Saturday, March 23, 2013

60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारः अनदेखी झांकी

बहुत ही उत्कृष्ट फिल्में बीते साल में हमारे बीच के ही लोगों ने बनाई हैं। अफसोस ये है कि कोई ऐसा ढांचा अभी भी नहीं बना है जो हमें राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली "द भारत स्टोर्स" या "थानिचल्लांजन" या "वाजाकुएनन 18/9" या ऐसी अनेकों दूसरी महत्वपूर्ण फिल्में दिखा सके। कैसा सिनेमा बनना चाहिए और कैसा नहीं बन रहा की बहस के बीच हर साल ऐसी फिल्में बन रही हैं जिन्हें कोई देख ही नहीं पा रहा है। राष्ट्रीय पुरस्कारों के जरिए ही सही जिन फिल्मों का जिक्र हुआ है, आइए देखें उनकी प्रतिनिधि छवियां...


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Sunday, March 3, 2013

करोड़ को इतना आसान कैसे बना दिया बे! : संजय मिश्रा

ठेठ व जमीनी अभिनेता संजय मिश्रा संघर्ष के दिनों, इंस्टेंट होने के दौर, संस्कृति, इंसानियत, हास्य भूमिकाओं, सामाजिक बदलावों, फिल्म, टीवी, महंगाई, मणि रत्नम, शाहरुख, अमिताभ बच्चन, कौन बनेगा करोड़पति और ऐसे ही कई तानों-बानों पर



Sanjai in a still from Saare Jahan se Mehnga.
हिंदी फिल्मों में संजय मिश्रा की अब एक नियत जगह हो गई है। दर्शकों के लिए उन्हें पहचानकर हंस पड़ना आम है। ‘धमाल’ में वह बाबू भाई आतंक बनकर हंसाते हैं तो ‘फंस गए रे ओबामा’ में बेचारे किडनैपर भाईसाहब जिनकी बंदूक में गोली नहीं है और गाड़ी में तेल नहीं है। ‘गोलमाल’ श्रंखला के भी वह नियमित हंसोड़ सदस्य हैं, उसमें उनका हर अंग्रेजी शब्द की गलत स्पेलिंग बोलना सर्वाधिक याद रहता है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से कोई दो दशक पहले वह निकले तो थे संपूर्ण अभिनेता बनकर लेकिन जैसा होता है फिल्म उद्योग में कि वहां भिन्न-भिन्न सांचे भर दिए जाने के लिए तैयार रखे होते हैं। ‘ओ डार्लिंग ये है इंडिया’, ‘सत्या’ और ‘दिल से’ जैसी फिल्मों से संजय ने सांचों में ढलने से इनकार किया लेकिन फिर वो सब ‘धमाल’, ‘गोलमाल’, ‘अपना सपना मनी-मनी’ और ‘जोकर’ आ ही गईं। हालांकि ‘सतरंगी पैराशूट’ और ‘फंस गए...’ में उनके किरदार महज विदूषक न थे, उनमें कुछ बात थी। संजय अब पहली बार केंद्रीय भूमिका में नजर आएंगे अंशुल शर्मा द्वारा निर्देशित हिंदी फिल्म ‘सारे जहां से महंगा’ में। इसमें वह महंगाई के मारे पुत्तनपाल बने हैं। प्रतीत होता है कि इसमें वह संजीदा व्यंग्य करते दिखेंगे। फिल्म 8 मार्च को रिलीज होनी है। इस सिलसिले में चंडीगढ़ में उनसे मुलाकात हुई। दिल खोलकर उन्होंने जवाब दिए। जवाब देने के उनके अलग-अलग अंदाज हैं। बहुत सी बातों का रंग सामने बैठकर सुनने से नजर आता है। कुछ जगहों पर बातें विषय पर केंद्रित न रहकर वृहद हो जाती हैं। लेकिन दिलचस्प बातें भी निकलीं तो बतौर इंसान उनके मत भी। वो हमारे समाज में बीते और नए दोनों वक्त के साक्षी हैं।

बचपन में या शुरुआती जिंदगी में कौन सी सबसे सस्ती खरीदी चीज याद आती है?
साढ़े सात रुपये लीटर पेट्रोल था जब मैं मोटरसाइकिल चलाता था। अंडे उस समय पांच रुपये दर्जन आते थे। मेरे दादा की तनख़्वाह हुआ करती थी कोई तीन रुपये। दादी बताती थीं कि दो आने में एक तोला सोना आ जाता था। हम कहते भी थे कि “क्यों नहीं रख लिया आपने दो आना”। तो दादी कहती थीं कि “उस समय तुम्हारे दादा की नौ-नौ बहनें थीं, उनकी शादी करनी थी”। खाना था, पीना था, फिर भी एक जिंदगी अलग थी वो। कल को मेरा बेटा पूछेगा कि “पापा जब आपको पता था कि 75,000 रुपये तोला सोना था तो आपने क्यों नहीं खरीदकर रख लिया, इतना सस्ता था”। तो जवाब देंगे उसे भी।

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एन.एस.डी.) से निकलने के बाद अपनी पहली केंद्रीय भूमिका पाने में 23-24 साल लग गए?
हमारे यहां क्या है न कि इनको ले लो, ख़ान साहब, ख़ान साहब हैं, ले लो इनको। बहुत पहले टीवी पर सिर्फ दूरदर्शन होता था। बाद में नए चैनल आए तो चांस मिला, मुझे क्या बहुतों को मिला। आप सोचिए उन दिनों के बारे में जब शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ बच्चन स्ट्रगल करते थे। तब कोई पिक्चर धड़ाधड़ नहीं बनाता था, तीन-चार साल में एक बनती थी। फिर धीरे-धीरे छोटी फ़िल्मों का दौर आया। लोग कहने लगे कि मेरे पास अच्छी स्क्रिप्ट है मुझे अच्छे एक्टर चाहिए। उस दौर को आए तीन-चार साल हुए हैं। बहुत अलग है हमारी इंडस्ट्री, डाकू की फ़िल्म चल गई तो डाकू बन गए, प्यार की फ़िल्में चल गईं तो बना ले बेटा धड़ल्ले से। महंगी चीज है न, लोग डरते हैं बनाने से।

लेकिन ‘फंस गए रे ओबामा’ जैसी फ़िल्मों के साथ रिस्क लिया जा रहा है...
जी जी जी, मतलब अब प्रोड्यूसर्स का ये है कि दो रुपये की चीज बनाओ दो रुपये की पब्लिसिटी करो, इस तरह चार रुपये की चीज हो गई अब सात रुपये भी कमाते हो तो ठीक है। न कि आप बहुत बड़े बजट की फ़िल्म बनाओ और सौ करोड़ के हो जाओ। वो बड़ा रिस्क नहीं छोटा वाला रिस्क छोटी फ़िल्मों के साथ प्रोड्यूसर ले रहे हैं। ये फ़िल्मों के लिए अच्छा भी है। इससे अंशुल (सारे जहां से मंहगा) जैसे नए डायरेक्टर निकलेंगे जो कुछ नया करने की तमन्ना रखते हैं। नीरज पांडे ने बनाई ‘अ वेडनसडे’, हमें एक टैलेंटेड डायरेक्टर मिला। अनुराग कश्यप आगे बढ़े, तिग्मांशु धूलिया आगे बढ़े और सुभाष कपूर आगे बढ़े।

1990-91 में जब नई आर्थिक नीतियां आईं, आप एन.एस.डी. से निकले ही थे, आपने उस समय कल्पना की थी कि देश की ये हालत हो जाएगी 2013 में? प्रगति में भी, महंगाई में भी और फ़िल्मकारी में बदलाव में भी?
हमारे देश में अभी सबसे बड़ी समस्या ये है कि प्रगति हम जिसे कहते हैं, वो आधारहीन प्रगति है। हम जब तक अपने कल्चर को पकड़कर प्रोग्रेस नहीं करेंगे न, आने वाले 25 सालों में ब्लैंक होगा सारा। जब तक हमारे मम्मी-डैडी हैं, उनको वैल्यूज पता हैं, उनको ऐतिहासिक चीजें पता हैं। हमारे यहां दुनिया का सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। हमारे यहां घोड़े के कैसे नहलाएं, उसे कैसे पालें, इस पर भी श्लोक लिखा हुआ है। काक भदूड़ी होते थे जो कौआ अगर दक्षिण की तरफ मुंह किए है तो बता देते थे कि बारिश होगी। दो कौवे-तीन कौवे रस्ते में कांव-कांव कर रहे हैं तो इस समय इस चीज की फसल लगाओ, इस पर श्लोक लिखे हैं। कौन सा देश ऐसा है जिसके पास इतना बड़ा लिट्रेचर है। लिट्रेचर एक तरफ हिंदुस्तान का रामायण है और एक तरफ महाभारत है। रामायण में “अरे भाई के चरण पकड़ लो उनके जूते ही रख लो”, महाभारत में कहता है “मार दो साले को भाई है तो क्या हुआ”। गंगा है। हम अपनी गंगा नदीं को नहीं बचा पा रहे हैं। जो हिंदुओं की एक बहुत बड़ी चीज है। हम खामखां खड़े हो जाते हैं कि ‘विश्वरूपम’ को बैन करो, ओ तेरी, कभी खड़े क्यों नहीं हुए कि गंगा को हम बचाएंगे। राम मंदिर बना दो, जो पहले से बने हुए हैं उसका क्या करोगे। हमारा यूथ गैजेट्स और बाकी सब चीजों में इतना आगे है, पर आप वास्ता किस जगह से रखते हो इतना भी जानते हो। पंजाब किस वजह से जाना जाता है। डर है कहीं किसी दिन 100 साल बाद लोग कहें कौन गुरु गोबिंद सिंह जी? “अच्छा मम्मी जी, अच्छा वो वो वो” ...ये बहुत खतरनाक है। 2013 मैंने सोचा था पर ऐसा कभी नहीं सोचा था। बहुत जरूरी है सिनेमा को और मीडिया को अपना फर्ज निभाने की।

आप लाए हैं न ‘सारे जहां से महंगा’...
ये लाया हूं, मैंने एक फ़िल्म डायरेक्ट की है ‘प्रणाम वालेकुम’, जिसमें मैं चाहता हूं कि कुछ...

उसका क्या हो गया, रुकी पड़ी है?
रुकी पड़ी हुई नहीं है, उसका बैकग्राउंड वगैरह का काम चल रहा है। 31 मार्च तक वो भी फाइनल प्रिंट निकाल लेंगे। ये फ़िल्म उसी बात पर है जो मैं कह रहा हूं। हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई... अभी हमको उसकी जरूरत नहीं है, अभी हमें जरूरत है अच्छा मानव बनाने की। आफ्टर फिफ्टी ईयर्स क्या बोलोगे, सब पत्थर ही पत्थर, यहां एक पेड़ हुआ करता था पीपल। देखा है कैसा होता था, आजा दिखाऊं उसकी तस्वीर तेरे को। देख रहा है, ऐसा होता था।

डायरेक्टर के तौर पर कितनी टेंशन लगी?
अभिनेता होते हैं तो सिर्फ अभिनय ही करना होता है, डायरेक्शन में आते हैं तो हर चीज। कॉस्ट्यूम, एक्टर्स की डेट, कैमरा... हर कुछ, हर कुछ आपको ही देखना होता है।

प्रोत्साहित हुए हैं या हतोत्साहित हुए हैं?
पहला काम है, प्रोत्साहित हूं तभी तो किया हूं।

आगे और निर्देशन करना चाहेंगे?
कुछ अच्छा मिलेगा तो जरूर।

‘धमा चौकड़ी’ को लेकर क्या हुआ? बन रही है?
शायद वो बन गई, मैं वो पिक्चर बहुत गलती से साइन कर लिया था। मुझे बताया कुछ गया था और हुआ वहां पे कुछ और था। किसी ने स्टोरी सुनाई कि “सर ऐसे-ऐसे है, उसमें सौरभ शुक्ला हैं, ये है वो है”। वहां गया तो देखा, ओ तेरी वो खुद ही चेन पहने वहां खड़ा था। मैंने कहा, “तू तो प्रोड्यूसर है, तू काहे की चेन पहने है?” बोला, “नहीं भइय्या एको रोल हम भी कड़ रहे हैं”। हमने कहा, “कौन सा रोल बे?” तभी कोई दूसरा आया वहां से, बोला, “भैय्या चा पीयो”। मैं बोला, तू? कि, “ये भी एक रोल कर रहे हैं”। इस तरह अकेला ही पिस गया था मैं वहां। खुद ही रोल कर रहे थे। एटीएम से पैसे निकाल-निकाल के तो पिक्चर बना रहे थे। “जा पांच हजार ले आ, काम है जा जा”।

‘दिल से’ को याद करता हूं तो एक वजह आप भी हैं..
धन्यवाद।

...इसलिए जब कुछ ने सवाल किया कि आपने सिर्फ कॉमेडी केंद्रित किरदार ही क्यों किए हैं, तो मुझे ‘सत्या’ भी याद थी, ‘दिल से’ भी। ‘दिल से’ में शाहरुख खान के किरदार को आपने पीटा इसलिए भी आप बहुत महत्वपूर्ण हैं। अपने उस किरदार पर लौटकर कितना जाते हैं आप? वो टीवी पर आते हुए सामने से गुजर जाता है तो क्या सोचते हैं?
‘दिल से’ की एक बड़ी वजह ये थी कि सिनेमा में मणि रत्नम। मैं जब नया-नया आया था तो केतन मेहता, मणि रत्नम... अगर मुझे वक्त मिलता या मैं थोड़ा पहले होता तो सत्यजीत रे। ये कुछ थे मेरे लिए। ‘दिल से’ मुझे याद है कि ‘छैंया छैंया’ गाना पहली बार हमने (क्रू) सुना था। कहां, डलहौजी में, ऊ तेरी.. ये गाना है! रहमान, फर्स्ट टाइम। ‘रोजा’ आ चुकी थी पहले। ‘दिल से रे दिल से रे...’ ये गाना, इस पिक्चर से मैं जुड़ा हुआ हूं! उस गाने में तो हम लोग असिस्टेंट भी हो गए थे मणि सर के। शाहरुख खान डांस कर रहे हैं, तो हम लोग पीछे से, “पेड़ आ रहा है तुर्रर्र, नीचे डूब जाओ”, ...सारा खानादान नीचे गिर गया। जब मैं मणि रत्नम से मिलने गया तो वहीं पर राम गोपाल वर्मा बैठे थे। मणि ने कहा, “आप जानते हैं इनको?” मुझे लगा, होगा असिस्टेंट। मैंने कहा, नहीं सर। कहे, “ये है राम गोपाल वर्मा”। मैंने सोचा, हाँइ, इ है राम गोपाल। मैं उनका भी काम देख चुका था। एक समय में राम गोपाल वर्मा की ‘रात’ और ‘शिवा’ मतलब उनका नाम था। जब उनके कमरे से निकला तो राम गोपाल वर्मा ने कहा कि “आप एक मेजर रोल कर रहे हैं मेरी फ़िल्म ‘सत्या’ में”। मैंने कहा, सरजी अभी तो उनको डेट्स देकर आया हूं उसी महीने में आपको भी डेट्स कहां से दूंगा। फिर मणि रत्नम ने छोड़ा मुझे तीन दिन के लिए और मैं जाकर ‘सत्या’ करके आया।

मणि रत्नम ने मुझे देखा कुछ और था। मेरे साथ बात होने लगी तो सोचने लगे कि ये तो खोदा चूहा और निकला पहाड़। तो उन्होंने तिशु (तिग्मांशु) को डांटा भी कि “क्यों, इसको मैं दूसरे रोल में लेता, क्यों टेरेरिस्ट के रोल में लिया?” लेकिन मुझे वो रोल करने में मजा आया। मुझे बस एक्टिंग करने में मजा आता है। उस समय शाहरुख धीरे-धीरे उभर रहे थे। जब फ़िल्म का ट्रायल हो रहा था तो शाहरुख बाहर चुप खड़ा हुआ था कि “यार मिश्रा, धक धक हो रहा है”। मैंने कहा, यार मणि सर भी यही कर रहे हैं कि धक-धक हो रहा है। तिशु भी आज यही कहता है कि यार इत्ती पिक्चर रिलीज हो गई, आज भी नई रिलीज के दिन लगता है कि अभी तक मेट्रिक का इम्तिहान ही चल रहा है। अभी ‘सारे जहां से महंगा’ है। जब भी ट्रायल में जाओ तो लगता है पता नहीं लोगों के कैसी लगेगी यार। हरेक एक्टर के पेट में, हरेक डायरेक्टर के पेट में, हरेक कैमरामैन के पेट में... जितने भी लोग हों गुड़ गुड़ गुड़ गुड़ होता है। और शायद इसी वजह से हम लोग कला के क्षेत्र में हैं। उस गुडग़ुड़ाहट की वजह से।

फ़िल्म आती है, दो-तीन दिन के बाद उसका सब जेहन से उड़ जाता है दर्शकों के दिमाग से। वो नई फ़िल्म की तरफ भागने लगते हैं...
इंस्टेंट हो गया है सब। अन्ना हजारे इंस्टेंट हो गए हैं। इतना बड़ा आंदोलन उस आदमी ने खड़ा किया, एक हफ्ते में प्रेस कहता है, “क्या अन्ना हजारे, देखिए भीड़” और दूसरे हफ्ते में प्रेस कहता है कि “क्या भीड़ जुटा पाएंगे अन्ना?” इंस्टेंट। ये बीस साल से धीरे-धीरे-धीरे-धीरे बदल गया है। एक फोन पर आप पूरी दुनिया घूम लेते हो। पूरी दुनिया आपके हाथ में है। कड़ कड़ कड़ कड़... क्रिकेट में क्या हुआ, किसका रे-प हुआ, कहां क्या हुआ, ये देख फोटू लंदन की है, अभी भेजी है बाबूजी ने। कितना तुरंत हो गया है। पहले ‘शोले’ या कोई पिक्चर आती थी तो ओ तेरी... दो-दो महीने लगी हुई है, अगर याद होगा तो। अब, तीन दिन लग गई, तो ठीक। चौथे दिन तो सुपरहिट। सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली, डायमंड जुबली ये तो खत्म ही हो गया है आज। आज अमिताभ बच्चन इस वक्त कहां होंगे आप यहां बैठे जान सकते हैं। ‘शोले’ के टाइम में, ‘दीवार’ के टाइम में अमिताभ बच्चन रोल के अलावा कैसे दिखते हैं आप नहीं जान सकते थे। मैंने अमिताभ बच्चन का एक पोस्टर देखा था। ‘कुली’ से सेट पर वह मुंह नीचे किए बैठे किताब पढ़ रहे थे। वैसा लुक तो हम लोगों ने पहले कभी देखा ही नहीं था। आज सलमान खान का बेडरूम क्या है ये जानते हैं आप। जाइए यूट्यूब पे, बेडरूम सलमान खान (टाइप करने का इशारा करते हुए), उसका भी फोटो आ जाएगा।

