Friday, September 21, 2012

आर्थिक नस्लभेद पर आज चाहिए कई ‘अ ड्राई वाइट सीजन’

अ ड्राई वाइट सीजन (1989) निर्देशकः यूजैन पाल्सी कास्टः डोनल्ड सदरलैंड, मर्लन ब्रैंडो, जेक्स मोकाइ, जैनेट सूजमैन, जुरजेन प्रॉचनाओ, सुजैना हार्कर, सूजन सैरेनडन दक्षिण अफ्रीकी उपन्यासकार आंद्रे फिलिपस ब्रिंक के 1979 में लिखे नॉवेल ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ पर आधारित
Characters of Gordon Ngubene and his son, Ben (Right) and his son Johan.

दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड या नस्लभेद के दौरान की अच्छी गाथा। स्कूल में सम्मानित टीचर, साउथ अफ्रीका में रहने वाले और अफ्रीका को रहने लायक बनाने वाला होने का दावा करते समाज के ही गोरे सदस्य हैं बेन दु त्वा (डोनल्ड सदरलैंड)। समाज में नस्लभेद का खूनी दौर है। काले लोग उठाकर मारे जा रहे हैं, सीधा विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं तो कुचले जा रहे हैं।

बेन की बीवी और बेटी सब खिलाफ हैं कालों के। उसके अश्वेत माली के बेटे को पहले पीटा जाता है, फिर मार दिया जाता है, फिर माली को गिरफ्तार किया जाता है, उसे भी पैशाचिक पीड़ाएं देने के बाद मार दिया जाता है, बाद में कहा जाता है कि उसने आत्महत्या कर ली... तो इन सब से बेन का दिल बदल जाता है। उसे इस वक्त लगने लगता है कि ये वो अफ्रीका तो है ही नहीं जिसमें वह इतने साल से रहता है या उसे रहने लायक मानता है। अपने माली की मौत के जिम्मेदार पुलिसवालों के खिलाफ वह केस दायर करता। वह बड़े मानवाधिकारवादी वकील इयान मैकिंजी (मर्लन ब्रैंडो) के पास जाता है जो जानता है कि नस्लभेद की हकीकत क्या है और कचहरियों की हकीकत क्या है। खैर, वह बेन की तसल्ली के लिए केस लड़ता है। अपने रोल के प्रति मर्लन का रवैया अद्भुत है। एक औसत वकील के सारे पैमानों और सांचों के बिल्कुल उलट। ऐसा यूनीक वकील फिल्मों में बहुत कम हुआ है जो इतने खूनी और हत्यारे माहौल वाले तथ्यों की बात करते हुए बर्फ जितना शांत है। कुर्सी पर विपरीत दिशा में मुंह करके बैठे होने पर भी गवाह से वह कैसे बात करता है, कैसे जज को संबोधित करता है बिना उनकी ओर देखे, कैसे अपना शांतचित्त बनाकर रखता है। ये सब विशेष है। फिल्मों से सन्यास ले चुके ब्रैंडो फिल्म की सार्थकता देखकर ही ये रोल निभाने को लौटे थे।

Brando with director Palsy.
डोनल्ड सदरलैंड फिल्म को पूरा संभालते हैं। डायरेक्टर यूजैन पाल्सी खुद अश्वेत हैं और वह अपनी जिंदगी में सिर्फ ये एक ही फिल्म बनाने के लिए जानी जाती हैं, अगर मैं गलत नहीं हूं तो। उनका जन्म ही ये कहानी कहने के लिए हुआ था। डोनल्ड के किरदार बेन दु त्वा में हिंसा की भावना नहीं है, बस एक बार वह पिस्टल तान देता है डर के मारे अपनी सुरक्षा के लिए, अन्यथा पूरी फिल्म में शांत रहता है। बीवी सूजन (जैनेट सुजमैन) के तानों के आगे भी, बेटी सुजेत (सुजैना हार्कर) के अपशब्दों के आगे भी, अपने गोरे समाज के रवैये के प्रति भी। हां, एक मौके पर वह अपने स्कूल के प्रिंसिपल को थप्पड़ जड़ देता है जब वह उसे और उसके बेटे को देशद्रोही कहता है। नस्लभेद पर बनी चंद खूबसूरत फिल्मों में से एक ये भी है। कहानी में इतनी संतुलित कि मिसाल। नस्लभेद जैसे मुद्दों पर किस विषय को फिल्म में कैसे ढालना है, दो घंटे की स्क्रिप्ट मं कहां से क्या उठाना है, क्या साबित करना है, वगैरह सब कवर होता है। ज्यादा ध्यान कहानी कहने पर रहता है और उसी साधारणता की वजह से फिल्म पचने लायक बनती है।

बेन का बेटा जोहान (रोवेन एल्म्स) भी आकर्षक लगता है। छोटा है पर अपने पिता पर उसे गर्व है। साम्यवाद, श्वेत, अश्वेत की डिबेट में वह समझता है कि सही क्या है। जैसे उसका पिता बार-बार उन लोगों को ये कहता है कि मैं सच के साथ हूं, जो भी उसे पूछते हैं कि तुम हमारे साथ हो कि उनके। वैसे ही बेटा समझता है कि उसके पिता कुछ बहुत अच्छा कर रहे हैं, जिसमें उसकी मां और बहन तक पिता का साथ नहीं दे रहीं। उसे सही का पता इतने में ही चल जाता है कि फिल्म के शुरुआती चार मिनट के क्रेडिट्स वाले सीन में वह जिस अश्वेत लड़के के साथ खेल रहा होता है वो मारा जाता है और अंत तक केस का आधार वही रहता है। फिल्म का सूत्रवाक्य ही जैसे ये है। कि अगर बेन फिल्म के आखिर में मारा भी जाए तो अपने बेटे में उसने पर्याप्त संस्कार डालें हैं कि वह उनकी विरासत को कायम रखेगा और अश्वेत भाइयों की ओर से लड़ना जारी रखेगा। ये जाहिर भी इस बात से हो जाता है जब बेन अपनी बेटी की चालाकी को समझकर उसे नकली कागज देकर भेजता है सहेजने के लिए और जब वह उन्हें लेकर सीधे पुलिसवाले के पास पहुंच जाती है, तब डोनल्ड का बेटा अपनी साइकिल पर असली डॉक्युमेंट अखबार के दफ्तर में पहुंचा रहा होता है। वह नस्लभेद के खिलाफ इस बड़ी लड़ाई और शानदार योगदान में बड़ा भागीदार होता है, इतनी कम उम्र में।

A French Poster of the movie.
ये फिल्म जरूर देखें। आज भी समाज कुछ वैसा ही है, जहां अगर कोई कुछ कड़वी सच्ची बड़ी बात बोलना चाहता है तो उसे बोलने नहीं दिया जाता। सब साथ मिल चुके हैं। कोई सवाल ही पैदा नहीं होता कि हकीकत सामने आ भी पाएगी। आप नहीं ला सकते। अरविंद रो-रोकर मर जाएंगे, हजारे आंदोलन में जान दे देंगे तो भी राजनेताओं और कॉरपोरेट्स की भ्रष्ट नीतियां कभी लोगों के सामने नहीं आ पाएंगी। संभवत, अगले 100 साल हमारा खून जब चूस लिया जाएगा तब कहीं कोई जूलियन पैदा होगा और वो कहीं से कागज निकाल-निकालकर सबकी करनी उघाड़ेगा और दुनिया सच जानेगी। ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ कुछ ऐसा सोशल रियलिस्ट ड्रामा है जैसी 1969 में आई कोस्टा गेवरास की राजनीतिक रहस्य रोमांच कथा ‘जेड’ थी, जिस पर दिबाकर ने हाल ही में ‘शंघाई’ बनाई। हो सकता है कोई ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ से प्रेरणा लेकर हिंदुस्तानी समाज के भीतर विद्यमान भेदभाव कथा कहे तो लोग संदर्भ के लिए यूजैन पाल्सी की फिल्म पर लौटकर जाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 16, 2012

जोकर बनाने की विडंबना और पागलपन की परिभाषा

शिरीष कुंदर की  फिल्म ‘जोकर’ पर कुछ लंबित शब्द

एक नई चीज, उदित नारायण ने बहुत दिन बाद गाना गाया है... “जुगनू बनके तू जगमगा जहां...” हालांकि ये उनके ‘बॉर्डर’, ‘लगान’ और ‘1942 अ लव स्टोरी’ के मधुर स्वरों से बहुत बिखरा और बहुत पीछे है। ऐसा गाना है जिसे सुनने का दिल न करे। बोल ऐसे हैं कि कोई मतलब प्रकट नहीं होता। लिखे हैं शिरीष कुंदर ने। निर्देशन, सह-निर्माण, संपादन, लेखन और बैकग्राउंड म्यूजिक (और भी न जाने क्या-क्या) सब उन्हीं ने किया है। या तो उन्हें दूसरे लोगों की काबिलियत पर यकीन नहीं है या फिर ऑटर बनने की रेस में वह फ्रांसुआ त्रफो और ज्यां लूक गोदार से काफी आगे निकल चुके हैं। खैर, नो हार्ड फीलिंग्स। उनके ट्वीट बड़े रोचक होते हैं। सामाजिक, सार्थक, हंसीले, तंजभरे, टेढ़े, स्पष्ट, बेबाक, ईमानदार और लापरवाह। लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं ‘जोकर’ की...

महीनों पहले आई न्यू यॉर्क टाइम्स की 2012 में प्रदर्शित होने वाली बहुप्रतीक्षित फिल्मों की सूची में एक हिंदी फिल्म भी थी। ‘जोकर’। बहुप्रतीक्षा थी कि जबरदस्त पटकथा वाली ये एक आश्चर्य में डाल देने वाली साई-फाई (साइंस फिक्शन) होगी। जब तक फिल्म का पहला पोस्टर बाहर न आया था, सभी को यही लग रहा था। मगर एक फिल्मी किसान वाले अच्छे से धोए-इस्त्री किए परिवेश में जब अक्षय कुमार पहली बार पोस्टर में नजर आए तो व्यक्तिगत तौर पर अंदाजा हो गया था कि ‘सॉरी वो इसे नहीं बचा सके’। हुआ वही, ‘मृत्यु’। इसे नहीं बचाया जा सका। क्यों नहीं बचाया जा सका? इस पर आगे बढ़ने से पहले शिरीष कुंदर की ‘जोकर’ की सबसे अच्छी तीन बातें:-

  • पागलों के गांव से अगस्त्य के अमेरिका तक पहुंचने का विचार कुछ वैसा ही है जैसे गांवों में अभावों या देश के किसी भी अविकसित इलाके से निकले हर पीढ़ी के युवा का पढ़ाई-लिखाई करके लायकी तक पहुंचने का होता है। ये सांकेतिक है। ऐसा सोचा जा सकता है। हो सकता है पटकथा लिखते हुए फिल्मकार ने ये बड़ी शिद्दत से सोचा है, हो सकता है उसने बिल्कुल भी नहीं सोचा है। पर फिल्म में ये (अपरिवक्वता से फिल्माई) अच्छी बात है।
  • अमेरिका से आए हैं तो कोई प्रोजेक्ट लगाने के लिए ही आए होंगे? पानी... अच्छा मिनरल वॉटर प्लांट? कोई भी एनआरआई भारत आता है और किसी सरकारी नुमाइंदे या राजनेता से मिलता है तो उनकी यही धारणा उसके बारे में होती है। मसलन, सुभाष कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में दिवालिया हो चुके रजत कपूर के किरदार का भारत आना और वहां उन्हें डॉलरपति समझकर अगुवा कर लिया जाना। ये धारणा और हकीकत (अपरिवक्वता से फिल्माई) दिखाई जानी अच्छी है।
  • जब पगलापुर में बिजली आने की घोषणा कर दी जाती है और वहां दूर-दूर से आए लोगों का मेला जुटना शुरू होता है तो एक गाना आता है। उसमें फ्रिज बेचने वाली दुकानों और बाजारवाद की आंशिक आलोचना की गई लगती है, जो सार्थक है।

