Sunday, January 13, 2013

मैंने कुमुद मिश्रा को ‘इल्हाम’ में देखा और बस रो दियाः मंत्र

रंगमंच अभिनेता, टेलीविजन प्रस्तोता, रेडियो जॉकी, फिल्म कलाकार और स्टैंड अप कॉमेडियन मंत्र से मुलाकात हुई। अपने मनमोहक अंदाज में इस लंबी बातचीत में वह छूते चले पिया बहरुपिया, कॉमेडी सर्कस, रेडियो, दिनेश ठाकुर, ओशो, थियेटर, अतुल कुमार, सखाराम बाइंडर, शाहरुख खान, दर्शन, पीयूष मिश्रा, बॉलीवुड, ब्रॉडवे बनाम पारंपरिक रंगमंच, अश्लीलता, बर्फी, कॉमेडी, मिस्टर बीन और जीने का फलसफे जैसे कई विषयों को। धैर्य रख सकें तो पढ़ें।
 
Mantra
सर एंड्रयू एग्यूचीक सीधे बंदे हैं। वह ऑलिविया से शादी करना चाहते हैं, पर सब जानते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। वह बुद्धिमान हैं, बहादुर हैं, भाषाओं के जानकार हैं, नाचना जानते हैं, रंगत वाले कपड़े पहनते हैं, नौजवान हैं। मगर उनके हालात उनकी छवि किसी मूर्ख की सी बना देते हैं जैसा कि हमारी आदत होती है, मुसीबत में पड़े किसी पर हंसना। विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’ (वॉट यू विल) में एंड्रयू पर हम हंसते हैं। मगर पूरणजीत दासगुप्ता की परिस्थितियां बेचारगी वाली नहीं हैं। हम उन पर हंसते नहीं हैं, बल्कि वह हमें हंसाते हैं। कोई बारह साल ‘रेडियो मिर्ची’ के पहले ब्रेकफस्ट शो में रेडियो जोकींग करते हुए भी, बाद में भी रेडियो पर ‘बजाते हुए’ लगातार, फिर दिल्ली के गलियारों में 2003 में बैरी जॉन से थियेटर सीखने के बाद बहुत सारे प्ले करते हुए, ‘भेजा फ्राई-2’ और ‘हम तुम और शबाना’ जैसी कुछ फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में, टेलीविजन पर भांति-भांति के शो की एंकरिंग करते हुए, ‘कॉमेडी सर्कस’ में स्टैंड अप कॉमेडी करते हुए, थियेटर को समर्पित अतुल कुमार द्वारा निर्देशित शेक्सपियर के हिंदी रूपांतरित प्ले ‘पिया बहरुपिया’ में एग्यूचीक को निभाते हुए... वह लगातार हंसा रहे हैं। असल जिंदगी में भी जब उनसे मिलता हूं तो उनका स्वर, आभा, व्यक्तित्व इलाइची के दानों की गंध से भी हल्का और भीतर समाहित करने लेने वाला होता है। जीवंतता सुलगते लोबान की खूबसूरती लिए सुलगती है। लंबी बातचीत के दौरान बीच-बीच में वह हंसाने की कोशिश करते हैं, हालांकि इससे जवाब कट-कट जाते हैं, पर उनके इरादे नेक होते हैं। कोई बारह-चौदह साल पहले जबलपुर के ओशो आश्रम में उन्होंने सन्यास ले लिया था। वहां उन्होंने ‘मंत्र’ नाम धारण किया। इसीलिए 2000 से शुरू हुए उनके कार्यक्षेत्र में उन्हें मंत्र नाम से ही जाना जाता है। उच्चारण हालांकि मंत्रा हो चुका है। हमें हिंदी नाम को भी पहले अंग्रेजी में लिखकर फिर हिंदी में पढ़ने की कोशिश करने की आदत जो है। मंत्र की मां चंद्रा दासगुप्ता एक अभिनेत्री रहीं। पिता प्रबीर दासगुप्ता कोलकाता में ‘दासगुप्ता पब्लिकेशंस’ चलाते थे। हालांकि मंत्र बातचीत में प्रमुखता से मां के बारे में बात करते हैं। वह खुलकर हर मुद्दे पर बात करते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाले लगते हैं। कहते हैं कि भाषा कोई भी हो बस काम अच्छा होना चाहिए। उन्हें हीरो बनने या मुख्य भूमिका करने की कोई लालसा नहीं है। बोलते हैं, “कैरेक्टर आर्टिस्ट हूं, मुझे हीरो नहीं बनना। मेरे आदर्श शाहरुख नहीं हैं, इरफान खान हैं”। फिलहाल ‘कॉमेडी सर्कस’ के मौजूदा संस्करण में हिस्सा लेते, कुछ टीवी शो की एंकरिंग करते, ‘पिया बहरुपिया’ का मंचन देश के अलग-अलग शहरों में करते हुए... मंत्र अपने तीन नए प्रोडक्शन में व्यस्त हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

तो क्लाउन आपका स्कूल ऑफ थियेटर है, कुछ बताइए आपकी इस दुनिया के बारे में।
2008 से ही मैं अतुल कुमार से जुड़ गया था। उनके स्कूल ऑफ थियेटर को पसंद करता हूं। जो इस एक्सट्रीम पर हैं जैसे रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी। इनका ‘हैमलेट - द क्लाउन प्रिंस’, ये जो थियेटर क्लाउन वाला करते हैं जिसमें शेक्सपीयर की बड़ी से बड़ी ट्रैजेडीज को वो क्लाउन के जरिए पेश करते हैं, ये मेरा स्कूल ऑफ थियेटर था। मैंने ज्यादातर अंग्रेजी थियेटर किया है और अंग्रेजी थियेटर का मार्केट है भी और नहीं भी। इंडिया हैबिटैट सेंटर से लेकर कामानी से लेकर एलटीजी से लेकर चिन्मय मिशन तक.. दिल्ली में कोई ऐसा हॉल नहीं है जो हमने छोड़ा हो। 60-65 प्रतिशत तक मेरे प्ले अंग्रेजी में रहे हैं। इसकी एक अलग ऑडियंस है, जो कमर्शियल थियेटर में नहीं गिनी जाती है, हालांकि मैं हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुका हूं। हिंदी मेरी उत्तीर्ण भाषा है, सबसे ज्यादा मैं हिंदी का ही उपयोग करता हूं लेकिन अंग्रेजी पर मेरी पकड़ उतनी ही ज्यादा है और ये जो थोड़ा चेहरा मिला है फिरंगियों माफिक तो इसका भरपूर फायदा डायरेक्टर साहब उठाते हैं।

और नाम आपका मंत्र है...
हां, और नाम मंत्र है तो आदमी कन्फ्यूज हो जाता है कि भइया ये आदमी है क्या, गोरा-चिट्टा लग रहा फिरंगी है, नाम मंत्र है, बोल शुद्ध हिंदी रहा है, आवाज अमरीश पुरी जैसी है, क्या करेगा ये? ...थियेटर करते मुझे 12 साल हो गए। लेकिन ‘पिया बहरुपिया’ मेरा सबसे बड़ा हिंदी प्रोडक्शन रहा है। इसके अलावा मेरे अंग्रेजी प्रोडक्शन बहुत बड़े रहे। अतुल के साथ काम करना मेरे लिए बहुत जरूरी था। वो अगर मुझे प्रोडक्शन में भी ले लेते तो मैं अपने बिजी शेड्यूल में से टाइम निकालकर प्रोडक्शन भी देखता, क्योंकि अतुल के आस-पास बहुत कुछ देखने को मिलता है, समझने को मिलता है। हालांकि उनका डायरेक्शन का स्टाइल बहुत अलग है। वह बेहतर एक्टर हैं, ही इज अ ब्रिलियंट एक्टर ऑन स्टेज। और एक डायरेक्टर के तौर पर वह सब-कुछ एक्टर्स पर छोड़ देते हैं। ‘पिया बहरुपिया’ भी वैसे ही बना। हम पे ही छोड़ दिया और हम पूछते रहे कि सर करें क्या? बोले, कल्ल लो। तो अच्छा कर लेते हैं, तो हमने अपने हिसाब से किया। थोड़ा ये, थोड़ा वो। सब इम्प्रोवाइजेशन था। बाकी मेरा अपना एक अलग स्कूल ऑफ थॉट है, अलग स्कूल ऑफ थियेटर है, वो मैं करूंगा आने वाले टाइम में, मेरे अपने तीन प्ले तैयार हो रहे हैं। उन पर काम कर रहा हूं।

आदमी एक हद के बाद सीख चुका होता है, या सीखता रहता है?
नहीं, नहीं... हमेशा सीखता रहता है। थियेटर में तो हमेशा वही हालत रहती है जो कक्षा में एग्जाम देने वाले बच्चे की होती है। कि क्या होगा? बड़े से बड़ा एक्टर... वहां जाकर जबान फिसल जाए... फंबल कर जाए, कितना भी बड़ा आपका कॉन्फिडेंस क्यों न हो। और मेरे लिए तो हर प्ले के साथ कुछ नया हो जाता है। टीवी का क्या है एक-बार कर दिया तो वही रहता है, 25 साल बाद भी ‘शोले’ में बच्चन साहब को देखेंगे तो उनका हाथ वैसा ही रहेगा लेकिन अगर वो प्ले होता तो अलग हो जाता। बच्चन साहब कुछ और कर रहे होते, शाहरुख कुछ और कर रहे होते।

स्टेज पर उतरने के बाद नर्वस होते हैं स्कूली दिनों के माफिक, लेकिन जब एक बार उतर जाते हैं तो खुलकर खेलते हैं?
अरे, उसके बाद तो... मैं इतना मानता हूं कि एक बार स्टेज पर उतरने के बाद डायरेक्टर मेरा क्या कल्ल लेगा। डायरेक्टर का सबसे बड़ा डर भी रहता है कि ऐसे एक्टरों से पाला न पड़े लेकिन मैं कभी साथी कलाकारों को परेशान करने वाला रिस्क, चेंज या एक्सपेरिमेंट नहीं लेता। ऐसी कोई लाइन नहीं बोल दूंगा कि मेरे सामने जो एक्टर है वो घबरा जाए कि ये क्या बोल गया। लेकिन खेलने का बड़ा मौका मिलता है। थियेटर में मेरे लिए सबसे जरूरी चाह ये है कि मुझे पुराने जमाने वाला ख्याल आ जाता है कि सामने ऑडियंस बैठी हैं और आप उनके सामने पेश कर रहे हो कुछ। ये कहीं हिल के जाएगा नहीं ये आदमी...। टीवी पर वह मुझे रिमोट से बंद करके उठ सकता है, ये (थियेटर ऑडियंस) उठ कर जाएगा नहीं, मैं रोक सकता हूं इसको। मुझे ये सब करने में बड़ा मजा आता है।

लेकिन इतने किस्म की पहचान आपकी हैं, कहीं न कहीं तो दिक्कत होती होगी? कहीं तो सोचते होंगे कि मैं इस आइडेंटिटी का अपने से करीबी ताल्लुक मानता हूं? जैसे अब लग रहा है कि आप थियेटर को सबसे ज्यादा करीब पाते हैं।
नहीं गजेंद्र जी, मैं क्या बताऊं। मैं ये कहता हूं कि मैं एक कलाकार हूं। मुझे मीडियम से इत्ता फर्क नहीं पड़ता। अपने करियर के ज्यादातर वक्त मैं रेडियो पर रहा। 12 साल रेडियो किया। 10 साल थियेटर किया। तकरीबन 6 साल से टेलीविजन कर रहा हूं मैं। फिल्में कर रहा हूं 5-6 सालों से लेकिन मेरे लिए कोई बदलाव नहीं रहा। हां, रेडियो पर मेकअप नहीं लगाना पड़ता था। बस यही फर्क था। रेडियो में चड्डी बनियान पहनकर पहुंच गए, जो भी बोल दिया बोल दिया, लोगों को मजा आता था। आपको वो नहीं करना पड़ता था कि थोड़ी बॉडी बनाएं, थोड़ा फिट रहें, फेशियल कराने जाएं, थोड़ा शेव करें। मैं तो सर एक्टर नहीं होता, मैं कभी दाढ़ी नहीं बनाता। नेचुरल चीजें रोकने में मेरे को बड़ा तकलीफ होती है। मैं दाढ़ी-बाल नहीं काटता, लेकिन अब एक्टर हूं तो करना पड़ता है। कोई मीडियम मेरे लिए खास नहीं है, कोई मीडियम मेरे लिए दूसरे से ज्यादा उत्तीर्ण नहीं है। हां, रेडियो से प्यार करता हूं क्योंकि रेडियो ने बहुत ज्यादा सिखाया है। ये नाटक करना भी एक तरह से रेडियो से ही शुरू हुआ। रेडियो पर प्ले हुआ करते थे, ‘हवामहल’ प्रोग्रैम आता था। स्टूडेंट होते थे हम तब। ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में हम लोग साउंड डिपार्टमेंट में हुआ करते थे। आज हमारे पास हजार चीजें हैं। आपको किसी की भी आवाज चाहिए, दुनिया में किसी की आवाज चाहिए, बटन दबाया आ गया। उस टाइम पे मेरे को आज भी याद है हमारे सीनियर थे बोस साहब। वो विनोद के किरदार की आवाज निकालते थे तो... हमारे पास क्यू शीट आती थी लंबी सी, कि मतलब 2 मिनट 35 सेकेंड के बाद चहल-कदमी होगी। वो चहल-कदमी का मेरे पास क्यू आता था तो ईंट लगाते थे और ऐसे रस्सी बांधते थे, वेट करते थे, जैसे ही लाल लाइन वहां पर जली, चहल-कदमी शुरू, खटक-खटक-खटक-खटक... बीच-बीच में गड़गड़ाहट के लिए एल्युमीनियम शीट बजाते थे। वो रेडियो थियेटर ही था एक तरह से। एक तरह से आप बना रहे थे, इट वॉज अ थियेटर ऑफ माइंड। कहते हैं न नेत्रहीन का चलचित्र है रेडियो। जो आप पेंट कर सको एक पिक्चर श्रोता के लिए वही मजेदार बात है।

मगर आपकी ‘कॉमेडी सर्कस’ वाली पहचान भी हावी है, लोग स्टेज पर प्ले के बाद कामेडी करने की रिक्वेस्ट करने लगते हैं।
‘कॉमेडी सर्कस’ चल गया यार। मतलब, आप विश्वास नहीं करेंगे, मैंने ‘कॉमेडी सर्कस’ को पांच सीजन लगातार ना बोला है। क्योंकि मेरा प्रण था कि मैं कभी कोई रिएलिटी शो नहीं करूंगा। ये लोग लगातार मेरे पीछे पड़े रहे जबकि मेरा फिक्स था कि एक्टिंग के लिए फिल्म्स और थियेटर। टेलीविजन, सिर्फ एंकरिंग। बहुत सारे शो मैंने एंकर किए हैं। मैं चैनल वी का वीजे था। बिंदास टीवी पर वीजेइंग करता था। ज्यादातर मैं वीजे ही था, पर ये लोग पीछे पड़े। फिर एक बार तो लिटरली हमारे जो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर हैं विपुल शाह और निकुल देसाई, उनने आए और बोला कि (बेहद ड्रमैटिक अंदाज में) “देखो बेटा, छोटी सी इंडस्ट्री है, कहीं न कहीं टकराएंगे, अच्छा नहीं लगेगा ...तब हम ना बोल दें”। मैंने कहा, सर आप धमकी दे रहे हो क्या। “...हां, ...यही समझो”। (हंसते हुए) मजाक कर रहे थे, फिर उन्होंने मुझे समझाया।

जैसे नसीरुद्दीन शाह हैं, शबाना आजमी हैं। बाद के इंटरव्यू में इन्होंने एक तौर पर स्वीकार किया कि “जितनी जान हम थियेटर के प्लेज में लड़ाते थे, बीच में हमारे पास जो ऐसी कमर्शियल फिल्में आईं जो बिल्कुल सिर के ऊपर से निकलने वालीं थीं, उनमें जब हमने काम किया तो उतनी मेहनत नहीं की। हमने सोचा कि जब उतनी ही ऊर्जा की जरूरत है तो ऊपर-ऊपर से ही करके निकल जाते हैं”। आपके परफॉर्मेंस में ‘कॉमेडी सर्कस’ में ऐसा नहीं नजर आता, आप अपने परफॉर्मेंस में अनवरत हैं, वहां स्क्रिप्ट चाहे कितनी भी ढीली हो।
‘कॉमेडी सर्कस’ थियेटर ही है। उसे करने के लिए मेरे पास सबसे बड़ा कारण ही ये है कि वो थियेटर है। वो उसको कैप्चर करके टीवी पर दिखा रहे हैं, उसका मेरे से कोई लेना-देना नहीं है। मैं उस वक्त वहां मौजूद उन चालीस-पचास लोगों और सामने बैठे अर्चना-सोहेल के लिए परफॉर्म कर रहा हूं। आखिरकार वो एक्ट दस-पंद्रह मिनट के प्ले ही तो हैं।

...लेकिन जो स्क्रिप्ट आपको दे रहे हैं, वो आपके पसंद न आए, कभी बचकानी लगे?
उसमें आप कुछ नहीं कर सकते। ‘कॉमेडी सर्कस’ फैक्ट्री है। वहां मशीन से जैसे प्रोडक्ट निकलते हैं वैसे प्रोडक्ट निकलते हैं। शो के राइटर्स सात-सात दिन कमरे से बाहर नहीं निकलते हैं। मैं उनको जानता हूं। मेरे चहेते राइटर हैं वकुंश अरोड़ा, कानपुर का लड़का है। इतना बेहतरीन राइटर है। वो एक ही चीज बोलता है, “यार और कोई टेंशन नहीं है, पर बाहर निकलूं और देखूं, तो कुछ नया लिखूं न”। वो कमरे से बाहर नहीं निकलते। हफ्ते के सातों दिन अंदर ही रहते हैं और मशीन की तरह लिखते हैं। कैसे लिख लेते हैं मेरे को भी नहीं मालूम। और वहीं पर से ये हल्की स्क्रिप्ट आती हैं। ऐसे में आपको जुगाड़ बिठाकर, कुछ नया-पुराना लगाकर एक कलाकारी दिखाकर, अगर वो आठ नंबर की है तो उठाकर नौ पर पहुंचाना पड़ता है। लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ये शो ही ऐसा है। उनको बनाना है। चैनल कितने साल से चला है? पांच साल से चल रहा है..।
Mantra performing in 'Piya Behrupiya.'

फिल्मों में अगर ऐसे रोल आएं तो, या उनमें रुचि नहीं है?
नहीं, किए हैं मैंने पांच-छह रोल। लेकिन फिल्मों की दुनिया ही अलग लगी। एक थियेटर एक्टर के तौर पर मेरे लिए बड़ा मुश्किल काम रहा। क्योंकि आप समझते हैं, थियेटर की जैसे शुरुआत होती है, मसलन, ‘पिया बहरुपिया’। फरवरी (2012) में हमने प्ले बनाना चालू किया। किरदार को डिवेलप किया। लगातार लाए, लाए, लाए और प्ले के महीने भर पहले आप किरदार बन गए। प्ले के दिन तो आप अपने आपको जानते ही नहीं, किरदार को ही जानते हैं। और प्ले शुरू होता है और आखिर तक जाता है, एक ग्राफ रहता है। फिल्मों में जिस दिन आया तो मेरी जान ही निकल गई, पहले दिन ही क्लाइमैक्स शूट। ओपनिंग सीन, आखिरी दिन। मैं बोला ऐसे कैसे होगा, मुश्किल है थोड़ा। तो बोले, “ऐसे ही होगा सर, हमारे पास यही लोकेशन पहले है तो क्लाइमैक्स ही शूट होगा”। मैंने बोला, हीरो-हिरोइन मिले नहीं, रोमैंस हुआ नहीं, तुम पहले शादी का सीक्वेंस शूट कर रहे हो, फिर उनका कॉलेज में मिलना दिखाओगे, फिर कहीं बीच में रोमैंस करोगे। तो फिल्मों के साथ बड़ा मुश्किल है। और एक सीन डिवेलप होता है प्ले में। अगर कोई सीन है, मां मर गई... तो पहले मां मरेगी, फिर बेटे को मालूम पड़ेगा, फिर बेटा रिएक्ट करेगा, फिर वो कुछ करेगा। जबकि फिल्म के अंदर सीधे, मां मर गई... । वो फीलिंग जब तक कि आती है, तब तक तो कट है। मैं ये नहीं कहता कि फिल्म के एक्टर्स कुछ कम हैं। मैं बोलता हूं फिल्म के एक्टर्स को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, टु बी ऑन द मूमेंट, ऑन द स्पॉट। तुरंत, शिफ्ट। मैंने फिल्म एक्टर्स को देखा है, मैंने थियेटर एक्टर्स को भी देखा है, प्ले से पहले लगे पड़े हैं, लाइनें रट रहे हैं। वहीं फिल्म वाले मजे से सुट्टा मार रहे हैं, आने-जाने वाले को ...और बढिय़ा सब, क्या हाल-चाल... फिर आवाज आई... मां मर गई और वो मां-मां करके रोने लगता है। औचक कट, औचक शिफ्ट।

कोई 30-35 साल पहले जैसे हमारी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं (कैरेक्टर आर्टिस्ट) हुआ करती थीं। जो ‘मिली’ में गोपी काका थे, ‘मदर इंडिया’ में लाला थे, या वही ‘गंगा-जमुना’ में लाला बने थे और पॉजिटिव लाला बने थे, और जो ललिता पंवार के रोल हुआ करते थे, निरुपा रॉय के हुआ करते थे, उनमें एक किस्म से इमोशंस की इंटेंसिटी थी जो बाद में वैसे किरदारों के लिए इतनी क्लीशे बना दी न... कॉमेडी से भी बनी.. कि देखो मां है तो रोती ही रहती है। लेकिन उन अदाकारों की जो एक्टिंग हुआ करती थी, जैसे आप कह रहे हैं न कि चुटकी बजाते बोलोगे और रोने लगेंगे कि मां मर गई.. तो क्या उस मामले में वो दिग्गज नहीं थे। उन्हें आज कितना कम पहचाना जाता है?
अरे, कैरेक्टर आर्टिस्टों के बल पर तो फिल्में चलती हैं और उन्हीं को सबसे कम पहचान मिलती है। आज आप देखिए हीरोज को जरूरत है कैरेक्टर आर्टिस्ट की। अकेले नहीं संभाल पा रहे। कैरेक्टर आर्टिस्ट एक रिएलिटी लाते हैं। एक असलियत लाते हैं फिल्म के अंदर, क्योंकि हीरो तो हीरो ही लगता है।

जैसे ‘रॉकस्टार’ में कैंटीन वाले खटाना (कुमुद) का रोल न होता तो रणबीर के किरदार में भी बात नहीं आती...
कुमुद जी से मेरी बातचीत होते रहती है वक्त-वक्त पे। उनका मैंने लास्ट प्ले देखा ‘इल्हाम’मानव कौल का प्ले था। सर मैं रो दिया। मैं स्टेज पर रो दिया। मैं बैकस्टेज गया उनसे बात करने के लिए मैं बात नहीं कर पाया मैं रो दिया। मैं इतना भावुक हो गया कि मैंने बोला ये आदमी असली रॉकस्टार है। मेरे ख्याल से रणबीर ने बहुत सीखा होगा उनसे। लेकिन कुमुद जी को आप फिल्म में देखिए... और कुमुद जी को आप स्टेज पे देखिए। दोनों में अलग इंसान नजर आएंगे आपको। स्टेज एक अलग दुनिया है सर।
Kumud Mishra (right) in 'Ilhaam'. Photo Courtesy: Kavi Bhansali
मैं अगर एक आम आदमी की तरह समझना चाहूं। कि मुझे कुछ नहीं पता थियेटर के बारे में। मैं अपनी जिंदगी और दो वक्त की रोटी में उलझा रहता हूं, बस मनोरंजन के लिए कभी घुस जाता हूं फिल्मों में। कभी थियेटर का नाम अखबार में पढ़ लेता हूं ... कि ये थियेटर वाले हैं, ऐसा... वैसा। इस बीच आखिर ऐसा क्या है थियेटर में कि लोग इतनी तारीफ करते हैं? थियेटर ही सब-कुछ है, फिल्में उतनी नहीं हैं?
आम आदमी को सबसे ज्यादा मजा थियेटर में इसलिए आता है... दो कारण मानता हूं मैं इसके। एक तो मुझे एंटरटेन किया जा रहा है, ये शाही फीलिंग आती है, ठीक है...। कि मेरे लिए हो रहा है कुछ काम। एक महत्व महसूस होता है। कि ये एक्टर मुझसे बात कर रहा है। फिल्म के अंदर वो स्टार है, वो कैमरे से बात कर रहा है। यहां पर वो मुझसे बात कर रहा है, मेरी आंखों में आंखें डालकर बात कर रहा है। एक वो वाली फीलिंग सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरी सबसे बड़ी बात है, आप टच कर सकते हो थियेटर को। आप छू सकते हो, महसूस कर सकते हो। जबकि फिल्मों के अंदर वो नहीं होता, फिल्मों में अगर हवा चली है तो वहां चली है। थियेटर में अगर मैं बोल रहा हूं कि ये चली हवा, तो सामने वाले को अंदर महसूस होने लगता है। वो जो लाइव सा इसका तत्व है, वो आपको केवल थियेटर में मिल सकता है। अतुल कुमार का मैं उदाहरण देता हूं आपको। हाल ही में वह दक्षिण अफ्रीका में थे। जोहानसबर्ग में प्ले कर रहे थे, ‘नथिंग लाइक लीयर’। किंग लीयर का रूपांतरण। उसके अंदर एक सीन है। जहां पर उसकी जिंदगी में कुछ तूफान आया है और वो तूफान से कहता है, अंग्रेजी में डायलॉग है कि जिसका मतलब है कि “मेरी जिंदगी में तू जब से आया है, मेरी जिंदगी में खलबली मचा दी है। ए तूफान तू कब तक चलेगा”। जिस वक्त वो ये डायलॉग बोल रहे थे, जोहानसबर्ग में, स्टेज के ऊपर बने कांच के गुंबद के ऊपर ओले गिरने लगे। और यहां पर उन्होंने कहा कि “ऐ तूफान ..” तो वहां घड़ घड़ घड़.. मतलब असली। अतुल बोले, “मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए और ऑडियंस में दो-तीन की फ* गई”। बोले, “ये क्या हो गया”। लाइव फील... वहां पर हो गया तो हो गया। आपके डायलॉग बोलते-बोलते, आप बारिश की बात कर रहे हो बारिश हो गई, तूफान की बात कर रहे हो तूफान हो गया, फिल्म में नहीं हो सकता। फिल्म में क्रिएट किया जाता है, लेकिन वो माहौल जो लाइव होता है। आपको मजा आने लग जाता है कि यार केवल एक्टर और थियेटर ही नहीं, पांचों तत्व जो हैं वो उस वक्त एकजुट हो गए हैं। तो हवा मेरी बात सुन रही है, पानी मेरी बात सुन रहा है, ये फीलिंग आती है।