सवाल ये पूछ रहा था कि फ़िल्म सिर्फ तीन दिन तक लोगों के जेहन में रहती है, आपने काम उस पर एक साल या उससे ज्यादा किया होता है। फिर हमारे जैसे पत्रकार आते हैं जो बेसिर-पैर के सवाल पूछते हैं, ये सारा प्रोसेस क्या आपको आपकी आने वाली फिल्मों के प्रति निर्मोही नहीं बना देता है? कि क्या यार, अब नहीं ज्यादा दिल लगाना, बस ऊपर-ऊपर से करते चलो?
हां, निर्मोही तो ये सब बना ही देगा यार। वजह क्या है न, जानते हो... कभी फ़िल्म इंडस्ट्री पर बंगाल ने राज किया, कभी पंजाब ने राज किया, पैसे ने राज किया... एक अच्छे साहित्य को उठाकर उस पर फ़िल्म बनाना लोगों ने कभी उचित नहीं समझा। उनकी भी वजह ठीक थी कि भई हम पैसा कमाने के लिए फ़िल्म बना रहे हैं। न हमें प्रेमचंद प्रमोट करना है, न हमें फणीश्वरनाथ रेणू प्रमोट करना है, न उदय प्रकाश प्रमोट करना है, मंटो हमें नहीं प्रमोट करना है... उनका व्यू अपनी जगह ठीक था। उसके बाद आती है सरकार। सरकार हर चीज के लिए बना देती है, फ़िल्म डिवीजन, एन.एफ.डी.सी., लेकिन वहां उसको चला कौन रहा है। चलिए आप बनाइए फ़िल्म... हिंदुस्तान में एक बात बता दूं, क्रिकेट और सिनेमा इतना पॉपुलर है कि मुझे नहीं लगता पूरी दुनिया में कहीं होगा। उस लोकप्रियता को आप भुना नहीं सके। टेलीविजन बहुत सशक्त माध्यम है। दूरदर्शन में जो पैसा देगा उसी का काम होगा। टेलीविज़न में औरतों का दिखाओ औरतों का, रात का खाना बनाने के बाद अच्छा धंधा होता है (व्यूअरशिप, एड), औरतों का दिखाओ औरतों का। नहीं, दिखा क्या रहे हो? हमारे पास एक भी चैनल ऐसा नहीं है जो डिस्कवरी जैसी चीजें दिखाता हो। हमें मुंह छिपाकर जाना पड़ता है उन्हीं के साथ। हम क्यों नहीं? और जब-जब सिनेमा और दूरदर्शन ने ऐसा प्रयास किया है ऑडियंस ने उसको सराहा है। हम अपने ऑडियंस को कभी नहीं गाली दे सकते।

आइटम नंबर क्या है आज की डेट में? आइटम नंबर क्या होता है? ‘तीसरी कसम’ में वहीदा रहमान ने आइटम नंबर किया था? नहीं। ‘तेज़ाब’ का ‘एक दो तीन...’ वो आइटम नंबर था? नहीं। नाम दिया गया अभी। आइटम गर्ल आ गई है। पॉपुलर करने के चक्कर में हम सतह भूल गए हैं। इसलिए मैं किसी से कह रहा था, हमारी प्रगति, प्रगति नहीं है। बुनियादी प्रगति हम नहीं जान रहे हैं। आप देखिए, आपके दादाजी जब पूजा करते थे तो उनकी डेढ़ घंटे की पूजा होती थी। तो धूप डालो रे, तो तुलसी पत्ता डालो रे, तो विल्वपत्र डालो रे। आपके पिताजी करने लग गए तो वो तीस मिनट की हो गई। और आज आपको दीपावली के दिन समझ नहीं आता है, गणेशदशमी बिठा के जय हनुमान, हो गया दीवाली, बम फोड़ो भई। अगरबत्ती जला दो जी। ये किस दिशा में हम जा रहे हैं। दुनिया हमारे योग को, हमारे मंदिरों को तवज्जो दे रही है और हम उसको भूलते जा रहे हैं। मेरा खुद का भान्जा, अभी हम एक दिन बैठे हुए थे। मैंने कहा, बेटा तुलसीदास। तो बोला, “कौन तुलसीदास? नेट पे मिलते नहीं ना हमका”। मतलब आप कुरान भूल जाओगे। तुलसीदास हमारे यहां के इतने बड़े रचयिता थे। ये कैसी प्रगति? हमारे लोग अपने में ही फंसे हुए हैं।

जगह मिल गई (पॉलिटिक्स में) तो ले बेटा तू यहां बैठ, तू इधर आ, हां तू वहां बैठ जा... लो हो गई हमारी मिनिस्ट्री। वो भी है आपके मामा का बेटा, ले उसे भी ले आ। कर लो बात। पचास साल - साठ साल बहुत माकूल वक्त होता है पॉलिटिक्स में कुछ बदलने के लिए। 100-200 साल। आज ही तुम पीपल लगा दोगे तो नहीं उग जाएगा। वक्त लगेगा। हमें समझना होगा कि कहां क्या चीज दें। स्कूल में ट्रेनिंग कैसी दें। कोस थीटा, फलना थीटा और पाइथोगोरस परमेय से हमें कोई मतलब नहीं है और निजी जिंदगी में काम भी नहीं आता। हमारे अच्छे साहित्य पर फ़िल्म बनाने के लिए कोई नहीं उत्सुक है। न सरकार कुछ कर रही है न हम। अच्छे साहित्य को हमने दरकिनार कर दिया। मैं गुलशन नंदा की बुराई नहीं कर रहा हूं लेकिन हमने दस-दस रुपये में... ये नॉवल पढ़, कर्नल रंजीत फेंक। लेकिन प्रेमचंद के ‘बड़े भाई साहब’ के दर्द को हम नहीं समझे। ये कष्टभरा है। अब देखिए कौन देखता है क्रिकेट, कौन, मैं तो नहीं देखता। कौन है टीम में अभी मुझे नहीं मालूम। अपने लाइफ में मुझे पांच परसेंट क्रिकेट को देना है लेकिन क्रिकेट तो पूरा सौ परसेंट मांग रहा है लाइफ से। ये मैच, तो आज वो मैच, तो आज आईपीएल... इतना वक्त नहीं है। उस वक्त स्पष्ट होता था कि आज इंडिया-न्यूजीलैंड मैच है, तो ओके देखना है। वन डे था, टी ट्वेंटी हो गया। पचास कहां बीस का हो गया। वक्त ही कहां है, ठक ठक ठक। हो गया। हर डिपार्टमेंट देखो ना। बहुत सैड है। ये गलत जा रहे हैं हम।

एक बंदे ने कहा था, ब्रेख़्त (बर्तोल्त) ने, “ये जरूरी नहीं तुम फ़कत अच्छे इंसान बनो, जरूरी ये है कि आप मरते वक्त एक अच्छे समाज से विदा लो”। ये हमारी पीढ़ी के लिए दुख भरा है क्योंकि हमने थोड़ा पुराना देखा हुआ है। कल को मेरे बच्चे बिल्कुल पुराना नहीं देखेंगे। वहां पे गंगा होती थी ऐसा पापा कहते थे। जहां से वो पतंग उड़ा रहा है न वहां से एक नदी चलती थी। उसको शिवजी ने अपनी जटा में रख लिया था।

ये तो प्रक्रिया न पलटी जा सकने वाली हो गई है फिर आप करेंगे क्या?
करेंगे क्या करना ही पड़ेगा। एक शौक़ होता है, कभी-कभी रोटी भी होती है। कभी रोटी शौक़ पे भारी होती है कभी उल्टा हो जाता है। तो शौक़ तो है। शायद मैं जैसी फ़िल्में कर रहा हूं मेरे बच्चे देखें और कहें कि हमारे पापा ने ऐसी फ़िल्में कीं। तो मैं तो अपना फ़र्ज और दायित्व निभा ही रहा हूं। लेकिन क्या करें इस चाल में आना है तो आना ही है।

Sanjai in still from All the Best.
इस बीच जैसे रोल आते हैं कि ‘गोलमाल’ में था, आप गलत स्पेलिंग अंग्रेजी के शब्दों की बोलते हैं तो लोग हंसते हैं, आप पांपां बोलते हैं तो लोग हंसते हैं।
हां, वो ठेठ कमर्शियल है..

हालांकि उसे सुन-देख लोग पचास-साठ साल हंसते रहेंगे...। वैसे रोल जब आप कर रहे होते हैं तो क्या सोच रहे होते हैं?
जो भी रोल कर रहा हूं वो प्रफेशनली कर रहा हूं। उसके लिए मुझे पैसा मिला है। मेरे लिए वो माई-बाप है। जब जाता हूं हॉल में और देखता हूं कि लोग मजा ले रहे हैं तो सोचता हूं, चलो यार लोगों को हंसी तो दे रहा हूं। गॉड ने ब्लेस कर रखा है कि मुझे देख लोग मुस्करा देते हैं। मुझे सारे ऑस्कर और फ़िल्मफेयर वहीं मिल जाते हैं। मैं अभी एक अस्पताल गया था। एक लेडी लीवर डैमेज, दो-तीन दिन की मेहमान। उनके हस्बैंड बोले कि “जब मैंने अपनी बीवी को बताया कि आप भी इसी अस्पताल में हैं तो वो आपसे मिलना चाह रही है”। मेरी भी तबीयत ख़राब थी तो मैंने सोचा कि एक मरता क्या किसी की मदद करेगा चलिए। मैं उनके कमरे में गया, उनके दो डॉक्टर बेटे सोए हुए हैं, वो लेडी एक ओर करवट लेकर लेटी हुई हैं। यूपी से थीं। उनके हस्बैंड बोले, “सुनती हो, देखो कौन आया है तुमसे मिलने”। वो पलटती हैं और उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट आ जाती है। मेरे पैर कांपने लगते हैं, मेरे आंसू निकल आते हैं कि ऊपर वाले ये मुझे किस चीज से नवाज़ा है तूने। एक जाने वाला इंसान आपको देखकर मुस्कुरा रहा है, इसका मतलब कहीं से बाबाजी लोग की कोई कृपा है। मैंने कहा, आप कायस्थ हैं आपके यहां तो मीट-मच्छी खूब बनता होगा, तो हंसने लगीं। मैं बोला कि आपके यहां बनारस आऊंगा कभी। कुछ दिन बाद मालूम चला कि वो जा चुकी थीं। खैर, तबसे मन में ये हुआ कि संजय मिश्रा तू जो भी कर रहा है करता जा।

आपकी क्या फिलॉसफी है?
एक जिंदगी मिली है और इसमें चंद पल मिले हैं। ऊपरवाले ने आपको ऐसी योनि में पैदा किया है जिसमें आप सोच सकते हैं, देख सकते हैं, जिसमें आप रंगों के नाम रख चुके हैं और आप इतना ग्रो करते हुए इंसान हैं। हम कुछ योगदान नहीं दे रहे हैं। दे तो वो रहे थे जिन्होंने पहिया बनाया, जिन्होंने लाइट का आविष्कार किया। तो ये जो दुनिया है न वो अंत समय तक ऊपरवाले को आपका उपहार है। मरने के पंद्रह मिनट पहले तक आप उस उपहार के शुक्रगुजार रहिए। जब जाएं तो आप एक अच्छी जगह से जाएं। कुछ नहीं तो यार दस पेड़ लगा दो। मैंने अपनी फ़िल्म ‘प्रणाम वालेकुम’ में एक गाने के बोल लिखे हैं, “चलो गंगा नहाते हैं, मदीना सिर झुकाते हैं, एक पौधा लगाते हैं और इंसान बन जाते हैं”। तो ये मेरा एक सपना है, ग्रीन इंडिया, ग्रीन दुनिया, सारी नदियां भरपूर हों पानी से, लोग खुश हों। जिंदगी आपको गलती से मिली है या किसी और वजह से बस उसे एंजॉय करिए। जो हमारे मालिक बने बैठे हैं उनसे भी निवेदन है कि इतना तो करो यार कि लोग कम से कम खुश रहें। हादसे तो अपनी जगह हैं लेकिन बाकी तो आप करें।

अब देखिए बम की खबर तो ऐसी हो गई है कि क्या बात टेरेरिस्ट आ गए। कर लो बात, डकैत को अब टेरेरिस्ट बना दिया है। और ये सब हमारा ही करा-धरा है। चीजें इतना ज्यादा मार्केट मार्केट मार्केट हो गई हैं, टीवी पर इतने एड आते हैं। एक गरीब प्रिंसिपल का बेटा देखेगा तो वो क्या सीखेगा, कि वो उसका हक है, जैसे टीबी-डायबिटीज हो जाता है, वैसे ही ये भी एक बीमारी है कि किसी चीज को पाने की तमन्ना। वो कहां से अपने बाप से कहेगा कि मुझे ये हॉन्डा सिटी लाकर दो बाबा, शाहरुख खान चलाते हैं। बाप साइकिल ही पे गुजारे हैं बेटा, कहां से लाकर देंगे। वो चीज खोजने के लिए कहां जाएगा। उठाओ गन। हैं? इतनी खूबसूरत-खूबसूरत लड़कियां, मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। वो चीज ढूंढने के लिए वो कहां जाएगा। उठाओ कोई चीज। किसको दोष दें। आप कभी उस माइंड में जाकर देखो तो लगेगा कि वो तो जेनुइन है। कसाब आपके लिए टेरेरिस्ट हो सकता है किसी के लिए तो शहीद भगत सिंह भी हो सकता है। शहीद भगत सिंह आपके लिए भगत सिंह हैं, अंग्रेजों के लिए तो टेरेरिस्ट थे। दोनों पहलू देखो तो समझ में आती हैं चीजें। आज जानते हो करोड़ रुपये का वैल्यू क्या हो गया है। देखिए करोड़पति (अमिताभ के अंदाज में), ...हैं तेरी। बाप कित्ता कमाता है, बीस हजार। चैनल पे क्या देखते हो, करोड़। बाप का हीरो होना बहुत जरूरी है तो कहां से होगा बाप हीरो। करोड़पति... करोड़, हट। पिक्चरों में यार, 100 करोड़, अब अगर तुमको हिट होना है तो सौ करोड़ के ऊपर आओ। पतली पॉटी हो जाएगी सौ करोड़।

आप साथ काम कर चुके हैं शाहरुख के, आप समझ रहे हैं कि बदलाव मार्केट वाली चीज के साथ कौन-कैसे ला रहा है। हॉन्डा सिटी वगैरह। लेकिन आप उनको कितना उत्तरदायी मानते हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री के फेमस चेहरे हैं जिनको ज्यादा लोग फॉलो करते हैं? उसने ऐसे कपड़े पहने तो मैं भी पहनूंगी, वो वो गाड़ी चलाता है तो मैं भी चलाऊंगा।
ये शुरू से है। अमित जी के हम लोग फॉलोअर थे। हैं...। बाल अमित जी जैसे। लेकिन कभी-कभी ये लगता है कि जब लोग ऐसी जगह पहुंच चुके हैं जहां से बदलाव की बात कर सकते हैं और चुप क्यों हो जाते हैं। मैं तो कभी शाहरुख ख़ान बन नहीं पाया और न आगे उम्मीद है लेकिन जब आप उस लेवल पे पंहुच जाते हैं तो बेटा वही वाली बात हो जाती है, कि चाट की दुकान में... ये जो थोड़ा खट्टा जो चलता है न, उसी से चाट चल रही है तो उसी पे कायम रहियो, रिस्क मत लेइयो, थोड़ा तीखा मत मिलाइयो। तो वो रिस्क न लेने वाली समस्या है, शायद इसी वजह से चुप हो जाते होंगे। मतलब ‘कौन बनेगा करोड़पति’... पैसा कमाना मकसद नहीं है। उसका ये है कि हम इंटेलिजेंट हैं। जब फैमिली देखती है न तो कहती है ए होगा। नहीं नहीं यार मैंने सुना है ए होगा। ए नहीं है सी है। वो आपस में जो बात कर रहे हैं उसमें करोड़ नहीं है वजह। उन्हें करोड़पति बनाने की जरूरत नहीं थी। उसमें अगर ए होता और आपको सौ ही रुपये मिलते न वो आपके लिए करोड़ हो जाते। देख बे ए नंबर लाया। मैंने कहीं पढ़ा था। करोड़ को इतना आसान मत बना दो बेटा... खुद ही मरोगे! करोड़ को इतना आसान बना दोगे तो खुद मरोगे! कहां जाओगे। फिर उसके बाद, करोड़ के बाद होता क्या है? अरब। अरब तक अभी बात नहीं आई है लेकिन बीस साल बाद देखना तुम। पहले ये होता था कि बेटा ये लखपति हैं। अच्छा। अब तो कई लखपति यहीं बैठे हुए हैं। एक ही कमरे में। करोड़ को इतना आसान कैसे बना दिया बे! इतना आसान! क्या है कितनी आबादी है इंडिया की। करोड़। हट! क्या है करोड़ ही है, अरबों में होनी चाहिए। उसके बाद? खरब।

एक महर्षि कणाद होते थे। खाना खाते वक्त सुई लेकर बैठते थे। खाते वक्त चावल के कण गिर जाते उन्होंने सुई से उठा भिगो खा लेते थे।
हां, बताओ। हम उस देश के वासी हैं।

आपकी आने वाली फिल्में?
इसके बाद एक अच्छी फ़िल्म आ रही है, ‘आंखों देखी’ जिसके एक्टर डायरेक्टर हैं रजत कपूर। उसमें 68 साल के एक बुड्ढे का रोल मैं कर रहा हूं। उसके बाद एक फ़िल्म आ रही है ‘फटा पोस्टर’। मेरे बड़े फेवरेट डायरेक्टर हैं राजकुमार संतोषी उनकी फ़िल्म कर रहा हूं। कुछ कमर्शियल फिल्में हैं ‘लकी कबूतर’ और ‘बॉस वगैरह’।

