सोनीपत के पाल परिवार की महंगाई का सामना करने और अपने निकाले समाधान में फंसते चले जाने की कहानी है ये फिल्म, इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं संजय मिश्रा
‘फंस गए रे ओबामा’ वालों की नई पेशकश है ‘सारे जहां से महंगा’। प्रासंगिक विषय है। इस पर तो उस तरह एक साथ कई फिल्में आनी चाहिए थीं जैसे एक वक्त में भगत सिंह पर देखा-देखी फिल्मकार लोग पांच-छह फिल्में बना रहे थे। देश की मौजूदा आर्थिक नीतियों और लोगों पर पड़ने वाले इसके बेहद कष्टकारी असर पर ऐसी फिल्में बन ही नहीं रही हैं। ऐसे में ‘सारे जहां से महंगा’ का आना राहत दे रहा है। फिल्म 8 मार्च को रिलीज होगी। इसे अंशुल शर्मा ने बनाया है। वह इससे पहले ‘फंस गए...’ में निर्देशक सुभाष कपूर के सहयोगी रह चुके हैं। अंशुल मूलतः सुंदरनगर, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हैं। 6 अप्रैल 1981 को जन्मे। कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियिरंग की पढ़ाई की। कोई आठ साल पहले उन्होंने मुंबई में कदम रखे। फिल्मों में आना था। शुरुआत टीवी सीरियल में फिल्म निर्देशक का सहायक बनकर की। उसके बाद अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, सुनील दर्शन और सुभाष कपूर के साथ निर्देशन की बारीकियां सीखने की कोशिश की। फिल्म का प्रमोशन चल रहा है, उसी सिलसिले में वह चंडीगढ़ पहुंचे थे। यहीं उनसे मुलाकात हुई। धीमे, शांत और सहज हैं। ज्यादा बोलते नहीं है। लेकिन हां, जमीन पर ही रहते हैं। बातचीत के दौरान कोशिश उन कोनों में घुसने की हुई जहां ज्यादातर कोई नहीं जाता। हो सकता है कई बातें अमूर्त और अप्रासंगिक लगें, पर आगंतुक फिल्मकारों को जरूर ऐसे सवालों को हल्के में ही सही जवाब मिलेंगे जो उनके मन में उड़ते रहते होंगे।
Anshul Sharma |
निश्चित तौर पर खूब फिल्में देखते थे। आपस में बातें करते थे कि यार तूने वो फिल्म देखी क्या? वगैरह। मगर एक बात थी उस वक्त क्रिटिसाइज करना बड़ा आसान था। किसी डायरेक्टर की, किसी फिल्म की आसानी से आलोचना कर देते थे। अब खुद उस जगह पहुंचे हैं तो समझ आ रहा है। तो बातें तो करते थे कि उस फिल्म में ऐसा है, उसमें वैसा है। ऐसा किया होता तो ज्यादा बेहतर होता। लेकिन उसी वक्त में आपको जो जिम्मेदारी डायरेक्टर ने दे रखी थी वो भी देखनी होती थी। क्योंकि हम सभी को डायरेक्टर बनना था। सब अपने छोर पर अपनी-अपनी कहानियां तैयार करने में भी लगे रहते थे।
कौन थे असिस्टेंट साथी?
एक नितिन (यू. चैनपुरी) थे, श्लोक (शर्मा) था, वासन (बाला) था, मैं था, अनुभूति (कश्यप) थी अनुराग सर की सिस्टर। प्रेरणा (तिवारी) थी, दिव्या (सिंह) थी और आनंद (विजयराज सिंह तोमर) था।
इनमें कौन फिल्में बना चुके हैं?
वासन बना चुका है, उसकी फिल्म ‘पैडलर्स’ फेस्टिवल्स में भी गई, अच्छी तारीफ मिली। श्लोक की भी बन चुकी है, उसकी भी फिल्म (हरामखोर) आएगी अभी। आनंद बनाने वाला है बात चल रही है अभी।
क्या आप लोगों ने तब तय कर लिया था कि मनोरंजक बनानी है या प्रयोगी बनानी है?