थियेटर के इतिहास में चाहे भारत में ले लीजिए, क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय... ऐसे कौन से तानसेन या बैजू बावरा हैं जो दीया जला देते हैं गाके, या दिया बुझा देते हैं?
मैं गिरीष कर्नाड साहब का बहुत बड़ा फैन हूं। उनके लेखन का बहुत कायल हूं। भले ही वो ‘अग्निबरखा’ हो जिसमें मैंने किरदार निभाया था ब्रह्मराक्षस का, उसका किरदार फिल्म में प्रभुदेवा जी ने निभाया था। और प्रभुदेवा जी को लोग याद रखते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मराक्षस का किरदार निभाया था। सब ने अपने अलग-अलग किस्म के ब्रह्मराक्षस बनाए हैं। या गिरीष कर्नाड साहब का ‘तुग़लक’। मैं तो मोहम्मद-बिन-तुग़लक को वैसे ही याद करता हूं जैसे कर्नाड साहब ने दिखाया है। मैंने इतिहास नहीं पढ़ा, मैंने कर्नाड साहब को पढ़ा। वहां से मुझे बहुत कुछ उठाने को मिला, सीखने को मिला क्योंकि वो मेरी जेनरेशन के नहीं हैं पर कम से कम उन्हें ही मैं देख सकता हूं, मैंने तानसेन को तो देखा नहीं, जहां तक नाटक का सवाल है। उसके बाद अगर आप संगीत पर आ जाएं, लाइव परफॉर्मेंस में जो जादू क्रिएट करते हैं, वो अपने आप में फिर बेताज बादशाह हैं आरिफ लोहार साहब पाकिस्तान के। उनका एक लाइव परफॉर्मेंस देख लिया मैंने.. (सरप्राइज होते हुए) कौन है वो आदमी.. कहां से आया है? उनके जो वालिद साहब हैं आलम लोहार वो अपने आप में संगीत के सम्राट हुआ करते थे। संगीत थियेटर का अंतनिर्हित अंग है। मैं आजकल हर चीज को संगीत के साथ जोड़कर देखता हूं। कि कहीं न कहीं इन दोनों का कॉम्बिनेशन मिल जाए थियेटर और म्यूजिक का, तो असली जादू पैदा होता है।

और कौन हैं जिनकी परफॉर्मेंस नहीं देखी तो क्या देखा?
दिनेश ठाकुर साहब, दुर्भाग्य से अब वह नहीं हैं। मुझे याद है, मैं 2006 में रेडियो कर रहा था और कर-कर के गला बंद हो गया और ऐसा बंद हुआ कि आवाज की सिसकी तक बंद हो गई। मैंने महीने भर की छुट्टियां ले ली थीं। करने को कुछ था नहीं तो उस वक्त तकरीबन एक हफ्ते तक मैंने दिनेश ठाकुर साहब का पूरा फेस्टिवल देखा और उनके अलग-अलग नाटक देखे। सिंपल। कोई ताम-झाम नहीं। कि कहीं से लाइट आ रही है, कि कहीं से म्यूजिक आ रहा है, कि कहीं से कुछ विजुअल डिलाइट आ रहा है। कुछ नहीं, बस स्टोरीटेलिंग। साधारण स्टोरीटेलिंग। उनको देख बड़ा मजा आया। एक रियल एलिमेंट। ये दिनेश ठाकुर, कुमुद मिश्रा आम इंसान दिखते हैं। स्टार्स नहीं दिखते हैं। मैं एक तरीके से कभी-कभी खुश होता हूं कि यार ऊपर वाले ने सूरत दी है, फिर मैं ये सोचता हूं कि इस सूरत के साथ एक आम इंसान का किरदार निभाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। जबकि कुमुद जी के लिए या दिनेश जी के लिए ये बाएं हाथ का खेल था। क्योंकि कहते हैं न, इफ यू लुक द कैरेक्टर, हाफ द वर्क इज डन। नाना पाटेकर को देखा, मराठी प्ले करते हुए। अरे, उस आदमी के तो मैं पैर धो-धो के पिऊं। ‘सखाराम बाइंडर’ देखा मैंने उनका। बाप रे, मतलब, मुझे नहीं लगता कि सखाराम उनसे बेहतर कोई कर सकता है। ‘सखाराम...’ सयाजी शिंदे ने किया, वो भी थियेटर किया करते थे, मतलब ये लोग रियल लगते हैं। मैं ‘सखाराम बाइंडर’ करूंगा तो मेरे को किसी अलग तरीके से सखाराम को पेश करना पड़ेगा। मैं नहीं लगता वो बीड़ी फूंकने वाला। अगर मुझे वीजे का रोल मिलेगा तो बड़ा आसानी से कर लूंगा। लेकिन वहीं पर तो एक कलाकार, वहीं पर तो एक अभिनेता का काम शुरू होता है। मुझे ऐसे किरदार मिलें इसका मैं इतंजार कर रहा हूं। भले ही वो फिल्मों में हों, भले ही वो थियेटर में हों।

कुछ शानदार रोल वाली फिल्में करने की इच्छा नहीं है?
उस किस्म के किरदारों के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं। अभी तक जो भी फिल्में करी थीं अधिकतर में मेरा सहयोगी किरदार था, हीरो के बेस्ट फ्रेंड वाला रोल था, अब वही रोल आ रहे हैं। क्योंकि फिल्में बड़ी सीमित हैं। कि जो चलता है वही चलने दो। कोई भी एक्सपेरिमेंट करने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए खान साहब चलते हैं और चलते ही हैं। और सही बात है। बॉलीवुड जो है क्रिएटिव आर्ट को दिखाने से ज्यादा बिजनेस मीडियम है। आज आप सलमान खान साहब की ‘एक था टाइगर’ को लेकर 400 करोड़ कमा सकते हैं, वहीं सलमान खान अगर मंत्र को ले लेते तो 4000 रुपये नहीं कमा पाते, या चार लाख नहीं कमा पाते। क्योंकि स्टोरी ऐसी कोई खास नहीं थी। वो सलमान खान थे इसलिए चली। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री कला को पलट के नहीं देगी केवल बिजनेस करेगी तो कब तक चलेगा ये। इसी लिए जो ये डायरेक्टर्स की नई खेंप है... ये कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये भी अब उसी सेक्टर का हिस्सा बन गए हैं। सब आते हैं, एक ऑफ बीट फिल्म बनाते हैं और उसके बाद इंतजार करते हैं कि एक बड़ा डायरेक्टर उन्हें मिल जाए क्योंकि सबको रोटी कमानी है।

जो आते हैं वो पहले सिस्टम और स्टार्स के खिलाफ खरी-खोटी सुनाते हैं, पर उन्हीं के साथ फिल्में डिस्कस करने लगते हैं, पूछने पर कहते हैं कि यार क्या करें उनके साथ भी काम करना पड़ेगा।
सबको कमर्शियल हिट चाहिए। बहुत कम ऐसे... अतुल कुमार की बात करता हूं। इस मामले में मैंने उनके जैसा आदमी मंच पर नहीं देखा। उन्होंने ‘तक्षक’ फिल्म में काम किया था। उन्हीं के साथी हैं रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, कोंकणा सेन शर्मा। आज आप उन सबको देखते हैं, वक्त निकाल कर ... वो करते हैं। अतुल कुमार ने जीवन रंगमंच को समर्पित किया है। इस बात पर मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसलिए जब मुझे उन्हें बोलना होता है कि दो नई फिल्में मेरे को मिली हैं तो मैं गर्व के साथ नहीं जाता हूं उनके पास, शर्म के साथ जाता हूं, सिर झुकाकर जाता हूं कि सर... फिल्में... मिली हैं... करता .... हूं मैं... जाके। वो भी कहते हैं, ...ठीक है बेटा, करो। करो सबका अपना-अपना है। न कि ये कि क्या बात कर रहा है दो नई फिल्में मिली हैं, वाह। तो बहुत कम हैं जो थियेटर को समर्पित हैं। इसलिए मैं परेश रावल साहब को बहुत मानता हूं। जैसे उनकी ‘ओ माई गॉड’ आई है वो उन्हीं का प्ले है ‘किशन वर्सेज कन्हैया’, उसी पर बनी है। परेश रावल या नसीरुद्दीन शाह ऐसे हैं जिन्होंने बैलेंस बनाकर रखा है। ये मेरे आदर्श हैं। मैं ऐसा बैलेंस बनाकर रखना चाहता हूं जहां पर मैं थियेटर, फिल्म या टेलीविजन, सब में समान रूप से मिल-बांटकर काम कर सकूं और वो बड़ा मुश्किल है। क्योंकि टाइम नहीं निकलता है। प्ले के लिए अपने शूट छोड़कर जाता हूं। वहां प्ले की फीस जितनी मिलती है उससे दोगुना तो मैं अपने खाने-पीने पर खर्च कर देता हूं। थियेटर पैसे के लिए नहीं किया जा सकता। अगर पैसों के लिए आप थियेटर कर रहे हो तो आप जी नहीं पाओगे। और पैसों के लिए नहीं कर रहे हो तो कहां से लाओगे पैसा। कहीं न कहीं से तो आएगा, आज मैं थियेटर में पैसा लगाता हूं, खुद का प्रोडक्शन चालू करने वाला हूं, कहां से लाऊंगा प्रोडक्शन करने का पैसा। वो मैं दूसरे क्षेत्रों से लाता हूं लेकिन उसका मतलब ये नहीं है कि उनकी इज्जत कम है। टेलीविजन ने तो बहुत कुछ दिया है, उसकी वजह से आज लोग जानते हैं पहचानते हैं और शायद वो देखकर मेरा प्ले देखने आते हैं।

लेकिन अतुल और सत्यदेव दुबे जैसे व्यक्तित्व थियेटर के गलियारों तक ही सिमट कर रह जाते हैं।
चलेगा न सर। हमारे लिए अतुल कुमार अमिताभ बच्चन से बड़ा है। सत्यदेव जी का जब निधन हुआ तो जो एक रैली निकली थी पृथ्वी (पृथ्वी थियेटर, मुंबई) से वो देखने लायक थी, जब मैंने देखी तो मैं मान गया कि सत्यदेव जी अमर हो गए। जरूरी नहीं कि अख़बार में उनके बारे में छपे, कि लोग उनके बारे में बात करें या न करें। जिनको जानना था वो उनके कायल थे, उनका (सत्यदेव दुबे) काम हो गया। उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। थियेटर का समुदाय भी बहुत बड़ा समुदाय है। ऐसा नहीं है कि कम लोग हैं। लेकिन बात ये है कि हर थियेटर एक्टर फिल्म अभिनेता नहीं बनना चाहता। ...ये जानकर मेरे को खुशी होती है। कि केवल थियेटर को सीढ़ी बनाकर नहीं चल रहे फिल्मों में जाने के लिए, वो अपने आप में एक जरिया है, अपने आप में एक मीडियम है।

हर फील्ड में जो एक अंदरूनी आलोचना चलती रहती है ...कम्युनिटी के भीतर कि हम लोग क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, वो बंदा गलत कर रहा है, ये सही कर रहा है, उसने एक्सपेरिमेंट ज्यादा कर दिया ये नहीं करना चाहिए था, वहां सीमा पार कर दी। पत्रकारिता में जैसे होता है कि हम बहुत से एंकर्स की आलोचना करते हैं कि वो किस तरीके से बात कर रहे हैं, जिसका मजाक सीरियल्स या फिल्मों में उड़ता भी है जो जायज है। तो थियेटर में अभी कौन सी आलोचना है जो चल रही है?
... कि क्या आप ब्रॉडवे या वेस्टर्न थियेटर को टक्कर दे सकते हैं? या क्या वो टक्कर देने लायक हैं? या उनकी दुनिया अलग है, हमारी दुनिया अलग है? मैं लंदन में थियेटर पढ़ा हूं, वहां पर गया, मैं वहां के म्यूजिकल्स का हिस्सा बना। इतने भव्य प्रोडक्शंस कि उत्ते मैं तो फिल्म बन जाए। हवा में उड़ रहा है आदमी, आप केबल ढूंढ नहीं सकते कि काहे में उड़ रहा है। हमारे यहां दिल्ली में वो... ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ या ‘जिंगारो’। उन्होंने भरपूर कोशिश की वहां पर पहुंचने की। बहुत पैसे लगाए ...क्या हुआ? वो एक जगह रुके हुए हैं। क्योंकि वो अपना थियेटर बदल नहीं सकते हैं। वो कमानी में आकर शो नहीं कर पाएंगे। क्यों? क्योंकि उनका सीमित है। वहीं पर चार केबल उन्होंने लगा रखी हैं, उसी से उनको उडऩा है। तो सबसे बड़ी आलोचना ये भी है कि कहीं ये तामझाम या विजुअल डिलाइट, इस शब्द को मैं बार-बार कह रहा हूं, दिखाने के चक्कर में प्ले की आत्मा को तो नहीं खो रहे? या आत्मा दिखाने के चक्कर में आप सामने वाले को बोर तो नहीं कर रहे? कि ये फ्लड लाइट लगा ली और उसी में पूरा प्ले निपटा दिया। ऐसा भी नहीं हो सकता। ऑडियंस वहां पर आई है और अपना कीमती समय आपको दे रही है। उसे मनोरंजन दो। भले ही वह किसी भी जॉनर का प्ले हो, उसको एंटरटेनमेंट दो। ये जो दुविधा है कि थियेटर में ये करना चाहिए या नहीं? क्या केवल एक कहानीकार से काम चल जाएगा या उसके साथ उसको एक आइटम डांस डालना जरूरी है? थियेटर में भी वही हो रहा है, आइटम क्या है प्ले का? मतलब रंग, विजुअल डिलाइट, गाना-बजाना... क्या इनकी इतनी ज्यादा जरूरत है? या जैसे पुराने जमाने के सादे नाटक हुआ करते थे। कि मैं आऊंगा, कहानी सुनाऊंगा, ये मां है ये बेटा है, दोनों की बातचीत... बस। लेकिन अब उसे नए तरीके से दर्शाया जाता है। पहले बालक का रोल, फिर वो बड़ा हुआ थोड़ा, फिर और बड़ा हुआ, फिर पूरा बड़ा हुआ तो इस तरह चार एक्टर हो गए एक ही किरदार को निभाते हुए... सबका अपना-अपना क्रिएटिव तरीका है उसे दर्शाने का।

पीयूष मिश्रा जब थे ‘एक्ट-वन’ में दिल्ली में तो उनके दीवाने बहुत थे और जैसे सुपरस्टार्स के फैन होते हैं, वैसे उनके हुआ करते थे। उस समय उनकी जो एक बाग़ी विचारधारा थी, वो तेजाब फैंकते थे जब बोलते थे... लोग जल जाते थे। लेकिन पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो पूरी बातचीत में ये लगातार आता रहा कि यार अब छोड़ो। तो ऐसे लोग जो इतना असर अपने कहने-करने में रखते हैं और बॉलीवुड में यूं पूरी तरह चले जाते हैं और विज्ञापन और फिल्म करने के बाद उनके सार्वजनिक बोल-चाल में सपोर्ट की बजाय थियेटर वालों के लिए एक चुनौती आ जाती है... तो लोग कहते हैं अब आपके पास क्या जवाब है आपका सबसे खास बंदा तो ये कह रहा है? उसके जवाब में आप क्या कहेंगे? या वो थियेटर और फिल्मों में एक बैलेंस बनाकर चल रहे हैं? या ठीक है फर्क नहीं पड़ता? या उनको हक़ है कि वो इतनी कमाई करें... या ये कि अभी वो अपना नया मत ठीक से बना नहीं पाए हैं, बना रहे हैं? जैसे वो बड़ा मजबूती से कहते हैं कि यार ठीक है छोड़ो, सबको पैसा कमाना है। ‘बॉडीगार्ड’ हिट है तो हिट है, तुम कौन होते हो खारिज करने वाले...
पीयूष मिश्रा जी जैसे जो हैं, इन्होंने इतना काम कर दिया है कि अब उनको उस मामले में टोका नहीं जा सकता। वो जितना थियेटर को दे सकते थे उन्होंने दिया है और अभी भी कोशिश कर रहे हैं देने की। और हम कोई नहीं होते कि उन्हें कहें कि आप ऐसा न करें। जैसे सचिन तेंडूलकर को कब रिटायर होना चाहिए, ये उस इंसान पर ही निर्भर करता है जिसने इतना कुछ कर दिया है। हां, मैं रोहित शर्मा के लिए बोल सकता हूं, क्योंकि रोहित शर्मा को खुद को प्रूव करना बाकी है। एक वक्त के बाद उन्हें (पीयूष) एक्सपेरिमेंट करने का पूरा-पूरा हक़ है। आज अगर पीयूष मिश्रा जी प्ले करने आएंगे तो वो आदमी जिसने उन्हें फिल्मों से या किसी और माध्यम से जाना है वो दूसरे को भी कहेगा कि अरे यार उनका ये प्ले देखने चलते हैं इनको अपन ने उसमें देखा था न। वो बड़ा मजेदार होता है। शाहरुख खान ने भी अपने करियर की शुरुआत थियेटर से की। उन्होंने भी काफी थियेटर किया। जरा सोचिए, अगर शाहरुख खान कल को एक प्ले करता है, थियेटर को कितना बड़ा बूस्ट मिलेगा। इसलिए नहीं कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत है, इसलिए नहीं कि हमें उनकी जरूरत है लेकिन उनका भी एक हक बनता है। ये उनका कर्तव्य और दायित्व है दरअसल। उनको वक्त निकाल कर एकाध प्ले कर देना चाहिए। फिर मैं विदेश का उदाहरण दूंगा आपको। वहां सौ-सौ पाउंड की टिकट है। सौ पाउंट कित्ते हो गए... आठ हजार.. आठ हजार की टिकट है। क्यों? क्योंकि वो प्ले में लीड एक्टर वो है... क्या नाम है उसका हैरी पॉटर... डेनियल रेडक्लिफ और सुनने में आया है प्ले में वो पूरा न्यूड सीन दे रहा है। लोग सोचते हैं अरे क्या बात है, न्यूड सीन... प्ले देखें तो सही क्या कर रहा है..। बहुत बड़े-बड़े एक्टर्स हैं हॉलीवुड के, जो अपना वक्त निकालकर थियेटर करते हैं, न केवल थियेटर को कुछ देने के लिए बल्कि थियेटर से बहुत कुछ लेने के लिए। तो ये दूरी कम होनी बहुत जरूरी है। थियेटर वालों को फिल्मों में जाने की जरूरत है, फिल्म वालों को थियेटर में जरूरत है। बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलेगा।

‘कॉमेडी सर्कस’ का कुल-मिलाकर अनुभव कैसा रहा? वो जो एक अनवरत मजाक जज लोगों की और एक-दो जोड़ियों की होती है वहां। जिन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है जैसे कृष्णा-सुदेश हो गए या कपिल हो गए, उनकी स्क्रिप्ट में कुछ लोगों का मजाक एक बार नहीं बार-बार लिखा जाता है। राजीव ठाकुर हुए और दूसरे भी हैं... तो वो शर्मसार करने वाला वाकई में होता है उनके लिए जिनका मजाक उड़ता है?
अरे होता है। राजीव ठाकुर बता रहा था। ठाकुर साहब फ्लाइट में बैठे हैं और पीछे से बीच सीटों के आवाज आई, “ठाकुर बोहत आठ-आठ ले रहे हो”। तो वो शर्म से पानी-पानी हो गए। क्योंकि इस मामले में ‘कॉमेडी सर्कस’ में हम बड़े मजे लेते हैं ठाकुर साहब के। हमारे भी लिए जाने लगे, सस्ता डेली बोला जाने लगा। अब उसका कितना अपने ऊपर ले रहे हैं ये आप पर है। जैसे ‘गुरु’ में अभिषेक बोलता है न कि “लोग बात कर रहे हैं तो अच्छा ही है”। ‘कॉमेडी सर्कस’ के अंदर वैरी फ्रैंकली, ये आपस में ही मजे ले रहे हैं और जनता को मजा इसीलिए आ रहा है कि ये हंसते-खेलते लोग हैं, एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे हैं। जिस दिन सीरियस हो गए न उस दिन इनका भी वही हाल हो जाएगा जो बाकियों का हुआ है। ये मस्तमौला लोग हैं, इसमें काम करने वाले 80 प्रतिशत पंजाबी हैं और काम करवाने वाले बाकी 20 पर्सेंट गुजराती हैं। तो इन्हीं दोनों ने दुनिया चला रखी है। तो एक-दूसरे का मजाक उड़ाना या बॉलीवुड के बड़े लोगों का मजाक उड़ाना इसकी हिम्मत सिर्फ ‘कॉमेडी सर्कस’ ही कर सकता है, ये जोक कोई और करे तो उस पर पुलिस केस हो जाएगा। कभी-कभी जोक हद पार कर जाते हैं, वल्गैरिटी की सीमा पार कर जाते हैं। उस समय पर हमारी भी भौंहे चढ़ जाती हैं कि यार, क्या हम सही कर रहे हैं? तो हम भी अपनी तरफ से बोल देते हैं कि भई ये नहीं बोलेंगे हम। लेकिन वो कॉमेडी का जॉनर ही वही सर। आप वेस्टर्न कॉमेडी भी देखें, स्टैंड अप कॉमेडी, दो ही चीज है से-क्-स और ड्रग।

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस समय जितनी भी फिल्में बन रही हैं, जैसे ‘क्या सुपरकूल हैं हम’ नहीं बन सकती थी इस टाइम के अलावा कभी। हालांकि ‘क्या सुपरकूल...’ को मैं बहुत खराब फिल्म मानता हूं, बेहद गैर-जरूरी फिल्म मानता हूं... लेकिन जो ये कोशिश हो रही है कि ‘कॉमेडी सर्कस’ में एडल्ट बातें जितनी होती हैं... है न... डाल दिया निकाल लिया... तो इसकी एक वजह ये नहीं है कि भारत में ज्यादातर अभी व्यस्क हैं। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली उम्र के ज्यादा हैं, नए-नवैले शादीशुदा हैं?
हां, और वैरी फ्रैंकली, आज का यूथ जो भाषा बोल रहा है, उस जेनरेशन को अभी-अभी पार किया है मैंने। मैंने 15-16 साल की उम्र में वो सब चीजें नहीं बोली थीं... लेकिन आज न केवल टेलीविजन के जरिए, फिल्मों के जरिए ये डायलॉग अब बहुत आम हो गए हैं। और बच्चे-बच्चे की जबां पर गाली है, बच्चे-बच्चे की जबां पर नंगाई है। वह केवल टेलीविजन तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ा अगर कोई जरिया है तो वो है इंटरनेट। वो दिन दूर नहीं जब इंटरनेट सब चीजों को खा जाएगा। टीवी, फिल्म, रेडियो सब निगल लेगा वो... दुनिया केवल इंटरनेट से चलेगी, शादियां इंटरनेट पे हो जाएंगी, बच्चे इंटरनेट पे पैदा हो जाएंगे और वो कोई नहीं रोक सकता। एक वक्त में मुझे कोई जानकारी चाहिए होती थी तो फलानी लाइब्रेरी में जाके फलाने कोने से फलानी किताब निकालनी होती थी। आज मैं गूगल टाइप करता हूं सब मालूम चल जाता है यार, दो सेकेंड के अंदर-अंदर। तो एक्सेसेबिलिटी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उसी का नतीजा है कि आप क्या सुपरकूल हैं हम या कॉमेडी सर्कस या इस किस्म के काम देखते हैं।