दिबाकर, तिग्मांशु के साथ...
तिग्मांशु की दोस्ती अच्छी है पर वही है न आप बहुत बिजी हो जाते है। हालांकि उसके साथ मैंने जितना भी टेलीविज़न किया है न, हम लोगों की ट्यूनिंग बड़ी हिट होती है। ‘स्टार बेस्टसेलर्स’ में मैं बहुत था उसके साथ। एक चैनल में उसका सीरियल आता था ‘हम बंबई नहीं जाएंगे’ तो बोला यार मिश्रा को बुलाओ वो आर्ट डायरेक्शन करेगा। मैं बोला, पागल है आर्ट डरेक्शन, कहां से करूंगा? वो एन.एस.डी. में मेरा बैचमेट था, मेरा रूम पार्टनर भी था। बहुत कुछ वेस्टर्न उसने मुझे दिया, मैंने उसे इंडियन क्लासिकल दिया। बोला, “मिश्रा को बुलाओ वो आर्ट डायरेक्शन करेगा”, मैं बोला पागल है तू, मैं कहां से आर्ट डायरेक्शन करूंगा, मैं एक्टर बनने आया हूं। पर वो बोला, कर लेगा मिश्रा और मिश्रा ने ‘हम बंबई नहीं जाएंगे’ का पूरा आर्ट डायरेक्शन किया। क्योंकि वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के ऊपर सीरियल था तो उसको लगा कि मिश्रा ज्यादा जानता होगा यार। इरफान भाई ने मुझे डायरेक्ट किया। पहला उनका टेलीविज़न का काम था। वन ऑफ द ब्रिलियंट एक्टर्स इस वक्त पूरे विश्व में। वो भी बेचारे देखो, उनको भी संडे करना पड़ा। तो भई रोजी-रोटी के लिए कब तक अलग ही कुर्ता-पजामा बुनते रहोगे। सूट तो सिलना ही पड़ेगा सबको एक दिन। इन लोगों के साथ काम होता रहेगा। शायद ये पिक्चर देखने के बाद तिशु को कहूं कि ये देख, हालांकि वो जानता है मेरी क्षमता लेकिन हो सकता है इस फ़िल्म के बाद थोड़ी बड़ी प्लेट परोसे कि मिश्रा को दो। दिबाकर बैनर्जी के साथ काम करने वाला था मगर डेट प्रॉब्लम हुई।

अब तो अपार आ रहा है टेलेंट अभिनेताओं और निर्देशकों दोनों में ही।
मुझे बड़ा अच्छा लगता है जब नए निर्देशक आते हैं और कहते हैं कि आपको लेकर एक स्क्रिप्ट लिखी है। मेरे लिए बहुत अच्छा है, गर्वीला महसूस करता हूं। मेरे जैसे बंदे ने एक लाइन में खड़े रहने वाले एक्टर से लेकर आगे तक की पूरी यात्रा देखी हुई है। ‘राजकुमार’ पिक्चर यार (1996)। पेड़ के नीचे बैठे रहते थे। (ऊधर से बुलाते थे) ए आ जाओ...। (हाथ जोड़ने की मुद्रा में) हां, जी जी जी। धीरे धीरे धीरे धीरे लगा कि लोगों की इज्जत बढ़ रही है मेरे प्रति। थोड़ा सा अलग खड़े हो रहे हैं, थोड़ा सा अलग खड़े हो रहे हैं, थोड़ा सा अलग खड़े हो रहे हैं।

‘ऑफिस ऑफिस’ तो बुनियाद हो गया था न?
संयोग से मैंने उसके बाद कोई सीरियल नहीं किया। वो नहीं कि मौसी का बेटा और सास-बहू में फंसा। बहुत बुरा फंसता। टेलीविज़न की दुनिया बहुत खतरनाक होती है। उसमें आपके टैलेंट की कोई कद्र नहीं होती है। बस चैनल की कद्र होती है। चैनल आपको जब चाहे फोकस कर दे, जब चाहे हटा दे। कितने लोग थे यार, कितने लोग... आए गए, टॉपस्टार हो गए। नहीं, अपने को लंबी रेस का घोड़ा बनना है। पर टेलीविज़न में पैसा बहुत है। बहुत। रेगुलर इनकम हो जाती है आपकी कि आपको दो लाख रुपया, चार लाख रुपया महीना मिलने लगता है। आप उससे बंबई में एक घर खरीद सकते हो। बेसिक बुनियादी, जो ‘ऑफिस ऑफिस’ ने करवा दिया। उसके बाद कान पकड़ लिया कि नहीं, मैं एक्टर हूं। कुत्तों की तरह काम करवाते हैं। टेलीविजन हर तरफ चाहे वो जर्नलिज्म (न्यूज चैनल) का हो। गधों की तरह काम करवाते हैं। गधा मजूरी है, रगड़ रगड़।

निजी जिंदगी में आप गंभीर इंसान होंगे लेकिन लोग जब आपके किरदारों की तरह आपसे विदूषक सा बर्ताव करते हैं तो क्या बुरा नहीं लगता।
नहीं, नहीं। निजी जिंदगी में आकर मुझे नहीं कहते कि आप हंसिए। और अच्छा भी है दो तरह की जिदंगी जी रहा हूं।

Sanjai Mishra is an Indian film actor. He hails from Bihar and lives in Mumbai. He passed out from National School of Drama in 1989. Mostly doing comic roles, he’s done movies like Satya, Dil Se, Phir Bhi Dil Hai Hindustani, Golmaal, Apna Sapna Money Money, Bombay to Goa, Dhamaal, All the Best: Fun Begins, Phas Gaye Re Obama, Satrangee Parachute, Chala Mussaddi Office Office and Joker. His latest, Saare Jahan Se Mehnga, has him as a lead.
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Saturday, March 2, 2013

‘सारे जहां से महंगा’ के निर्देशक अंशुल शर्मा से मुलाकात

सोनीपत के पाल परिवार की महंगाई का सामना करने और अपने निकाले समाधान में फंसते चले जाने की कहानी है ये फिल्म, इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं संजय मिश्रा


‘फंस गए रे ओबामा’ वालों की नई पेशकश है ‘सारे जहां से महंगा’। प्रासंगिक विषय है। इस पर तो उस तरह एक साथ कई फिल्में आनी चाहिए थीं जैसे एक वक्त में भगत सिंह पर देखा-देखी फिल्मकार लोग पांच-छह फिल्में बना रहे थे। देश की मौजूदा आर्थिक नीतियों और लोगों पर पड़ने वाले इसके बेहद कष्टकारी असर पर ऐसी फिल्में बन ही नहीं रही हैं। ऐसे में ‘सारे जहां से महंगा’ का आना राहत दे रहा है। फिल्म 8 मार्च को रिलीज होगी। इसे अंशुल शर्मा ने बनाया है। वह इससे पहले ‘फंस गए...’ में निर्देशक सुभाष कपूर के सहयोगी रह चुके हैं। अंशुल मूलतः सुंदरनगर, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हैं। 6 अप्रैल 1981 को जन्मे। कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियिरंग की पढ़ाई की। कोई आठ साल पहले उन्होंने मुंबई में कदम रखे। फिल्मों में आना था। शुरुआत टीवी सीरियल में फिल्म निर्देशक का सहायक बनकर की। उसके बाद अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, सुनील दर्शन और सुभाष कपूर के साथ निर्देशन की बारीकियां सीखने की कोशिश की। फिल्म का प्रमोशन चल रहा है, उसी सिलसिले में वह चंडीगढ़ पहुंचे थे। यहीं उनसे मुलाकात हुई। धीमे, शांत और सहज हैं। ज्यादा बोलते नहीं है। लेकिन हां, जमीन पर ही रहते हैं। बातचीत के दौरान कोशिश उन कोनों में घुसने की हुई जहां ज्यादातर कोई नहीं जाता। हो सकता है कई बातें अमूर्त और अप्रासंगिक लगें, पर आगंतुक फिल्मकारों को जरूर ऐसे सवालों को हल्के में ही सही जवाब मिलेंगे जो उनके मन में उड़ते रहते होंगे।

Anshul Sharma
जब आप ‘देव डी’ जैसी फिल्मों में असिस्टेंट थे तो साथ में और भी सहायक-सहयोगी निर्देशक लड़के-लड़कियां रहे होंगे। उस वक्त में आप लोग क्या बातें करते थे?
निश्चित तौर पर खूब फिल्में देखते थे। आपस में बातें करते थे कि यार तूने वो फिल्म देखी क्या? वगैरह। मगर एक बात थी उस वक्त क्रिटिसाइज करना बड़ा आसान था। किसी डायरेक्टर की, किसी फिल्म की आसानी से आलोचना कर देते थे। अब खुद उस जगह पहुंचे हैं तो समझ आ रहा है। तो बातें तो करते थे कि उस फिल्म में ऐसा है, उसमें वैसा है। ऐसा किया होता तो ज्यादा बेहतर होता। लेकिन उसी वक्त में आपको जो जिम्मेदारी डायरेक्टर ने दे रखी थी वो भी देखनी होती थी। क्योंकि हम सभी को डायरेक्टर बनना था। सब अपने छोर पर अपनी-अपनी कहानियां तैयार करने में भी लगे रहते थे।

कौन थे असिस्टेंट साथी?
एक नितिन (यू. चैनपुरी) थे, श्लोक (शर्मा) था, वासन (बाला) था, मैं था, अनुभूति (कश्यप) थी अनुराग सर की सिस्टर। प्रेरणा (तिवारी) थी, दिव्या (सिंह) थी और आनंद (विजयराज सिंह तोमर) था।

इनमें कौन फिल्में बना चुके हैं?
वासन बना चुका है, उसकी फिल्म ‘पैडलर्स’ फेस्टिवल्स में भी गई, अच्छी तारीफ मिली। श्लोक की भी बन चुकी है, उसकी भी फिल्म (हरामखोर) आएगी अभी। आनंद बनाने वाला है बात चल रही है अभी।

क्या आप लोगों ने तब तय कर लिया था कि मनोरंजक बनानी है या प्रयोगी बनानी है?
नहीं बस पैशन था कि फिल्म बनानी है। आप जितने ज्यादा युवा होते हैं पैशन उतना ज्यादा होता है। इस दौरान आपकी पहली फिल्म आपके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होती है। बस। क्योंकि उसमें पूरी जी-जान लगा देते हो। बनने के काफी वक्त बाद जरूर सोचते हो कि यार पहली फिल्म ऐसी होती तो ज्यादा अच्छा रहता। मगर बनाने से पहले नहीं सोचते कि मैं इसके लिए बनाऊंगा या उसके लिए।

मैं दो तरह की सोच की बात कर रहा हूं। जैसे ‘पैडलर्स’ है तो उसे बनाते वक्त शायद डायरेक्टर की मन: स्थिति सबसे महत्वपूर्ण रही। वो उसे उसी रूप में बनाना चाहता था, उसके लिए व्यावसायिक मजबूरियों की परवाह नहीं की गई है। आपने सारे जहां से महंगा बनाई है तो उसमें व्यावसायिक चीजों पर ध्यान दिया गया है। जैसे गाने हुए या ज्यादा से ज्यादा दर्शक फिल्म को देखें ये बात हुई या फिर प्रोड्यूसर का पैसा वापिस आए।
‘पैडलर्स’ अनुराग सर ने प्रोड्यूस की तो उनकी सोच बहुत अलग है। वो अपने असिस्टेंट्स को बहुत प्रमोट करते हैं। वो ऐसा नहीं सोचते कि ये कमर्शियल फिल्म है और इसमें मैं इतना पैसा लगा रहा हू्ं तो वो लौटे। बतौर डायरेक्टर अपने क्राफ्ट को लेकर वो बहुत पैशनेट हैं। वो बोल देते हैं कि तेरे को ये चीज बनानी है, तू बना, बाकी कारोबारी गणित हम बाद में देखेंगे। ‘सारे जहां से महंगा’ के मामले में जो पैसा लगा रहे हैं उनके प्रति मेरी जिम्मेदारी बनती है। वो जितना पैसा लगा रहे हैं, कम से कम उतना तो वापिस मिले। इसके अलावा ये सोच भी थी कि फिल्म ऐसा माध्यम है जिसे थियेटर में या टीवी पर भारत की 90 फीसदी जनता देखती है तो उस माध्यम को लेकर अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, फिल्म के सब्जेक्ट से न्याय करना था।

देश के कौन से अभिनेता अच्छे लगते हैं?
आमिर (खान) हैं, बहुत अच्छे एक्टर हैं। संजय (मिश्रा) जी हैं। इरफान (खान) हैं। रणबीर कपूर बहुत अच्छे एक्टर हैं। निर्भर करता है कि कौन उनसे काम निकलवा रहा है।

फिल्में जो प्रेरित कर आपको फिल्मों में ले आईं?
अनुराग सर की फिल्में हैं। ‘ब्लैक फ्राइडे’ से बहुत प्रभावित हुआ। भंसाली साहब की फिल्में थी, उनका अलग तरीका है। इन दोनों की फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक तक अलग होता है। यहां तक कि लाइटिंग भी फिल्म की जर्नी से जुड़ी होती है। संगीत, आर्ट डायरेक्शन, कहानी सब फिल्म को साथ लेकर चलते है। मुझे अभी भी याद है ‘नो स्मोकिंग’ में सिनेमैटोग्राफी करने वाले राजीव रवि सर ने आखिरी गाना शूट किया था “जब भी सिगरेट जलती है मैं जलता हूं...”। उसमें उन्होंने लाइटिंग के तीन सेटअप बनाए थे। सबसे पिछला ऑरेंज था, बीच वाला सफेद था और आगे वाला जलते अंगार की तरह। यानी वो सिगरेट का ही प्रतिबिंब हो गया यानी फिल्म से पूरी तरह जुड़ा हुआ।

बचपन की शुरुआती फिल्म कौन सी थी?
राजकपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ थी। पेरेंट्स के साथ बैठकर देखी थी, उसने कहीं न कहीं छुआ था। दिमाग में रह गई थी।

किस उम्र तक फिल्मों में आना महज सपना ही था?
जाना था, पहले से दिमाग में था। शूटिंग होते हुए मैंने पहले भी देखीं थीं...

...लेकिन शूटिंग देखना क्या बहुत हतोत्साहित कर देने वाला अनुभव नहीं होता? क्योंकि बतौर दर्शक आप शूट देखते हैं तो चौंकते रहते हैं कि ये हो क्या रहा है।
हां, आप पहली बार देखते हैं तो पता नहीं चलता है। लगता है कि अभी तो इन्होंने बोला था और अब ये फिर बोल रहे हैं। तब नहीं पता था कि ये अलग-अलग एंगल से ऐसा कर रहे हैं। पहले तो बस वो स्टार थे हम फैन थे। लेकिन लोग वहां आधे घंटे में बोर हो रहे थे और मैं नहीं हो रहा था। मेरे मन में जिज्ञासा थी कि ये लोग क्या कर रहे हैं? क्यों बार-बार लाइन बोल रहे हैं? पहले ये चीज यहां बोली थी, अब वहां जाकर बोल रहे हैं, कैमरा उधर जा रहा है। यहीं से रुझान मजबूत हुआ। लेकिन घरवालों को चिंता थी कि कैसे होगा। उन्होंने कहा कि पहले पढ़ाई कर लो। स्कूल में प्ले, माइम करता रहा। जब मेरी पढ़ाई खत्म हुई तो मैं बॉम्बे गया।

कौनसे साल में पहुंचे मुंबई?
2004 में।

पहुंचने पर क्या जाब्ता कर रखा था?
प्रोड्यूसर कुमार मंगत को मेरे पापा जानते हैं। उनसे बात हुई थी। उन्होंने भी बोला कि सोच लो एक बार फिर, आने से पहले। ये लाइन दिखती ही ऐसी है लेकिन बहुत मेहनत है इसमें। जो लोग देखते हैं उन्हें सिर्फ स्टार्स दिखते हैं और वो आ जाते हैं।

बच्चा जनने जैसा कष्ट है...
बिल्कुल, और उस लेवल तक पहुंचने में बहुत धैर्य चाहिए। क्योंकि आप छोटा-छोटा काम करते हैं। बहुत बार खीझ भी उठती है, निराशा होती है। कई बार ऐसा भी लगता है कि कहां आ गया हूं। ऐसे में अपना फोकस आपको दिखना चाहिए कि मुझे वहां पहुंचना है। आप विश्वास रखेंगे खुद पर, धैर्य रखेंगे और गोल पर केंद्रित रहेंगे तो पहुंच जाएंगे।

कौन सी फिल्म से सबसे पहले जुड़े थे?
उस समय कुमार मंगत एक सीरियल प्रोड्यूस कर रहे थे ‘देवी’, जो सोनी पर आता था। उसमें साक्षी तंवर और मोहनीश बहल थे और उसे डायरेक्ट कर रहे थे रवि राज। मुंबई पहुंचने के तीसरे दिन से ही सीरियल में असिस्टेंट लग गया था। फिर सुनील दर्शन साहब की ‘दोस्ती’ और ‘बरसात’ (2005) फिल्मों से जुड़ा। उसके बाद विशाल भारद्वाज के साथ जुडऩा था मगर उनकी टीम भरी हुई थी ‘ओमकारा’ में। देखना था उनको तो मैंने फिल्म के प्रोडक्शन में ही कर लिया। ‘ओमकारा’ के बाद अनुराग कश्यप की ‘नो स्मोकिंग’ से जुड़ा। फिर ‘देव डी’ आई। उसके बाद ‘फंस गए रे ओबामा’ में सहयोगी निर्देशक बना। 'प्यार का पंचनामा' में भी सहयोगी निर्देशक रहा।

इतिहास गवाह रहा है कि शुरू में सार्थक विषयों पर फिल्म बनाने वाले बाद में व्यावसायिक मजबूरियों के चलते धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं। आपको नहीं लगता कि आप भी बाद में उसी गली निकल लेंगे?
नहीं मेरा इरादा ऐसे विषय पर शुरू में ही बनाने का नहीं रहा था। कुछ लोगों ने कहा भी कि आपने अपनी पहली फिल्म महंगाई पर क्यों बना दी? पर मैंने शुरू में कुछ भी तय नहीं किया था। अभी भी मुझे महसूस नहीं हो रहा कि पहली फिल्म मैंने लीक से हटकर बना दी। आगे भी ऐसा कोई विचार नहीं आने वाला कि किसी खास दिशा में जाऊंगा।

