Wednesday, February 27, 2013

फालके की कालिया मर्दन जंग लगे केन में पड़ी मिट्टी हो जाती, पी. के. नायर ने जोड़ी, सहेजीः शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर

हमारे वक्त की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक सेल्युलॉयड मैन के निर्देशक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर से बातचीत, उनकी डॉक्युमेंट्री भारत में फिल्म संरक्षण के पितामह पी. के. नायर के बारे में है


सन् 1912 में मानसून के बाद बंबई के दादर इलाके में ‘राजा हरिश्चंद्र’ की शूटिंग शुरू हुई। ‘मोहिनी भस्मासुर’ 1914 में प्रदर्शित की गई। उनकी तीसरी फिल्म ‘सावित्री-सत्यवान’ थी। ‘लंका दहन’ सन् 1917 में बनकर तैयार हुई। हनुमान की समुद्र पर उड़ान इस फिल्म का मुख्य आकर्षण थी। हनुमान उड़ता हुआ आकाश में पहले बहुत ऊंचाई तक जाता है और फिर धीरे-धीरे छोटा-छोटा होता जाता है। ‘कृष्ण जन्म’ और ‘कालियामर्दन’ दोनों ही फिल्मों में कृष्ण की भूमिका फालके की बेटी मंदाकिनी ने की थी जो उस समय सात वर्ष की थी। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि ‘कालियामर्दन’ में नाग के फन से नदी में कूदते समय मंदाकिनी साहस नहीं कर पाती थीं लेकिन फालके निर्भीकतापूर्वक उसका साहस बढ़ाते रहते थे। फालके की रुचि सिनेमा के रचनात्मक पक्ष में थी। इन कथा फिल्मों के साथ-साथ वे लघु फिल्में भी बनाया करते थे। ‘लंका दहन’ के समय उन्होंने एक लघु हास्य फिल्म ‘पीठाचे पंजे’ बना कर मूल कथा फिल्म के साथ प्रदर्शित की थी। ‘लक्ष्मी का गलीचा’ में उन्होंने ट्रिक फोटोग्राफी और मनोरंजक तरीके से सिक्के तैयार करने की विधि बतायी थी। ‘माचिस की तीलियों के खेल’ में माचिस की तीलियों से बनने वाली विभिन्न आकृतियां दर्शायी गयी थीं। ‘प्रोफेसर केलफा के जादुई चमत्कार’ में फालके ने स्वयं जादूगर का अभिनय किया था। सन 1918 में ही उन्होंने ‘फिल्में कैसे बनायें’ जैसी शिक्षाप्रद फिल्म बनाई थी।

... सोलह फरवरी सन् 1944 को जब दादा साहब फालके का नासिक में देहान्त हुआ, तब तक लोग भारतीय सिनेमा के इस पितामह को भूल चुके थे। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उन्होंने गुमनामी और अकेलेपन में बिताये। वर्षों बाद जब कुछ शोधार्थी नासिक पहुंचे तो वहां उन्हें फालके के घर से फिल्मों के जंग खाये डिब्बे मिले। बहुत सी फिल्में मिट्टी हो चुकी थीं। फालके की फिल्मों के इन टुकड़ों को जोड़कर राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय ने एक कार्यक्रम तैयार किया।

मनमोहन चड्ढा की 1990 में आई किताब ‘हिंदी सिनेमा का इतिहास’ में धुंडिराज गोविंद फालके का अध्याय जहां खत्म होता है, हमारी कहानी वहां से शुरू होती है। कहानी पी. के. नायर की। नासिक से पहुंचे जिन शोधार्थियों ने फालके के घर उनकी फिल्मों के जंग खाये डिब्बों की सुध ली थी, वो नायर ही थे। राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के संस्थापक। वो नींव के पत्थर जिन्हें सिनेमा के कद्रदानों के बीच लगभग न के बराबर जाना जाता है। भारतीय सिनेमा के शुरुआती दशकों में बनी दुर्लभ 1700 फिल्में नष्ट हो गईं और उनमें से 9-10 संरक्षित की गईं तो नायर की बदौलत। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (1913), कालिया मर्दन (1919), अछूत कन्या (1936), जीवन नैया (1936), कंगन (1939), बंधन (1940), किस्मत (1943), कल्पना (1948) और चंद्रलेखा (1949) को आने वाली भारतीय सभ्यताओं के लिए बचाकर रखा है। फिल्म संरक्षण के अलावा भी उनका योगदान मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों और कलाकारों तक रहा। रिलीज के दस साल बाद दिलीप कुमार को पहली बार ‘मुग़ल-ए-आज़म’ अभिलेखागार में से निकाल उन्होंने ही दिखाई थी। आशुतोष गोवारिकर नाम के युवक को अभिनय से निर्देशन में जाने की प्रेरणा देने वाले वही थे। बाद में आशुतोष ने ‘लगान’ और ‘जोधा अकबर’ बनाई। भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान, पुणे (एफ.टी.आई.आई.) और राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय, पुणे (एन.एफ.ए.आई.) में आने-जाने वाले हजारों-हजार फिल्म निर्माण विधा से जुड़े लोगों की जिंदगी का वह हिस्सा रहे हैं। लेकिन पी. के. नायर ने न तो कभी सुर्खियों में आने की कोशिश की, न अपने किए का श्रेय लेने के लिए हाथ-पैर मारे और न ही ये मुल्क इस लायक था कि उन्हें वो इज्जत दे सके। जिन्होंने दादा साहब फालके का खोया ‘भारतीय सिनेमा के पितामह’ होने का गौरव उनकी विलुप्ति के कगार पर खड़ी फिल्मों को बचाकर लौटाया, उन्हीं नायर को अभी तक फालके सम्मान नहीं मिला है। मगर ऐसा लगता है कि अब हमारी तमाम गलतियां सुधरेंगी।
P. K. Nair at his residence in Thiruvananthapuram, Kerala. Photo: Shivendra Singh Dungarpur
 
मुंबई और डूंगरपुर स्थित फिल्मकार शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने अपने एफ.टी.आई.आई. दिनों के श्रद्धेय व्यक्तित्व नायर साहब पर बीते साल एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई है। उनकी फिल्म ‘सेल्युलॉयड मैन’ नायर के योगदान के अलावा भारत में फिल्म संरक्षण पर बात करती है। बनने के वक्त से ही ये फिल्म दुनिया भर के तमाम विशेष अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है और अभी भी आमंत्रण आ रहे हैं। शिवेंद्र के बारे में बात करें तो वह पहले गुलज़ार की कुछ फिल्मों में उनके सहयोगी रहे और फिर फिल्ममेकिंग की पढ़ाई की। उसके बाद इत्तेफाक (संभावित शीर्षक) फिल्म का निर्देशन शुरू किया जिसमें संजय कपूर, चंद्रचूड़ सिंह, रानी मुखर्जी और करिश्मा कपूर की मुख्य भूमिकाएं थीं। फिल्म पूरी न हो पाई और बाद में वह विज्ञापन फिल्में बनाने लगे। देश के प्रभावी विज्ञापन फिल्मकारों में वह शुमार हुए। बीच में वह ‘गुरुदत्त’ शीर्षक से बायोपिक बनाने वाले थे लेकिन उस पर काम शुरू नहीं हुआ। शिवेंद्र खुद भी लगातार विश्व सिनेमा के संरक्षण में लगे हुए हैं। अल्फ्रेड हिचकॉक की एक फिल्म के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने आर्थिक सहयोग किया था। मार्टिन स्कॉरसेजी को उन्होंने उदय शंकर की दुर्लभ फिल्म ‘कल्पना’ ले जाकर दी, जब मार्टिन को फिल्म मिल नहीं रही थी। शिवेंद्र लगातार विश्व का भ्रमण कर रहे हैं और दुनिया के अलग-अलग मुल्कों के दिग्गज फिल्म निर्देशकों और सिनेमैटोग्राफर्स से वीडियो साक्षात्कार कर रहे हैं। वह अब तक पॉलैंड के आंद्रे वाइदा (Andrzej Wajda), क्रिस्ताफ जेनोसी (Krzysztof Zanussi), वितोल सोबोचिंस्की (Witold Sobociński), येज़े वोइचिक (Jerzy Wójcik), हंगरी के इज़्तवान साबो (István Szabó), मीक्लोश इयांचो (Miklós Jancsó), पुर्तगाल के मेनुवल जॉलिवइरा (Manoel de Oliveira), स्लोवाकिया के यूराई हेरेस (Juraj Herz), चेक रिपब्लिक के यानी निमेच (Jan Němec), यीरी मेंजल (Jiří Menzel), यारोमीर शोफर (Jaromír Šofr), वीरा ख़ित्येरोवा (Věra Chytilová) और फ्रांस के राउल कूतार्द (Raoul Coutard) से मिल चुके हैं और उनके लंबे इंटरव्यू कर चुके हैं। निजी तौर पर अभी के दिनों में मैंने सिनेमा जगत में इससे उत्साहजनक बात नहीं जानी है। यीरी मेंजल पर तो शिवेंद्र फिल्म भी बना रहे हैं जो जल्द ही हमारे सामने आ सकती है।

तो ‘सेल्युलॉयड मैन’ के सिलसिले में मेरी शिवेंद्र सिंह से बातचीत हुई।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को लेकर कैसी प्रतिक्रियाएं आईं हैं?
अब तक 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाकर आ चुकी है, कुछ और में जाने वाली है, इस तरह कोई 22-25 फेस्टिवल हो जाएंगे। किसी भी भारतीय डॉक्युमेंट्री फिल्म के लिए ये एक रिकॉर्ड होगा। शाजी करुण की ‘पिरवी’ और सत्यजीत रे की ‘पथेर पांचाली’ ही ऐसी फिल्में थीं जिन्हें सबसे ज्यादा फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया गया। उनके बाद ‘सेल्युलॉयड मैन’ ही है। इसका श्रेय नायर साहब को जाता है। पूरे हिंदुस्तान में प्रिजर्वेशन (फिल्म संरक्षण) का माहौल उभरकर आ रहा है। लोगों में जागरुकता आ रही है। मैंने उम्मीद नहीं की थी कि इतना होगा। आर्काइव्स में हमारी इतनी फिल्में हैं जो यूं ही पड़ी हैं, कोई देखभाल नहीं कर रहा है। मैंने सोचा था कि थोड़ा-बहुत शूट करके कुछ करूंगा। करते-करते तीन साल बीत गए। बिल्कुल नहीं सोचकर चला था कि इतना रिस्पॉन्स आएगा। इतना भारी रिस्पॉन्स कि कुछ ऐसे समारोहों में गई है जहां बहुत ही मुश्किल है जाना। जैसे टेलेराइड जो कोलोराडो में है, वो बहुत ही सलेक्टिव हैं, हॉलीवुड का गढ़ है, वहां बड़ी-बडी हॉलीवुड फिल्में होती हैं, स्टार होते हैं, वहां घुसना बड़ा मुश्किल है, पर उन्होंने चुना। मैं आभारी हूं उनका कि उन्होंने हमें जगह दी और दो-तीन स्क्रीनिंग कराई, अकेडमी (ऑस्कर्स) को दिखाई। फिल्म यूरोप के कई देशों में भी गई है, भारत में हर फिल्म फेस्टिवल में लगी है।

Shivendra at the Il Cinema Ritrovato, Bologna.
सिनेमाघरों में कब तक लाएंगे?
मार्च का सोचा था लेकिन मैं चाहता हूं कि रिलीज ढंग से हो। ये नहीं चाहता हूं कि ऐसी जगह रिलीज हो जाए जहां लोग जाने तक नहीं। इसमें सरकार का भी योगदान चाहता हूं। चूंकि ये एक एजुकेशनल फिल्म है इसलिए पैसे कमाने से ज्यादा जरूरी ये है कि लोगों तक पहुंचे। फ्री होनी चाहिए या इतने कम पैसे की टिकट हो कि लोग बिल्कुल आकर देखें और फिल्म में नायर साहब की बातों का ज्ञान लें। खुद की फिल्म संस्कृति को हम कैसे बचाएं और आगे वाली पीढ़ी के सुपुर्द करें, ये बात है। रिलीज जरूर होगी पर मेरी चिंता यही है कि टिकट की कीमत कम हो, जिनसे भी बात कर रहा हूं ये बात सामने रख रहा हूं। नहीं तो आप उसे मल्टीप्लेक्स में कंपीट करवा रहे हैं और कोई एजुकेशनल फिल्म देखने के लिए पांच सौ रुपये नहीं देगा। आम या आर्थिक तौर पर असमर्थ लोग भी देखना चाहेंगे तो ऐसी फिल्मों में टिकट न्यूनतम कीमत वाली होनी चाहिए।

राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना पी. के. नायर ने की…
हां, एन.एफ.ए.आई. की स्थापना उन्होंने अकेले ही की, और कोई था नहीं उसके साथ। उस वक्त का जमाना अलग था, नेहरुवियन पीरियड था। वो अच्छे विचारों के इंसान थे, कला और कलाकारों के लिए उन्होंने दिल्ली में काफी कुछ किया। मिसेज गांधी भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहीं तो उन्होंने भी काफी योगदान दिया। ये आर्काइव उसी वक्त खुला जब उन्हें लगा कि हमें एक आर्काइव खोलना है। मेरे ख्याल से नायर साहब ये कर पाए क्योंकि उस वक्त ये लोग उनके साथ थे, सहयोग था। आज के माहौल में अलग बात है। आज सबकुछ होने के बाद भी सरकार का ध्यान इस और नहीं जा रहा।

दादा साहब फालके को फादर ऑफ इंडियन सिनेमा कहा जाता है, इसमें नायर का कैसा योगदान रहा?
बहुत बड़ा योगदान था। नायर साहब नासिक गए, फालके के परिवार से मिले, उनकी यूं ही पड़ीं फिल्में उठाईं और सहेजीं। उनकी एक फिल्म कालिया मर्दन (1919) की फुटेज टुकड़ों में पड़ी थी। पी. के. नायर ने फालके के हाथ से लिखे डायरी नोट्स के आधार पर फिल्म को नए सिरे से जोड़ा। उन्होंने फालके के बड़े बेटे से पूछा, उनकी बेटी मंदाकिनी जिन्होंने कालिया मर्दन में काम किया था उनसे पूछा। इस तरह ये फिल्म बची। बाद में उसे मुंबई में 1970 में हुए फालके सेंटेनरी सेलिब्रेशन में दिखाया गया। 1982 में उसे लंदन के एन. एफ. टी. फेस्टिवल में भारतीय हिस्से के तौर पर दिखाया गया। बाद में एविग्नां, फ्रांस में हुए साइलेंट फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। गुलज़ार साहब ने ‘सेल्युलॉयड मैन’ में कहा है कि अगर हम फालके के बारे में आज कुछ भी जानते हैं, वो नहीं जान पाते अगर नायर साहब नहीं होते। हम फालके के बारे में सिर्फ सुनते लेकिन उनकी फिल्म नहीं देख पाते। नायर साहब की बदौलत हम फालके को आज देख पा रहे हैं। वो हर जगह जाकर खुद फिल्में इकट्ठा करते थे, क्लीन करते थे, कैटेलॉगिंग करते थे और आर्काइव में रखते थे।

एक हिला देने वाला आंकड़ा है कि 1700 मूक (साइलेंट) फिल्में भारत में बनीं और बची हैं सिर्फ 9 से 10। इतनी भी बची हुई हैं सिर्फ नायर साहब की वजह से। नहीं तो पहले ही खत्म हो जाता है। आर्काइव खुला 1964 में और हमारी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनी 1913 में यानी उससे पहले 50 साल तो सब खत्म हो चुका था। 50 साल तक तो कोई संरक्षण हुआ ही नहीं। ये बहुत बड़ा वक्त होता है। और फिर फिल्में भी बदल रहीं थीं, साउंड आ गया था।

मैं विदेश जाता हूं तो लोग हैरान हो जाते हैं सुनकर। आप देखिए स्वीडिश फिल्म आर्काइव की वेबसाइट क्या कहती है। उनकी सिर्फ चार फिल्म मिसिंग है, बाकी आज तक के उनके इतिहास में बनी तमाम साइलेंट फिल्में उनके पास सुरक्षित हैं। चार भी वो गायब हैं जो प्रोड्यूसर्स ने दी नहीं हैं या कोई दूसरा चक्कर है। कभी-कभी तो मैं इतना हैरान हो जाता हूं कि हिंदुस्तान की संस्कृति और परंपरा जो इतनी प्राचीन है उसे बचाने का कष्ट हमने कभी किया ही नहीं। नायर साहब अकेले इंसान कितना कर सकते हैं वो भी ऐसे हिंदुस्तान में जहां हर साल हजार फिल्में बनती हैं और हर इंसान को राजी करना, हर इंसान से बात करना कि आप आर्काइव में फिल्म देने के बारे में सोचिए, आप ही की चीज सहेजी जाएगी लेकिन हर सामने वाला सोचता है कि इनसे मैं कितना पैसा निकाल पाऊं।

आपका बचपन कहां बीता? कैसा बीता? आसपास कैसी फिल्में रहीं? फिर फिल्मकारी में कैसे आए?
मैं डूंगरपुर, राजस्थान का रहने वाला हूं। राजपरिवार (पूर्व) से हूं। राजपरिवार से होने का एक फायदा ये हुआ कि मुझमें प्रिजर्वेशन की परंपरा आई। डूंगरपुर का हाउस सबसे पुराने रॉयल ठिकाणों में से है। हम लोग सब सिसोदिया हैं और चित्तौड़ से हैं। हम ओल्डर ब्रांच हैं उदयपुर से। अरविंद सिंह मेवाड़ मुझे काका बोलते हैं। हमारा परिवार सिसोदिया खानदान में हेड ब्रांच है। हमारा जो पैलेस है जूना महल वो 800-900 साल पुराना है इसलिए हम लोग जानते थे कि हिस्ट्री कितनी जरूरी है, प्रिजर्वेशन कितना जरूरी है। मेरी मां डुमरांव (बिहार) स्टेट से हैं जहां से बिस्मिल्लाह खान थे, वह वहां कोर्ट म्यूजिशियन थे, बाद में उनका परिवार बनारस चला गया था। डुमरांव बक्सर से जरा पहले पड़ता है। पटना में दो सबसे बड़े स्टेट हुआ करते थे। एक था दरभंगा और दूसरा डुमरांव। बहुत बड़ी जमींदारी थी। मेरी पैदाइश पटना में हुई क्योंकि मैं अपने पिता का पहला बच्चा था। मेरे पिता समर सिंह जी आईएएस थे, एनवायर्नमेंट मिनिस्ट्री में थे, वहीं से रिटायर भी हुए। मैं पटना में जन्मा इसलिए अपनी नानी के पास डुमरांव में काफी वक्त बिताया। वह नेपाल से थीं। तब राजपरिवार की काफी शादियां नेपाल में होती थीं। मेरी फर्स्ट कजिन सिस्टर राजमाता साहब (पूर्व) जैसलमेर हैं और महारानी ऑफ कश्मीर भी उनकी फर्स्ट कजिन हैं।