हेल्दी सब्जेक्ट पर ‘विकी डोनर’ भी आती है। स्पर्म डोनेशन पर बहुत ही सकारात्मक तरीके से सोचते हैं। इससे करीने से बनी आ भी नहीं सकती थी।
अच्छे तरीके से दिखाया गया। वही चीज अगर अश्लील तरीके से दिखाते तो फिल्म बिगड़ जाती। आपको हर दौर में एक गांधी और एक हिटलर मिलेगा ही मिलेगा। इस दौर में भी वैसे ही हैं। अभी भी अपने आपको साध कर काम कर रहे हैं सब। नहीं भई, हम साफ-सुथरा काम ही करेंगे। कुछ हैं जो वक्त के साथ चल रहे हैं और वक्त इस वक्त का ये है कि उल्टा-सीधा एक समान।

आपका और ‘कॉमेडी सर्कस’ के बाकी लोगों का इस पर कोई मत नहीं होता... जो प्रोसेस उन्होंने एक शुरू किया है या बाकी जगह भी चल चुका है? ऐसा प्रोसेस जिसे रोका या पलटा नहीं जा सकता। जैसे आप कह रहे हैं इंटरनेट कब्जा कर लेगा, तो उससे पहले के जिस एक टाइम फ्रेम में हम हैं कि कौन क्या कर रहा है और कितना जिम्मेदार है, तो उस पर कोई ओपिनियन है कि यार सब ऐसा ही हो गया है हम क्या करें?
नहीं, नहीं। बिल्कुल नहीं। मेरा पूरा मानना है कि एक-एक चीज जो हमारे आस-पास है वो हमारी ही बनाई गई है। ऐसा तो है नहीं कि एक दिन अचानक से आकर अश्लीलता ने हमें टेकओवर कर लिया। हमारे ही द्वारा बनाई गई चीज है। और कितना ज्यादा इंसान ईज़ी हो गया है, चीजों को अपनाने लग गया है। एक टाइम था, बाहरवाली औरत बहुत बड़ा हौव्वा था और घरवाली-बाहरवाली एक कॉमन फैक्टर हो गया है। वैसे ही कॉमेडी में चार्ली चैपलिन का केले के छिलके पर फिसलकर गिरना ह्यूमर था। आज होता है तो... अरे यार बहुत पुराना कर रहा है यार। आज तो तंबू और बंबू है। आज जब तक कोई जाकर गर्म तवे पर बैठ नहीं जाता, ऐसे टेढ़े-मेढ़े चलता नहीं है तब तक हंसी नहीं आती है। तो वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। और बदलाव तो प्रकृति का नियम है उसे अपनाना भी चाहिए। लेकिन वही है बैलेंस... कितना बैलेंस आप बनाकर चल सकते हो।

‘कॉमेडी सर्कस’ पर आपने जितने भी एक्ट किए हैं, उस दौरान मैंने देखा है... कि कृष्णा-सुदेश के हिस्से कुछ गैग आएं हैं तो वो थप्पड़ मार लेंगे या सूदिया बोल देंगे या फिर मां का साकीनाका। कपिल हैं तो वो उस लड़की को गले लगाते रहेंगे या उसे कोस देंगे.. या उनके भी फिक्स गैग्स हैं कि लोग हंस पड़ेंगे। आपके अपने जोड़ीदारों के साथ कोई तय मुहावरे या गैग नहीं हैं, आप व्यस्क बातें भी नहीं करते। ऐसे में ये ज्यादा चुनौती भरा हो जाता है?
मेरे लिए तो ‘कॉमेडी सर्कस’ एक जरिया है भड़ास निकालने का। मुझे वो किरदार जो कहीं और जाकर करने को मिलेंगे नहीं, मैं वहां पर जाकर कर देता हूं। और चूंकि मैं थियेटर से जुड़ा हूं मुझे एक चीज पता है कि प्ले जब खत्म हो तो सामने वाला अपने साथ कुछ लेकर जाए। मनोरंजन तो मिले ही मिले, साथ में कुछ ख़्याल लेकर जाए, सोचना लेकर जाए। तो मेरे 60-70 फीसदी एक्ट व्यंग्यात्मक होते हैं। उनमें सामाजिक या किसी न किसी दृष्टिकोण से मैसेज देने की कोशिश करता ही करता हूं। जैसे, हमारा एक अच्छाई-बुराई वाला एक्ट था, वो ऐतिहासिक एक्ट हो गया, अर्चना पूरण सिंह रो दी उसमें। उनने बोला कि मैंने आज तक पांच साल के करियर में ऐसा एक्ट देखा नहीं। क्यों? क्योंकि कॉमेडी थी और साथ में संदेश भी था। पूरी तरह सेंसफुल था और पूरा पैकेज था। हमारी कोशिश रहती है कि ज्यादातर चीजें वैसी बन पाएं। मैं रेडियो में था, रेड एफएम पर, जहां पर टैगलाइन थी ‘बजाते रहो’, लोगों को बड़ा लगता था, बजाते रहो, मतलब लोगों की बड़ी बजा रहे हैं यार। मेरा मंत्र था कि बजाने वाले को मजा आना चाहिए और बजवाने वाले को मजा आना चाहिए। उसको भी मजा आना चाहिए कि अरे यार अच्छी बात बोली इसने मेरे बारे में, मैं इस चीज का ख्याल रखूंगा अगली बार। नहीं तो आप.. अरे यार तुम तो क्या...। तो वो भी एक तरीका है क्योंकि आपके पास ताकत है माइक्रोफोन की। लेकिन अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तो आप उसी चीज को कपड़े में लपेटकर रखेंगे और ऐसे इस्तेमाल करेंगे कि सामने वाले के काम आए।

फैमिली में कौन हैं? कैसा सपोर्ट है?
मेरा खानदान कलकत्ता से है। पूरे खानदान में किसी ने दूर-दूर तक कभी टेलीविजन पर, फिल्मों में या थियेटर में काम नहीं किया। वो संगीत से जुड़े हुए हैं। क्योंकि हर बंगाली घर में आपको रविंद्र नाथ टैगोर की तस्वीरें, किताबें और रबींद्र संगीत मिलेगा ही मिलेगा। हमारे वहां भी है। वो खुश होते हैं। मैं कभी-कभी जाता हूं। पहली बार गया। अपने भाई-बहनों से मिला, कजिन हैं सब। मैंने देखा मेरे खानदान में कोई डबल इंजीनियर, कोई साइंटिस्ट, एक एनवायर्नमेंटलिस्ट, एक जियोलॉजिस्ट, एक डॉक्टर... तो उनने मेरी तरफ पलटकर देखा कि “आप..?” मैं बोला कि मैं... एंटरटेनर हूं मैं। बोले, “हां वो सब तो ठीक है, पर काम क्या करते हो”। खैर, तो उनको क्या समझाऊंगा मैं। वो मेरा खानदान थोड़ा अलग है और उनके साथ मैं कभी रहा नहीं हूं। मेरी पैदाइश इंदौर, मध्य प्रदेश की रही है। बचपन से वही मेरी फैमिली हैं। और माताजी अब मेरी पुत्री जैसी बन गई हैं। जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है उनकी उम्र कम ही होती जा रही है। मेरी मां को मजा आता है कि मेरा बेटा टीवी पर आ रहा है। वो कभी मेरे को ये नहीं बोलती कि ये करो, वो करो।

शादी, बच्चे?
नहीं सर मैं बैरागी। मैंने अभी तक अपने आप को बचाए रखा है। और अब पूरी कोशिश रहेगी की ऐसा ही रहूं। हम में इतना प्रेम है कि उसमें एक इंसान समा नहीं पाएगा। तो किसी एक की जिंदगी बर्बाद करने से अच्छा है सबकी जिंदगी आबाद की जाए। मेरा स्कूल ऑफ थॉट आप आध्यात्मिक भी कह सकते हैं और एक तरह से सन्यास आश्रम में पला हूं। मैं कहीं सेटल नहीं हो सकता। कोई एक जगह मेरी फाइनल जगह नहीं है। मेरे लिए यात्रा मायने रखती है, डेस्टिनेशन नहीं। तो किसी एक को मैं डेस्टिनेशन नहीं बना सकता। 

कौन-कौन से दोस्त हैं जो आज फिल्मों में चल गए हैं और खुशी होती है?
खुराना (आयुष्मान) का बड़ा अच्छा लगता है मेरे को। मेरा रेडियो का एक साथी था होज़ेक जो आज एमटीवी पर बड़ा फेमस वीजे बन गया है। और ज्यादातर मेरे साथ थे वो पीछे ही रह गए यार। चंदन राय सान्याल बेहतरीन है। थियेटर में साथ थे। ‘कमीने’ में थे। रणवीर शौरी और विनय पाठक मेरे सीनियर हैं। यही बेल्ट है।

आपमें बड़ी एनर्जी है, ऐसा क्या है कि रोज सुबह उठकर आप इतने उत्साहित पूरे दिन रहते हैं?
जीने की इच्छा है। केवल एक ही सीक्रेट है मेरा। थैंकफुलनेस। शुक्रिया। भगवान का नहीं। मैं नास्तिक नहीं हूं, पर प्रकृति का शुक्रिया जिसने मुझे इतना कुछ दिया। इसने इतनी पत्तियां दी, इतनी हरियाली दी है, आप इतने अच्छे महाशय मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हैं, मेरे पास फोन है जिससे मैं बात कर सकता हूं, सिगरेट रखी है मेरे पास में, चड्डा मिल गया है पहनने को, हवा लग रही है। छोटी-छोटी चीजों में मेरे को खुशी मिल जाती है। जितना मैं शुक्रिया अदा करता हूं, थैंकफुल रहता हूं उतनी ही एनर्जी मुझमें बढ़ जाती है। जीने की इच्छा रहती है। नहीं तो इंसान जीने की इच्छा छोड़ दे तो अरबों-खरबों पास हों क्या कर लेगा।

निराशाओं से घिर जाते हैं...
मैंने कोई गुरु बना नहीं रखा है पर रजनीश (ओशो) की बातें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। एक वक्त पर मैंने रजनीश को बहुत पढ़ा है। रजनीश ने एक ही चीज कही थी कि लाइफ इज अ सेलिब्रेशन। उस सेलिब्रेशन का हिस्सा बनो और फूल के साथ कांटे भी आना लाजिमी है, अगर फूल ही फूल मांगोगे तो वो कांटे कहां जाएंगे बेचारे। हर चीज को अपना लो तो अपने आप अच्छे-बुरे का अंतर मिट जाएगा। तो निराशाओं से घिरना स्वाभाविक है, पर उसी वक्त में सोचना चाहिए कि सांस ले रहा हूं। कौन है जो सांसें पहुंचा रहा है, टैक्स तो मैं दे ही नहीं रहा हूं इसके लिए। मुफ्त में मिल रही हैं, थैंक यू यार। इत्ता काफी है मेरे लिए।

निजी जिंदगी में दिक्कत हो, उस मौके पर भी परफॉर्म करना होता है। कैसे करते हैं?
मुझे स्टेज पर चढ़ने के बाद मां, बाप, भाई, बहन कोई नहीं दिखता। जब तक एक्ट खत्म नहीं हो जाता मैं और कुछ सोचता भी नहीं हूं। और चिंता हो भी जाती है तो मुझे और ज्यादा ताकत मिलती है। सोचता हूं कि अरे ये तो एक्टर की परीक्षा है। कि यहां पर कोई मृत्युशैय्या पर पड़ा है और तुझे स्टेज पर जाकर कॉमेडी करनी है। राज कपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ याद आ जाती है। मैं खुश हो जाता हूं, और बेहतर परफॉर्म कर देता हूं। दो-तीन दोस्तों को बोल रखा है, तबीयत खराब करवाते रहा करो अपनी और फोन करते रहा करो एक्ट के पहले।

प्लैनिंग नहीं करते कभी न आप?
नहीं, मैं बिल्कुल फ़ितरती इंसान हूं। जो भी है अब है, ये मेरा हमेशा का मंत्र है।

बुक्स कौन सी पढ़ते हैं?
रजनीश की किताबें। लोगों से और बाकियों से कहना चाहूंगा कि ‘संभोग से समाधि तक’ के अलावा बहुत कुछ कहा है उनने। वो अपने वक्त के बहुत आगे पैदा हुए शख़्स थे। आप उनकी बातों में विश्वास करें न करें, उनका ज्ञान लें न लें, लेकिन उनकी किताबों में बहुत कुछ पड़ा है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा, मतलब छान मारा, ऐसी कोई उनकी किताब नहीं है जो मैंने न पढ़ी हो। बाकी पब्लिशिंग हाउस से आता हूं। दासगुप्ता पब्लिकेशंस है कलकत्ता में। 1886 से है। तो पढऩे लिखने के तो शौकीन है हीं। कुछ अच्छा आ जाए तो वो पढ़ लेते हैं। उससे कहीं ज्यादा मुझे आध्यात्म की बातें इंट्रेस्ट देती हैं। आजकल सद्गुरू जग्गी वासुदेव काफी चल रहे हैं। उनका ईशा योग। तो वो मुझे ठीक लगते हैं। उनकी बातों को सुनता हूं। सुनता सबकी हूं करता अपनी हूं।

मूवीज जो अच्छी लगी?
‘पान सिंह तोमर’, क्योंकि मैं इरफान खान की कोई फिल्म मिस नहीं करता। ‘बर्फी’ सबसे अच्छी लगी। रणबीर वैसे मेरे पुराने परिचित हैं पर एक बार जब ‘कॉमेडी सर्कस’ में फिल्म प्रमोट करने आए तो धमका कर गए कि फिल्म रिलीज हो रही है देखना और देखकर मैसेज जरूर करना, वरना मैं समझूंगा तूने देखी नहीं। मैं शाम का शो देखने गया। मैंने लिखा कि आपने अच्छा किया और आपमें और भी ज्यादा टेलेंट है तो इससे भी अच्छा करेंगे। ‘बर्फी’ रणबीर-प्रियंका से कहीं ज्यादा डायरेक्टर-सिनेमैटोग्राफर की फिल्म थी। जैसे दार्जिलिंग को उन्होंने दिखाया है। तो इतना क्रेडिट आमतौर पर उन्हें मिलता नहीं है।

बीन, चैपलिन और हार्डी... ये ईंधन के स्त्रोत हैं जो कभी खत्म नहीं होने वाले।
बिल्कुल। बीन का तो मैं बहुत बड़ा कायल हूं। इसलिए कि वो आदमी बहुत ही खडूस आदमी है असली जीवन में। जैसे मेरे साथ भी होता है, पर बीन के सामने आकर कोई कहता है एक जोक सुनाओ न, तो बीन उनके मुंह पर कहता है “तुम्हारी ऐसी की तैसी, मैं तुम्हारे बाप का नौकर बैठा हूं यहां पर। मैं फिल्मों में जो करता हूं वो असल जिंदगी में नहीं हूं”। जो फिल्मों में उन्होंने किया वो असल जिंदगी में नहीं किया। कलाकार की इज्जत करनी चाहिए। वो जहां जो करता है उसे वहां वो करने दो। कहीं प्लंबर मिला तो ऐसे थोड़े ही करोगे कि नल ठीक करने लग जा।

(From Mantra’s wall – “The palaces you build will be the abodes of someone else tomorrow.”)
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Friday, January 11, 2013

बंत सिंह जैसे लोग पंजाब की असली स्पिरिट हैं: मंजीत सिंह

2012 की शानदार स्वतंत्र फिल्मों की तकरीबन हर सूची में शामिल रही ‘मुंबई चा राजा’। फिल्म के निर्देशक मंजीत सिंह अब कुछ और बेहद उत्साहित करने वाली कहानियों पर काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक है पंजाब के सिख दलित गायक और अत्यधिक ज्यादतियों का बहादुरी से मुकाबला करने वाले बंत सिंह की कहानी।

Manjeet Singh
पंजाब मूल के मंजीत सिंह अमेरिका में इंजीनियर की अच्छी-भली जॉब छोड़ मुंबई लौट आए, फिल्में बनाने के लिए। कुछ वक्त के संघर्ष के बाद उन्होंने ‘मुंबई चा राजा’ बनाई। एक ऐसी फिल्म जो गरीबी को विशेष तरीके से नाटकीय करने और भुनाने के ढर्रे के तोड़ती है। मुंबई के राजा गणपति भी हैं, जिनके उत्सव की पृष्ठभूमि में फिल्म चलती है, और कहानी में दिखने वाले आवारा लड़के भी, जो सही मायनों में इस मुश्किलों वाले महानगर के राजा हैं। अपने बुरे और कष्ट भरे जीवनों में खुशियां ढूंढ लेते ये बच्चे संभवतः लंबे वक्त बाद भी सराहे जाएंगे। विश्व के नामी फिल्म महोत्सवों में इसे डैनी बोयेल की ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ का भारतीय जवाब तक कहा गया। 2012 की शानदार स्वतंत्र फिल्मों की हर सूची में इस फिल्म का नाम है। फिल्म को कुछ और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भेजने की तैयारियों में जुटे मंजीत चार-पांच नायाब कहानियों पर काम कर रहे हैं। अगर ये फिल्में अपने स्वरूप में आ पाईं तो यथार्थवादी सिनेमा में जान आएगी। पंजाबी स्वतंत्र सिनेमा का जो खाली परिदृश्य है, गुरविंदर सिंह के बाद वह भी उसमें योगदान दे सकते हैं, अगर बंत सिंह की उनकी कहानी के लिए प्रोड्यूसर मिल पाए तो। स्वतंत्र सिनेमा की राह में बाधाओं, उनकी जिंदगी और बाकी विषयों पर हुई मंजीत सिंह से ये बातचीत। प्रस्तुत है...
 
पंजाब से क्या ताल्लुक है?
मेरा जन्म जामनगर, गुजरात का है। पिता इंडियन नेवी में थे, तो उनकी पोस्टिंग वहां थी। वैसे हैं हम लुधियाना से। फिर ट्रांसफर के बाद बॉम्बे शिफ्ट हो गए। बीच में अमेरिका में था। लौट आया। सब रिश्तेदार मेरे लुधियाना, पंजाब में हैं। तो बहुत आना-जाना होता है।

पंजाबी में यहां अभी बहुत माहौल बन रहा है। लोग ‘जट एंड जूलियट’ देख रहे हैं, ‘तू मेरा 22 मैं तेरा 22’ का इंतजार कर रहे हैं। ‘अन्ने घोड़े दा दान’ भी बनी है। मुख्यधारा वाले दर्शकों की नजर उस पर नहीं गई है, लेकिन दुनिया भर में सराही जा रही है। ये जो दोनों तरह की पंजाबी फीचर फिल्मों का परिदृश्य है, इस पर आपकी कितनी नजर है, कैसी नजर है और क्या लगता है, कैसी फिल्में बनें तो इस क्षेत्र के दर्शक ज्यादा फायदे में रहें?
गुरविंदर की फिल्म तो मैंने देखी है, अच्छी भी लगी मुझे काफी। पर जो कमर्शियल फिल्में आप कह रहे हैं वो मैंने शायद देखी नहीं हैं। पर ऐसा लगता है कि उनका बॉलीवुड की तरफ रुझान ज्यादा है। जैसी फिल्में बॉलीवुड में बनती हैं वैसी ही लोग पंजाबी में भी बना रहे हैं। मुझे लगता है कि सभी प्रकार के सिनेमा के लिए जगह तो भारत में है, पर इंडिपेंडेंट सिनेमा का अस्तित्व कुछ है नहीं। उन फिल्मों को भी कमर्शियल फिल्मों के साथ थियेटरों में दिखाया जाता है, उतने रुपये की ही टिकट के साथ। ये एक दिक्कत है। उनके सैटेलाइट राइट और दूसरे राइट भी आसानी से नहीं बिकते। उन्हें डिस्ट्रीब्यूट करने का बहुत ऑर्गनाइज्ड तरीका नहीं है। पंजाबी इंडिपेंडेंट सिनेमा में लगता नहीं कि कुछ खास फिल्में बनी हैं, बस शायद गुरविंदर की ही है। संभवतः पहले बनी थी 80 या 70 के दशक में। शायद एक राजबब्बर की थी जो डीडी वन पर देखी थी। वो भी सेल्फ फंडेड ही थी, जैसे हमारी है। तो उस तरह शायद और फिल्में बन सकती हैं, मैं भी एक फिल्म बनाना चाहता हूं। बंत सिंह जी के जीवन पर। उनकी जिंदगी जो रही, उन्हें जो मुश्किलें आईं, बहादुरी से जैसे उन्होंने सब गलत चीजों के खिलाफ लड़ा है। ये सब लोगों को बताना बहुत जरूरी है। इनके जैसे लोग ही तो पंजाब की असली स्पिरिट हैं। कि इतनी प्रॉब्लम के बाद भी ये आदमी खुश है और आम जिंदगी जी रहा है और उसने इतना त्याग किया है। पर वही है कि उसके लिए फंड जमा करना बहुत ही मुश्किल है। समझ नहीं आ रहा कि फंडिंग कहां से लाएं। अभी तो पहली बनी है। दूसरी बनाऊंगा और उससे कुछ पैसा आए तो इस कहानी पर काम करूं। प्राइवेट प्लेयर्स भी ऐसी फिल्मों में आते नहीं, मार्केट वैल्यू है नहीं। इसलिए ये सब कहानियां रह जाती हैं, लोगों तक पहुंचती नहीं हैं। तो जरूरत है कि कोई जरिया निकले जिससे ये फिल्में बनें पंजाब में भी। अभी गुरविंदर की दूसरी फिल्म जो है वो भी पंजाबी में ही है। शायद उसको भी समय लगेगा फंड्स जमा करने में। पंजाबी में ऐसी फिल्में बनें तो अच्छा है।

बंत सिंह की कहानी पर कितना काम किया है?
मैं उनसे मिलकर आया हूं। मेरे गांव से ज्यादा दूर नहीं हैं। उनके घर गया हूं, उनके साथ बैठा हूं, बातें की हैं। रिसर्च वगैरह तो मैंने कर रखी है, अब थोड़ा सा अगर कोई मदद कर दे फंड्स में तो अच्छी फिल्म बन सकती है।

एनएफडीसी से जब ‘अन्ने घोड़े दा दान’ पर पैसे लगाए हैं तो आपकी इस फिल्म पर क्यों नहीं...
हां, वो अप्लाई वगैरह करना पड़ेगा, इतना आसान नहीं है। देखिए...