कैसे विषय पर आने वाले दिनों में फिल्में बनाना चाहेंगे?
तय नहीं है। अच्छा सिनेमा बनाना है बस। मुझे एक्शन फिल्में अच्छी लगती हैं, सटायर अच्छा लगता है। ऑन द फेस कॉमेडी उतनी अच्छी नहीं लगती। सटायर के जरिए संदेश अच्छे से दे पाते हैं। थोड़ी थ्रिलर भी अच्छी लगती हैं।

कोई कहानी सोच रखी है जिस पर आगे काम करेंगे?
हैं कुछ कहानियां। एक हिमाचल आधारित कहानी मैंने सोच रखी है। उस पर लंबे वक्त से काम चल रहा है। थोड़ा रियल है थोड़ा फिक्शन।

On set of Dev D, Anshul and Mahi Gill.
जब आप असिस्टेंट थे और आपको कहा जाता कि ये चीज लाकर दो या इसे मुहैया करवाओ, तो कई बार जमीन नहीं खिसक जाती थी पैरों के नीचे से कि यार ये तो मिल ही नहीं रहा, अब कहां से लाकर दें इनको?
चैलेंजिंग मौके आते रहते हैं। उस वक्त ये होता है कि आप अपनी प्रेजेंस ऑफ माइंड क्या लगाते हैं। खासकर अनुराग सर के साथ ऐसा होता है। क्योंकि वह खुद भी राइटर हैं तो सिचुएशन व लोकेशन के हिसाब से कई बार चीजें बदल देते हैं। वह एकदम से कह देते थे कि मुझे ये चाहिए। आप असिस्टेंट हैं और आपसे कोई चीज मांगी गई है तो आप प्रोडक्शन वालों से मांगते हैं। प्रोडक्शन वाला अपने बॉय को बोलेगा, वो जाएगा और लेकर आएगा। कई बार चीजें बहुत जल्द चाहिए होती हैं। जैसे हम ‘देव डी’ में एक सीन शूट कर रहे थे। हमें अचानक से एक रेस्टोरेंट में शूट करना पड़ गया। रेस्टोरेंट अभी बंद था और हमें एक सैंडविच चाहिए था। अनुराग सर ने फटाक से बोल दिया कि यहां-यहां शूट कर रहे हैं और सैंडविच चाहिए। अब मैं अपने जूनियर को बोलता तो वो प्रोडक्शन में किसी को बोलता। लेकिन मैंने अपनी जेब से उसे पैसे दिए और कहा कि वहां सामने सैंडविच मिलते हैं, जा और फटाफट लेकर आ। बस प्रेजेंस ऑफ माइंड का इस्तेमाल किया। अब ‘नो स्मोकिंग’ का एक शूट था। आयशा टाकिया उसमें प्ले कर रहीं थीं। उसमें उनके पास एक ब्लैक पर्स था जो पीछे छूट गया था। ऐसी बहुत सी चीजें होती हैं फिल्मों की शूटिंग के दौरान या लाइफ में। और उस वक्त तुरंत पर्स चाहिए था। शूट से थोड़ा ही दूसरी कुछ दुकानें थीं, मैं तुंरत भागकर गया, पर्स खरीदा और लेकर आया। प्रोडक्शन का काम बाद में किया। कहने का मतलब ये है कि काम नहीं रुकना चाहिए।

फिल्ममेकिंग के दौरान निराशा का सामना कैसे करते हैं?
एक जर्नी होती है और आपको उसमें चलते रहना पड़ता है। अगर लक्ष्य केंद्रित हो न, तो निराशा नहीं होती। आपको अपना लक्ष्य दिखना चाहिए। कहीं पहुंचने के लिए अगर पांच सौ सीढिय़ां चढऩी हैं और आप सौ सीढ़ी बाद थक जाओ तो कुछ सोचेंगे कि सौ में मेरी ये हालत है चार सौ और कैसे चढ़ूंगा। लेकिन आपने तय कर रखा है कि मुझे तो जाना ही है, तो मैं पांच मिनट बैठूंगा, अपनी एनर्जी हासिल करूंगा और वापिस चढ़ूंगा।

एक कहानी पर एक साल या उससे ज्यादा वक्त तक काम करते हुए ताजगी कैसे बनी रहती है? ऊर्जा कहां से मिलती है?
पता नहीं मुझे भी। शायद पैशन से। शूटिंग के वक्त तो मुश्किल से तीन घंटे सोने का वक्त मिलता है फिर भी अगले दिन आप बहुत फ्रेश होते हैं। पता नहीं वो कहां से आता है। जैसे 'देव डी' की शूटिंग कर रहे थे तो लगातार दस-बारह दिन तक हम दो घंटे से ज्यादा सो ही नहीं पाए। लेकिन अगले दिन सेट पर पहुंचते थे तो ऐसा महसूस नहीं होता था। उसी एनर्जी से भाग रहे थे, उसी एनर्जी से काम कर रहे थे। फिल्म जब बन जाती है तब आप बैठे रहते हैं या ऑफिस में सोते रहते हैं, ऊंघते हैं लेकिन शूटिंग के वक्त ऐसा नहीं होता।

डायरेक्टर्स के साथ दिक्कत होती है कि लोगों का ध्यान उन पर बहुत कम जाता है। एक्टर्स को ही सब पहचानते हैं। जबकि फिल्म की जननी डायरेक्टर होता है। जब तवज्जो नहीं मिलती तब क्या करते हैं?
निश्चित तौर पर एक समझ बनी हुई है। आप लोगों को जाकर नहीं कह सकते कि ये फिल्म मैंने बनाई है। आम दर्शक एक्टर को देखता है तो उसी की बात करेगा। डायरेक्टर के लिए सबसे बड़ी बात ये है कि लोग उसकी फिल्म के बारे में बात करें। अब जैसे मेरे सामने की टेबल पर कोई बैठा हो और मुझे नहीं जानता हो लेकिन कहे कि यार ‘सारे जहां से महंगा’ देखी, कमाल की फिल्म है, उसमें संजय जी का काम ऐसा है। मेरे लिए वो बहुत है। उसी में सारी खुशी है, राहत है। एक्टर तो जानते हैं न। जनता भी जानेगी। जैसे रोहित शेट्टी हैं, अनुराग कश्यप हैं, लोग उन्हें जान रहे हैं, चीजें बदल रही हैं।

रोहित शेट्टी आपकी फिल्म के म्यूजिक लॉन्च पर आए, उनसे मुलाकात कैसे हुई?
मेरा एक दोस्त है आशीष आर. मोहन जिसने ‘खिलाड़ी 786’ बनाई है। हम लोग एक ही कमरे में रहा करते थे। मैं अनुराग सर के साथ काम कर रहा था, आशीष रोहित सर के साथ। उसके जरिए रोहित जी से मिला।

कैसे इंसान हैं आप?
बहुत सिंपल हूं जमीनी हूं, मेरे हिसाब से। बहुत चुप रहता हूं।

रहना पड़ता है सोचने वाले को...
बहुत से सोचने वाले बहुत बोलते भी हैं। मेरी प्रकृति ऐसी है कि खुद को अभिव्यक्त नहीं करता। दिमाग में ही हर वक्त कुछ न कुछ चलता रहता है। बहुत कम बोलता हूं तो कई बार लोगों को लगता है कि भाव खा रहा है, पर वैसा नहीं है।

फिल्में-फिल्मकार जो पसंद हैं?
पिछले साल तो कोई फिल्म देख ही नहीं पाया। मगर उससे पहले ‘इनसेप्शन’ बहुत अच्छी लगी थी, ‘अवतार’ अच्छी लगी। हिंदी में अनुराग सर की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’। ‘विकी डोनर’ आई थी वह अच्छी लगी। आलटाइम फेवरेट निर्देशकों में मनोज कुमार हैं, गुरुदत्त हैं, राज कपूर हैं, अनुराग सर हैं, क्रिस्टोफर नोलन हैं, जेम्स कैमरून हैं, क्वेंटिंन टेरेंटीनो हैं।

लेकिन फिल्मों में आना सीख रहे थे तब आपको ताकत और हौंसला ज्यादा से ज्यादा फिल्में देख ही मिलती था। अब तो देख ही नहीं रहे।
मैं देखना चाहता हूं पर ये होता है कि आप अपनी ही फिल्म में बहुत बिजी हो जाते हो। मुझे देखनी थी। मैं ‘अर्गो’ देखना चाहता था, ‘लाइफ ऑफ पाई’ देखना चाहता था।

‘सारे जहां से महंगा’ वैसी बनी जैसी सोची?
उससे भी अच्छी।

लेकिन शुरू में ऐसे सोचते हैं कि ये सीन देख लोग हैरान हो जाएंगे, यहां पर शॉक हो जाएंगे, यहां हंसकर बेहाल हो जाएंगे। क्या हूबहू वैसे भाव बन पाए?
मैं पहले इतना तय नहीं करता हूं, ये मैंने अनुराग सर से सीखा है। वो पहले से प्लैन नहीं करते कि ये फिल्म मैं इस तरह से शूट करूंगा। उनकी तरह मैं भी लाइव लोकेशन पर शूट करना पसंद करता हूं। जब आप सेट पर होते हैं और शूट करना शुरू करते हैं तो चीजें वैसे नहीं चलती जैसे आपने सोची होती हैं। जैसे एक्टर सेट पर सीन को कम या ज्यादा कर देते हैं। मेरी फिल्म में संजय जी थे तो जितना उन्हें कहते थे वो उसे इम्प्रोवाइज करके और बेहतर बना देते थे। तो उसी क्षण चीजें बदलती हैं, नतीजे नए मिलते हैं और आप तभी सोचते हो।
Poster of Saare Jahan Se Mehnga.
Anshul Sharma is an Indian filmmaker. His first as director ‘Saare Jahan Se Mehnga’, a social satire (mainly on inflation, ruining the lives of most of the Indian families), is set to release on 8th March. Before that he has worked with Anurag Kashyap, Vishal Bhardwaj, Subhash Kapoor and Suneel Darshan.
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Thursday, February 28, 2013

जॉन मैक्लेनः बच्चों की मृगमरीचिका और कातिलों का हीरो

जॉन मूर के निर्देशन में बनी डाई हार्ड सीरीज की पांचवीं फिल्म पर कुछ बातें...


“अ गुड डे टु डाई हार्ड” देखने के बाद जैसे ही बाहर निकला, मन किया शीशा तोड़ते हुए चौथे माले से नीचे चमचमाते मॉल में कूद जाऊं। नीचे जाते हुए स्लो मोशन शॉट बड़ा सम्मोहक होगा। जॉन मैक्लेन को पिछली चार फिल्मों से देखता आया हूं। बंदा हर बार बच जाता है। हर तरह की स्थिति में बच जाता है। इस फिल्म में शुरू के मुख्य लंबे चेस सीन में इतनी कारें (सुंदर-सुंदर रंगों वाली) कुचली जाती हैं, इतने पौराणिकतामय प्रभावी तरीके से उसका ट्रक और उसके दुश्मन रूसी दुष्टों का बड़ा ट्रक मॉस्को की छह-आठ लेन सड़कों पर कलाबाजियां खाते हुए गिरता है कि लगता है वह मर गया, मगर पता है कि नहीं मरा। मैक्लेन भला मर सकता है! वह पूरणमासी की किसी विशेष नक्षत्रों वाली रात में जन्मा था। कुछ-कुछ अपने ‘शिकारी’ गोविंदा की तरह। ऐसा नहीं है कि ऊपर से कूदने का विचार मैक्लेन को देख पहली बार आया है। पहले भी आया है। न जाने कितनी बार आया है। जब-जब कोई हॉलीवुड फ्रैंचाइजी देखी है, आया है। ‘द अवेंजर्स’ के वक्त, ‘हल्क’ के वक्त, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ के वक्त, ‘द बोर्न लैगेसी’ के वक्त, ‘रैंबो-4’ के वक्त, ‘द एक्सपेंडेबल्स’ के वक्त। हर बार इन जैसा हीरो बन जाने की भावना काबू से बाहर होती रही। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ देखी तो बेन बनना चाहा। स्टेडियम का वो दृश्य जहां वो भोला सा बच्चा “ओ से कैन यू सी, बाय द डॉन्स अर्ली लाइट...” गा रहा होता और हजारों दर्शक मैच शुरू होने का इंतजार कर रहे होते, मेरे आने से अनजान, फिर मैच शुरू होता, फील्ड विस्फोट से भरभराकर तबाह होती और मैं मास्क धरे प्रवेश करता। उफ... क्या सीन होता न। फिर उस खौफनाक आवाज में हजारों अमेरिकियों की सांसें अपरिमेय डर से रोक कर रख देता। मेरे होने का अहसास वहां होता, मैं हीरो होता, मैं फुटेज में होता। फिल्म देख पीवीआर से निकला तो लगा, छलांग लगाता हूं, जब बेन लॉजिकली योग्य है, ताकतवर है तो मैं क्यों नहीं। इस ख्याल को धक्का देने वाला वो ख्याल और तर्क था कि जैसे ही तुम छलांग लगाओगे तुम इतने स्मार्ट होवोगे कि कोई न कोई रस्सी, रेलिंग, पत्थर जरूर पकड़ लोगे और ढस्स से लैंड कर लोगे। ये ख्याल सुपर कमांडो ध्रुव की और डोगा कि कॉमिक्स पढ़ते हुए भी आते रहे हैं। वो हर महामानव और दुश्मन का सामना करते ही इतने सम्मोहक-साइंटिफिक तरीके से थे। कूदने का ये ख्याल ‘डाई हार्ड-5’ देखने के बाद और प्रभावी हो उठा, कि एग्जिट गेट के अंदर से भागते बाहर आऊं और वेव सिनेमा के चौथे माले से शीशा तोड़ते हुए कूद जाऊं, पॉन्टी चड्ढा और उसके भाई हरदीप के मर्डर केस की मौन गूंज भरे उस प्रांगण में मुझे कुछ न होगा। मैक्लेन बच सकता है तो मैं क्यों नहीं?
Bruce Willis in his character of John McClane, in a still from the movie.
मगर न जाने क्यों, भगवान ने मुझे हर बार सद्बुद्धि दी और शैतान को मेरे दिमाग पर कब्जा करने से रोका। शायद ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन क्या ऐसा हमेशा हो पाएगा। और क्या बच्चों के जेहन को हर बार ये समझ मिल पाएगी की वह बस एक फिल्म है। असली ब्रूस विलिस तो एक सीढ़ी के ऊपर से भी कार नहीं कुदा सकता फिर मॉस्को के उस ब्रिज से गाड़ी कुदा देना तो संभव ही नहीं है। क्या हर बच्चा जान पाएगा कि बेन की आवाज को हांस जिमर और क्रिस्टोफर नोलन ने कैसे विकृत करके बनाया और टॉम हार्डी उस भूमिका के उलट कितना सिंपल बंदा है।

फिल्मों का ये ही जादू होता है। ये हमें सपने देती हैं। किसी विशेष क्षेत्र में करियर बनाने का पुश देती हैं। निराशा के पलों के लिए सूत्रवाक्य देती हैं। दुख में गुनगुनाने के लिए गाने देती हैं। मगर जिस किस्म का मनोरंजन कुछ फिल्में देती हैं वो खतरनाक देती हैं। दिनों-दिन कुशल और प्रभावी होती तकनीक हर स्टंट को आसान और संभव दिखाती है। देख लगता है, हम भी कर सकते हैं। मुझे नहीं पता कि जेम्स होमर, बेन से कितना प्रभावित हुआ था, लेकिन उसके कर्मों में जोकर के अंश जरूर लगे जो कोई अलग बात नहीं है। ये बेन, जोकर, मैक्लेन सभी हिंसा के अलग-अलग प्रतिरूप हैं। कब परदे से दिमाग पर चढ़ जाते हैं पता नहीं चलता। क्या ऐसा मनोरंजन हम ज्यादा दिन चाह पाएंगे। इतने खून-खराबे भरे, रीसाइकिल होते, फ्रैंचाइजीनुमा ड्रामे क्या इतने जरूरी हैं हमारे लिए? क्या आप इनकी कीमत वहन कर पाएंगे? ये सवाल और बलवती हो उठे ‘अ गुड डे टु डाइ हार्ड’ देखकर।

बात करते हैं कहानी की।

मॉस्को, रूस से शुरू होती है। पूर्व अरबपति यूरी कोमोरोव (सबेश्चियन कोश) पर अदालती केस चलने वाला है। कभी उसके साथ मिल कर गैरकानूनी काम करने वाला और अब देश का डिफेंस मिनिस्टर विक्टर शगैरिन (सरगेई कोलिश्निकोव) अपने खिलाफ सबूतों वाली फाइल यूरी से चाहता है। मगर यूरी ऐसा नहीं करने के तैयार। इस मामले में जैक (जय कर्टनी) का प्रवेश होता है। वह कोमोरोव के किसी आदमी को गोली मार देता है, पुलिस गिरफ्तार कर लेती है, जेल में वह यूरी के खिलाफ गवाह बनने के तैयार हो जाता है। अब हम रूस से अमेरिका पहुंचते हैं। जॉन मैक्लेन (ब्रूस विलिस) नौकरी पर ही ध्यान देता रहा, कभी बेटे के साथ स्नेह भरा रिश्ता कायम नहीं कर पाया। जब उसे जैक की गिरफ्तारी का पता चलता है तो वह छुट्टी पर रूस जाता है। अदालत पहुंचता है तो वहां धमाके होते हैं। शगैरिन के आदमी यूरी को पकड़ना चाह रहे हैं तो सीआईए की ओर से काम कर रहा जैक यूरी से गुप्त फाइल लेकर उसे रूस से बाहर सुरक्षित निकलवाने के मिशन पर है। इसी बीच, सामने आ जाते हैं उसके डैड। पिता को फूटी आंख पसंद न करने वाला जैक अपने मिशन को जारी रखता है लेकिन धीरे-धीरे एक जासूसी एजेंट वाले उसके पैंतरे कमजोर पड़ने लगते हैं और डाई हार्ड सीरीज वाले जॉन मैक्लेन का महत्व बढ़ता जाता है। उसका अनुभव काम आता है।