मेरी नानी बहुत शौकीन थीं फिल्मों की। वह मुझे अकसर सिनेमाहॉल ले जाती थीं और पूरा सिनेमाहॉल बुक करवाती थीं। तो मेरे ख्याल से मेरा लगाव फिल्मों से उस तरह हुआ। डूंगरपुर में हालांकि मेरा बचपन बीता मगर वो इतने शौकीन नहीं थे, थोड़ी-बहुत इंग्लिश फिल्में देखते थे, लेकिन डुमरांव का परिवार बहुत जुड़ा हुआ था। मुझ पर नानी का बहुत असर था। उनकी वजह से मैंने फिल्में देखीं। जैसे ‘पाकीजा’ मीना कुमारी की और कई ऐसी फिल्में। मैं जब शिक्षा प्राप्त करने दून बोर्डिंग स्कूल गया तो वहां मैंने ठान लिया कि मैं फिल्मों में डायरेक्टर के तौर पर जुडूंगा। वहां चंद्रचूड़ सिंह (एक्टर) मेरे क्लासमेट थे। उन्होंने ठान लिया था कि वह एक्टर बनेंगे और मैंने ठान लिया था कि मैं डायरेक्टर बनूंगा। इन्हीं भावनाओं के साथ हम वहां से निकले। मैंने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज से हिस्ट्री में ऑनर्स किया, उन्होंने भी। हम साथ ही बॉम्बे आए। काफी दबाव था डूंगरपुर परिवार से। वो चाहते नहीं थे कि मैं फिल्मों से जुड़ूं। मेरे ग्रैंड अंकल डॉ. नागेंद्र सिंह इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (हेग) के अध्यक्ष थे और वह चाहते थे कि मैं ऑक्सफोर्ड जाऊं जैसे मेरे दादा गए और मेरे परिवार के बाकी सदस्य गए। डूंगरपुर का परिवार शिक्षा के मामले में काफी आगे था। ...लेकिन मेरे सबसे बड़े सपोर्ट मेरे काकोसा थे राज सिंह डूंगरपुर (क्रिकेटर)। वो एक ऐसी पर्सनैलिटी थे कि उनके जैसी पर्सनैलिटी मैंने देखी नहीं है कहीं। उन्होंने मुझे बेटे की तरह रखा। मैं बॉम्बे उनके पास आया, वहां गुलजार साहब को असिस्ट करना शुरू किया। उनके पास रहकर मुझे इतनी शक्ति मिली कि ठान लिया इसी लाइन में कुछ करूंगा। गुलज़ार साहब के साथ मैंने ‘लेकिन’ में काम किया। एक थोड़ी अधूरी फिल्म थी ‘लिबास’ और कई डॉक्युमेंट्रीज पर काम करते हुए भी मैं उनके साथ ही रहा। वह मेरे गुरु हैं। उन्होंने सोचा कि मुझे फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (एफ.टी.आई.आई.) जाना चाहिए जहां मैं और बेहतर शिक्षा प्राप्त कर सकूं। लेकिन उस वक्त मैंने अपने पिता के कहने पर लॉ कॉलेज जॉइन कर लिया था। मैं मुंबई की डी रोड़ पर रहता था, वह वानखेड़े स्टेडियम के ठीक सामने है। राज सिंह जी ने अपना घर हमेशा क्रिकेट स्टेडियम के पास ही रखा था क्योंकि क्रिकेट से ज्यादा उनको कुछ सूझता नहीं था। मेरा लॉ कॉलेज ए रोड़ पर था। मैं सुबह जाता था, क्लास करता था और गुलज़ार साहब के पास चला जाता था लेकिन उन्होंने ठान लिया और आदेश कर दिया था कि आप एफ.टी.आई.आई. जाइए। मैंने आवेदन किया, वहां का एडमिशन प्रोसेस काफी मुश्किल था, एंट्रेंस था, इंटरव्यू थे और सीट सिर्फ छह थीं लेकिन मुझे वहां पर एक स्थान मिल गया। तीन साल यानी 1994 की शुरुआत तक मैं वहां पढ़ता रहा।

वहां से आने के बाद मुझे एक फिल्म डायरेक्ट करने का मौका मिला जिसमें संजय कपूर और रानी मुखर्जी थे। रानी मुखर्जी बिल्कुल नईं थी उस वक्त, उनकी फिल्म रिलीज हो रही थी, मैं उनको कंप्यूटर क्लास में मिलने गया था। चंद्रचूड़ सिंह ने कहा था कि “मेरी क्लास में एक लड़की पढ़ती है, उसका नाम रानी मुखर्जी है और वह काजोल की बहन लगती है और उसको देखिए वो हीरोइन के लिए बहुत जंचेगी।” तो हम उसको मिलने गए। काफी बड़ी कास्ट थी। हमने ए. आर. रहमान को लिया। रहमान उस वक्त काफी नए थे, कोई भी साइन करने को तैयार नहीं था उन्हें। लोग कह रहे थे कि इल्याराजा फ्लॉप हो गए तो रहमान क्या चीज हैं। खैर, उस माहौल में मैंने पिक्चर शुरू की। 40 फीसदी फिल्म बनकर तैयार हुई। फिल्म के प्रोड्यूसर थे मिलन जवेरी, उन्हें पैसा आ रहा था टिप्स से। उस वक्त क्या हुआ कि टिप्स वालों पर गुलशन कुमार मर्डर केस में शामिल होने के आरोप लगे। फिल्म बंद हो गई। और एक-दो पिक्चर जो मैंने साइन की थीं वो भी बंद हो गईं। ये ऐसा वक्त था जब कोई फिल्म पूरी नहीं होती या अटक जाती तो उसे शुभ नहीं मानते थे। अभी दौर बदल चुका है, इंडस्ट्री बदल चुकी है। उस वक्त पुराने यकीनों में लोग चलते थे। उसके बाद काफी स्ट्रगल रहा मेरा। आप विश्वास करिए मुझ पर घर से इतना दबाव पड़ा... उन्होंने कहा कि “तुम ये फिल्म लाइन छोड़ दो, ये क्या है, बकवास है, तुम डूंगरपुर के परिवार से हो, परंपरा से हो, परिवार में पहले कभी किसी ने ऐसा काम नहीं किया है” और बहुत दबाव पड़ा। मेरी मां का मेरे साथ आशीर्वाद था। उन्होंने कहा कि “तुम जो करना चाहो करते रहो।” 1995 से 2001 तक मेरा स्ट्रगल चलता रहा, छह साल स्ट्रगल चला। मैं स्टेशनों पर खाता था खाना। उसी तरह रहता था जैसे कोई स्ट्रगलर रह रहा हो। राजपरिवार से होने का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा। फिर विज्ञापन आए। किसी ने मुझे एड फिल्म ऑफर की और वो दौर आज तक चल रहा है। मैंने स्थापना की डूंगरपुर फिल्म्स की 2001 में। विज्ञापन फिल्म एक के बाद एक करने लगा और बहुत कामयाबी मिली। इतनी कामयाबी मिली कि हम दिल्ली में सबसे बड़े प्रोडक्शन हाउसेज में से बन गए। चार सौ कमर्शियल कर चुका हूं अभी तक लेकिन ध्यान हमेशा फिल्मों में था। विज्ञापन फिल्मों में मैंने बहुत कामयाबी हासिल की लेकिन प्यार फिल्मों से ही था। फिल्मों के लिए ही आया था, फिल्मों के लिए ही जी रहा था। राज सिंह जी ने मुझसे एक बात कही थी कि “तुम इस लाइन को तभी जॉइन करो जब उससे उतना ही प्रेम करो जितना मैं क्रिकेट से करता हूं” मैं उनकी वो बातें आज भी नहीं भूला हूं। उन्होंने मुझे ये पहली शिक्षा दी थी और आज भी मैं फिल्मों से ही जुड़ा हुआ हूं। मेरी जिंदगी फिल्म है, सुबह से शाम मैं फिल्में ही सोचता हूं। फिर एक मौका मिला मुझे फिल्म संरक्षण में घुसने का।

एक दिन मार्टिन स्कॉरसेजी का इंटरव्यू पढ़ा मैंने कि बलोना (इटली) में फिल्म प्रिजर्व होती है। मैं वहां का फेस्टिवल देखने चला गया जो जून-जुलाई में होता है इल सिनेमा रित्रोवातो (Il Cinema Ritrovato)। वहां पुरानी फिल्मों को वो रेस्टोर करके दिखाते हैं। उस दौरान मैंने सोचा कि यार हिंदुस्तान में तो इतना खजाना है, उन फिल्मों का क्या होगा। एफ.टी.आई.आई. में नायर साहब का प्रभाव इतना ज्यादा था कि उनसे डरते थे हम लेकिन पर्सनल लेवल पर मैं नहीं जानता था। तो मैंने दोस्तों के साथ मिलकर सोचा कि जाकर नायर साहब से मिला जाए। तब मार्टिन स्कॉरसेजी को ‘कल्पना’ फिल्म की जरूरत थी इंडिया से और वो ट्राई करके बैठ चुके थे, जाहिर है इंडिया में जो सरकारी पॉलिसी है, वह उनकी मदद नहीं कर पाई। मैंने कहा कि मैं आपको ‘कल्पना’ लाकर देता हूं। मैं आर्काइव्स के चक्कर काटता रहा और उन्हें मनाने में बहुत महीने लग गए। मुझे पता था कि ये एक बेहतरीन फिल्म है, इसे उदय शंकर ने बनाया था। बीच में मैंने और अनुराग कश्यप ने मिलकर एक फिल्म लिखी थी गुरुदत्त पर और मैं यूटीवी के लिए उसे डायरेक्ट करने वाला था। उस वक्त ‘कल्पना’ पर हमारी नजर पड़ी। वो इसलिए क्योंकि उदय शंकर का एक स्कूल हुआ करता था अल्मोड़ा में, जिसमें गुरुदत्त पढ़ते थे और गुरुदत्त ने ‘कल्पना’ को टाइप किया था। तो हमने वो फिल्म देखी थी। क्या कमाल फिल्म थी। जब उसे लेने आर्काइव गए तो मेरी नजर पड़ी, मुझे लगा कि नायर साहब पर कुछ करना चाहिए। वहां से मैंने ‘सेल्युलॉयड मैन’ बनानी शुरू की। ‘कल्पना’ भी तब पुनर्जीवित हुई और मेरा पूरा दौर चला रेस्टोरेशन और प्रिजर्वेशन का। मैं अभी अपना फाउंडेशन खोल रहा हूं जिसमें हम सहेजेंगे और संरक्षित करेंगे। मैंने पूरी फिल्म फिल्म स्टॉक पर शूट की है। मेरा मानना था कि नायर साहब अगर फिल्में इकट्ठा कर रहे हैं और फिल्म केन इकट्ठा कर रहे हैं तो उन पर बनने वाली फिल्म भी फिल्म यानी रील पर ही होनी चाहिए।

नानी मां ने और कौन सी फिल्में दिखाईं? और किसने दिखाई? वो दिन कैसे थे? बाद में क्या पड़ाव आते रहे फिल्म देखने के अनुभवों में?
‘पाकीजा’ का गाना “इन्हीं लोगों ने...” आज भी कहीं चलता है तो मुझे नानी की याद आ जाती है। राज कपूर की ‘श्री 420’ का गाना “रमैया वस्ता वैय्या...” याद है। बिमल रॉय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ देखी थी मैंने। ये कुछ ऐसी फिल्में और फिल्ममेकर थे जिनके गाने सुनते रहते थे हम लोग। मेरे ग्रैंडफादर चार्ली चैपलिन, लॉरेल हार्डी और जॉन फोर्ड की अमेरिकी वेस्टर्नर्स और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में देखते थे। उनके साथ मैंने भी देखी। हमारे यहां डुमरांव में उनका खुद का प्रोजेक्शनिस्ट था, प्रोजेक्टर था तो वो अकसर 16 एमएम फिल्में कैलकटा से लाकर दिखाते थे। ये रोज का होता था। फैमिली की जो रोजाना फिल्में शूट होती थीं वो भी देखते थे। थियेटर में जाकर दो-दो शो देखते थे। कभी पटना में देखते थे कभी डुमरांव में, जहां एक शीला टॉकीज होता था। नानी पूरा शीला टॉकीज बुक करती थीं, वो नीचे बैठती थीं और मैं भी नीचे उनके साथ स्टॉल में बैठता था। मेरे पिता भोपाल में पोस्टेड थे और मैं बहुत मुश्किल से उन्हें मना पाता था। जब मैं चार-पांच साल का था तब ‘शोले’ लगी थी और मुझे वो देखनी थी। पर मुझे याद है उन्होंने मना कर दिया था कि आप नहीं जाएंगे और मैं पूरे दिन रो रहा था। फिर अगले दिन मां ने कहा कि ठीक है इसे जाने दो ‘शोले’ देखने के लिए। मैं बच्चन साहब का बहुत बड़ा फैन था और मेरी दोस्ती चंद्रचूड़ से उस कारण ही हुई। क्योंकि दून स्कूल में हम दोनों उनके दीवाने होते थे। हमारे पास एक डायरी थी जिसमें बच्चन साहब की फिल्मों के पूरे ब्यौरे लिखे होते थे। कार, क्रू, क्रेडिट्स सबकुछ। हम सेंट स्टीफंस में भी थे तो कई बार बात करते थे बच्चन साहब के ऊपर। हम लोग इस वजह से बहुत बार क्लास से बाहर निकाले गए। लेकिन लाइफ में गुलज़ार साहब के आने के बाद उन्होंने मुझे अलग किस्म की फिल्में दिखाईं। मैंने पहली बार ‘पथेर पांचाली’ देखी, सत्यजीत रे की। तब मुझे यकीन हुआ कि फिल्म एक आर्ट फॉर्म भी है और इसका पूरी दुनिया में कितना ज्यादा प्रभाव है। इस चीज ने मेरी मदद की। वहां नायर साहब ने दुनिया की नायाब फिल्में दिखाईं और भारतीय क्लासिक्स दिखाईं जो कमाल थी। उससे मुझे काफी ज्ञान प्राप्त हुआ। नायर साहब की फिल्मों की वजह से ही हम आज जो हैं वो हैं। शायद वो न होते तो हमारा वो विजन और फिल्ममेकर बनने की आकांक्षा नहीं आ पाती। तीन महत्वपूर्ण इंसान हैं मेरी जिंदगी में जो मेरे फिल्ममेकर बनने की वजह हैं। पहली मेरी नानी जिनका नाम महारानी ऊषारानी था। उन्होंने मेरा फिल्मों से लगाव लगाया। दूसरे हैं गुलज़ार साहब, वो गुरु हैं, उन्होंने मुझे दिशा दिखाई। और सबसे महत्वपूर्ण हैं नायर साहब जिन्होंने हमें बनाया और जिनकी वजह से हम हैं।

एफ.टी.आई.आई. में आपके बैचमेट कौन-कौन थे जो आज सफल हो गए हैं?
कैमरामैन काफी हैं। सुबीत चैटर्जी हैं जिन्होंने कई फिल्में शूट की हैं। ‘डोर’, ‘चक दे’, ‘गुजारिश’, ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’। संतोष ठुंडिल मेरे कैमरामैन थे जिन्होंने ‘कुछ कुछ होता है’, ‘पिंजर’, ‘कृष’ और ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्में कीं। डायरेक्शन में कोई इतना उभरकर नहीं आया है। प्रीतम (म्यूजिक डायरेक्टर) मुझसे दो साल जूनियर थे। रसूल पोकट्टी (साउंड मिक्सिंग का ऑस्कर जीते) मेरे से एक साल जूनियर थे।

याद वहां की कोई...
विजडम ट्री तो जिदंगी ही था। वहां बैठकर डिस्कस करते थे क्या फिल्म बनाने वाले हैं क्या नहीं बनाने वाले हैं। पूरी जिंदगी हमारी वहां गुजर गई।

आपने क्या डिप्लोमा फिल्म बनाई थी वहां?
डिप्लोमा फिल्म में इरफान थे पहले, बाद में राजपाल यादव भी थे, शैल चतुर्वेदी करके एक पोएट थे। ये सब थे। अलग फिल्म थी। एक आदमी खुद के प्रतिबिंब से डरता है, उसकी कहानी थी। उसे हमने एक शॉर्ट स्टोरी से लिया था। नाम फिलहाल जेहन में नहीं आ रहा।

एल्फ्रेड हिचकॉक की ‘द लॉजर: अ स्टोरी ऑफ द लंडन फॉग’ क्या आपने डोनेट की थी?
नहीं, मैंने कुछ पैसा दिया था उसे रेस्टोर करने के लिए। हुआ यूं कि मैं हिचकॉक का बहुत बड़ा फैन था। जब मुझे पता लगा कि बीएफआई यानी ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट को पैसा चाहिए उस फिल्म को रेस्टोर करने के लिए तो मैंने कहा कि मैं कुछ पैसा देना चाहूंगा इसके लिए।

उदय शंकर की ‘कल्पना’ (1948) का पुनरुत्थान कैसे हुआ? हाल ही में इसका कान फिल्म फेस्ट में प्रीमियर भी हुआ...
जी, वहां प्रतिक्रिया बहुत ही बेहतरीन रही। देखिए, ‘कल्पना’ इतनी जरूरी फिल्म है, ये अकेली ऐसी फिल्म है जो इतने डांस फॉर्म को एक-साथ फिल्म के रूप में लाती है जिन्हें उदय शंकर ने बनाया था। उनकी डांस एकेडमी में जोहरा सहगल स्टूडेंट रह चुकी हैं, उन्होंने पढ़ाया भी था वहां पर। उनकी डांस एकेडमी बहुत फेमस थी और उन्होंने बड़े इंट्रेस्टिंग और नाटकीय तरीकों से फिल्म को शूट किया था चेन्नई जाकर। जब मुझे पता चला कि ये फिल्म स्कॉरसेजी को चाहिए तो मैंने काम किया और कैसे न कैसे उन्हें लाकर दी। मुझे पता था कि एक बार ‘कल्पना’ रेस्टोर हो गई तो बाकी फिल्मों का भी दौर चालू हो जाएगा और भारत भी उस नक्शे पर आ जाएगा।

नायर साहब की बदौलत अथवा आपकी फिल्म के बाद जो भी प्रिजर्व हुआ है वो लौटकर लोगों तक कितना जा रहा है, या अभी उन्हें आर्काइव्ज में ही रखा जा रहा है?
अभी तक तो आर्काइव में ही रखा है। मैं अपना फाउंडेशन लॉन्च कर रहा हूं। उसका काम होगा फिल्मों को प्रिजर्व करेगी। उसके जरिए हम जितना सेव कर सकते हैं करेंगे, मदद कर सकते हैं करेंगे।

