And somebody came and said, “What a male point of view this review has.” But, it is important to put your point of view and if everybody puts up a good substantial point of view then we'll have a body of literature around a particular film, which will give you various ways of looking at a film. Otherwise what you're saying is, are isne achcha kaam kiya hai usne achcha kaam kiya hai, the story is this, first half is good, second half is not good. Which is fine, I'm not saying that it should not exist. But, I'm just saying that criticism is a little different from that, because you're kind of trying to analyze a film and trying to get at a larger truth about it, and not just say something like, ‘It's a time pass film’, or something like that. And in my experience, I found that that works. I mean obviously I'm not popular as some of the other critics, but, I do find that there are people who seem to like what I write.

You gave more stars to ‘Raavan’ than the other film critics and less to ‘3 Idiots’ in comparison.
I've never figured out this star system and other thing is that when I was giving stars, ‘The Indian express’ had a slightly skewed star system where baki logon (other Newspapers) ke liye teen stars was good and four stars very good. I don't know exactly. But, for Express, three stars was average and four stars was good. For me ‘Raavan’ was a good film. It's not an excellent film, it's not a bad film, it's a good film, like bordering between average and good film. So when I gave it a four stars, everybody else looked at it from a four star view. Like, four stars suddenly means a huge kind of a thing. But, ‘3 Idiots’ I genuinely had problems with. I love Rajkumar Hirani's first ‘Munnabhai’ movie and I loved ‘Lage Raho Munnabhai’ but ‘3 Idiots’ did not work fully for me.

(...) And another thing about our country is that, we have a very strange thing that if everybody likes it then you should also like it. I don't see why this... because you have a slightly different point of view and they're immediately saying that, “So you want to show that you're so different than others.” But, I'm just trying to say, it didn't work for me this way, that's all. It's an opinion, it's a point of view. What is not important is what your opinion is, what is important is how you substantiate that opinion. How do you argue your way, that this is the reason I feel this way, not just saying I feel this way. The reasons you're giving, the analysis you're doing... it's like a thesis, you have a hypothesis and you're kind of building on this, and you're saying this is why.

Few months back when I was interviewing Rajkumar Gupta, he said something about ‘Amir’ and your review. He was referring to my earlier question about filmmakers creating a scene with practical and straight mind and in between a film writer explores it in a way even the maker has not thought while making. He gave your review's example, in which you'd written a scene of ‘Amir’ so poetically and contextually which he actually didn’t make that way. He said he liked your reviews very much and had no problem with what you wrote, but, it has nothing to do with how he'd made the scene. My question to you is, when you express certain scene this way in your write-up, what goes into your mind? And, what about it’s being not true to the process of the creation?
I feel that there are two things that happen here. One, the filmmaker makes a movie with his point of view, but, I don't have his eyes, I have my eyes. Therefore, the film I see is 50 per cent what he is showing me and 50 per cent of what I'm taking into the film. So it is inevitable that my reading of the film is not going to be the exact same thing as the reason somebody made the film. For instance, when you look at the interpretations of Shakespeare and all those things, you'll find that different people find the same thing to mean different things. I'm not saying this is how Rajkumar Gupta made this scene. Then I would be wrong. Because then I'm presuming to know what's in his mind. All I'm saying is, I saw the scene and this is how it spoke to me. So, that's a very different and valid thing. That is why my reviews are more personal than more a bracket statement that says this is why he did that thing, this is what he's saying. I never try to claim those things. All I'm concerned about is what I saw; it's like my own conversation with the movie. Supposing, you meet a friend and the friend says, Chalo yaar ye bakwas band karo. He might say that because he's busy, but you might think that he's saying this to insult you. So, what is happening is, your friend is Rajkumar Gupta who is saying that, I didn't mean it that way, whereas you're saying that mujhe laga vo mujhe isliye bata raha hai insult karane ke liye. So without getting too philosophical here, the same thing has two interpretations, from two points of view. So depending on where you are from, how critical you are, and if you're less sensitive, you won't take it as insult, you'll say in return, tu bakwas band kar and argue back. So it all depends. There are tons of theories and analyses on this.

Last, So many people read you, who do you read?
I don't read anyone before going into movie, because it pretty much affects how you look at it, even watching the promo of the movie affects you. I think it's very wrong for instance to promote a movie like ‘Aiyya’ with ‘Dreamum wakepum’ kind of song which makes you imagine that it's going to be a big masala kind of a film, but the movie is actually a very delicate kind of a film and it's a different kind of film. But, after coming from the movie I pretty much read everything especially for English movies. I say I've written this, let's see how these people write. It's not just about what they write and how they write. It's also about how they begin the review. How they take the point forward. Because I'd like to really get into the film and analyze it, things like this are very important. It started with one of my favourite books. It is this Hitchcock book (The Art of Alfred Hitchcock: Fifty Years of His Motion Pictures) written by this critic called Donald Spoto, and in this book he kind of really went too deep into the Hitchcock films and built an essay around each film. And that was one of first books I'd read, and I said to myself that, ok, this is also a way you can write about a film.

(Available on all possible platforms here are the links of the book on Penguin, Flipkart, Amazon and Landmark.)  