...पर अंततः ये सब बिखरा है।

फिल्म शुरू होती है कैलिफोर्निया से। अगस्त्य (अक्षय कुमार) यहां एक वैज्ञानिक है। परधरती पर जीवन की खोज कर रहा है। एलियंस से संपर्क करने की मशीन बना रहा है। यहां राकेश रोशन और ‘कोई मिल गया’ की याद आती है, जब अगस्त्य कहता है, “या तो बाहर कोई दुनिया नहीं है, या मेरे पास वो मशीन नहीं है जिससे एलियंस से संपर्क हो सके”। खैर, हम नए संदर्भ तो पाल ही नहीं सकते। ले दे के दो-तीन तो हैं। बहरहाल, जो रिसर्च के लिए अगस्त्य को पैसा दे रहे हैं उन्हें नतीजे चाहिए। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए उसके पास एक महीना है। थका-हारा ये एनआरआई घर पहुंचता है। घर पर उसकी गर्लफ्रेंड-कम-वाइफ दीवा (सोनाक्षी सिन्हा) इंतजार कर रही होती है। इस खबर के साथ कि इंडिया से अगस्त्य के भाई का फोन आया था कि उसके पिता की तबीयत बहुत खराब है, फौरन चले आओ। दोनों भारत निकलते हैं। अलग-अलग परिवहन से पगलापुर पहुंचते हैं। जगह जो भारत के नक्शे पर नहीं है। कहा जाता है कि इसी वजह से यहां कोई भी आधारभूत ढांचा नहीं है। इसे पागलों का गांव बताया जाता है। यहां आते-आते मुझे आशंका होने लगती है कि पगलापुर नाम से शुरू की गई ये कॉमेडी उनके साले साहब साजिद खान की फिल्मों (हे बेबी, हाउसफुल, हाउसफुल-2) की कॉमेडी की दिशा में ही जा रही है। एनिमेटेड चैपलिन सी, गिरते-पड़ते किरदारों वाली, अजीब शाब्दिक मसखरी वाली और ऊल-जुलूल।

अगस्त्य और दीवा पैदल गांव में प्रवेश कर रहे हैं कि उन्हें छोटा भाई बब्बन (श्रेयस तलपडे) दिखता है। वह कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठा होता है, उसे ही काट रहा होता है। बाद में दिखता है कि वही नहीं बहुत से दूसरे गांव वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं और बाद में सभी डाल कटने पर नीचे गिर जाते हैं। ठीक है, ऐसा हो सकता है, हम हंस भी सकते हैं, पर फिर पूरे संवाद, घटनाक्रम, कहानी में उसी किस्म का सेंस बनना चाहिए। जो नहीं बनता। श्रेयस के किरदार की भाषा जेम्स कैमरून की फिल्म ‘अवतार’ के नावी की तरह बनाने की कोशिश की गई है। पर श्रेयस बार-बार कुल तीन-चार शब्दों को ही बोल-बोलकर हंसाना चाहते हैं और ऐसा हो नहीं पता।

आगे बढ़ने पर खुले में बच्चों को पढ़ा रहे मास्टरजी (असरानी) दिखते हैं। वह बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे होते हैं। बच्चों को कहते हैं, “जोर से बोलो”, तो बच्चे बोलते हैं, “जय माता दी”, इस पर मास्टरजी कहते हैं “अरे पहाड़ा जोर से बोलो”। इतनी बार सार्वजनिक दायरे में इस चुटकुले को सुना-सुनाया जा चुका होगा पर फिल्म में इस्तेमाल कर लिया जाता है। असरानी का ये किरदार अंग्रेजी की टांग मरोड़कर बोलता है। जब वह कहते हैं “हेयर हेयर रिमेन्स”... तो उसका मतलब होता है ‘बाल-बाल बचे’। इसी पाठशाला से पढ़कर साइंटिस्ट बना है सत्तू (अगस्त्य का गांव का नाम)।

मास्टरजी के दो अंग्रेजी के जुमले भी पढ़ते चलें...
“हाइडिंग रोड़” (ये छुपा हुआ रास्ता है)
“डोन्ड फ्लाइ आवर जोक्स” (तुम हमारा मजाक उड़ा रहे हो)

हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी न बोल पाकर किरदारों ने बहुत से अंग्रेजों को हंसाया है। इनमें सबसे कामयाब मानें तो हाल में संजय मिश्रा के किरदार रहे हैं। वह ‘गोलमाल-3’ जैसी फिल्मों में जिस अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करते हैं उसकी स्पेलिंग गलत बोलते हैं और लोग हंसते हैं। ऐसा उनका किरदार अनवरत एक समान करता है, कहीं भी बिना किसी भटकाव के। पर मास्टरजी तो एक टूटती कलम से लिखे गए किरदार हैं, ये शुरू के दो मौकों पर हंसा देते हैं तो पटकथाकार आगे फर्जीवाड़ा करके निकल जाता है।

पगलापुर के किरदारों के परिचय के मौके पर लोग हंसते हैं। मुझे लगता है, लोग पागल शब्द से जोड़कर देखते हैं हर घटना, किस्से और आदमी को। फिल्म के किरदारों की हरकतों पर लोग ज्यादा हंसते हैं क्योंकि कहीं न कहीं उनके दिमाग की परतों में सिनेमा के पागल किरदारों और उनपर हंसने की प्रवृत्ति हावी है। यहां जब कह दिया जाता है कि ये पगलापुर के लोग हैं और इनका खौफ इतना है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी जो भारत के नक्शे पर गावों और कस्बों को दर्ज कर रहा होता है, उन्हें आता देख गांव के बाहर से ही अपनी गाड़ी मुड़वा लेता है। पर असल मायनों में ‘पागल’, ‘ग्रामीण’, ‘हंसोड़’ और ‘भोले’... इन चार शब्दों में शिरीष ने कोई फर्क नहीं किया है। कहीं पर जो ग्रामीण भर है वो पागल लगता है, कहीं पर जो पागल है वो महज ग्रामीण लगता है। कहीं वो बस भोले लगते हैं पागल नहीं, कहीं वो बस हंसा देना चाहते हैं कमतर नहीं होना चाहते। पर यहीं किरदारों-शब्दों का निरूपण न करने की बेपरवाह प्रवृत्ति नाखुश करती है और फिल्म को मृत्यु की ओर ले जाती है।

कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिता के पास पहुंचने पर अगस्त्य को पता चलता है कि वह तो बिल्कुल ठीक हैं (हालांकि यहां तक उन्हें पागल बताया जाता है)। जब नाराज होकर वह निकलने लगता है तो पिता (दर्शन जरीवाला) रोकते हैं और समझाते हैं कि इतने साल से उनका गांव नक्शे पर नहीं है, कोई सरकारी मदद और विकास उन तक नहीं पहुंचता, चूंकि तुम पढ़-लिखकर आगे बढ़े हो तो गांव के अपने भाइयों को भी इस दलदल से निकालो (दलदल, जिसे सभी काफी एंजॉय करते प्रतीत होते हैं)। ये सुनकर अगस्त्य रुक जाता है। यहां तक ‘सबकुछ ठीक है’, ‘अच्छा है’, ‘बहुत बुरा है’, ‘ऐसा क्यों’, ‘अरे यार’, ‘अरे शिरीष’, ‘धत्त’, ‘स्टूपिड’... ये विचार मन में चल रहे होते हैं। फिल्म खत्म होने तक सभी नैराश्य में तब्दील हो जाते हैं।

जानते हैं कुछ जिज्ञासाएं और बिंदुपरक बातें जो शिरीष की इस कोशिश को सम्मान नहीं दिला पातीं:-

  • यहां सब पागल हैं फिर भी इनकी बातों को सीरियसली लेकर अगस्त्य गांव क्यों चला आता है? और फिर बब्बन तो बोल भी नहीं सकता, फिर अगस्त्य का कौनसा भाई कैलिफोर्निया दीवा से फोन पर बात करता है? चलो बात किसी ने भी की हो, पर अगस्त्य को तो पता है न कि उसका भाई आम भाषा में बोल नहीं सकता। इतना सब न सोचने और गांव चले आने पर अक्षय के किरदार का नाराज होना।
  • एक तरफ हमें यकीन दिलाया जा रहा है कि ये पागलों का गांव है। इसका नाम तक किसी ने नहीं सुना और यहां कोई आता नहीं है। फिर अक्षय-सोनाक्षी के किरदार जिस दिन पहुंचते हैं, उस रात पगलापुर में शानदार आलीशान ग्लैमरस आइटम सॉन्ग का आयोजन किया जाता है। यहां बिजली नहीं है, पानी नहीं है, आधारभूत ढांचा नहीं है पर आइटम सॉन्ग के लिए दुरुस्त लड़कियां-सेट और रोशनी आ जाती है। यहां पढ़ने के लिए रोशनी नहीं है पर इस गाने के सेट को देखिए जो चित्रांगदा सिंह से ज्यादा दमक रहा होता है। कहते हैं यहां पढ़ाई ही नहीं है, पर गाने के लिरिक्स देखिए। पीछे खड़े सैंकड़ों डांसर देखिए। अगर ये गांव के ही हैं तो पागल क्यों नहीं? दिखने में तो बस ज्यादातर खूबसूरत लड़कियां हैं या फिर गे या वृहन्नला।
  • यहां सब घर टूटे हैं, खंडहर से हैं। पर अक्षय-सोनाक्षी एकदम साफ-सुथरे हैं। उन्होंने गांव पहुंचने के बाद मुंह कहां धोया, नाश्ता क्या किया? रात तक पता नहीं चलता। (ये सब वो चीजें हैं जो फिल्म के सेट पर चीजों के मैनेज करते डायरेक्टर की टेंशन में नहीं आती कि छूट जाएं। ये वो चीजें हैं जो पटकथा लिखने की टेबल पर ही लिखी जाती हैं। अगर आप सैंकड़ों घंटे एक एनिमेटेड एलियन बनाने में लगा सकते हैं तो इन मूल चीजों को दुरुस्त करने में क्यों नहीं?)
  • श्रेयस और विंदू के कपड़े और अभिनय। इनका क्लीन शेव्ड चेहरा, सामान्य रूप से कटे बाल, न जाने किस काल के किसानी कपड़े और जिंदगी के पहले स्कूल प्ले सी एक्टिंग क्या नाव में बड़े-बड़े छेद नहीं हैं?
  • प्रिंस के कुएं में गिरने की बात को इतने साल बाद फिल्म में संदर्भ के तौर पर लिया जाना। क्या उसके बाद कोई बच्चा कुएं में नहीं गिरा? उसे क्यों नहीं लिया जा सकता था?
  • जहां बिजली नहीं है वहां टीवी या मल्टीप्लेक्स के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में एक दृश्य में बब्बन बने श्रेयस 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लगान’ के गीत “घनन घनन घन घिर आए बदरा” को अपनी एलियन सी भाषा में गुनगुना रहे होते हैं। ये कैसे?
  • ये अभावों से ग्रस्त इलाका है। बिजली नहीं है तो ट्यूबवेल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। नहरी खेती के लिहाज से भी सरकारी फाइलों में पानी की बारी का यहां के खेतों में आ पाना संभव नहीं है। जब कोई विकल्प ही नहीं है तो क्या मान लें कि महज बरसाती खेती करके पगलापुर के लोगों ने आलीशान फसलें खड़ी कर रखी हैं? ऐसे लोगों ने जो कथित तौर पर पागल हैं। जिन्हें अपने घर पर सफेदी करने तक का शऊर नहीं है।
  • बिन बिजली अगस्त्य का एप्पल का लेपटॉप यहां कैसे चार्ज होता है?
  • लोकल नेता गांव के लिए बिजली की घोषणा भर करता है कि बस मेक्डी, लैपटॉप और कोका कोला जैसे ब्रैंड के जगमगाते होर्डिंग तुरंत लग जाते हैं (तुरंत कायापलट हो जाता है) कैसे? इतने बड़े ब्रैंड इतनी अंदरुनी जगह पर कैसे पहुंच जाते हैं? क्या इंतजार कर रहे होते हैं? (अगर इस तथ्य को सांकेतिक तौर पर लिया गया है तो भी फिल्म में यूं फिट नहीं होता) और फिर पगलापुर के सब लोग अजीब सी घड़ियां, गॉगल्स, जूते और कलरफुल जैकेट तो गांव में ब्रैंड्स के आने से पहले ही पहनने लग जाते हैं।
  • अमेरिकी साइंटिस्ट और अगस्त्य के प्रतिस्पर्धी साइमन को ढूंढने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी एफबीआई के हैलीकॉप्टर्स पगलापुर के आसमान में उड़ते नजर आते हैं। क्या पगलापुर भारतीय टैरेटरी में नहीं आता है? क्या ये अफगानिस्तान या क्यूबा की खाड़ी है कि अमेरिकी लोगो लगे हैलीकॉप्टर इस तरह खुले तौर पर कभी भी घुस आएं? भारतीय वायुसेना क्या ऐसे वक्त में सांप-सीढ़ी खेल रही होती है?
  • जमीन से तेल निकलता है तो क्या उससे कोई नहाता है? फिर यहां सब गांववाले क्यों नहाते हैं?