जब फिल्म नई-नई थियेटर में लगती है तो हम बड़ा जजमेंटल होकर देखते हैं, आलोचनात्मक होकर देखते हैं, उनके सामने एक किस्म की प्रतिरोधी शक्ति खड़ी कर देते हैं, लेकिन जैसे ही वो फिल्म कुछ सालों में हमारे नॉस्टेलजिया में जाकर कैद हो जाती है और फिर हमारे सामने आती है तो हम जरा भी जजमेंटल नहीं होते, वो हमारे लिए बस एक प्यार करने वाली, सेहजने वाली चीज बन जाती है। क्या इस सोच या परिदृश्य के बारे में आपने कभी सोचा है?
बहुत सोचा है, बहुत सोचा है। कई बार हम सोचते हैं कि हमें नहीं पता या हम नहीं जानते लेकिन ऐसा होता है कि वही फिल्म कुछ साल बाद जाकर क्रिटिकल तारीफ हासिल करती है। कई बार हम फिल्म को उस वक्त देखते हैं जब हालात कुछ और होते हैं, प्रस्तुतिकरण कुछ और होता है। बाद में देखते हैं तो उसका टाइम कुछ और होता है, फ्रेम ऑफ माइंड कुछ और होता है। कई बार फिल्म वक्त के साथ मैच्योर होती हैं। ये हमेशा रहा है। जब ‘शोले’ की ओपनिंग आई तो लोगों को पसंद नहीं आई, हफ्ते दो हफ्ते शायद कोई नहीं आया लेकिन बाद में माउथ टु माउथ पब्लिसिटी हुई और लोगों ने आकर देखा तो उन्हें कुछ नई चीज लगी।

‘सेल्युलॉयड मैन’ को बनाने में कितना वक्त लगा और क्या ज्यादा सिनेमैटोग्राफर इस्तेमाल करने की वजह ये थी कि ज्यादा से ज्यादा अपना योगदान देना चाहते थे?
तीन साल लगे। ग्यारह सिनेमैटोग्राफर हैं और सभी इंडिया में टॉप के हैं। के. यू. मोहनन हैं जिन्होंने ‘तलाश’ शूट की, पी. एस. विनोद हैं जिन्होंने फराह खान की आखिरी फिल्म शूट की थी। संतोष ठुंडिल हैं, किरण देवहंस हैं जिन्होंने ‘जोधा अकबर’ शूट की, विकास शिवरमण हैं जिन्होंने ‘सरफरोश’ जैसी कई बड़ी फिल्में शूट की। अभीक मुखोपाध्याय हैं जिन्होंने ‘रेनकोट’, ‘चोखेर बाली’ और ‘बंटी और बबली’ जैसी कई फिल्में शूट कीं। ये सब 11 लोग इस फिल्म से जुड़े इसकी मुख्य वजह ये रही कि ये सब स्टूडेंट रह चुके हैं एफ.टी.आई.आई. के। इन सबने नायर साहब को देखा है और उनसे प्रभावित रहे हैं। तीन साल में फिल्म अलग-अलग क्षेत्र में शूट हुई तो अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से हमने सिनेमैटोग्राफर लिए। मैं ये दिखाना चाहता था कि कैसे इतने लोग लगे होने के बावजूद फिल्म एक लग सकती है। ये भी कि इतने लोग नायर साहब को पसंद करते हैं और उनसे ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं।

आपका फिल्म स्टॉक कोडेक का था या कोई और था?
अधिकतर हमने कोडेक किया। कोडेक 16 एमएम कैमरा और कुछ 35 एमएम है। दिलीप साहब वाला हिस्सा हमने पैनाविजन पर किया क्योंकि मैं जानता था कि दिलीप साहब ये आखिरी बाहर इंटरव्यू दे रहे हैं या उसके बाद कोई उन्हें परदे पर इंटरव्यू के लिए नहीं ला पाएगा और वो भी मूवी कैमरा में क्योंकि आपको मालूम है सेल्युलॉयड कैमरा जा रहा है। 16 एमएम कैमरा आमिर खान प्रॉडक्शन से लिया गया किराए पर। कोडेक हमारा मुख्य आपूर्तिकर्ता था, उन्हीं से ज्यादातर लिया। हालांकि छह-सात केन हमें फूजी ने भी दिया, लेकिन मुख्य कोडेक के साथ था।

Shivendra with Dilip Kumar & Saira Banu at their residence.
इसमें दिलीप कुमार और सायरा बानो भी नजर आएंगे?
हां। दिलीप साहब का पूरा इंटरव्यू सायरा बानो जी ने लिया है। मुख्यतः उन्होंने शायरी वगैरह ही पढ़ी हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ दिलीप साहब ने देखी नहीं थी जब रिलीज हुई क्योंकि उन्हें प्रॉब्लम हो गई थी के. आसिफ साहब के साथ। नायर साहब ने वो फिल्म रखी हुई थी। करीब दस साल बाद उन्होंने दिलीप साहब को वो फिल्म आर्काइव्स में से निकालकर दिखाई। रिलीज के दस-बारह साल बाद दिलीप साहब ने वो फिल्म देखी।

मुख्यधारा के हिंदी फिल्म सितारों का भी नायर साहब से यूं जुड़ाव रहा?
जी, जैसे नायर साहब ने एक बार बताया कि संजीव कुमार सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में काम करना चाहते थे। वो आर्काइव्स में नायर साहब से मिलने आए और बोले कि मैंने आर्काइव्स के बाहर घर ले लिया है और आप मुझे रोज सत्यजीत रे की फिल्में दिखाइए ताकि मैं काफी कुछ सीख सकूं उनकी फिल्म में काम करने से पहले। ये बात सिर्फ संजीव कुमार जैसा एक्टर कर सकता था, यही बात नायर साहब ने कही कि इतना लगाव इतना प्रेम, इसलिए वो इतने बेहतरीन एक्टर थे। तो संजीव कुमार महीना भर आर्काइव्स में आते रहे। देखिए, नायर साहब का योगदान ये रहा है। उन्होंने उभरते निर्देशकों को मदद की, इंडस्ट्री को मदद की। विधु विनोद चोपड़ा तो पागल हैं उनके पीछे। राजकुमार हीरानी पागल हैं। आशुतोष गोवारिकर डायरेक्टर बने ही नायर साहब की वजह से। वो एक्टर थे और वहां पर एप्रीसिएशन कोर्स करने आए थे। नायर साहब फिल्में गांव-गांव लेकर गए। नसीरुद्दीन शाह ने बोला है, जया बच्चन ने बोला है कि हम फिल्मों में हैं तो श्रेय जाता है नायर साहब को। शबाना आजमी हों, जानू बरूआ हों, गिरीष कासरवल्ली हों... सब लोगों ने एक ही बात दोहराई है कि आज वो जो भी हैं, नायर साहब की बदौलत।

विज्ञापन फिल्मों और डॉक्युमेंट्री बनाने की आपकी प्रक्रिया क्या रहती है?
विज्ञापन फिल्मों का तो अलग ही होता है, अगर डॉक्युमेंट्री की बात करें तो मैंने एक कॉन्सेप्ट और ओपनिंग सीन लिखे थे। बाकी सब ऑर्गेनिक था। मैं नायर साहब के साथ बैठा, मैंने सोचा कि क्या क्या करना चाहिए, सवाल लिखे।

वर्ल्ड सिनेमा के अजनबी दिग्गजों को आप जाकर इंटरव्यू कर रहे हैं?
वो मेरा आर्काइवल मामला है। मैं चाहता हूं कि जितना आर्काइव कर सकूं हिंदुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में। तो मैं घूमता रहता हूं और जिन निर्देशकों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है उनसे मिलने चला जाता हूं। उतना अच्छा।

इन इंटरव्यू की लंबाई कितनी है?
तकरीबन तीन-तीन घंटे के होंगे।

भाषाई मुश्किल आई होगी?
नहीं, जहां भी गया वहां मेरे साथ ट्रांसलेटर रहे। हम लोग एंबेसी से बात करके ट्रांसलेट करते थे। काफी लंबा प्रोसेस हो जाता है।

इन्हें शेयर भी करेंगे?
हां, हमारी अगली डॉक्युमेंट्री एक चेज़ फिल्ममेकर हैं जीरी मेंजल (Jiří Menzel), उन पर है। धीरे-धीरे शेयर करेंगे। अगर ये डॉक्युमेंट्री एक साल में तैयार हो जाएगी तो उसे शेयर करेंगे।

कुछ वक्त पहले आपने एक फोटोग्राफर जितेंद्र आर्य की जिंदगी पर भी इस स्टाइल में एक डॉक्युमेंट्री प्रोड्यूस की थी ‘की-फिल कट’?
वह ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में थे और बहुत ही जानी-मानी हस्ती थे। इतने बड़े फोटोग्राफर थे कि उन्होंने बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री के बहुत सारे लोगों को प्रभावित किया था। हमने ये सोचा कि क्यों न उनपर एक छोटी सी डॉक्युमेंट्री बनाई जाए। क्योंकि ये ऐसे लोग हैं जिन्हें धीरे-धीरे सब भूल जाएंगे। उसे एक लड़की है अरवा मामाजी उसने डायरेक्ट किया था।

पर क्या ये प्रसारित हो नहीं पाई?
ये दरअसल उनकी वाइफ के सुपुर्द की गई थी फिल्म। उन्होंने ही इसे बांटा। एक आर्काइवल प्रोसेस था। जितने भी फोटोग्राफी क्लब हैं, सोसायटी हैं, काला-घोड़ा फेस्टिवल है, इन सभी में इसे दिखाया गया। क्योंकि एक तो इसकी लंबाई काफी छोटी थी और दूसरा ये निजी भी थी आर्काइवल महत्व की इसलिए।

किसी चैनल पर दिखाने की कोशिश नहीं हुई?
अब हिंदुस्तान में भला कौन सा चैनल लेगा, उन्हें डेली सोप से फुर्सत ही कहां है।

आपके कश्मीर में साक्षरता और कोढ़ व एड्स पर बनाए सरकारी विज्ञापन बाकी आम विज्ञापनों से जुदा हैं...
दरअसल कोढ़ और एड्स दोनों ही सरकार के प्रोजेक्ट थे तो बनाने का अंदाज मैंने नेचुरल रखा। आइडिया था कि वहीं के लोगों को चुना जाए। वो मेरा निजी मानना था कि लोग वहीं के हों, उस गांव के हों और नेचुरल रहें। ताकि जो बात कहनी है वो जाकर उन्हें छुए। वो जो फिल्म है वो कश्मीर पर है और उसे वहीं कश्मीर के बॉर्डर पर शूट किया, बच्चे भी वहीं के थे। मेरा हमेशा ये अंदाज रहा है कि जितने नेचुरल लोग रहें, जिनती नेचुरल जगह रहें और जितना स्पोंटेनियस मेरा अंदाज रहे तो ही फिल्म अच्छी बना पाएगी।

जब इंटरनेशनल ब्रैंड या मल्टीनेशनल्स के विज्ञापनों को आप करते हैं, बतौर फिल्मकार या बतौर विज्ञापन फिल्मकार आप उनमें संवेदनाएं, मासूमियत और त्याग वाले इमोशंन डालते हैं, रिश्तों को पिरोते हैं। ये सब दिखने में बहुत सुंदर और शानदार बन पड़ता है लेकिन उसकी जो एंटी-कैपिटलिस्ट या सोशलिस्ट आलोचना है कि बड़े ब्रैंड्स का हम मानवीयकरण करके उन्हें बेचने की कोशिश करते हैं, उसे आप कैसे लेते हैं? आपका निजी मत उस ब्रैंड और ऐसा करने पर क्या रहता है? इन लॉजिक को आप ध्यान में रखते हैं या सिर्फ कहते हैं कि मैं तो अपना काम कर रहा हूं, आप बहस या जो समझना है समझो। आप ये समाज पर छोड़ देते हैं?
नहीं, ये डिबेट अकसर रहती तो है। मुश्किल रहता है हमेशा लेकिन मैं एक फिल्ममेकर के तौर पर उसे लेता हूं क्योंकि समाज इतना बेवकूफ नहीं है। मैं ये मानता हूं। आप अगर कोई चीज लेने जा रहे हो मार्केट में तो आपको पूरा यकीन है कि वो क्या है। लेकिन कुछ ऐसे ब्रैंड हैं जो मैं करता नहीं हूं जैसे फेयर एंड लवली हैं। मैंने इन ब्रैंड को हमेशा मना किया है। मेरा उस पर एक निजी टेक रहता है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिनके सिक्के की तरह दोनों पहलू देखता हूं। मैं आपको बताता हूं, एक फिल्म मैंने की, वेदांता पर। पीयूष पांडे उसमें क्रिएटिव थे, वह राजस्थान से हैं, जयपुर के हैं। उन्होंने विज्ञापनों में हिंदुस्तानी परंपरा डाली जो पहले पूरी तरह अंग्रेजों के थे। तो पीयूष भाई मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि एक एड फिल्म बनानी है वेदांता पर, वो भी उदयपुर में और गांव होगा डूंगरपुर के पास में। तुम अपने तरीके से बनाओ। मुझे कई लोगों ने कहा कि वेदांता पर तुम कैसे कर सकते हों शिवी... उनका तो उड़ीसा में और वहां-वहां ये चल रहा है। जब मैंने खोदकर निकाला तो सिटी बैंक और आई.सी.आई.सी.आई. बैंक उन्हें सपोर्ट कर रहे थे, तो मैंने सोचा कि यार 80 फीसदी हिंदुस्तान इन बैंकों से जुड़ा हुआ है और यही बैंक वेदांता को सपोर्ट कर रहे हैं तो किस नजरिए से इसे देखें। क्या सही है क्या गलत है। तो इसका मतलब क्या आई.सी.आई.सी.आई. बैंक को हम बंद कर दें क्या। दरअसल जिस समाज में आज हम रह रहे हैं, उसमें ये बहुत मुश्किल चुनाव हमारे सामने रख दिए गए हैं। क्या गलत है क्या सही है, हर चीज के दो पहलू हैं, हर चीज कैपिटलिस्ट है और हर चीज नहीं भी। आपको बस अपना काम करना है। वो ही जरूरी है कि कितनी ईमानदारी से आप काम कर सकते हो। फिर मैंने गांव में जाकर चुना और अपने तरीके से उसे दिखाया और जो दिखाया वो बातें सच थीं। क्योंकि मैं खुद गया था वहां और स्कूलों में उन्होंने प्रभावित था और दूसरे काम करवाए थे। जितना डेमेज वो कर रहे होंगे, उससे ज्यादा तो कई और लोग कर चुके होंगे। सब कुछ एक चक्र हो चुका है, हम उस चक्र से बने समाज में आ चुके हैं। ऐसे समाज में जो है, अब नहीं बदलने वाला। मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हुए खुद को चॉकलेट, वॉशिंग पाउडर जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल्स पर ही रखा है जहां पर मैं समझता हूं लोग जानते हैं कि कौन सा सर्फ या पाउडर बैटर है। वो तो हमारे रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज है, उसे तो कम्युनिस्ट भी इस्तेमाल कर रहा है। वो भी दुकान में जाकर उसको ले रहा है, चॉकलेट भी खा रहा है। तो कोशिश पूरी करता हूं कि वहां न जाऊं जहां हम बच्चियों-बच्चों को ललचा रहे हैं, पर हो तो रहा है। पर डिबेट तो रहती ही है और मैं नहीं कहता हूं कि मैं बाहर आ गया हूं इससे, मैं भी फंसा हूं इसी चक्र में जैसे बाकी लोग फंसे हैं।

जैसे डोमिनोज का आपका विज्ञापन है, उसे देखकर लगता है कि क्या आप पिज्जा बेच रहे हैं संवेदनाओं के सहारे या फिर आप एक विकल्प दे रहे हैं कि दूसरों के बारे में सोचो या मिल बांटकर खाओ, चाहे पिज्जा हो या जलेबी?
उसमें अगर आप देखें तो डोमिनोज भी बहुत बाद में आता है। उसमें भी हमने बहुत जोर नहीं डाला है। उसे बहुत सामान्य रखा है कि फोन किया, ऑर्डर दिया और डोमिनोज आ गया। आप चाहें तो उसे महज एक फिल्म के तौर पर भी देख सकते हैं बच्चों ने मिलकर एक बुजुर्ग के लिए कुछ किया। बाद में डोमिनोज की तरफ इशारा जाता है तो मेरे ख्याल से वो एड ज्यादा तो बच्चों के बारे में है।

तो क्या जिस चक्र की बात आप कर रहे हैं वो एक न पलटी जा सकने वाली प्रक्रिया बन चुका है?
लेकिन हम ये कोशिश जरूर कर सकते हैं जो भी काम अब करें वो नए सिरे से करें, उस प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए न करें, सच्चाई के लिए करें। बाकी ये दुविधा हमेशा बनी रहने वाली है। हम बस वैल्यूज को बनाए रखें कि जहां हो सके दूसरे के बारे में सोचें, उसकी मदद करें। इससे ज्यादा कुछ करना भी चाहेंगे तो वो छद्म जीवन जीना हो जाएगा।

आपकी जितनी एड फिल्में मैंने देखी, उनमें डीटीएच है, ग्रीनप्लाय है या टाइम्स ऑफ इंडिया है, व्हील है... उनमें काफी रंग, इंसान और परते हैं। इन्हीं सब चीजों से अच्छी-खासी फीचर फिल्में बन सकती थीं, तो फिल्में क्यों नहीं?
मेरी सफलता की एक वजह ये रही कि मैं जब विज्ञापन जगत में आया तो सब लोग स्टूडियो में शूट कर रहे थे, उनके विज्ञापन परफेक्शन और ब्यूटी वाली छवियों से भरे लगते थे। मेरी शुरुआती एड फिल्मों में एक थी विम साबुन की, उसमें रीमा सेन और राजपाल यादव थे। उसे मैंने वीटी स्टेशन के बाहर शूट किया। मुझे कहा गया कि यार ये क्या कर दिया तुमने। लेकिन मैं विज्ञापनों को सड़क पर लेकर गया। क्योंकि तब जितने बन रहे थे उनमें जिंदगी होती ही नहीं थी। जैसे ऐश्वर्या का एक आता है... इतना ब्यूटीफुल सा होता है कि लाइफ लगती ही नहीं है उसमें। मेरे लिए जो जिंदगी मैं जी रहा हूं वही विज्ञापन हैं। अपने हर विज्ञापन में संस्कृति, विविधता और भारतीय डांस फॉर्म को शामिल करता रहा हूं। क्या ये एंटरटेनमेंट नहीं है, अगर आप देखते नहीं हैं तो क्या है नहीं। ये विरोधाभास मैंने दिखाया। वैसे मैं हमेशा से फिल्ममेकर ही था। हर एड को फिल्म समझकर ही शूट किया। क्योंकि न मैंने एड फिल्म बनानी अलग से सीखी थी न मुझे आती थी, मुझे फिल्म बनानी आती थी, मैं उन्हीं से एड फिल्मों में आया था। मुझे लगता है कि जो एडवर्टाइजिंग से फिल्मों में आए हैं वो ज्यादा गहराई में जा नहीं पाते, कुछेक ही हैं जो बहुत सफल हो पाए हैं। क्योंकि एक 30 सैकेंड के एड में आपको कैरेक्टर डिवेलप करना है, उसमें आप अलग माहौल में जी रहे हैं, लोगों की नब्ज के बारे में सोच रहे हैं.. लेकिन अगर आप फिल्मों से एडवर्टाइजिंग में आए हैं तो आपने लोगों को देखा है, उनके जीवन को जाना है।