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Gajendra Singh Bhati

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

मृत्यु की लोरी गाता वहः किलिंग देम सॉफ्टली, विलक्षणता की विवेचना

Killing Them Softly, Director: Andrew Dominik, Cast: Brad Pitt, Ray Liotta, Richard Jenkins, Scoot McNairy, Ben Mendelsohn, James Gandolfini, Vincent Curatola
 किलिंग देम सॉफ्टली (Killing Them Softly) एक विलक्षण फिल्म है। रोड टु परडिशन, पल्प फिक्शन, किल बिल, नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन और गॉडफादर सीरिज जैसी बहुत सारी फिल्में हैं जो विषय-वस्तु में अलग हो सकती हैं, पर लूट-अपराध-हिटमैन वाले संदर्भों में निर्देशक एंड्रयू डॉमिनिक की इस फिल्म के समानांतर हैं। विलक्षण शब्द का इस्तेमाल और इन फिल्मों का जिक्र इसलिए क्योंकि 'किलिंग देम सॉफ्टली' उनके समानांतर होते हुए भी बिल्कुल अलग है। इसमें ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड मूल के एंड्रयू की अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर निराली टिप्पणी है, फिल्म में पिरोए गए इतने असामान्य तंतु हैं। हिगिन्स के हथाइयों (बातें और बातें) भरे उपन्यास ‘कोगन्स ट्रेड’ (Cogan’s Trade) पर फिल्म बनी है। इसे उपन्यास अनुरूप 1974 का नहीं अपितु 2008 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले का समय संदर्भ दिया गया है। एक ढहती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ चलते अपराधों को देखने का तरीका है। मृत्यु के हत्यामय और मोक्षमय स्वरूप को समझाने के जिए जॉनी कैश का गाया अपरिमेय गाना “वैन द मैन कम्स अराउंड” डाला गया है। गुजरे जमाने के ऐसे सभी गीत आह्लादित करने वाले हैं। एंड्रयू और फिल्म के तत्वों पर बात करने से पहले कहानी की रूपरेखा जान लेते हैं।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था भरभराकर गिर रही है। ये राष्ट्रपति बनने का ख्वाब देख रहे सेनेटर बराक ओबामा भी जानते हैं, अमेरिकन ड्रीम की मृगमरीचिका तले जी रहे देश के आम नागरिक भी जानते हैं, कानूनन मंजूर मगर बगैर नियमन चल रहे जुआघर और उसमें खेलने वाले जानते हैं, रईसों के महंगे डॉग-बिच को चुराने वाले नशेड़ी जानते हैं, छोटे-मोटे कारोबार तले अपराध में लीन बॉस लोग जानते हैं। नहीं जानते हैं तो बस पूंजीवादी राह पर निकले तीसरी दुनिया से दूसरी और पहली का हो जाने को अतिआतुर लोग, खैर, जैकी कोगन (ब्रेड पिट) एक हिटमैन है, एनफोर्सर है। सभ्रांतों की आपराधिक गंदगी जब एक हद से फैल जाए तो उसे समेटने-साफ करने आने वाला। बदमाशों के एक ताश के खेल को दो टुच्चे हथियार तान लूट लेते हैं। शक जुआघर चलाने वाले मार्की (रे लियोटा) पर भी है, जिसने पिछली बार ऐसी ही लूट खुद करवाई थी। सीधे तौर पर न कोई सबूत है, न कोई तरीका। अब विस्तृत परिपेक्ष्य में जिनका पैसा और गर्दन दाव पर है उन्हें बिखरे वाकये को समेटना और निपटाना है। ये काम करना है जैकी को। यही कहानी है।

मगर जैकी का व्यक्तित्व ही फिल्म को ‘कोगन्स ट्रेड’ की उपन्यास वाली छवि से बाहर निकालकर ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ नाम की मौलिक फिल्म बनाता है। ये फिल्म के कई दृश्यों में होने वाली मैराथन हथाइयों से समझ में आता है। कार में जैकी और उससे इस कार्रवाही के लिए लगातार मिल रहे ड्राइवर (रिचर्ड जेनकिंस) के बीच तमाम पहलू डिस्कस होते हैं। डाका डालने वाला कौन हो सकता है? क्या मार्की? क्या उससे पूछा जाए? कैसे? उसने नहीं किया होगा तो? जब ड्राइवर कहता है कि मार्की से उगलवाओ। इस उगलवाने में जो उसे पीटने-पीड़ा देने की प्रताड़ना है, उसे भांप जैकी अनमना होकर कुछ ऐसे बोलता है, “छोड़ो भी उस बेचारे को। उसे ठोकने से तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला। वह ऐसा कर नहीं सकता। उसने दूसरी बार नहीं किया होगा। और वैसे भी उसे ठोककर तुम्हारे सेठों को क्या मिलेगा”। यहां तक आते-आते हमें एक हिटमैन या हत्यारे का मानवीय (विडंबना) पहलू नजर आता है कि वह लोगों को पीड़ा देने से बचना चाहता है। अंत में जब ड्राइवर कहता है कि चलो उसे कुछ पीट दो, ज्यादा सीरियसली मत मारना। देखो, क्या पता वह कुछ कहे। तब जैकी मानता है।

ऐसी ही एक और वार्ता में जब जैकी को पता चल जाता है कि फ्रैंकी (स्कॉट मैकनायरी) और रसेल (बेन मेंडलसन) ने लूट की है तो वह जेनकिंस के किरदार को यह बताता है। दोनों में फिर मैराथन बातें होती हैं। यहां गप्पें इस बात पर होती हैं कि इन दोनों का नाम कैसे पता चला? रसेल ने दारू पीकर उगल दिया? कोई इतना मूर्ख कैसे हो सकता है! गधा, अपना मुंह भी बंद नहीं रख सकता! इनका क्या किया जाए? कैसे मारा जाए? इस दौरान जैकी की सोच में से फिल्म का शीर्षक निकलता है, ‘किलिंग देम सॉफ्टली’
 

 वह जो कहता है उसके भाव कुछ यूं निकलते हैं,
“मैं अपने सब्जेक्ट्स के ज्यादा करीब नहीं जाना चाहता हूं। कमऑन यार, वो पसीने से लथपथ हो जाते हैं, पैरों में पड़कर गिड़गिड़ाने लगते हैं। मैं ये नहीं कर सकता। मैं उन्हें सॉफ्टली मारता हूं। मैं पता नहीं लगने देना चाहता कि उनका मरना तय है”।

फिल्म में उनका संवाद ये होता है,
You ever kill anyone?
They get touchy-feely,
emotional,
a lot of fuss.
They either plead or beg.
They call for their mothers.
I like Killing them softly.