फिल्म की बुनावट और मूड में जाएं तो कुछ चीजें नजर आती हैं। जब जॉन मैक्लेन के पहले दर्शन होते हैं तो उनके पीछे दीवार पर ओबामा की तस्वीर लगी होती है। ये बदले वक्त का पहला संकेत यूं होती है कि 1988 में सीरीज की पहली फिल्म आई तब से अब तक मुल्क के राजनीतिक हालात में एक व्यापक बदलाव हो चुका है (ये भी कि मौजूदा राजनीतिक ढांचे के तले दूसरे मुल्कों से संबंध उतने बुरे नहीं हैं कि कोई विदेशी ताकत से पाला पड़े, इसीलिए फिल्म का नायक ही दूसरे मुल्क में चला जाता है, वहां के अंदरुनी मसले में टांग अड़ाने के लिए)। पुलिस स्टेशन में मैक्लेन है तो एक युवा अश्वेत साथी भी, वह उसे उसके बेटे जैक की जानकारी लाकर देता है। वह जॉन को कहता है, “तुम कैसे हो ग्रैंडपा (दादा)। ” इसके मायने ये हैं कि जासूसी से लेकर देश की रक्षा तक की जिम्मेदारी युवा पीढ़ी ने ले ली है, उसे घर बैठ आराम करना चाहिए। जो वह करना भी चाहता है। मगर अपने ‘007’ बेटे को बचाने उसे जाना ही पड़ता है। मॉस्को में टैक्सी में बैठा जॉन ट्रैफिक में फंसा है। ड्राईवर से पूछता है, “क्या ट्रैफिक के हाल यहां भी बुरे हैं?” ये भी एक वैश्विक महानगरीय समस्या है जो जॉन मैक्लेन के किरदार के अस्तित्व के वक्त से मौजूद है। पहले सिर्फ अमेरिकी महानगरों में थीं, अब अमेरिकी सांस्कृतिक और आर्थिक अतिक्रमण वाले हर मुल्क की समस्या है। इस फिल्म में शुरू में दिखाया जाता है कि जॉन हीरो बनने वाली स्टंटबाजियों को महत्व नहीं देता। लगता है पिछली चार डाई हार्ड फिल्मों से उसने सबक लिया है कि परिवार को वक्त देना कितना जरूरी था। वह कहता है, “मैंने सोचा कि हर वक्त काम करना एक अच्छी चीज थी।” लेकिन अब चाहता है कि वह और उसका बेटा अमेरिका लौट जाएं इस मिशन को छोड़कर और नए सिरे से परिवार की तरह रहना शुरू करें। साइंटिस्ट और अरबपति यूरी की कहानी भी जॉन की तरह समान लगती है कि उसने भी काम के चक्कर में अपनी बेटी को वक्त ही नहीं दिया।

आयरलैंड मूल के निर्देशक जॉन मूर की ‘फ्लाइट ऑफ द फीनिक्स’ मुझे भाई थी, ये फिल्म कमजोर है। इसे सीरीज की पांचवीं फिल्म होने की अति-उम्मीदें मार जाती हैं। पिछली फिल्मों से ज्यादा धाकड़ बनाने के चक्कर में सारा ध्यान अमानवीय एक्शन और स्टंट पर चला जाता है जो आंखों की पुतलियों को कलाबाजियां खिलाता है, पर फिल्म खत्म होने तक वो सुगढ़ अनुभव नहीं देता जैसा 1988, 95 और 99 में आई तीनों शुरुआती फिल्मों ने दिया।

इस फिल्म में अमेरिकी फिल्मों के पसंदीदा और पारंपरिक शत्रुओं पर लौटा गया है। पहली डाई हार्ड में जर्मन आतंकियों ने लॉस एंजेल्स की नाकाटोमी प्लाजा बिल्डिंग को कब्जे में ले लिया था। दूसरी में एक लातिन अमेरिकी तानाशाह को छुड़वाने की कोशिश हुई। तीसरी फिल्म में फिर जर्मन कनेक्शन था और चौथी में एक अमेरिकी ही साइबर आतंकी बनकर उभरा। इस फिल्म में दुश्मन हैं रूसी। लेकिन यहां उनके मुल्क में जाकर हीरो बनने के चक्कर में चर्नोबिल विभीषिका का एंगल घुसाया गया है। दिखाया जाता है कि यूरी और मिनिस्टर के यूरेनियम साइड रैकेट से ये हादसा हुआ। ये अमेरिकी एंटरटेनमेंट का दावा है जबकि चर्नोबिल नरसंहार और भोपाल गैस त्रासदी की तमाम तथ्यपरक चीजें पब्लिक स्पेस में उपलब्ध हैं... वो फैक्ट इतने नाटकीय और सीधे नहीं हैं जितना यहां फिल्म बना देती है। जॉन और जैक चर्नोबिल की इमारत के अवशेष देख बात करते हैं, “ये तुम्हें किसकी याद दिलाता है?”, “नेवार्क”, …नेवार्क दरअसल अमेरिका में परमाणु संयंत्र का एक केंद्र है... क्या डायरेक्टर जॉन मूर कुछ कहना चाहते हैं यहां?

यहां रूसी-अमेरिकी वाले फंडे को देख ये सवाल भी उठता है कि हमेशा मैक्लेन जैसे अमेरिकी नायक ही क्यों हीरो हो जाते हैं?

इसमें उल्टा भी तो हो सकता है...

हो सकता है किसी रूसी का बेटा वहां की गुप्तचर संस्था केजीबी की ओर से काम करे और किसी अमेरिकी यूरेनियम वैज्ञानिक को अमेरिका से हिफाजत सहित बाहर निकालने की बात कहे और शर्त रखे कोई फाइल मांगने की। उसके इस मिशन के बीच उसका रूसी पिता आ जाए जो वहां के पुलिस विभाग का बड़ा काबिल अधिकारी रहा है, एटिट्यूड वाला है। वह अलग-अलग मौकों पर रूस में अपना हीरोइज्म साबित कर चुका है। अब वह अपने बेटे के साथ वक्त बिताना चाहता है, उन दिनों की भरपाई करना चाहता है जब वह काम की वजह से उसके साथ वक्त न बिता सका। पर यहां मामला उल्टा पड़ जाए। कोई साजिश निकल आए। अब वो अमेरिका की सड़कों पर स्टंट करते गाड़ियां दौड़ा रहे हैं। फिल्म के आखिर में वो लोग हिफाजत के साथ रूस आ जाते हैं और अमेरिका में बड़े बम-वम फोड़ आते हैं। हमें ये कहानी हजम क्यों नहीं हो सकती?

या फिर बॉर्डर फिल्म का वो संवाद जहां पाकिस्तानी फौजी अधिकारी भारतीय को ललकारते हुए कहता है, “कुलदीप सिंह, तेरी मौत दे फरिश्ते तेरे दरवाजे ते खड़े ने, या ते अपने बंदेयां समेत सिर ते हाथ रखकर बाहर आ जा, या ते फिर अपनी अंतिम अरदास पढ़ लै।” जवाब में मेजर कुलदीप सिंह कहता है, “ओए तू गुलाम दस्तगीर है ना, लाहौर दा मशहूर गुंडा, गंदे नाले दी पैदाइश। ऐ तां वक्त ही दस्सेगा कि मेरी अंतिम अरदास हुंदी है या फिर तेरा इल्लाह पढ़ेया जांदा है। हुण तू इक कदम वी बाहर निकल्या तां मैं तैनूं उसी गंदे नाले विच मार सुट्यांगा जित्थों तू आया सी।” ये संवाद हमें उल्टा क्यों नहीं हजम हो सकता? जहां पाकिस्तानी अधिकारी किसी भारतीय किरदार को मेरठ के चौराहे का गुंडा बोल दे। क्यों कोई पाकिस्तानी सैनिक हीरो नहीं हो सकता? उसका हीरोइज्म कम क्यों है? कोई सनी देओल पंप उखाड़ अपनी सकीना को सरहद पार ले आता है, ऐसा कोई पाकिस्तानी करे तो, किसी दिव्या पांडे को पाकिस्तान ले जाए तो।

क्यों हीरो हमेशा जनता की नजरों में एक ही तरह के होते हैं? और क्यों दुश्मन भी एक ही तरह के? ये मनोरंजन का दरअसल सूत्र बन चुका है। तय सूत्र। जैसे अमेरिकी कहानियों में विलेन एक ही तरह के होने लगे हैं। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में नक्सली और जूलियन असांजे जैसे अपराधी हैं, वही सीआईए जब पाकिस्तान में जाकर ओसामा के खिलाफ बड़ा ऑपरेशन कर आता है तो अमेरिकी बुरे नहीं बनते। उनकी इमारतों में दो प्लेन घुस गए तो वो नाराज हो गए। उन्होंने अपने यहां की हथियार कंपनियों के अरबों डॉलर का आयुध अफगानिस्तान-ईराक में उड़ेल दिया तो जवाबी प्रतिक्रिया में उन मुल्कों के लोगों को भी तो अमेरिका आकर अपना हीरोइज्म दिखाने दो! असल में न सही, मनोरंजन में ही सही। जिसका गन्ना उसकी गंडेरी वाली बात भी तो नहीं है न यहां। यहां जिसकी लाठी उसकी भैंस है और सारे बड़े लट्ठ धन्ना सेठ अमेरिका के पास हैं।

इस लिहाज से अभी तक सिर्फ जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ में और नील ब्लूमकांप की ‘डिस्ट्रिक्ट-9’ में ही कुछ नयापन दिखा है। ‘अवतार’ में नक्सली या आदिवासी प्रतिरोध का समर्थन दिखता है। मूल निवासियों की निजता और रिहाइश में सेंध न लगाने का संदेश मिलता है। अन्यथा कुछ नहीं है। कैथरीन बिगलो ने भी ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी जेल शिविरों में दी जाने वाली यंत्रणा की आंशिक तस्वीर ‘जीरो डार्क थर्टी’ में दिखाई है, वह भी हदों में रहते हुए।

जॉन मैक्लेन तो यहां खुले तौर पर अपने बेटे से कहता है, “लेट्स किल सम...”

वैसे ये क्या बात हुई? ऐसे कैसे, किल सम...? 

A Good Day to Die Hard/Die Hard-5 is the fifth from the series which began in 1988. The central character of the movie, a New York City police detective John McClane (Bruce Willis), this time goes to Moscow to find and help his wayward son Jack (Jai Courtney). John doesn't know that his son is a CIA operative and is on a mission there. Russian underworld is pursuing him and a nuclear weapons heist is coming their way. Director of the movie is John Moore, whose 'Flight of the Phoenix' I liked when I saw first.
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Wednesday, February 27, 2013

फालके की कालिया मर्दन जंग लगे केन में पड़ी मिट्टी हो जाती, पी. के. नायर ने जोड़ी, सहेजीः शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर

हमारे वक्त की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक सेल्युलॉयड मैन के निर्देशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर से बातचीत, उनकी डॉक्युमेंट्री भारत में फिल्म संरक्षण के पितामह पी. के. नायर के बारे में है


सन् 1912 में मानसून के बाद बंबई के दादर इलाके में ‘राजा हरिश्चंद्र’ की शूटिंग शुरू हुई। ‘मोहिनी भस्मासुर’ 1914 में प्रदर्शित की गई। उनकी तीसरी फिल्म ‘सावित्री-सत्यवान’ थी। ‘लंका दहन’ सन् 1917 में बनकर तैयार हुई। हनुमान की समुद्र पर उड़ान इस फिल्म का मुख्य आकर्षण थी। हनुमान उड़ता हुआ आकाश में पहले बहुत ऊंचाई तक जाता है और फिर धीरे-धीरे छोटा-छोटा होता जाता है। ‘कृष्ण जन्म’ और ‘कालियामर्दन’ दोनों ही फिल्मों में कृष्ण की भूमिका फालके की बेटी मंदाकिनी ने की थी जो उस समय सात वर्ष की थी। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि ‘कालियामर्दन’ में नाग के फन से नदी में कूदते समय मंदाकिनी साहस नहीं कर पाती थीं लेकिन फालके निर्भीकतापूर्वक उसका साहस बढ़ाते रहते थे। फालके की रुचि सिनेमा के रचनात्मक पक्ष में थी। इन कथा फिल्मों के साथ-साथ वे लघु फिल्में भी बनाया करते थे। ‘लंका दहन’ के समय उन्होंने एक लघु हास्य फिल्म ‘पीठाचे पंजे’ बना कर मूल कथा फिल्म के साथ प्रदर्शित की थी। ‘लक्ष्मी का गलीचा’ में उन्होंने ट्रिक फोटोग्राफी और मनोरंजक तरीके से सिक्के तैयार करने की विधि बतायी थी। ‘माचिस की तीलियों के खेल’ में माचिस की तीलियों से बनने वाली विभिन्न आकृतियां दर्शायी गयी थीं। ‘प्रोफेसर केलफा के जादुई चमत्कार’ में फालके ने स्वयं जादूगर का अभिनय किया था। सन 1918 में ही उन्होंने ‘फिल्में कैसे बनायें’ जैसी शिक्षाप्रद फिल्म बनाई थी।

... सोलह फरवरी सन् 1944 को जब दादा साहब फालके का नासिक में देहान्त हुआ, तब तक लोग भारतीय सिनेमा के इस पितामह को भूल चुके थे। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उन्होंने गुमनामी और अकेलेपन में बिताये। वर्षों बाद जब कुछ शोधार्थी नासिक पहुंचे तो वहां उन्हें फालके के घर से फिल्मों के जंग खाये डिब्बे मिले। बहुत सी फिल्में मिट्टी हो चुकी थीं। फालके की फिल्मों के इन टुकड़ों को जोड़कर राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ने एक कार्यक्रम तैयार किया।

मनमोहन चड्ढा की 1990 में आई किताब ‘हिंदी सिनेमा का इतिहास’ में धुंडिराज गोविंद फालके का अध्याय जहां खत्म होता है, हमारी कहानी वहां से शुरू होती है। कहानी पी. के. नायर की। नासिक से पहुंचे जिन शोधार्थियों ने फालके के घर उनकी फिल्मों के जंग खाये डिब्बों की सुध ली थी, वो नायर ही थे। राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के संस्थापक। वो नींव के पत्थर जिन्हें सिनेमा के कद्रदानों के बीच लगभग न के बराबर जाना जाता है। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दशकों में बनी दुर्लभ 1700 फिल्में नष्ट हो गईं और उनमें से 9-10 संरक्षित की गईं तो नायर की बदौलत। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (1913), कालिया मर्दन (1919), अछूत कन्या (1936), जीवन नैया (1936), कंगन (1939), बंधन (1940), किस्मत (1943), कल्पना (1948) और चंद्रलेखा (1949) को आने वाली भारतीय सभ्यताओं के लिए बचाकर रखा है। फिल्म संरक्षण के अलावा भी उनका योगदान मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों और कलाकारों तक रहा। रिलीज के दस साल बाद दिलीप कुमार को पहली बार ‘मुग़ल-ए-आज़म’ अभिलेखागार में से निकाल उन्होंने ही दिखाई थी। आशुतोष गोवारिकर नाम के युवक को अभिनय से निर्देशन में जाने की प्रेरणा देने वाले वही थे। बाद में आशुतोष ने ‘लगान’ और ‘जोधा अकबर’ बनाई। भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे (एफ.टी.आई.आई.) और राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय, पुणे (एन.एफ.ए.आई.) में आने-जाने वाले हजारों-हजार फिल्म निर्माण विधा से जुड़े लोगों की जिंदगी का वह हिस्सा रहे हैं। लेकिन पी. के. नायर ने न तो कभी सुर्खियों में आने की कोशिश की, न अपने किए का श्रेय लेने के लिए हाथ-पैर मारे और न ही ये मुल्क इस लायक था कि उन्हें वो इज्जत दे सके। जिन्होंने दादा साहब फालके का खोया ‘भारतीय सिनेमा के पितामह’ होने का गौरव उनकी विलुप्ति के कगार पर खड़ी फिल्मों को बचाकर लौटाया, उन्हीं नायर को अभी तक फालके सम्मान नहीं मिला है। मगर ऐसा लगता है कि अब हमारी तमाम गलतियां सुधरेंगी।
P. K. Nair at his residence in Thiruvananthapuram, Kerala. Photo: Shivendra Singh Dungarpur
 
मुंबई और डूंगरपुर स्थित फिल्मकार शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने अपने एफ.टी.आई.आई. दिनों के श्रद्धेय व्यक्तित्व नायर साहब पर बीते साल एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई है। उनकी फिल्म ‘सेल्युलॉयड मैन’ नायर के योगदान के अलावा भारत में फिल्म संरक्षण पर बात करती है। बनने के वक्त से ही ये फिल्म दुनिया भर के तमाम विशेष अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है और अभी भी आमंत्रण आ रहे हैं। शिवेंद्र के बारे में बात करें तो वह पहले गुलज़ार की कुछ फिल्मों में उनके सहयोगी रहे और फिर फिल्ममेकिंग की पढ़ाई की। उसके बाद इत्तेफाक (संभावित शीर्षक) फिल्म का निर्देशन शुरू किया जिसमें संजय कपूर, चंद्रचूड़ सिंह, रानी मुखर्जी और करिश्मा कपूर की मुख्य भूमिकाएं थीं। फिल्म पूरी न हो पाई और बाद में वह विज्ञापन फिल्में बनाने लगे। देश के प्रभावी विज्ञापन फिल्मकारों में वह शुमार हुए। बीच में वह ‘गुरुदत्त’ शीर्षक से बायोपिक बनाने वाले थे लेकिन उस पर काम शुरू नहीं हुआ। शिवेंद्र खुद भी लगातार विश्व सिनेमा के संरक्षण में लगे हुए हैं। अल्फ्रेड हिचकॉक की एक फिल्म के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने आर्थिक सहयोग किया था। मार्टिन स्कॉरसेजी को उन्होंने उदय शंकर की दुर्लभ फिल्म ‘कल्पना’ ले जाकर दी, जब मार्टिन को फिल्म मिल नहीं रही थी। शिवेंद्र लगातार विश्व का भ्रमण कर रहे हैं और दुनिया के अलग-अलग मुल्कों के दिग्गज फिल्म निर्देशकों और सिनेमैटोग्राफर्स से वीडियो साक्षात्कार कर रहे हैं। वह अब तक पॉलैंड के आंद्रे वाइदा (Andrzej Wajda), क्रिस्ताफ जेनोसी (Krzysztof Zanussi), वितोल सोबोचिंस्की (Witold Sobociński), येज़े वोइचिक (Jerzy Wójcik), हंगरी के इज़्तवान साबो (István Szabó), मीक्लोश इयांचो (Miklós Jancsó), पुर्तगाल के मेनुवल जॉलिवइरा (Manoel de Oliveira), स्लोवाकिया के यूराई हेरेस (Juraj Herz), चेक रिपब्लिक के यानी निमेच (Jan Němec), यीरी मेंजल (Jiří Menzel), यारोमीर शोफर (Jaromír Šofr), वीरा ख़ित्येरोवा (Věra Chytilová) और फ्रांस के राउल कूतार्द (Raoul Coutard) से मिल चुके हैं और उनके लंबे इंटरव्यू कर चुके हैं। निजी तौर पर अभी के दिनों में मैंने सिनेमा जगत में इससे उत्साहजनक बात नहीं जानी है। यीरी मेंजल पर तो शिवेंद्र फिल्म भी बना रहे हैं जो जल्द ही हमारे सामने आ सकती है।