फीचर फिल्में कब बनाएंगे?
फिल्मों में मैं हमेशा से ही था। बेहद यंग डायरेक्टर था उस वक्त मैं, कोई 23 साल का था और डायरेक्शन कर चुकने के बाद मुझे एड फिल्मों में जाना पड़ा। गुरुदत्त पर भी स्क्रिप्ट लिख रहा था लेकिन कुछ प्रॉब्लम्स आ गईं और वो ठहर गई, बनती तो अभी तक पूरी हो गई होती। अब फिर स्क्रिप्ट लिख रहा हूं, जल्द ही पूरी कर लूंगा, मेरा असल प्यार तो फिल्ममेकिंग ही है न।

शुरू में जो फिल्म बना रहे थे, उसके बारे में बताएं?
उसमें संजय कपूर, करिश्मा कपूर, रानी मुखर्जी, ओम पुरी, चंद्रचूड़ सिंह, काव्या कृष्णन, नम्रता शिरोड़कर, डैनी, फरीदा जलाल, जॉनी लीवर वगैरह सब थे। ए. आर. रहमान का म्यूजिक था। गुलज़ार साहब गाने लिख रहे थे। वो लिखी थी श्रीराम राघवन, मैंने और करण बाली साहब ने। श्रीराम मुझसे एक साल सीनियर थे। करण बाली भी एक साल सीनियर थे, फिलहाल वो एक अच्छी साइट अपरस्टॉल चलाते हैं। उसमें सीनियर पर्सन थीं रेणु रलूजा जो एडिटर थीं, बाकी सब नए थे। शर्मिष्ठा रॉय जो आर्ट डायरेक्टर थीं वो भी नईं थीं। तब उन्होंने यशराज की बड़ी-बड़ी फिल्में नहीं की थीं। उसका संभावित शीर्षक इत्तेफाक रखा था, राइट्स नहीं लिए थे। वो राइट्स बी. आर. चोपड़ा साहब के पास थे।

आपकी हरदम पसंदीदा फिल्में कौन सी रही हैं?
पथेर पांचाली (1955)। एक याशुजीरो ओजू की जापानी फिल्म टोकियो स्टोरी (1953) थी। एक आंद्रेई टारकोवस्की की द मिरर (1975) थी। ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा (1960)। ला वेंचुरा (1960) मिकेलेंजेलो एंटिनियोनी की। अकीरा कुरोसावा की राशोमोन (1950)। विट्टोरियो डि सीका की बाइसिकिल थीव्स (1948)। एल्फ्रेड हिचकॉक की नॉर्थ बाइ नॉर्थवेस्ट (1959)। ग्रैंडफादर जॉन फॉर्ड और हार्वर्ड रोर्क की फिल्में लाते थे, वो भी थीं। ये सब फिल्में देखकर मेरा दिमाग अलग ही दिशा में चला गया।

अभी भी देखते हैं वर्ल्ड सिनेमा में जो रचा जा रहा है?
हर वक्त। सुबह, शाम, रात फिल्में ही देखता हूं। शूटिंग, मीटिंग, प्रोजेक्ट, फिल्म फेस्टिवल्स इनकी वजह से ट्रैवल बहुत करता हूं। फाउंडेशन का काम चल रहा है। मेरा खुद का वॉल्ट है जहां फिल्में रखता हूं उसकी क्लीनिंग चल रही है। जीरी मेंजल पर डॉक्युमेंट्री बना रहा हूं, सेल्युलॉयड मैन पर काम चल रहा है। एड फिल्में चलती रहती हैं, आर्काइव का काम चलता रहता है, मेरी स्क्रिप्ट चल रही है। चार ऑफिस हैं, उन्हें संभालना आसान नहीं है। दिन कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता, कभी-कभी तो वक्त के इतने तेजी से गुजर जाने से डरता हूं। मैं लिखता भी बहुत हूं। रोज की डायरी है, सेल्युलॉयड मैन की डायरी है उस पर लिखता हूं। आज भी इंक और पैन से लिखता हूं इसलिए मैं मेल बहुत कम लिखता हूं। लेटर्स लिखता हूं, पोस्टकार्ड लिखता हूं... ये सब मेरे शौक हैं। मैं बॉम्बे में एक लैब को स्पॉन्सर करता हूं जिसमें ब्लैक एंड व्हाइट में गोल्ड प्रिंट निकलता है।

फिल्में देखने का जरिया क्या रहता है?
बड़ी स्क्रीन पर देखता हूं। मेरे ऑफिस में मिनी थियेटर है। वैसे मैं सिनेमा हॉल प्रेफर करता हूं, क्योंकि फिल्ममेकर ने उन्हें इसी लिए बनाया है। मगर जब कोई फिल्म निकल जाती है तो डीवीडी पर।

राजस्थानी फिल्में देखी हैं आपने? वहां का क्या सीन लग रहा है?
मुझे मालूम है कई लोगों ने वहां हिस्टोरिकल फिल्में भी बनाई हैं। लेकिन अभी तक कोई फिल्म नजर नहीं आई है जिसे कह सकूं कि मुझे पसंद आई हो। मुख्य चीज हमारे वहां ये है कि डायलेक्ट या बोलियां बहुत ज्यादा हैं, रीजनल बहुत ज्यादा है इसीलिए वहां हिंदी ज्यादा चल रही है। आप एक रीजन को लेकर बनाएंगे तो वो राजस्थान के बाकी इलाकों में नहीं चलेगी। ये समस्या है। आप रीजनल बंगाली में बना सकते हैं, पूरे बंगाल में वही चलता है। उड़ीसा में उड़िया पूरे में चलती है। कर्नाटक में वहां की एक भाषा है। लेकिन राजस्थान में दिक्कत ये है कि जो भाषा जयपुर में है वो बीकानेर या जैसलमेर में नहीं है, जो वहां है वो बाकी हिस्सों में नहीं है। किसी भी एक में राजस्थान करके फीलिंग नहीं आएगी।

P. K. Nair at the archive, 2009.
Shivendra Singh Dungarpur is an Indian filmmaker. He's directed over 400 commercials. His latest is a 2012 documentary ‘Celluloid Man’. The FB page of Celluloid Man says, "It is a tribute to an extraordinary man called Mr. P.K. Nair, the founder of the National Film Archive of India, and the guardian of Indian cinema. He built the Archive can by can in a country where the archiving of cinema is considered unimportant. The fact that the Archive still has nine precious silent films of the 1700 silent films made in India, and that Dada Saheb Phalke, the father of Indian cinema, has a place in history today is because of Mr. Nair. He influenced generations of Indian filmmakers and showed us new worlds through the prism of cinema. He is truly India’s Celluloid Man. There will be no one like him again."
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Sunday, February 10, 2013

I remember crawling around in the dark under my mother as she was editing on the noisy steenbeck, in the front room: Lucy Mulloy (Una Noche)

Seven years ago her documentary short was nominated for a Student Oscar, and last year she came with ‘Una Noche’ an emotional-vibrant journey of three young Cuban characters which won at many International Film Festivals including 43rd IFFI, India. Meet Lucy Mulloy from Britain, a very talented storyteller and an emerging woman filmmaker.


I’d seen ‘A Better Life’ directed by Chris Weitz early last year, and I loved Demian Bichir for his performance as Carlos, the off-the-books gardener and a single parent trying so hard to live the American dream on the alien land. The movie put a human face to the story of illegal immigrants (the protagonist is a Mexican) living in America: undocumented, unwelcomed and in constant fear of deportation. Then I recently came across a similar heart wrenching Spanish-English drama ‘Una Noche’ (one night). It was directed by London born - New York based Lucy Mulloy. The movie follows lives of three teenagers: Elio, Raul and Lila in Havana, Cuba. One day an unwanted assault involving a tourist takes place after which Raul decides to flee to America. Elio and Lila are with him. They take the water route, emotionally somewhat similar to Ang Lee’s ‘Life of Pi.’
Lucy Mulloy

Lucy’s was more of an independent effort, and I wanted to talk to her and know more about the person and the creative process. After much effort I was able to communicate. She was travelling with the movie to various International Film Festivals, and it took time. ‘Una Noche’ (FB/Twitter) has so far won at Tribeca (Best Director), Gotham, Brasilia, Deauville, Athens, Fort Lauderdale, Stockholm and Oaxaca. Last year it was in Goa and was given a special Jury Prize at International Film Festival of India.

To talk about Lucy, she is the daughter of Phil Mulloy and Vera Neubauer. Phil is a well known British animator and live-action filmmaker (see Intolerance 1, 2, 3). Similarly Vera is also a very prolific animator in Britain. Lucy's brother Daniel is the producer of ‘Una Noche’ and three time BAFTA winning short filmmaker. He's won numerous awards (see Dad, Sister, Antonio's Breakfast) and regarded as one of the finest short film makers. Lucy graduated from New York University Film School. Before that she studied Politics, Philosophy and Economics at Oxford University. In 2005, she made a documentary ‘This Morning’ which was nominated for the Student Academy Award. Now her next project ‘Una Noche Mas’, the sequel to ‘Una Noche’ is developing. She’s also writing a script set in NYC and Rio.

I hope you’d love it.
Here is the Q & A with her.

Tell me about you and your family. How was your childhood and how instrumental was the environment of your house in your becoming a filmmaker?
I was really lucky to be brought up with both of my parents making films. They are mainly animation filmmakers and so filmmaking was always present in my life, even before I knew what they were doing, I remember crawling around in the dark under my mother as she was editing on the noisy steen-beck, in the front room. I remember looking at the little images on the left over splices of film. We would make puppets with my mother when we were small for her animation films. Our parents always included us in their process. It was all I knew as a kid and I loved it. My father would be working on his drawings and I would sit on the wooden floor of his studio with coloring pens drawing and listening to his music. I am very lucky that I have amazing encouraging parents who always inspired me. They were always passionate independent voices. My brother is a filmmaker too. Our parents heavily influenced us both. They just wanted us to do what made us happy. I always knew that I would make movies. It seemed like the best way to incorporate everything that I love.

An Indian movie you like.
When I was a kid in London they would play a Bollywood movie on the TV every Saturday morning. I was really young, but it was so exciting to enter into this musical, vibrant world. I wonder why they stopped showing them. There is not enough exposure to Indian movies in the UK or US mainstream. An Indian movie that made an impression on me was “Monsoon Wedding”. The naturalistic quality and intimacy of the moments created a very emotional experience. The aesthetic of the movie and the perspectives and with long lenses, capturing beautiful moments were also very refreshing.

Making ‘This Morning’ in 2005 to ‘Una Noche’ this year, what did Lucy Mulloy do in between?
Since 2005 I went to film school for another year, where I made short movies and shot exercises for classes. I loved film school because it gave me the opportunity to be completely free and experimental. I was also surrounded by people who were passionate about telling stories and sharing ideas. Prior to film school I had been at Oxford working in academia, writing essays, working independently, researching, so film school was a creative, collaborative paradise for me. I really enjoyed the freedom of being able to make and express exactly what I felt. It made me very happy. ‘Una Noche’ was a natural progression. It is my thesis film from film school.

You worked with Spike Lee as a production intern for the Hurricane Katrina documentary ‘When the Levees Broke.’ What was the experience like? Which is your Spike Lee favorite?
It was a privilege to see him working. I learnt a lot. He has his eye on everything. He knows exactly what is going on at all times on his set and he is aware of each and every person. He nurtures young talent and seeks to help people progress into becoming working filmmakers. Spike Lee is also a professor at NYU and was my mentor. He takes time out to go through each and every detail. I sat down more with him more than with any other professor when it came to editing the movie. He makes time to help you. I really value this. He is very insightful when it comes to editing and will push and challenge his students. ‘Una Noche’ was awarded the Spike Lee production grant, which was a huge help to getting the movie off the ground. Spike is nurturing a new generation of voices. I really appreciate his help. It is inspiring to see him making a movie each year on his own terms.
I love "Do the right thing".
Going to New Orleans with Spike and his team just two months after Katrina hit was a very emotional experience. I was shocked by the lack of action that was being taken to help restore the city. It seemed like the whole world was talking about the destruction that had taken place, but New Orleans was an apocalyptic ghost town. It felt completely abandoned. People’s entire material lives were scattered on the streets, family photos, baby’s cots and toys. It was very sad.

How did you conceive the content idea of ‘Una Noche’?
Javier Nunez Florian and Lucy while shooting.
I spent a lot of time in Cuba. From my very first trip I met people who were planning trips to leave on rafts. Migration is something that touches everyone on the island in one way or another. To cross 90 mile of dangerous water on a homemade raft is an extreme choice to make, it is literally to risk everything to get to the US. I was meeting people who were planning this trip, not knowing if they would be dead or alive in a few months time. It was harrowing and I wanted to understand what would push someone to that point. I was interested in telling the story from a young person’s perspective. I love working with kids and teenagers because they are happy to play and pretend and easily enter the realm of fantasy, so they make good actors! I had a conversation with a young boy I met on the sea front in Havana. I was asking him about whether he knew of any kids who had left on rafts and he told me the story of two boys and a girl who made a raft and left together very early one morning. That true story was the initial spark that inspired ‘Una Noche’.

Should I say that your film was a perfect case of life imitating art, as two of your actors disappeared in Miami en route to Tribeca Film Fest - thus giving a vent to the focal theme of the film (Cubans emigrating to the US)?
The movie is reflecting a real situation. The story of ‘Una Noche’ is something that really happens, which is why it was personally important for me to make this film.

There are regular talks of the best health care made available by the government in Cuba. But the hospital scene where a lead character met a nurse for medicine and a secret vendor opening a bed as a medicine store do not tally the government claims. S-e-x is also used as a metaphor of the hardships people in general have to undergo. Did you want to make a statement on life and government policy in Cuba?
There are talented medics in Cuba, but this does not negate the fact that sometimes things are sold off the record, not everywhere, but this can happen. Depicting this does not contradict that medics are good in Cuba. S-e-x is shown in the movie at moments when it was important to the story, or the impact it has on a character, whether witnessing it or doing it.
  S-e-x for many different reasons is a strong motivating drive in ‘Una Noche’. That was my intention. I wanted to juxtapose Lila's more innocent worldview with the way that s-e-x is present around her. It is something that she is starting to become curious about, which is reflected in her attraction to Raul, but she does not sexualize herself and she is conflicted about her attraction to him. I wanted to present her as an alternative image, contrary to the over sexualized stereotypes of young Cuban women, so it was important to contrast her outlook to those around her. Raul uses s-e-x as a release, an escape, as a way not to have to access deeper emotions, a way of numbing himself and also as a currency, to get what he needs.
  ‘Una Noche’ is focused on the lives of these three specific characters and their journeys of self-discovery. I am not making a general statement in showing the way that they live. It is not a reflection on Cuba as a whole. We did use all real locations and real homes. We are following three lives over one day. People may come into the cinema with a political perspective and that may mark their reading of the story. Everyone has a different interpretation and will leave the cinema with his/her own emphasis.

There is a certain spatial aspect in the film, like the confining space of the raft at sea sets an unorthodox but real stage for the climax of the whole drama. The earlier chaos in Cuban streets and homes gave way to greater chaos. How do you explain the semiotics thus expressed in your film? And, in this respect, what is the aspiration of your film?
Poster of Una Noche
When they are on the ocean I wanted the audience to feel the vast immensity of the water, but also the sense that they are trapped on a claustrophobic little raft and that they cannot get away from one another. My intention was to light all the emotional fuses in the city, for the audience to really get to know each character independently, so that when they are brought together their emotional bombs can explode. Once they are all on the raft their jealousy, desire, sense of who they are and what they feel for one another comes to the fore in a pretty messy love triangle. The journey is very important in them learning about themselves and influencing one another. Raul, for example, observes the siblings love between Elio and Lila and realizes his negative impact on Lila when she wants to get out of there because she wants to get away from him. These moments stimulate self reflection in his character.
  The film is about many things, love, respect, betrayal, family, ego, sexual attraction, unrequited love, friendship, sibling bonds and loss. There were a lot of emotions that I was going through making the film. I lost a very dear friend and that had a big impact on the story. The movie is dedicated to her. I wanted to express some of the feelings that I was going through at that time.

Which filmmakers across the world do you think have got the best out of non-actors in their movies (like you did)? And why non-actors?
Ken Loach is a great example of a director who often works with non-actors, films like “Kes” and “Sweet Sixteen” are very natural and organic in their acting. Also Michael Winterbottom's “In This World” comes to mind. Another good example is Fernando Meirelles and Kátia Lund's “City of God” fantastic acting by non-actors. I particularly remember the little kid crying when he’s shot in the foot. I think that it is often the case when looking for young talent, that it is easier to find non-actors who are willing to learn and be fresh. Kids are open to playing still and entering into fantasy world without inhibitions or self-consciousness, which is invaluable to a director. I love the relationships formed whilst working with non-actors. There is a lot of trust involved and I very much appreciate that you can keep the natural elements of that real person, the aspects of their character that drew you to them initially. I like the process of developing their talents too, when you can see their surprise by their own performance and feel them take a new pride and energy from their achievements. In ‘Una Noche’ a lot of the adult characters are also non-actors. I had the luxury of time to train them. I was looking for an aesthetic foremost and I feel that if you work hard with almost any person who is committed, that they have the potential to act. It really is all about confidence and trust. Trust to make yourself vulnerable.

What made narrative a strong part of your storytelling and filmmaking? If a cinema student wishes to learn it, what must he do? What study-video material would you refer?
In writing ‘Una Noche’ I was thinking about telling a story that I would want to see on the screen. It was that simple. I was writing something that would excite and grip me, as a viewer and that I would be invested in. I was thinking about relationships that progress, about how emotional states of different people can affect one another. I was taking influences from my life, from observations of others and from my imagination. I do not like watching films when I am making a movie. I like to focus more on the world around me and take inspiration from there. That said, one of my favorite movies is “Taxi Driver”. Robert De Niro's character is complex, real and subversive. I love that film. I was initially also inspired by “Soy Cuba” an old Russian film by Mikhail Kalatozov that is stunningly shot. Its energy is so raw. Visually, I really admire that movie and it was very amazing to hear about how it was made. It was before steady cam existed and the cinematographer did weight training with gallons of water to prep for making sure the handheld camera was on point. They have tracking shots that go up and down structures and under water and are visually incredible for 1964 when it was made. That movie really inspired me.

My advice to a film student is to tell the stories that excite you. Find your own voice.

You’ve studied politics from oxford, I’ll ask, what is ‘politics of films’?
At Oxford I was interested in political theory, the psychology of society. How people respond to different political systems and how various perceptions of the human condition are understood. It was most interesting for me to understand how people justified ways of envisioning society. I was especially interested in studying concepts of society that I did not subscribe to, for example conservative philosophers, like Burke. It fascinated me because I felt like I was starting to understand a mind set that I could not justify or fathom before. It was a very helpful background for my film making for sure.