‘मुंबई चा राजा’ को रिलीज करने का कब तक का है?
बातचीत अब शुरू करूंगा, वह भी बहुत मुश्किल काम है रिलीज करना। रिलीज भी हो जाती है तो स्क्रीन नहीं मिलती। लोगों को पता भी नहीं चलता कि ऐसी फिल्म आई और चली गई। ये समस्या है हमारी स्वतंत्र फिल्मों के साथ दिखाने की।

Official Poster of 'Mumbai Cha Raja'
‘मुंबई चा...’ का पहला ख्याल कब आया? फिर बात कैसे आगे बढ़ी?
काफी टाइम से था मेरे दिमाग में। फिल्म का बैकड्रॉप गणपति फेस्टिवल का था। मैं आइडिया आने के बाद दो गणपति फेस्ट मिस कर चुका था तीसरा नहीं करना चाहता था। जो भी संसाधन थे उनको लेकर बना दी। गणपति फेस्ट की लाइटिंग और माहौल बहुत खूबसूरत होता है। बहुत जीवंत होता है। उसे भी डॉक्युमेंट करना थे। यहां रोजमर्रा की जिदंगी में स्ट्रगल करने वाले बच्चे नजर आते हैं जो बहुत खुश होते हैं नाचते हैं। हमें सीख मिलती है कि समाज ने इनको कुछ दिया नहीं, न ही इनके पास कुछ है, फिर भी ये खुश हैं और जैसे भी है लाइफ को एंजॉय कर रहे हैं। ये सब चीजें मैंने नोटिस की, जब एक फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था। मैंने जितनी भी फिल्में देखी हैं उनमें कोई भी फिल्मकार इन चीजों को कैप्चर करता नहीं दिखा है। उन फिल्मों में दिखाया ये गया है कि ये लोग अपनी गरीबी से दूर भागना चाहते हैं। वैसा है नहीं। उन्हें पछतावा नहीं है, वो अपनी लाइफ को एंजॉय करते हैं। उन्हें प्रॉब्लम्स तो हैं पर छोटी-छोटी चीजों में वो खुशी ढूंढ लेते हैं।

बजट कितना लग जाता है?
आपके संसाधन क्या हैं इस पर निर्भर करता है। अगर आपके पास लोकेशन है, टेक्नीशियन हैं, एक्टर हैं तो बना सकते हो। निर्भर करता है कि स्टोरी क्या है। डिजिटल टेक्नॉलजी आ गई है तो आपके पास स्टोरी अच्छी है, एक्टर हैं, सीन रेडी हैं, क्रू है तो बना सकते हो कम लागत में भी।

आपकी फिल्म में जो काम करने वाले लड़के हैं या दूसरे लोग नॉन-एक्टर्स हैं या सड़कों पर उनसे कम्युनिकेट करने वाले हैं... उन्हें कैसे चुना?
इसमें गुब्बारे बेचने वाला कैरेक्टर अरबाज मेरे यहीं गुब्बारे बेचता है। मैंने एक-दो बार उससे बात की तो बड़ा मजा आया। फिर देखा कि सब मजे लेकर उससे बात करते हैं, जो लेता है वो भी, जो नहीं लेता वो भी। मुझे लगा कि इस बच्चे में बहुत करिज्मा है। ये स्क्रीन पर काफी अच्छा भी लगेगा। फिर जो मुख्य किरदार है राहुल उसे यूं लिया कि हमारे यहां एक समोसा बेचने वाला है। मैंने उससे पूछा कि मुझे इस एज ग्रुप में बच्चा चाहिए, कोई हो तो बताओ। तो उसने मुझे एक ग्रुप दिया, उसमें कोई सात-आठ बच्चे थे। उन बच्चों से हमने बात की, उन्हें जाना। पता लगा कि राहुल की रियल लाइफ में दिक्कतें थी। उसके पिता पीकर आते हैं, मां को मारते हैं, राहुल को भी मारते हैं। वह भाग जाता है। फिर हफ्ते-दस दिन बाहर रहता है। किसी तरह जीता है, कभी रिक्शा में सो जाता है, कभी कहीं चला जाता है। ये सुनकर मुझे लगा कि जिसने रियल लाइफ में ये देखा है तो उसे इससे किरदार निभाने में मदद मिलेगी। हमने एक्टिंग तो उसकी देखी नहीं थी पर लगा कि यार ये कर लेगा, क्योंकि उसे वो इमोशन पता हैं। बच्चे यूं कास्ट हुए। जो बड़े हैं मां-बाप के रोल में तो उनमें से एक तो मेरा दोस्त ही था। वो यहां थियेटर करता है। एक्ट्रेस भी थियेटर से है। उन्हें मैं जानता था और एक दूसरी फिल्म की कास्टिंग के दौरान उनसे ताल्लुक हुआ।

उनसे काम निकलवाते हुए कोई दिक्कत आई हो तो?
नहीं, बच्चों से तो काम निकलवाते हुए तो कोई दिक्कत हुई नहीं। किस्मत कहूंगा कि बड़ी आरामी से कर दी एक्टिंग। कुछ-कुछ बच्चे माइंडसेट बना नहीं पा रहे थे, जो हमें चाहिए था। इसलिए हमने वो सीन बदले। काफी कुछ इनकी लाइफ से हमने नया सीखा। नए सीन जोड़े और शूटिंग के दौरान ही कहानी भी बदली। काफी मजेदार रहा बच्चों के साथ काम करना।

बहुत बार ये होता है कि जो पहली फिल्म बना रहे होते हैं, वो अपनी निजी जिंदगी के अनुभव फिल्म में डालते हैं, उन इमोशन का पुश ही इतना होता है। क्या फिल्म के इन किरदारों का या कहानी के किसी हिस्से का आपकी असल जिदंगी से कोई लेना-देना रहा है। या खुद से बाहर इन चीजों को देखा और उनसे कहानी बनाई?
कुछ-कुछ वाकये हैं जो मैंने अपनी लाइफ से डाले हैं। जैसे बचपन की चीजें हैं, मुझे लगता है कि हर किसी ने वो काम किए होंगे। जैसे, किसी के बाग से आम चुरा लिए। आलू वाले के आलू चुराना। ऐसी बचपन की मस्तियां मैंने डाली हैं फिल्म में। और गणपति में जो-जो चीजें हम किया करते थे, वो सब फिल्म में दिखाया है। बच्चों की क्या-क्या एक्टिविटी रहती हैं और उन्हें क्या करने में मजा आता है ये सब कैप्चर किया है।

कहानी का औपचारिक खाका क्या है?
पारंपरिक नरेटिव स्ट्रक्चर फॉलो नहीं किया है। गणपति में लास्ट के दो दिन के दौरान के वाकये दिखाए हैं जिनसे पता चलता है कि इन बच्चों की एक्टिविटी क्या है, इनके घर पर क्या होता है, ये कहां अपना वक्त बिताते हैं। कहानी है उसमें पर बहुत बारीक है। बस अनुभव है इन बच्चों का और गणपति उत्सव में जो शहर का माहौल होता है उसका।
 
अभी तक कौन-कौन से फेस्ट में जाकर आई है?
टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर हुआ था। रफ कट ‘फिल्म बाजार - वर्क इन प्रोग्रेस’ सेक्शन में दिखाया गया, तब बन ही रही थी। वहां अवॉर्ड मिला हमें। वहां ‘मिस लवली’ और ‘शिप ऑफ थिसियस’ जैसी अच्छी फिल्में भी थीं। वहां से रॉटरडम प्रॉड्यूसर्स लैब में चुनी गई। चार फिल्में चुनी गईं थी, उसमें एक मेरी थी। फिर आबूधाबी कॉम्पिटीशन सेक्शन में थी जहां सिर्फ गिनी-चुनी फिल्में ही दुनिया भर से दिखाई जाती हैं। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे बेहतरीन मंचों से ये फिल्में चुनते हैं। फिर ये मुंबई फिल्म फेस्टिवल में थी इंडियन कॉम्पिटीशन में जहां इसको स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड मिला। अब ये प्रीमियर होगी पाम स्प्रिंग फिल्म फेस्टिवल में जो कि अमेरिका का बहुत प्रतिष्ठित फिल्म समारोह है। काफी फिल्म फेस्ट अभी इंट्रेस्टेड हैं। बुलावे तो आ रहे हैं अभी देखते हैं कि कहां जाती है।

वही बात है कि डिस्ट्रीब्यूटर्स नहीं मिलते, मिल जाते हैं तो दर्शक नहीं मिलते। यानी फिल्म बनाने के बाद सारी चुनौतियां शुरू होती हैं, इनका क्या कोई समाधान है? क्या युवा साथी सलाह देते हैं? या पैशन फॉर सिनेमा वाले दिनों के जो दोस्त हैं उनसे मशविरा होता है? क्योंकि करना तो पड़ेगा, बिना किए सारी मेहनत बेकार जाएगी।
मुझे लगता है कि हर कोई अपनी जंग अकेले लड़ रहा है और अगर हम एक समूह के तौर पर साथ आकर डिस्ट्रीब्यूटर्स या टीवी चैनलों से बात करें तो शायद कोई सुनने वाला हो। अभी तो कोई सुनता नहीं है। पक्के तौर पर लोग तो अलग फिल्में देखना चाहते हैं। पर फिलहाल तो सब बैठे हैं, अकेले ही जंग लड़ रहे हैं, पता नहीं कैसे सबको साथ लाया जाए और आगे बढ़ा जाए। हम यूनाइटेड फ्रंट बनाकर बातचीत करें तो शायद कुछ हो सकता है। बाकी अभी जो भारतीय सिनेमा के सौ साल हुए हैं तो इस मौके पर सिनेमा के प्रसार के लिए सरकार कुछ पैसा दे रही है। हम बहुत सारे फिल्ममेकर्स ने याचिका दस्तख़त करके दी है कि कोई 200 करोड़ रुपये इंडिपेंडेंट फिल्मों के लिए अलग थियेटर्स बनाने पर खर्च किए जाएं। अगर वैसा कुछ होता है तो भी अच्छा है। बाकी ये हाइली टैक्स्ड इंडस्ट्री है, 30-40 फीसदी मनोरंजन टैक्स कटता है। फ्रांस में तो ऐसे पैसे से छोटी फिल्मों की मदद की जाती है, वहां तो अंतरराष्ट्रीय फिल्मों तक पर पैसा खर्च किया जाता है। अब हमें पता नहीं कि हमारे यहां एंटरटेनमेंट टैक्स जो लिया जाता है उसका कितना हिस्सा फिल्मों पर निवेश किया जाता है या नहीं किया जाता है। हालांकि इस पैसे का इस्तेमाल भी इंडिपेंडेंट फिल्में बनाने में होना चाहिए। अभी एनएफडीसी और फिल्म डिविजन ही हैं जो फिल्में बनाते हैं, पर मुझे लगता है कि फंड ग्रुप भी होने चाहिए। विदेशों में फंड ग्रुप होते हैं, यानी आपको अपने प्रोजेक्ट डिवेलपमेंट के लिए फंड मिलते हैं। फिर आपको फिल्म बनाने के लिए फंड मिलता है, फिर फिल्म डिस्ट्रीब्यूट करने के लिए फंड मिलता है। तो ऐसा हमारे यहां भी हो। हमारे यहां भी एग्जिबीशन सेंटर हों और सरकार फंड देना शुरू करे तो काबिल लोगों को फिल्म बनाने और आगे आने का मौका मिलेगा। ये सब किया जा सकता है।

‘मुंबई चा...’ से पहले क्या-क्या किया है?
इंजीनियरिंग की। अमेरिका में मास्टर्स की। वहां काम भी किया। एक महीने का कोर्स किया फिल्ममेकिंग में। फिर लगा कि ये चीज करनी चाहिए क्योंकि बहुत सम्मोहक लगी। बचपन से ही पेंटिंग में बहुत रुचि रही है। फोटोग्राफी भी की है। सिनेमा भी विजुअल मीडियम है जैसे एडिटिंग हो गई, सिनेमैटोग्राफी हो गई, डायरेक्शन हो गया.. तो उस कोर्स ने मेरी इमैजिनेशन को काफी कैप्चर किया, लगा कि जिंदगी में कुछ और किया तो मतलब नहीं है। तो धीरे-धीरे जॉब समेटी और यहां आ गया। यहां आकर एक वेबसाइट थी पैशन फॉर सिनेमा जो अब नहीं है, उस पर लिखने का काम शुरू किया। बॉलीवुड से थोड़ा अलग जो फिल्में थीं उनको हमने सपोर्ट किया। इंडियन इंडिपेंडेट सिनेमा पर लिखा। वहां एक्सपोजर मिला। फिर लगा कि अगर आपको फिल्म बनानी है तो बस स्क्रिप्ट लिख दो, जो भी हो। पर बात बनी नहीं क्योंकि वो कमर्शियल फिल्में तो थी नहीं जो मैं बनाना चाहता था। उसके बाद पांच-छह स्क्रिप्ट लिखीं। उसमें से एक के बारे में लगा कि ये बना सकते हैं। तो फिर मैंने ये फिल्म बनाई। बाकी मेरा किसी भी फिल्म में एक भी ऑफिशियल क्रेडिट है नहीं।

किस फिल्म से जुड़े रहे थे, क्या सीखा?
ये तो बहुत मुश्किल है कहना कि क्या सीखा, क्योंकि आपको पता नहीं चलता कि क्या सीख रहे हैं। पर जैसे, ‘नो स्मोकिंग’ थी तो उसके सेट पर जाना और वहां से ब्लॉगिंग करना, ये ट्रेंड मैंने शुरू किया। मेकिंग देखी फिल्म की, पर वो भी कमर्शियल प्रोसेस ही था। फिर मौका मिला न्यू यॉर्क में सनी देओल की फिल्म ‘जो बोले सो निहाल’ के प्रोडक्शन का हिस्सा बनने का। उसमें मेरा काम था कि सनी देओल की वैन न्यू यॉर्क में चलाता था और उन्हें घुमाता था। यहां भी इसका और ‘नो स्मोकिंग’ का प्रोसेस एक जैसा ही लगा। फिर एहसास हुआ कि डायरेक्टर बनना है तो ये सब करने से नहीं होगा। इसलिए मैंने इधर-उधर काम ढूंढने में ज्यादा ध्यान दिया नहीं। सोचा कि क्यों किसी के आगे-पीछे घूमना, ये एक तरह से वक्त जाया करना ही हुआ। कुछ मिलना तो है नहीं, फ्रस्ट्रेशन ही आएगी। लगा कि स्क्रिप्ट तैयार करूं और फिल्म बनाऊं। एक प्रोड्यूसर मुझे मिले भी, उनकी हालत खराब हो गई तो पीछे हट गए। बाकी कुछ साल पहले डिजिटल टेक्नोलॉजी आ गई तो इसने बहुत आसान कर दिया, कि अगर आपके पास कहानी है और अच्छे आइडिया हैं तो आप अच्छी फिल्म बना सकते हो। तय किया कि एक फिल्म बनाई जाए, चाहे जितने भी संसाधन हों, जैसी भी कहानी हो। फिर मैंने अपनी टीम जुटाई, लोकेशन देखी, कास्टिंग की बच्चों की और शूट कर दी फिल्म।

आपने इंजीनियरिंग की, फिल्में देखीं, फिर यहां आ गए, पैशन फॉर सिनेमा में लिखा। तो जिस वक्त आप लिख रहे थे और दूसरी फील्ड से आए फिल्म पैशनेट्स से बात करते थे, तो भीतर बहुत आग रही होगी। अब फिल्मों का मेकिंग प्रोसेस समझने के बाद और ये देखने के बाद कि नए फिल्मकारों के लिए सारा रास्ता बंद पड़ा है, क्या कुछ निराशा उस आग में जुड़ गई है?
मैं ये तो नहीं कहूंगा कि निराश हूं। निराश तो बिल्कुल नहीं हूं। एक तरह से संतुष्टि है कि ‘मुंबई चा राजा’ ने एक मुकाम हासिल किया है। अगर इंडिया के इंडिपेंडेंट सिनेमा की बात आती है तो 2012 के इंडि सिनेमा की हरेक सूची में इस फिल्म का नाम है। और जिन दूसरी फिल्मों का इसमें नाम लिया जाता है, उनमें से अधिकतर बॉलीवुड के पैसे से बनी है। शायद मेरी ही ऐसी है जो प्योरली इंडिपेंडेंट है और उसी वजह से सराही गई है। इस बात की खुशी है कि हमने ऐसी फिल्म बनाई और इतने बड़े-बड़े बजट वाली फिल्मों के बराबर में इसका नाम लिया जा रहा है। हर कोई जानता है इस फिल्म के बारे में। तो निराश नहीं हूं। एक तरह से ये बहुत अच्छी बात है कि डिजिटल टेक्नोलॉजी आने से जिसको फिल्म बनानी है वो बना रहा है। कुछ लोग हैं जो इंतजार भी कर रहे हैं कि कोई आए, उनके कंधे पर हाथ रखे और उनकी फिल्म बनवा पाए। कुछ शायद वेट ही करते रहेंगे। बहुत सारी फिल्में बन रही हैं अभी जो लोग डिजिटली शूट कर रहे हैं। ये अच्छा साइन है जो पिछले एक साल में देखने में आ रहा है। मतलब किसी की परवाह न करते हुए खुद ही आगे आकर फिल्म बना रहे हैं। एक परेशान करने वाली बात ये है कि बॉलीवुड की कुछ फिल्में हैं जिन्हें इंडिपेंडेट फिल्मों का नाम दिया जा रहा है। जिनमें विचार भी वैसा नहीं है, जाने-माने एक्टर भी हैं, गाने हैं और सब चीजें हैं... फिर भी इंडिपेंडेंट करार दिया जा रहा है। हमारे यहां हर तरह के सिनेमा के लिए जगह है, दर्शक हर तरह की फिल्में देखता है। लोग सलमान की फिल्में भी देखेंगे, अनुराग की भी देखेंगे, इंडिपेंडेंट भी देखेंगे। पर जो फिल्म बॉलीवुड से आ रही है उसे कम से कम बॉलीवुड फिल्म कहा जाना चाहिए, इंडिपेंडेंट नहीं। ये थोड़ा गड़बड़ है। लोगों को बेवकूफ भी बनाया जा रहा है कि ये इंडिपेंडेंट फिल्म है।

पर हमारे यहां इंडिपेंडेंट या इंडि की परिभाषा भी बहुत से लोगों को नहीं मालूम। वो असमंजस में हैं कि क्या है? छोटे बजट की फिल्म, जो थोड़ी अलग लगे या जो थोड़ी आर्टिस्टिक लगे... उसके कह देते हैं। ये स्पष्टता आई नहीं है...
हां, ये बहुत गलत धारणा है स्वतंत्र सिनेमा को लेकर। यहां तक कि हमारे क्रिटिक्स भी गड़बड़ करते हैं, आम लोगों की तो बात छोड़िए आप। क्रिटिक्स को भी नहीं पता कि कौन सी बॉलीवुड हैं और कौन सी इंडिपेंडेट। फेस्टिवल्स भी कन्फ्यूज्ड हैं, उन्हें भी समझ नहीं आता, वो भी बॉलीवुड फिल्म को चुन लेते हैं।

ये जानना इसलिए भी जरूरी है कि जब कभी भी कोई ऐसी यंत्रावली (मेकेनिज्म) बनेगी जो इंडि फिल्मों को सपोर्ट करने की शुरुआत करेगी तो सारी दिक्कत शुरू हो जाएगी... नुकसान कहां होगा?
जैसे कुछ फिल्में हैं तो वो गवर्नमेंट फंड से बन रही हैं और उनमें बॉलीवुड का पैसा भी लगा है। तो फंड देने वाले भी कन्फ्यूज्ड हैं। एक फिल्म पर इतना लग रहा है जितने में आप चार-पांच इंडिपेंडेंट फिल्में बना लोगे। फिर तुलना जब होती है तो बॉलीवुड की फिल्मों से होती है। सूचियां गलत हो जाती हैं। क्रिटिक्स देखते नहीं हैं। क्योंकि उन फिल्मों को फायदा मिल रहा है, उन्हें रिलीज भी मिल रही है, बजट भी हाई रहा है। तो ये टक्कर भी समान नहीं रहती। अब इसकी परिभाषा भी चकराने वाली है, आप कैसे परिभाषित करोगे कि कौन सी इंडि फिल्म है, कौन सी नहीं है। ये लोग जैसे बात करते हैं या किसी रिपोर्ट को पढ़ते हैं तो बहुत अजीब लगता है कि ये आदमी क्या बात कर रहा है, इसको बिल्कुल भी पता नहीं है।

परिवार वाले क्या कहते हैं, आपके फैसले से खुश हैं, या कहते हैं छोड़ दो?
किस्मत से मेरे परिवार वाले तो शुरू से ही बहुत सहयोग करते रहे हैं। उनकी वजह से ही मैं ये फिल्म बना सका हूं। अगर फैमिली सपोर्ट न हो तो तकरीबन नामुमकिन है ये सब करना। पर वो काफी डाउट में भी रहते ही हैं कि क्या कर रहा है। लेकिन उन्हें समझाना आपकी जिम्मेदारी है। उन्हें यकीन दिलाओ की मुझे तो यही करना है और कुछ करना ही नहीं है। शुरू में अगर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार का कोई बच्चा कहता है कि मुझे फिल्म बनानी है तो पेरेंट्स सोचेंगे ही और खासकर तब जब आपने इंजीनियरिंग की हुई है। मगर उन्हें यकीन दिला पाते हो तो वो पक्का सपोर्ट करेंगे, और सपोर्ट बहुत जरूरी है क्योंकि आपकी लाइफ में बहुत प्रॉब्लम्स आएंगी औऱ आप अकेले नहीं कर सकते हो। परिवार का समर्थन चाहिए ही चाहिए।

आपके परिवार में किस-किस का सपोर्ट रहा?
मेरे डैडी सुरिंदर सिंह माहे और माताजी सुखदेव कौर का। मेरी वाइफ रीना माहे का बहुत योगदान रहा। मेरे भाई सुखदीप सिंह ने बहुत मदद की है।

कौन से ऑल टाइम फेवरेट भारतीय या विदेशी फिल्मकार है जिनकी फिल्मों को आप बहुत सराहते हैं?
मुझे सत्यजीत रे बहुत पसंद हैं। उनकी स्टोरीटेलिंग क्षमता जो है वो बहुत ही उच्चतर क्वालिटी की है। मैं तुलना नहीं कर रहा पर उन्होंने एक अलग ही मुकाम हासिल किया है। बिल्कुल एफर्टलेस स्टोरीटेलिंग है उनकी। फिर मुझे कुरोसावा (अकीरा) बहुत पसंद हैं, जापान के फिल्ममेकर। अभी इंटरनेशनल फिल्मकारों में मुझे ब्रिलेंटे मेंडोजा बहुत पसंद हैं। वह फिलीपीन्स के हैं। इनका काफी नाम भी है, तो समकालीनों में ये बहुत पसंद हैं।

आपके बचपन की प्यारी और प्रभावी फिल्में कौन सी रहीं? क्योंकि बचपन की फिल्मों का शायद सबसे ज्यादा योगदान होता है आपके फिल्मी तंतुओं को विकसित करने में...
तब तो कमर्शियल देखकर भी मजा आता है। हमने भी अमिताभ बच्चन साहब की फिल्में देखीं, बड़ा आनंद आता था। वह मेरे फेवरेट थे, माने अभी भी हैं। फिल्ममेकर्स में, शायद हम इंजीनियरिंग कर रहे थे जब शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ आई थी, मुझे बहुत अच्छी लगी थी। एक मुझे ‘मालगुड़ी डेज’ बहुत अच्छा लगता था जो टीवी पर आता था। फिर रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ बहुत अच्छी लगी। अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्राइडे’ अच्छी लगी थी नई फिल्मों में। मुझे वर्ल्ड सिनेमा बहुत अट्रैक्ट करता है। वर्ल्ड सिनेमा बहुत असर छोड़ता है। ‘सिटी ऑफ गॉड’ (2002) है, ईरान की बहुत फिल्में हैं जैसे ‘चिल्ड्रेन ऑफ हैवन’ (1997)। फिर मेक्सिसन-स्पैनिश फिल्म निर्देशक लुई बुवेल की ‘लॉस ऑलविडोस’ (1950) है। विट्टोरियो डि सीका की ‘बाइसिकिल थीव्ज’ (1948) है।

आपकी फिल्म का जैसे वो दृश्य मैं देखता हूं जहां गली में वो धुआं छोड़ने वाला आता है और उसमें से जो उस गुब्बारे बेचने वाली की इमेज उभरती है, थोड़ा सा ही दिखता है कि दूसरे लड़के उसे पीटते हैं और फिर दृश्य को धुंआ ढक लेता है और आवाजें ही सुनाई देती हैं। या फिर दूसरा दृश्य जिसमें लड़के के हाथ पीछे को बंधे हैं और वह बेतहाशा सड़कों पर दौड़ रहा है और पीछे पीटने के लिए दौड़ रहा है उसका पिता। तो जब इंडिया में और विश्व में हजारों-लाखों फिल्में बन रही हैं या बन चुकी हैं। हजारों-लाखों कहानियां अलग-अलग विजुअल्स के साथ कही जा रही हैं या कही जा चुकी हैं... ऐसे में ये दो सीन जब मैं देखता हूं तो फिर भी मौलिक लगते हैं। सवाल ये है कि इतना कुछ कहा जा चुका है कि कोई हद नहीं है और हर चीज कही जा चुकी है। उसके बावजूद अब कुछ ऐसा नया लाना है हर फिल्मकार को जो बिल्कुल मौलिक हो और पहले किसी ने कहा न हो और दिखाते ही लोगों को बस रोक ले। ये कितना कठिन है और कैसे आता है?
मुझे लगता है कि अगर अपने कैरेक्टर्स के प्रति ईमानदारी है तो वहां से बहुत कुछ मिलेगा। अगर आप अपने किरदारों के साथ रहो और देखो कि वो क्या कर रहा है तो रियललाइफ से ऐसी-ऐसी चीजें मिलेंगी। जैसे, धुंए वाला सीन हमने किया तो पता चला कि बच्चे ऐसे मस्ती करते हैं कि धुएंवाला आता है और बच्चे एक-दूसरे को पीटते हैं और भाग जाते हैं। हमें लगा कि ये मजेदार चीज होगी दिखाने में। तो हमने शूट किया और शायद पहले ऐसे कहीं नहीं दिखाया गया है। बाकी जिस भागने वाले सीन की आप बात कर रहे हो वो दरअसल मेरी कल्पना ही थी कि दिखाया जा सकता है और असल लगेगा। इससे थोड़ा ये इमोशन भी आएगा कि बच्चा भाग रहा है और सब अपनी ही दुनिया में चल रहे हैं, कोई मदद नहीं कर रहा, किसी का ध्यान उस बच्चे पे जा नहीं रहा है। पता नहीं ये कहना मुश्किल है कि कहां से ये विचार आया होगा।

हम पुराने से पुराने लिट्रेचर और माइथोलॉजी का इस्तेमाल वैसे क्यों नहीं कर पाते जैसे हॉलीवुड फिल्में अपनी कॉमिक्स और नई-नवेली बायोग्राफी का कर लेती हैं? हम हजारों साल पुरानी चीजों का फायदा नहीं ले रहे हैं और वो पचास-साठ साल पुरानी चीजों को बार-बार रीसाइकल कर रहे हैं। ये अंतर क्यों है? इसका कारण आप क्या पाते हैं?
इसकी अहमियत आगे और भी ज्यादा होगी जब हम स्क्रिप्ट केंद्रित होंगे... उनके बजट और हमारे बजट में जमीन-आसमान का फर्क है। उनके बजट और मार्केट हमसे ज्यादा हैं। उनका एक प्रोसेस सेट है। सुनियोजित है। टेक्नीशियन तो हमारे भी अच्छे हैं। पर उनका जो प्रोसेस है, जैसे वहां साऊंड डिजाइन चलेगा तो अगर अच्छी फिल्म है तो उसके साउंड डिजाइन में आठ-नौ महीने और एक साल तक लग जाता है। हमारे यहां वैसा नहीं है। अगर ग्राफिक्स का काम होगा तो मिसाल लें जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ की, जिसे बनने में दस-बारह साल लग गए। वैसा हमारे यहां नहीं होता, न उतनी मेहनत लगती है न उतना पैसा। तो ये एक प्रॉब्लम है कि अधिकतर फिल्में साठ-पैंसठ दिनों में शूट होकर खत्म हो जाती हैं। हमारे यहां पैसे स्टार्स को चले जाते हैं, फिल्म में नहीं लगते। अगर 100 करोड़ की फिल्म है और उसमें 50 करोड़ स्टार ले लेगा तो बजट खत्म सा हो जाता है। हॉलीवुड में फिल्म बड़ी है तो स्टार्स नए होते हैं। अगर वहां एक एपिक बनाते हो तो आप शायद टॉम क्रूज को नहीं लोगे, नए एक्टर को लोगे। इंडिया में उल्टा है, अगर कोई बड़ी फिल्म बना रहे हो तो बड़ा स्टार चाहिए। कोई रिस्क भी लेना नहीं चाहता कि फिल्म में पैसा लगाएं और फिल्म अच्छी बनाएं। सबको इज़ी मनी चाहिए, मतलब टेबल पर ही पैसा बनाना है। हमारी धंधे वाली सोच है न। हम प्रॉडक्ट अच्छा नहीं बनाना चाहते। हम बना बनाया खेल चाहते हैं कि फलां स्टार ले लेंगें, उतने करोड़ दे देंगे, 20-30 करोड़ खर्चा करके बना लेंगे और 100 करोड़ में बेच देंगे। अगर स्टार को ही पचास करोड़ दे रहे हो सौ करोड़ की फिल्म में, तो कैसे चलेगा। बॉलीवुड के व्यूअर्स ज्यादा है हॉलीवुड से... वेस्टर्न ऑडियंस ज्यादा पैसे देकर भी फिल्म देखती हैं। सोच का फर्क है प्रोसेस का फर्क है। अब अगर एक इंडिपेंडेंट फिल्म बनाना चाहते हैं तो कोई प्रॉड्यूसर या डिस्ट्रीब्यूटर नहीं चाहता कि हाथ लगाए। मुनाफे की बात आ जाती है।