फिल्म में ऐसे कई और सवाल भी बनते हैं, पर इतनों से चित्र स्पष्ट होता है। ये कैसी विडंबना है कि शिरीष बड़े सपने देखते हैं और उनका पालन करते वक्त न जाने क्या गलतियां कर बैठते हैं कि ख्वाबों का एक-एक पंख टूटकर बिखर जाता है। वह कहीं बाजारवाद की सफल आलोचना कर पाते हैं तो कहीं पर विकास की अवधारणा को रत्तीभर भी नहीं समझ पाते। ‘जोकर’ के आखिर में वह दिखाते हैं कि पगलापुर की जमीन के नीचे बह रहा तेल फूट पड़ा है और अब विकास होगा। क्या तेल निकलना किसी जगह के लिए विकास का प्रतीक होता है? एक इंसान, विचारक और फिल्मकार के तौर पर वह क्या समाज और विकास के मॉडल की इतनी ही समझ रखते हैं? जितनी निराशाजनक ये डेढ़ घंटे की फिल्म है उतना ही ये असमझियां। इससे अच्छा तो तेल और खून से सनी डेनियल डे लुइस के अभिनय वाली ‘देयर विल बी ब्लड’ देखना है जो तेल के कुओं वाली जगहों और तेल से नहाए लोगों पर धारदार टिप्पणी करती है। और ‘जोकर’ हंसते-हंसते भी सामाजिक-आर्थिक विद्रूपताओं का कान नहीं मरोड़ पाती।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, September 6, 2012

टाइगर हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर नहीं है, बस एक फिल्म है, जिसे देखनी थी देख ली, जिसे देखनी है देख लेगा

“In the dark world of intelligence and espionage, there are shadows without faces, and faces without names. Governments fight shadow battles through these soldiers of the unknown. Battles have no rules, No limits. Nobody on the outside knows what goes on in these secret organizations. All information is guarded in the name of National security. But, some stories escape the fiercely guarded classified files. Stories that become legends. This is a film about one such story, a story that is spoken about only in hushed whispers. A story that shook the very foundation of this dark world. But like all reports that come out of this uncertain world, nobody will ever confirm those events. It may or may not have happened. This story is about an agent named TIGER. It may now be told...”

गंभीर प्राक्कथन। पढ़ने के बाद हमारी भौंहे किसी रहस्य-रोमांच और बुद्धिमत्ता भरी कहानी को देखने के लिए खुद को तैयार करती हैं। उम्मीद करती हैं कि कोई ‘बोर्न आइडेंटिटी’ माफिक चतुर पटकथा रास्ते में जरूर आएगी। चूंकि ‘काबुल एक्सप्रेस’ जैसी सहज फिल्म बनाने वाले (मिसाल में ‘न्यू यॉर्क’ को न जोड़ें) कबीर खान का निर्देशन है और कहानी को इंडिया के असली जासूस गंगानगर मूल के रविंद्र कौशिक (उनका छद्म नाम ‘ब्लैक टाइगर’ था) की जिंदगी पर आधारित बताया जाता रहा, तो यहां तक दर्शक को भी सहज रहने और फिल्म देखकर कुछ नया पाने की उम्मीद करने का पूरा अधिकार रहता है। मगर जब फिल्म के जासूसी किरदार टाइगर के साथ सलमान खान का नाम जुड़ता है तभी से ये प्राक्कथन और गंभीरता की उम्मीदें खत्म करनी पड़ती हैं। यहां से स्क्रिप्ट, निर्देशक और टाइगर का किरदार गौण हो जाता है और सलमान खान व उनके तथाकथित प्रशंसक मुख्य हो जाते हैं। तो फिल्म देखने के तमाम मानदंड यहां बदलते हैं।

‘वॉन्टेड’, ‘दबंग’, ‘रेडी’ और ‘बॉडीगार्ड’ के बाद ‘एक था टाइगर’ भी बंधे-बंधाए सूत्रों और अपेक्षाओं के साथ आती है। (बंधे-बंधाए सूत्र और अपेक्षाएः- कहानी शुरू होगी। हीरो, हीरोइन, विलेन, हीरो का मिशन और बाकी कुछ चीजें स्थापित होंगी। थोड़ी देर में केंद्र में हो जाएंगी हीरो-हीरोइन की नोक-झोंक, बार-बार मिलना, गाने गाना, डायलॉगबाजी और चुहलबाजी। फिर वफादार दर्शक सलमान भाई और उनकी प्रचलित अठखेलियों के आगोश में कहकहे लगाएगा। काफी देर बाद हीरो से विलेन मिलेगा। या फिर कहानी का मुख्य बिंदु, गाड़ी चल पड़ेगी और फिल्म आगे बढ़कर खत्म हो जाएगी।) और उन पैमानों पर ‘एक था टाइगर’ अव्वल आती है। कोई शिकायत नहीं रहती। पर काली कलम लेकर काले अक्षर उकेरे जाने हमेशा जरूरी रहे हैं। तो...

‘एक था टाइगर’ की सबसे चतुर चीज वो लगती है जब क्यूबा की धरती पर गाना गाते सलमान और कटरीना से ध्यान हटाकर कैमरा एक दीवार की तरफ केंद्रित होता है। इस दीवार पर वहां की भाषा में साम्यवादी क्रांतिकारी हीरो चे गुवेरा का एक कथन लिखा होता है, जिसका अर्थ होता है, “जिस मुहब्बत में दीवानगी नहीं, वो मुहब्बत ही नहीं”। सही कहूं तो इस उक्ति के चतुर इस्तेमाल के अलावा न तो मुहब्बत कहीं नजर आती है, न दीवानगी। नजर आता है तो बेहद चतुराई से फिल्माया गया (चतुर यूं कि इसे देखते हुए ज्यादातर वक्त ये लगता है कि इन स्टंट्स में सलमान खान ने बॉडी डबल का इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि सारी विस्मयकारी उछल-कूद मोरक्को जैसी लगने वाली (उत्तरी इराक) किसी विदेशी धरती पर उन्होंने खुद की है) फिल्म का ओपनिंग एक्शन सीक्वेंस। सब्जी बाजार, छतों, खिड़कियों, सड़कों और भीड़ के बीच कारीगरी भरी एडिटिंग और छायांकन के अलावा अगर कोई इन एक्शन को ध्यान से देखेगा तो पाएगा कि सलमान की ही काठी का कोई नौजवान ये सीन कर रहा है। जहां कहीं सामने की ओर से भागते सलमान दिखते हैं, वहां कंप्यूटर ग्राफिक्स से किसी बॉडी डबल के चेहरे पर सलमान का मुखौटा लगाया होता है। जैसा बहुत बरस पहले एक कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन में सचिन और उनका मुखौटा लगाए बच्चे नजर आए थे। बहुत बारीकी से देखें तो आसानी से फर्क जान पाएंगे। जब बात स्टंट की हो रही है तो फिल्म में ट्रैन में लड़ने वाला सीक्वेंस पूरी तरह हवा-हवाई है, यानी ऐसा असंभव स्टंट जो काल्पनिक कहानी में भी संभव तरीके से नहीं फिल्माया लगता। वहीं सबसे आखिर में एक चार्टर्ड हवाई यान के समानांतर मोटरसाइकिल दौड़ाकर उछलना और यान को पकड़ना, बेहद प्रभावी दृश्य है। असंभव है, पर फिल्माने के तार्किक तरीके से संभव हो जाता है।
विदेशी मिशन पर जाने और हीरोइक करतब करने के अलावा टाइगर (सामाजिक जीवन में उसका नाम ये नहीं है) की दिल्ली की औसत कॉलोनी में रहने वाली लाइफ भी है। सुबह किसी आम आदमी की तरह ही, वह अपने दरवाजे पर पतीला पकड़े खड़ा होता है, पतीले में दूधवाला दूध गिरा रहा होता है। वहां बनियान पहने टाइगर के पहलवानी रूप और दर्शकों के सब-कॉन्शियस माइंड में पसरे सलमान खान के ऑरा का मिलन सा हो रहा होता हैं। यहां पर कुछ ग्लैमर टूटता है तो दर्शक इसे बदलाव के तौर पर लेते हैं कि देखो दिल्ली के रियलिस्टिक मोहल्ले में खड़ा है सलमान। जब फिल्म में बतौर डायरेक्टर कबीर खान और लेखक नीलेश मिश्रा जुड़े हों तो दिल्ली का वास्तविक रूप कुछ तौर पर शामिल करने की कोशिश तो दिखनी ही थी। ये और बात है कि वो वास्तविकता सही से नहीं आ पाई।

कहानी यहां से ट्रिनिटी कॉलेज पहुंचती है। रॉ प्रमुख शेनॉय (गिरीष कर्नाड) टाइगर को एक नए मिशन पर यहां भेजता है। उसे यहां ट्रिनिटी में पढ़ा रहे एक छद्म प्रफेसर (रोशन सेठ) पर नजर रखनी है। पैंट, शर्ट, कोट और टाई पहने ये जेंटलमैन कैंपस में पहुंचते हैं। इस दौरान टाइगर को पेशाब की हाजत होती है, पर वक्त नहीं मिलता, प्रफेसर निकल जाते हैं। तो झाड़ियों में मुक्त होने गया टाइगर साइकिल ले फिर प्रफेसर के पीछे भागता है। यहां हल्के में निकलने से पहले ये तथ्य भी सही से सामने आता है कि एक असल जासूस की जिंदगी कितनी मुश्किल होती है। प्रफेसर के पीछे जाने पर उनके घर की शिनाख्त बाहर से टाइगर कर लेता है। यहां उसे मिलती है जोया (कटरीना कैफ) जो प्रफेसर के घर में आ-जा सकने वाले अकेली शख्स है। रात में टाइगर जोया के हॉस्टल पहुंच जाता है।