There is a marked conflict between the experimental and the entertaining in cinema. Why have you associated with the former one?
My intention was defiantly to make a film that was entertaining. This is really important to me. My primary focus is to make a movie that I would want to watch; that would grip an audience, pull them into the characters' journeys, surprise, provoke and visually stimulate them, hopefully make them fall for the characters and root for them. As a filmmaker one of my main interests is to evoke empathy for my characters. I consciously wanted to keep up the pace of the film and include elements of action, thriller and strong emotions. I was not focused on the commercial prospects of the film, but more what would I want to see, what story would keep me watching and wanting to find out more about the characters and where the narrative would take them physically and more importantly emotionally. Certainly, I want to keep evolving in my work and fundamentally keep making stories that I am passionate about. I would not want to work any other way, making a movie is too hard to do without feeling completely committed to it and in love with the story, the characters, the locations and all aspects of making that vision materialize on a cinema screen.

When you conceive an idea, it’s something lyrical - spiritual - emotional and dramatic inside which remains within only until the dreamer in you is innocent and pure. But, once you start out to make the movie, you repeatedly have to maneuver the production, instruct the actors and technicians and take the tension of everything. I mean, when you’re exhausted managing everything, then only the rolling of camera starts. How do you save the initial idea and passion intact up to this point?
That is a good question. When I was making ‘Una Noche’ I was initially terrified. It was my first time working with a full crew. I was so focused on the physicality of making the movie that the process became an embodiment of all of those initial ideas. It was very exhilarating because I had been envisioning, dreaming and obsessing over the story, the actors, the locations for months and when it came to making it the moment was the only important thing. It was about being lucid and open to the moment and convicted to executing each shot that we needed to tell the story in the best possible way. It was also about being open to the talent around me and to harnessing and ensuring that the crew could harness that collaboration and use it to the best of everyone’s ability in the time given.
Dariel Arrechaga in a still from the movie, he plays Raul.

(लूसी मलॉय समर्थ एवं उभरती महिला फिल्मकार हैं। वह लंदन में जन्मीं और न्यू यॉर्क में रहती हैं। उनके पिता फिल मलॉय, मां वीरा नॉएवाउवर और भाई डेनियल भी काफी वक्त से एनिमेशन और शॉर्ट फिल्ममेकिंग से जुड़े हैं और प्रतिष्ठित नाम हैं। लूसी ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। उन्होंने न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी फिल्म स्कूल से फिल्ममेकिंग की। 2005 में उनकी बनाई शॉर्ट डॉक्युमेंट्री ‘दिस मॉर्निंग’ को स्टूडेंट ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामांकन मिला। पिछले साल वह अपनी पहली फीचर फिल्म ‘उना नोचे’ (एक रात) के साथ लौटीं। हवाना, क्यूबा के रहने वाले तीन किशोरों की इस कहानी को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में काफी सराहा गया और सम्मानित किया गया। पिछले साल गोवा में हुए 43वें भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में उनकी फिल्म को स्पेशल ज्यूरी प्राइज दिया गया।)
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मक्खी शब्द के मायने बदलने का वर्षः 2012

मूलतः तेलुगू भाषा में फिल्म बनाने वाले के. के. राजामौली की शुरुआती फिल्में बहु-भाषाओं में डब हुईं तो बाद की फिल्मों के कई भाषाओं में रीमेक बने। अक्षय कुमार स्टारर राउडी राठौड़ और अजय देवगन की सन ऑफ सरदार उन्हीं की कारोबारी तौर पर बेहद सफल दक्षिण भाषी फिल्मों की हिंदी रीमेक रही हैं। गुजरे साल उन्होंने एक मक्खी की कहानी बड़े परदे पर दिखाई। मक्खी जो पैसे, पावर और पाप से चूर एक मनुष्य को धूल चटाती है। न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी फिल्म की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है। आइए जानते हैं इस फिल्म के भीतर की गहराइयों को और इसे देखने के और भिन्न परिपेक्ष्य को।


“मैं यह मरियल देह नहीं हूं, देह तो केवल ऊपर की क्षुद्र पपड़ी है; और दूसरा यह कि मैं कभी न मरनेवाला अखंड और व्यापक आत्मा हूं”। - विनोबा, ‘गीता प्रवचन’ में

Poster of 'Makkhi.'
वैज्ञानिक सोच रखना इतना जरूरी अभी बना दिया गया है कि पुनर्जन्म, कर्म, आस्था, पवित्रता, परोपकार और स्पर्शहीन प्रेम की बात करने वाला अंकल जी समझा जाता है, पुरानी सोच वाला समझा जाता है, खारिज समझा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस को हिंदी में उद्धरित करें तो आधुनिकता की बात आ जाती है, जिक्र करने वाले को पिछड़ा हुआ महसूस करवाया जाता है। हां, अगर ये ग्रंथ अंग्रेजी में हों और उन्हें उद्धरित करने वाले परदेसी शिक्षाविद्, पत्रकार, राजनेता, साहित्यकार, फिल्मकार और नौजवां हों तो कोई आपत्ति नहीं होती। समाज में जब अपनी पृष्ठभूमि और पुराण यूं बहिष्कृत कर दिए गए हों वहां फिल्मकारी और एस. एस. राजामौली आते हैं। वह जो कहते और दिखाते हैं, हम मानते हैं। अगर उनकी फिल्म का नायक मार दिया जाता है और पुनर्जन्म से उसका आत्मा उसी क्षण एक मक्खी के अंडे में प्रविष्ट हो जाता है, हम मानते हैं। बाद में मक्खी की देह में वह नायक इंसानों की भांति सोचता, समझता, पढ़ता, याद रखता और क्रियाएं करता है... हम मानते हैं। उस मक्खी से नायक की (उसकी) प्रेमिका प्रेम करने लगती है, हम मानते हैं। अंततः वह अपना बदला पूरा कर लेता है, हम सबकुछ मानते हैं।

क्यों?...

क्योंकि ये फिल्में हैं, और एक फिल्म रचने वाला जहान भर की अतार्किक चीजें सिनेमाई तर्कों से मानव मस्तिष्क में डालना जानता है। उसके पास इतने फिक्स तरीके हैं कि जो चाहे मनवा सकता है। कुछ भी। बेन एफ्लेक की इस बार के ऑस्कर पुरस्कारों में धूम मचाने जा रही ‘अर्गो’ भी ऐसी ही एक सुखद फिल्म है। 1979 की इस कहानी में तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर आतंकी कब्जा कर लेते हैं, 50 से ज्यादा लोग बंधक बनते हैं, उनमें से छह भागकर दूसरे देश के एक राजदूत के घर में छिप जाते हैं। उन छह को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए एक सीआईए अधिकारी टोनी मेंडेज (एफ्लेक) को ईरान में घुसना है। तो वह एक छद्म फिल्म निर्माता बन वहां जाता है। थ्रिलर-ड्रामा ‘अर्गो’ के भीतर ही वह ‘अर्गो’ नाम की साइंस-फैंटेसी बनाने का ढोंग करता है और वो छह लोग लौटते में उसके कैनेडियन क्रू होने का। फिल्म क्रू होने के बहाने इस खतरनाक मिशन पर दुश्मन देश जाने की ऐसी नाटकीय कोशिश 33 साल पहले सच में हुई थी। पिछले साल आई तमिल फिल्म ‘पयनम’ में भी मेजर रविंद्र (नागार्जुन) विमान बंधक बनाने वालों को यकीन दिलाने के लिए कि उनका मर चुका आतंकी लीडर यूसुफ खान जिंदा है, एक फिल्म निर्देशक (ब्रह्मानंदम) और एक्टर (श्रीचरन) की मदद लेता है। फिर एक वीडियो फुटेज बनाई जाती है जिसमें डायरेक्टर उस एक्टर को हूबहू आतंकी लीडर जैसा प्रस्तुत करता है।

ये दोनों ही किस्से निर्देशक राजामौली की जादूगरी के समानांतर चलते हैं। जादूगरी ऐसी कि जब तक मक्खी खत्म होती है, एक आश्चर्यजनक-मजबूत संदेश दर्शक की रीढ़ तक पहुंच चुका होता है, कि ‘अब कोई किसी मक्खी को यूं न मारेगा’। चींटी और हाथी की कहानी से हम सभी पहले परिचित थे, कि एक चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो उसके प्राण ले सकती है। इस फिल्म के बाद हम मक्खी और इंसान की कहानी याद रखते हैं। वाकई लगने लगता है कि अंततः एक मक्खी भी ताकतवर होती है, अगर अपनी असल शक्ति पहचान ले तो। अद्भुत! हालांकि फिल्म का तमिल नाम ‘एगा’ ज्यादा इज्जत भरा और अज्ञात-रहस्यमय लगता है, पर फिर सोचने लगता हूं कि मक्खी नाम निम्न, नीचा, गंदा, कुत्सित, कमजोर, कायर, पैरों में गिरा, आम और गरीब जैसे शब्दों का पर्याय बन चुका है... ‘एगा’ नाम रखकर फिल्म का स्तर तो ऊपर आ जाता पर ‘मक्खी’ शब्द के मायने सम्मानजनक बनाने ज्यादा जरूरी हैं, वो कब हो पाता। इसलिए मक्खी शब्द ही बार-बार दोहराना होगा, इतनी बार कि हमारे जेहन में इस शब्द के पर्याय ही बदल जाएं। चूंकि मक्खी आज देश के आम आदमी की समानार्थक है तो ऐसा हो कि इस शब्द को सुनकर जेहन में कमजोर की नहीं सम्मानित पर्याय की छवि उभरे।

सरल शब्दों में कहूं तो देखने से पहले फिल्म का नाम सुनकर इच्छा हुई कि ‘हुंफ... मक्खी। क्या नाम है? ऐसी ही होगी... इसे भी अखबार पटककर मार दो और दूर फैंक दो’। पर जब देखी तो राय बदल गई। ये फिल्म हमें कभी किसी को मक्खी न कहने और छोटा या गरीब न समझने का अप्रत्यक्ष एहसास देती है जो कि बहुत ही अच्छी बात है।

Nani and Samantha in a still.
तो ये कहानी सबसे पहले एक नौजवान जॉनी/नानि (नवीन बाबू) और लड़की बिंदु (समांथा) की है। जॉनी बिंदु के घर के सामने रहता है। उससे बेइंतहा प्यार करता है। बिंदू माइक्रो आर्टिस्ट है। चावल के दानों से कलाकृतियां बना देती है। प्यार दोनों में काफी वक्त से है पर शर्म के साये पलता है। शांत, मासूम, मर्यादित और आत्मीय प्यार। लोगों को अचरज होता होगा कि दक्षिण की अनजानी फिल्म, अनजाने एक्टर और बेसिर-पैर की कहानी भला पूरी दुनिया में एक स्वर में क्यों सराही जा रही है? जवाब इतना आसान नहीं है, मगर फिल्म के शुरू में ही दर्शकों से जुड़ जाने की एक वजह इन दोनों किरदारों के प्यार का ये भोला स्वरूप है। लोग भले ही कितने ही आधुनिक बना दिए जा रहे हैं, पर मूलतः वह आज भी अपने उन्हीं नजरों में छिपे अस्पृश्य बने रहते प्यार की जड़ों से पोषित होते हैं। खैर, दोनों ने प्यार का मौखिक इजहार नहीं किया है, पर एक-दूसरे की परवाह प्यार वालों के जैसे करते हैं। बिजली चली जाती है तो जॉनी डिश की छतरी को लाइट बनाकर बिंदू की खिड़की में रोशनी फैंकता है जिसके तले वह अपना काम कर पाती है। अपने एनजीओ से लौटते वक्त जब उसकी स्कूटी पंक्चर हो जाती है तो वह जॉनी को मिस्ड कॉल देती है और जब वह गली में आ जाता है तो उसके आगे-आगे अपने घर की ओर पैदल बढ़ती है। वह बिंदू के पीछे-पीछे चलता रहता है और उसे घर तक छोड़कर आता है। रास्ते में सपने में दोनों गाने गाते हैं।

अब यहां दो-तीन चीजें हैं।

एक तो बिंदू का शर्म-ओ-हया और मर्यादा में रहना। उसे पता है, आम हिंदुस्तानी लड़कियों को उनकी मांएं क्या सीख देती हैं, कि रात को अकेले नहीं आना-जाना, देर हो जाए तो किसी भरोसेमंद को साथ ले लेना। इसलिए वह जॉनी को फोन करती है। दूसरा, जॉनी बात करना चाहता है, पर समझ जाता है कि उसकी स्कूटी पंक्चर है और वह चाहती है कि उसके साथ घर तक सुरक्षा के लिहाज से जाऊं। तो वह जाता है। बिना बातों के, बिना किसी स्पर्श की कामना के उसके साथ चलता है। तीसरा, इन दोनों के प्यार का ये स्वरूप ही कहानी में आगे ज्यादा काम आता है। अगर ये दोनों हाथों में हाथ डाले पार्क में बैठते, फोन पर बहुत बातें करते, रोमैंस करते या शारीरिक होते तो कहानी और दर्शक दोनों ही इनका साथ छोड़ देते क्योंकि आगे तो जॉनी के शरीर का स्वरूप पूरी तरह बदल जाना है। ऐसे में अनकंडिशनल लव और शरीर की कम महत्ता वाले प्यार का शुरू में होना जरूरी था। जब जॉनी मक्खी हो जाता है तो भी बिंदू उससे जुड़ाव महसूस कर पाती है और उस आत्मा से प्यार कर पाती है जो जॉनी के शरीर के इतर था।

कहानी में फिर बहुत ही जल्द सुदीप (सुदीप, रामगोपाल वर्मा की ‘रण’ में अमिताभ के किरदार के बेटे बने थे) का प्रवेश होता है। वह करोड़पति कारोबारी है। व्याभिचारी है। पता चलता है कि पैसों के लिए उसने अपनी पत्नी को मार दिया था। बिंदु की सुदीप से मुलाकात अपने एनजीओ के लिए डोनेशन लेने के सिलसिले में होती है। वहां बिंदु पर नजर पड़ते ही सुदीप के मन में हवस जाग जाती है। वह यहीं से बिंदु को अपनी अच्छी छवि से प्रभावित करने की कोशिश करता है। पर जॉनी बीच में आ जाता है। सुदीप उसे बेरहमी से मरवा देता है जिसकी जानकारी बिंदु को नहीं होती। पर ये हिंदुस्तान है और ये दक्षिण भारत है। यहां आस्था का रास्ता तर्कों से नहीं भावों से होकर गुजरता है। उसका पुनर्जन्म होता है, पूरे दैवीय और भरोसेमंद तरीके से। और वह सुदीप से बदला लेता है। और वह बिंदु की रक्षा करता है।

कंप्यूटर प्रभावों से रचित इस मक्खी और कुछ दृश्यों में हमें एनिमेशन के नकली रंगों को बर्दाश्त करना पड़ता है, पर चलता है। बावजूद इसके फिल्म ऐसी बन पड़ती है कि विदेशी फिल्मकार भी देख लें तो भाव विह्अल हो जाएं। आखिर फिल्म इतनी विश्वसनीय और जादुई कैसे हो पाती है? इसका एक मूलभूत उत्तर एरॉन सॉर्किन देते हैं। ‘द सोशल नेटवर्क’ के स्क्रीनप्ले राइटर एरॉन से दो साल पहले एबीसी न्यूज के एक साक्षात्कार में पूछा गया, “जो इंसान सोशल मीडिया को खुद इतना नापसंद करता है आखिर वह फेसबुक की कहानी कैसे लिख बैठता है?” और एरॉन ने कहा, “मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि मैंने फेसबुक की कहानी लिखी है। हां, केंद्र में ये आधुनिक आविष्कार (फेसबुक) जरूर है, इसकी कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी कि कहानी कहने की विधा। इसमें दोस्ती, धोखे, वफादारी, ईर्ष्या, ताकत और वर्ग (क्लास) की थीम हैं। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में एस्केलस (प्राचीन लैजेंड्री ग्रीक नाटककार) ने लिखा होता, शेक्सपीयर ने लिखा होता और कुछ दशक पहले पैटी चेयोवस्की (पॉलिश उपन्यासकार और लेखक) ने लिखा होता”। राजामौली की फिल्म के पीछे भी तार्किकता, भावुकता और नाटकीयता की प्राचीन संगति वाली स्क्रिप्ट काम करती है। जॉनी के मक्खी के रूप में जन्म लेने की कड़ी के बाद में हम एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, रक्त रंजित बदले की भावना। अभी पूरा तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और हिंदी सिनेमा हिंसा के इस भाव को भुना, धड़ाधड़ पैसे कूट रहा है। खैर, इसमें साथ देता है राजामौली के पुराने सहकर्ता एम. एम. कीरावेनी का संगीत। बाकी भावों में असर पैदा करने के लिए स्लो मोशन में उड़ते पत्ते, गाए जाते लव सॉन्ग और स्टंट होते दिखते हैं।

देश के मौजूदा हालातों से फिल्म एक सीन में जबर्दस्त सांकेतिक रूप से जुड़ती है। इस सीन में सुदीप भाप स्नान लेने के लिए हॉट एयर मशीन में फिट होकर बैठता है। मुंह को छोड़ वह बाकी सारे शरीर को मशीन में लॉक करवा लेता है। अब वहीं मक्खी के रूप में इंतजार कर रहा होता है जॉनी। वह सुदीप की नाक पर बैठकर उसे बेबस कर देता है। यहां ये एक कॉमन मैन की सत्ता को सबक सिखाने वाली गूंज लगती है। यहां वह पल याद आता है जब जॉनी नाम का ये अदना सा लड़का और भी मामूली सी मक्खी बनकर लौटता है। इस पल उसे एहसास होता है कि वह कितना लाचार है। वह सुदीप को पहली बार देखता है और आग-बबूला हो जाता है। उसकी मक्खी वाली आंखों में ज्वालामुखी फूटने लगता है। वह पूरी ताकत जुटाकर हवाई यान की गति से उड़ता हुआ आता है, ये सोचते हुए कि एक टक्कर में सुदीप के टुकड़े-टुकड़े कर देगा और वह भिड़ता है। पर देखता है कि कुछ नहीं हुआ। सुदीप ने तो उसे देखा तक नहीं, उसे चोट पहुंचाना तो बहुत दूर की बात है। एक दर्शक के तौर पर मैं रूआंसा हो जाता हूं। उस मक्खी में खुद का अक्स देखता हूं। जॉनी न सिर्फ अभी मक्खी है बल्कि जीते जी भी एगा यानी मक्खी ही था। तभी तो उसे सुदीप ने चुटकी बजाते मरवा दिया। मैं एक आम इंसान भी ऐसा ही हूं। किसी चीज का विरोध करूं तो रातों-रात नक्शे से मेरा नाम मिटा दिया जाए। चाहे बेटी को छेड़छाड़ से बचाने की कोशिश में गोली मार दिए गए पंजाब के एक ए.एस.आई. रविंदर पाल सिंह का मामला हो या हर राज्य में निरंकुशता की ऐसी दर्जनों बर्बर घटनाएं; चाहे गैस सिलेंडर के बढ़े भाव हों, मल्टी ब्रैंड रिटेल में एफ.डी.आई. को मंजूरी हो और दमनकारी तरीके से थोप दी गई नई आर्थिक नीतियां हों, हम जनता तो मक्खी ही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उभरे घोटालों पर कोई कार्रवाही न होना और रोज सत्ता पक्ष के वकील प्रवक्ताओं की मूर्ख बनाने वाली बातों का मजमा लगना, हमारा मखौल उड़ाता है। कि तू लाचार है, तू आम है। है कोई माई का लाल तुममें जो प्रधानमंत्री के कान में जूं भी रेंगवा दे। उन्हें डरा के दिखा दे। उन्हें ये समझा दे कि आम आदमी के हिसाब से सब तय करो। उन्हें ये समझा के दिखा दे कि पूंजीवाद इस देस की मूल धारा नहीं था। सिलेंडर के दाम कम करवा के दिखा दे। कोई नहीं करवा सकता है। तो शुरुआती दृश्य में सुदीप सत्ता और मक्खी आम इंसान है, लगता है सत्ता के गाल से कितना भी भिड़ लें कुछ न होगा। पर बाद में मशीन में बंद भाप स्नान करते सुदीप को जॉनी रुला देता है। यहां से सीन दर सीन वह अपने दुश्मन को तोड़ता जाता है और हराता जाता है। ठीक अरविंद केजरीवाल के घोटालों के खुलासों की तरह। ये एगा प्रेरणा बनता है कि समाज के कमजोर सोच लें तो क्या कुछ नहीं कर सकते।