इस साल तमाम फिल्म फेस्टिवल में किन फिल्मों ने अपनी प्रस्तुति या कहानी से आपको हैरान किया है?
एक जो मैंने देखी और मुझे बहुत अच्छी लगी वह है चिली की ‘इवॉन्स वीमन’ (फ्रांसिस्का सिल्वा)। ‘शिप ऑफ थीसियस’ बहुत अच्छी फिल्म है इंडियन में, आनंद गांधी ने बनाई है। ‘मिस लवली’ भी कुछ अलग है। एक ‘शाहिद’ है हंसल मेहता की... मतलब ये दो-तीन फिल्में बहुत अच्छी निकली हैं। एक मैंने ‘द पेशेंस स्टोन’ (अतीक़ रहीमी) देखी है, अफगानिस्तानी कहानी पर बनी है, बहुत अच्छी लगी।

जब सक्षम होंगे और संसाधन पास होंगे तो कैसे विषय पर फिल्में बनाना पसंद करेंगे?
भारत की वो कहानियां कहना चाहूंगा जो दरकिनार कर दी जाती हैं। अभी असली भारत की कहानियों पर फिल्में इसलिए नहीं बनाई जा सकतीं क्योंकि वो मिडिल क्लास मार्केट को केटर नहीं करती हैं, वो मल्टीप्लेक्स में नहीं चलती हैं। मैं तो यही चाहूंगा कि ये कहानियां कही जाएं। जो स्क्रिप्ट मेरे पास हैं उनमें चार कहानियां तो जातिगत भेदभाव (कास्ट डिसक्रिमिनेशन) को लेकर ही हैं। एक बंत सिंह की है। फिर बिहार के जातिगत नरसंहार पर है। एक महाराष्ट्र में वाकया हुआ था जिसमें एक दलित फैमिली को सरेआम मार दिया गया था, एक कहानी वो है। फिर एक दलित आदमी के बारे में है जो मंदिर बनाना चाहता है, उसकी कहानी है। कुछ कमर्शियल स्क्रिप्ट भी हैं। एक फिल्म है जिसमें सारे मसाले हैं बॉलीवुड के। उन क्लीशे को मिलाकर कुछ मीनिंगफुल बनाने की कोशिश की है। उसमें आतंकवाद भी है और सोशल मुद्दे भी। काफी कहानियां हैं, देखते हैं पहली कौन सी शुरू होती हैं।

क्या ऐसी भी फिल्में हैं जिनसे आप नफरत करते हैं?
नफरत तो किसी से नहीं, पर कोई एजेंडा थोपने के लिए बनाता है तो नहीं देखता। मुझे फिल्म में एक मासूमियत नजर आनी चाहिए, वो फिल्म देखने में नजर आएगी। जिन फिल्मों में डायरेक्टर का ध्यान नहीं हो और जबरदस्ती बनाने की कोशिश की हो तो मजा नहीं आता।

कैसी किताबें पढ़ते हैं?
पढ़ता ही नहीं। मैंने कोशिश की है पर पढ़ी नहीं जाती, मैं नॉन-फिक्शन पढ़ लेता हूं पर पता नहीं क्यों किताबें मुझे रोक नहीं पातीं। मैं विजुअल्स से ज्यादा आकर्षित होता हूं। फिक्शन से थोड़ी एलर्जी सी है। नॉन-फिक्शन तो फिर भी पढ़ लेता हूं। इसमें असली इंसानों की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। ये सब मुझे पसंद हैं चाहे वो न्यूजपेपर आर्टिकल हों, ऑनलाइन ब्लॉग हों या अच्छे नॉन-फिक्शन हों।

‘पैशन फॉर सिनेमा’ क्यों बंद हो गया?
शुरू ऐसे हुआ कि इस जगह हम अपने विचार बांट सकें, पर चलते-चलते अपने आप में बहुत बड़ा बन गया, बड़े नाम वहां जुड़ गए। फिर वह प्लेटफॉर्म ऐसा हो गया कि काफी कुछ अचीव करना चाहता था। और भी काफी कुछ शुरू हो गया था। फिर वो ब्लॉग भर नहीं रहा कि अपना पॉइंट ऑफ व्यू शेयर कर पाएं। वो पीरियोडिकल या न्यूजपेपर जैसा हो गया। कि हर हफ्ते और महीने इतना तो छापना ही है। फिर पता नहीं कि कुछ मुख्य ऑथर्स के बीच हुआ कि वो बंद कर दिया गया। पुराने लोग वहां नहीं लिख रहे थे, वो वहां से निकल गए। एक मौके पर तो इतना स्तर गिर गया कि बरकरार करने का मतलब नहीं रहा।

फिल्म क्रिटिसिज्म कैसा होना चाहिए?
जो कॉमन प्रॉब्लम मैंने देखी हैं वो ये कि क्रिटिक्स लिखते हुए उम्मीद करते हैं कि फिल्म में ये होना चाहिए था। वह लिखते हैं कि डायरेक्टर को ये दिखाना चाहिए था ये नहीं दिखाना चाहिए था। जबकि हमें ये देखना चाहिए कि फिल्म में डायरेक्टर ने क्या किया है। अगर आप ऐसे करते हो तो लगता है कि आपका पहले से फिल्म को लेकर कोई एजेंडा है। आप उसे एक सेकेंड में इसलिए खारिज कर देते हो। क्रिटिक्स ही ऐसा करते हैं कि तुरंत कह देते हैं कि ये फिल्म तो भइय्या उस फलानी फिल्म जैसी है। जबकि उसे थोड़ा ये सोचना चाहिए कि फिल्ममेकर क्या करना चाहता था और वह ईमानदारी से क्या कर पाया है।

न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज आने वाले वक्त में शायद हम लोगों के बीच चर्चा का विषय रहेंगे। तो इन पर आप क्या सोचते हैं, होनी चाहिए, नहीं होनी चाहिए, कितनी होनी चाहिए?
मुझे लगता है कि अगर आपका सब्जेक्ट डिमांड करता है तो .. फिर वही ऑनेस्टी वाली बात है कि हां, अगर वो किरदार वाकई में ऐसा है तो आप कर सकते हो। ऑनेस्टी से फिल्माओं तो ठीक जरूर लो। पंजाब में तो हर लाइन में आपको दो गालियां मिलेंगी। अगर न्यूडिटी को कमर्शियल पॉइंट से भुना रहे हो तो फिर वो गलत है। अगर आपकी कहानी की मांग है तो दिखा सकते हो, गालियां भी दिखा सकते हो, पर अगर वो नहीं है और आप जबरदस्ती थोप रहे हो तो दिक्कत है। बाकी सेंसर बोर्ड पर है कि आपको क्या सर्टिफिकेट देते हैं। फिर लोगों पर है कि वो कैसे लेते हैं।

बहुत अधिक निराश होते हैं तो क्या करते हैं, कौन सी फिल्म लगाकर बैठते हैं या क्या सोचते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं होता मेरे साथ। मुझे नहीं लगता कि मैं निराश होता हूं। पर निराशा और नकारात्मक सोच को दूर रखना चाहिए। पहले लगता था क्या करें। फिर सोचा कि खुद ही करना पड़ेगा, कोई मदद तो आने से रही। फिल्म आपकी ही जिम्मेदारी है आपको ही पहल करनी पड़ेगी। पर अब तो फिल्म बन गई है फेस्ट में ट्रैवल कर रही है। पर मायूस तो होना ही नहीं चाहिए। इस दुनिया में तो बहुत धीरज चाहिए, यहां मायूसी की कोई जगह नहीं है। सही में अगर सिनेमा से लगाव है आपका, तो मायूसी आएगी ही नहीं। ये मीडियम सिखाता चलता है और इंटरनेट इतना अच्छा जरिया है कि सारा ज्ञान और सामग्री वह उपलब्ध है।

(साक्षात्कार का छोटा प्रतिरूप यहां पढ़ सकते हैं, कृपया पृष्ठ संख्या 4 पर जाएं)
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, January 10, 2013

बाहें जिना दी पकड़िए, सिर दीजे, बाहें न छोड़िए

उनके जाने के कुछ ही घंटों में कुछ लिखा था। बींध दिए गए काळजे से, बींध दी गई सोचने की इंद्रीय से और थोप दिए गए उस अवाकपन से जो 2012 में बहुत बार आया। दुख हुआ। बहुत दुख हुआ। पर उन शब्दों को यहां बांटने से कतराता रहा। कतराने की वजह जो हमेशा रहती ही है, कि शब्द बेबस होते हैं, जहरीले होते हैं, प्रदूषक होते हैं। फिल्में देखने के अनुभव व्यक्तिगत होते हैं और बेशकीमती होते हैं, उन्हें शब्दों से कभी दूसरे को व्यक्त नहीं किया जा सकता है। जब किया भी जाता है तो आंशिक हो पाता है। उनमें छिपे विचारों पर परिचर्चा कर सकते हैं, पर भावों पर नहीं। यश चोपड़ा भाव थे। प्यार के, पंजाबियत के, दोस्ती के, दर्द के, दुर्दिन के, जलसे के, जिंदगी जीने के, क़िस्सागोई के, कर्मठता के, संगीत के, सपनों के, साथ के, ऐश्वर्य के, आजादी के, खुशी के, खतरे के, शुरुआत के और अंत के। कुछेक विषयपरक आलोचनाएं हैं जो फिर कभी, फिलहाल कुछ वो जिसके लिए मैं उन्हें याद रखूंगा, संभवतः हम सभी।
स्मृतिशेषः यश चोपड़ा 1932 - 2012
 “ऐसा कुछ कर पाएं,
 यादों में बस जाएं,
 सदियों जहान में हो  चर्चा हमारा
 दिल करता,
 ओ यारा दिलदारा मेरा दिल करता...”
‘आदमी और इंसान’ 1969 में आई थी। बतौर डायरेक्टर यश चोपड़ा की चौथी फिल्म। साहिर लुधियानवी का लिखा और महेंद्र कपूर का गाया ये गाना उनकी जिंदगी का सार भी है और उनकी तमाम फिल्मों की काव्यात्मक थीम भी। इसमें नाचते सैनिकों को देख और उनके लफ़्जों को सुन कोई भाव विह्अल न हो, आज भी ऐसा नहीं हो सकता। इसमें सब है। देशभक्ति, कर्मठता, किसी गोरी की कलाई थामने की ख्वाहिश, जीने की खुशी, नाचने-गाने का पंजाबी रंग और कुछ कर गुजरने का जज़्बा। देशभक्ति, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की उनकी परिभाषा सबसे पहले उनकी दो शुरुआती फिल्में थीं। 1959 में आई उनकी पहली ही फिल्म ‘धूल के फूल’ में जंगल में छोड़ दिए गए एक हिंदू नाजायज बच्चे को एक मुस्लिम अब्दुल रशीद पालता है। उसे गाकर सुनाता है “तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा”। यकीनन, इन नैतिक शिक्षाओं को अपनी फिल्मों में आज हम बहुत मिस कर रहे हैं। उनकी दूसरी फिल्म ‘धर्मपुत्र’ में बंटवारे का दर्द था, वही जो यश खुद झेल चुके थे। दिल्ली के दो सद्भाव से रहने वाले हिंदु-मुस्लिम परिवारों की कहानी थी। यहां से आगे ‘वीर-जारा’ तक उन्होंने कोई विशुद्ध मैसेज वाली फिल्में नहीं बनाईं। जो भी बनाईं थोड़ी भलमनसाहत, बाकी मनोरंजन की चाशनी और सुरीले गुनगुनाते डायलॉग्स में डुबोकर बनाई, पर सब में उनका दिल जरूर होता था। फिर उनकी फिल्मों की थीम प्यार, किस्मत, गरीबी, अमीरी, नैतिकता, आधुनिकता, रिश्ते-नाते, विरसे और जिंदगी जैसे दार्शनिकता भरे विषयों पर चली गईं।

लाहौर में जन्मे इस लड़के को जब 19 की उम्र में घरवाले जालंधर से इंजीनियर बनने भेज रहे थे तब उसके शरीर में दिल और पोएट्री दो ही चीजें धड़क रही थीं। बाद में वो पोएट्री कहानियां बन गईं और बड़े भाई बलदेवराज चोपड़ा की शार्गिदी में सीखी फिल्ममेकिंग आगे बढ़ने का जरिया। मूलमंत्र एक ही था, ‘जो काम जिंदगी दे वो दिल लगाकर करते जाओ’। वही जज़्बा जो हर मेहनती, जुझारू और उसूलों वाले हिंदुस्तानी में पराए मुल्क जाकर सफल हो जाने से पहले होता है। आदित्य चोपड़ा की ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में जिस चौधरी बलदेव सिंह को हम देखते हैं, वह असल में उनके पिता यश चोपड़ा की छवि ही लगती है। सुबह-सवेरे लंदन के भीगे आसमान तले, भीगी सड़कों पर हाथ में छड़ी और जेब में कबूतरों के लिए दाने लिए जा रहे बलदेव सिंह की पंजाब को लेकर दिल में उठती हूक और इस किरदार को निभा रहे अमरीश पुरी की चौड़ी जॉ-लाइन, दोनों यश चोपड़ा की याद दिलाते हैं।

‘ए मेरी ज़ोहरा-जबीं’ (वक्त) से लेकर ‘चल्ला रौंदा फिरे’ और ‘हीर’ (जब तक है जान, आखिरी फिल्म) तक अलग-अलग रूपों में वह हिंदुस्तानी सिनेमा में पंजाबियत स्थापित करते रहे। उनकी फिल्मों में कोहली, कपूर, चौधरी, चोपड़ा, खन्ना, मेहरा, मल्होत्रा, गुप्ता, वर्मा, सक्सेना, लाला, खान और सिंह जैसे सरनेम ज्यादा रहे। 1973 में आई उन्हीं की फिल्म ‘दाग़’ में नायिका गाती हैं, “यार ही मेरा कपड़ा लत्ता, यार ही मेरा गहना। यार मिले तो इज्जत समझूं कंजरी बनकर रहना। नी मैं यार मनाणा नी चाहे लोग बोलियां बोलें”। इश्क की तड़पन यहां भी पंजाबी थाप और शब्दों के बिना पूरी नहीं होती। यशराज प्रॉडक्शंस तले बनी फिल्मों में तो ‘ऐंवेई ऐंवेई’ (बैंड बाजा बारात) पंजाब आता-जाता रहा।

आम राय के उलट यश चोपड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर विदेशी रीमेक और साहित्यिक कृतियों में भी रुचि लेते थे। ‘काला पत्थर’ जोसेफ कॉनरेड के नॉवेल ‘लॉर्ड जिम’ से प्रेरित थी। ‘दाग़’ थॉमस हार्डी के नॉवेल ‘द मेयर ऑफ कास्टरब्रिज’ पर आधारित थी। ‘इत्तेफाक’ ब्रिटिश फिल्म ‘साइनपोस्ट टु मर्डर’ की रीमेक थी। ‘धर्मपुत्र’ आचार्य चतुरसेन से नॉवेल पर बनी थी। मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक ‘मशाल’ वसंत कानेटकर के मराठी प्ले ‘अश्रूंची झाली फुले’ पर आधारित थी।

प्यार में विरह और त्याग के सबसे पुराने रूल को उन्होंने बहुत बरता। ‘वीर-जारा’, ‘कभी-कभी’, ‘सिलसिला’ और ‘चांदनी’ देखें। उनके टॉपिक बोल्ड रहे। हालांकि वक्त के साथ उनके किरदारों के प्यार में दुश्वारियां कम होती गईं। उनकी फिल्मों में पीढ़ियां होती थीं, जॉइंट फैमिलीज होती थीं, बहुत सारी फैमिलीज होती थीं। अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के साथ उनकी ‘दीवार’ को चाहे स्टैंड अप कॉमेडियंस ने हल्का करने की कोशिश की हो, पर ये फिल्म आज भी एंग्री यंग मैन वाली फिल्मों में ‘मशाल’ के साथ शीर्ष पर बनी हुई है। ‘मशाल’ में अख़बार चलाने वाले भले इंसान विनोद कुमार बनते हैं दिलीप कुमार। उनका एक सीन शायद यश चोपड़ा के निर्देशन वाले तमाम श्रेष्ठ सीन्स में से एक है। आधी रात को, बेघर, सड़क पर पति संग ठोकर खा रही सुधा (वहीदा रहमान) के पेट में दर्द शुरू हो जाता है। वह फुटपाथ पर गिरी दर्द में कराह रही है और लाचार, गिड़गिड़ाते, हर संभव तरीके से मदद मांगते विनोद इधर-उधर दौड़ रहे हैं। दरवाज़ों, दुकानों, खिड़कियों को पीट रहे हैं, हर गुजर रही गाड़ी के आगे मिन्नतें कर रहे हैं (पर कोई नहीं रुक रहा) ...
“अरे कोई आओ,
अरे देखो बेचारी मर रही है,
अरे मर जाएगी बचा लो रे।
गाड़ी रोको...
ऐ भाई साहब गाड़ी रोक दो,
गाड़ी रोको भाई साहब।
ऐ भाई साहब...
मेरी बीवी की हालत बहुत खराब है,
उसको... उसको अस्पताल पहुंचाना है।
भाई साहब वो मर जाएगी,
आपके बच्चे जिएं,
हमारी इत्ती मदद कर दो
उसको अस्पताल पहुंचा दो भाई साहब,
भाई साहब आपके बच्चे जीएं,
भाई गाड़ी रोको...
ए भाई गाड़ी रोक दो”।

आपको रुला देता ये पूरा दृश्य रौंगटे खड़े करता है। बेहद। एहसास करवाता है कि क्यों आज तक दिलीप कुमार अभिनय के भारतीय आकाश में सबसे चमकीले तारे हैं। दृश्य के रोम-रोम में प्राकृतिक भाव हैं, उन्हें लिखा और फिल्माया उसी दर्द को महसूस करते हुए गया है। पीड़ा के अलावा यश चोपड़ा की ऐसी ही आत्मानुभूति रोमैंस के मोर्चे पर भी दिखती है। चाहे ‘लम्हे’ के अधेड़ वीरेंद्र और उम्र में उससे आधी पूजा के बीच का अपनी परिभाषा ढूंढता अस्थिर प्यार हो या ‘चांदनी’ के रोहित-चांदनी का रोमैंटिक-काव्यात्मक ख़तों से भरा गर्मजोश प्यार। जब रोहित की चिट्ठी आती है तो वीणा के झनझनाते तारों वाले बैकग्राउंड म्यूजिक और पीले फूलों वाले बगीचे में लेटकर चांदनी पढ़ना शुरू करती है... रोहित ने लिखा है...
चांदनी,
तुम्हें हवा का झोंका कहूं
कि वक्त की आरजू,
दिल की धड़कन कहूं
कि सांसों की खुशबू।
तुम्हें याद करता हूं
तो फूल खिल जाते हैं,
सुबह होती है तो लगता है...
तुम अपनी जुल्फें शबनम में भिगो रही हो,
और मैं, तुम्हारी आंखों को चूम रहा हूं।
सुनहरी धूप में लगता है
जैसे चांदनी जमीन पे उतर आई है,
शाम का ढलता सूरज
तुम्हें चंपई रंग के फूल पहना रहा है,
और तुम्हारी खुशबू से
मेरा बदन महक रहा है।
जब रात अपना आंचल फैलाती है...
तुम्हारी कसम,
तुम बहुत याद आती हो।
पूनम का चांद
अपनी गर्दिश भूलकर,
ठहरा हुआ तुम्हारा रूप देख रहा है,
मैं आंखें बंद कर लेता हूं...
और चांदनी मेरे दिल में उतर आती है।
तुम्हारा, सिर्फ तुम्हारा
- रोहित

और फिर ख़त पढ़कर फूलों सी शरमाई, खिली, मुस्काई चांदनी लिखती है...
 रोहित,
क्या लिखूं?
वक्त जैसे ठहर गया है।
हवा, खुशबू, रात...
सब सांस थामे इस इंतजार में हैं
कि मैं कुछ लिखूं,
पर दिल की बात लफ्जों में कैसे आएगी।
रोहित, तुम्हारी पसंद की सब चीजें हैं,
मोगई के फूल,
मुस्कुराती शमा
और तुम्हारी चांदनी।
काश, तुम यहां होते!
मगर तुम कैसे होते?
मगर तुम हो तो सही
मेरी सांसों में,
मेरे दिल में,
मेरी धड़कन में।

चांदनी-रोहित की ये बातें यश चोपड़ा की फिल्मों में लफ़्जों की अति-भावुकता (जिनका अति होना जरूरी भी था) का एक बेहतरीन उदाहरण है। भले ही आप उन पंक्तियों के भीतर तक न घुसें पर आपके बाहर-बाहर से गुजरते हुए भी ये पोएट्री आपको सीट पर पीछे की ओर सहला जाती हैं। और वह खुद भी मानते थे कि उनकी हर फिल्म असल में महज पोएट्री ही होती थी। ‘कभी-कभी’, ‘वीर-जारा’, ‘चांदनी’ और ‘जब तक है जान’ में ये सीधे तौर पर थी तो बाकी फिल्मों में संवादों और गानों में। अगर सकारात्मक लिहाज से लें तो यश चोपड़ा बड़े सेंटिमेंटल आदमी थे, जो एक डायरेक्टर को होना ही चाहिए। उनका संगीत भी वैसा ही रहा। दिल से बना, सीधा-सपट और मजबूत। एन दत्ता, रवि, खय्याम से लेकर उत्तम सिंह तक सभी उनकी फिल्मों का म्यूजिक दे गए पर ज्यादा काम उनका शास्त्रीय तासीर वाले शिव-हरि की जोड़ी के साथ ही निकला। यश की फिल्मों ने बहुत ही खूबसूरत, कर्णप्रिय गाने दिए पर मुझे तसल्ली देता और यश चोपड़ा को भी कुछ बयां करता एक ही रहा। 1981 में आई ‘सिलसिला’ में भाई हरबंस सिंह जगाधरी का गाया संगीत ‘बाहें जिना दी पकड़िए’... अद्भुत। इस संगीत का भाव यश चोपड़ा की फिल्मों में सर्वत्र है। कलेजा निचोड़ देता, गीला, छलछलाता, तांतेदार और दिल से संचालित होने वाला भाव।

उन्होंने अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान को उनकी जिंदगी का ऊंचा मुकाम दिया। उन्होंने साइकिल पर अपने पूरे परिवार को ढोने वाले दर्शक को सूरजमुखी के फूलों में रोमैंस की सपनीली तस्वीर दिखाई। हालांकि, वो दर्शक कभी ठीक वैसा काव्यात्मक रोमैंस कर न सका, वह स्विट्जरलैंड (ये आलोचनात्मक पहलू रहेगा कि बहुतों ने स्विट्जरलैंड जाने को अपना ध्येय बनाया भी ) जा न सका, पर इन फिल्मों से उसे विदेशों का एक सिनेमाई आइडिया हुआ। मनोरंजन के लिहाज से ये ठीक-ठीक था, जागरूक करने के लिहाज से नहीं। यश चोपड़ा ने हमेशा ईमानदार दिल से फिल्में बनाई जो तकनीकी तौर पर बेदाग होती थीं जो सदा धड़कती थीं।

मुझे लगता है कि वक्त से साथ उनकी फिल्मों का कद बढ़ेगा। उनकी चल्ले वाली बड़ी क्लीन-सघन लाइफ में फिल्मों के इतर असल जिंदगी का एक बहुत बड़ा सबक है। उस दौर पर जब हम मिनट-मिनट में फुटेज न मिलने पर, लाइक्स न मिलने पर और अपने दायरों में सेलेब न बन पाने पर निराश हो जाते हैं, हार से जाते हैं, यश चोपड़ा अपनी लाइफ की ऐसी कहानी देकर जाते हैं जो कर्म करने से बनती गई। न हर कदम पर सफलता के लिए अतिरिक्त प्रयास करने थे, न आगे बढ़ने के लिए ताकत लगानी थी... बस एक काम में मन लग गया, उसे करते चले गए, बिना परिणाम की प्रतीक्षा के... और बात बन गई। एक भरा-पूरा जीवन और कार्य-संग्रह जमा हो गया। जो भी ऐसा मनोबल पाना चाहते हैं और ऐसी प्रेरक कहानी सुनना चाहते हैं वो ये साक्षात्कार देख सकते हैं। मृत्यु से कुछ वक्त पहले उन्होंने शुरू से लेकर आखिर तक जीवन का हर पड़ाव लोगों से बांटा।