जैकी कोगन यहां एक विलक्षण किरदार बनता है। वह एक अपराधी है, हत्यारा है इसमें कोई संदेह नहीं। पर जब भी आप एक अमेरिकी गैंगस्टा, हिटमैन या अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि वाली फिल्म देखते हैं तो अजीब-अजीब सनकी हत्यारों और हत्याओं से मिलते हैं। तो खून, खूनी और वीभत्सता को आपको न्यूनतम पैमाना मानकर आगे बढ़ना होता है और फिल्म देखनी होती है। हम जैकी कोगन के बारे में बात करते हुए उस पैमाने पर ही खड़े हैं पर सहज हो सकते हैं। वह सच में ऐसा ही है। उसकी मार्की को पीटने या मारने की स्थिति को टालने की कोशिश कोई मजबूरी नहीं है, पर ये एक विडंबना भरा सरोकार, एक विडंबना भरी भलमनसाहत है। जैकी का ऐसा होना फिल्म के निर्देशक एंड्रयू से आता है, क्योंकि बाद में जब दो गुर्गे मार्की को घेरते हैं, उससे पूछताछ करते हैं, तो ऐसा करते हुए उन्हें ही बहुत कष्ट हो रहा होता है। दोनों एक तरह से गिड़गिड़ाकर, अनुनय करते हुए उससे कहते हैं कि मार्की ऐसा मत करो, हमें मजबूर मत करो, हमें बता दो। दोनों बैचेन और विह्अल हो रहे होते हैं। हालांकि बाद में उन्हें मार्की को धोना ही पड़ता है। पूरी फिल्म में परिदृश्य कुछ ऐसा है कि जो पेशेवर हत्यारे हैं वो हत्याओं को आखिर तक टालते हैं और जो हत्याएं करवाना चाहते हैं वो इस पर अड़े हुए हैं। जैसे इन दो गुर्गों का मार्की को पीटने से पहले-पहल बचना। जैकी का एक हत्या के लिए माइकी (जेम्स गैंडॉलफिनी) को बाहर से बुलवाना, ये जानते हुए कि ऐसा करने से पैसा बंटेगा जो वह खुद कर सकता है। माइकी भी शराब पीने और होटल के डबलबेड पर लड़कियों के साथ सलवटें डालने के बाद आखिरकार काम करने से मना कर देता है।

अभी की हिंदी फिल्मों के बड़े सितारों के साथ दिक्कत ये है कि उन्हें कद्दावर फिल्में नहीं मिल रही, न ही वे अपने बूते ऐसी छोटी मगर बहादुर परियोजनाओं से जुड़ पा रहे हैं। यश चोपड़ा की ‘जब तक है जान’ का प्रोमो देखते हुए ये शाहरुख खान की फिल्मों की निराशाजनक श्रंखला में लिया एक और गलत फैसला नजर आता है। ब्रेड पिट के साथ सही बात ये रही कि उन्होंने ‘चॉपर’ के बाद से ही एंड्रयू डॉमिनिक की प्रतिभा में भरोसा किया और उनकी दूसरी फिल्म ‘द असेसिनेशन ऑफ जेसी जेम्स बाय द कावर्ड रॉबर्ट फोर्ड’ से जुड़े। उस फिल्म के बाद व्यावसायिक लालसाओं वाले किसी सितारे ने एंड्रयू के साथ काम नहीं किया, पर ब्रेड से संभवतः ‘जेसी जेम्स...’ की महत्ता को समझा। इस फिल्म से जुड़ने के उनके फैसले ने उन्हें ‘किलिंग देम...’ जैसा सार्थक नतीजा दिया। अपनी सीमित अदाकारी के साथ भी वह इस साल की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक दे पाए, सिर्फ अपने सही चयन की वजह से।

ठीक ऐसा ही इस फिल्म और एंड्रयू से साथ है। अगर इस फिल्म के साथ ब्रेड पिट का नाम न जुड़ा होता तो लोगों तक इसे पहुचाना या फिर जैकी कोगन के किरदार और उसकी कहानी में लोगों को एंगेज कर पाना तकरीबन नामुमकिन होता। शुरू से ही हमें पता होता है कि ब्रेड फिल्म में जल्द ही दिखेंगे, तभी हम इंतजार करते हुए फ्रैंकी के रोल में स्कॉट मैकनायरी के नए चेहरे को भी पर्याप्त सम्मान और अपना वक्त देते हैं। ऑस्ट्रेलियन एक्सेंट वाले बेन मेंडलसन बेहतर नक्काश अभिनेता है, अतिउत्तम, पर वो भाव कि फिल्म में ब्रेड भी नजर आएंगे, हमें उनकी इज्जत करने की वजह देता है। ये स्टार्स की शख्सियत तो होती ही है पर उससे भी ज्यादा होता है उनके चेहरे और फिल्मों से हमारा परिचित होना। हमें पता है कि महज स्टार ही नहीं ब्रेड ‘ट्रॉय’, ‘लैजेंड्स ऑफ द फॉल’, ‘मनीबॉल’ और ‘फाइट क्लब’ जैसा भरोसे वाला काम दे चुके हैं।