इस सांकेतिक दृश्य के बाद सारा ध्यान स्थिर होता है मक्खी के भाव व्यक्त करने के तरीके पर और कहानी की प्रस्तुति पर। सुदीप से बात करने के लिए निर्देशक महोदय जाब्ता ये करते हैं कि टीवी का रिमोट दब जाता है और टीवी पर आ रही रजनीकांत की फिल्म शिवाजी का डायलॉग गूंजता है। इसमें रजनी बोलता है पर सुदीप को एहसास हो जाता है कि ये किसी और की चुनौती है, “मुन्ना झुंड में तो सूअर आते हैं, शेर तो अकेला ही आता है...” और रिमोट दबा रह जाता है और ये लाइन दोहराती रहती है। सुदीप अपने आदमियों से पूछता है, “ये एनिमल्स बदला लेते हैं क्या?” तो एक कहता है, “हां सर, बड़जात्या की पिक्चरों में”। वह पूछता है, “अरे असल में क्या?” वह आदमी कहता है, “हां सर, सांप, छोटे सांप सब बदला लेते हैं। एक बार मेरी दादी ने बताया था कि दादा को सांप ने काट लिया था”। सुनकर सुदीप की जिज्ञासा और सोच बढ़ती जाती है, वह पूछता है, “सांप नहीं, छोटे जानवर... जैसे चिड़िया, चूहा, मक्खी?” तो वह कहता है, “ले सकते हैं सर। सांप ले सकते हैं तो मक्खी को भी मौका मिलना चाहिए न सर”। ऐसे डायलॉग धीमे-धीमे तर्क बनते जाते हैं। दर्शक सुदीप को भरोसा करते देखता है, डरते देखता है तो उसके लिए भी तसल्ली की बात हो जाती है कि हां भई, मक्खी वही लड़का है और अब ये विलेन डरने लगा है। देखो, कैसे अपने आदमियों से पूछ रहा है। आदमियों के जवाब देने के तरीके में जो हास्य है वो दर्शकों के लिए दोतरफा काम करता है। एक तो फिल्मी हास्य का कोटा पूरा होता है और दूसरा विलेन के चेहरे की हवाइयां उड़ती देख उसके थियेटर में आने का ध्येय पूरा हो जाता है।

Sudeep in a still.
कहानी में अघोरी भी आता है, सुदीप को देख कहता है, “पैसे की आग, मुंह पे राख, होगा, सब होगा, तब इस तंत्रा को ढूंढने आओगे”। मगर बिना किसी परलौकिक शक्तियों के अघोरी को भी मक्खी हरा देता है। फिल्म में एक बड़ा रूपक भी आता है। बिंदु हवा में जहरीला स्प्रे मार रही है और उसे देख मोहित हो चुका मक्खी जहर पी हवा में गिर रहा है। दोबारा स्प्रे करने के दौरान डिब्बे में अड़कर उसके गले का हार उड़कर टूट जाता है, ये हार जॉनी और उसके प्यार की निशानी है। जब दर्शक भावुक तौर पर यहां निचोड़ा जा चुका होता है और मक्खी मरने को होती है तो जाते-जाते बिंदु बगीचे में पानी का नल चालू कर देती है और उस पानी से मक्खी बच जाता है। बाद में जब बिंदु को बताना होता है कि वह जॉनी है और इस रूप में लौटा है तो लकीरें खींचकर मक्खी लिखता है, “आई एम जॉनी रीबॉर्न”। ऐसे क्षण में ये पहलू किसी भी फिल्मकार के लिए चुनौती भरा हो सकता है कि अब भला इस नर मक्खी और इस युवती के बीच संवाद कैसे हो? वह फिर से मिल रहे हैं तो गले मिलें? हाथ मिलाएं? कि क्या करें? यहां इन जरूरतों से बचा इसीलिए जाता है क्योंकि कहानी के शुरू में दोनों का अस्पृश्य प्यार दिखाया जा चुका था। जब संवाद और शारीरिक स्पर्श पहले भी अप्रत्यक्ष ही थे तो यहां भी ऐसे ही चल जाता है। अपनी महबूबा को पा मक्खी में और हिम्मत आ जाती है। अब उसके लिए पार्श्व गीत बजाया जाता है। “मक्खी हूं मैं मक्खी, सैर कर नरक की, मेरी इक नजर से तूने मौत चक्खी..”। इस दौरान मक्खी जो कर रहा होता है, वो दर्शकों के सामने अपनी पूरी किरकिरी करवाने वाला होता है, पर दर्शक उसे गंभीरता से ले रहे होते हैं। जॉनी यहां मक्खी बना कसरत कर रहा होता है। डंबल उठाता है, पुशअप करता है, और तो और कैसेट रील को ट्रेडमिल बनाकर उस पर जॉगिंग करता है। कुछ को ये मूर्खता की पराकाष्ठा लग सकती है, पर शुरू में मैंने जिन फिक्स तरीकों का जिक्र किया था जिनमें एक फिल्मकार दर्शकों से कुछ भी मनवा सकता है, ये उन्हीं में आते हैं।

यहां इस दृश्य के बचकानेपन पर हम जिरह करने भी लगें तो देखिए कहां तक पहुंचते हैं। पहला तर्क मन में आता है कि मक्खी और सुदीप के शरीर में भौतिक रूप से जमीन-आसमान का फर्क है। चाहे मक्खी कितनी भी कसरत कर ले वह वैज्ञानिक रूप से फूंक भर ज्यादा ताकतवर भी न होगा। दूसरा कि हिंदी फिल्मों में जब भी किसी हीरो को किसी दुर्घटना से वापसी करनी होती है या उसे कमजोर से ताकतवर बनना होता है तो इन्हीं सब प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। 2003 में आई ‘दम’ (और दो साल पहले आई मूल तमिल फिल्म ‘धिल’) में जब उदय (विवेक ओबेराय) को इंस्पेक्टर शंकर मार-मार कर ट्रेन की पटरियों पर फिंकवा देता है तो उसकी वापसी के चरण भी ऐसे ही होते हैं। अस्पताल में मृतप्राय पड़ा उदय दोनों टूटी टांगों से एक दिन चलने लगता है, फिर जॉगिंग और कसरत आदि करके खुद को लड़ने लायक और पुलिस की परीक्षा देने लायक बनाता है। निर्देशक मंसूर खान की सदाबहार प्रस्तुति ‘जो जीता वही सिकंदर’ में जब रतन (मामिक सिंह) को राजपूत कॉलेज के लड़के मारपीट के दौरान गलती से पहाड़ियों पर से धकेल देते हैं तो वह बुरी हालत में अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है। पिता (कूलभूषण खरबंदा) और पूरे मॉडल कॉलेज के लिए आने वाली साइकिल रेस में आशा की किरण रतन ही था, मगर अब उसके वापसी करने में इतना वक्त लगेगा कि देर हो जाएगी। ऐसे में पिता की आंखों के आंसू पोंछने के लिए निखट्टू और आवारा छोटा बेटा संजय (आमिर खान) सामने आता है। उसके कमजोर से योग्य बनने की प्रक्रिया भी यही होती है। जॉगिंग, साइकलिंग और परिवार-दोस्तों की हौसला अफजाई। वही हौसला अफजाई जो मक्खी की बिंदु करती है।

मक्खी की भाव-भंगिमाओं में तरंग डालने की राजामौली छोटी, घिसी-पिटी पर सफल कोशिश करते हैं। गाड़ी में जा रहे सुदीप की हालत वह ऐसी करता है कि उसका बुरा एक्सीडेंट होता है, उसके बाद वह उसकी कार के शीशे पर लिख जाता है, “आई विल किल यू”। वह अपने खड़े बालों पर हाथ फिराता है जैसे हिंदी फिल्म का कोई बड़ा हीरो है, जो वह है भी। बिंदु के साथ मक्खी हाई फाइव करता है। इसी दौरान एक दृश्य में अपने दुश्मनों के खून से नहाए मक्खी को बिंदु सीरिंज के पानी से नहलवाती है। हमारी दक्षिण भारतीय फिल्मों में हीरो गंडासों-तलवारों से रक्त बहाते हैं (गिप्पी ग्रेवाल की आने वाली पंजाबी फिल्म ‘सिंह वर्सेज कौर’ का ये गाना दुनाली भी देख लें) और रक्त से नहाते हैं, फिर उन्हें दुग्ध स्नान करवाया जाता है। ये किरदार अच्छे-बुरे राजपूती वीरों की ऐतिहासिक लड़ाइयों से निकलकर आए लगते हैं। मसलन, एस. शंकर की ‘नायक’ में जब शिवाजी (अनिल कपूर) का गुंडे पीछा करते हैं। वह लड़ता है। फिर कीचड़ और खून से सना शिवाजी जब एक दुकान में पहुंचकर एक कोल्ड ड्रिंक मांगता है औऱ उससे अपना मुंह धोता है तो लोग पहचान जाते हैं और उसे पद पर बिठाकर दुग्धाभिषेक वाली मुद्रा में नहलवाते हैं।

पिता के बताए छोटे से विचार से पनपा इस पूरी फिल्म का व्याकरण राजामौली की पिछली फिल्मों में भी दिखा है। राजामौली ने रवि तेजा को लेकर ‘विक्रमारकुडू’ बनाई थी जिसकी हिंदी रीमेक प्रभुदेवा ने अक्षय कुमार को लेकर बनाई, ‘राउडी राठौड़’। मूल फिल्म हिंदी से ज्यादा प्रभावी है। घोर मसालेदार। उन्होंने कॉमिक एक्टर सुनील वर्मा को हीरो लेकर एक्शन-कॉमेडी ‘मर्यादा रामन्ना’ बनाई, जिसकी हिंदी रीमेक रही अजय देवगन-सोनाक्षी सिन्हा की ‘सन ऑफ सरदार’। दक्षिण भारत की फिल्मों को अचरज की दृष्टि से देखने को मजबूर कर देने वाली ‘मगधीरा’ भी उन्होंने ही बनाई थी। विशेष कंप्यूटर प्रभाव वाले दृश्यों के मामले में इसने बड़ी-बड़ी हिंदी फिल्मों को नीचे बैठा दिया। इसमें बतौर हीरो नजर आए थे राम चरण तेजा। चिरंजीवी के बेटे यही राम चरण जल्द ही ‘जंजीर’ की हिंदी रीमेक में दिखेंगे। इन सभी फिल्मों की कहानी शुरू में बड़ी असाधारण रही है, फिर उसे फिल्मी प्रारुप में जमाने के लिए एनिमेशन और इमोशन इन दो चीजों का सबसे ज्यादा उपयोग बतौर निर्देशक उन्होंने किया। ‘मक्खी’ की रिलीज से पहले एक साक्षात्कार में राजामौली ने कहा भी कि किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा इमोशनल कंटेंट काम करता है, जो कि बिल्कुल सही है।

‘मक्खी’ बहुत हिम्मत के साथ बनाई गई फिल्म है। हिंसा और बदले की भावना को छोड़ दें तो ये बच्चों की फिल्म भी बनती है। एक ऐसी फिल्म जो वक्त के साथ और बेहतर होते कंप्यूटर ग्राफिक्स और विजुअल इफेक्ट्स के बीच भी कभी पुरानी या तकनीकी तौर पर कमजोर नहीं लगेगी। क्योंकि इसकी कहानी में इमोशन हैं और किसी भी फिल्म को अमर करने के लिए ये एक शब्द काफी होता है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे उत्साहित ये बात करती है कि ऐसे वक्त में जब जेम्स बॉन्ड की नवीनतम फिल्म ‘स्काइफॉल’ में हम जूलियन असांजे के वृहद संदर्भ को पाते हैं, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में हम ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का जिक्र देखते हैं, भारतीय फिल्मों में ‘मक्खी’ या ‘एगा’ ही ऐसी है जो फिलवक्त मुल्क में चल रहे किसी मुद्दे (केजरीवाल का व्यवस्था से टकराव) पर संदर्भात्मक बात करने का मौका देती है। बस बुनियादी तौर पर ये बहसें सही भी हो जाएं तो वारे न्यारे हैं।
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जानकारी के लिएः बीच में किए जिक्र के विपरीत मक्खियों, मच्छरों, चींटियों और वायुमंडल में विद्यमान जीवों को मारना या मारने देना मुझे पसंद नहीं। फिल्म देखने के पहले से ही, होश संभालने के बाद से ही। ये बतौर प्रजाति हमारे असंवेदनशील होने को दिखाता है। जब हम इन जीवों के साथ सह-अस्तित्व नहीं कर पाते तो फिर दूसरी आपराधिक घटनाओं पर व्याकुल क्यों होते हैं। संवेदनाएं जीव-जंतुओं के लिए जा रही है तो आपसी भी तो जाएंगी न।

 (‘Makkhi’ is a 2012 Hindi feature film written and directed by S S Rajamouli. It was dubbed from the Telugu and original version ‘Eega’. It stars Sudeep, Nani and Samantha in main leads. The film was full of visual effects and animation. ‘Makkhi’ won critical acclaim from almost all corners for gripping direction and convincingly staging a fly as a protagonist.) 
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Friday, February 8, 2013

This is also the danger you have, the rich getting richer and the poor remaining poor: Andrew Lycett

Like he said answering my last question, he likes to look at things from distance, and this is what he observes of India. The conversation took place recently with this known biographer, writer and journalist from London.


“Do you have twitter here?”
“Do you know who Ian Fleming was?”
“Are biographies big in India?”
“What was that book? The controversial book by Indian guy...”

I was meeting Andrew Lycett, biographer to authors who gave birth to characters like James Bond and Sherlock Holmes. And, when you’re up for writing on films, you very often get to watch these characters on screen. Hence, I had to meet. I first saw him in the 1999 documentary ‘The James Bond story’ by Chris Hunt, celebrating the 39th Anniversary of Bond in cinema. Andrew was talking about Ian Fleming and his inspirations for Bond. When I met him in Chandigarh at the British Library, he looked a bit old and a bit different, definitely due the age. But, he was very gracious and humble. He patiently and collectively answered all the questions that were put forth. (BTW, that controversial book was ‘The White Tiger’ and the writer guy, obviously, Aravind Adiga.)

Andrew in British Library, Chandigarh. Photo: Jaswinder Singh
To know him more, he was born in Stamford, Lincolnshire and now lives in North London. He is a fellow of the Royal Society of Literature. Educated at Charterhouse and Christ Church, Oxford, he read Modern History, but, later on he became a Journalist. His earliest articles appeared in ‘The Illustrated Weekly’ of India and ‘Rising Nepal.’ Then he worked for a development agency in newly independent Bangladesh. In the mid-1970s he returned to Africa, where he had lived until he was eight. In Middle East he worked as a foreign correspondent for newspapers such as ‘The Times’ and ‘Sunday Times.’

 He wrote his first book ‘Qaddafi and the Libyan Revolution’ with his Sunday Times colleague, the late David Blundy. The book was published in Britain in 1987. Since the mid-1990s, he has concentrated on non-fiction books, mainly biographies. His ‘Ian Fleming’, published in 1995, is the definitive life of James Bond's creator. ‘Rudyard Kipling’ published in 1999, which was followed by ‘Dylan Thomas – A New Life’ in 2003. Dylan was a Welsh poet. Next ‘Conan Doyle – The Man Who Created Sherlock Holmes,’ was published in 2007. Two years back, he wrote an anthology of Rudyard Kipling’s travel writing ‘Kipling Abroad.’ His latest offering is a book on Wilkie Collins, the Victorian writer.

Which was the most difficult biography that you wrote?
Funny enough, the one I’ve been doing, on Wilkie Collins. And, the reason is that it was much further back than I am used to. So I had to read much more. Fleming was quite easy. He didn’t write that much and there were people who knew him. To try and put myself back into the minds of people living 150, almost 200 years ago, was quite an effort. It was also to try, understand and portray what it was like to be living there, the intellectual climate of the time. As far as Wilkie Collins is concerned, it was a period Britain was developing. It was a period when the old religious certainties were beginning to disappear. Scientific attitudes were beginning to make impressions. And actually, that is the theme that interested me because that is the aspect of Arthur Conan Doyle. Trained as a doctor, part of his process was that he wanted to find out about the world and he put that into Sherlock Holmes. The famous thing is that Conon Doyle based Sherlock Holmes on a professor that he had at Edinburgh University called Joseph Bell. Bell could look into a patient and say exactly what this person had been doing and his diagnosis. That is the process that Sherlock Holmes adopted.

Literary content or research what comes to you first?
I was trained as a historian and I’m interested in the life as it was lived. And, I find that the literature can inform me about that. On the other hand, you have to be quite careful because often people like to think that something that somebody writes is autobiographical, it’s not necessarily so.
  
What attracted you most to the lives of Kipling and Fleming?
I used to be a journalist and Kipling, for example, was a journalist. He used to work for a newspaper in Lahore, ‘The Civil and Military Gazette’. That was very interesting to me. Ian Fleming was a journalist for Sunday Times in London. Also, I like variety. I did a book about Dylan Thomas, a Welsh poet. I’ve recently done a book about Victorian writer Wilkie Collins who wrote ‘The Moonstone’ and ‘The Women in White.’

Is it this journalist connect you have or the mystery-drama genre?
Yes, that was also a reason. When I wrote a book about Conan Doyle, I got very interested in crime-fiction. Hence I decided that It’d be interesting to go back in time and see. People say that Wilkie Collins wrote the first crime novel ‘The Moonstone’, whereas there were other ones, he was one of the firsts. Other than this, it’s interesting to see how this genre developed, now it’s universal. It started in the early 19th century. Not just in England, there was American author also.