 ...इधर-उधर के बीच केवल एक यश चोपड़ा नजर आते हैं, जो ऊर्जा देते हैं, होंसला देते हैं और याद आते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, January 3, 2013

अमीर कुस्तरिका के साथ मैं लिफ्ट में था, जिंदगी में वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगाः वासन बाला (पैडलर्स)

बातचीत 2012 की बेहतरीन स्वतंत्र फिल्मों में से एक ‘पैडलर्स’ के निर्देशक वासन बाला से

 

जाते 2012 के दौरान साल के बेहतरीन फिल्म लेखकों के साथ किए अपने कार्यक्रम में टीवी फिल्म पत्रकार राजीव मसंद ने एक सवाल पूछा। “वो कौन सी हिंदी फिल्म थी जो इस साल आपने देखी और मन ही मन सोचा कि काश मैंने ये लिखी होती” ...इसके जवाब में ‘इशकजादे’ के निर्देशक और लेखक हबीब फैजल कहते हैं, “एक फिल्म है जो अभी तक रिलीज नहीं हुई है। पैडलर्स। बहुत ही प्रासंगिक फिल्म”। हिंदी सिनेमा के सौंवे वर्ष में स्वतंत्र फिल्मों का भी जैसे नया जन्म हुआ है। इस साल बहुत ही शानदार स्वतंत्र फिल्में बनीं हैं और उन्हीं में से एक है पहली दफा के निर्देशक वासन बाला की फिल्म, ‘पैडलर्स’। कान फिल्म फेस्टिवल-2012 के साथ चलने वाले इंटरनेशनल क्रिटिक्स वीक में फिल्म को दिखाया गया। वासन की फिल्म अब तक टोरंटो, कान, लंदन बीएफआई और स्टॉकहोम फिल्म फेस्टिवल में जाकर आ चुकी है और बहुत तारीफ पा चुकी है। मुंबई में ही रहने वाले वी बालाचंद्रन और वी राजेश्वरी के 34 वर्षीय पुत्र वासन पहले बैंकर रहे, फिर फिल्मों का जज्बा इस दुनिया में ले आया। वह अनुराग कश्यप की ‘देव डी’ और ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ के निर्माण वाली टीम में रहे। बेहद नामी ब्रिटिश फिल्मकार माइकल विंटरबॉटम की फिल्म ‘तृष्णा’ की भारत में हुई शूटिंग के दौरान वासन ने हाथ बंटाया। उन सबके बाद अब उनकी खुद की फिल्म आई है। अगर सबकुछ सही रहा तो जल्द ही सिनेमाघरों में ‘पैडलर्स’ नजर आएगी।

Vasan Bala
‘पैडलर्स’ कब बनकर तैयार हुई? उसके बाद जितने भी फिल्म फेस्ट में गई उसका अनुभव कैसा रहा?
फिल्म जैसे बनी थी मैं उससे ही काफी हैरान था। क्योंकि इसके मुख्य विषयों पर जाएं तो एलियनेशन, पेसिमिज्म और इनकनक्लूसिव टाइप की लाइफ की बात है। जैसे, शहर में हमारी जिंदगियों में एलियनेशन है, भीतर नैराश्य उपज रहा है और सब-कुछ अनिर्णायक सा है। अगर फिल्मी फॉरमेट को देखें तो उसमें सब उल्टा होता है और मैं चाहता था कि मेरी फिल्म में ऐसा न हो। इसलिए हैरान था कि ऐसी फिल्म बन कैसे गई। बनी भी और फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई। वहां भी पहली बार के फिल्मकारों मिलना हुआ, जाना कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म कैसे बनाई और वो क्या सोचते हैं। उनमें एक किस्म की विनम्रता थी जो मुझे बहुत पसंद आई कि बस जमीन से जुड़े रहो और स्टोरी आइडिया की तलाश में रहो। तो बहुत अच्छा रहा लोगों से बात करके और जानकर।

कहानी आपके दिमाग में किस वक्त आई?
फिल्म एक तरह से प्रतिबिंब ही है कि आप किस मानसिक स्थिति में हो। मैं भी काफी अलग-थलग महसूस कर रहा था जब कहानी लिखी। काफी निराश था जिंदगी और करियर को लेकर। बहुत ही अनिर्णायक स्थिति थी जो अभी भी है मेरे ख्याल से.. समाधान तो निकलना भी नहीं चाहिए...। तो ये सब चीजें और रोजाना के ऑब्जर्वेशन फिल्म में आए। किसी कहानी या बाकी चीजों से ज्यादा मैं एक फिल्म में वही देखता हूं। जो भी डेली ऑब्जर्वेशन होते हैं मेरे, या लोगों के, चीजों के, उसको जैसे है वैसे डॉक्युमेंट्री की तरह दर्शाते जाओ। कैरेक्टर्स को फॉलो करके देखो कि वो जाते कहां हैं, फिर एक तरह से कैरेक्टर्स अपनी कहानी खुद बना लेते हैं और जो भी समाधान है वो अपने लिए ढूंढ लेते हैं। उस तरह की एक कोशिश थी फिल्म बनाने की। मोटा-मोटी फिल्म में तीन किरदार हैं। एक नारकोटिक्स ब्यूरो में पुलिस इंस्पेक्टर है जो कि खूबसूरत है, सफल है, पर वह इर्रेक्टाइल डिस्फंशन से ग्रसित है। इसकी वजह से उसकी खुद की एलियनेशन है। उसने अपने आप को एक तरह से बांध रखा है। निराशा अपने आप में पाल रखी है। इसी वजह से उससे कुछ चीजें हो जाती हैं। दूसरी एक बांग्लादेशी इमिग्रेंट है जो कि टर्मिनली बीमार है। इस बीमारी की वजह से वह खुद को अलग कर लेती है, नैराश्य पाल लेती है और वैसा ही काम करती जाती है। मतलब उसमें आशा और निराशा का एक विचित्र सा मिश्रण है। वह खुद जिंदा रहने और अपने बच्चों को जिंदा रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। तो ये एक ‘स्ट्रेंजली कोल्ड ऑप्टिमिज्म’ है। ‘स्ट्रेंजली कोल्ड परपजफुल एग्जिस्टेंस’ है जो आस-पास के लोगों के लिए खतरनाक हो सकता है। अब जो तीसरा किरदार है वो एक मासूम लड़का है। मुंबई में है और किशोरवय में भीतर हर जगह स्वीकृति पाने का जो उबाल खुद के लिए होता है, वह उसमें है। तो वह अपने आपको उस परिस्थिति में अलग-थलग पाता है। ये तीनों लोग मुंबई जैसे शहर में किसी न किसी कारण से अकस्मात मिलते हैं, फिर उसके क्या परिणाम होते हैं, यही फिल्म है। मुंबई को हमने फिल्म में एक घोस्ट टाउन दिखाया है। मतलब ऐसा शहर जहां लाखों-करोड़ों लोग रहते हैं पर दिखता कोई नहीं है। हमने रात में काफी शूटिंग की और महानगर के अंदर की एलियनेशन दिखाने की कोशिश की, जहां आप भीड़ में भी अकेले घूमते हो। शायद इसीलिए आपको सिर्फ लोगों की आवाज सुनाई देती है। फिल्म में वातावरण में एक भीड़ बनाई गई है, पर विजुअली जब देखोगे तो आप सबको अकेला पाओगे। फिल्म का ट्रीटमेंट और फील ऐसा है। फिल्म का शीर्षक है ‘पैडलर्स’ जिसका मतलब ही होता है वह जो चलते-फिरते चीजें बेचता रहता है। ये गतिमान रहते हुए रोजमर्रा की चीजें बेचने के कॉन्सेप्ट जैसा है। जैसे हम ईमानदारी बेचते हैं, भरोसा बेचते हैं, प्यार बेचते हैं... एक तरह से ये उसी का विस्तार है।

कहानी के लिए ‘पैडलर्स’ को ही क्यों चुना? दूसरा, इसमें किरदार सिर्फ तीन हैं तो क्या इसकी एक वजह ये है कि जो भी नए फिल्मकार होते हैं उन्हें आर्थिक मदद नहीं होती.. तो कम किरदारों में वो एब्सट्रैक्ट बात ज्यादा कह पाते हैं और इकोनॉमिकली भी ज्यादा बेहतर रहता है?
ये कहानी मेरे उस वक्त के माइंडसेट के हिसाब से है। इसकी स्क्रिप्ट अगर मुझे पांच साल बाद दी जाए तो मैं इतनी ईमानदारी और सहज तरीके से शायद तब न कह पाऊं। क्योंकि पांच साल बाद शायद एक अलग लाइफ हो, इतना गुस्सा न हो अपने अंदर और ये सब चीजें अलग असर डालें। ये समाज की अस्वीकृति, अलगाव-थलगाव और निराशा खूब सारे पैसों और सुविधाओं से नहीं आ सकती। तो उस वक्त और माहौल से ‘पैडलर्स’ बनी। अब जो अगली फिल्म होगी वो शायद ‘पैडलर्स’ जैसी न हो। मतलब एक फिल्मकार की दृष्टि से स्टाइल औऱ ट्रीटमेंट एक हो सकता है पर फील वैसा नहीं। आप लाइफ में आगे बढ़ जाते हो, पीछे रह जाते हो या बीच में रह जाते हो... आपकी फिल्मों में अहसास उसी मुताबिक आते-जाते हैं।

शूटिंग का अनुभव कैसा रहा? दर्दनाक, मजेदार, आसान, मुश्किल?
कभी शूटिंग की कहीं इजाजत नहीं मिल पाती थी, किसी दिन शूट नहीं हो पाता था, किसी दिन कुछ चाहिए होता था वो मिलता नहीं था। ऐसी कठिनाइयां थीं तो भी मजेदार होती गईं, क्योंकि हम सभी बिना उम्मीदों के आगे बढ़ रहे थे और नतीजे का कोई अंदाजा नहीं था। कुछ पाने की चाह न थी, तो सब कुछ मिलता गया। फिल्म को बनाया तो पता चला कि अच्छा एक फिल्म फेस्टिवल भी चीज होती है, अच्छा एक रिलीज भी चीज होती है, रिव्यूज भी होते हैं, डायरेक्शन भी चीज होती है... सब पता चला। तो स्ट्रगल, स्ट्रगल लगा नहीं। एक जिद में बनाते गए। मेरे पास बहुत शानदार टीम भी थी। एक जैसी सोच वाले बंदे थे, सब हो गया। अगर कुछ स्ट्रगल रहा भी होगा तो उन लोगों ने मुझ तक आने नहीं दिया, जो बहुत भावभरा था। ये लौटकर कभी नहीं आने वाला है लाइफ में। अब पीछे पलटकर देखता हूं तो लगता है कि यार, ये कैसे बन गई।

टीम के बारे में बताएं?
छोटी ही थी। सेट पर हम पंद्रह-बीस लोग होते थे। इनमें मेरी एडिटर हैं प्रेरणा सहगल, मेरे डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी) हैं सिद्धार्थ दीवान, मेरे साउंड डिजाइनर हैं एंथनी रूबन, मेरे म्यूजिक डायरेक्टर करण कुलकर्णी... उनका म्यूजिक बहुत कमाल है काफी यूनीक है, मेरी प्रोड्यूसर गुनीत हैं, मेरे एग्जिक्यूटिव प्रोड्यूसर अचिन जैन हैं जिन्होंने सेट पर कमाल कर दिया... इतने कम बजट में इतनी सारी लोकेशंस जो उन्होंने मैनेज करके दी। सब ने बहुत ही कमाल योगदान दिया है।

पहले क्या-क्या किया?
अनुराग कश्यप को असिस्ट करता था। उनके लिए बीच में थोड़ी-बहुत कास्टिंग भी कर लेता था। फिर उसके बाद माइकल विंटरबॉटम को असिस्ट किया उनकी फिल्म ‘तृष्णा’ में। उसके बाद कुछ एक-दो शॉर्ट फिल्म बनाईं, जो कुछ मजाकिया सी थीं, जो उस वक्त के माइंडसेट से निकली थी, बन गईं। फिर अहम मोड़ तब आया जब लगा कि यार फीचर फिल्में बनानी हैं। उसके पहले मैंने एक-दो स्क्रिप्ट लिखीं थीं जो बननी बाकी हैं, उसी दौरान लिखी गई थी ‘पैडलर्स’ जो अब बन भी गई। अब लॉजिक बिठाना चाह रहा हूं तो समझ नहीं आ रहा कि कैसे बनी। उसके पहले आठ साल बैंकिंग में था। पहले आइडिया ही नहीं था, फिर फिल्मलाइन में आना था मगर घरवालों को बोलने की हिम्मत नहीं हुई। उस दौर में तब जो-जो होता गया करता गया।

कौन से बैंक में काम किया और जॉब क्या-क्या कीं? क्या सोचते थे?
मुंबई में आईसीआईसीआई बैंक में था। उसके बाद एक सॉफ्टवेयर सेल्स कंपनी में था जो डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बनाती थी आईएसओ सर्टिफाइड कंपनियों के लिए। तो वहां पर मैं काफी इंडस्ट्रियल बेल्ट घूमा। फैक्ट्रियों में जाकर डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बेचता था। बीच में कुछ वक्त विज्ञापन कंपनी ‘मुद्रा’ में रहा। ऐसे ही कुछ न कुछ करता रहा। कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं था कि करना क्या है करियर में। बस जो काम मिलता गया, करता गया। हर तीन-चार महीने में काम छोड़ भी देता था, पसंद नहीं आता था। यूं ही बस भटकने वाला लक्ष्यहीन अस्तित्व था। फिर खुशकिस्मती रही कि अनुराग कश्यप मिल गए। उसके बाद एक तरह से निश्चय हो गया कि यही होना है अब, भले ही इसमें सफल हों या न हों पर फिल्ममेकिंग को ही शायद अपना वक्त दूंगा।

जयदीप साहनी के बारे में ये था कि अपनी नौकरी से संतुष्ट न थे तो बॉस को इस्तीफे में लिखा कि ‘तेरी दो टकेयां दी नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए...’। कहीं ऐसा तो नहीं था जब आप बार-बार जॉब छोड़ रहे थे या बाद में ही महसूस हुआ जब अनुराग मिल गए कि फिल्में बनानी हैं?
फिल्में बनाने का शौक हमेशा था। यही था कि एक दिन चेन्नई जाऊंगा और मणिरत्नम के साथ काम करूंगा। लेकिन कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घरवालों को बताऊं। या शायद ये कि जिस दिन बताऊंगा तो वो सोचेंगे कि मैं एक पलायन का रास्ता ढूंढ रहा हूं... कि ऐसे ही जबर्दस्ती का कुछ बोल रहा हूं। और सबको पता ही था कि फिल्ममेकिंग मुश्किल चीज होती है घुसने में ही। किसी को विश्वास नहीं था कि अगर मैंने एक चीज बोली है तो करूंगा या उस चीज पर रुका रहूंगा। जब जॉइन किया अनुराग कश्यप को और उन्होंने देखा कि ऐसा नहीं है ये किसी दोपहर को आ नहीं रहा है या ये नहीं कह रहा है कि मैंने नौकरी छोड़ दी... उन्होंने देखा, एक साल, दो साल, तीन साल, चार साल, मैं जुड़ा रहा लगातार तो उनको भी भरोसा हो गया कि हां, ये शायद यही करना चाहता है। क्योंकि इतने लंबे वक्त तक उन्होंने किसी भी दूसरी चीज में मेरा इतना समर्पण देखा ही नहीं था। वो जब थोड़े संतुष्ट और आश्वस्त हो गए तो मुझे भी अच्छा लगा कि हां, शायद में भी कुछ ठीक ही कर रहा हूं।

अब माता-पिता क्या कहते हैं, छोड़ दो ये काम या करते रहो?
वो कह रहे हैं कि करता जा। वो अभी ये नहीं कह रहे कि पैसे कमाओ, ये करो, वो करो... वो कह रहे हैं शायद तुम्हें कुछ कहना है तुम कह दो वो। और कुछ नहीं हो पाया तो आ जाओ, घर ही आ जाओ। अभी वो करियर और उन चीजों को लेकर टेंशन में नहीं हैं। उन्हें पता है कि ये जो भी है अपने पैशन में कर रहा है। उस चीज को लेकर वो आश्वस्त हैं कि अभी मैं छोड़कर नहीं आऊंगा।

आपका बचपन कहां बीता और बच्चे थे तब कैसे थे?
बॉम्बे (मुंबई) के अंदर एक छोटा शहर है माटूंगा। वहां जितने भी लोग हैं वो एक-दूसरे के दादा-परदादा सबको जानते हैं। वह बॉम्बे की एक अजीब सी सुखद जगह है। बॉम्बे अप्रवासियों से बना हुआ है.. तो इमिग्रेंट हिस्ट्री दस-पंद्रह साल होती है या ज्यादा से ज्यादा बीस साल, लेकिन मेरे दादा तक बॉम्बे से हैं और मेरे मां-पिताजी की पढ़ाई तक यहीं हुई है, उनका बचपन भी यहीं बीता है। तो बहुत दिनों तक ये अहसास ही नहीं था कि बहुत बड़े शहर में रह रहा हूं। जब गांव जाता था तब अहसास होता था... लोग बोलते थे कि अरे बॉम्बे से आया है। नहीं तो मुझे अपनी लाइफ और उनकी लाइफ में कुछ खास फर्क नहीं लगा। वही किराने की दुकान में जाते थे, वही सब लोग मिलते थे, सबकुछ वही होता था। इस तरह बहुत ही मासूम और भोली परवरिश थी। फिर कॉलेज गया और बाहर दुनिया देखी। तब तक मैं 20 साल का था तो कोई सवाल ही निरर्थक था और किसी को पूछता भी नहीं था कि आप कहां से हो... जब समझने लगा तो लगा कि मैं ही अल्पसंख्या में हूं। तब वो कल्पना और अपना घर छोड़कर जाना बहुत आकर्षक लगा। क्योंकि जितने भी लोगों को मिला वो दो-तीन बार अपना घर बदल चुके थे, स्कूल बदल चुके थे, मेरा कोई ऐसा अनुभव था ही नहीं। एक ही स्कूल था, एक ही कॉलेज था, एक ही घर था और सब-कुछ बहुत सैटल्ड सा था। मैं अपने आप में अनसैटल्ड होता था कि मैं इतना सैटल्ड क्यों हूं। और पता नहीं कुछ सवाल हैं जो अपने आप के लिए आप खड़े कर लेते हो, जो इश्यू हैं ही नहीं, मैं भी कुछ ऐसे ही इश्यू से जूझता था अपने आप में। फिल्म बनानी है? नहीं बनानी है? मेरे आसपास ऐसा कोई नहीं था जो इस कला में या फिल्मों में रुचि रखता हो। मैं फिल्में देखता था और कहता था तो सब कहते कि अच्छा फिल्में बनानी है तो पहले कन्फर्म कर ले कुछ। मुझे उसमें से निकलने में ही काफी वक्त लग गया। ये मासूमियत वाला दौर था। एक बार जब इंडस्ट्री आया और देखा सब, तो मालूम पड़ा कि क्या स्ट्रगल है। पर पता नहीं क्यों तब तक एक निश्चय हो गया था कि बस यही करना है, मतलब मैं खुद अपने अनिर्णय की स्थिति से थक चुका था। अंत में जब यहां आया तो तय कर लिया कि अब यही करना है, जो भी हो। आर या पार।

लेकिन वासन, माटूंगा की अपनी जिस अपब्रिंगिंग का आप जिक्र करते हैं, वो एक तरह से वही सामाजिक  परवरिश रही कि वहां एक-दूसरे की केयर बहुत थी, एक-दूसरे के दादा-परदादा का नाम जानते थे। मैं राजस्थान से हूं तो 60-60 गांव दूर लोग एक-दूसरे को जानते हैं, वो बता देंगे कि 60 गांव दूर वो रहते हैं आप इस रास्ते से चले जाइए। तो माटूंगा की ऐसी परवरिश के संदर्भ में क्या आप मानते हैं कि खुशनसीब रहे क्योंकि आने वाली पीढ़ी को वैसा लालन-पालन नसीब नहीं होगा। संभवतः एक फिल्मकार के तौर पर भी आपको अपनी उस परवरिश का बहुत फायदा मिलेगा।
...और एक तरह से मैं भी जब देखता हूं तो हमारी जेनरेशन थी, जैसे आपकी और मेरी भी शायद, वो लास्ट ऑफ द वीएचएस जेनरेशन है.. वो जो दो-दो रुपये कॉन्ट्रीब्यूट करके वीएचएस में फिल्म देखते थे, मतलब पहुंच थी भी और नहीं भी थी, पर उन सीमित विकल्पों में ही इतना खुश रहते थे कि यादें बहुत मजबूत हैं। मेरे ख्याल से उस तरह का सिनेमा जो बनेगा अब आगे जाकर, अभी उसका आखिरी चरण चल रहा है। उस तरह की यादों का भी। उसमें भी मैं अपने साथियों में देखता हूं और ढूंढता हूं तो लगता है और हम बात भी करते हैं कि हां, ये लास्ट फेज है नॉस्टेलजिया का। और मैं उत्साहित भी हूं कि आने वाली पीढ़ी एक नई सोच लेकर आएगी, उसके लिए हम कितने खुले दिमाग के होते हैं और उसे स्वीकार करते हैं। मेरे लिए भी चैलेंज होगा क्योंकि मुझे लगता है कि हम बाऊंड्री पुश करते हैं, पर आने वाली पीढ़ी जो अपना ही माइंडसेट और अपनी ही चॉयस लेकर पली-बढ़ी है, वो जब पुश करेगी तो हम स्वीकार करेंगे क्या? और जो 19-20 साल के युवा अनुराग कश्यप को असिस्ट करने आते हैं उनमें एक बहुत ही अजीब सी आग है, तो उनके काम को देखने के लिए मैं बहुत उत्साहित हूं।

इस उत्सुकता में जरा डर भी है कि यार कुछ ऊट-पटांग तो नहीं कर देंगे?
मुझे तो लगता है कि अपने स्पेस में सुरक्षित महसूस करना चाहिए। अगर कुछ काम कर पाए तो शायद, और नहीं भी कर पाएं तो शायद, उतना ही था आपका उद्देश्य। इसलिए उस बात को लेकर कोई चिंता नहीं है कि आगे आकर कोई कमाल कर जाए... क्योंकि अंततः मैं एक कमाल फिल्म देखना चाहता हूं और अपना कमाल काम दिखाना चाहता हूं। काम जितनी ईमानदारी और मेहनत से कर पाऊं वो तो करूंगा ही पर मजा तो वही है कि आप थियेटर में जाकर फिल्म देखते हो, वो किसी की भी हो और अच्छी हो तो क्या बात है। अपने दायरे में सुरक्षित हूं। बेहतर लोग तो रहेंगे ही और हमसे लोग बेहतर हों तो उनसे सीखने को मिलेगा। छोटा हो बड़ा हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।

फिल्म बनानी है, अगर आपके लहजे में कहूं तो ये कचरा आपके दिमाग में डालनी वाली फिल्में कौन सी रहीं?
मेरे माता-पिता चूंकि काम करते थे तो बचपन में मेरी एक केयर टेकर होती थी, वनीता। वो अमिताभ बच्चन की बहुत बड़ी फैन थी। और गणपति में हमारे यहां भी, जैसे ‘स्वदेश’ आपने देखी होगी वो जैसे परदे लगाकर फिल्म दिखाते थे, वैसे फिल्म दिखाई जाती थी और वो मेरी मां को झूठ बोलती थी कि वासन तंग कर रहा है कि उसे अमिताभ बच्चन की फिल्म देखनी है, जबकि देखनी उसे होती थी और वो मुझे लेकर चली जाती थी। उस वक्त मैं महज तीन या चार साल का था पर वो कभी भूल नहीं पाता। मेरे ख्याल से वहीं से शुरू हो गया था। अगर ऐसा फिल्मी कीड़ा या कचरा मेरे अंदर भरा है तो उसका श्रेय वनीता को जाता है। मैं उसकी गोद में सिमटा रहता था और वो मुझे लेकर घूमती रहती थी फिल्म दिखाने। उसके बाद जब वीएचएस घर पर आया तो पिताजी ने मुझे ‘जैंगो’ और ‘वेस्टर्न्स’, ‘ब्रूस ली’ और ‘स्टीव मेक्वीन’ की फिल्म और बहुत सारी ‘एक्शनर्स’ से दिखाईं। उस तरह पिताजी ने असर डाला। उसके बाद जाहिर है जब एक उम्र में आप आ जाते हो तो खुद ही ढूंढने—जानने लगते हो। तो मेरी शुरुआत तो पिताजी ने और वनीता ने की।