‘किलिंग देम सॉफ्टली’ में किरदार बहुत कम हैं, बंदूक की गोलियां बहुत कम है पर बातें बहुत ज्यादा हैं। किरदार बस बातें ही करते रहते हैं। ऐसी-ऐसी बातें जो हम करते तो हैं पर फिल्मों की पटकथाओं के बाहर ही छोड़ दी जाती हैं या फिर वीडियो संपादक उन्हें बेकार समझकर काट देता है, जबकि वो ही लंबी बातें फिल्म को अनूठा एहसास देती हैं। जैसे जैकी होटल में माइकी के पास गया है उसे कहने कि हत्या कहां और कब करनी है। और माइकी नवयुवतियों के साथ देहसुख भोगने में वक्त काट रहा होता है। बातें चलती हैं, चलती हैं, चलती हैं।

विषय क्या है, ये माइकी के डायलॉग में टटोलिए जिसमें वह युवतियों के जिस्म की बात कर रहा है,
you know,
I’ve seen all the a**** in the world
and let me tell you this,
there is no a** in the whole world
like a Jewish girl
who’s hooking.

आखिर में जब जैकी और ड्राइवर खड़े होते हैं तब बाहर अमेरिका में पटाखे फूट रहे होते हैं और टीवी पर ओबामा का भाषण चल रहा होता है। वह अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति और स्वतंत्रता का घोषणापत्र लिखने वाले थॉमस जेफरसन के मशहूर कथन, ‘सभी इंसान भगवान ने एक बराबर बनाए हैं’, को दोहराते हुए अमेरिका के लोकतंत्र की बात कर रहे होते हैं।

सुनकर जैकी ड्राइवर से कहता है,
When this guy says we’re equals,
he makes me laugh.
We are not a community,
In here we are on our own.
America is not a country,
it is a business.

एक हत्यारे के मुंह से अपने देश की ये की गई कुछ ऐसी विचारधारापरक आलोचना है जो दूसरे मुल्क के लोग भी नहीं कर पाते। फिल्म में किरदारों के अपरंपार संवादों और एंड्रयू के इसे सही संदर्भ प्रदान करने के बीज हमें ‘कोगन्स ट्रेड’ (Cogan’s Trade) तक ले जाते हैं। जॉर्ज वी. हिगिन्स (George V. Higgins) ने इसे 1974 में लिखा था। बोस्टन में 20 साल सरकारी वकील रहे हिगिन्स ने जिदंगी में जो 25 उपन्यास लिखे उनकी यही कहकर आलोचना की जाती रही कि उनमें तो बस बातें करते लोग होते हैं। जबकि उनकी कहानियों की जान ही जिंदगी की हर बारीक बात की जुगाली करते किरदार होते हैं। असल जिदंगी में भी तो हम यह करते हैं न। जिन्हें ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ पसंद आए वह हिगिन्स के ही उपन्यास पर 1973 में बनी फिल्म ‘द फ्रेंड्स ऑफ ऐडी कॉयल’ देख सकते हैं। शायद इसी फिल्म की मौलिक फीलिंग एंड्रयू को पसंद आई होगी कि उन्होंने कोगन्स ट्रेड को फिल्म के लिए चुना।

एंड्रयू की फिल्म सिनेमैटिकली खूब अच्छी है। जिन्हें सिनेमाई भाषा की रंग-तरंग वाली खूबसूरती लुभाती है उनके लिए फिल्म का ओपनिंग शॉट सुखद होगा। इसे देखने का एहसास कुछ ऐसा है जैसे जमीन कटे, सूने, रेगिस्तान में तेज हवा चल रही है, सब कुछ लुटा-लुटा सा है और वहां कोई धूसर रंग का छोटा अजगर अपनी पूंछ हिला रहा हो। काली स्क्रीन पर 2008 में बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक कन्वेंशन में दी गई स्पीच सुनाई देती है। वायदों भरी। फिर आवाज टूटती है और फ्रैंकी (मैकनायरी) चलता हुआ नजर आता है। ये न्यू ओरलींस है, हरीकेन से तबाह सा। एक-आध घर नजर आते हैं बाकी मैदान बचे हैं, घर उड़ गए हैं। सड़कें खाली हैं, हवाएं चल रही हैं, कचरा उड़ रहा है। न जाने क्यों यहां मन उचाट सा हो जाता है। अमेरिका! ये अमेरिका है? पहले तो कभी अमेरिका यूं न देखा! कम से कम वेस्टर्न मीडिया ने तो नहीं दिखाया। जब भी देखा फिल्म का पहला शॉट न्यू यॉर्क की लंबी गगनचुंबी चमकदार ईमारतों का एरियल शॉट ही देखा है, जो बाद में करण जौहर एंड कंपनी और साउथ की फिल्मों के वेस्ट प्रेमी नए फिल्मकारों की फिल्मों में गर्व से दिखने लगा। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ का ये शुरुआती सीन अलग ही अमेरिका दिखाता है। जैसा वृहद तौर पर बेन जेथलिन की ‘बीस्ट ऑफ द सदर्न वाइल्ड’ में दिखता है। इस पहले सीन का विस्तार ही है वो पूरी की पूरी शानदार फिल्म। जरूर देखें। खैर, लौटते हैं। फ्रैंकी सड़क पर कदम बढ़ाता हुआ आगे टनल के सामने बने फुटपाथ की ओर बढ़ता है। इस दौरान सीन कट-कटकर ओबामा की स्पीच पर लौटता है, फिर, फिर से फ्रैंकी के कदमों की ओर। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं, विसरल फीलिंग.. वो होती है इसे देखते हुए।