तो ‘सेल्युलॉयड मैन’ के सिलसिले में मेरी शिवेंद्र सिंह से बातचीत हुई।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को लेकर कैसी प्रतिक्रियाएं आईं हैं?
अब तक 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है, कुछ और में जाने वाली है, इस तरह कोई 22-25 फेस्टिवल हो जाएंगे। किसी भी भारतीय डॉक्युमेंट्री फिल्म के लिए ये एक रिकॉर्ड होगा। शाजी करुण की ‘पिरवी’ और सत्यजीत रे की ‘पथेर पांचाली’ ही ऐसी फिल्में थीं जिन्हें सबसे ज्यादा फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया गया। उनके बाद ‘सेल्युलॉयड मैन’ ही है। इसका श्रेय नायर साहब को जाता है। पूरे हिंदुस्तान में प्रिजर्वेशन (फिल्म संरक्षण) का माहौल उभरकर आ रहा है। लोगों में जागरुकता आ रही है। मैंने उम्मीद नहीं की थी कि इतना होगा। आर्काइव्स में हमारी इतनी फिल्में हैं जो यूं ही पड़ी हैं, कोई देखभाल नहीं कर रहा है। मैंने सोचा था कि थोड़ा-बहुत शूट करके कुछ करूंगा। करते-करते तीन साल बीत गए। बिल्कुल नहीं सोचकर चला था कि इतना रिस्पॉन्स आएगा। इतना भारी रिस्पॉन्स कि कुछ ऐसे समारोहों में गई है जहां बहुत ही मुश्किल है जाना। जैसे टेलेराइड जो कोलोराडो में है, वो बहुत ही सलेक्टिव हैं, हॉलीवुड का गढ़ है, वहां बड़ी-बडी हॉलीवुड फिल्में होती हैं, स्टार होते हैं, वहां घुसना बड़ा मुश्किल है, पर उन्होंने चुना। मैं आभारी हूं उनका कि उन्होंने हमें जगह दी और दो-तीन स्क्रीनिंग कराई, अकेडमी (ऑस्कर्स) को दिखाई। फिल्म यूरोप के कई देशों में भी गई है, भारत में हर फिल्म फेस्टिवल में लगी है।

Shivendra at the Il Cinema Ritrovato, Bologna.
सिनेमाघरों में कब तक लाएंगे?
मार्च का सोचा था लेकिन मैं चाहता हूं कि रिलीज ढंग से हो। ये नहीं चाहता हूं कि ऐसी जगह रिलीज हो जाए जहां लोग जाने तक नहीं। इसमें सरकार का भी योगदान चाहता हूं। चूंकि ये एक एजुकेशनल फिल्म है इसलिए पैसे कमाने से ज्यादा जरूरी ये है कि लोगों तक पहुंचे। फ्री होनी चाहिए या इतने कम पैसे की टिकट हो कि लोग बिल्कुल आकर देखें और फिल्म में नायर साहब की बातों का ज्ञान लें। खुद की फिल्म संस्कृति को हम कैसे बचाएं और आगे वाली पीढ़ी के सुपुर्द करें, ये बात है। रिलीज जरूर होगी पर मेरी चिंता यही है कि टिकट की कीमत कम हो, जिनसे भी बात कर रहा हूं ये बात सामने रख रहा हूं। नहीं तो आप उसे मल्टीप्लेक्स में कंपीट करवा रहे हैं और कोई एजुकेशनल फिल्म देखने के लिए पांच सौ रुपये नहीं देगा। आम या आर्थिक तौर पर असमर्थ लोग भी देखना चाहेंगे तो ऐसी फिल्मों में टिकट न्यूनतम कीमत वाली होनी चाहिए।

राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना पी. के. नायर ने की…
हां, एन.एफ.ए.आई. की स्थापना उन्होंने अकेले ही की, और कोई था नहीं उसके साथ। उस वक्त का जमाना अलग था, नेहरुवियन पीरियड था। वो अच्छे विचारों के इंसान थे, कला और कलाकारों के लिए उन्होंने दिल्ली में काफी कुछ किया। मिसेज गांधी भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं तो उन्होंने भी काफी योगदान दिया। ये आर्काइव उसी वक्त खुला जब उन्हें लगा कि हमें एक आर्काइव खोलना है। मेरे ख्याल से नायर साहब ये कर पाए क्योंकि उस वक्त ये लोग उनके साथ थे, सहयोग था। आज के माहौल में अलग बात है। आज सबकुछ होने के बाद भी सरकार का ध्यान इस और नहीं जा रहा।

दादा साहब फालके को फादर ऑफ इंडियन सिनेमा कहा जाता है, इसमें नायर का कैसा योगदान रहा?
बहुत बड़ा योगदान था। नायर साहब नासिक गए, फालके के परिवार से मिले, उनकी यूं ही पड़ीं फिल्में उठाईं और सहेजीं। उनकी एक फिल्म कालिया मर्दन (1919) की फुटेज टुकड़ों में पड़ी थी। पी. के. नायर ने फालके के हाथ से लिखे डायरी नोट्स के आधार पर फिल्म को नए सिरे से जोड़ा। उन्होंने फालके के बड़े बेटे से पूछा, उनकी बेटी मंदाकिनी जिन्होंने कालिया मर्दन में काम किया था उनसे पूछा। इस तरह ये फिल्म बची। बाद में उसे मुंबई में 1970 में हुए फालके सेंटेनरी सेलिब्रेशन में दिखाया गया। 1982 में उसे लंदन के एन. एफ. टी. फेस्टिवल में भारतीय हिस्से के तौर पर दिखाया गया। बाद में एविग्नां, फ्रांस में हुए साइलेंट फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। गुलज़ार साहब ने ‘सेल्युलॉयड मैन’ में कहा है कि अगर हम फालके के बारे में आज कुछ भी जानते हैं, वो नहीं जान पाते अगर नायर साहब नहीं होते। हम फालके के बारे में सिर्फ सुनते लेकिन उनकी फिल्म नहीं देख पाते। नायर साहब की बदौलत हम फालके को आज देख पा रहे हैं। वो हर जगह जाकर खुद फिल्में इकट्ठा करते थे, क्लीन करते थे, कैटेलॉगिंग करते थे और आर्काइव में रखते थे।

एक हिला देने वाला आंकड़ा है कि 1700 मूक (साइलेंट) फिल्में भारत में बनीं और बची हैं सिर्फ 9 से 10। इतनी भी बची हुई हैं सिर्फ नायर साहब की वजह से। नहीं तो पहले ही खत्म हो जाता है। आर्काइव खुला 1964 में और हमारी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनी 1913 में यानी उससे पहले 50 साल तो सब खत्म हो चुका था। 50 साल तक तो कोई संरक्षण हुआ ही नहीं। ये बहुत बड़ा वक्त होता है। और फिर फिल्में भी बदल रहीं थीं, साउंड आ गया था।

मैं विदेश जाता हूं तो लोग हैरान हो जाते हैं सुनकर। आप देखिए स्वीडिश फिल्म आर्काइव की वेबसाइट क्या कहती है। उनकी सिर्फ चार फिल्म मिसिंग है, बाकी आज तक के उनके इतिहास में बनी तमाम साइलेंट फिल्में उनके पास सुरक्षित हैं। चार भी वो गायब हैं जो प्रोड्यूसर्स ने दी नहीं हैं या कोई दूसरा चक्कर है। कभी-कभी तो मैं इतना हैरान हो जाता हूं कि हिंदुस्तान की संस्कृति और परंपरा जो इतनी प्राचीन है उसे बचाने का कष्ट हमने कभी किया ही नहीं। नायर साहब अकेले इंसान कितना कर सकते हैं वो भी ऐसे हिंदुस्तान में जहां हर साल हजार फिल्में बनती हैं और हर इंसान को राजी करना, हर इंसान से बात करना कि आप आर्काइव में फिल्म देने के बारे में सोचिए, आप ही की चीज सहेजी जाएगी लेकिन हर सामने वाला सोचता है कि इनसे मैं कितना पैसा निकाल पाऊं।

आपका बचपन कहां बीता? कैसा बीता? आसपास कैसी फिल्में रहीं? फिर फिल्मकारी में कैसे आए?
मैं डूंगरपुर, राजस्थान का रहने वाला हूं। राजपरिवार (पूर्व) से हूं। राजपरिवार से होने का एक फायदा ये हुआ कि मुझमें प्रिजर्वेशन की परंपरा आई। डूंगरपुर का हाउस सबसे पुराने रॉयल ठिकाणों में से है। हम लोग सब सिसोदिया हैं और चित्तौड़ से हैं। हम ओल्डर ब्रांच हैं उदयपुर से। अरविंद सिंह मेवाड़ मुझे काका बोलते हैं। हमारा परिवार सिसोदिया खानदान में हेड ब्रांच है। हमारा जो पैलेस है जूना महल वो 800-900 साल पुराना है इसलिए हम लोग जानते थे कि हिस्ट्री कितनी जरूरी है, प्रिजर्वेशन कितना जरूरी है। मेरी मां डुमरांव (बिहार) स्टेट से हैं जहां से बिस्मिल्लाह खान थे, वह वहां कोर्ट म्यूजिशियन थे, बाद में उनका परिवार बनारस चला गया था। डुमरांव बक्सर से जरा पहले पड़ता है। पटना में दो सबसे बड़े स्टेट हुआ करते थे। एक था दरभंगा और दूसरा डुमरांव। बहुत बड़ी जमींदारी थी। मेरी पैदाइश पटना में हुई क्योंकि मैं अपने पिता का पहला बच्चा था। मेरे पिता समर सिंह जी आईएएस थे, एनवायर्नमेंट मिनिस्ट्री में थे, वहीं से रिटायर भी हुए। मैं पटना में जन्मा इसलिए अपनी नानी के पास डुमरांव में काफी वक्त बिताया। वह नेपाल से थीं। तब राजपरिवार की काफी शादियां नेपाल में होती थीं। मेरी फर्स्ट कजिन सिस्टर राजमाता साहब (पूर्व) जैसलमेर हैं और महारानी ऑफ कश्मीर भी उनकी फर्स्ट कजिन हैं।

मेरी नानी बहुत शौकीन थीं फिल्मों की। वह मुझे अकसर सिनेमाहॉल ले जाती थीं और पूरा सिनेमाहॉल बुक करवाती थीं। तो मेरे ख्याल से मेरा लगाव फिल्मों से उस तरह हुआ। डूंगरपुर में हालांकि मेरा बचपन बीता मगर वो इतने शौकीन नहीं थे, थोड़ी-बहुत इंग्लिश फिल्में देखते थे, लेकिन डुमरांव का परिवार बहुत जुड़ा हुआ था। मुझ पर नानी का बहुत असर था। उनकी वजह से मैंने फिल्में देखीं। जैसे ‘पाकीजा’ मीना कुमारी की और कई ऐसी फिल्में। मैं जब शिक्षा प्राप्त करने दून बोर्डिंग स्कूल गया तो वहां मैंने ठान लिया कि मैं फिल्मों में डायरेक्टर के तौर पर जुडूंगा। वहां चंद्रचूड़ सिंह (एक्टर) मेरे क्लासमेट थे। उन्होंने ठान लिया था कि वह एक्टर बनेंगे और मैंने ठान लिया था कि मैं डायरेक्टर बनूंगा। इन्हीं भावनाओं के साथ हम वहां से निकले। मैंने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज से हिस्ट्री में ऑनर्स किया, उन्होंने भी। हम साथ ही बॉम्बे आए। काफी दबाव था डूंगरपुर परिवार से। वो चाहते नहीं थे कि मैं फिल्मों से जुड़ूं। मेरे ग्रैंड अंकल डॉ. नागेंद्र सिंह इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (हेग) के अध्यक्ष थे और वह चाहते थे कि मैं ऑक्सफोर्ड जाऊं जैसे मेरे दादा गए और मेरे परिवार के बाकी सदस्य गए। डूंगरपुर का परिवार शिक्षा के मामले में काफी आगे था। ...लेकिन मेरे सबसे बड़े सपोर्ट मेरे काकोसा थे राज सिंह डूंगरपुर (क्रिकेटर)। वो एक ऐसी पर्सनैलिटी थे कि उनके जैसी पर्सनैलिटी मैंने देखी नहीं है कहीं। उन्होंने मुझे बेटे की तरह रखा। मैं बॉम्बे उनके पास आया, वहां गुलजार साहब को असिस्ट करना शुरू किया। उनके पास रहकर मुझे इतनी शक्ति मिली कि ठान लिया इसी लाइन में कुछ करूंगा। गुलज़ार साहब के साथ मैंने ‘लेकिन’ में काम किया। एक थोड़ी अधूरी फिल्म थी ‘लिबास’ और कई डॉक्युमेंट्रीज पर काम करते हुए भी मैं उनके साथ ही रहा। वह मेरे गुरु हैं। उन्होंने सोचा कि मुझे फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफ.टी.आई.आई.) जाना चाहिए जहां मैं और बेहतर शिक्षा प्राप्त कर सकूं। लेकिन उस वक्त मैंने अपने पिता के कहने पर लॉ कॉलेज जॉइन कर लिया था। मैं मुंबई की डी रोड़ पर रहता था, वह वानखेड़े स्टेडियम के ठीक सामने है। राज सिंह जी ने अपना घर हमेशा क्रिकेट स्टेडियम के पास ही रखा था क्योंकि क्रिकेट से ज्यादा उनको कुछ सूझता नहीं था। मेरा लॉ कॉलेज ए रोड़ पर था। मैं सुबह जाता था, क्लास करता था और गुलज़ार साहब के पास चला जाता था लेकिन उन्होंने ठान लिया और आदेश कर दिया था कि आप एफ.टी.आई.आई. जाइए। मैंने आवेदन किया, वहां का एडमिशन प्रोसेस काफी मुश्किल था, एंट्रेंस था, इंटरव्यू थे और सीट सिर्फ छह थीं लेकिन मुझे वहां पर एक स्थान मिल गया। तीन साल यानी 1994 की शुरुआत तक मैं वहां पढ़ता रहा।

वहां से आने के बाद मुझे एक फिल्म डायरेक्ट करने का मौका मिला जिसमें संजय कपूर और रानी मुखर्जी थे। रानी मुखर्जी बिल्कुल नईं थी उस वक्त, उनकी फिल्म रिलीज हो रही थी, मैं उनको कंप्यूटर क्लास में मिलने गया था। चंद्रचूड़ सिंह ने कहा था कि “मेरी क्लास में एक लड़की पढ़ती है, उसका नाम रानी मुखर्जी है और वह काजोल की बहन लगती है और उसको देखिए वो हीरोइन के लिए बहुत जंचेगी।” तो हम उसको मिलने गए। काफी बड़ी कास्ट थी। हमने ए. आर. रहमान को लिया। रहमान उस वक्त काफी नए थे, कोई भी साइन करने को तैयार नहीं था उन्हें। लोग कह रहे थे कि इल्याराजा फ्लॉप हो गए तो रहमान क्या चीज हैं। खैर, उस माहौल में मैंने पिक्चर शुरू की। 40 फीसदी फिल्म बनकर तैयार हुई। फिल्म के प्रोड्यूसर थे मिलन जवेरी, उन्हें पैसा आ रहा था टिप्स से। उस वक्त क्या हुआ कि टिप्स वालों पर गुलशन कुमार मर्डर केस में शामिल होने के आरोप लगे। फिल्म बंद हो गई। और एक-दो पिक्चर जो मैंने साइन की थीं वो भी बंद हो गईं। ये ऐसा वक्त था जब कोई फिल्म पूरी नहीं होती या अटक जाती तो उसे शुभ नहीं मानते थे। अभी दौर बदल चुका है, इंडस्ट्री बदल चुकी है। उस वक्त पुराने यकीनों में लोग चलते थे। उसके बाद काफी स्ट्रगल रहा मेरा। आप विश्वास करिए मुझ पर घर से इतना दबाव पड़ा... उन्होंने कहा कि “तुम ये फिल्म लाइन छोड़ दो, ये क्या है, बकवास है, तुम डूंगरपुर के परिवार से हो, परंपरा से हो, परिवार में पहले कभी किसी ने ऐसा काम नहीं किया है” और बहुत दबाव पड़ा। मेरी मां का मेरे साथ आशीर्वाद था। उन्होंने कहा कि “तुम जो करना चाहो करते रहो।” 1995 से 2001 तक मेरा स्ट्रगल चलता रहा, छह साल स्ट्रगल चला। मैं स्टेशनों पर खाता था खाना। उसी तरह रहता था जैसे कोई स्ट्रगलर रह रहा हो। राजपरिवार से होने का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा। फिर विज्ञापन आए। किसी ने मुझे एड फिल्म ऑफर की और वो दौर आज तक चल रहा है। मैंने स्थापना की डूंगरपुर फिल्म्स की 2001 में। विज्ञापन फिल्म एक के बाद एक करने लगा और बहुत कामयाबी मिली। इतनी कामयाबी मिली कि हम दिल्ली में सबसे बड़े प्रोडक्शन हाउसेज में से बन गए। चार सौ कमर्शियल कर चुका हूं अभी तक लेकिन ध्यान हमेशा फिल्मों में था। विज्ञापन फिल्मों में मैंने बहुत कामयाबी हासिल की लेकिन प्यार फिल्मों से ही था। फिल्मों के लिए ही आया था, फिल्मों के लिए ही जी रहा था। राज सिंह जी ने मुझसे एक बात कही थी कि “तुम इस लाइन को तभी जॉइन करो जब उससे उतना ही प्रेम करो जितना मैं क्रिकेट से करता हूं” मैं उनकी वो बातें आज भी नहीं भूला हूं। उन्होंने मुझे ये पहली शिक्षा दी थी और आज भी मैं फिल्मों से ही जुड़ा हुआ हूं। मेरी जिंदगी फिल्म है, सुबह से शाम मैं फिल्में ही सोचता हूं। फिर एक मौका मिला मुझे फिल्म संरक्षण में घुसने का।