From all of your work Muammar al-Gaddafi is the completely different kind. Why?
It was built as a biography but it is a work of journalism, I did it with another man. It’s a journalistic account of Gaddafi and his early years and his life. That was almost 35 years ago. Long time, but, that was a phase when I was a journalist. And, then I started writing the Ian Fleming book, in early 1990. Then I stopped journalism and worked pretty exclusively as a biographer, as a writer.

Any literary figure you’d love to do a biography on?
Well, I wanted to do the one on Ernest Hemingway, but, that couldn’t develop. I just thought that he had an interesting life and also he’d worked as a journalist. He spent some time in Africa, I was interested in Africa. As a child I’d spent some time in Africa. So I was interested in his writings about Africa. I went to visit his family. But, maybe now I’ll do something different. May be my next book will be a more general work of history.

Being a biographer must be a huge responsibility?
Interesting question, it is in some ways. But, it is not something that weighs heavily on me. On the other hand, I think it is part and parcel of the way that I approach it. I do it seriously. I’m not just out for headlines. I want to explain how people lived. I want to explain their lives. I want to look at the documents. I want to find out about them if there are some people who knew them. I want to interview them. But, it is hard work, let me tell you that.

And, how tough it was to be a full time writer back then?
Yeah, it was tough, really tough. We now have the publishing industry that’s in a state of flux because of the technology, electronic, development and e-books etc. So it’s really changing the market quite considerably. Some people are so geared up to it and you know, I’m not too bad. I have yet to go on twitter (laughs).

Does India figure anywhere in your future writing plans?
I don’t think I’m going to be writing about India as such. I’m not going to write a definitive book about India, modern India for example. But, I’ve always been interested in the history of India. Obviously there are many links with Britain which is where I come from. There is always area for exploration there. I’m not quite sure, but, it could well do. It is a very interesting country at the moment. Since I was here in 1970, it’s very-very different from that.

How has the perception of India changed back there?
It’s definitely true to say, it has. I’ve always been interested in India and I follow it quite closely. India is very much on the rise and things are happening here. I’m not sure that the structures are necessarily in place yet, but, they appear to be coming. Certainly there seems to be a lot of wealth being created, if that can percolate down. But, that’s the difficulty and this is also the danger you have, the rich getting richer and the poor remaining poor. That’s the danger.

Is there a readership for biographies?
Well, obviously. I’ve managed to keep living. So there is readership. To get a bestseller there are certain things you have to do. The best selling of my books is on Ian Fleming.

Do you think that history can be written objectively? Can you get maximum objectivity out of it when you’re writing?
I like to think that mine is a very fair approach to anything that I write about. At the same time I think that it is an impossible goal to get that absolute objectivity. There are different approaches. There will be, if you go away from this meeting, a different account of what had actually happened. It’s a difficult thing. But, it’s very nice to be able to look at people’s letters and things like that. One of the things that I hope to do is to go to The National Archives in Delhi. I’ll be able to find something that’s interesting.

Why do you think that both Sherlock Holmes and James Bond are flawed and fascinating at the same time?
Well, that shows particularly in the case of Sherlock Holmes that people like to identify with somebody who is not a perfect person, who has flaw in his character. Certainly, Sherlock Holmes is fascinating in his different approaches, different characteristics. He’s a neurotic. If Sherlock Holmes, being around for over 100 years, was just a perfect person, we wouldn’t really be interested in him. Because he has got quirks in his characters that make him more of an enduring character, more of somebody who people are prepared to go back to and also it leads to different interpretations. Because if you’ve got somebody with different aspects of that character, then some people may be interested in some characteristics and others may be in other characteristics. This allows different interpretations in film for example. You have very different interpretations of Sherlock Holmes in films. James Bond is slightly different because the films there, they’re all made by the same company. It’s been going for about 50 years. Bond is not quite like Holmes.

The latest offering in the Bond movies ‘Skyfall,’ do you think it is the most relevant and reasonable Bond movie till date?
It is a very good movie. It’s got nothing to do with Ian Fleming, apart from the features in the character Ian created. It has some of his storyline, rest a very clever concoction that the filmmakers have managed to pull together. It’s got elements of history, elements of the Bond back story and elements of modern action movies. That could make a very bad movie but they happened to make it in a good way because they get very good directors.

You were seen in ‘The James Bond Story’ (1999) and ‘The Shackles of Sherlock Holmes’ (2007) with many other documentaries, discussing the characters and their making. In the former, Roger Moore (starting with Live and Let Die (1973), he played James Bond seven times) says, “The violence in Bond was rather comic, strip violence when I started, and, towards the end I think it became too violent.” Do you agree with him?
He is a fantasy figure. He’s not really meant to be realistic. They are supposed to be a depiction of various things that go on. What I mean to say is that in these kinds of stories or characters I don’t search realism. They are up for fun and not to bore us.

That’s all. Doyle, Kipling and Fleming, their works have been converted into visual mediums. How natural and basic do you find them in their new forms?
There is two different media. When somebody comes along and tries to interpret the work, inevitably it becomes something different. And, I don’t think you should be looking for exact purity. People choose to make films of certain characters because it gives them license to roll over their work and do different things with different characters.

Do stories leave good or bad impression on society?
I think a storyteller and basically both Ian Fleming and Conan Doyle were excellent storytellers. The obvious exercise is to interest people. The crime against their profession is to bore people. As long as they keep the reader turning the pages, it’s fine.

Why do we all line up to read controversial books?
Perhaps, we want to find out interesting things. Other people have read it so we think that it’s readable. And also, one has to bear in mind that a certain amount of marketing goes into this. The books industry is a big industry and when they letch on something, they promote it as the big thing. India is considered to be a significant market for books whereas with electronics mediums there is the danger that market for books may be decreasing, but in India there is a great surge in reading.


Are biographies an important branch of literature?
I think they are or can be. It incorporates aspects of personal life, so, in a way you could equate it as a crossover between a novel and a history. Because, you get the developments of somebody’s life and consciousness, at the same time, it is set against the historical background. It is that juxtaposition of two things that really interests me actually. It is something that has developed in Britain in over 200 years or more. Initially biographies were a source of promotion of character. They just said good things about individuals and then gradually people began to think, that made them more interesting. Biography in Britain at the moment is at a bit of a critical juncture. There is so much competition from other media. Perhaps one should approach biography in a different manner. I like the chronological approach, but, now people like to take a slice from somebody’s life and develop a picture from that. Other people like to do group biography. These are the trends you have at the moment.

When writing, do you get to decide which part of their lives should be kept private?
Obviously you’re making editorial decisions at every stage. I’ve never had to really make any moral decisions. Ian Fleming had an interesting sex life. Dylan Thomas was a drunkard. So, you have to balance it, you don’t want to be carried away and make the whole story. It’s important to include these aspects if you find them. You certainly wouldn’t censor them. But I get annoyed when people who write about Dylan Thomas, write as if it’s all about him dying of drink. He was actually a poet. You’ve got to try and explain their writings as well. It’s an important aspect of their lives. While writing an interesting life I am integrating the writings, so that people understand that how the writing was related to the lives as it were. Like, the writer may have a child at this time and this would have affected the writing.

Do you have biographer friends?
I have so many, inevitably. There is a biographers club in London. I’m a member of that. It doesn’t have a premises or something, we just meet, sometimes in a restaurant or something.

The more the success of a writer or his characters, the more tragic his personal life. Why?
To be a writer you have to be a fairly grievant person. Going back to what you were saying, they are not necessarily the nicest person. They are egocentric. They do what you just said, ignore the important things in their lives, their families. I think if you’re an artist you are expressing a pain.

How much time do you give to your family?
When I’m writing I spend inordinate amount of time with the book. There is so much research goes into this. I can work from 9 in the morning to 8 or 9 in the evening. I used to work late but I don’t like to do it now. Ideally I write 1000 words a day. I like to stop at about 8, because of my age. In the meantime you have to have a very understanding family. Luckily, I’ve got an understanding long term partner. She has three children. Now I’ve finished the book on Wilkie Collins, so hopefully I’d be able to spend some time with my family.

Writers write about society but aren’t they themselves less social?
You put finger on a very interesting point there. I think that’s true. I’ve lived always on my own that way. That’s being a writer. I try to get not so isolated.

What other ways you’d suggest to not get isolated?
Obviously you’ve got to see your career. You’ve to make decisions that look appropriate. Don’t neglect your loved ones. Don’t neglect your outside life. We are talking about two things here. One is your relationship with your family and the other is your relationship with the outside world. There are some people who put their writing on the frontline and I think I like to step back a bit. I’m a biographer you know, I like to look at things from a distance. It suits me.

(एंड्रयू लाइसेट लंदन में रहते हैं। वह पहले जर्नलिस्ट हुआ करते थे। भारत, अफ्रीका और मिडिल ईस्ट में रहे। 1987 में उन्होंने संडे टाइम्स के अपने साथी डेविड ब्लंडी (दिवंगत) के साथ मिलकर लिबिया के शासक मुअम्मर गद्दाफी पर किताब लिखी। उनकी इस पहली किताब का नाम था ‘गद्दाफी एंड द लिबियन रिवोल्यूशन’। आने वाले वर्षों में उन्होंने अपने लेखन को बायोग्राफी यानी जीवनियों तक सीमित कर लिया। 1995 में उन्होंने मशहूर उपन्यास एवं फिल्म किरदार जेम्स बॉन्ड की रचना करने वाले इयान फ्लेमिंग की जीवनी लिखी। 1999 में उन्होंने ‘द जंगल बुक’ जैसी रचनाओं के लेखक रुडयार्ड किपलिंग की जीवनी की। वेल्श कवि डिलन थॉमस पर लिखी जीवनी ‘डिलन थॉमस – अ न्यू लाइफ’ 2003 में प्रकाशित हुई। इसी तरह मशहूर जासूसी किरदार शरलॉक होम्स को अपनी कल्पना से जन्म देने वाले उपन्यासकार सर आर्थर कॉनन डॉयल की जीवनी ‘कॉनन डॉयल – द मैन हू क्रिएटेड शरलॉक होम्स’ 2007 में लोगों के बीच आई। एंड्रयू ने रुडयार्ड किपलिंग के यात्रा वृतांत पर आधारित पुस्तक ‘किपलिंग अब्रॉड’ भी लिखी। अब वो विक्टोरियन वक्त के लेखक विल्की कॉलिन्स पर किताब लिखने का काम तकरीबन पूरा कर चुके हैं। हाल ही में उनके लघु चंडीगढ़ प्रवास के दौरान उनसे बातचीत हुई।)
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Thursday, February 7, 2013

कमर्शियल एलिमेंट की फिल्में नहीं बना रहा था, यानी मेरी सोच गलत थीः आनंद कुमार (जिला गाज़ियाबाद)

ये आनंद कुमार हैं। दक्षिण भारत के हैं, पर दिल्ली से हैं और अब मुंबई के हो गए हैं। उन्होंने वही फिल्म बनाई है जिसकी जब बनने की घोषणा हुई तो काफी जिज्ञासा लोगों के बीच जगी। एक वजह ये भी थी कि तब ‘पान सिंह तोमर’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ एक नई धारा की शुरुआत कर रही थीं। ‘जिला गाज़ियाबाद’ नाम में भी वही धूसरपन और गांवों में रात की हवाओं में सुनाई जाने वाली आधी गप्पों और आधी हकीकतों की छुअन थी। ...तो पालथी मार कर वो कहानी सुनने बैठना लाजिमी था। फिल्म 22 फरवरी को रिलीज होने जा रही है। इसमें सतबीर गुर्जर और महेंदर फौजी के बीच गैंगवॉर और पुलिसवाले प्रीतम सिंह की कहानी है। संजय दत्त, अरशद वारसी, विवेक ओबेरॉय, परेश रावल मुख्य भूमिकाओं में लगते हैं। फिल्म के सिलसिले में आनंद कुमार से बातचीत हुई। उन्होंने जवाब दिए, अपनी समझ से दिए। हालांकि बहुत सी बातें हैं जिनसे मैं सहमत नहीं हूं। खैर, वह कमर्शियल सिनेमा के एक और नए प्रतिनिधि हैं। पहले उन्होंने ‘दिल्ली हाउट्स’ बनाकर अपनी कोशिश की थी, मगर बाद में हिम्मत हार इस नए दबंग, वॉन्टेड और राउडी राठौड़नुमा सिनेमा में आ गए। ऐसा नहीं है कि इन फॉम्युर्लाबद्ध फिल्मों पर डिबेट खत्म हो गई है। वो तो जारी है, और भी तेजी से, लेकिन फिलहाल फिल्मों की आर्थिक संरचना के व्यापक प्रभाव का तोड़ नहीं निकला है। कभी निकले तो सांस आए। फिल्मकार भी अपनी कहानियां कहने में ज्यादा स्वतंत्र हों। मैंने सवाल पूछे हैं, आनंद ने जवाब दिए हैं। मायने आपको तलाशने हैं। मैं भी तलाशकर दे सकता हूं लेकिन नहीं, आप करें। पढ़ने वालों के लिए, ध्यान देकर पढ़ें तो, बहुत कुछ है। फिल्म निर्माण में आर्थिक ढांचे की तानाशाही के परिणाम, सीमित विकल्प, निर्देशकों की समझ, उनकी लाचारियां, भिड़ने की सामर्थ्य, आसपास की सामाजिक-आर्थिक बुनावटों के प्रति संवेदनशीलता, मनोरंजन शब्द में छिपे धोखे और बारंबार एकसरीखी रचनाएं।पढ़ें, ससम्मानः

अपने बारे में बताएं, कहां से हैं, फिल्मों के प्रति रुझान कब से बना?
 दिल्ली की है पैदाइश और पढ़ाई दोनों। फिल्म जैसे बच्चे देखते हैं वैसे ही देखता था। मैं जरा ज्यादा इंट्रेस्ट लेकर देखता था। दृष्टिकोण अलग था। नशा सा हो गया था, सिनेमा घूमता बहुत ज्यादा था दिमाग में। फिर ऐसा बिंदु आया जब 1991 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘शिवा’ लगी। उसने मुझे प्रेरित कर दिया कि मुझे इसी लाइन में जाना है। इससे पहले ये सोचना भी कि इस लाइन में जाना है, अपने आप में अजीब सी बात हो जाती थी। कैसे चले आओगे ? आप फिल्म फैमिली से हो तो ऐसा सोचना समझ आता भी है। लेकिन आप दिल्ली में हो, आपके पिता वकील हैं जिनका कोई लेना-देना नहीं है सिनेमा से, तो मूवी बफ ही हुए न आप। ऐसे लाइफ चल रही थी। मगर मुझे याद है, ‘शिवा’ वो वक्त था जब तय कर लिया कि इसमें ही कुछ करूंगा, मगर ये बात मैंने किसी को बताई नहीं। ऐसे में मैं राइटिंग करने लगा। पांच-छह साल हो गए। पिता वकील हैं तो दो साल मैं लॉ करने चला गया। समझ नहीं आ रहा था, तो उसमें मजा आया नहीं।...
Vivek Oberoi and Anand Kumar, during the shooting of Zilla Ghaziabad.

... फिर हैदराबाद में एक लोकल संस्थान था, वहां से मास कॉम का कोर्स किया। उसकी वजह से कुछ मिला नहीं, कुछ सीखा नहीं मगर उसकी वजह से मैं स्टूडियोज में बैठा रह पाता था। रामानायडू स्टूडियो, अन्नपूर्णा स्टूडियो जो नागार्जुन का है... इनमें आना-जाना संभव हो गया। 1997-98 की बात कर रहा हूं। गाने, सीन शूट हो रहे हैं और मैं वहा हूं। राइटर के तौर पर विजुअलाइजेशन तो आ रहा था, मैं मेकिंग भी समझ रहा था। ऐसे वक्त निकला और 2002 में मैंने एक डॉक्युमेंट्री शूट की। दिल्ली में। वह डीजे लोगों के ऊपर थी, जिसमें मैं ये बताना चाह रहा था कि ये एक प्रफेशन है और जरूरी प्रफेशन है और एक क्रिएटिव फील्ड है। मैं उसे कर रहा था और उसी दौरान मीडिया डॉक्युमेंट्री के बारे में लिखने लगा। उसे प्रदर्शित किया तो मीडिया ने बहुत अच्छा लिखा और तुरंत दिल्ली में मुझे एड फिल्में और वीडियो मिलने लगे। तब वीडियो और रीमिक्स का दौर था। मैं इनमें बहुत बिजी हो गया। पैसे कमाने का मेरा जरिया भी सही बैठ गया और एक निर्देशक के तौर पर भी मुझे सही जगह मिल गई। मैं बहुत संतुष्ट हुआ। उस समय जो पिक्चरें लिख रहा था, उनमें पहली थी ‘डेली हाइट्स’। 2006 में शिवाजी गणेशन प्रॉड्श्ईन के लोग मुझे मिले, साउथ में ये बहुत बड़ी फिल्म निर्माण कंपनी है। मैंने उन्हें कहानी सुनाई, उन्होंने सुनी। फिल्म मार्च, 2007 में रिलीज हुई। वहां से फिर फिल्मों में यात्रा शुरू हुई और 2007 में मैं मुंबई आ गया। तब तक मैं दिल्ली में ही था। फिर दिल्ली के एक प्रॉड्यूसर ने मुझे ‘जुगाड़’ फिल्म के लिए साइन किया। ये मेरी दूसरी फिल्म हो गई। मगर उस वक्त ‘बिल्लू’ (शाहरुख, इरफान) के बराबर में रिलीज हुई थी तो मेरी फिल्म का पता ही नहीं चला। आई और गई।
   वहां से दिमाग में आया कि जब तक मैं कमर्शियल एलिमेंट की फिल्में नहीं बनाता तब तक नहीं होगा। कहीं मेरी सोच गलत है। उस वक्त ‘दिल चाहता है’ जैसी फिल्में आईं थी तो हम जैसे यंग निर्देशकों को भी मौका मिलने लग गया, कि एक नया दौर आ गया सिनेमा का जहां यंग लड़के बनाएंगे फिल्में। नहीं तो पहले क्या था कि हमें पूछते भी नहीं थे। कहते थे, ‘ये क्या पिक्चर बनाएगा लड़का’। तो तब लोग एक्सपेरिमेंट करने को तैयार थे। पर पहले जो मैं सोचता था कि रियलिस्टिक सिनेमा बनाऊंगा, मेरी उस बात में दम नहीं था। जैसे ‘लाइफ इन अ मेट्रो’, ‘डेली हाइट्स’ हैं... ऐसी फिल्मों का एक सीमित ऑडियंस है। मैट्रो कल्चर में जो लोग जिए हैं वो ही लोग देखते हैं। सिंगल थियेटर में तो वो पिक्चरें जाती भी नहीं हैं। लोगों को पता भी नहीं चलता और ऑडियंस हमारी वहीं हैं। मैंने 2009 के बाद थोड़ा सा ये तय किया, बैठकर, आराम से, कि मैं लार्जर दैन लाइफ फिल्में करूंगा। और वो फिल्में करनी हैं जो लोगों को दिखे और उन्हें मजा आए।