नहीं बस पैशन था कि फिल्म बनानी है। आप जितने ज्यादा युवा होते हैं पैशन उतना ज्यादा होता है। इस दौरान आपकी पहली फिल्म आपके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होती है। बस। क्योंकि उसमें पूरी जी-जान लगा देते हो। बनने के काफी वक्त बाद जरूर सोचते हो कि यार पहली फिल्म ऐसी होती तो ज्यादा अच्छा रहता। मगर बनाने से पहले नहीं सोचते कि मैं इसके लिए बनाऊंगा या उसके लिए।
मैं दो तरह की सोच की बात कर रहा हूं। जैसे ‘पैडलर्स’ है तो उसे बनाते वक्त शायद डायरेक्टर की मन: स्थिति सबसे महत्वपूर्ण रही। वो उसे उसी रूप में बनाना चाहता था, उसके लिए व्यावसायिक मजबूरियों की परवाह नहीं की गई है। आपने सारे जहां से महंगा बनाई है तो उसमें व्यावसायिक चीजों पर ध्यान दिया गया है। जैसे गाने हुए या ज्यादा से ज्यादा दर्शक फिल्म को देखें ये बात हुई या फिर प्रोड्यूसर का पैसा वापिस आए।
‘पैडलर्स’ अनुराग सर ने प्रोड्यूस की तो उनकी सोच बहुत अलग है। वो अपने असिस्टेंट्स को बहुत प्रमोट करते हैं। वो ऐसा नहीं सोचते कि ये कमर्शियल फिल्म है और इसमें मैं इतना पैसा लगा रहा हू्ं तो वो लौटे। बतौर डायरेक्टर अपने क्राफ्ट को लेकर वो बहुत पैशनेट हैं। वो बोल देते हैं कि तेरे को ये चीज बनानी है, तू बना, बाकी कारोबारी गणित हम बाद में देखेंगे। ‘सारे जहां से महंगा’ के मामले में जो पैसा लगा रहे हैं उनके प्रति मेरी जिम्मेदारी बनती है। वो जितना पैसा लगा रहे हैं, कम से कम उतना तो वापिस मिले। इसके अलावा ये सोच भी थी कि फिल्म ऐसा माध्यम है जिसे थियेटर में या टीवी पर भारत की 90 फीसदी जनता देखती है तो उस माध्यम को लेकर अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, फिल्म के सब्जेक्ट से न्याय करना था।
देश के कौन से अभिनेता अच्छे लगते हैं?
आमिर (खान) हैं, बहुत अच्छे एक्टर हैं। संजय (मिश्रा) जी हैं। इरफान (खान) हैं। रणबीर कपूर बहुत अच्छे एक्टर हैं। निर्भर करता है कि कौन उनसे काम निकलवा रहा है।
फिल्में जो प्रेरित कर आपको फिल्मों में ले आईं?
अनुराग सर की फिल्में हैं। ‘ब्लैक फ्राइडे’ से बहुत प्रभावित हुआ। भंसाली साहब की फिल्में थी, उनका अलग तरीका है। इन दोनों की फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक तक अलग होता है। यहां तक कि लाइटिंग भी फिल्म की जर्नी से जुड़ी होती है। संगीत, आर्ट डायरेक्शन, कहानी सब फिल्म को साथ लेकर चलते है। मुझे अभी भी याद है ‘नो स्मोकिंग’ में सिनेमैटोग्राफी करने वाले राजीव रवि सर ने आखिरी गाना शूट किया था “जब भी सिगरेट जलती है मैं जलता हूं...”। उसमें उन्होंने लाइटिंग के तीन सेटअप बनाए थे। सबसे पिछला ऑरेंज था, बीच वाला सफेद था और आगे वाला जलते अंगार की तरह। यानी वो सिगरेट का ही प्रतिबिंब हो गया यानी फिल्म से पूरी तरह जुड़ा हुआ।
बचपन की शुरुआती फिल्म कौन सी थी?
राजकपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ थी। पेरेंट्स के साथ बैठकर देखी थी, उसने कहीं न कहीं छुआ था। दिमाग में रह गई थी।
किस उम्र तक फिल्मों में आना महज सपना ही था?
जाना था, पहले से दिमाग में था। शूटिंग होते हुए मैंने पहले भी देखीं थीं...