एक दिन मार्टिन स्कॉरसेजी का इंटरव्यू पढ़ा मैंने कि बलोना (इटली) में फिल्म प्रिजर्व होती है। मैं वहां का फेस्टिवल देखने चला गया जो जून-जुलाई में होता है इल सिनेमा रित्रोवातो (Il Cinema Ritrovato)। वहां पुरानी फिल्मों को वो रेस्टोर करके दिखाते हैं। उस दौरान मैंने सोचा कि यार हिंदुस्तान में तो इतना खजाना है, उन फिल्मों का क्या होगा। एफ.टी.आई.आई. में नायर साहब का प्रभाव इतना ज्यादा था कि उनसे डरते थे हम लेकिन पर्सनल लेवल पर मैं नहीं जानता था। तो मैंने दोस्तों के साथ मिलकर सोचा कि जाकर नायर साहब से मिला जाए। तब मार्टिन स्कॉरसेजी को ‘कल्पना’ फिल्म की जरूरत थी इंडिया से और वो ट्राई करके बैठ चुके थे, जाहिर है इंडिया में जो सरकारी पॉलिसी है, वह उनकी मदद नहीं कर पाई। मैंने कहा कि मैं आपको ‘कल्पना’ लाकर देता हूं। मैं आर्काइव्स के चक्कर काटता रहा और उन्हें मनाने में बहुत महीने लग गए। मुझे पता था कि ये एक बेहतरीन फिल्म है, इसे उदय शंकर ने बनाया था। बीच में मैंने और अनुराग कश्यप ने मिलकर एक फिल्म लिखी थी गुरुदत्त पर और मैं यूटीवी के लिए उसे डायरेक्ट करने वाला था। उस वक्त ‘कल्पना’ पर हमारी नजर पड़ी। वो इसलिए क्योंकि उदय शंकर का एक स्कूल हुआ करता था अल्मोड़ा में, जिसमें गुरुदत्त पढ़ते थे और गुरुदत्त ने ‘कल्पना’ को टाइप किया था। तो हमने वो फिल्म देखी थी। क्या कमाल फिल्म थी। जब उसे लेने आर्काइव गए तो मेरी नजर पड़ी, मुझे लगा कि नायर साहब पर कुछ करना चाहिए। वहां से मैंने ‘सेल्युलॉयड मैन’ बनानी शुरू की। ‘कल्पना’ भी तब पुनर्जीवित हुई और मेरा पूरा दौर चला रेस्टोरेशन और प्रिजर्वेशन का। मैं अभी अपना फाउंडेशन खोल रहा हूं जिसमें हम सहेजेंगे और संरक्षित करेंगे। मैंने पूरी फिल्म फिल्म स्टॉक पर शूट की है। मेरा मानना था कि नायर साहब अगर फिल्में इकट्ठा कर रहे हैं और फिल्म केन इकट्ठा कर रहे हैं तो उन पर बनने वाली फिल्म भी फिल्म यानी रील पर ही होनी चाहिए।

नानी मां ने और कौन सी फिल्में दिखाईं? और किसने दिखाई? वो दिन कैसे थे? बाद में क्या पड़ाव आते रहे फिल्म देखने के अनुभवों में?
‘पाकीजा’ का गाना “इन्हीं लोगों ने...” आज भी कहीं चलता है तो मुझे नानी की याद आ जाती है। राज कपूर की ‘श्री 420’ का गाना “रमैया वस्ता वैय्या...” याद है। बिमल रॉय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ देखी थी मैंने। ये कुछ ऐसी फिल्में और फिल्ममेकर थे जिनके गाने सुनते रहते थे हम लोग। मेरे ग्रैंडफादर चार्ली चैपलिन, लॉरेल हार्डी और जॉन फोर्ड की अमेरिकी वेस्टर्नर्स और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में देखते थे। उनके साथ मैंने भी देखी। हमारे यहां डुमरांव में उनका खुद का प्रोजेक्शनिस्ट था, प्रोजेक्टर था तो वो अकसर 16 एमएम फिल्में कैलकटा से लाकर दिखाते थे। ये रोज का होता था। फैमिली की जो रोजाना फिल्में शूट होती थीं वो भी देखते थे। थियेटर में जाकर दो-दो शो देखते थे। कभी पटना में देखते थे कभी डुमरांव में, जहां एक शीला टॉकीज होता था। नानी पूरा शीला टॉकीज बुक करती थीं, वो नीचे बैठती थीं और मैं भी नीचे उनके साथ स्टॉल में बैठता था। मेरे पिता भोपाल में पोस्टेड थे और मैं बहुत मुश्किल से उन्हें मना पाता था। जब मैं चार-पांच साल का था तब ‘शोले’ लगी थी और मुझे वो देखनी थी। पर मुझे याद है उन्होंने मना कर दिया था कि आप नहीं जाएंगे और मैं पूरे दिन रो रहा था। फिर अगले दिन मां ने कहा कि ठीक है इसे जाने दो ‘शोले’ देखने के लिए। मैं बच्चन साहब का बहुत बड़ा फैन था और मेरी दोस्ती चंद्रचूड़ से उस कारण ही हुई। क्योंकि दून स्कूल में हम दोनों उनके दीवाने होते थे। हमारे पास एक डायरी थी जिसमें बच्चन साहब की फिल्मों के पूरे ब्यौरे लिखे होते थे। कार, क्रू, क्रेडिट्स सबकुछ। हम सेंट स्टीफंस में भी थे तो कई बार बात करते थे बच्चन साहब के ऊपर। हम लोग इस वजह से बहुत बार क्लास से बाहर निकाले गए। लेकिन लाइफ में गुलज़ार साहब के आने के बाद उन्होंने मुझे अलग किस्म की फिल्में दिखाईं। मैंने पहली बार ‘पथेर पांचाली’ देखी, सत्यजीत रे की। तब मुझे यकीन हुआ कि फिल्म एक आर्ट फॉर्म भी है और इसका पूरी दुनिया में कितना ज्यादा प्रभाव है। इस चीज ने मेरी मदद की। वहां नायर साहब ने दुनिया की नायाब फिल्में दिखाईं और भारतीय क्लासिक्स दिखाईं जो कमाल थी। उससे मुझे काफी ज्ञान प्राप्त हुआ। नायर साहब की फिल्मों की वजह से ही हम आज जो हैं वो हैं। शायद वो न होते तो हमारा वो विजन और फिल्ममेकर बनने की आकांक्षा नहीं आ पाती। तीन महत्वपूर्ण इंसान हैं मेरी जिंदगी में जो मेरे फिल्ममेकर बनने की वजह हैं। पहली मेरी नानी जिनका नाम महारानी ऊषारानी था। उन्होंने मेरा फिल्मों से लगाव लगाया। दूसरे हैं गुलज़ार साहब, वो गुरु हैं, उन्होंने मुझे दिशा दिखाई। और सबसे महत्वपूर्ण हैं नायर साहब जिन्होंने हमें बनाया और जिनकी वजह से हम हैं।

एफ.टी.आई.आई. में आपके बैचमेट कौन-कौन थे जो आज सफल हो गए हैं?
कैमरामैन काफी हैं। सुबीत चैटर्जी हैं जिन्होंने कई फिल्में शूट की हैं। ‘डोर’, ‘चक दे’, ‘गुजारिश’, ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’। संतोष ठुंडिल मेरे कैमरामैन थे जिन्होंने ‘कुछ कुछ होता है’, ‘पिंजर’, ‘कृष’ और ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्में कीं। डायरेक्शन में कोई इतना उभरकर नहीं आया है। प्रीतम (म्यूजिक डायरेक्टर) मुझसे दो साल जूनियर थे। रसूल पोकट्टी (साउंड मिक्सिंग का ऑस्कर जीते) मेरे से एक साल जूनियर थे।

याद वहां की कोई...
विजडम ट्री तो जिदंगी ही था। वहां बैठकर डिस्कस करते थे क्या फिल्म बनाने वाले हैं क्या नहीं बनाने वाले हैं। पूरी जिंदगी हमारी वहां गुजर गई।

आपने क्या डिप्लोमा फिल्म बनाई थी वहां?
डिप्लोमा फिल्म में इरफान थे पहले, बाद में राजपाल यादव भी थे, शैल चतुर्वेदी करके एक पोएट थे। ये सब थे। अलग फिल्म थी। एक आदमी खुद के प्रतिबिंब से डरता है, उसकी कहानी थी। उसे हमने एक शॉर्ट स्टोरी से लिया था। नाम फिलहाल जेहन में नहीं आ रहा।

एल्फ्रेड हिचकॉक की ‘द लॉजर: अ स्टोरी ऑफ द लंडन फॉग’ क्या आपने डोनेट की थी?
नहीं, मैंने कुछ पैसा दिया था उसे रेस्टोर करने के लिए। हुआ यूं कि मैं हिचकॉक का बहुत बड़ा फैन था। जब मुझे पता लगा कि बीएफआई यानी ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट को पैसा चाहिए उस फिल्म को रेस्टोर करने के लिए तो मैंने कहा कि मैं कुछ पैसा देना चाहूंगा इसके लिए।

उदय शंकर की ‘कल्पना’ (1948) का पुनरुत्थान कैसे हुआ? हाल ही में इसका कान फिल्म फेस्ट में प्रीमियर भी हुआ...
जी, वहां प्रतिक्रिया बहुत ही बेहतरीन रही। देखिए, ‘कल्पना’ इतनी जरूरी फिल्म है, ये अकेली ऐसी फिल्म है जो इतने डांस फॉर्म को एक-साथ फिल्म के रूप में लाती है जिन्हें उदय शंकर ने बनाया था। उनकी डांस एकेडमी में जोहरा सहगल स्टूडेंट रह चुकी हैं, उन्होंने पढ़ाया भी था वहां पर। उनकी डांस एकेडमी बहुत फेमस थी और उन्होंने बड़े इंट्रेस्टिंग और नाटकीय तरीकों से फिल्म को शूट किया था चेन्नई जाकर। जब मुझे पता चला कि ये फिल्म स्कॉरसेजी को चाहिए तो मैंने काम किया और कैसे न कैसे उन्हें लाकर दी। मुझे पता था कि एक बार ‘कल्पना’ रेस्टोर हो गई तो बाकी फिल्मों का भी दौर चालू हो जाएगा और भारत भी उस नक्शे पर आ जाएगा।

नायर साहब की बदौलत अथवा आपकी फिल्म के बाद जो भी प्रिजर्व हुआ है वो लौटकर लोगों तक कितना जा रहा है, या अभी उन्हें आर्काइव्ज में ही रखा जा रहा है?
अभी तक तो आर्काइव में ही रखा है। मैं अपना फाउंडेशन लॉन्च कर रहा हूं। उसका काम होगा फिल्मों को प्रिजर्व करेगी। उसके जरिए हम जितना सेव कर सकते हैं करेंगे, मदद कर सकते हैं करेंगे।

जब फिल्म नई-नई थियेटर में लगती है तो हम बड़ा जजमेंटल होकर देखते हैं, आलोचनात्मक होकर देखते हैं, उनके सामने एक किस्म की प्रतिरोधी शक्ति खड़ी कर देते हैं, लेकिन जैसे ही वो फिल्म कुछ सालों में हमारे नॉस्टेलजिया में जाकर कैद हो जाती है और फिर हमारे सामने आती है तो हम जरा भी जजमेंटल नहीं होते, वो हमारे लिए बस एक प्यार करने वाली, सेहजने वाली चीज बन जाती है। क्या इस सोच या परिदृश्य के बारे में आपने कभी सोचा है?
बहुत सोचा है, बहुत सोचा है। कई बार हम सोचते हैं कि हमें नहीं पता या हम नहीं जानते लेकिन ऐसा होता है कि वही फिल्म कुछ साल बाद जाकर क्रिटिकल तारीफ हासिल करती है। कई बार हम फिल्म को उस वक्त देखते हैं जब हालात कुछ और होते हैं, प्रस्तुतिकरण कुछ और होता है। बाद में देखते हैं तो उसका टाइम कुछ और होता है, फ्रेम ऑफ माइंड कुछ और होता है। कई बार फिल्म वक्त के साथ मैच्योर होती हैं। ये हमेशा रहा है। जब ‘शोले’ की ओपनिंग आई तो लोगों को पसंद नहीं आई, हफ्ते दो हफ्ते शायद कोई नहीं आया लेकिन बाद में माउथ टु माउथ पब्लिसिटी हुई और लोगों ने आकर देखा तो उन्हें कुछ नई चीज लगी।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को बनाने में कितना वक्त लगा और क्या ज्यादा सिनेमैटोग्राफर इस्तेमाल करने की वजह ये थी कि ज्यादा से ज्यादा अपना योगदान देना चाहते थे?
तीन साल लगे। ग्यारह सिनेमैटोग्राफर हैं और सभी इंडिया में टॉप के हैं। के. यू. मोहनन हैं जिन्होंने ‘तलाश’ शूट की, पी. एस. विनोद हैं जिन्होंने फराह खान की आखिरी फिल्म शूट की थी। संतोष ठुंडिल हैं, किरण देवहंस हैं जिन्होंने ‘जोधा अकबर’ शूट की, विकास शिवरमण हैं जिन्होंने ‘सरफरोश’ जैसी कई बड़ी फिल्में शूट की। अभीक मुखोपाध्याय हैं जिन्होंने ‘रेनकोट’, ‘चोखेर बाली’ और ‘बंटी और बबली’ जैसी कई फिल्में शूट कीं। ये सब 11 लोग इस फिल्म से जुड़े इसकी मुख्य वजह ये रही कि ये सब स्टूडेंट रह चुके हैं एफ.टी.आई.आई. के। इन सबने नायर साहब को देखा है और उनसे प्रभावित रहे हैं। तीन साल में फिल्म अलग-अलग क्षेत्र में शूट हुई तो अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से हमने सिनेमैटोग्राफर लिए। मैं ये दिखाना चाहता था कि कैसे इतने लोग लगे होने के बावजूद फिल्म एक लग सकती है। ये भी कि इतने लोग नायर साहब को पसंद करते हैं और उनसे ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं।

आपका फिल्म स्टॉक कोडेक का था या कोई और था?
अधिकतर हमने कोडेक किया। कोडेक 16 एमएम कैमरा और कुछ 35 एमएम है। दिलीप साहब वाला हिस्सा हमने पैनाविजन पर किया क्योंकि मैं जानता था कि दिलीप साहब ये आखिरी बाहर इंटरव्यू दे रहे हैं या उसके बाद कोई उन्हें परदे पर इंटरव्यू के लिए नहीं ला पाएगा और वो भी मूवी कैमरा में क्योंकि आपको मालूम है सेल्युलॉयड कैमरा जा रहा है। 16 एमएम कैमरा आमिर खान प्रॉडक्शन से लिया गया किराए पर। कोडेक हमारा मुख्य आपूर्तिकर्ता था, उन्हीं से ज्यादातर लिया। हालांकि छह-सात केन हमें फूजी ने भी दिया, लेकिन मुख्य कोडेक के साथ था।

Shivendra with Dilip Kumar & Saira Banu at their residence.
इसमें दिलीप कुमार और सायरा बानो भी नजर आएंगे?
हां। दिलीप साहब का पूरा इंटरव्यू सायरा बानो जी ने लिया है। मुख्यतः उन्होंने शायरी वगैरह ही पढ़ी हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ दिलीप साहब ने देखी नहीं थी जब रिलीज हुई क्योंकि उन्हें प्रॉब्लम हो गई थी के. आसिफ साहब के साथ। नायर साहब ने वो फिल्म रखी हुई थी। करीब दस साल बाद उन्होंने दिलीप साहब को वो फिल्म आर्काइव्स में से निकालकर दिखाई। रिलीज के दस-बारह साल बाद दिलीप साहब ने वो फिल्म देखी।

मुख्यधारा के हिंदी फिल्म सितारों का भी नायर साहब से यूं जुड़ाव रहा?
जी, जैसे नायर साहब ने एक बार बताया कि संजीव कुमार सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में काम करना चाहते थे। वो आर्काइव्स में नायर साहब से मिलने आए और बोले कि मैंने आर्काइव्स के बाहर घर ले लिया है और आप मुझे रोज सत्यजीत रे की फिल्में दिखाइए ताकि मैं काफी कुछ सीख सकूं उनकी फिल्म में काम करने से पहले। ये बात सिर्फ संजीव कुमार जैसा एक्टर कर सकता था, यही बात नायर साहब ने कही कि इतना लगाव इतना प्रेम, इसलिए वो इतने बेहतरीन एक्टर थे। तो संजीव कुमार महीना भर आर्काइव्स में आते रहे। देखिए, नायर साहब का योगदान ये रहा है। उन्होंने उभरते निर्देशकों को मदद की, इंडस्ट्री को मदद की। विधु विनोद चोपड़ा तो पागल हैं उनके पीछे। राजकुमार हीरानी पागल हैं। आशुतोष गोवारिकर डायरेक्टर बने ही नायर साहब की वजह से। वो एक्टर थे और वहां पर एप्रीसिएशन कोर्स करने आए थे। नायर साहब फिल्में गांव-गांव लेकर गए। नसीरुद्दीन शाह ने बोला है, जया बच्चन ने बोला है कि हम फिल्मों में हैं तो श्रेय जाता है नायर साहब को। शबाना आजमी हों, जानू बरूआ हों, गिरीष कासरवल्ली हों... सब लोगों ने एक ही बात दोहराई है कि आज वो जो भी हैं, नायर साहब की बदौलत।

विज्ञापन फिल्मों और डॉक्युमेंट्री बनाने की आपकी प्रक्रिया क्या रहती है?
विज्ञापन फिल्मों का तो अलग ही होता है, अगर डॉक्युमेंट्री की बात करें तो मैंने एक कॉन्सेप्ट और ओपनिंग सीन लिखे थे। बाकी सब ऑर्गेनिक था। मैं नायर साहब के साथ बैठा, मैंने सोचा कि क्या क्या करना चाहिए, सवाल लिखे।

वर्ल्ड सिनेमा के अजनबी दिग्गजों को आप जाकर इंटरव्यू कर रहे हैं?
वो मेरा आर्काइवल मामला है। मैं चाहता हूं कि जितना आर्काइव कर सकूं हिंदुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में। तो मैं घूमता रहता हूं और जिन निर्देशकों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है उनसे मिलने चला जाता हूं। उतना अच्छा।