वह खिड़की से देखती है कि टाइगर सामने बेंच पर लेटा है तो उसके कमरे में आने को बोलती है जो एक मंजिल ऊपर होता है। जोया टाइगर को पाइप पर चढ़कर आने को बोलती है तो वह उसके देखते सामने नहीं चढ़ता। लगता है, अपनी रॉ एजेंट होने की पहचान गुप्त रखना चाहता है और एकदम से पाइप पकड़कर चढ़ गया तो जोया को शक होगा कि ये राइटर तो हो नहीं सकता। पर आगे ऐसा नहीं होता। वह चढ़ जाता है। धीरे-धीरे वह जोया के मोह में यूं पड़ता है कि अपनी लेखक होने की छवि गढ़ने पर ध्यान नहीं देता और प्यार में पड़ता जाता है। दोनों के बीच एक रिश्ता बनता जाता है। एक सीन में जब टाइगर जोया को किताब उपहार में देता है तो वह रोने लगती है। वह पूछता है, कि रो क्यों रही हो तो जोया कहती है कि किसी की याद आ गई। फिल्म में यही एक खास जगह होती है, जहां सलमान के भाव बेहद प्राकृतिक लगते हैं।

ऐसे कुछेक मौकों पर वह अपनी पारंपरिक छवि से जरा अलग होते हैं, पर बीच-बीच में पुराने टोटके आते जाते हैं। मसलन, कोई टाइगर को कुछ पूछता है तो वह सोचने लगता है। उसके सोचने के भीतर एक जासूस के काम की मुश्किलों को दर्शकों के सामने मजाकिया तरीके से परोसा जाता है। कभी सोचने में उसके पीछे कुत्ते दौड़ रहे होते हैं तो कभी चाइनीज, अंग्रेज, बुर्केवाली और दूसरे किस्म की अंगरक्षक खूबसूरत लड़कियां। फिल्म में कटरीना के आमसूत्र के विज्ञापन मुताबिक रस से भरे होठ सबसे प्रॉमिनेंट रहते हैं। बंजारा... गाने में उनके होठ पर कैमरा इतनी मादकता से केंद्रित होता है कि लगता है उनमें कोई बड़ा सा इंजेक्शन घौंपा गया है। फिल्म का ये सबसे बुरा वक्त होता है।

तकनीकी तौर पर कुछ गड़बड़ियां भी रहती हैं। भारत-पाक के नुमाइंदे जब इस्तांबुल में मिलते हैं तो वहां इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लोग दौड़कर भीतर आते हैं और तुरंत सवाल पूछने लगते हैं। असल में ऐसा कहीं नहीं होता। सुरक्षा कारणों से डेलेगेट्स और प्रेस के बीच एक कोड ऑफ कंडक्ट होता है। प्रेस को एक नियत जगह पर खड़ा होना या बैठना होता है। वो वहीं से खड़े होकर अनुशासन से सवाल पूछ सकते हैं। कॉन्फ्रेंस में लाल बॉर्डर वाली काली सलवार-कमीज पहने सिर पर चुन्नी डाले कटरीना पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी सी ज्यादा लगती हैं और किसी आईएसआई एजेंट सी कम। वैसे हो भी सकता है क्योंकि सीक्रेट एजेंट तो कोई भी हो सकता है।
बाद में फिल्म क्यूबा पहुंचती है। जहां अपनी-अपनी गुप्तचर एजेंसियों को धता बता, अपने प्यार के पर फैलाए जोया-टाइगर चले आते हैं। पहले हिंदी फिल्मों में यूं क्यूबा नहीं आया गया है। संदर्भ के लिहाज से (दोनों किरदारों का दुनिया के खूबसूरत टूरिस्ट स्पॉट पर यूं भटकना) फिल्म यहां एंजलीना जॉली की ‘सॉल्ट’ और उनकी-जॉनी डेप की ‘द टूरिस्ट’ जैसी भी लगती है। पर खूबसूरत लोकेशन पर जाने से काम नहीं चलता। हवाना, क्यूबा जाने को एयरपोर्ट पर भेस बदलकर खड़ी कटरीना की नाक और सलमान की दाढ़ी खूब नकली लगती है, समझ नहीं आता कि उन्होंने इस रफ मेकअप को फाइनल प्रिंट में स्वीकार कैसे कर लिया। वह मेकअप लरत-लरज गिरता लगता है।

इस साल मार्च में ‘एजेंट विनोद’ आई थी। हॉलीवुड की बॉन्ड और जेसन बॉर्न फिल्मों के जवाब में। अब आई है ‘एक था टाइगर’। हालांकि इस लीग से तो ये फिल्म तुरंत बाहर हो जाती है, पर भारत के कस्बाई दर्शकों के लिए ठीक-ठाक मनोरंजन लेकर आती है। हिंदी सिनेमा में सीधे तौर पर फिल्म का कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहेगा। न ही प्रस्तुति और कहानी कहने के ढंग में कोई अनूठापन है। बस ये एक फिल्म है, सलमान खान की फिल्म, कटरीना कैफ की फिल्म, जिन्हें देखनी थी थियेटर में देखी, जिन्हें फिर देखनी है जल्दी ही टीवी प्रीमियर में देख पाएंगे। इससे ज्यादा बात करने को कबीर खान की ‘एक था टाइगर’ में कुछ है नहीं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, August 30, 2012

"मरने से पहले दस अच्छी फिल्में बनाना चाहती हूं बस"

शोनाली बोस से बातचीत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'अमु' की निर्देशक

शोनाली बोस ने 1984 के दंगों पर 2005 में एक फिल्म बनाई थी। नाम था ‘अमु’। बेहद सराही गई। उस साल फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला। इस साल के शुरू में ‘अमु’ और अपनी नई स्क्रिप्ट ‘मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ’ के लिए शोनाली को दुनिया का बड़ा प्रतिष्ठित ‘सनडांस-महिंद्रा फिल्ममेकिंग अवॉर्ड-2012’ दिया गया। पहली बार किसी इंडियन का यह अवॉर्ड मिला था। इसके अलावा 1930 के चिटगॉन्ग विद्रोह पर लिखी उनकी फिल्म ‘चिटगॉन्ग’ भी रिलीज को तैयार है। इसे शोनाली के नासा में साइंटिस्ट हस्बैंड देबब्रत ने डायरेक्ट किया है। उनसे काफी वक्त पहले बातचीत हुई। वह ऐसी इंसान हैं जिनसे जिंदगी और उसके किसी भी पहलू पर गर्मजोशी से बात की जा सकती है। कोई चीज उन्हें दबाती नहीं, कोई विषय उन्होंने भटकाता नहीं और तमाम मुश्किलों के बीच वह जरा भी मुरझाती नहीं। दो साल पहले उनके 16 साल के बेटे ईशान की मृत्यु हो गई। जिस वैल्स ग्रूम्समैन कंपनी के दाढ़ी-मूंछ ट्रिमर को इस्तेमाल करते हुए ईशान की जान गई आज उसके खिलाफ शोनाली और बेदब्रत लॉस एंजेल्स के कोर्ट में केस लड़ रहे हैं। प्रस्तुत है शोनाली से हुई बातचीत के कुछ अंशः

आपको सनडांस और महिंद्रा का संयुक्त अवॉर्ड मिला। ये अवॉर्ड कितना बड़ा है, क्या है?
ग्लोबल अवॉर्ड है। वर्ल्ड सिनेमा में योगदान देने के लिए पहली बार किसी भारतीय को यानी मुझे दिया गया है। दुनिया के चारों कोनों से लोगों को मिला, पहली फिल्म ‘अमु’ और अगली फिल्म की स्क्रिप्ट के लिए मिला है। ‘अमु’ मेरी सबसे प्यारी फिल्म रही है तो उसके लिए भी मिला इसकी खुशी ज्यादा है।

‘मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ’ क्या है, कहानी जेहन में कैसे आई?
इसका आइडिया मुझे जनवरी 2010 में आया। जनवरी में पटकथा लिखनी शुरू की और जून तक पूरी कर दी। लैला की कहानी है। उसका शानदार-हंसोड़ दिमाग एक अवज्ञाकारी देह में फंसा है। वह बार-बार प्यार में पड़ती है, यौन संबंध बनाना चाहती है और बॉलीवुड सॉन्गराइटर बनना चाहती है।

इसकी कास्टिंग को लेकर कौन-कौन दिमाग में हैं?
18 साल की लड़की के लीड रोल में कोई बिल्कुल नई लड़की होगी। एक पावरफुल रोल है उसमें विद्या बालन के लिए ट्राई कर रहे हैं।

Poster of 'Amu'
छह-सात साल बाद अब अमु को देखती हैं तो फिल्म आपको कितनी कमजोर या मजबूत लगती है?
अमु मेरे बच्चे जैसी हैं। एक मां अपने बच्चे को किन आंखों से देखें... पर ओवरऑल प्राइड और लव की फीलिंग है। अभी भी मुझे हर रोज मेल आते हैं, लोग कहते हैं कि आई लव्ड इट। वो मेरी शुरुआत थी।

कबीर के रोल में अंकुर खन्ना भी फिल्म में थे। उन्हें आपने कहां से कास्ट किया। वृंदा कारत को कैसे लिया?
वृंदा मेरी मौसी हैं, मां जैसी हैं, नहीं तो वो नहीं करती। मैं हमेशा नया फेस चाह रही थी। मुझे मालूम था कि वो बड़ी कमाल एक्ट्रैस हैं। वो पहले थियेटर में थीं, फिर राजनीति में चली गईं। मैं तो उनके साथ रहती ही हूं। तो मुझे पता था कि वो राइट पर्सन थी। मैंने मुश्किल से मनाया। मुझे याद है फिल्म देखने के बाद नसीरुद्दीन शाह ने फोन करके कहा कि ये किसी भी इंडियन एक्टर का बेस्ट परफॉर्मेंस था अब तक का, किसी भी फिल्म में। जहां तक अंकुर को लेने का सवाल है, तो मुझे प्रैशर था कि एक्टर में शाहरुख को लो या बड़े स्टार को लो, पर मैं नया एक्टर लेना चाहती थी। ऐसा लड़का चाहती थी जो वलनरेबल (कुछ कमजोर) हो इसलिए उन्हें लिया। अंकुर मुंबई के हैं, कलकत्ता में बड़े हुए, दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़े। कोंकणा के बैचमेट थे, साथ एक्टिंग करते थे। तब वो कोंकणा के बॉयफ्रैंड थे। वैसे वो खुद डायरेक्टर भी हैं।