...लेकिन शूटिंग देखना क्या बहुत हतोत्साहित कर देने वाला अनुभव नहीं होता? क्योंकि बतौर दर्शक आप शूट देखते हैं तो चौंकते रहते हैं कि ये हो क्या रहा है।
हां, आप पहली बार देखते हैं तो पता नहीं चलता है। लगता है कि अभी तो इन्होंने बोला था और अब ये फिर बोल रहे हैं। तब नहीं पता था कि ये अलग-अलग एंगल से ऐसा कर रहे हैं। पहले तो बस वो स्टार थे हम फैन थे। लेकिन लोग वहां आधे घंटे में बोर हो रहे थे और मैं नहीं हो रहा था। मेरे मन में जिज्ञासा थी कि ये लोग क्या कर रहे हैं? क्यों बार-बार लाइन बोल रहे हैं? पहले ये चीज यहां बोली थी, अब वहां जाकर बोल रहे हैं, कैमरा उधर जा रहा है। यहीं से रुझान मजबूत हुआ। लेकिन घरवालों को चिंता थी कि कैसे होगा। उन्होंने कहा कि पहले पढ़ाई कर लो। स्कूल में प्ले, माइम करता रहा। जब मेरी पढ़ाई खत्म हुई तो मैं बॉम्बे गया।
कौनसे साल में पहुंचे मुंबई?
2004 में।
पहुंचने पर क्या जाब्ता कर रखा था?
प्रोड्यूसर कुमार मंगत को मेरे पापा जानते हैं। उनसे बात हुई थी। उन्होंने भी बोला कि सोच लो एक बार फिर, आने से पहले। ये लाइन दिखती ही ऐसी है लेकिन बहुत मेहनत है इसमें। जो लोग देखते हैं उन्हें सिर्फ स्टार्स दिखते हैं और वो आ जाते हैं।
बच्चा जनने जैसा कष्ट है...
बिल्कुल, और उस लेवल तक पहुंचने में बहुत धैर्य चाहिए। क्योंकि आप छोटा-छोटा काम करते हैं। बहुत बार खीझ भी उठती है, निराशा होती है। कई बार ऐसा भी लगता है कि कहां आ गया हूं। ऐसे में अपना फोकस आपको दिखना चाहिए कि मुझे वहां पहुंचना है। आप विश्वास रखेंगे खुद पर, धैर्य रखेंगे और गोल पर केंद्रित रहेंगे तो पहुंच जाएंगे।
कौन सी फिल्म से सबसे पहले जुड़े थे?
उस समय कुमार मंगत एक सीरियल प्रोड्यूस कर रहे थे ‘देवी’, जो सोनी पर आता था। उसमें साक्षी तंवर और मोहनीश बहल थे और उसे डायरेक्ट कर रहे थे रवि राज। मुंबई पहुंचने के तीसरे दिन से ही सीरियल में असिस्टेंट लग गया था। फिर सुनील दर्शन साहब की ‘दोस्ती’ और ‘बरसात’ (2005) फिल्मों से जुड़ा। उसके बाद विशाल भारद्वाज के साथ जुडऩा था मगर उनकी टीम भरी हुई थी ‘ओमकारा’ में। देखना था उनको तो मैंने फिल्म के प्रोडक्शन में ही कर लिया। ‘ओमकारा’ के बाद अनुराग कश्यप की ‘नो स्मोकिंग’ से जुड़ा। फिर ‘देव डी’ आई। उसके बाद ‘फंस गए रे ओबामा’ में सहयोगी निर्देशक बना। 'प्यार का पंचनामा' में भी सहयोगी निर्देशक रहा।
इतिहास गवाह रहा है कि शुरू में सार्थक विषयों पर फिल्म बनाने वाले बाद में व्यावसायिक मजबूरियों के चलते धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं। आपको नहीं लगता कि आप भी बाद में उसी गली निकल लेंगे?
नहीं मेरा इरादा ऐसे विषय पर शुरू में ही बनाने का नहीं रहा था। कुछ लोगों ने कहा भी कि आपने अपनी पहली फिल्म महंगाई पर क्यों बना दी? पर मैंने शुरू में कुछ भी तय नहीं किया था। अभी भी मुझे महसूस नहीं हो रहा कि पहली फिल्म मैंने लीक से हटकर बना दी। आगे भी ऐसा कोई विचार नहीं आने वाला कि किसी खास दिशा में जाऊंगा।
कैसे विषय पर आने वाले दिनों में फिल्में बनाना चाहेंगे?
तय नहीं है। अच्छा सिनेमा बनाना है बस। मुझे एक्शन फिल्में अच्छी लगती हैं, सटायर अच्छा लगता है। ऑन द फेस कॉमेडी उतनी अच्छी नहीं लगती। सटायर के जरिए संदेश अच्छे से दे पाते हैं। थोड़ी थ्रिलर भी अच्छी लगती हैं।
कोई कहानी सोच रखी है जिस पर आगे काम करेंगे?