‘जिला गाज़ियाबाद’ का जन्म कब हुआ, कैसे हुआ?
मैं एक बार गाज़ियाबाद गया हुआ था। वहां रेलवे स्टेशन का बोर्ड देखा ‘जिला गाज़ियाबाद’। वो जैसे मेरे सामने कौंधा, उसे देख मैं बड़ा उत्साहित हुआ और मैंने वो टाइटल रजिस्टर करवा लिया। तब मेरे पास कहानी नहीं थी, महज शीर्षक था। मुझे वहां गाज़ियाबाद के नेता हैं मनोज शर्मा, उन्होंने विनय शर्मा (जिला गाज़ियाबाद के राइटर) से मिलवाया। उन्होंने कहा कि ये टाइटल इतना भारी और भरकम है आनंद कि इसमें एक गैंगवॉर की अच्छी कहानी बैठती है। आपको मजा आएगा आप सुनो। ऐसे मैं विनय से मिला 2010, सितंबर में। वहां से ‘जिला गाज़ियाबाद’ की यात्रा शुरू होती है। बैठकर हम लोग काम करने लगे, विनय ने बहुत बढ़िया कहानी लिखी। जनवरी, 2011 में विनोद बच्चन ने सौंदर्या प्रॉडक्शन में मुझे इस फिल्म के लिए साइन किया। वहां से औपचारिक नींव रखी गई। एक्टर साइन हुए। अरशद से पहले ही बात हो चुकी थी। उन्होंने ही मुझे प्रॉड्यूसर से मिलवाया था। फिल्म लिखते वक्त हमें इतना पता था कि अरशद को विलेन लेना है। ये मेरी एक खास ख़्वाहिश थी। आपने अगर प्रोमो देखा होगा तो उसमें पता चला होगा कि अरशद बुरे किरदार को निभा रहे हैं। ऐसे अरशद आए और उन्होंने ही हमें सारे एक्टर्स से मिलवाया। मैं इतना बड़ा नाम नहीं था तो मेरे को अरशद भाई ने बहुत मदद की। उन्होंने संजय दत्त साहब के पास भेजा, विवेक ओबेरॉय के पास भेजा, रवि किशन को जानता था, परेश रावल से मिलवाया। धीरे-धीरे मेरी एक ड्रीम कास्ट बनती चली गई। 14 जुलाई, 2011 से हमने शूटिंग शुरू की।

अब जब बन चुकी है फिल्म तो क्या जैसे कल्पना की थी वैसे ही बनी है, कितना खुश हैं?
मैं इतना संतुष्ट हूं कि क्या कहूं। इतने सारे एक्टर्स ने बिना बाधाओं के फिल्म पूरी करवा दी। फिल्म की पहली झलकियां देख आप जान गए होंगे कि विजुअली कितनी लार्जर दैन लाइफ हो गई है। जो कि मेरी फिल्में नहीं थीं। ये संतुष्टि है और दूसरा ये कि मैं मुख्यधारा के सिनेमा में भी आ पाया हूं।

स्क्रिप्ट आपने और विनय ने साथ लिखी?
नहीं, ये पूरी तरह से विनय की ही लिखी गई है। हम दोनों साथ तो बैठते थे पर ये पूरी तरह उसका विजन है। क्योंकि वो गाज़ियाबाद से ही है और वहां की रौनक लाना चाहता था तो पूरी आजादी दी मैंने। स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग तीनों उसके हैं।

ट्रेलर में जैसे नजर आता है कि लार्जर दैन लाइफ है, स्टंट ओवरपावररिंग हैं, लेकिन क्या फिल्म में गाज़ियाबाद के सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं? क्या बतौर निर्देशक कहानी में आपने असल इमोशन और दूसरा जीवन डाला है? क्योंकि हमें ट्रेलर में तो सिर्फ स्टंट और एक्शन ही दिखता है। फिल्म में बस यही तो यही नहीं है न?
देखिए, ट्रेलर को यूं लाना तो एक तरह से... पिक्चर गर्म करने के लिए ये सब करना पड़ता है। दूसरा ट्रेलर में हमने ये झलकाने की कोशिश की है कि पिक्चर हमने इस स्केल पर शूट की है। इसमें हमने स्टोरी नरेशन नहीं दिखाया है। हां, नरेशन का थोड़ा बहुत आइडिया लग रहा है। कहानी पता चल रही है कि अरशद और विवेक ओबेरॉय के किरदार गैंगस्टर हैं। संजय दत्त पुलिस ऑफिसर हैं, अलग से पुलिसवाले लग रहे हैं। फिल्म बनाते वक्त मेरी कोशिश ये थी कि ‘ओमकारा’ और ‘दबंग’ के बीच का रास्ता निकालना है। जो कि बहुत रियलिस्टिक भी है और कमर्शियल एलिमेंट भी है। वो आपको मिलेगा बिल्कुल, ये नहीं है कि फिल्म यूं ही चल रही है, कहीं भी, कुछ भी आ गया। अगर इसमें आइटम सॉन्ग भी आता है तो उसके शब्द ऐसे हैं कि कहानी को आगे लेकर जाते हैं। मैंने बिना मुद्दे के इसमें कुछ भी नहीं डाला है।

इन दिनों गैंगस्टर्स की कहानियां या दूसरी बायोपिक काफी बन रही हैं। जैसे, ‘पान सिंह तोमर’ है जो बहुत रियलिस्टिक होकर एक छोर पर खड़ी है। कहा भी गया कि वो फिल्म सिंगल स्क्रीन तक नहीं पहुंच पाई। आपने कहा कि आप ‘दबंग’ व ‘ओमकारा’ के बीच का रास्ता निकालना चाहते थे, तो सवाल ये है कि क्या प्रस्तुतिकरण में ध्यान रखा कि आपको ‘पान सिंह...’ जितना रियलिस्टिक नहीं होना है?
मुझे ये दिखाना था कि... कि जब मुंबई-दिल्ली में दर्शक 300 रुपये एक टिकट पर खर्चता है तो वह ये देखना चाहता है कि जो मैं नहीं कर सकता न, वो मेरा हीरो करे। मैं वो करना चाहता हूं। रियलिस्टिक अप्रोच का जहां तक सवाल है तो आज मेरी जिदंगी में ब्रेकअप चल रहा है, बॉस से झगड़ा हो रखा है, अफेयर में दिक्कत चल रही है... मेरी लाइफ में जो पंगे चल रहे हैं मुझे वो ही वापस नहीं देखने हैं। मेरे को वो देखना है कि सच्चाई की जीत हो, मेरे को वो देखना है कि बीच रास्ते कोई आ रहा है, छेड़ रहा है, परेशान कर रहा है, तो भईय्या वो आदमी रुकेगा नहीं, वो तो मारेगा। और वो कहीं मेरा अपना जज़्बा है। ये सोचा जाता है कि जनता वो देखना चाहती है जो उनकी लाइफ में घट रहा है मगर मैंने पाया है कि जनता वो नहीं देखना चाहती है। सब उड़कर एक्शन कर रहे हैं, वो तो रियलिस्टिक हैं ही नहीं, मगर उससे पहले जो डायलॉगबाज़ी है, उसे मैंने असल रखने की कोशिश की है। एक्शन देखकर लोगों को मजा आता है, लोगों को लगना चाहिए कि क्या सॉलिड है, मार इसको इसने मेरे साथ गलत किया है, रौंगटे खड़े होंने चाहिए।

इसके अतिरिक्त एंटरटेनमेंट की आपकी परिभाषा क्या है?
गाने हो सकते हैं। वो भी एंटरटेनमेंट ही हैं न। वो कमर्शियल एलिमेंट इतना बढ़िया रखते हैं न कि इस फिल्म का एल्बम आप सुनिए। एक से एक गाने आपको मिलेंगे। एक भी आपको बिना मतलब का नहीं लगेगा। दो बहुत ब्यूटिफुल रोमैंटिक नंबर हैं। अच्छा आइटम सॉन्ग हैं, बिना मतलब के नहीं आकर जाता हैं। टाइटल सॉन्ग ‘ये है जिला गाज़ियाबाद’ वैसे ही हिट हो गया है।

अपराध कथाओं पर इन दिनों काफी फिल्में बन रही हैं, आखिर इनके प्रति इतना इंसानी आकर्षण क्यों होता है, कभी आपने सोचा है?
मुझे लगता है कि ये सिर्फ क्राइम दिखाने की बात नहीं है। क्राइम दिखाते इसलिए हैं क्योंकि मुझे ये बताना है कि राम की ही जीत होगी, रावण की नहीं होगी। मैं क्राइम को फिल्म में इसलिए लेकर आया हूं क्योंकि मैं एक राम की कहानी बना रहा हूं और राम जीतेगा ये बताने के लिए रावण होना चाहिए। और किसी ने भी कभी अपराध वाली फिल्मों की बात की तो उन्हें अपराध देखने में कभी मजा नहीं आया, इसमें आया है कि अपराध का अंत कैसे होता है। आदमी थियेटर से बाहर निकलता है तो वह चौड़े में निकलना चाहता है, यही एक मर्दानगी वाली बात होती है। इस फिल्म के भी आखिर में आप कहेंगे कि यार मजा आ गया, हमारा राम जीता। सच्चाई की जीत के लिए हमें पहले गड़बड़ी तो दिखानी ही होगी।

ये गाज़ियाबाद में हुए गैंगवॉर पर आधारित सच्ची कहानी है?
नहीं, उनकी कहानी नहीं है। मैं जरूरी बात बता रहा हूं इसमें एक रुपये का भी वो तत्व नहीं है। ये मीडिया ने ही कर दिया। ये दरअसल अब एक बायोपिक नहीं रह गई है। इसमें किसी का नाम नहीं यूज किया गया है, कमर्शियल-नॉर्मल फिल्म है जैसे ‘दबंग’ थी। कोई 25 साल पहले गैंगवॉर हुई, तो उस वक्त प्रीतम सिंह बुलंदशहर में था, और यहां पे किसने किसको मारा, सब अलग-अलग थे, यानी कोई कहानी ही नहीं बनती है। मैं कोई दावा नहीं करता कि ये किसी गुर्जर की कहानी है। न ये प्रेरित है, न उनकी जिदंगी का कोई भी अध्याय मैंने उठाया है। आज के जमाने की, आज की कहानी है जिसमें मोबाइल भी है, लैपटॉप भी है, गाड़ी भी है... आज से 20 साल पहले उन्होंने क्या किया, क्या नहीं किया उसे थोड़ा सा भी भुनाने की कोशिश नहीं की है।

अरशद वारसी इसमें एक गुर्जर किरदार को निभा रहे हैं, क्या वो मूलतः उस किरदार के भाव और उच्चारण को पकड़ पाए हैं?
अरशद वारसी एक्टर इतना जबरदस्त है कि आप ये पिक्चर देखने के बाद सर्किट को भूल जाओगे। वो आदमी 14 साल से इंडस्ट्री में है और किसी ने यहां ये नहीं सोचा कि वह विलेन करेगा। मैं उन्हें ऐसे लेकर आया हूं। ट्रेलर आऩे के बाद मुझे कोई चार सौ के करीब मेल आए जिसमें लोगों ने लिखा कि इसमें अरशद वारसी क्या लग रहा है। क्योंकि वो एक्टर हैं और एक्टर से आप जो भी चाहे करवा लो। उन्होंने किरदार ऐसे निभाया है कि डरा के रख देगा।

इतनी लोकप्रियता साउथ के स्टंट डायरेक्टर्स की बॉलीवुड में हो रही है, उसकी वजह क्या है? जैसे कनल कन्नन ने इस फिल्म के स्टंट किए हैं। वो ‘गजिनी’, ‘विजय आईपीएस’ और ‘पोक्किरी राजा’ जैसी बहुत सी फिल्मों के स्टंट कर चुके हैं।
साउथ के एक्शन डायरेक्टर्स हीरोइज़्म बहुत सही तरीके से निकालकर लाते हैं। उनकी फ्रेमिंग लार्जर दैन लाइफ है। वो कैमरा टेक्नीक को जैसे इस्तेमाल करते हैं, हिट करती है। मैंने समझने की कोशिश की है, जैसे वो कैमरा के एंगल यूज करते हैं, कैमरा को घुमाते हैं, उसके साथ ट्रिक्स करते हैं और उनकी टाइमिंग है... सब बड़ा मजेदार है। जैसे, पहले साउथ के एक्शन डायरेक्टर रजनीकांत के साथ जो करते थे वो आज संजय दत्त के साथ किया जाए तो बहुत ही अच्छा लगेगा। अब ताली मारी और ट्रेन रुक गई वैसे तो नहीं करवाएंगे पर सीटी तो मार ही सकते हैं न। वहां के एक्शन मास्टर्स का जो सोचने का तरीका है वो बहुत लार्जर दैन लाइफ है। बॉलीवुड दरअसल बहुत लॉजिकल एक्शन में रहा है। जैसे ‘धूम’ में रहा है। ‘धूम’ में लार्जर दैन लाइफ लगता है, पर वो अंतरंगी नहीं लगता। जैसे इस फिल्म के लिए लोग मुझे कह रहे हैं कि ‘यार सब एक्शन तुम्हारे वायर पर ही किए हैं’। मैं कहता हूं वायर पर ही किए हैं मगर अच्छा तो लग रहा है ना। तो ऐसा ही बहुत बड़ा दिखाने की कोशिश वो करते हैं। एक्टर को भी अच्छा लगता है कि भइय्या उड़-उड़ कर मारें। अब कनल कन्नन का काम देखकर संजय दत्त ने तुरंत पांच फिल्में दे दी हैं। वो ‘शेर’ और ‘पुलिसगिरी’ दोनों में स्टंट संभालेंगे।
Sanjay Dutt, in a still from the movie.

आनंद कुमार आगे कैसी कहानियां कहना चाहते हैं, कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
सात-आठ महीने पहले मैंने एक पिक्चर साइन की थी, उसका शीर्षक ही बड़ा रोचक है, ‘मेरठ जंक्शन’। एक आम लड़के की कहानी है, एक चोर की कहानी है कि कैसे वो बाद में अंडरकवर कॉप बन जाता है। क्लासिक कहानी है। मेरठ की काहनी है। एक और स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूं, ‘देसी कट्टे’। फिलहाल में मिट्टी से जुड़ी और रस्टिक फिल्में करना चाहता हूं। अभी एक दौर भी चल रहा है और मैं दिल्ली से हूं तो इन जगहों पर घूमा हूं, इनसे जुड़ा हुआ हूं।

किस किस्म का साहित्य पढ़ते हैं? कौन सी मैगजीन या उपन्यास पढ़ते हैं?
दरअसल, उतना वक्त मुझे मिलता नहीं है। मैं विज्ञापन फिल्में बीच में करता रहता हूं। पढ़ने के लिए नेट (वेब) पर बहुत वक्त देता हूं। ट्विटर पर बहुत एक्टिव हूं। मेरे दिमाग में इतनी चीजें चलती रहती हैं और ट्विटर पर अपडेट करते करते करते बहुत टाइम बीत जाता है। फिर घर पर जाकर नेट पर अपडेट लेता रहता हूं। नॉवेल में मेरी कोई रुचि नहीं है। अभी दो स्क्रिप्ट पर इतना काम करना पड़ता है मुझे कि वो ही अभी जरूरी है। क्योंकि हर फिल्म के बाद एक फिल्ममेकर को तौर पर आप वहीं खड़े हैं। इतना आसान नहीं कि आपको यूं ही 40 करोड़ रुपये का बजट मिल जाएगा। 200 लोगों का दिमाग एक फिल्म में लगता है, डायरेक्टर भी उन्हीं में से एक है, हालांकि वो कैप्टन जरूर है। लोगों को मनाना, उन्हें लेकर आना, काम शुरू करना... ये अपने आप में बड़ी जद्दोजहद है। मुंबई में रहना, मुंबई की अपनी एक संघर्ष की कहानी है। अब वो टाइम जा चुका है जब मैं आराम से किताब लेकर बैठूं और पढ़ूं। इतनी भागा-दौड़ी और स्ट्रगल है। यहां पता ही नहीं चलता न बॉम्बे में कि कौन कब आता है और उड़ जाता है। कितने नए फिल्ममेकर जा चुके हैं।

व्यस्तता के दौर से पहले जरूर कुछ पढ़ा होगा?
उस दौर में मैंने छह-सात फिल्में लिखीं थी, उसमें सबसे अच्छा टाइम बीता था। नॉवेल तो तब भी नहीं पढ़ पाता था क्योंकि डैड लॉयर थे तो मेरा सारा वक्त धाराएं पढ़ने और याद करने में ही बीत जाता था। बीते साल की फिल्में जो अब भी जेहन में बची हैं? ‘कहानी’ बहुत अच्छी लगी। ‘विकी डोनर’ ने मुझे बहुत प्रेरित किया। इतने छोटे बजट में इतनी बेहतर बनी। ‘राउडी...’ वगैरह तो ‘कालीचरण’ ही थी। इतनी बड़ी फिल्म तो मुझे नहीं लगी थी। ‘तलाश’ बहुत पसंद आई।

हमेशा से पसंद रहे एक्टर?
वैसे चार-पांच एक्टर तो सबके ही फेवरेट होते हैं, मैं भी शाहरुख, आमिर की फिल्मों को मिस नहीं करता था। सलमान भी हैं। उनसे मिलता हूं। सेट पर जाता हूं। मजा आता है। कितना एफर्टलेसली काम करते हैं। संजय दत्त के साथ काम करने का बड़ा ड्रीम था। संजय की हर पिक्चर देखता था। बाबा का स्टाइल ही अलग है। काम किया है विवेक (ओबेरॉय) के साथ, तो लगता है, क्या एक्टर है बंदा। पहले फैन-वैन नहीं था, पर एक्टर के तौर पर शानदार रहे।

क्या लक्ष्य है लाइफ का?
फिल्में बनाता रहूं, आती रहें। प्रॉडक्शन हाउस डालूं। दरअसल मेरे माता-पिता साउथ इंडिया से हैं, मैं दिल्ली में पैदा हुआ व रहा तो वहां की बहुत चीजें आ गईं, मगर अंदर से रहूंगा तो मैं साउथ का ही। साउथ का बहुत प्रभाव है मुझ पर। मैंने एक कंपनी बनाई थी आनंद कुमार प्रॉडक्शंस तो उसके तहत मैं हर साल छह-सात फिल्में बनाना चाहता हूं। बॉम्बे में बैठकर साउथ के लिए फिल्मों में पैसे लगाऊंगा। सब साउथ से फिल्में लाकर रीमेक करते हैं, मैं यहीं बैठकर वहां के लिए फिल्में बनाऊंगा। फिल्में जो न्यू ऐज होगी।

(Anand Kumar is the director of upcoming Hindi movie 'Zilla Ghaziabad', which stars Sanjay Dutt, Arshad Warshi, Vivek Oberoi, Paresh Rawal and many more. He hails from South India but was born and brought up in New Delhi. He made two films earlier, 'Delhi Heights' and 'Jugaad.' His latest offering is releasing on Feb, 22 this year.) 
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