यहां तक अनुभूति बन जाती है कि हिटमैन फिल्मों की कोई क्लीशे अनुभूति यहां नहीं होगी। ये कैमरा एंगल, धीमी गति और लंबे शॉट विश्व सिनेमा की सिनेमाई व्याकरण को भीतर समाए होते हैं। मुख्यधारा की फिल्म के लिए ऐसा करना उत्साहित करने वाला होता है। उन दो गुर्गों को मार्की को पीटने वाला दृश्य देखिए। प्रभावशाली। मैं सीन में हिंसा की नहीं उसे फिल्माने के तरीके की बात कर रहा हूं। मार्की के मुंह पर मुक्के मारे जाते हैं और खून कब आता है, कितना आता है, रे लियोटा कैसे हमेशा की तरह बहुत अच्छे से निर्वाह कर जाते हैं, ये सब नयापन और यथार्थता हुए होता है। बाद में कार में जा रहे मार्की को गोलियां मारने वाला बेहद ही धीमी गति का दृश्य। एक तरह से फिल्म की सुर्खियों में से एक। अनूठा। जैकी कोगन जब जॉनी (विंसेंट क्यूरेटोला) को दूर से शूट करता है तो वह एक गोली भी करीने से मारी गई होती है।

ऐसा एक संदर्भ हैः कैथरीन बिगलो की ‘द हर्ट लॉकर’ में विलियम (जैरेमी रेनर) और उसके साथी फौजी का अरब रेगिस्तान में कुछ किलोमीटर दूर से बंकर में छिपे दुश्मन स्नाइपर को शूट करना।

फिल्म की जो समग्र फिलॉसफी है उसमें चुने गए गाने बहुत विविधता और सार्थकता लेकर आते हैं। सभी बीते दौर के बैंड्स और प्राइवेट एल्बम के क्लासिक हैं। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ ही एक ऐसी मूवी है जिसमें इन सबको साथ इस्तेमाल किया जा सके। ‘द वेलवेट अंडरग्राउंड’ का विवादों में रहा पर बहुत बरता गया गाना ‘हेरोइन’, बहुत कुछ कहता है पर देखते हुए हम इसे न चाहें तो भी हाथ की नसों में नशे का इंजेक्शन घोंप रहे रसेल के किरदार से पहले जोड़ सकते हैं। उसी तरह लालच की वजह से मारे गए मार्की (फ्रैंकी और जॉनी भी) पर ‘क्लिफ एडवड्र्स’ का ट्रैक ‘इट्स ओनली अ पेपर मून’ (ये तो बस कागज का चांद है) जंचता है। गिरती अर्थव्यवस्था और पैसे के लिए तड़प रहे इस पूरे मुल्क के लिए ‘बैरेट स्ट्रॉन्ग’ का ‘मनी दैट आई वॉन्ट’ है। ‘कैटी लेस्टर’ का ‘लव लैटर्स’ और ‘पेटूला क्लार्क’ के ‘विंडमिल्स ऑफ योर माइंड’ फिल्म के जोड़ हैं, उसे आगे बढ़ाते हैं।

इन सभी में मेरी पसंद है सिंगर जॉनी कैश का दिग्गी गाना “वैन द मैन कम्स अराउंड”। उल्लेखनीय। अद्भुत। कमाल कंपोजिशन। जॉनी कैश की आवाज की खराश और स्ट्रोक भरी खनक इसे एक फिल्मी सुपरसॉन्ग बनाती है, वहीं किंग जेम्स की बाइबल के रेवेलेशन का इस्तेमाल कुछ ऐसा है जो फिल्म की थीम ‘जीवन, माया, लालच और मृत्यु’ के रूपक का काम करता है।

देयर इज अ मैन गोइंग अराउंड टेकिंग नेम्स,
एंड ही डिसाइड्स हू टु फ्री एंड हु टु ब्लैम,
एव्रीबडी वोन्ट बी ट्रीटेड ऑल द सेम,
देयर विल बी अ गोल्डन लैडर रीचिंग डाउन,
वैन द मैन कम्स अराउंड...

क्या पंक्तियां है। बेमिसाल भय और दर्शन पैदा करने वाली।  आगे जॉनी कैश की जबान से इस पंक्ति का निकलना.. “द हेयर्स ऑन योर आर्म विल स्टैंड अप...” गाने को अंग्रेजी नहीं हिंदी में लिखा बना देता है। आखिर में मृत्यु की धार्मिक और काल्पनिक विवेचना...

एंड आई हर्ड अ वॉयस इन द मिस्ट ऑफ द फोर बीस्ट्स,
एंड आई लुक्ड एंड बिहोल्ड, अ पेल हॉर्सः
एंड हिज नेम दैट सैट ऑन हिम वॉज डेथ,
एंड हेल फॉलोव्ड विद हिम”

गाने के बोल अंग्रेजी में यूं है,  पढ़ें
And I heard, as it were, the noise of thunder,
One of the four beasts saying, Come and see
And I saw, and behold a white horse.

There's a man going around taking names
And he decides who to free and who to blame
Everybody won't be treated all the same
There will be a golden ladder reaching down
When the man comes around

The hairs on your arm will stand up
At the terror in each sip and in each sup
Will you partake of that last offered cup?
Or disappear into the potter's ground
When the man comes around?