इन इंटरव्यू की लंबाई कितनी है?
तकरीबन तीन-तीन घंटे के होंगे।

भाषाई मुश्किल आई होगी?
नहीं, जहां भी गया वहां मेरे साथ ट्रांसलेटर रहे। हम लोग एंबेसी से बात करके ट्रांसलेट करते थे। काफी लंबा प्रोसेस हो जाता है।

इन्हें शेयर भी करेंगे?
हां, हमारी अगली डॉक्युमेंट्री एक चेज़ फिल्ममेकर हैं जीरी मेंजल (Jiří Menzel), उन पर है। धीरे-धीरे शेयर करेंगे। अगर ये डॉक्युमेंट्री एक साल में तैयार हो जाएगी तो उसे शेयर करेंगे।

कुछ वक्त पहले आपने एक फोटोग्राफर जितेंद्र आर्य की जिंदगी पर भी इस स्टाइल में एक डॉक्युमेंट्री प्रोड्यूस की थी ‘की-फिल कट’?
वह ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में थे और बहुत ही जानी-मानी हस्ती थे। इतने बड़े फोटोग्राफर थे कि उन्होंने बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री के बहुत सारे लोगों को प्रभावित किया था। हमने ये सोचा कि क्यों न उनपर एक छोटी सी डॉक्युमेंट्री बनाई जाए। क्योंकि ये ऐसे लोग हैं जिन्हें धीरे-धीरे सब भूल जाएंगे। उसे एक लड़की है अरवा मामाजी उसने डायरेक्ट किया था।

पर क्या ये प्रसारित हो नहीं पाई?
ये दरअसल उनकी वाइफ के सुपुर्द की गई थी फिल्म। उन्होंने ही इसे बांटा। एक आर्काइवल प्रोसेस था। जितने भी फोटोग्राफी क्लब हैं, सोसायटी हैं, काला-घोड़ा फेस्टिवल है, इन सभी में इसे दिखाया गया। क्योंकि एक तो इसकी लंबाई काफी छोटी थी और दूसरा ये निजी भी थी आर्काइवल महत्व की इसलिए।

किसी चैनल पर दिखाने की कोशिश नहीं हुई?
अब हिंदुस्तान में भला कौन सा चैनल लेगा, उन्हें डेली सोप से फुर्सत ही कहां है।

आपके कश्मीर में साक्षरता और कोढ़ व एड्स पर बनाए सरकारी विज्ञापन बाकी आम विज्ञापनों से जुदा हैं...
दरअसल कोढ़ और एड्स दोनों ही सरकार के प्रोजेक्ट थे तो बनाने का अंदाज मैंने नेचुरल रखा। आइडिया था कि वहीं के लोगों को चुना जाए। वो मेरा निजी मानना था कि लोग वहीं के हों, उस गांव के हों और नेचुरल रहें। ताकि जो बात कहनी है वो जाकर उन्हें छुए। वो जो फिल्म है वो कश्मीर पर है और उसे वहीं कश्मीर के बॉर्डर पर शूट किया, बच्चे भी वहीं के थे। मेरा हमेशा ये अंदाज रहा है कि जितने नेचुरल लोग रहें, जिनती नेचुरल जगह रहें और जितना स्पोंटेनियस मेरा अंदाज रहे तो ही फिल्म अच्छी बना पाएगी।

जब इंटरनेशनल ब्रैंड या मल्टीनेशनल्स के विज्ञापनों को आप करते हैं, बतौर फिल्मकार या बतौर विज्ञापन फिल्मकार आप उनमें संवेदनाएं, मासूमियत और त्याग वाले इमोशंन डालते हैं, रिश्तों को पिरोते हैं। ये सब दिखने में बहुत सुंदर और शानदार बन पड़ता है लेकिन उसकी जो एंटी-कैपिटलिस्ट या सोशलिस्ट आलोचना है कि बड़े ब्रैंड्स का हम मानवीयकरण करके उन्हें बेचने की कोशिश करते हैं, उसे आप कैसे लेते हैं? आपका निजी मत उस ब्रैंड और ऐसा करने पर क्या रहता है? इन लॉजिक को आप ध्यान में रखते हैं या सिर्फ कहते हैं कि मैं तो अपना काम कर रहा हूं, आप बहस या जो समझना है समझो। आप ये समाज पर छोड़ देते हैं?
नहीं, ये डिबेट अकसर रहती तो है। मुश्किल रहता है हमेशा लेकिन मैं एक फिल्ममेकर के तौर पर उसे लेता हूं क्योंकि समाज इतना बेवकूफ नहीं है। मैं ये मानता हूं। आप अगर कोई चीज लेने जा रहे हो मार्केट में तो आपको पूरा यकीन है कि वो क्या है। लेकिन कुछ ऐसे ब्रैंड हैं जो मैं करता नहीं हूं जैसे फेयर एंड लवली हैं। मैंने इन ब्रैंड को हमेशा मना किया है। मेरा उस पर एक निजी टेक रहता है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिनके सिक्के की तरह दोनों पहलू देखता हूं। मैं आपको बताता हूं, एक फिल्म मैंने की, वेदांता पर। पीयूष पांडे उसमें क्रिएटिव थे, वह राजस्थान से हैं, जयपुर के हैं। उन्होंने विज्ञापनों में हिंदुस्तानी परंपरा डाली जो पहले पूरी तरह अंग्रेजों के थे। तो पीयूष भाई मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि एक एड फिल्म बनानी है वेदांता पर, वो भी उदयपुर में और गांव होगा डूंगरपुर के पास में। तुम अपने तरीके से बनाओ। मुझे कई लोगों ने कहा कि वेदांता पर तुम कैसे कर सकते हों शिवी... उनका तो उड़ीसा में और वहां-वहां ये चल रहा है। जब मैंने खोदकर निकाला तो सिटी बैंक और आई.सी.आई.सी.आई. बैंक उन्हें सपोर्ट कर रहे थे, तो मैंने सोचा कि यार 80 फीसदी हिंदुस्तान इन बैंकों से जुड़ा हुआ है और यही बैंक वेदांता को सपोर्ट कर रहे हैं तो किस नजरिए से इसे देखें। क्या सही है क्या गलत है। तो इसका मतलब क्या आई.सी.आई.सी.आई. बैंक को हम बंद कर दें क्या। दरअसल जिस समाज में आज हम रह रहे हैं, उसमें ये बहुत मुश्किल चुनाव हमारे सामने रख दिए गए हैं। क्या गलत है क्या सही है, हर चीज के दो पहलू हैं, हर चीज कैपिटलिस्ट है और हर चीज नहीं भी। आपको बस अपना काम करना है। वो ही जरूरी है कि कितनी ईमानदारी से आप काम कर सकते हो। फिर मैंने गांव में जाकर चुना और अपने तरीके से उसे दिखाया और जो दिखाया वो बातें सच थीं। क्योंकि मैं खुद गया था वहां और स्कूलों में उन्होंने प्रभावित था और दूसरे काम करवाए थे। जितना डेमेज वो कर रहे होंगे, उससे ज्यादा तो कई और लोग कर चुके होंगे। सब कुछ एक चक्र हो चुका है, हम उस चक्र से बने समाज में आ चुके हैं। ऐसे समाज में जो है, अब नहीं बदलने वाला। मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हुए खुद को चॉकलेट, वॉशिंग पाउडर जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल्स पर ही रखा है जहां पर मैं समझता हूं लोग जानते हैं कि कौन सा सर्फ या पाउडर बैटर है। वो तो हमारे रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज है, उसे तो कम्युनिस्ट भी इस्तेमाल कर रहा है। वो भी दुकान में जाकर उसको ले रहा है, चॉकलेट भी खा रहा है। तो कोशिश पूरी करता हूं कि वहां न जाऊं जहां हम बच्चियों-बच्चों को ललचा रहे हैं, पर हो तो रहा है। पर डिबेट तो रहती ही है और मैं नहीं कहता हूं कि मैं बाहर आ गया हूं इससे, मैं भी फंसा हूं इसी चक्र में जैसे बाकी लोग फंसे हैं।

जैसे डोमिनोज का आपका विज्ञापन है, उसे देखकर लगता है कि क्या आप पिज्जा बेच रहे हैं संवेदनाओं के सहारे या फिर आप एक विकल्प दे रहे हैं कि दूसरों के बारे में सोचो या मिल बांटकर खाओ, चाहे पिज्जा हो या जलेबी?
उसमें अगर आप देखें तो डोमिनोज भी बहुत बाद में आता है। उसमें भी हमने बहुत जोर नहीं डाला है। उसे बहुत सामान्य रखा है कि फोन किया, ऑर्डर दिया और डोमिनोज आ गया। आप चाहें तो उसे महज एक फिल्म के तौर पर भी देख सकते हैं बच्चों ने मिलकर एक बुजुर्ग के लिए कुछ किया। बाद में डोमिनोज की तरफ इशारा जाता है तो मेरे ख्याल से वो एड ज्यादा तो बच्चों के बारे में है।

तो क्या जिस चक्र की बात आप कर रहे हैं वो एक न पलटी जा सकने वाली प्रक्रिया बन चुका है?
लेकिन हम ये कोशिश जरूर कर सकते हैं जो भी काम अब करें वो नए सिरे से करें, उस प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए न करें, सच्चाई के लिए करें। बाकी ये दुविधा हमेशा बनी रहने वाली है। हम बस वैल्यूज को बनाए रखें कि जहां हो सके दूसरे के बारे में सोचें, उसकी मदद करें। इससे ज्यादा कुछ करना भी चाहेंगे तो वो छद्म जीवन जीना हो जाएगा।

आपकी जितनी एड फिल्में मैंने देखी, उनमें डीटीएच है, ग्रीनप्लाय है या टाइम्स ऑफ इंडिया है, व्हील है... उनमें काफी रंग, इंसान और परते हैं। इन्हीं सब चीजों से अच्छी-खासी फीचर फिल्में बन सकती थीं, तो फिल्में क्यों नहीं?
मेरी सफलता की एक वजह ये रही कि मैं जब विज्ञापन जगत में आया तो सब लोग स्टूडियो में शूट कर रहे थे, उनके विज्ञापन परफेक्शन और ब्यूटी वाली छवियों से भरे लगते थे। मेरी शुरुआती एड फिल्मों में एक थी विम साबुन की, उसमें रीमा सेन और राजपाल यादव थे। उसे मैंने वीटी स्टेशन के बाहर शूट किया। मुझे कहा गया कि यार ये क्या कर दिया तुमने। लेकिन मैं विज्ञापनों को सड़क पर लेकर गया। क्योंकि तब जितने बन रहे थे उनमें जिंदगी होती ही नहीं थी। जैसे ऐश्वर्या का एक आता है... इतना ब्यूटीफुल सा होता है कि लाइफ लगती ही नहीं है उसमें। मेरे लिए जो जिंदगी मैं जी रहा हूं वही विज्ञापन हैं। अपने हर विज्ञापन में संस्कृति, विविधता और भारतीय डांस फॉर्म को शामिल करता रहा हूं। क्या ये एंटरटेनमेंट नहीं है, अगर आप देखते नहीं हैं तो क्या है नहीं। ये विरोधाभास मैंने दिखाया। वैसे मैं हमेशा से फिल्ममेकर ही था। हर एड को फिल्म समझकर ही शूट किया। क्योंकि न मैंने एड फिल्म बनानी अलग से सीखी थी न मुझे आती थी, मुझे फिल्म बनानी आती थी, मैं उन्हीं से एड फिल्मों में आया था। मुझे लगता है कि जो एडवर्टाइजिंग से फिल्मों में आए हैं वो ज्यादा गहराई में जा नहीं पाते, कुछेक ही हैं जो बहुत सफल हो पाए हैं। क्योंकि एक 30 सैकेंड के एड में आपको कैरेक्टर डिवेलप करना है, उसमें आप अलग माहौल में जी रहे हैं, लोगों की नब्ज के बारे में सोच रहे हैं.. लेकिन अगर आप फिल्मों से एडवर्टाइजिंग में आए हैं तो आपने लोगों को देखा है, उनके जीवन को जाना है।

फीचर फिल्में कब बनाएंगे?
फिल्मों में मैं हमेशा से ही था। बेहद यंग डायरेक्टर था उस वक्त मैं, कोई 23 साल का था और डायरेक्शन कर चुकने के बाद मुझे एड फिल्मों में जाना पड़ा। गुरुदत्त पर भी स्क्रिप्ट लिख रहा था लेकिन कुछ प्रॉब्लम्स आ गईं और वो ठहर गई, बनती तो अभी तक पूरी हो गई होती। अब फिर स्क्रिप्ट लिख रहा हूं, जल्द ही पूरी कर लूंगा, मेरा असल प्यार तो फिल्ममेकिंग ही है न।

शुरू में जो फिल्म बना रहे थे, उसके बारे में बताएं?
उसमें संजय कपूर, करिश्मा कपूर, रानी मुखर्जी, ओम पुरी, चंद्रचूड़ सिंह, काव्या कृष्णन, नम्रता शिरोड़कर, डैनी, फरीदा जलाल, जॉनी लीवर वगैरह सब थे। ए. आर. रहमान का म्यूजिक था। गुलज़ार साहब गाने लिख रहे थे। वो लिखी थी श्रीराम राघवन, मैंने और करण बाली साहब ने। श्रीराम मुझसे एक साल सीनियर थे। करण बाली भी एक साल सीनियर थे, फिलहाल वो एक अच्छी साइट अपरस्टॉल चलाते हैं। उसमें सीनियर पर्सन थीं रेणु रलूजा जो एडिटर थीं, बाकी सब नए थे। शर्मिष्ठा रॉय जो आर्ट डायरेक्टर थीं वो भी नईं थीं। तब उन्होंने यशराज की बड़ी-बड़ी फिल्में नहीं की थीं। उसका संभावित शीर्षक इत्तेफाक रखा था, राइट्स नहीं लिए थे। वो राइट्स बी. आर. चोपड़ा साहब के पास थे।

आपकी हरदम पसंदीदा फिल्में कौन सी रही हैं?
पथेर पांचाली (1955)। एक याशुजीरो ओजू की जापानी फिल्म टोकियो स्टोरी (1953) थी। एक आंद्रेई टारकोवस्की की द मिरर (1975) थी। ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा (1960)। ला वेंचुरा (1960) मिकेलेंजेलो एंटिनियोनी की। अकीरा कुरोसावा की राशोमोन (1950)। विट्टोरियो डि सीका की बाइसिकिल थीव्स (1948)। एल्फ्रेड हिचकॉक की नॉर्थ बाइ नॉर्थवेस्ट (1959)। ग्रैंडफादर जॉन फॉर्ड और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में लाते थे, वो भी थीं। ये सब फिल्में देखकर मेरा दिमाग अलग ही दिशा में चला गया।

अभी भी देखते हैं वर्ल्ड सिनेमा में जो रचा जा रहा है?
हर वक्त। सुबह, शाम, रात फिल्में ही देखता हूं। शूटिंग, मीटिंग, प्रोजेक्ट, फिल्म फेस्टिवल्स इनकी वजह से ट्रैवल बहुत करता हूं। फाउंडेशन का काम चल रहा है। मेरा खुद का वॉल्ट है जहां फिल्में रखता हूं उसकी क्लीनिंग चल रही है। जीरी मेंजल पर डॉक्युमेंट्री बना रहा हूं, सेल्युलॉयड मैन पर काम चल रहा है। एड फिल्में चलती रहती हैं, आर्काइव का काम चलता रहता है, मेरी स्क्रिप्ट चल रही है। चार ऑफिस हैं, उन्हें संभालना आसान नहीं है। दिन कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता, कभी-कभी तो वक्त के इतने तेजी से गुजर जाने से डरता हूं। मैं लिखता भी बहुत हूं। रोज की डायरी है, सेल्युलॉयड मैन की डायरी है उस पर लिखता हूं। आज भी इंक और पैन से लिखता हूं इसलिए मैं मेल बहुत कम लिखता हूं। लेटर्स लिखता हूं, पोस्टकार्ड लिखता हूं... ये सब मेरे शौक हैं। मैं बॉम्बे में एक लैब को स्पॉन्सर करता हूं जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट में गोल्ड प्रिंट निकलता है।

फिल्में देखने का जरिया क्या रहता है?
बड़ी स्क्रीन पर देखता हूं। मेरे ऑफिस में मिनी थियेटर है। वैसे मैं सिनेमा हॉल प्रेफर करता हूं, क्योंकि फिल्ममेकर ने उन्हें इसी लिए बनाया है। मगर जब कोई फिल्म निकल जाती है तो डीवीडी पर।

राजस्थानी फिल्में देखी हैं आपने? वहां का क्या सीन लग रहा है?
मुझे मालूम है कई लोगों ने वहां हिस्टोरिकल फिल्में भी बनाई हैं। लेकिन अभी तक कोई फिल्म नजर नहीं आई है जिसे कह सकूं कि मुझे पसंद आई हो। मुख्य चीज हमारे वहां ये है कि डायलेक्ट या बोलियां बहुत ज्यादा हैं, रीजनल बहुत ज्यादा है इसीलिए वहां हिंदी ज्यादा चल रही है। आप एक रीजन को लेकर बनाएंगे तो वो राजस्थान के बाकी इलाकों में नहीं चलेगी। ये समस्या है। आप रीजनल बंगाली में बना सकते हैं, पूरे बंगाल में वही चलता है। उड़ीसा में उड़िया पूरे में चलती है। कर्नाटक में वहां की एक भाषा है। लेकिन राजस्थान में दिक्कत ये है कि जो भाषा जयपुर में है वो बीकानेर या जैसलमेर में नहीं है, जो वहां है वो बाकी हिस्सों में नहीं है। किसी भी एक में राजस्थान करके फीलिंग नहीं आएगी।

P. K. Nair at the archive, 2009.
Shivendra Singh Dungarpur is an Indian filmmaker. He's directed over 400 commercials. His latest is a 2012 documentary ‘Celluloid Man’. The FB page of Celluloid Man says, "It is a tribute to an extraordinary man called Mr. P.K. Nair, the founder of the National Film Archive of India, and the guardian of Indian cinema. He built the Archive can by can in a country where the archiving of cinema is considered unimportant. The fact that the Archive still has nine precious silent films of the 1700 silent films made in India, and that Dada Saheb Phalke, the father of Indian cinema, has a place in history today is because of Mr. Nair. He influenced generations of Indian filmmakers and showed us new worlds through the prism of cinema. He is truly India’s Celluloid Man. There will be no one like him again."
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