हैं कुछ कहानियां। एक हिमाचल आधारित कहानी मैंने सोच रखी है। उस पर लंबे वक्त से काम चल रहा है। थोड़ा रियल है थोड़ा फिक्शन।
On set of Dev D, Anshul and Mahi Gill. |
चैलेंजिंग मौके आते रहते हैं। उस वक्त ये होता है कि आप अपनी प्रेजेंस ऑफ माइंड क्या लगाते हैं। खासकर अनुराग सर के साथ ऐसा होता है। क्योंकि वह खुद भी राइटर हैं तो सिचुएशन व लोकेशन के हिसाब से कई बार चीजें बदल देते हैं। वह एकदम से कह देते थे कि मुझे ये चाहिए। आप असिस्टेंट हैं और आपसे कोई चीज मांगी गई है तो आप प्रोडक्शन वालों से मांगते हैं। प्रोडक्शन वाला अपने बॉय को बोलेगा, वो जाएगा और लेकर आएगा। कई बार चीजें बहुत जल्द चाहिए होती हैं। जैसे हम ‘देव डी’ में एक सीन शूट कर रहे थे। हमें अचानक से एक रेस्टोरेंट में शूट करना पड़ गया। रेस्टोरेंट अभी बंद था और हमें एक सैंडविच चाहिए था। अनुराग सर ने फटाक से बोल दिया कि यहां-यहां शूट कर रहे हैं और सैंडविच चाहिए। अब मैं अपने जूनियर को बोलता तो वो प्रोडक्शन में किसी को बोलता। लेकिन मैंने अपनी जेब से उसे पैसे दिए और कहा कि वहां सामने सैंडविच मिलते हैं, जा और फटाफट लेकर आ। बस प्रेजेंस ऑफ माइंड का इस्तेमाल किया। अब ‘नो स्मोकिंग’ का एक शूट था। आयशा टाकिया उसमें प्ले कर रहीं थीं। उसमें उनके पास एक ब्लैक पर्स था जो पीछे छूट गया था। ऐसी बहुत सी चीजें होती हैं फिल्मों की शूटिंग के दौरान या लाइफ में। और उस वक्त तुरंत पर्स चाहिए था। शूट से थोड़ा ही दूसरी कुछ दुकानें थीं, मैं तुंरत भागकर गया, पर्स खरीदा और लेकर आया। प्रोडक्शन का काम बाद में किया। कहने का मतलब ये है कि काम नहीं रुकना चाहिए।
फिल्ममेकिंग के दौरान निराशा का सामना कैसे करते हैं?
एक जर्नी होती है और आपको उसमें चलते रहना पड़ता है। अगर लक्ष्य केंद्रित हो न, तो निराशा नहीं होती। आपको अपना लक्ष्य दिखना चाहिए। कहीं पहुंचने के लिए अगर पांच सौ सीढिय़ां चढऩी हैं और आप सौ सीढ़ी बाद थक जाओ तो कुछ सोचेंगे कि सौ में मेरी ये हालत है चार सौ और कैसे चढ़ूंगा। लेकिन आपने तय कर रखा है कि मुझे तो जाना ही है, तो मैं पांच मिनट बैठूंगा, अपनी एनर्जी हासिल करूंगा और वापिस चढ़ूंगा।
एक कहानी पर एक साल या उससे ज्यादा वक्त तक काम करते हुए ताजगी कैसे बनी रहती है? ऊर्जा कहां से मिलती है?
पता नहीं मुझे भी। शायद पैशन से। शूटिंग के वक्त तो मुश्किल से तीन घंटे सोने का वक्त मिलता है फिर भी अगले दिन आप बहुत फ्रेश होते हैं। पता नहीं वो कहां से आता है। जैसे 'देव डी' की शूटिंग कर रहे थे तो लगातार दस-बारह दिन तक हम दो घंटे से ज्यादा सो ही नहीं पाए। लेकिन अगले दिन सेट पर पहुंचते थे तो ऐसा महसूस नहीं होता था। उसी एनर्जी से भाग रहे थे, उसी एनर्जी से काम कर रहे थे। फिल्म जब बन जाती है तब आप बैठे रहते हैं या ऑफिस में सोते रहते हैं, ऊंघते हैं लेकिन शूटिंग के वक्त ऐसा नहीं होता।
डायरेक्टर्स के साथ दिक्कत होती है कि लोगों का ध्यान उन पर बहुत कम जाता है। एक्टर्स को ही सब पहचानते हैं। जबकि फिल्म की जननी डायरेक्टर होता है। जब तवज्जो नहीं मिलती तब क्या करते हैं?