Hear the trumpets, hear the pipers
One hundred million angels singing
Multitudes are marching to the big kettledrum
Voices calling and voices crying
Some are born and some are dying
It's Alpha and Omega's kingdom come

And the whirlwind is in the thorn tree
The virgins are all trimming their wicks
The whirlwind is in the thorn tree
It's hard for thee to kick against the pricks

'Til Armageddon, no shalam, no shalom
Then the father hen will call his chickens home
The wise man will bow down before the throne
And at his feet, they'll cast the golden crowns
When the man comes around

Whoever is unjust, let him be unjust still
Whoever is righteous, let him be righteous still
Whoever is filthy, let him be filthy still
Listen to the words long written down
When the man comes around

Hear the trumpet.... (Repeat)

In measured hundredweight and penny pound
When the man comes around

And I heard a voice in the midst of the four beasts,
And I looked and behold, a pale horse:
And his name that sat on him was Death, and Hell followed with him.

निर्देशक एंड्रयू डॉमिनिक और ब्रेड पिट की फिल्म ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ अपराध और हत्या वाली फिल्मों में अपवाद है। इसमें शुरू, मध्य और अंत का औपचारिक हिसाब-किताब नहीं धारण किया जाता। सीधी-सपट है पर तमाम कंपोनेंट मिलकर असाधारण अनुभव सृजित करते हैं। इसमें एक बेन मेंडलसन, एक जेम्स गैंडॉलफिनी न करते हुए भी ऐसा अभिनय कर जाते हैं कि दूसरा होता तो न कर पाता। इसमें एक अभिनेता के तौर पर ब्रेड का साहस नजर आता है, कि वो लगातार ऐसे प्रोजेक्ट छू रहे हैं। इसमें एंड्रयू डॉमिनिक का बतौर फिल्मकार और बतौर ऑस्ट्रेलियाई, अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना का गहरा विचार है, जो फिल्म के पुर्जे-पुर्जे में चिपका होता है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था का गिराव जो कुछ नियमन न होने की वजह से है तो कुछ साजिशन। इन सबके बाद जरूरी तौर पर आती है एक फिल्मकार द्वारा अपने प्रतिभा से बनाई गई एक कृति, हिगिन्स के बाकी उपन्यासों और ‘कोगन्स ट्रेड’ की तरह वक्त के साथ जो कभी पुरानी नहीं पड़ेगी, सदा सिनेमाई और विचाराधारापरक संदर्भ प्रदान करती रहेगी।
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गजेंद्र सिंह भाटी

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

हमारे यहां रंग शंकरा में कोका कोला या पेप्सी का एक बोर्ड भी नहीं दिखेगा आपको: अरुंधति नाग

मुलाकात अरुंधति नाग से, अनुभवी थियेटर एक्ट्रेस जिन्हें 'दिल से' और 'पा' में देखा होगा
'40 साल बाद आज भी किसी प्ले के पहले पेट में तितलियां उड़ती हैं' Photo Courtsey: Jaswinder Singh



अरुंधति नाग की जिंदगी का पहला उत्कृष्ट बिंदु रहा रहा निर्देशक आर. बाल्की की फिल्म 'पा' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पाना। दूसरा, बेंगलुरु में अपने मरहूम पति शंकर नाग के सपने को पूरा करना। 'रंग शंकरा थियेटर' की स्थापना जिसका आज बेंगलुरु के सांस्कृतिक नक्शे में बड़ा महत्व है। कन्नड़ फिल्मों के अभिनेता, डायरेक्टर और थियेटर हस्ती शंकर ने 1987 में अमर टीवी सीरीज 'मालगुड़ी डेज' का निर्देशन किया था। 1990 में उनकी रोड़ एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, जिसमें अरुंधति और उनकी बेटी भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नौ महीने व्हीलचेयर पर रहने के बाद सच्चे दोस्तों की फौज और थियेटर के मोह ने अरुंधति को फिर पैरों पर ला खड़ा किया। तब से उन्होंने खुद की जिंदगी को रंगमंच के नाम कर दिया। नतीजा है रंगमंच में उनकी कद्दावर शख्सियत। नतीजा है जिंदगी के हर सवाल के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। जितने सवाल पूछे जाएं, वह बेहद शांति, सहजता, विनम्रता और खुशी से जवाब देती हैं।

आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई साक्षात्कार के दौरान इतना समझदार बना रहे। कोई साक्षात्कार ले रहा है तो व्यक्ति को लगता कि वह बेहद विशेष है, उसकी राय ली जा रही है, उससे कुछ पूछा जा रहा है। ऐसे में वह तान-तानकर शब्दों के गुच्छे छोडऩे शुरू करता। अरुंधति ऐसा नहीं करतीं। क्यों? वह इतनी सकारात्मक और सामान्य क्यों हैं? प्रत्युत्तर में वह बोलती हैं, "जिंदा हूं। ...थियेटर कर रही हूं, ...यहां बैठी हूं ...इसलिए। ...खुश हूं"। इसके बाद कुछ पल तक उनका ये जवाब गूंजता रहता है और विश्लेषित होता रहता है। उनकी बातों में बार-बार थियेटर का जिक्र आता है। शांत वार्ता के बीच वह कहीं-कहीं थोड़े से हास्य को भी छोड़ देती हैं। मसलन, उनके कई भाषाएं बोल पाने का गुण। वह कहती हैं, "हर इंडियन दो से तीन भाषा तो बोल ही लेता है, मेरा ये है कि मैं बस छह बोलती हूं"।