और कोंकणा सेन शर्मा फिल्म में कैसे आईं?
कजोरी का किरदार कोई इंडियन-अमेरिकन ही निभा सकती थी। मैंने एक हजार लड़कियों को ऑडिशन किया था। दूसरे रोल के लिए बड़े लोगों को भी अप्रोच किया। अपर्णा सेन से भी संपर्क किया। उन्होंने कहा कि मैं तो पहले ही एक फिल्म डायरेक्ट कर रही हूं इसलिए ये रोल नहीं कर पाऊंगी। फिर उन्होंने पूछा कि लड़की के रोल में किसे ले रही हो? मैंने कहा, ऐसा-ऐसा रोल है और ढूंढ रही हूं तो उन्होंने अपनी बेटी कोंकणा का नाम सुझाया। मैंने सोचा, हद है, मैं मां को लेने आई और ये बेटी को थोप रही है। फिर मैं वहां से निकली। कुछ दिन बाद मैंने अपर्णा मासी को फोन किया और कोंकणा को स्क्रिप्ट देने के लिए कहा। फिर ऑडिशन के लिए उन्हें दिल्ली बुलाया। पर मैंने कहा कि रहना मेरे ही घर पर होगा क्योंकि होटल वगैरह का खर्च नहीं दे सकती। तो इस तरह कोंकणा फिल्म में आईं।

अमु के बाद दूसरी फिल्म में इतना वक्त क्यों लिया?
‘चिटगॉन्ग’ 2009 में शुरू की। उससे पहले ‘अमु’ 2007 में अमेरिका में रिलीज हुई। हमारे लिए नॉर्थ अमेरिका की रिलीज बहुत जरूरी थी। तो बड़ी मेहनत थी। चूंकि फिल्म वहां की सिख कम्युनिटी के सहारे और मदद से बनी थी इसलिए उन्हें दिखानी जरूरी थी। ऊपर से मैं ‘अमु’ को डाऊनटाउन में रिलीज करना चाहती थी, वहां जहां मैनस्ट्रीम अंग्रेजी फिल्में रिलीज होती हैं। तो 2007 में यूएस-कैनेडा रिलीज था। ‘चिटगॉन्ग’ को मैं और मेरे हस्बैंड देबब्रत साथ मिलकर डायरेक्ट करना चाहते थे, फिर हमने फैसला लिया कि वो ही करेंगे। ताकि लोग उसे शोनाली की फिल्म न बताएं।
Shonali with Bedabrata

देबब्रत के बारे में कुछ बताएं?
वह नासा के टॉप साइंटिस्ट हैं। आपके सेलफोन में जो कैमरा होता है उसका चिप उन्होंने ही डिजाइन किया था। आईआईटी पासआउट थे। सत्यजीत रे, रित्विक घटक का प्रभाव था उनपर कलकत्ता में पलते-बढ़ते हुए। ‘अमु’ की मेकिंग में पूरे वक्त वो मेरे साथ थे।

आप फिल्ममेकर पहले हैं कि सोशल एक्टिविस्ट? क्या किसी फिल्ममेकर को फिल्में बनाते हुए इतना मजबूती से सामाजिक और पॉलिटिकल मुद्दों पर कमेंट करना चाहिए जितना आपने ‘अमु’ के वक्त किया?
मैं एक्टिविस्ट ही हूं। 18 की थी जब 1984 दंगों के बाद मंगोलपुरी-त्रिलोकपुरी कैंप्स में जाती थी। भोपाल गैस ट्रैजेडी में भी दिल्ली से ही हिस्सा लिया। मिरांडा की स्टूडेंट बॉडी में एक्टिव थी। तब कई लड़कियों और औरतों के साथ ईव टीजिंग होती थी तो उसका विरोध मैंने किया और कार्रवाही शुरू करवाई जो पहले दिल्ली में नहीं होती थी। ये छोटा सा मुद्दा है पर बता रही हूं कि जुड़ी थी। मैंने देखा कि हर कैंप में सिख रो-रोकर बता रहे थे कि हमारे हिंदु पड़ोसियों ने हमें बचाया। जबकि अखबार में आता है कि ये स्वतः ही हुआ। पढ़कर मैं चकित थी। जब हम ‘अमु’ शूट कर रहे थे तो जगदीश टाइटलर ने हमें डराया कि शूट बंद करो। पर हमने कहा कि नहीं बंद करेंगे। हमने हथियारबंद होकर सामना किया। दो रिंग बनाई शूट के इर्द-गिर्द। मुझे अब भी धमकियां मिलती हैं। फिल्म को सेंसर बोर्ड ने ए सर्टिफिकेट दिया। वो लाइन मिटा दी जिसमें दंगों में शामिल छह जनों का जिक्र होता है। एक बार हमने फिल्म सरदार पटेल स्कूल में प्रीमियर की, वहां बच्चों ने पूछा कि मैम हमें क्यों नहीं बताया गया अपने पास्ट के बारे में। फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला पर कितने अफसोस की बात है कि इसे किसी चैनल पर दिखाने की मंजूरी नहीं है।

आप खुद कैसी फिल्में देखना पसंद करती हैं?
फेवरेट है ‘चक दे इंडिया’। मुझे हिंदी फिल्मों से प्यार है। मेरे लिए परफैक्ट वो है जो पूरी तरह एंटरटेनिंग हो और मैसेज भी दे। ‘चक दे’ में शाहरुख ने शानदार परफॉर्मेंस दिया, सब लड़कियां नई थी। तो ये खास हो जाता है। ‘बंटी और बबली’ भी पसंद है। उसमें छोटी पॉलिटिकल चीजें हैं, लगता है कि इनके पीछे कुछ थॉट था, एंटी- एस्टेबलिशमेंट वगैरह। ‘कुछ-कुछ होता है’ और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ भी खूब पसंद हैं। आई लव करन। ‘धोबी घाट’ और ‘उड़ान’ देखकर भी खुशी होती है। कोई भी इंडियन अच्छी फिल्म बनाए तो मैं बड़ी खुश होती हूं।

वर्ल्ड सिनेमा में कौन फेवरेट हैं?
सनडांस में जैसे एक फिल्म थी, ‘बीस्ट ऑफ द सदर्न वाइल्ड’, उसे शायद अगले साल ऑस्कर मिले। ये फिल्म सनडांस की लैब से ही निकली है। वह कोई 20 साल का डायरेक्टर (बेन जेटलिन) था, तो मुझे कुछ-कुछ शर्म भी आई कि कैसे खुद को फिल्ममेकर समझती हूं। इतने यंग लड़के ने क्या ब्रिलियंट फिल्म बनाई है। मैं तो कहीं से भी उसके बराबर नहीं।

कमर्शियल इंडियन सिनेमा में कौन पसंद?
90 पर्सेंट तो मिडियोकर हैं, मुझे आप मिडियोकर का हिंदी शब्द बताइए। ... कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा कमर्शियल सिनेमा में। इतनी शानदार कहानियां हमारे देश में हैं तो बनाते क्यों नहीं। स्टूपिड फिल्मों में चालीस-पचास करोड़ लगा देते हैं। पर अच्छी स्टोरी में पैसे नहीं लगाते हैं, क्यों? ‘अमु’ बनाई तो उस वक्त लोगों ने तारीफ की, अच्छी फिल्म बनाएंगे तो तारीफ करेंगे ही, हां, लेकिन निर्माता नहीं हैं। कमर्शियल और आर्ट हाउस दोनों में। पहले आर्टहाउस मूवमेंट में एनएफडीसी ने भी हाथ बंटाया, पर अब ये सब कुछ नहीं कर पाते। अगर हम हजारों फिल्में साल में बनाते हैं तो ऐसा न हो कि उनमें से सिर्फ चार-पांच ही अच्छी हो। ऐसा नहीं है कि टैलेंट नहीं है, पर उसका यूज नहीं हो पा रहा।

मौजूदा वक्त में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं और क्यों?
दिबाकर बैनर्जी ने तीन प्यारी फिल्में बनाईं। मुझे ‘खोसला का घोंसला’ बहुत अजीज है। पॉलिटिकल फिल्म है। ‘पीपली लाइव’ भी पॉलिटिकल फिल्म है।

आने वाले वक्त में कैसी फिल्में बनाना चाहती हैं?
जैसे मेरी तीन फिल्मों के सब्जेक्ट तैयार हैं। सब राजनीतिक नहीं है, पर मैं रियल लाइफ सिचुएशन पसंद करती हूं। अलग-अलग तरीकों की पॉलिटिकल फिल्में पसंद करती हूं। जैसे एक क्राइम ड्रामा है जिसमें यूएस में पुलिस और एफबीआई की इमेज कितनी अच्छी है, कितनी बुरी ये दिखाने की कोशिश है। क्योंकि मैं जानती हूं कि अमेरिका में वो क्या तरीके आजमाते हैं। 9-11 के बाद उन्होंने लोगों पर नजर रखी, सिविल राइट्स का पतन हुआ। उनकी हर फिल्म के अंत में ऐसे मुद्दों में वो अच्छे आदमी बन जाते हैं। मेरी फिल्म में हकीकत होगी। पॉलिटिकल रिएलिटी। अब चोर पुलिस की कहानी में आप पुलिस कैसे दिखाओगे। मैं पंजाब की पुलिस भी जानती हूं और अमेरिका की भी। सिस्टम की भी बात है कि वो कैसे हैं। और भी दूसरे सब्जेक्ट हैं।

निजी जिंदगी कैसी चल रही है?
मेरे बच्चे हमेशा मेरी प्राथमिकता हैं। जिदंगी में कुछ वक्त पहले एक दुर्घटना हुई। मेरा 16 साल का बच्चा गुजर गया। तो अमेरिका से मैं इंडिया आ गई। पर मेरे पति को वहीं रहना है उन यादों के साथ। सनडांस में भी मैं गई लॉस एंजेल्स, तो कुछ पलों के लिए इमोशनल हो गई। बस मैं फंक्शन में गिरी ही नहीं। ईशान का जन्म हुआ तब मैं फिल्म स्कूल के पहले साल में थी। तो मां बनने का अनुभव और फिल्में साथ-साथ रही। मैं नही चाहती थी कि बच्चों को बैबी सिटर के पास रखूं। मैं किसी रेस में नहीं थी। मैं मरने से पहले दस अच्छी फिल्में बनाना चाहती हूं। बस। आप कभी सपने में भी नहीं सोचते कि आपका बच्चा आपकी आंखों के आगे दम तोड़ेगा। अब ‘मार्गरिटा...’ भी बनाऊंगी तो अपने बेटे की स्कूल छुट्टियों में। मैं कॉम्प्रोमाइज नहीं करूंगी। न बच्चों के लेवल पर और न ही फिल्म मेकिंग के लेवल पर।

इंडियन सिनेमा में आपके हिसाब से क्या मिसिंग है जो होना चाहिए, या सब कुछ सही है?
हमें सेंसर बोर्ड से छुटकारा पाने की जरूरत है, ये संस्थान पॉलिटिकल है पूरी तरह। हमारा मजाक उड़ाता है। उसके बावजूद देखिए कि आज औरतें कैसे ड्रेस करती हैं। मैं अपने बच्चों को नहीं दिखाना चाहूंगी ये सब। बीड़ी जलइले... गाने को देखिए.. कैसे कमर मटकाती है हीरोइन, पर बच्चे देख रहे हैं। फिर क्या मतलब सेंसर का। नेशनल मूवमेंट होना चाहिए उसे हटाने का। दूसरा प्रोड्यूसर्स को जागना चाहिए और दर्शकों को कोसना बंद करना चाहिए। ‘पीपली...’ भी बनी थी और लोगों ने देखी। ‘खेलें हम जी जान से’ पचास करोड़ में बनती है और लोग पसंद नहीं करते, पर प्रॉड्यूसर्स का पैसा लगता हैं। ‘वाट्स योर राशि’ के बाद भी आशुतोष को फिल्म बनाने के पैसे दिए गए। तो दर्शकों को मत कोसो, प्रोड्यूसर घटिया फिल्मों पर पैसे फैंक रहे हैं। राइटिंग तो अच्छी होनी चाहिए न। सनडांस के लेखकों से लिखवा दो। मैं हूं, फ्री में लिख दूंगी।
Although there couldn't be any talk on the movie, but, here is the poster.
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गजेंद्र सिंह भाटी