बचपन की पांच-छह ऐसी फिल्में बताइए जिनका सम्मोहन आज फिल्म निर्माण के तमाम तकनीकी पहलू जानने के बावजूद आपके लिए कम नहीं हुआ है?
बिलाशक एक तो ‘मिस्टर इंडिया’ (शेखर कपूर) है। जब भी देखता हूं, मुंह खुला का खुला रह जाता है। दूसरी, ‘शक्ति’। उसे जब मैंने देखा तो उस उम्र में भी मैं थोड़ा हिल गया था, पता नहीं उसके अंदर का गुस्सा था, दुख था या तीक्ष्णता थी। उस फिल्म को मैं आज भी देखता हूं तो यादों में लेकर चली जाती है। उसके अलावा ‘द नेवर एंडिंग स्टोरी’ (1984, वॉल्फगॉन्ग पीटरसन) थी जिसे जब देखा तो बहुत प्रभावित हुआ लेकिन हाल ही में फिर देखी तो पता चला कि बहुत खराब बनी थी। फिर एक जापानी फिल्म देखी थी जिसका नाम भी मुझे याद नहीं है। तब मैं शायद छह या सात साल का था। वो कहानी थी एक स्कूल टीचर की और एक अनाथ बच्चे की। वो कहानी अब भी याद करता हूं तो अटक जाता हूं, दूरदर्शन दिखाता था ये सब। शुरुआती प्रभाव तो ये ही थे। गुरुदत्त की कुछ फिल्म तब भी स्ट्राइकिंग लगीं थीं। ‘प्यासा’ जब देखी, मतलब कुछ समझ में तो नहीं आया था पर कुछ था उन विजुअल्स में जो उनकी ओर खिंचता चला गया।

‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ और ‘देव डी’ की कास्टिंग के वक्त क्या सीखा?
क्योंकि कास्टिंग डायरेक्शन भी जरूरी रोल होता है। जैसे गौतम (किशनचंदानी) ने अनुराग की फिल्मों की, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की और तिग्मांशु धूलिया ने ‘बैंडिट क्वीन’ की कास्टिंग की थी। जैसे गौतम ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ में की थी और ‘देव डी’ में भी वही कास्टिंग डायरेक्टर थे, मैं उनका सहयोगी था। उन्होंने बहुत आजादी मुझे दी और उनसे बहुत सीखा। अनुराग से भी सीखा और राजकुमार गुप्ता से बहुत कुछ सीखा। राजकुमार गुप्ता से एक तरह से अनुशासन सीखा। वो जितने अनुशासन और ध्यान केंद्रित करके काम करते हैं, मैं आज भी अगर आलस महसूस करता हूं तो उन्हें याद कर लेता हूं और ठीक-ठाक काम करने लगता हूं। अनुराग की टीम में तो हरेक से ही सीखने को मिलता है। वो एक कमाल मैदान है सीखने का।

लेकिन कास्टिंग करने के दौरान सबसे बड़ी सीख क्या रही?
वो ये कि आप किसी भी चीज को काबू में करने की कोशिश न करो। अनुराग कश्यप जैसे अपने एक्टर्स से पेश आते हैं। वो कंट्रोल में किए बिना कंट्रोल करते हैं उनपर। कभी एहसास नहीं होने देते कि मैं डायरेक्टर हूं, मैं बताता हूं। ये उनका तरीका बिल्कुल ही नहीं है। वो भ्रम होता है न कि डायरेक्टर ही सबको सबकुछ बताता है, वो टूट गया उनके साथ काम करके क्योंकि वो बहुत ज्यादा आजादी देते हैं सबको और उस आजादी में भी अपना एक कंट्रोल रखते हैं। वहां आपके काम को इज्जत मिलती है, न कि आप डिक्टेशन लेते रहते हो। ये कमाल सीखें रहीं जो जिंदगी भर साथ रहेंगी। मैं भी लोगों को आजादी देना चाहूंगा और उनपर विश्वास रखना चाहूंगा और कभी असुरक्षित नहीं होउंगा।

माइकल विंटरबॉटम के साथ आपने ‘तृष्णा’ में सहयोग किया राजस्थान में शूटिंग में...
उनका बहुत ही अनइमोशनल (अभावुक) अप्रोच है। मैथोडिकल नहीं कहूंगा, ऑर्गेनिक ही है पर वह इमोशन में नहीं बहते, वह पल की सच्चाई को ढूंढते हैं। ये बड़ा अनोखा गुण है जो उनमें मुझे बहुत अच्छा लगा। बहुत ही स्पष्ट और तकरीबन मिलिट्री अनुशासन के साथ काम करते हैं माइकल। वो मैंने भी आजमाया, जाहिर है उन जितना तो नहीं कर पाया.. जो कि एक रेजिमेंटेड स्टाइल ऑफ फिल्ममेकिंग है जो किसी भी इमोशनल बहकावे में नहीं आती और ऑब्जेक्टिव रहती है। ये एक ऐसी चीज है जो जिदंगी में कभी न कभी हासिल करने की कोशिश करूंगा। चाहे पांच-दस परसेंट ही हो।

डायरेक्टर के काम में अनइमोशनल अप्रोच को थोड़ा और समझाइए…
वह अपने काम में इमोशनल हैं, पर जो सतह पर भावुक होना होता है वो उन्होंने खुद में से पूरी तरह से निकाल बाहर किया है। उनकी कहानी में, उनके काम में इमोशन हैं, पर सतही तौर पर नहीं है बल्कि बहुत गहराई में हैं। उस स्थिति को हासिल करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हम सतही तौर पर तो काफी भाव अपने में दिखाते हैं पर उसे गहराई में ले जाकर सतह पर से मिटा देना, सतह की बिल्कुल ही परवाह न करना, वो मैंने उनमें देखा। ये बहुत ही प्रेरणादायक लगा। ऐसा वर्क अप्रोच मैंने नहीं देखा है। ये एक तरह से धोखा देने वाला, छलने वाला भी है क्योंकि आप बाहर से नहीं देख पाते हो वो इमोशन। पर अंदर से वो उतने ही भावुक हैं, शायद ज्यादा भी हों। सतह के इमोशंस का रुख मोड़ने या मिटाने से एक अलग लेवल की वस्तुपरकता (ऑब्जेक्टिविटी) आती है आपकी फिल्मों में। आप जबर्दस्ती के इमोशन थोपते नहीं हो लोगों पर। आप अपना नजरिया देते हो पर दर्शकों की आजादी का भी ख्याल रखते हो। कि अगर दर्शक चुनना चाहें किसी पल को महसूस करने के लिए तो वह खुद महसूस करें न कि फिल्म का म्यूजिक और एक्सप्रेशन उस पर लादें। क्योंकि जैसे हिंदी फिल्मों में एक प्रथा रही है कि अलग दुख है तो सारी परतें दुखी होंगी। म्यूजिक भी दुखभरा होगा, एक्सप्रेशन भी दुखभरे होंगे और आसपास के लोग भी दुखी हो जाएंगे। इस तरह हमें किसी और इमोशन को महसूस करने की आजादी ही नहीं है। माइकल की फिल्मों में मुझे वो ऑब्जेक्टिविटी अच्छी लगी कि किरदार का दुख दर्शक तय करेगा महसूस करना है कि नहीं करना है न कि हर सिनेमैटिक टूल यूज करके उस पर लादा जाएगा।

‘तृष्णा’ की शूटिंग राजस्थान में कहां हुई और उस दौरान का क्या याद आता है आपको?
ओसियां (जोधुपर) में और सामोद बाग में हुई शूटिंग। मुझे ओसियां का सबसे अच्छा लगा। हमें फिल्म में फ्रेडा पिंटो (‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ फेम) के लिए एक परिवार ढूंढना था। माइकल ने एक असल परिवार ढूंढा और उनके साथ फ्रेडा को ढलने को कहा। उसके एक हफ्ते बाद हमने उस फैमिली के साथ शूटिंग शुरू कर दी, डॉक्युमेंट्री के अंदाज में, जैसे वो जब सोकर उठते थे तभी हम शूट करते थे। वो जब चाय बनाते थे तभी हम भी शूट करते थे। खाना बनाते थे, हम तब शूट करते थे। उनके बच्चे जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल जाते हुए शूट करते थे। किसी भी तरह की कोई मिलावट या छेड़छाड़ नहीं थी, कोई कंट्रोल लादा नहीं गया। मेरा काम वहां ये था कि हिंदी में उन लोगों से बातचीत कर पाना और उन्हें ये बताना कि अपने रोजमर्रा के काम के अलावा कुछ न करें। मेरी जिम्मेदारी बस उन्हें समझाना था कि आप जो करते हो करते रहो। लोगों या कैमरा से सतर्क होने की जरूरत नहीं है। उस दौरान की गई बातचीत और सबक काफी काम आए जब अपनी फिल्म बनाई। कि प्राकृतिक माहौल में कैसे शूट करते हैं और कैसे लोगों की सतर्कता कैमरे के लिए खत्म कर देते हैं।

माइकल की कौनसी फिल्में बहुत अच्छी लगती हैं?
‘इन दिस वर्ल्ड’ (2002) और ‘द किलर इनसाइड मी’ (2010) को देखकर मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ था।
Poster of Peddlers.

‘पैडलर्स’ जैसी जो गैर-वित्तीय तरीके की फिल्में हैं, न बनने में ज्यादा पैसे लेती हैं, न ज्यादा पैसे उगाहती हैं... तो आने वाले वक्त में पेट के लिए क्या करेंगे? क्या बॉलीवुड का रुख करेंगे या अपनी तरह की फिल्मों में ही कुछ बदलाव करेंगे? आपका यकीन मणिरत्नम की बनाई फिल्मों में है जो कलात्मक रूप से बहुत अच्छी हैं और लोगों का उतना ही ज्यादा मनोरंजन करती हैं?
मेरे ख्याल से आगे जिंदगी में जब, जो भी ईमानदारी से महसूस होगा, जो भी उन पलों की सच्चाई होगी... बिना कुछ डिजाइन किए कि ये कमर्शियल होंगी या ये नॉन-कमर्शियल होंगी। मैं किन्हीं पहले की सोची-समझी धारणाओं के हिसाब से नहीं बनाऊंगा। उस वक्त जिंदगी के उस पल में, उस पीरियड में वो आ जाएंगी अपने आप। वो आर्ट भी हो सकती हैं वो कमर्शियल भी हो सकती हैं। अभी अगर ‘पैडलर्स’ से दस लोग जुड़ा हुआ महसूस करते पाते हों, तो हो सकता है मेरी अगली स्टेट ऑफ माइंड से कोई और दस लोग कनेक्ट करें। तो फर्क ये होगा न कि फिल्म कैसी होगी ये। फिल्ममेकिंग अप्रोच और इंटेंशन वही रहनी चाहिए, बस स्टेट ऑफ माइंड के हिसाब से फिल्म और ऑडियंस बदल जाएगी।

आप जैसे नए फिल्मकारों के साथ ये है कि बहुत पैसा आप नहीं कमा रहे फिर भी पैशन जिंदा है, इसकी वजह क्या है, ये कब तक रहेगा या आपके हिसाब से कब तक रहना चाहिए?
अब पैशन जिंदा तो.. कह नहीं सकते.. कल ही मेरी शादी हो गई और कल ही मैं सोच लूं कि नहीं भाई ये जो मैं कर रहा हूं गलत कर रहा हूं.. मेरे ख्याल से ये उस मूमेंट की ऑनेस्टी है और ये जब तक रहे सही दिशा में रहे। मतलब ये जो पैशन और बातें हैं ये कोई और फॉर्म में न रहे। तो बताना मुश्किल रहेगा कि कब तक रहेगा। क्यों है, ये भी नहीं बता पा रहा हूं।

‘मूमेंट की ऑनेस्टी’ की जो बात आप करते हैं, ये कहां आपने अंततः एक बड़े सच के तौर पर स्वीकार किया अपने जीवन में? कि जो पल है बस उसी में जीना... ये किससे सीखा? किसी किताब से, माता-पिता से या फिल्में बनाते हुए महसूस किया या खुद ही खोजा?
ये अनुराग और माइकल विंटरबॉटम के साथ काम करते हुए ही महसूस किया और सीखा। हां, कहीं न कहीं ये बात अंदर रही होगी पर अनुराग और माइकल के साथ काम करते हुए उसका एक आर्टिक्युलेशन (स्पष्ट समझ और समझाइश) मिल गया मुझे। उसकी एक स्पष्ट तस्वीर मिल गई। ये काम के दौरान ही हुआ और संभवतः और भी स्त्रोत रहे होंगे, जो सबकॉन्शियसली और भी गाढ़ा बनाते रहे होंगे इस विचार को।

आपने एक बार कहीं कहा कि जब पहली फिल्म बनाई तो दिमाग में जो बहुत सारा कचरा होता है वो निकल गया। किस संदर्भ में कहा और वो क्या ये था कि फिल्म बनाने से पहले जो पचास तरह के असमंजस होते हैं या पचास तरह की हेकड़ी होती है कि ये ऐसे हो जाता होगा या ये वैसे हो जाता होगा, या मान लें ये चीज ऐसे करें तो बेहतर है, या उसे बहुत ज्यादा हाइपोथैटिकली ले लेते हैं या इग्जैजरेट (बढ़ा-चढ़ा लेना) कर लेते हैं पहले ही। ये किस सेंस में था?
आपने बहुत सही बात बताई है, आखिर में जो दो-तीन चीजें कहीं। एक तरह से ये इन्हीं बातों का मिश्रण था। कचरा जो है उसे मैं बहुत नेगेटिव तरीके से नहीं लेता हूं। क्योंकि वो निकालना जरूरी है सिस्टम से। कभी न कभी वो कचरा सेहत के लिए खुराक बना होगा जो अब निकालना जरूरी था। उससे आगे बढ़ना जरूरी था। जो ये भाव मेरे भीतर थे एलियनेशन, निराशा और दिशाहीन होकर जीने के... मेरे ख्याल से इनका एक हिस्सा ऑफलोड हो गया, बाहर निकल गया, इस फिल्म के साथ। तो मैं आगे और शायद सकारात्मक रहूं, अपने आपको बांधकर न रहूं। जैसा कि मेरे कैरेक्टर खुद को बांधकर रखते हैं, मैंने भी बांध रखा था खुद को, अपनी ही रजामंदी से, वो कचरा बाहर निकल गया। अपनी कैद से रिहा होना भी एक बड़ी बात थी जो ‘पैडलर्स’ बनाकर हुई।

आप ‘पैशन फॉर सिनेमा’ (फिल्म वेबसाइट) से जुड़े हुए थे लंबे वक्त तक, फिर आप लोगों ने ये पहल बंद क्यों कर दी?
मैं भी हैरान हूं दरअसल, कि एक-तरह से सब जुड़े थे, अपना काम कर रहे थे, पर पता नहीं वो कायम नहीं रह पाया। कोशिश रहेगी कि शायद आगे फिर से वो वक्त आए, फिर से वो प्लेटफॉर्म हो। हालांकि अब तो ट्विटर है, फेसबुक है। पैशन फॉर सिनेमा तब थी जब दोनों सोशल मीडिया वाले माध्यम नहीं थे। अपने विचार जाहिर करने के लिए, बातचीत करने के लिए सम्मिलित मैदान नहीं था। अब ट्विटर और फेसबुक आ गए हैं तो कहीं न कहीं पैशन... के न होने की भरपाई हो जाती है। वही लोग हैं जो लिखते थे या लिखना चाहते थे और अब उन्हें नया मंच मिल गया है, साथ हैं। जो बातें वो लोग कहना चाह रहे हैं कह ही रहे हैं। यादें आती हैं पर कमी महसूस नहीं होती।

लेकिन उसी मंच पर आप लोगों ने अपनी कल्पनाएं और विचार बांटें होंगे, क्योंकि आज कई स्वतंत्र फिल्मकार हैं जो उसी मंच से निकले हैं...
सौ फीसदी। जैसे मंजीत सिंह हैं, हंसल मेहता सर हैं। हम लोग सभी किसी न किसी बिंदु वहां रह ही चुके हैं और आने वाले कुछ फिल्ममेकर भी हैं जो वहां रह चुके हैं। आप सही कह रहे हैं वो एक तरह से जेनेसिस बन गया था।

‘51वें कान फिल्म फेस्टिवल’ में खुद की फिल्म लेकर जाना, उसे वहां शो करना, लोगों के सवालों के जवाब देना और दूसरी बहुत सी फिल्में देखना भी... ये कैसा रहा?
बेशक जानता था और इसके बारे में सुना भी था पर गया पहली बार था। बहुत ही जिंदा अनुभव था, उम्मीदें तो थीं ही नहीं कि आप वहां तक पहुंच जाओगे। लिहाजा बड़ी बात थी। पर सबसे अच्छा ये लगा कि अपने जैसे पहली बार के फिल्ममेकर्स को देखा। उनसे बात की, उनकी स्ट्रगल जानी तो एक चीज जानी कि दुनिया भर में स्वतंत्र सिनेमा (इंडिपेंडेंट सिनेमा) का जो परिदृश्य है वो एक जैसा ही है। और उतना ही मुश्किल है हरेक के लिए अपने मौलिक विचारों और जिद वाली फिल्म बनाना। उनसे बात करके यूं अच्छा लगा। और कान में माइकल हैनिके की फिल्म, जो वो जीते थे, उसे वहां बैठकर देखना अपने आप में अनुभव था। वहां मैं ‘ऑन द रोड़’ (वॉल्टर सालेस) देखने के लिए जा रहा था और जब लिफ्ट में चढ़ा तो अमीर कुस्तरिका अंदर खड़े थे। कुस्तरिका की जो फिल्में हैं ‘ब्लैक कैट, वाइट कैट’ (1998) और ‘अंडरग्राउंड’ (1995) वो देखकर मैं हैरान रह गया था। वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगा कान के, शायद जिंदगी भर याद रहेंगे। कोई बात नहीं हुई मेरी उनसे पर वो 40 सैकेंड मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं कि लिफ्ट में मैं उनके साथ था। पूरे फिल्म फेस्ट में हैरतअंगेज पल बस वही थे।

2012 की हिला देने वाली फिल्में कौन सी रहीं आपके हिसाब से?
वो तो एक ही है आनंद गांधी की ‘शिप और थीसियस’। आनंद बहुत ही स्पेशल फिल्ममेकर हैं। बहुत ही कमाल फिल्म बनाई है उन्होंने। तमिल में एक फिल्म बनी है ‘कुमकी’ जो एक महावत और उसके हाथी की कहानी है। म्यूजिक से लेकर उसे जैसे शूट किया गया है, जिस महत्वाकांक्षा के साथ बनाई गई है तो वो मुझे इस साल तमाम इंडियन फिल्मों में अच्छी लगी। एक और फिल्म है जिसे अपनी जिद और आइडिया के लिए मैं सलाम करता हूं वो है ‘मक्खी’। ऐसा विचार दिमाग में लाना इस देश में और उसे कमर्शियल लैवल पर सफल बनाना मुझे नहीं लगा कि कभी संभव था। इस फिल्म से भी मैं काफी हैरान रहा। कि हर आइडिया में आपका जो यकीन है... जिसे हर बिंदु पर आप खारिज कर सकते हो स्टूपिड और सिली कहकर, ऐसा हर पड़ाव उन्होंने (मक्खी के निर्देशक राजामौली) ने पार किया।

कुमकी किस बारे में है?
एक महावत और एक उसका दोस्त होता है। उनका एक हाथी होता है जिसका नाम कुमकी है। वो घूमते-घामते एक गांव में आते हैं जहां कुम्मन नाम का एक और हाथी है जो खेतों को उजाड़ देता है। तो गांव में एक ऐसे हाथी की तलाश है जो कुम्मन का मुकाबला करे और उसे खेतों से बाहर रखे। लेकिन कुमकी जो है वो थोड़ी डरपोक सी है। महावत को वहां गांव की एक लड़की से प्यार हो जाता है और वो वहीं रुक जाते हैं। वहां वो ये झूठा दावा कर देते हैं कि कुमकी ये कर देगी। आगे की कहानी वह लव स्टोरी है और महावत का हाथी के साथ बदलता रिश्ता है। प्यार और बलिदान की कहानी है। ये वैसे ही है जैसे ‘मक्खी’ में था कि जानवरों में जो इंसानी जज्बा होता है उसे भुनाया गया, वैसा ही कुमकी में किया गया। बहुत ही भव्य और सम्मोहित कर देने वाले दृश्यों के रूप में।

क्या आपने पंजाबी फिल्म ‘अन्ने घोड़े दा दान’ देखी? कैसी लगी?
मैंने देखी है और मुझे काफी अच्छी भी लगी। ऐसा कहा जाता है कि वो (गुरविंदर सिंह, निर्देशक) मणि कौल जी की धारा पर फिल्में बनाते हैं। वो विजुअली बहुत स्टनिंग थी और बिना कुछ कहे काफी कुछ कह गई। एक तरह से वो बोलते हैं न अंदरूनी चोट, वो देकर जाने वाली फिल्म बनाई उन्होंने, जो बिना कुछ कहे, बिना कुछ बढ़ाए-चढ़ाए, यहां तक कि उस फिल्म में तो डायलॉग भी कुछ नहीं थे। उन चेहरों, उस वातावरण और उस मौसम को लेकर ही उन्होंने कुछ कमाल कर दिया।

हमेशा ‘तीसमारखां’ जैसी फिल्में भी आती रही हैं जो 80-100 करोड़ में बनती हैं जो 8 रुपये का नतीजा भी नहीं दे पातीं... क्या ऐसी फिल्मों का समाधान ‘पैडलर्स’ और ‘शिप ऑफ थीसियस’ है?
नहीं, उसका समाधान तो ये फिल्में नहीं हैं, पर एक तरह से अगर आप आर्थिकी (इकोनॉमिक्स) देखें तो अगर आज 5,000 थियेटर हैं भारत में, तो वो सभी एक ‘तीसमारखां’ और एक ‘दबंग-2’ के लिए बने हैं। और उस बीच हम अपनी फिल्म उन थियेटरों में घुसा सकते हैं। बाकी बातें करने की बजाय हमें ये देखना चाहिए कि उनमें हम अपनी फिल्में घुसा कैसे सकते हैं। क्योंकि वहां जो पॉपकॉर्न है और प्रति सीट रख-रखाव का जो खर्च है उसकी भरपाई इन फिल्मों से होती है। अगर वास्तविक होकर देखें तो हमारी फिल्मों से वो भरपाई नहीं होती। और न ही हमारे यहां ऐसे कोई सरकारी थियेटर हैं कि पहल करके सिर्फ स्वतंत्र फिल्में (इंडि) ही वहां दिखाईं जाए। क्योंकि कमर्शियल हो या आर्ट, बीच में मीडियम तो वही है। हमें देखना चाहिए कि उनका इस्तेमाल कैसे करें। क्योंकि रख-रखाव का खर्च तो उन्हीं से आता है। उनसे लड़ने की बजाय हमें हमारे सह-अस्तित्व की कोई जमीन तलाशनी चाहिए। क्योंकि अगर इतनी फिल्में बन रही हैं और इतनी तादाद में लोग देख रहे हैं तो शायद कोई वजह है। कम से कम हम लकी हैं कि 5000 थियेटर हैं, उनमें से शायद 100 थियेटर हमें मिल जाएं या 200 मिल जाएं 300 मिल जाएं। लड़ाई तो जारी रहेगी जहां वितरक बोलेगा कि भई आपकी फिल्म तो चलती नहीं है। दर्शक भी भिन्न-भिन्न रुचियों के और पढ़े-लिखे हो चुके हैं। उदारवाद (पोस्ट लिबरलाइजेशन) के बाद से इतना सुधार आया है, हालांकि पॉकेट्स में ही, ये नहीं कहूंगा कि पूरा देश बदल गया है। तो धीरे-धीरे वहां से फायदा उठाना शुरू कर सकते हैं। और अगर हमारी पीढ़ी को ये फायदा न हो तो आने वाली एक, दो, तीन और चौथी पीढ़ी को तो सौ फीसदी होगा। जैसे श्याम बेनेगल, शेखर कपूर और गोविंद निहलानी ने अपने वक्त में मुकाम बनाया जिसकी वजह से एक राम गोपाल वर्मा और एक अनुराग कश्यप आए तो उनसे शायद हम आए होंगे और हम से शायद कोई और आएंगे। ये और बेहतर ही होता जाएगा।

जब आप फिल्मों की दुनिया में नहीं थे तो बहुत से फिल्मकारों के बारे में सोच अवाक रह जाते होंगे, कि ये बंदा है इसने ये बनाई है, वो बनाई है, जब आप उनसे मिलते गए और सिनेमा बनाना सीखते गए तो क्या उसके बाद भी अवाक होते हैं या वो विस्मयबोध अब चला गया है कि ये तो ऐसे ही बनती है, उसने बना ली होगी वैसे ही?
अनुराग कश्यप से एक बड़ी सीख थी कि प्रभावित होते रहना। मतलब उनमें अब भी वो विस्मयबोध है कि किसी फिल्म को देख कर अपना जबड़ा तोड़ लेते हैं कि ये क्या पिक्चर बना दी। मैंने देखा है कि बहुत से लोग जो इतनी फिल्में देख चुके हैं वो एक तरह से प्रभावित होना बंद कर चुके हैं। उनको कुछ भी इम्प्रेस नहीं करता। सबकुछ एक तरह से खारिज कर देते हैं कि हां, ये तो ठीक है, ठीक है। तो मुझे अनुराग सर में वो अच्छा लगा और आज भी अगर रमेश सिप्पी सामने आ जाएं तो जरूर अवाक रह जाऊंगा कि उन्होंने ‘शोले’ बनाई थी। आज भी राम गोपाल वर्मा सामने आएं तो उनकी मौजूदा फिल्में चाहे जो भी हों, उनकी ‘सत्या’ ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया था, मैं अभी भी उनकी ऑ में रहूंगा। हां, जब आपका व्यक्तिगत रिश्ता होता है तो ये बदल जाता है जैसे अनुराग कश्यप दोस्त हैं पर एक फिल्ममेकर के तौर पर तो अभी भी मैं उनकी ऑ में हूं। दोस्त के रूप में मैं उन्हें चार चीजें कह दूं या वो मुझे चार चीजें कह दें पर फिल्मकार के तौर पर मैं अभी भी उनको बहुत मानता हूं और सीखना चाहता हूं।