बतौर अदाकारा 1979 में आई अरुंधति की पहली फिल्म मराठी में थी। नाम था '22 जून 1897'। इस वक्त अरुंधति नाग का नाम अरुंधत्ति राव था। फिल्म जून 1897 में पुणे में घटी उन घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में थी जिनकी वजह से ब्रिटिश सरकार के दो अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। फिर अरुंधति ने कन्नड़, तमिल और हिंदी में फिल्में की। इस साल उनकी मलयालम फिल्म 'दा थडिया' आने वाली है। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के साथ उन्होंने मराठी और गुजराती में प्ले तो किए ही थे। ज्योति व्यास की टीवी सीरिज 'हाजी आवती काल चे' में भी उन्होंने गुजराती में अभिनय किया। इतने वृहद काम और इतनी सारी भाषाओं में उसे करने का श्रेय वह क्रॉस मैरिजेस को देती हैं। उनकी मां की पृष्ठभूमि, पिता का परिवार, दिल्ली में रहने के दिन, फिर मुंबई में फैमिली का आ बसना, बाद में कन्नड़ मूल के शंकर से शादी होना और ससुराल में अलग भाषाई माहौल का होना। सांस्कृतिक और भाषाई अनुभव में इन हालात से भी ज्यादा योगदान वह थियेटर का मानती हैं। अरुंधति कहती हैं, "थियेटर सबसे बड़ा कार्यवाहक रहा इस दौरान। जैसे, मेरी कन्नड़ शब्दावली उन 20 प्ले तक ही सीमित है जो मैंने किए हैं। मैं जिस-जिस भाषा में प्ले करती गई, उसमें थोड़ा-थोड़ा सीखती गई। इस साल मलयालम फिल्म की है। आगे अगर चाइनीज रोल करूंगी तो उस भाषा को भी सीमित तौर पर ही सही लेकिन सीखूंगी जरूर"।

हालांकि उनका अभिनय अनुभव 40 साल का है, पर हिंदी दर्शक अरुंधति को सिर्फ दो फिल्मों से पहचानते हैं। पहली मणिरत्नम की 1998 में आई फिल्म 'दिल से' और दूसरी आर. बाल्की की 'पा'। 'दिल से' में वह ऑल इंडिया रेडियो की हैड और एआईआर में ही काम करने वाले अमर वर्मा (शाहरुख) की बॉस बनी थीं, 'पा' में ऑरो (अमिताभ) की 'बम' नानी। चूंकि अमिताभ-शाहरुख भी शुरुआती पृष्ठभूमि में थियेटर से जुड़े रहे तो अनुमान लगता है कि उन फिल्मों के सेट्स पर थियेटर जरूर डिस्कस होता रहा होगा। मगर अरुंधति कहती हैं कि ऐसा नहीं था। वह बताती हैं, "वह दोनों बहुत बिजी इंसान थे। ज्यादातर वक्त तो शॉट्स के बीच अपनी एड फिल्म्स और आने वाली फिल्मों पर बात करते थे या फिर अपनी वैनिटी वैन में चले जाते थे। इसलिए थियेटर पर ऐसी कोई बातचीत तो उनके साथ नहीं हो पाती थी। किसी भी विषय पर नहीं हो पाती थी। पर हां, चूंकि मैं रंगमंच की पृष्ठभूमि से थी इसलिए दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे"।

बातों के आखिर से पहले वह कुछ जीवन ज्ञान भी दे चुकी होती हैं। कहती हैं कि अगर कोई सीखना चाहता है या अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होना चाहता है तो उसे हर छोटे से छोटा काम ईमानदारी से करना चाहिए। अगर मैं झाड़ू भी निकाल रही हूं तो बहुत अच्छे से निकालूं, अगर टॉयलेट भी साफ कर रही हूं तो बहुत मन लगाकर करूं। जब उनसे पूछा जाता है कि थियेटर में संतुष्टि भले ही हो पर पैसा नहीं है तो वज्र-स्पष्टता से कहती हैं, "सफलता का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं है"। आज के वक्त की भौचक भूल-भुलैया में जिन नैतिक शिक्षाओं को थामे रहना असंभव सा हो चुका है वहां उनका ये कहना कि पैमाना पैसा नहीं है, समाज के लिए बेहद फायदेमंद सूत्रवाक्य बनता है। अफसोस है कि सिनेमा या थियेटर के माध्यम से जो ज्यादातर लोग आज जनता के बीच विशाल छवि बन चुके हैं उनके मुंह से ऐसा कुछ नहीं निकलता। उल्टे वह गलत आर्थिक रास्ते पर लोगों को ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें विज्ञापनों और कैसी भी फिल्मों से पैसे कमाने हैं। खैर, अरुंधति नाग तेज धारा के विपरीत खड़ी हैं, वह प्रेरणा हैं। ये भी कह जाती हैं कि एक्सीलेंस ढेर में नहीं आती। थोड़ा कीजिए पर अच्छा काम कीजिए।

Arundhati was to perform Girish Karnad Directed play 'Bikhre Bimb'

एक शब्द, एक सोच
गिरीष कर्नाड: उनमें एक अलौकिक सी बात है कि वह किरदारों के दिमाग में घुस जाते हैं। वह औरतों के दर्द और चीख को अपनी रचनाओं में अच्छे से उभारते हैं।

सिनेमा: बड़ा चुनौतीभरा माध्यम है। पर कोई फिल्म एक्टर भी थियेटर में आएगा तो उसे मुश्किलें हो सकती हैं। चाहे इतनी लंबी स्क्रिप्ट याद रखना हो या डेढ़ घंटे खड़े रहकर परफॉर्म करना।

बिखरे बिंब: बिखरे बिंब जैसे प्ले का एक शो तीन महीने में एकबार भी हो तो बहुत। मेरी जिंदगी में मर्सिडीज नहीं है या गले में हीरों का हार नहीं है तो क्या हुआ। मुझे बस ज्यादा से ज्यादा थियेटर करना है।