दोस्ती और हिम्मत के सहारे परिवार को बचाने निकला मैनी

फिल्म: आइस ऐज - कॉन्टिनेंटल ड्रिफ्ट (4)
निर्देशकः स्टीव मार्टीनो और माइक थर्मियेर
आवाजः रे रोमानो, क्वीन लटीफा, डेनिस लियरी, जॉन लेगुइजामो, पीटर डिंकलेज, वैंडा साइक्स
स्टारः तीन, 3.0
इस साल नवंबर में होने जा रहे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के मुख्य उम्मीदवार बराक ओबामा और मिट रोम्नी ने वोटरों में अपनी फैमिलीमैन वाली छवि गढ़ी है। गढ़ रहे हैं। डेनवर में बैटमैन मूवी के प्रीमियर पर हुए शूटआउट के बाद पीड़ितों के लिए दोनों ने संदेश भी जारी किए तो संबोधन में अपनी पत्नी का नाम पहले लिया, खुद का बाद में। बार-बार वो ‘वी आर अ फैमिली’ कहते रहे। ‘आइस ऐज-4’ के निर्माता भी इसी द ग्रेट अमेरिकन फैमिली वाली थीम के साथ बच्चों और परिवारों के लिए ये सुपरहिट श्रंखला वाली एनिमेशन मूवी लाए हैं। इसमें सबसे ज्यादा मनोरंजक है सिड (सदी का सबसे एंटरटेनिंग एनिमेशन कैरेक्टर) और उसकी दादी। सिड को तो उसके घरवाले पहले ही सूना छोड़ गए थे, यहां बूढ़ी-आफत जैसी दादी को भी सिड के गले डाल जाते हैं। मगर दोनों बेपरवाह हैं। आदर्श टेंशनमुक्त जीव हैं। यहां तक कि समुद्री लुटेरों के बीच फंस जाने पर भी दादी बड़बड़ाती रहती है, ‘वॉट अ लवली वेकेशन’। फिल्म में पीचेज और नन्हे लुइस की अनूठी दोस्ती भी है। बेचारा स्क्रैट (मेल गिलहरी) यहां भी बलूत के फल के लालच में बार-बार फंसता रहता है। चीखता रहता है और लोग हंसते रहते हैं।

पिछली फिल्म में प्रागैतिहासिक हाथी मैनी (रे रोमानो) और उसकी वाइफ ऐली (क्वीन लटीफा) के बेटी हुई थी। पीचेज। अब वो टीनएजर हो चुकी है। वह बाहर निकलना और पार्टी करना चाहती है, हैंडसम जुल्फों वाले टीनएज हाथी ईथन पर उसका क्रश है, पर मैनी को बेटी की सेफ्टी की चिंता होती है, इसलिए उसे कहीं जाने नहीं देता, ओवरप्रोटेक्टिव पिता है। नाराज होकर पीचेज कहती है कि मुझे अफसोस है कि आप मेरे पिता हैं। इतने में द्वीप में भूकंप आ जाता है, धरती शिफ्ट होने लगती है। अब मैनी अपनी फैमिली से बिछड़ चुका है। समंदर में बर्फ के टुकड़े पर उसके साथ उसके बेस्ट फ्रेंड डिएगो (डेनिस लियरी) और सिड (जॉन लेगुइजामो) हैं, और हां, सिड की 80 साल की दादी भी है। अब उसे समंदर के लुटेरों (शक्तिशाली-शातिर बंदर कैप्टन गट और उसकी गैंग) से बचते हुए अपने परिवार तक पहुंचना है।

डायरेक्टर माइक थर्मियेर और स्टीव मार्टीनो की इस फिल्म में उतने उतार-चढ़ाव नहीं हैं जितने होने थे। ऊपर से फिल्म डेढ़ घंटे से भी छोटी है, जो काफी कम है। टेक्नीकली कहीं भी कमजोर नहीं है। थ्रीडी वर्जन में कुछ भी हैरतअंगेज एनिमेशन नहीं हैं, तो टूडी भी चल सकती थी। बहरहाल ‘आइस ऐज-4’ जरूर देखें। ये दोस्ती, हिम्मत, टेंशनमुक्त जिंदगी और परिवार की परवाह करने के शानदार सबक देती है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, August 26, 2012

बाला की ‘नंदा’: बहुत कुछ जो संप्रेषित नहीं हो पाया

नंदा हजारों बच्चों-युवकों की हूबहू भौतिक जीवन-यात्रा हो न हो, वह निश्चिततः हिंदुस्तान के बाल सुधार गृहों में परिस्थितियों द्वारा धकेल दिए गए बच्चों-किशोरों का मानस ग्रंथ जरूर है, उनका नियति पथ जरूर है
Bala, On set of one of his earlier movies.
हिसाब से सिनेमा संसार में 26 अगस्त का दिन उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए। 1955 में इसी दिन सत्यजीत रे ने सैंकड़ों फिल्मकारों की प्रेरणा और भारत का गौरव बनने वाली अपनी फिल्म ‘पाथेर पांचाली' रिलीज की थी। थियेटर में इस बंगाली फिल्म के चढ़ने के बाद भारतीय सिनेमा में कुछ भी पहले सा नहीं रहा था। पिछले महीने ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट की सिने मैगजीन ‘साइट एंड साउंड’ की विश्व की 50 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों वाली सूची (विवादित) भी आई। सूची में ‘पाथेर पांचाली’ को 42वां स्थान मिला। मगर अभी मैं ‘पाथेर पांचाली’ की बात नहीं करूंगा। रे और उनकी फिल्म दोनों ही फिल्मकारी का उत्सव हैं और उस उत्सव का हिस्सा है हरेक वो फिल्म जो पागलपन और ढेर सारे तूफान के साथ बनाई गई है। दक्षिण भारत के तमिल सिनेमा में एक ऐसा ही एक तूफान है बाला

46 साल के बाला फिल्म निर्देशक हैं, स्क्रिप्ट खुद लिखते हैं और अब निर्माण भी खुद ही करने लगे हैं। बहुत कम बात करते हैं। ज्यादा साक्षात्कार नहीं देते। बस फिल्म बनाते हैं, और जब बनाते हैं तो समीक्षकों के लिए उत्साह का मौका होता है, उनके पास बातें करने और लिखने के लिए बहुत कुछ होने वाला होता है। क्योंकि बाला की फिल्मों की हिंसा या विवादास्पद निरुपण के लिए चाहे बुराई हो या अद्भुत फिल्ममेकिंग के लिए तारीफ, निस्संदेह महत्व के मामले में उस वक्त उसके आसपास भी कोई दूसरी फिल्म नहीं होती है। 1999 में पहली ही फिल्म ‘सेतु’ ने बेस्ट तमिल फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। अभिनेता विक्रम (हिंदी फिल्म ‘रावण’ में नजर आए) सबकी आंखों के तारे बन गए, आखिर कब-कब किसी को ऐसा मेहनत से बनाया गया किरदार निभाने को मिलता है। जिस किसी ने भी सतीश कौशिक द्वारा निर्देशित ‘तेरे नाम’ देखी है, उसे एक बार ‘सेतु’ जरूर देखनी चाहिए, ताकि मूल फिल्म की तीक्ष्णता और विक्रम का बाला के सीधे निर्देशों पश्चात उपजा अभिनय अनुभव कर सकें। सतीश की रीमेक में वह नहीं आ पाता।

एक साल बाद आई, ‘नंदा’, तमिल सिनेमा के एक और अभिनेता सूर्या (रामगोपाल वर्मा की ‘रक्तचरित्र-2’ में सूरी बने थे) के सितारे को चमकाते हुए। ‘नंदा’ वैसे तो महेश मांजरेकर की ‘वास्तव’ से प्रेरित थी, पर आंशिक तौर पर। फिल्म में ‘अग्निपथ’ भी थी और बाला का अपना नजरिया और प्रस्तुतिकरण भी। अगली फिल्म ‘पीथामगन’ में सूर्या और विक्रम दोनों ही थे। उल्लेखनीय रही। मगर चौंकाया ‘नान कडवल’ ने। 2009 में रिलीज हुई इस फिल्म के लिए बाला राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटील से बेस्ट डायरेक्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार ग्रहण करते नजर आए। तीन साल की कठोर मेहनत और अघोरी जैसे कठोर मन के साथ बनाई बाला की ये फिल्म स्क्रिप्टवाइज इतनी उत्कृष्ट है कि कलेजा फाड़ देती है, पर अपनी विषय-वस्तु की वजह से फिल्म को आलोचकों ने उठा-उठाकर पटका। बाला की ‘नान कडवल’ पर ही मैं सबसे पहले लिखना चाहता था, पर नहीं, अभी बात कर रहा हूं ‘नंदा’ के बारे में।

सारी कोशिश फिल्म के किरदारों के भीतर और उनके मन में चल रही चीजों को ढूंढने और उनका अनुमान लगाने की है। ये पकड़ने की है कि किरदार गढ़ते और फिल्माते वक्त निर्देशक कितना अधिक इमोशनल हुआ होगा? उसने कितना कुछ सोचा होगा, जो शायद पर्दे पर संप्रेषित नहीं हो पाया? न ही इतना सब-कॉन्शियस परतों वाला विचार लोगों तक पहुंच पाता है, वो तो हमेशा के लिए पटकथा लिखने वाले या फिर फिल्म के निर्देशक के साथ ही पीछे छूट जाता है। ‘नंदा’ पर ये कुछेक शब्द इन्हीं मायनों के साथ लिख रहा हूं।

Actor Surya as Nandha, a still from the movie where he's talking to his sister.

काले-पके होठ, छोटे-छोटे बाल, साधारण से शर्ट-पैंट, पथरीला बाहरी आवरण, नीली-गहरी-बड़ी-बड़ी आंखें और औसत कद काठी। ये नंदा (सूर्या) का बाहरी आवरण है। जैसे शिवा (नागार्जुन) या सत्या (जे.डी.चक्रवर्ती) का अपनी-अपनी फिल्मी कहानियों में होता है। सख्त, अल्पभाषी, नैतिक, विस्फोटक, बागी, हिम्मती, एक्सपेरिमेंटल, साधारण, हिंसक। ऐसे किरदार तमाम दुनिया की कहानियों (‘ड्राइव’ – रायन गोजलिंग, ‘ट्रांसपोर्टर’ – जेसन स्टेथम) के सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले रहस्यमयी लोग होते हैं। मगर उन किरदारों के विपरीत, दिखने में कोई दस-बारह साल का नंदा, कहीं बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही हिंसक हो जाना शुरू होता है।

गूंगी-बहरी मां के आंचल में सिमट जाने को आतुर रहने वाला प्यारा बेटा, जब देखता है कि बाप उसकी और मां की गैरमाजूदगी में घर दूसरी औरत के साथ था (पहले भी माहौल में ये आधार बन सा चुका होता है) तो उसकी आंखों की पुतलियां और भी फैल जाती है। बड़ी - बड़ी मोटी आंखों से उसके भीतर उफन रहे दावानल का अंदाजा होने लगता है। फिर अगले एक-दो मिनट में कुछ ऐसा होता है कि उसके एक प्रहार से उसका पिता मारा जाता है। मां, अपने चौगुने हो चुके कष्टों पर आंसू बहा भी पाए उससे पहले ही उसे नंदा की आंखों में सदैव कायम रहने वाली हिंसा नजर आती है। वह उससे ज्यादा डर जाती है। उसे लगता है कि इतनी क्रूर नीली आंखें उसके बेटे की तो नहीं हो सकती। ये तो कोई हत्यारा ही है। शायद यहीं पर उसकी ममता जल्दबाजी कर जाती है क्योंकि अगर उस वक्त वह नंदा को फिर से अपनी ममतामयी छाया में लौटा लाती तो शायद अंत उतना बुरा न तैयार हो रहा होता।