निश्चित तौर पर एक समझ बनी हुई है। आप लोगों को जाकर नहीं कह सकते कि ये फिल्म मैंने बनाई है। आम दर्शक एक्टर को देखता है तो उसी की बात करेगा। डायरेक्टर के लिए सबसे बड़ी बात ये है कि लोग उसकी फिल्म के बारे में बात करें। अब जैसे मेरे सामने की टेबल पर कोई बैठा हो और मुझे नहीं जानता हो लेकिन कहे कि यार ‘सारे जहां से महंगा’ देखी, कमाल की फिल्म है, उसमें संजय जी का काम ऐसा है। मेरे लिए वो बहुत है। उसी में सारी खुशी है, राहत है। एक्टर तो जानते हैं न। जनता भी जानेगी। जैसे रोहित शेट्टी हैं, अनुराग कश्यप हैं, लोग उन्हें जान रहे हैं, चीजें बदल रही हैं।
रोहित शेट्टी आपकी फिल्म के म्यूजिक लॉन्च पर आए, उनसे मुलाकात कैसे हुई?
मेरा एक दोस्त है आशीष आर. मोहन जिसने ‘खिलाड़ी 786’ बनाई है। हम लोग एक ही कमरे में रहा करते थे। मैं अनुराग सर के साथ काम कर रहा था, आशीष रोहित सर के साथ। उसके जरिए रोहित जी से मिला।
कैसे इंसान हैं आप?
बहुत सिंपल हूं जमीनी हूं, मेरे हिसाब से। बहुत चुप रहता हूं।
रहना पड़ता है सोचने वाले को...
बहुत से सोचने वाले बहुत बोलते भी हैं। मेरी प्रकृति ऐसी है कि खुद को अभिव्यक्त नहीं करता। दिमाग में ही हर वक्त कुछ न कुछ चलता रहता है। बहुत कम बोलता हूं तो कई बार लोगों को लगता है कि भाव खा रहा है, पर वैसा नहीं है।
फिल्में-फिल्मकार जो पसंद हैं?
पिछले साल तो कोई फिल्म देख ही नहीं पाया। मगर उससे पहले ‘इनसेप्शन’ बहुत अच्छी लगी थी, ‘अवतार’ अच्छी लगी। हिंदी में अनुराग सर की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’। ‘विकी डोनर’ आई थी वह अच्छी लगी। आलटाइम फेवरेट निर्देशकों में मनोज कुमार हैं, गुरुदत्त हैं, राज कपूर हैं, अनुराग सर हैं, क्रिस्टोफर नोलन हैं, जेम्स कैमरून हैं, क्वेंटिंन टेरेंटीनो हैं।
लेकिन फिल्मों में आना सीख रहे थे तब आपको ताकत और हौंसला ज्यादा से ज्यादा फिल्में देख ही मिलती था। अब तो देख ही नहीं रहे।
मैं देखना चाहता हूं पर ये होता है कि आप अपनी ही फिल्म में बहुत बिजी हो जाते हो। मुझे देखनी थी। मैं ‘अर्गो’ देखना चाहता था, ‘लाइफ ऑफ पाई’ देखना चाहता था।
‘सारे जहां से महंगा’ वैसी बनी जैसी सोची?
उससे भी अच्छी।
लेकिन शुरू में ऐसे सोचते हैं कि ये सीन देख लोग हैरान हो जाएंगे, यहां पर शॉक हो जाएंगे, यहां हंसकर बेहाल हो जाएंगे। क्या हूबहू वैसे भाव बन पाए?
मैं पहले इतना तय नहीं करता हूं, ये मैंने अनुराग सर से सीखा है। वो पहले से प्लैन नहीं करते कि ये फिल्म मैं इस तरह से शूट करूंगा। उनकी तरह मैं भी लाइव लोकेशन पर शूट करना पसंद करता हूं। जब आप सेट पर होते हैं और शूट करना शुरू करते हैं तो चीजें वैसे नहीं चलती जैसे आपने सोची होती हैं। जैसे एक्टर सेट पर सीन को कम या ज्यादा कर देते हैं। मेरी फिल्म में संजय जी थे तो जितना उन्हें कहते थे वो उसे इम्प्रोवाइज करके और बेहतर बना देते थे। तो उसी क्षण चीजें बदलती हैं, नतीजे नए मिलते हैं और आप तभी सोचते हो।
Poster of Saare Jahan Se Mehnga. |
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