कोका कोला: बेंगलुरु में हमारे थियेटर रंग शंकरा में कोका कोला और पेप्सी जैसे ब्रैंड्स का एक भी बोर्ड आपको नहीं दिखेगा। हम इसे स्वीकार नहीं करते। लाइफ इनके बिना ज्यादा बेहतर है।

रुचियां: म्यूजिक सुनना मुझे बहुत पसंद है। कर्नाटकन-हिंदुस्तानी क्लासिकल दोनों सुनती हूं। सुबह उठते ही मेरे घर में रोज म्यूजिक बजना शुरू हो जाता है। इसके अलावा खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है। बुक्स भी पढ़ती हूं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

अकेली जिंदगी में अपने होते नए अणुः 'ऑफ द ब्लैक' 06

Nick and Trevor in a still shot from the movie.
रे कुक एक हाई स्कूल बेसबॉल अंपायर है। चिड़चिड़ा है, कड़वा है, शराबी है, अकेला है। बीवी और बेटा सालों पहले उसे छोड़कर चले गए। बूढ़ा पिता है, पर अल्जाइमर्स रोग है और वो उसे पहचानता नहीं। अब रे (निक नोल्ट द्वारा निभाया गया) अपने घर और जिंदगी में अकेला है। चूंकि बेटा उसे देखना भी नहीं चाहता इसलिए वह समय-समय पर वीडियो टेप में संदेश रिकॉर्ड करके उसे भेजता है। इनमें वह खुद के बारे में बात करता है और बताने की कोशिश करता है कि वह खुश है। हालांकि उसकी ये डाक उसे वैसी की वैसी लौटा दी जाती है।

स्कूल में बेसबॉल का महत्वपूर्ण सीजन है। वह एक निर्णायक मैच में अंपायरिंग कर रहा है। यहां से फिल्म शुरू होती है। यहां उसके सवालिया निर्णय से फिल्म का दूसरा प्रमुख किरदार, डेव (ट्रेवर मॉर्गन) मैच हार जाता है। डेव का पिता फोटो खींचने और धोने का काम करता है। मां 2-3 साल पहले उसके पिता की असक्रियता और गैर-जिम्मेदारी भरे रवैये से उकताकर घर छोड़ जाती है। डेव और उसकी छोटी बहन (सोनिया फीगलसन) अपने पिता के साथ रहते हैं। मैच हारने के बाद डेव और उसके दोस्त रात में अंपायर के घर जाते हैं और उसकी कार के शीशे तोड़ते हैं, उसका घर गंदा करते हैं। अंपायर उसे पकड़ लेता है। यहां से इन दोनों के बीच अनोखे संबंध की कहानी आगे बढ़ती है। छिटकी हुई पृष्ठभूमि वाले ये दोनों बैठते हैं। तय होता है कि लड़का, रे के साथ उसका बेटा बनकर उसकी 40वीं हाई स्कूल रीयूनियन पार्टी में जाएगा और उसके बाद डेव को कार का नुकसान नहीं भरना होगा।

फिल्म चलती है। इस रीयूनियन पार्टी में और अंपायर के पिता से अस्पताल में मिलकर, डेव अलग अनुभवों से गुजरता है। इसके बाद दोनों रात में अपना जीवन बांटते हैं। लड़के को पिता का प्यार चाहिए तो अंपायर को बेटे का। बातों का अंत होता है। अंपायर लड़के को मुक्त कर देता है। मगर लड़का उससे मिलते रहना चाहता है। मगर अंपायर उसे जाने को कहता है। बाद में अंपायर को अपनी गलती का एहसास होता है। खैर, अगली सुबह लड़के को अंपायर के घर में उसकी लाश मिलती है। उसका अकेलापन उसे लील जाता है। डेव घर लौटता है। अपनी जिंदगी में भावों के गतिरोध के दूर करने का फैसला करता है। अपने पिता को स्थिति देता है कि या तो वह खुद को बदल ले या वह बहन के साथ घर छोड़कर चला जाएगा। पर पिता बेकार जवाब देता है। अप्रभावित सा...। और दोनों चले जाते हैं।

फिल्म में कोई ठोस कहानी, संवाद और नाटकीयता नहीं है, यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है। फिल्ममेकिंग, जो एक चलते चित्रों का माध्यम भर है, यहां अनूठी हो जाती है। डेव की बहन के किरदार में सोनिया फीगलसन बेहद चार्मिंग हैं, लुभाने वाली हैं। उनके मृतप्राय भावों वाले पिता के रोल में टिमोथी हटन हैं। उम्दा। अंपायर रे बने निक नोल्टे एक खास किस्म के अभिनय के लिए जाने जाते हैं, यहां भी वो उस अदाकारी को ही निभाते दिखते हैं। शांत, गहन और सीधी। मुख्यधारा की फिल्में जहां ऊपर-ऊपर से नौटंकी बघेरने वाले किरदारों और भावों को फैलाकर निकल जाती हैं, वहीं पर ‘ऑफ द ब्लैक’ जैसी फिल्में बाद में फर्ज निभाने आती हैं। जो नकली नहीं हैं, जो इंसानी भावों और रिश्तों के भीतर घुसती हैं। बहुसंख्यक भावों में नहीं व्यक्तिगत भावों में घुसती हैं। बतौर निर्देशक जेम्स पॉन्सोल्ड की ये पहली फिल्म रही। उसके बाद भी उन्होंने धड़ाधड़ फिल्में बनाने पर ध्यान नहीं दिया। इसी साल उनकी दूसरी फिल्म ‘स्मेश्ड’ आई।
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गजेंद्र सिंह भाटी