असल में भी हिंदुस्तान और तमाम मुल्कों में अपराध के बचपन की यही कहानी होती है। काश! कोई उस वक्त हो जब अपराध का बीज जन्म ले! उस वक्त जब कोई हिंसा का पथ ले! उस वक्त जब कोई सदा के लिए नाशवान राह पर चल पड़े!... उस वक्त कोई हो जो उसे रोक ले। प्यार से, ममता से, धोखे से, छल से, फुसलावे से। बस रोक ले। नंदा की मां (राजश्री) नहीं रोक पाती। इस मां की तरफ से बरती गई यही सबसे बड़ी भूल होती है। दूसरी भूल, जब वह नंदा से मिलने जेल जाती है और वहां भी दुर्योगवश वह (जेल में ये उसकी पहली और आखिरी हिंसा दिखाई जाती है) अपने बेटे को किसी दूसरे लड़के को पीटते हुए पाती है।

वैसे भूल का दूसरा पहलू ये भी है कि नंदा की मां होने के अलावा वह एक गूंगी- बहरी स्त्री भी है, भीतर ही भीतर घुट रही, पति के प्यार से वंचित। वह एक बीवी भी रही, वह एक छोटी सी बच्ची की मां भी है। वह एक ऐसे समाज में भी रहती है जहां रोज दो वक्त का भोजन जुटाने के लिए उसे कितनी मेहनत करनी पड़ती है। वैसे तमिल एक्ट्रेस राजश्री के निभाए इस किरदार और बाला की फिल्म की इस मां के साथ ट्रैजेडी यही है कि उसके मन का दर्द जानने वाले दर्शक न के बराबर होंगे, उनके लिए सरसरी तौर पर फिल्म देखकर समझना ही तुरत-फुरत वाला चारा बचता है।

तो शुरुआत के लिहाज से नंदा हमारी फिल्मी कहानियों के सत्या और शिवा से यूं अलग है। हां, वह मां के प्यार के लिए सदा यूं ही तरसता है जैसे ‘अग्निपथ’ का विजय (अमिताभ या फिर ऋतिक) तरसता रहता है। मैं मानना चाहूंगा कि बाला, 1990 में आई मुकुल आनंद की ‘अग्निपथ’ के पक्के दीवाने रहे होंगे। क्योंकि नंदा और उसकी मां का रिश्ता हूबहू वैसा ही है जैसा मुकुल आनंद की फिल्म में मां सुहासिनी चौहान (रोहिणी हट्टंगडी) और बेटे विजय (अमिताभ) के बीच होता है। सुहासिनी विजय के हिंसक रास्ते से इत्तेफाक नहीं रखती, पर विजय को मांडवा चाहिए। वो मांडवा जहां उसके आदर्शों-सिद्धांतों पर चलने वाले शिक्षक पिता दीनानाथ को चरित्रहीन करार देकर मार डाला जाता है। विजय को गलत होकर उस दुनिया को जीतना है, जो जरूरत के वक्त ‘उसके सही’ का साथ नहीं दे पाई। उसे हर उस पेट्रोल पंप को आग लगा देनी है जहां उसकी या किसी भी मां की आबरू पर हाथ डाला गया।

इन मायनों में नंदा चाहे अलग हो जाता है, अन्यथा वह विजय दीनानाथ चौहान ही है। उसे अपनी मां के हाथ से जिंदगी में बस एक बार दाल-भात खाना है। पुरानी फिल्म में अमिताभ का यादगार खाने की मेज पर मां से बातचीत का दृश्य ले लें, या फिर ऋतिक रोशन करण मल्होत्रा की ‘अग्निपथ’ में ज्यों खाते हैं, नंदा भी यूं ही एक बार मां से झगड़ता है। वह जबरन उसके हाथ में दाल-भात देकर खाने की कोशिश करता है। जाहिर है ये उन दोनों ‘अग्निपथ’ फिल्मों का प्रतिकृति दृश्य है। ये मजबूत विजुअल संवाद हैं। इसी बीच नंदा की कहानी से कहीं न कहीं जुड़ने की कोशिश करती है महेश मांजरेकर की ‘वास्तव’। चूंकि 1999 में ‘वास्तव’ की रिलीज के एक साल बाद ही नंदा भी लगी थी, तो सीधे तौर पर उसे ‘वास्तव’ के ज्यादा करीब ही माना जाता है। समानताएं भी हैं। ‘वास्तव’ और ‘नंदा’ का पटाक्षेप एक सा है। शांता (रीमा लागू) अपने बेटे रघु (संजय दत्त) को आखिर में अपने हाथ से खाना खिला ही देती है, जैसे कि नंदा की मां उसे।

खाना खिलाने वाला ये दृश्य बेहद मार्मिक दृश्य है। बेटे की चाहत पूरी हो रही है। आज मां उसे अपने हाथ से खाना खिला रही है। बरसों बाद अपने हाथ से वह नंदा को पहला कोर दे रही है जबकि वह बौखलाया है, उसके पैर जमीन पर नहीं है, वह खाना खा रहा है, प्यार की भूख तृप्त होगी। मां खिलाती है.. पर ये क्या पहले निवाले को मुंह में लेते ही उसके मन में कुछ चलता है। इतने वक्त और इस निवाले के बीच जो हुआ वह चलता है। विचार करता है, समझ जाता है कि उसकी अपनी मां उसे जहर खिला रही है। मां दूसरा कोर दे रही है और वह फिर भी खा रहा है, रो रहा है, आंखों से आंसू बह रहे हैं। कि, देखो मेरी ही मां मुझे मार देना चाहती है। इस वक्त उसके दिमाग में ये भी चल रहा हो सकता है कि कितना नफरत करती होगी न वो मुझसे। इस वक्त वह ये भी सोच रहा हो सकता है कि जिंदगी भर के हिंसा भरे माहौल और असामान्य जीवन से वह मुझे मुक्ति दे रही है। वह ये भी सोच रहा हो सकता है कि नंदा, खा ले, मां के हाथ का निवाला है, जहर भी हो तो भी खा ले, क्या पता ये फिर मिले न मिले?

इस वक्त नंदा के भीतर जो भी हो रहा होता है, उसकी गूंगी-बहरी और पत्थर हो चुकी मां के भीतर जो भी हो रहा होता है, वह भावनाओं और आंसुओं का परमाणु विस्फोट सा होता है। ऐसा दुख जिसकी कल्पना भी कर पाना असंभव है। आज के असंवेदनशील समाज में तो बिल्कुल ही असंभव। पर बाला ये सब फिल्माकर दिखाते हैं। मैं इस आखिरी सीन को हिंदी सिनेमा के कुछ सबसे बेहतरीन (सिर्फ सिनेमैटिक सुंदरता के लिहाज से नहीं) भावनात्मक कोलाहल वाले पलों के रूप में याद रखूंगा। ऐसे सीन और यहां तक पहुंचने की कहानी की परिणीति हमारी कहानियों में बहुत कम रची गई है।

फिल्म को सबसे अधिक मानवीय और सम्प्रेषक बनाता है लोडुकू पंडी (लंगड़ पांडे) का किरदार। इसे निभाया है करुणास ने। तमिल फिल्मों के हास्य अभिनेता। उनका लंगड़ाकर दौड़ने के अंदाज में चलना और गाने गाना और गोल-गोल घूमना ये सब वो मैनरिज्म हैं जो उनके निर्देशक बाला और उनके इम्प्रोवाइजेशन से निकले लगते हैं। बाला ने तमाम किरादारों के व्यावहारिक लुक के बीच लोडुकू पंडी के किरदार पर भी एक खास रंग-रूप रख छोड़ा है। जैसे उसके सीधे तरफ की कनपट्टी पर एक छोटी सी चोटी लटकी रहती है। ऐसे किरदार इस किस्म की चोटियों के साथ हमारे गांव-देहात में होते हैं। वो ऐसी चोटियां या बाल क्यों रखते हैं इसकी वजह तो नहीं बता सकता है पर फिल्मी भाषा में ऐसे पेंतरे काम करते हैं, उसपर भी अगर बाला जैसा निर्देशक हो और अपने कथ्य को गंभीरता और आसान तरीके से आगे बढ़ाए तो ये पेंतरे या युक्तियां दर्शकों पर अमिट असर छोड़ती है। घर जाने के बाद भी लोग ऐसे किरदार को और उसके लुक को नहीं भूलते। ऐसे लुक और मैनरिज्म (जो मौलिक है) की वजह से ही एक करुणास, दर्शकों के लिए कोई तमिल हास्य अभिनेता नहीं रह जाता है, वह उनके लिए नंदा नाम के एक लड़के का दोस्त लोडुकू पंडी हो जाता है।

यह नंदा का बेहद हंसोड़ और जिंदादिल किस्म का दोस्त है, जिसे चोरी करने की बड़ी अच्छी आदत है। अच्छी यूं कि लोग हंसते हैं, बुरी यूं कि मूलतः वह अपराध करता है। पर इसी बीच मद्देनजर दृश्य वह भी है जहां लोडुकू नंदा और कल्याणी (लैला) के लिए स्टोव पर रोटियां बना रहा होता है। घर ईंटों का है। कोई सुख सुविधा नहीं है। वह बिल्कुल साधारण है। उसकी कोई महत्वाकांक्षा रईस बनने की नहीं है। वह तो बस अपने सुख - सुविधाहीन जीवन में भी किसी न किसी कारण से खुश रहना चाहता है। न वो कभी किसी लड़की पर बुरी नजर डालता है। हर वक्त हंसता रहता है। कल्याणी के धर्मभाई का फर्ज अच्छे से निभाता है। ऐसे में अगर उसकी चोरियां आती हैं, तो वो सच्ची भी लगती हैं और उसके लिहाज से हमें हंसाती हैं। खैर, चोरी तो चोरी है और उसके लिए कानून भी है, लोगों को ही हमेशा चुनना होता है कि वो भावुक होकर उसे चोरी की सजा से बरी करके अपने दिल में जगह देना चाहते हैं कि कानूनी दिमाग से उसे चोर ही मानते हैं, उसके अलावा कुछ नहीं। अभी के लिए तो ये पुख्ता तौर पर कह सकता हूं कि विश्व के किसी भी सिनेमा के दर्शक अंततः भावुक ही होना पसंद करते हैं।
Official poster of Nandha, on it are seen the faces of Rajkiran and Surya.