‘पैडलर्स’ में गुलशन देवय्या हैं, उन्होंने बड़ी खास भूमिका निभाई है। उन्हें ‘यैलो बूट्स...’ और ‘हेट स्टोरी’ जैसी फिल्मों में मैं नोटिस कर रहा हूं... उनमें ऐसा क्या है कि स्वतंत्र और छोटी फिल्मों को एक हीरो के रूप में वह संपूर्ण बना देते हैं। फिल्म में वह खड़े हो जाते हैं तो उसमें शाहरुख खान की कमी नहीं लगती?
उनमें आक्रामकता, विनम्रता और शर्मीलेपन का विचित्र मेल है। वह बहुत बड़े दिल के भी हैं। अपने दायरे में बहुत ही सुरक्षित महसूस करते हैं। चाहे कोई भी चीज हो, उनका अपने काम से ध्यान नहीं हटता। उनकी जो दयालुता है वो परदे के बाहर आकर भी छूती है, जैसे आपको लगता है कि यार इसको देख लूं तो मुझे बड़े हीरो की कमी महसूस नहीं होती। क्योंकि उनके अंदर ही वो विशालता है किसी भी रोल को करने में। वो रोल में रुचि लेते हैं, न कि किसी और चीज में। जिंदगी को लेकर उनके कोई डिजाइन या योजनाएं नहीं हैं। उस पल उन्हें जो अच्छा लगता है वह करते हैं। उसमें उनकी ईमानदारी भी झलकती है और वह बहुत मजेदार इंसान भी हैं। आपको बहुत सहज महसूस करवाते हैं और एक भाईचारा रहता है। ऊपर से वह प्रतिभासंपन्न भी हैं। तो सारी चीजों के साथ अगर टेलेंट भी आ जाए तो किसी भी डायरेक्टर के लिए कम्पलीट पैकेज हो जाता है। वो अपनी एक छाप तो छोड़ ही रहे हैं, लोगों की नजरों में हैं, पर आने वाले दिनों में दमदार काम दिखाएंगे। उनका जो सिक्योर नेचर है उसकी वजह से वो बहुत लंबा चलने वाले हैं। उनका करियर शायद हिट और फ्लॉप पर निर्भर नहीं होगा।

इंडिया में इस साल बहुत कुछ हो गया और जो ये घटनाएं हैं इनसे शायद फिल्मकारों को प्रेरणा मिलती होंगी। चाहे अन्ना का आमरण अनशन हो, केजरीवाल ने जो घोटालों के खुलासे किए थे या उनका जो उभार हुआ है राजनीति में या दिल्ली वाली जो अभी घटना हुई है, या बहुत सी फिल्मी हस्तियां गुजर गईं एकदम से, या अमेरिका में गोलीबारी हुई, या सिलेंडर की रेट बढ़ गई, महंगाई बढ़ गई... तो इतनी सारी चीजें जब होती हैं तो क्या कहानियां निकलती हैं? या ऐसा होता है कि ये घटनाएं साइड से चली जाती हैं और आप कुछ और ही सोचते रह जाते हैं?
ये घटनाएं कहीं न कहीं जेहन में छप जाती हैं। और मुझे ऐसा लगता है कि जैसे ही घटना घटी वैसे ही आप फिल्म बनाने के बारे में सोचो तो वो उस घटना का फायदा उठाना हुआ। अगर उस सोच को सबकॉन्शियसली पकने देते हो अंदर तो एक वक्त के बाद उस गुस्से और निराशा के पार चले जाते हो और हर चीज को बहुत वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिवली) ढंग से देख पाते हो। जो भी घटना होती है वो सबके जेहन में जरूर रह जाती है पर तुरंत कोई रचनात्मक प्रतिक्रिया इसलिए नहीं देता क्योंकि वो उसका मार्केटिंग टूल हो जाता है। दिल दहलाने वाले मामलों और समाज को बदल देने वाले मामलों में तो ऐसी चीजों की सलाह बिल्कुल नहीं दी जा सकती। उस बात को समझकर सही तरीके से दर्शाने के लिए एक वक्त चाहिए होता है ताकि सबकॉन्शियसली आप उसके साथ रहो और फिर एक टाइम आए जब सही नजरिए से आप उसे बता पाओ। नहीं तो अगर दिल्ली के इस अपराध पर कोई फिल्म बना दे तो वो बहुत असंवेदनशील होगा। लेकिन अगर इस घटना के साथ आप रहते हो, समाज पर उसके असर को देखते हो तब एक नतीजे पर आप पहुंच सकते हो कि हां अब एक फिल्म बनाई जा सकती है, इसका ये नजरिया है जो असंवेदनशील नहीं है। यानी ये एक सच्ची नीयत वाला बिंदु हो जो उसका फायदा न उठाए। उसे सनसनीखेज न करे, तभी वो लोगों तक पहुंचेगा भी। तो हां, मेरे ख्याल से जो भी लिख रहा होता है उस पर इन चीजों का असर जरूर पड़ता है और वो सबकॉन्शियस में कहीं न कहीं रह जाता है। और वो कहीं न कहीं, किसी न किसी माध्यम से, किसी न किसी वक्त पर निकलेगा ही।

अभी राम गोपाल वर्मा ने जो ‘द अटैक्ट ऑफ 26/11’ बनाई है तो इसके बारे में आप क्या कहेंगे? ये भी वही चीज कर गई कि देशमुख का इस्तीफा वगैरह हुआ?
जैसे ‘ब्लैक फ्राइडे’ बनी थी, वो धमाकों के दस साल बाद बनी थी। वो इतनी ऑब्जेक्टिव है और इतनी स्पष्ट है कि फिल्ममेकर ने कोई पक्ष नहीं लिया और अपनी राय नहीं थोपी। बल्कि उसने सच्चाई बताई और लोगों ने उस पर राय दी। तो उतनी मैच्योरिटी जरूरी है। जैसे माइकल विंटरबॉटम ने भी ‘सराजेवो’ और ‘गुवेंतानामो’ जैसे बहुत सारे उफनते मुद्दों पर फिल्में बनाईं हैं पर उन्होंने उन चीजों को पकने दिया है, एक तरह से उनका वस्तुपरक रूपांतरण पेश किया है न कि उन्हें सनसनीख़ेज करके दिखाया। मैं आशा कर रहा हूं कि ‘द अटैक्स ऑफ 26/11’ वैसी ही ऑब्जेक्टिव फिल्म हो।

कैसी फिल्मों से नफरत है?
नफरत तो नहीं है पर एक वक्त पर बहुत खास राय वाला हुआ करता था। घिसी-पिटी प्रतिक्रिया होती थी कि अरे ये बकवास है वो बकवास है। अब जैसे कोई फिल्म आएगी तो देखने का मन नहीं करेगा बस, पर किसी के काम से नफरत नहीं है।

जैसे-जैसे स्वतंत्र या मुख्यधारा वाले नए फिल्मकार आ रहे हैं और अपने विचारों की प्रधानता वाली कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं, तो उनकी आवक बढ़ने से नग्नता और गाली-गलौच (न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज) का विषय भी मुखरता से उठेगा। कुछ लोग नग्नता और गालियों को स्वीकार करते हैं, कहते हैं होती है इसलिए दिखाते हैं, अनुराग (कश्यप) भी बहुत बार कहते रहे हैं कि हम बोलते हैं तो क्यों न इस्तेमाल करें फिल्मों में। आपका क्या मानना है और अपनी फिल्मों में कितना उसका इस्तेमाल करना या न करना चाहते हैं?
जैसे ही सवाल आता है कि क्या करना चाहिए वैसे ही अपने आप उसके नियम बनते हैं और ये जो फिल्मकार हैं शायद उन्हीं नियमों को तोड़ना चाहते हैं। कभी-कभी कुछ चीजें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा सकती हैं, क्योंकि आप दरवाजा तोड़ने के लिए जोर लगाते हो तो पता नहीं कितना जोर लगाते हो। कभी-कभी जरूरत से ज्यादा जोर शायद लग जाता है। तो मेरे ख्याल से जब तक ये कहा जाता रहेगा कि आप इतना ही कर सकते हो और इतना नहीं कर सकते, तब तक वो जोर लगता रहेगा और कभी ज्यादा लगेगा, कभी कम लगेगा। जब तक इसको लेकर स्वीकृति नहीं आएगी तब तक ये होते रहेंगे, कभी शॉकिंग होंगे और कभी सही मात्रा में। ये मेरे ख्याल से बंद नहीं होगा।

या अपनी फिल्मों में आप कभी नग्नता और गालियों का इस्तेमाल करेंगे तो इसी संदर्भ में कि कोई रचनात्मक रोक लगाएगा या तानाशाही करेगा तो करेंगे... या फिर कहानी में कहने की जरूरत है तो करेंगे नहीं तो नहीं करेंगे?
हां, बिल्कुल वही। अब जैसे किसिंग एक वक्त में मार्केटिंग टूल हुआ करता था तो अब वह मार्केटिंग टूल नहीं रहा क्योंकि स्वीकार हो चुका है और कोई उससे हैरान नहीं होता है। जैसे ही ये हैरानी बंद हो जाएगी वैसे ही उसका अति इस्तेमाल बंद हो जाएगा। न्यूडिटी को ही लें, तो मान लीजिए आपके थियेटर में एक्स रेटेड फिल्में दिखाए जाने को मंजूरी मिल गई तो लोग इतनी नग्नता देख चुके होंगे कि फिल्मों में उसको आप मार्केटिंग टूल की तरह इस्तेमाल ही नहीं कर पाएंगे। क्योंकि वो कहेंगे कि यार इससे ज्यादा तो मैंने उसमें देखी है। तो जैसे ही सेंसरशिप बंद हो जाती है वैसे ही जितनी जरूरत है इसका इस्तेमाल उतना ही होता है। अभी तो हम इतना छिपाकर रखते हैं चीजों को कि कोई चुपके से पोर्न देखता है या इंटरनेट पर देखता है, तो मेरे ख्याल से जितनी स्वीकार्यता है वो सिनेमा में भी जैसे आएगी तो नग्नता और गालियों का असर उतना नहीं होगा जितना दस साल पहले या बीस साल पहले होता होगा। एक बिंदु के बाद ये फिल्म के हित में ही इस्तेमाल होगा न कि बाजारू हथकंडे के तौर पर यूज होगा।

फिल्म आलोचना कैसी होनी चाहिए? क्या ऐसी होनी चाहिए कि फिल्म बनाने वाले को पढ़कर मदद मिले? वो फिल्म आलोचना ‘थ्री ईडियट्स’ जैसी होनी चाहिए कि ‘पैडलर्स’ जैसी?
जैसे-जैसे नई फिल्में बन रही हैं, वैसे ही आलोचक भी नए आ रहे हैं। उनकी भी पढ़ाई और फिल्मी साहित्य तक पहुंच समान, फिल्मकार की भी समान है। ये दोनों ही कहीं न कहीं आकर एक बिंदु पर मिलेंगे। आप जल्दीबाजी में ये भी नहीं कह सकते कि फिल्म आलोचना हमारे मुल्क में खराब है, क्योंकि फिर तो आप ये भी कहेंगे कि यहां फिल्ममेकिंग भी फालतू है। इस खींचतान का कोई अंत नहीं होगा फिर। अब आप अपना खुद का ब्लॉग खोलकर उसके दर्शक और पाठक बना सकते है, अब आपको सिर्फ मैगजीन या अखबार में ही लिखना जरूरी नहीं है... तो फिल्मकार और आलोचक की समझ और ज्ञान का एक बिंदु पर मेल होगा। अब ये हो सकता है कि जैसे कोई फिल्ममेकर न्यूडिटी दिखाना चाहे तो वो दिखाएगा और कोई आलोचक अपना ज्ञान दिखाना चाहेगा तो वो दिखाएगा... इन दोनों का सह-अस्तित्व तो होना ही है। होगा यही कि चार फिल्मों में से आपको एक बहुत पसंद आएगी तो चार आलोचना वाले मंचों में से भी एक पसंद आएगा। इनमें जो निरंतर है और औसत राय रखेगा वो कायम रहता जाएगा। मेरे ख्याल से इस पीढ़ी की फिल्ममेकिंग को वो परिभाषित करते जाएंगे। एक संतुलित नजरिया होना चाहिए, हमें ये भी नहीं कहना चाहिए कि वो फिल्ममेकर बेकार है और ये भी नहीं कि वो आलोचक बेकार है।

नए लड़कों में ऐसे कितने हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और आपके हिसाब से अच्छी फिल्में देंगे?
श्लोक शर्मा, नीरज घेवन, सुमित पुरोहित और सुमित भटीजा (जिन्होंने ‘लव शव ते चिकन खुराना’ लिखी थी)... ये चार ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और ये लोग कुछ कमाल करने वाले हैं।

आपकी फिल्म का बाहरी फिल्म महोत्सवों में जाना या भारत में ही ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा देखा जाना, क्या ज्यादा जरूरी है?
सबसे ज्यादा जरूरी है एक फिल्म को किसी भी तरह का दर्शक मिलना। मेरे ख्याल से निजी संतुष्टि तो तब मिलती है जब दर्शक देश में मिलें, आप बाहर जब जाते हैं जब लगता है कि शायद देश में न मिलें। अपनी फिल्म के लिए तो मैं यही चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा अपने देश के ही मिलें, बाहर के तो बोनस में होने चाहिए।

फूड फॉर थॉट के लिए क्या करते हैं। किताबें, अख़बार या फिल्में या गलियां... क्या पकड़ते हैं?
उस पल में जो भी चीज मदद करे वो करता हूं। जिस दिन घूमने का मन किया, स्टेशन पर बैठने का मन किया... कुछ भी ऐसा जो मन में हलचल मचाए। कभी-कभी कमरे में बैठे-बैठे कुछ हो जाता है... जैसे कहते हैं कि बड़े-बड़े विचार तो टॉयलेट में बैठे हुए आ जाते हैं। पर किताबें पढ़ने या फिल्में देखने से ज्यादा लोगों के बीच बैठने से मदद मिलती है।

अगर, तो किताबें कैसी पढ़ते हैं?
मुख्यतः फिक्शन नहीं पढ़ता हूं। जिस फिल्म या विचार के लिए जरूरत है उसके ईर्द-गिर्द जो भी लिखा है वो जुटाकर पढ़ने की कोशिश करता हूं। कभी-कभी ‘100 राइफल्स’ जैसे ग्राफिक नॉवेल पढ़ लेता हूं। उसके अलावा तो ख़बरें और नॉन-फिक्शन किस्म की चीजें पढ़ता हूं।

जैसे आपने कहा कि लोगों के बीच बैठे-बैठे विचार आ जाते हैं, तो कभी जब परिवार या दोस्तों के बीच बैठे होते हैं तो ऐसा होता होगा कि एक रचनात्मक व्यक्ति बैठा कहीं भी है एक समंदर उसके अंदर पल रहा है। दूसरा, वहां जो दोस्त-रिश्तेदार बैठे होते हैं क्या वो कभी बुरा नहीं मानते कि यार ये क्या इंसान है, अलग ही अपने सोचे जा रहा है, बात में ध्यान ही नहीं दे रहा?
हमेशा होता है, नाराज ही रहते हैं लोग। पर एक विनम्रता भी आ जाती है उनके साथ बैठकर क्योंकि वो आपको जमीन पर ले आते हैं। अच्छा भी लगता है और कभी-कभी आप भागना भी चाहते हो। पर ठीक है वो आपको भला-बुरा भी कहते हैं तो आप चाहो तो उसमें से व्यंग्य ढूंढ लेते हो, आलोचना ढूंढ लेते हो ...तो ये रुचिकर होता है। और भी खास इसलिए क्योंकि वो नजरिया और राय बिना किसी एजेंडा के आती है।

‘उड़ जाएगा हंस अकेला...’ पैडलर्स के ट्रेलर में सुनाई देता है। क्या आप कुमार गंधर्व को सुनते रहे हैं या संगीतकार ने सुझाया?
कुमार गंधर्व का गाया ये गीत मैं तीन साल से अपने फोन में लेकर घूम रहा हूं। ये जब फिल्म बन रही थी तो मैंने करण (म्यूजिक डायरेक्टर) को निवेदन किया कि इसकी बस एक पंक्ति इस्तेमाल कर लो। एक पूरे गीत की तरह तो मैं इसे रीक्रिएट नहीं करना चाहता था क्योंकि जैसे लिखा और गाया गया है वो किसी भी परिपेक्ष्य से फिर रचा नहीं जा सकता है। बस मेरा स्वार्थी मन था जो चाहता था कि एक ये लाइन फिल्म में रहनी ही चाहिए। मैंने करण से कहा कि किसी भी ऐसे फकीर या सिंगर से गवा दो जिसकी पूरे गाने से अपना करियर शुरू करने की महत्वाकांक्षा न हो, कोई मिला नहीं तो उसने खुद गा लिया।

अमेरिकी फिल्मकार क्विंटिन टैरेंटीनो की नवीनतम फिल्म ‘जांगो अनचैन्ड’ की रिलीज से पहले वहां के बेहद गंभीर और अहम अश्वेत फिल्म निर्देशक स्पाइक ली ने कहा था कि इसमें उनके पुरखों को (अश्वेतों) सही से नहीं दर्शाया गया है, ये उनका अपमान करती है, इसलिए वह टैरेंटीनों की फिल्म नहीं देखेंगे..। जानना चाहता था कि इसे कैसे देखा जाए क्योंकि टैरेंटीनो का एक अलग ही हास्य वाला अंदाज होता है जो कुछ खास को ही समझ आता है बाकियों को अपमानजनक लगता है।
एक तरह से टैरेंटीनो तो मजे लेना चाहते हैं और मौजूदा वक्त में वह अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने अपना खुद का टैरेंटीनों जॉनर बनाया है। जो कि जॉनर के ऊपर जॉनर, जॉनर के ऊपर जॉनर और फिर उनका जॉनर है। मेरे ख्याल से वो एक यूनीक केस है और वैसा कोई होना चाहिए। ये एंटरटेनिंग है और ऐसा कभी नहीं हुआ है कि उनकी कोई भी फिल्म देखकर मैं निराश निकला हूं। तो जितना भी शरारती, गलत और पॉलिटिकली इनकरेक्ट हो उनका दिमाग, मैं देखना चाहूंगा उनकी फिल्म। क्योंकि ये मजेदार होती हैं, उकसाती भी हैं, हंसाती भी हैं और कभी-कभी किसी की खिल्ली भी उड़ाती हैं पर मैं बुरा नहीं मानता। मुझे बहुत पसंद हैं। 

(Vasan Bala lives in Mumbai. He made his first movie 'Peddlers' last year and since then it has been taken very well in various International film festivals. He previously worked with Anurag Kashyap on films like 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots' and 'Gulaal'. Vasan was also an associate director to Michael Winterbottom on film 'Trishna'. He is working on his next script.) 
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Tuesday, January 1, 2013

मीडियागत अपार्थाइड झेल रहे ‘उन’ अमेरिकियों की कथा

:: अमेरिकन हार्ट :: 1993 :: निर्देशक मार्टिन बेल :: कलाकार जेफ ब्रिजेज व एडवर्ड फरलॉन्ग ::
Seen in the poster, in their roles, Jeff and Edward.
 ‘अमेरिकन हार्ट’ के निर्देशक मार्टिन बेल की पत्नी मैरी ने सीएटल की गलियों में विचरने वाले बच्चों की तस्वीरें खींची। उनका ये फोटो-आलेख लाइफ मैगजीन में छपा। ‘स्ट्रीटवाइज’ शीर्षक से। बाद में मार्टिन ने इसी नाम से इसी विषय पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई, जिसके बारे में हम फिर जरूर बात करेंगे। फीचर फिल्म उसका तीसरा रूप रही। जेफ ब्रिजेज के जो ‘द बिग लेबोवस्की’ और ‘द ट्रू ग्रिट’ वाले लोकप्रिय लुक्स हैं, उससे बिल्कुल अलग हैं वह ‘अमेरिकन हार्ट’ में। उघाड़े, लंबी पतली बाहों, लंबे बालों और लंबी मूछों में छोटे-छोटे टी-शर्ट और बेलबॉटम पैंट्स में वह गली के आवारा लगते ही हैं। जाहिर है ये छवि हिप्पियों वाली ज्यादा है। कहानी में वह जेल से छूट कर आए हैं, अपने 12 साल के बेटे के साथ वक्त बिता रहे हैं। पर हैं वैसे ही। बाप-बेटे का अद्भुत रिश्ता तो है ही, पर सड़क पर गलियों में पलने वाले बच्चों की कहानी ज्यादा है। गैर-अमेरिकी लगने वाली फिल्म है। कमाल।

फिल्म में 12 साल के लड़के की भूमिका एडवर्ड फरलॉन्ग ने निभाई है जो ‘टर्मिनेटर 2: जजमेंट डे’ में साराह कॉनर के लड़के जॉन कॉनर बने थे। दोनों ही फिल्मों के वक्त वह बाल कलाकार थे। असल जिंदगी में विडंबना देखिए कि आज एडवर्ड की लाइफ कुछ वैसी ही है जैसी इस फिल्म में जेफ ब्रिजेज निभाते हैं। एडवर्ड 36 के हो गए हैं, उनके एक छोटा बेटा है और वाइफ ने तलाक के लिए फाइल कर दिया है। ड्रग्स लेने के लिए भी वह कई बार पकड़े गए हैं। 2001 में एक मैगजीन को उन्होंने कहा कि उनके पास कुछ नहीं बचा है। समझ नहीं आता कि इस फिल्म में ऐसे ही किरदार में जेफ को ऑब्जर्व करने के बाद भी वह क्यों नहीं सही राह चल पाए? उन्हें ड्रग्स की आदत कहां से लगी? अचरज है।

फिल्म की कहानी संवदेनशील है। रॉ है। धूसर है। बाप-बेटे का रिश्ता भी हकीकत भरा है। हां, भारतीय सेंसेबिलिटी के हिसाब से हो सकता है हमें ज्यादा ही फ्रेंक लगे। पर है नहीं। ‘अमेरिकी’ की एक ऐसी तस्वीर फिल्म दिखाती है जो बाहरी मुल्कों में कभी ‘सीएनएन’ और ‘बीबीसी’ जैसे जरियों से बाहर नहीं जा पाई। अगर ऐसी दस-बारह फिल्में लाइन में बन जातीं तो एक सच सामने आ जाता कि धनप्रधान व्यवस्था वाला समाज बनने से आर्थिक खाई कितनी चौड़ी होती जाती है। हम भी तो अब वैसे ही होने जा रहे हैं। अब हमने अपने राज छिपाने शुरू कर दिए हैं। हम फिल्में बना रहे हैं, खूब बना रहे हैं, पर कितनी ऐसी हैं जो आर्थिक असमानता को लेकर नीति-निर्माण करने की जरूरतों को जगाने के लिहाज से बना रहे हैं। अब हम मॉल दिखाते (बुड्ढा होगा तेरा बाप) हैं, फॉरेन ट्रिप्स (जिंदगी न मिलेगी दोबारा) दिखाते हैं, उनकी जरूरतें जगाते हैं, अंग्रेजी टाइटल और उसी व्यवस्था वाली मानसिकता की बातें करते हैं। हम पंच-पंचायतों की बातें सिर्फ प्रियदर्शन की फिल्मों में ही देखते हैं। बाकी तो मुंबई या दूसरे महानगरों में ही जीते हैं। साउथ की फिल्मों में लुंगियां, धोतियां, पंचायतें, सरपंच, खेती सब दिखाते हैं पर बेहद अजीब नकली तरीके से। वह भी हिंदी सिनेमा या हॉलीवुड को कॉपी करने वाले अंदाज में ही सब करते हैं। बाला बनाते तो हैं पर हिंसक किस्म की अलग फिल्में।

हमने भी अपनी गरीबी छिपानी शुरू कर दी है, जैसे वेस्ट का मीडिया पहले छिपाया करता था। ‘अमेरिकन हार्ट’ इन लिहाजों से एक नायाब फिल्म है। ये अमेरिका के ऐसे वर्गों की प्रतिनिधि फिल्म है जो मीडियागत अपार्थाइड झेल रहे हैं, उन्हें जैसे हॉलीवुड फिल्मों से बैन कर दिया गया है। नजर आ भी जाते हैं तो ‘ब्रूस ऑलमाइटी’ में भीख मांगते भगवान के रूप में, भलमनसाहत का फैंसी संदेश दिलवाए जाते हुए। काश, किज्लोवस्की “अ शॉर्ट फिल्म अबाऊट पूवर्टी” भी बना जाते।
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गजेंद्र सिंह भाटी