नंदा पर पेरियावर (राजकिरण) की सरपरस्ती है। वो हिंदी या अमेरिकी फिल्मों की स्वाभाविक बुरे इंसान वाली छवि से बिल्कुल उलट है। वह राजाओं के परिवार से है। शहर की तकरीबन हर सार्वजनिक इस्तेमाल की जगह उसके दादा और पिता की बनाई हुई है। राजपाट चला गया तो सबकुछ सरकारी हक में चला गया। इस जगह में कहने को सरकार का नियम-कायदा चलता है, पर लोगों की असली मदद वही करता है। वह मुखिया है। एक अघोषित कानून (जो गैंगस्टर्स जैसा, या बुरा या मतलबी नहीं है) चलता है। वह स्थिर है। नंदा जब किशोर सुधार गृह से नौजवान बनकर लौटता है तो फिर से सामान्य सामाजिक जीवन में लौटना चाहता है, ताकि उसकी मां उसे स्वीकार कर ले। उसका सबसे प्यारा दोस्त लोडुकू पंडी कहता है कि “यार तू तो पढ़ाई लिखाई में होशियार भी है, आगे पढ़ ले। हम जैसे ही लोगों के बीच से ही निकला था वो, क्या नाम था उसका, मंडेला, उसे भी पढ़ाई ने ही रास्ता दिखाया था”। तो यहां नंदा कॉलेज जाने का मन बनाता है। पर प्रिंसिपल उसके जूवेनाइल होम की पृष्ठभूमि को देखते हुए कहता है कि “कॉलेज में तभी प्रवेश मिल पाएगा जब मुखिया जी कहेंगे”। मुखिया पहली ही नजर में नंदा को देखता है और कहता है “तुम्हें एडमिशन क्यों नहीं मिलेगा। जाओ, मैं तुम्हारे बारे में उनसे बात कर लूंगा”। इस तरह बिना किसी मानसिक भ्रष्टाचार और बुराई के वह नंदा का साथ देता है।

राजकिरण का ये किरदार श्रीलंकाई शरणार्थियों के मुददे पर भी एक पक्ष लेता है। (बाला की फिल्मों में जहां भी श्रीलंकाई तमिलों का जिक्र आता है, वहां वो उनका पक्ष लेते दिखाई देते हैं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि जिन दिग्गज सिनेमैटोग्राफर-डायेक्टर बालू महेंद्रा की फिल्मों में असिस्टेंट रहकर बाला ने फिल्मों का अमृत रहस्य जान लिया है, वो बालू श्रीलंकाई मूल के हैं। तो काफी वक्त साथ रहने का ये असर आता ही है।) जब उनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता है और सिविल सर्वेंट हाथ पर हाथ धरकर सरकारी मंजूरी का इंतजार कर रहे होते हैं तब तत्क्षण मुखिया, नंदा और कुछ खाली बोट लेकर जाता है और सबको लेकर आता है। वह ट्रांजिट कैंपों में भी निस्वार्थ भाव से मदद करता रहता है। कॉलेज में जब एक लड़की की इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा गुंडा लड़की के ही हाथों मारा जाता है तो नंदा उसे सबकी नजरों से बचाता है। लड़की का पिता बेटी को लेकर मुखिया के पास आता है। बेटी पर कोई केस तो नहीं कर देगा, उसने ये हत्या जानबूझकर तो नहीं की है, अपनी रक्षा में की है। ऐसी बातें कहता है। इस पर मुखिया उसके पिता को आश्वस्त करता है कि तुम जाओ तुम्हारी बेटी को कुछ नहीं होगा। जब बाद में नंदा की मां मुखिया के पास आती है और कहती है कि मुझे अपना बेटा बस जिंदा चाहिए, उसने पैदा होने के बाद से कभी कोई सुख नहीं देखा। मैं मेरे लिए नहीं, बस उसके और उसकी होने वाली बीवी के लिए चाहती हूं कि वो जीवित रहे। इन सभी मौकों पर मुखिया अपनी सत्यनिष्ठा को साबित करता है।

मुखिया के रोल में राजकिरण की गंभीर अदाकारी एक समुद्री एंकर का काम करती है। फिल्म के एक सिरे पर वह खड़े रहते हैं, उनके चेहरे पर ही नहीं भीतर भी मुखिया पलता है। जो सिद्धांतवादी है, और सिद्धांतों के लिए, दूसरों की मदद के लिए हिंसा का सहारा लेने से नहीं चूकता। हां, पर हिंसा फिजूल भी नहीं करता। राजकिरण खुद एक उम्दा अभिनेता और फिल्म निर्देशक हैं। तमिल फिल्मों में उनकी अदाकारी वैसी ही है जैसी हिंदी फिल्मों में अपनी चरित्र भूमिकाओं में अमरीश पुरी की होती है। मसलन, ‘विरासत’। मुझे आश्यर्च होता है कि हिंदी फिल्मों ने आज तक कभी उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया है?

बाला अगर अपनी रचनात्मक विस्फोट भरी फिल्म ‘नान कडवल’ (अहम ब्रह्मास्मि) में अघोरी रुद्रां (आर्या) के हाथों अंधी सुरीली भिखारिन हम्सावल्ली (पूजा उमाशंकर) को मानव जीवन से मुक्त करने जैसा विवादित शास्त्ररूप अर्थों वाला फैसला लेते हैं, तो सात-आठ साल पहले ‘नंदा’ में भी ये टिप्पणी नजर आ चुकी होती है। फिल्म का वो आखिरी मौका जब मुखिया और नंदा बातचीत कर रहे हैं, वो एकमात्र मौका जब मुखिया शराब पीकर अपनी नन्ही सी नातिन को अपने पास प्यार से बुलाता है और वो नहीं आती है, वो पहला और आखिरी मौका जब वो नंदा को अपने दर्शन वाला ज्ञान दे रहा होता है, कहता है, “इस धरती पर जब-जब पाप बढ़ेगा, हम और तुम अवतार लेंगे। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। ऊपर से कोई नीचे आता है तो अधर्म का नाश करने के लिए। तू इसीलिए ऊपर से आया है। और चिंता मत कर हर पल मैं तेरे साथ हूं, हमेशा, साए की तरह। समझ गया न”। जाहिर है हिंदी फिल्मों के और दक्षिण भारत की चार-पांच भाषाओं में बनने वाली मनोरंजक फिल्मों के नायक को अघोषित तौर पर अपने बारे में यही लगता है, कि वह ब्रह्म है। कि “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम” भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हीं के लिए गीता के ज्ञान में कहा था। वैसे बाकी फिल्मों में ऐसा विश्लेषण की अनुमानित परतों में ही छिपा होता है (फिल्म समीक्षकों-आलोचकों के खोजने के लिए) कोई हीरो कहता या सोचता नहीं है, पर वह करता सबकुछ इसी आधार पर है। तो ये बाला का तरीका है। धर्म और शास्त्रों को संदर्भ तारीफ और आलोचना के स्वरों में साथ लेकर चलते हुए।

उनकी इस फिल्म में संगीत युवन शंकर राजा ने दिया है। वह दक्षिण भारत के शीर्ष संगीत निर्देशक इल्याराजा के बेटे हैं। फिल्म के शुरुआती हिस्से को उनका पार्श्व संगीत आधार देता है। वह बांसुरी और देसी साजों का सुमधुर इस्तेमाल करते हैं। ये संगीत कुछ वैसे ही साजों वाला है जो हमने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ जैसे टीवी विज्ञापनों को सुनते हुए महसूस किया होगा, या आजकल डीडी भारती में टीवी के स्वर्णिम युग के कार्यक्रमों का पुनर्प्रसारण देखते वक्त होता है। मगर फिल्म के आधे हिस्से तक पहुंचते-पहुंचते उनका संगीत जैसे गायब सा हो जाता है, जो गाने इस दौरान आते हैं उनमें से एक भी फिल्म के लिये ज्यादा मददगार नहीं होते। ये भी लगता है कि बाला ने फिल्म की वित्तीय सफलता को ध्यान में रखते हुए ये नाच-गाने डालें हों। फिल्म को समग्र रूप में देखें तो युवन का संगीत कहीं-कहीं उभरकर ढीला पड़ा दिखता है। फिर भी फिल्म को उत्साहजनक शुरुआत देने के लिए और उसका आधार मजबूत करने के लिए उनके बैकग्राउंड म्यूजिक को सराहा जा सकता है।
Surya as Nandha and Laila as Kalyani, a still from the movie.

सूर्या, राजकिरण और करुणास अगर फिल्म में मजबूत पहिए हैं तो मां की भूमिका में राजश्री और कल्याणी बनी लैला के रोल फिल्म की परिभाषा में कहीं जुड़ते नहीं हैं। ये वो किरदार हैं, जिनके भीतर काफी कुछ है, पर सतह (चेहरों पर) पर भावनात्मक स्पष्टता नहीं है। मसलन, नंदा की मां गूंगी और बहरी तो है ही, फिर उसका अपने बेटे से बात नहीं करना और उसका मुंह तक नहीं देखना, दोनों के बीच पूरा संचार तोड़ देता है। इसी वजह से मां के किरदार का कम्युनिकेशन दर्शकों से भी टूट जाता है। ‘वास्तव’ में रीमा लागू इस संचार की अहमियत बताती हैं। संभवतः नंदा की मां जिंदगी से इतनी निराश हैं या इतनी ज्यादा टूट चुकी हैं कि वह मुंह उठाकर यह तक नहीं देखना चाहतीं कि वह जिंदा भी हैं कि खत्म हो गईं। यहीं पर अभिनय करने वाले की दुविधा शुरू होती है। कि वह इस किरदार को आगे कैसे बढ़ाए? ऐसे हालत में जब एक किरदार दब रहा हो तो फ्रेम में आ रहा दूसरा किरदार टेकओवर कर लेता है। जैसे, मां के साथ वाले सीन में नंदा पर सबकी नजर स्वतः ही चली जाती हैं। पटाक्षेप वाले दृश्य में भी जहर खिलाती मां से ज्यादा नजर जानबूझकर जहर खा रहे दयापात्र बेटे पर जाती है। दक्षिण भारत की अब रिटायर हो चुकीं, तब की अच्छी-खासी अभिनेत्री लैला का किरदार चाहे डीग्लैम लुक वाला एक सीधी-सादी श्रीलंकाई रिफ्यूजी लड़की का हो, पर अंततः उनका इस्तेमाल भी वैसा ही होता है जैसा किसी भी कमर्शियल हिंदी-तमिल फिल्म में ग्लैमरस हीरोइन का होता है। पहले ही सीन में जब एक द्वीप पर बड़ी तादाद में श्रीलंकाई रिफ्यूजी मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं, तो वहीं भीड़ में लेटी हुई कल्याणी नजर आती है। बस यही वो मौका होता है जब फिल्म उसके रोल को गरिमा देती है। इसके बाद सबकुछ किसी भी मसाला फिल्म की भांति होता जाता है।

इस फिल्म में भी बाला की सबसे बड़ी खासियत यही रहती है कि (गानों को छोड़कर) एक-एक फ्रेम गंभीरता से फिल्माया और एडिट किया गया है। कहीं पर भी रील का एक हिस्सा भी यूं ही नहीं छोड़ दिया गया है। एक-एक सीन सिनेमैटिक बुखार का फल लगता है। करीने से सजाया हुआ। अपने मुख्य किरदारों के उभार में भी बाला विशेषज्ञ हैं। उनके किरदार जब लड़ते भी हैं तो एक्शन धूसर और असली लगता है, कोई भी सीन केबल स्टंट वाला नहीं लगता। कॉलेज में गुंडे को पीटने वाला सीन अपवाद भी है और इस बात की तस्दीक भी।

नंदा को एक बार जरूर देखना चाहिए। यह ‘वास्तव’ और ‘अग्निपथ’ का निकोलस वाइंडिंग वेफ्न की फिल्म ‘ड्राइव’ जैसा ट्रीटमेंट लगती है। लगे भी क्यों न, ये उन्हीं बाला की फिल्म है, जिन्हें अनुराग कश्यप ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के शुरुआती क्रेडिट्स में अपनी जड़ों की ओर लौटकर फिल्म बनाने की प्रेरणा देने के लिए खास धन्यवाद कहते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी