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Monday, May 12, 2014

Be a film producer: फ्रांस के कान फ़िल्म फेस्टिवल में चुने गए प्रोजेक्ट "छेनू" में भागीदार बनने का मौका

Bafp is a series about important film projects in-progress
 and possibilities for independent producers...

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 कान फ़िल्म फेस्टिवल-2013 में सह-निर्माण को प्रोत्साहित करने वाले सिनेफाउंडेशन के कार्यक्रम ‘द लाटलिए’ में पूरी दुनिया से सिर्फ 15 फ़िल्म प्रोजेक्ट चुने ग़ए। उन्हीं में एक थी “छेनू”। इसे नांत, फ्रांस में ‘3 कॉन्टिनेंट्स फ़िल्म फेस्टिवल’ के ‘पोदुए ऑ स्यूद’ कार्यक्रम में भी चुना गया। ऐसे सिर्फ पांच और प्रोजेक्ट चुने गए। “छेनू” की स्क्रिप्ट मंजीत सिंह ने लिख़ी है। निर्देशन वे ही करेंगे। दो साल पहले “मुंबई चा राजा” जैसी बहुत अच्छी और विश्व में सराही फ़िल्म उन्होंने बनाई थी। “छेनू” की कहानी इसी नाम वाले एक दलित लड़के की है। वह उत्तर भारत में रहता है। ऊंची जाति का जमींदार अपने खेत से सरसों के पत्ते तोड़ने पर उसकी बहन की अंगुलियां काट देता है। ऐसी अमानवीय घटनाओं के बाद़ छेनू नक्सली बन जाता है। ये कहानी शेखर कपूर की क्लासिक “बैंडिट क्वीन” और यादगार ब्राज़ीली फ़िल्म “सिटी ऑफ गॉ़ड की याद दिलाती है। स्क्रिप्ट कई ड्राफ्ट से ग़ुज़र चुकी है और संभवत: दो आख़िरी ड्राफ्ट लिखे जाने हैं। मंजीत ‘द लाटलिए’ से कुछ निर्माताओं के संपर्क में हैं। 

एक कैनेडियन को-प्रोड्यूसर फ़िल्म से जुड़ चुके हैं। कुछ फ्रेंच को-प्रोड्यूसर रुचि ले रहे हैं। यानी मेज़ पर कुछ प्रभावी निर्माता आ चुके हैं। मुंबई और भारत के अन्य इलाकों के कुछ निर्माताओं से भी वे बातचीत के अगले दौर में हैं। भारतीय निर्माताओं से वे तकरीबन 3 करोड़ रुपए जुटाएंगे। क्राउड फंडिंग फिलहाल टाल रहे हैं और कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा 3-4 सह-निर्माता हों भारत से। शायद बाद में क्राउड फंडिंग करनी पड़े। एक विकल्प राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम यानी एनएफडीसी है। पर फिलहाल उनकी ओर से फंडिंग बंद है। नई अर्ज़़ियां लेनी इस साल में कभी भी शुरू की जा सकती हैं। बहुत कुछ केंद्र में बनने जा रही नई सरकार की नीतियों पर भी निर्भर करेगा। पिछली सरकार बेहद प्रोत्साहित करने वाली थी। उस दौरान एनएफडीसी ने कई फ़िल्मों की मदद की। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे नामी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में भारतीय फ़िल्मों और फ़िल्मकारों का उन्होंने प्रचार किया। फ़िल्म का बाकी 60-70 फीसदी बजट विदेशी निर्माताओं से आएगा। पर शुरुआत भारतीय निर्माताओं से होगी। चीज़ें तेजी से हो रही हैं। अगर कोई स्वतंत्र निर्माता फ़िल्म से जुड़ना चाहते हैं तो अभी वक्त है। ऐसे लोग जो इस प्रोजेक्ट में रुचि रखते हों, जिनकी सोच और मूल्य इस प्रोजेक्ट से मेल खाते हों। मंजीत से cinemanjeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

 “छेनू” का संगीत फ्रेंच कंपोजर मथायस डूपलेसी तैयार करेंगे। वे “मुंबई चा राजा”, “पीपली लाइव”, “फ़क़ीर ऑफ वेनिस”, “डेल्ही इन अ डे” और “अर्जुन” जैसी कई फीचर फ़िल्मों में संगीत दे चुके हैं। मुख़्य कलाकार बच्चे होंगे। जो बिहार-झारखंड मूल के होंगे। योजना है कि मगही बोलने वाले बच्चों को उन्हीं इलाक़ों से कास्ट किया जाए। अगर मुंबई में उपयुक्त कलाकार मिल गए तो मुंबई से लिए जाएंगे। 100 मिनट की सोशल-पॉलिटिकल गैंगस्टर जॉनर वाली इस फ़िल्म में एक मुख़्य भूमिका है नक्सल लीडर की। इस किरदार के लिए एक मजबूत स्क्रीन प्रेजेंस चाहिए, इसलिए अच्छे और जाने हुए अभिनेता तलाशे जा रहे हैं। फिर एक विलेन का किरदार है। उसके सीन कम हैं पर मौजूदगी बहुत प्रभावी होगी। इन दो भूमिकाओं में जाने-माने, स्थापित कलाकार लिए जा सकते हैं।

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मैंने आख़िरी बार किस दलित पात्र को किसी हिंदी फ़िल्म के केंद्र में देखा था, याद नहीं आता। शायद रहे भी होंगे, मगर अपवादस्वरूप। “छेनू” इसी लिहाज़ से उत्साहजनक परियोजना है। मुख़्यधारा के हमारे ए-लिस्ट फ़िल्म स्टार्स, डायरेक्टर्स और स्क्रीनराइटर्स से बहुत बार पूछने की इच्छा हुई कि उनके क़िस्सों में निम्नवर्ग या निम्न-मध्यमवर्ग कहा हैं? मगर एक-आध को छोड़ नहीं पूछा। मुझे याद है कोई तीन साल पहले “जिंदगी न मिलेगी दोबारा” के कलाकार फरहान अख़्तर, अभय देओल, कटरीना कैफ और कल्कि कोचलिन चंडीगढ़ के पीवीआर सेंट्रा मॉल में फ़िल्म का प्रचार करने पहुंचे थे। लोगों को तब तक ट्रेलर्स से फ़िल्म जितनी अच्छी लग रही थी, तत्कालीन छद्म-पॉजिटिविटी के बीच मैं उतना ही व्यग्र था। बातचीत से बड़ा पहलू छूट रहा था। ये कि एक और बड़ी फ़िल्म जिसमें निम्नवर्ग या निम्न-मध्यमवर्ग का कोई ज़िक्र नहीं है। जब ये भारत के सबसे बड़े तबके की प्रतिनिधि कहानी नहीं तो मैं क्यों पॉजिटिव महसूस करूं? ज़्यादा से ज़्यादा ये फ़िल्म क्या करना चाह रही थी? स्पेन टूरिज़्म को बढ़ावा देना चाह रही थी। इसके बीज “वाइल्ड हॉग्स”, “हैंगओवर”, “रोड ट्रिप” जैसे अनेकों अमेरिकी फ़िल्मों में छिपे थे। इसमें भारत कहीं न था। महानगरीय ऊब समस्या थी और वर्ल्ड टूअर समाधान। पैसे की कोई कमी नहीं थी। फ़िल्म के किरदारों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी? फैशन डिजाइनिंग की स्टूडेंट, रईस परिवार की इंटीरियर डिजाइनर बेटी, लंदन स्थित फाइनेंशियल ट्रेडर, मुंबई के धनी ठेकेदार का धनी बेटा, स्पेन स्थित सफल-नामी पेंटर, दिल्ली की विज्ञापन कंपनी में कॉपी राइटर। क्या देश में ज़्यादा तादाद ऐसी पृष्ठभूमि वालों की है? क्या ये समाज के आख़िरी पंक्ति के लोगों में आते हैं? फ़िल्म बनी कितने में? 55 करोड़ रुपये से ज़्यादा में। कमाए कितने? कोई 155 करोड़। 2011 के सबसे अच्छे सिनेमा में इसे गिना गया। शीर्ष पांच निर्देशनकर्ताओं में ज़ोया अख़्तर शुमार हुईं। ये सारे मेरे सवाल थे, पर प्रेस वार्ता का माहौल बेहद खुशमिजाज और चूने पुते गालों वाला था, मैं व्यग्रता में धधकता चुप ही रहा। फिर इस दौरान बीच में कई फ़िल्में आईं जिन्होंने और ज़्यादा संताप दिया। कुछ आईं जिन्होंने संतोष दिया। कुछ आईं जिन्होंने उत्साहित किया। “छेनू” ऐसी ही थी, जब वो ‘द लाटलिए’ में चुनी गई तो मालूम चला कि मंजीत सिंह उसे बनाने वाले हैं। ऐसी कहानी दशकों के अंतराल में आती हैं। आक्रोश, बैंडिट क्वीन, पान सिंह तोमर और अब छेनू।

कहानी कुछ यूं है...
"उत्तर भारत में कहीं छेनू और उसकी बहन छेनो परिवार के साथ
 रहते हैं। एक बार दोनों जमींदार तीर सिंह के खेत से सरसों की पत्तियां तोड़ते हुए पकड़े जाते हैं। सज़ा मिलती है। तीर सिंह छेनो की अंगुलियां काट लेता है। छेनो के परिवार को इसका न्याय नहीं मिलता। ऐसे में नक्सली नेता कोरबा के आदमी उनकी मदद को आते हैं। वे तीर सिंह का पीछा करते हैं और वह जाकर दूसरे जमींदार भगवान सिंह के गैंग के पास शरण लेता है जिसने अभी-अभी एक ट्रॉली भर अपने जाति के लोगों व रिश्तेदारों के शवों का दाह-संस्कार किया है। उन्हें नक्सलियों ने मार डाला। कोरबा छेनू को अपनी गतिविधियों में शामिल कर लेता है। धीरे-धीरे छेनू नक्सलियों के काम करने की प्रणाली सीख लेता है, उनके हथियार छुपाने के स्थान जान लेता है। इस दौरान उसके लिए कोरबा आदर्श बन जाता है। ऐसा नायक जो कमज़ोरों की रक्षा करता है। एक बार गांव के रईस और ऊंची जाति के लड़के छेनू को पीटते हैं क्योंकि वो उनके मैदान में खेल रहा होता है। गुस्से में वह पिस्तौल चलाना सीखता है। उधर भगवान सिंह बाकी जमींदारों के गैंग्स को मज़बूत करता है और एक निजी सेना बनाता है। रण सेना। उद्देश्य है नक्सलियों और उनके समर्थक दलितों से बदला लेना। ख़ूनी बदला। यहां से इस इलाके में रक्तरंजित हिंसा का कुचक्र शुरू होता है। इसी में छेनू की मासूमियत घिर जाती है और उसका रास्ता और कठिन हो जाता है।"

Manjeet Singh in a Q&A after the screening of Mumbai Cha Raja in Fribourg, Switzerland last year.


इस प्रोजेक्ट को लिख़ने वाले मंजीत सिंह की पृष्ठभूमि फ़िल्मी नहीं है। मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के बाद़ अमेरिका में आरामदायक नौकरी कर रहे मंजीत सब छोड़ 2006 में मुंबई लौट आए। फ़िल्में बनाने। अच्छी फ़िल्में बनाने। 2011 में उनकी पहली फीचर फ़िल्म “मुंबई चा राजा” को फ़िल्म बाजार गोवा के वर्क-इन-प्रोग्रेस सेक्शन में ‘प्रसाद अवॉर्ड’ मिला। अगले साल बेहद प्रतिष्ठित रॉटरडैम इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के सिनेमार्ट कार्यक्रम की प्रोड्यूसर्स लैब में इसे चुना गया। राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम ने 2012 में ही मंजीत को फ्रांस में हुए कान फ़िल्म फेस्टिवल में होनहार भारतीय फ़िल्मकार के तौर पर पेश किया। फ़िल्म जब तैयार हुई तो विश्व के ज़्यादातर शीर्ष फ़िल्म महोत्सवों में ससम्मान आमंत्रित की गई, दिखाई गई। इसी दौरान मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी जिसे यहां पढ़ सकते हैं। 2012-13 की शीर्ष पांच भारतीय स्वतंत्र फ़िल्मों में “मुंबई चा राजा” थी। फ़िल्म पर दिग्गज भारतीय फ़िल्मकार सत्यजीत रे का असर साफ था, ऐसा असर जिसे लंबे समय से उडीका जा रहा था। एक विदेशी फ़िल्म ब्लॉगर ने तो इसे फ्रांसुआ त्रूफो की “द 400 ब्लोज़” का भारतीय जवाब तक बताया। इससे बड़ी तारीफ क्या हो सकती है? एक समीक्षक ने लिखा कि इसे देखकर सिटी ऑफ गॉड की याद आ गई। उसने फ़िल्म को भारत से निकली शीर्ष इंडिपेंडेंट फ़िल्मों में शुमार किया। “मुंबई चा राजा” मुंबई के आख़िरी पंक्ति के बच्चों की कहानी थी। फ़िल्म-मीडिया के चंद समृद्ध लेखकों द्वारा आमतौर पर ऐसी कहानियों को पूवर्टी-पोर्न शब्द की आड़ में किनारे कर दिया जाता है। पर यहां ऐसा नहीं हो पाया। इस महानगर के दो बच्चों की आपबीती को फ़िल्म जिस मुहब्बत, खुशी, समझदारी, सिनेमाई व्याकरण, सच्चाई और सार्थकता से दिखाती है वो इसे “स्लमडॉग मिलियनेयर” जैसी फ़िल्मों के बहुत कदम आगे खड़ा करती है। यानी ये ऐसे विषय पर थी जिसे आमतौर पर फ़िल्मकार हाथ नहीं लगाते। गर लगाते हैं तो दो नतीजे निकलते हैं। पहला, एक गंभीर, निराशा भरी, प्रयोगधर्मी, कलात्मक फ़िल्म बनती है। दूसरा, गरीबी और निम्न-वर्ग का होने पर तरस खाती कमर्शियल फ़िल्म बनती है। “मुंबई चा राजा” तीसरा नतीजा लाई। ये किरदारों की कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि की जिम्मेदारी हमारे कांधों पर डालती है और उन्हें पानी में छपकने देती है, खेलने देती है, खिलने देती है। सिनेमा के ऐसे कथ्य की आलोचना नहीं की जा सकती। यही सही है। हम “मुबंई चा राजा” पर इतनी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस फ़िल्म के ट्रीटमेंट में ही “छेनू” का ट्रीटमेंट छुपा है।

नक्सलवाद जैसे गंभीर विषय पर एक और फ़िल्म की संभावना के साथ ही कुछ चिंताएं सीधी उभर आती हैं। उसका ट्रीटमेंट क्या होने वाला है? वो ही उसे क्लीशे से बचा सकता है। “मुंबई चा राजा” देखने के बाद़ ये तो स्पष्ट हो जाता है कि उपरोक्त कहानी में जो लिखा है वो परदे पर बहुत ही समझ-बूझ के साथ आने वाला है। लेकिन फिर भी मैंने ये सवाल मंजीत के समक्ष रखा। ये कि समाज में कमज़ोर पर अत्याचार हुआ और कोई विकल्प न देख उसने हथियार उठा लिया, ख़ून कर दिया और अपराधी बन गया। ये तो बहुत क्लीशे है। सही विकल्प भी है क्या? इस पर वे कहते हैं, “फ़िल्म से कोई सॉल्युशन नहीं निकलता, न ही कोई प्रॉब्लम सॉल्व होती है। ये एक काल को डॉक्युमेंट कर रही है, जो कुछ हो रहा है उसे दर्शकों के सामने रखेगी। हिंसा से कुछ हासिल होता नहीं है। जो भी समूह हिंसा को अपनाते हैं, उन्हें मिलता कुछ नहीं है। जो कमजोर, ग़रीब है वो ही कुचला जाता है। जो लोग दुरुपयोग कर रहे हैं, उनका नुकसान नहीं होता। जैसे, दंगे होते हैं या कांड होते हैं तो उसमें कोई राजनेता तो मरता नहीं है, वही मरते हैं जो रस्ते पर रह रहे हैं या झुग्गी में रह रहे हैं या जिनके घर में घुसना आसान है। छेनू का जो जीवन-चक्र है, जो सफर है, उसमें क्रमिक ढंग से परिस्थितयां दिखाई गई हैं। ऐसा नहीं है कि उसकी बहन की अंगुलियां काट दी, वो चला गया, बंदूक उठा ली कि मैं बदला लूंगा। इसमें दिखेगा कि फिर उसकी सोच कैसे बदलती है। वह तो मासूम, अज्ञानी लड़का है। उसमें धीरे-धीरे हिम्मत आती है। सब चीज़ों का असर उसकी निजी जिंदगी पर भी होता है। इस कहानी में हम हिंसा को सेलिब्रेट नहीं कर रहे हैं। जो दहशत है, किस क़दर असर डालती है लोगों पर, मुख़्य उद्देश्य यही है दिखाने का। और ये दिखाने का है कि हमारी सोच पिछड़ी है। उसी पर अटके हैं और फिज़ूल में ख़ूनख़राबा हो रहा है। इस फ़िल्म में उपदेश नहीं होंगे, बस घटनाक्रम होगा। लोग समझते हैं और वे अपने निष्कर्ष ख़ुद निकालेंगे। हम ज़बरदस्ती संदेश देते हैं तो सब एक ही संदेश लेते हैं। मैंने देखा है कि आप दिखाओ क्या-क्या परिस्थितियां हैं तो उसमें से काफी सब-टैक्स्ट निकलते हैं। मुंबई चा राजा के वक़्त भी मैंने यही ऑब्जर्व किया, कि लोग काफी चीज़ें ऐसी पकड़ रहे हैं जो मैंने सोची भी नहीं थी। पर चूंकि मैं ऐसी कहानी सुना रहा हूं जो वाक़ये बता रही, उस पर मेरी टिप्पणी नहीं है, और लोगों को खुद का निष्कर्ष निकालने पड़ रहे हैं। इससे एक के बजाय कई निष्कर्ष निकल रहे हैं। छेनू में भी ऐसे ही होगा। लोग अपने तर्क खुद निकालेंगे कि ये बात ग़लत लग रही है मुझे। हो सकता है बनाने के दौरान मैं भी बहुत सीखूंगा”।

इस विषय पर बतौर लेखक-निर्देशक उनकी व्यापक सोच क्या है? क्या नक्सलवाद को हथियारबंद लोगों और सरकार के परिपेक्ष्य से ही देखा जा सकता है? क्या हमें या हमारे शासकों को यही सोचना चाहिए कि वे एक महामारी हैं जिन्हें हवाई हमले से ख़त्म कर देना चाहिए? क्या वे देश के विकास को रोक कर बैठे हैं? क्या प्राकृतिक संसाधन दूसरे राज्यों में बैठे हम लोगों के हैं कि उन्हीं स्थानीय लोगों के? ये समस्या कितने पक्षीय है? इन सब सवालों के प्रत्युत्तर में मंजीत कहते हैं, “स्टेट पहले निगलेक्ट करता है। लोग रोते हैं तो सुनता नहीं है। लोग सत्याग्रह भी करते हैं पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। जब चीज़ें हाथ से बाहर हो जाती हैं तो लोग हथियार उठाते हैं। जब प्रॉब्लम आती है, फ़रियादी आते हैं, उन्हें तभी सुनकर सॉल्व कर लें तो चीज़ें आगे ही न बढ़ें। लोग भी तो उन संबंधित नेताओं को तभी फॉलो करते हैं जब तक प्रॉब्लम है। नेता भी इसीलिए हालात सुलझाते नहीं, ताकि लोग लाइनों में खड़े रहें और वोट देते रहें। फिर विचारधारा वाला पक्ष है। अगर हजार लोगों का ग्रुप है और कुछ साथ छोड़ेंगे तो ये चार ग्रुपों में बंट जाएगा, उनमें भी लीडर उग आएंगे। उनका भी विभाजन होगा तो उनमें भी लीडर निकल आएगा कि हमारी ये विचारधारा है। पर प्रॉब्लम उससे सॉल्व नहीं होती। अब कॉरपोरेट्स की बात आती है। कुछ उद्योगपति हैं। उनका तो किसी भी चीज़ को लेकर कोई नज़रिया ही नहीं है। उनको आसान पैसा चाहिए। नेता से साठ-गांठ की है, क़ब्ज़ा किया, खुदाई की और फ़ायदा लिया। कोई कॉरपोरेट सार्थक में नहीं लगाता। कोई ऐसा धांसू ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनाता जिससे सबका भला हो। हमारे पास सबसे इंटेलिजेंट लोग हैं। पर उस ह्यूमन रिसोर्स को गाइड करने वाला कोई नहीं है। वही कॉरपोरेट उनका शोषण कर रहे हैं। वो अमेरिकी सैलरी भी लेंगे और इंडिया से भी। जबकि हमारा देश ह्यूमन रिसोर्स में भी मजबूत है और नेचुरल रिसोर्स में भी। ये लोग विश्व के टॉप बिलियनेयर्स की सूची में शामिल होने के सपनों के अलावा लोगों के भले के लिए या देश के लिए सोचें तो सब ठीक हो सकता है। एजुकेशन सिस्टम भी ख़राबी वाला है। किसी की इनोवेटिव सोच है तो उसके लिए कोई जगह ही नहीं है। उसे भी रट्टा मारना पड़ेगा। आपकी आईआईटी प्रवेश परीक्षा है। उसमें पढ़-पढ़ कर छात्र पागल हो जाता है। वो भी दो-दो साल हर दिन 20-20 घंटे। इसमें इनोवेटिव सोच क्या है? हिंदुस्तान में ये समस्याएं हैं और राज्य अज्ञानी बना बैठा है”।

मंजीत के अब तक के दो प्रोजेक्ट सार्थक विषय वाले रहे हैं। जैसे महात्मा गांधी कहते थे, समाज के आख़िरी आदमी के हिसाब से सोचो, चुनो, नीति बनाओ... उनकी सोच भी वैसी ही है। तीसरी कहानी जो उनके ज़ेहन में है वो पंजाब के सिख दलित गायक बंत सिंह की है। उनका तीसरा चयन भी दिल को ख़ुश करता है। हालांकि इस पर काम “छेनू” के बाद ही शुरू हो पाएगा पर वे अपना रिसर्च काफी वक्त पहले ही शुरू कर चुके हैं। फिलहाल अपनी सारी ऊर्जा वे “छेनू” पर लगा रहे हैं। 2015 के आख़िर तक हम उनसे इस फ़िल्म की उम्मीद कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इस प्रोजेक्ट के जो भी निर्मातागण और टेक्नीशियन होंगे, उनके लिए ये फ़क्र का मौका होगा। कोई संदेह नहीं कि ये 2015-16 की शीर्ष पांच फिल्मों में एक होगी।

“फ़िल्म निर्माता बनें...” नई एवं महत्वपूर्ण फ़िल्म परियोजनाओं की जानकारी देती श्रंखला है, स्वतंत्र निर्माताओं के लिए सार्थक कहानियों से जुड़ने का अच्छा मौका  है।

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Mumbai Cha Raja director Manjeet Singh is busy with his new and exciting project Chenu. This 100 min. social-political gangster drama was picked by L’Atelier of the Cinefoundation at Cannes film fest in March 2013. It was one of the fifteen projects selected across the globe for this prestigious co-production market event. It was one out of six projects selected for 3 Continents film festival’s ‘Produire au Sud’, Nantes (France) 2012 program. Now in May, 2014 the script of Chenu is in advanced stage. Canadian and French co-producers have joined in. Manjeet is in talks with some Indian co-producers. He’s also opened the gates for new independent or professional co-producers. Whoever interested can contact him at cinemanjeet@gmail.com.
 
Poster of project CHENU

This story is about the ongoing caste war between the extreme violent leftist forces the 'Naxals' and a private army of Landlords which engulfs a low caste 'dalit' teenager Chenu, when his younger sister Chano's fingers are chopped for plucking mustard leaves from a landlord's farm. Chenu loses his innocence, taking up the arms for the honor of his family and his community. All the child actors will most probably be taken from Bihar-Jharkhand or in some specific case from Mumbai. There are two very important characters, Naxal leader Korba and another strong negative character. For both characters, two powerful actors will be needed. We can expect to see two strong or established actors at the center. Music for the film will be composed by Mathias Duplessy who has done films like Peepli Live, Mumbai Cha Raja, Fakir of Venice and Arjun.

Talking about Manjeet, he’s a qualified engineer (MS, Mechanical Engineering, USA). He left his career in the USA and moved back to his hometown Mumbai to make films in 2006. NFDC selected him as a promising Indian film-maker to be promoted at Cannes, 2012. His debut film Mumbai Cha Raja, premiered at Toronto International Film festival (TIFF) 2012 and he was part of TIFF's talent lab as well. The film officially selected in Abu Dhabi, Mumbai, Palm Springs, Santa Barbara, Cinequest, Fribourg, Shanghai and many other film festivals. The film had earlier won the 'Prasad award' in 'Work in Progress' section of 'Film Bazaar' 2011,Goa, India and was selected for the 'Producer's Lab', Cinemart, International Film Festival Rotterdam, 2012.
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Friday, January 11, 2013

बंत सिंह जैसे लोग पंजाब की असली स्पिरिट हैं: मंजीत सिंह

2012 की शानदार स्वतंत्र फिल्मों की तकरीबन हर सूची में शामिल रही ‘मुंबई चा राजा’। फिल्म के निर्देशक मंजीत सिंह अब कुछ और बेहद उत्साहित करने वाली कहानियों पर काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक है पंजाब के सिख दलित गायक और अत्यधिक ज्यादतियों का बहादुरी से मुकाबला करने वाले बंत सिंह की कहानी।

Manjeet Singh
पंजाब मूल के मंजीत सिंह अमेरिका में इंजीनियर की अच्छी-भली जॉब छोड़ मुंबई लौट आए, फिल्में बनाने के लिए। कुछ वक्त के संघर्ष के बाद उन्होंने ‘मुंबई चा राजा’ बनाई। एक ऐसी फिल्म जो गरीबी को विशेष तरीके से नाटकीय करने और भुनाने के ढर्रे के तोड़ती है। मुंबई के राजा गणपति भी हैं, जिनके उत्सव की पृष्ठभूमि में फिल्म चलती है, और कहानी में दिखने वाले आवारा लड़के भी, जो सही मायनों में इस मुश्किलों वाले महानगर के राजा हैं। अपने बुरे और कष्ट भरे जीवनों में खुशियां ढूंढ लेते ये बच्चे संभवतः लंबे वक्त बाद भी सराहे जाएंगे। विश्व के नामी फिल्म महोत्सवों में इसे डैनी बोयेल की ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ का भारतीय जवाब तक कहा गया। 2012 की शानदार स्वतंत्र फिल्मों की हर सूची में इस फिल्म का नाम है। फिल्म को कुछ और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भेजने की तैयारियों में जुटे मंजीत चार-पांच नायाब कहानियों पर काम कर रहे हैं। अगर ये फिल्में अपने स्वरूप में आ पाईं तो यथार्थवादी सिनेमा में जान आएगी। पंजाबी स्वतंत्र सिनेमा का जो खाली परिदृश्य है, गुरविंदर सिंह के बाद वह भी उसमें योगदान दे सकते हैं, अगर बंत सिंह की उनकी कहानी के लिए प्रोड्यूसर मिल पाए तो। स्वतंत्र सिनेमा की राह में बाधाओं, उनकी जिंदगी और बाकी विषयों पर हुई मंजीत सिंह से ये बातचीत। प्रस्तुत है...
 
पंजाब से क्या ताल्लुक है?
मेरा जन्म जामनगर, गुजरात का है। पिता इंडियन नेवी में थे, तो उनकी पोस्टिंग वहां थी। वैसे हैं हम लुधियाना से। फिर ट्रांसफर के बाद बॉम्बे शिफ्ट हो गए। बीच में अमेरिका में था। लौट आया। सब रिश्तेदार मेरे लुधियाना, पंजाब में हैं। तो बहुत आना-जाना होता है।

पंजाबी में यहां अभी बहुत माहौल बन रहा है। लोग ‘जट एंड जूलियट’ देख रहे हैं, ‘तू मेरा 22 मैं तेरा 22’ का इंतजार कर रहे हैं। ‘अन्ने घोड़े दा दान’ भी बनी है। मुख्यधारा वाले दर्शकों की नजर उस पर नहीं गई है, लेकिन दुनिया भर में सराही जा रही है। ये जो दोनों तरह की पंजाबी फीचर फिल्मों का परिदृश्य है, इस पर आपकी कितनी नजर है, कैसी नजर है और क्या लगता है, कैसी फिल्में बनें तो इस क्षेत्र के दर्शक ज्यादा फायदे में रहें?
गुरविंदर की फिल्म तो मैंने देखी है, अच्छी भी लगी मुझे काफी। पर जो कमर्शियल फिल्में आप कह रहे हैं वो मैंने शायद देखी नहीं हैं। पर ऐसा लगता है कि उनका बॉलीवुड की तरफ रुझान ज्यादा है। जैसी फिल्में बॉलीवुड में बनती हैं वैसी ही लोग पंजाबी में भी बना रहे हैं। मुझे लगता है कि सभी प्रकार के सिनेमा के लिए जगह तो भारत में है, पर इंडिपेंडेंट सिनेमा का अस्तित्व कुछ है नहीं। उन फिल्मों को भी कमर्शियल फिल्मों के साथ थियेटरों में दिखाया जाता है, उतने रुपये की ही टिकट के साथ। ये एक दिक्कत है। उनके सैटेलाइट राइट और दूसरे राइट भी आसानी से नहीं बिकते। उन्हें डिस्ट्रीब्यूट करने का बहुत ऑर्गनाइज्ड तरीका नहीं है। पंजाबी इंडिपेंडेंट सिनेमा में लगता नहीं कि कुछ खास फिल्में बनी हैं, बस शायद गुरविंदर की ही है। संभवतः पहले बनी थी 80 या 70 के दशक में। शायद एक राजबब्बर की थी जो डीडी वन पर देखी थी। वो भी सेल्फ फंडेड ही थी, जैसे हमारी है। तो उस तरह शायद और फिल्में बन सकती हैं, मैं भी एक फिल्म बनाना चाहता हूं। बंत सिंह जी के जीवन पर। उनकी जिंदगी जो रही, उन्हें जो मुश्किलें आईं, बहादुरी से जैसे उन्होंने सब गलत चीजों के खिलाफ लड़ा है। ये सब लोगों को बताना बहुत जरूरी है। इनके जैसे लोग ही तो पंजाब की असली स्पिरिट हैं। कि इतनी प्रॉब्लम के बाद भी ये आदमी खुश है और आम जिंदगी जी रहा है और उसने इतना त्याग किया है। पर वही है कि उसके लिए फंड जमा करना बहुत ही मुश्किल है। समझ नहीं आ रहा कि फंडिंग कहां से लाएं। अभी तो पहली बनी है। दूसरी बनाऊंगा और उससे कुछ पैसा आए तो इस कहानी पर काम करूं। प्राइवेट प्लेयर्स भी ऐसी फिल्मों में आते नहीं, मार्केट वैल्यू है नहीं। इसलिए ये सब कहानियां रह जाती हैं, लोगों तक पहुंचती नहीं हैं। तो जरूरत है कि कोई जरिया निकले जिससे ये फिल्में बनें पंजाब में भी। अभी गुरविंदर की दूसरी फिल्म जो है वो भी पंजाबी में ही है। शायद उसको भी समय लगेगा फंड्स जमा करने में। पंजाबी में ऐसी फिल्में बनें तो अच्छा है।

बंत सिंह की कहानी पर कितना काम किया है?
मैं उनसे मिलकर आया हूं। मेरे गांव से ज्यादा दूर नहीं हैं। उनके घर गया हूं, उनके साथ बैठा हूं, बातें की हैं। रिसर्च वगैरह तो मैंने कर रखी है, अब थोड़ा सा अगर कोई मदद कर दे फंड्स में तो अच्छी फिल्म बन सकती है।

एनएफडीसी से जब ‘अन्ने घोड़े दा दान’ पर पैसे लगाए हैं तो आपकी इस फिल्म पर क्यों नहीं...
हां, वो अप्लाई वगैरह करना पड़ेगा, इतना आसान नहीं है। देखिए...

‘मुंबई चा राजा’ को रिलीज करने का कब तक का है?
बातचीत अब शुरू करूंगा, वह भी बहुत मुश्किल काम है रिलीज करना। रिलीज भी हो जाती है तो स्क्रीन नहीं मिलती। लोगों को पता भी नहीं चलता कि ऐसी फिल्म आई और चली गई। ये समस्या है हमारी स्वतंत्र फिल्मों के साथ दिखाने की।

Official Poster of 'Mumbai Cha Raja'
‘मुंबई चा...’ का पहला ख्याल कब आया? फिर बात कैसे आगे बढ़ी?
काफी टाइम से था मेरे दिमाग में। फिल्म का बैकड्रॉप गणपति फेस्टिवल का था। मैं आइडिया आने के बाद दो गणपति फेस्ट मिस कर चुका था तीसरा नहीं करना चाहता था। जो भी संसाधन थे उनको लेकर बना दी। गणपति फेस्ट की लाइटिंग और माहौल बहुत खूबसूरत होता है। बहुत जीवंत होता है। उसे भी डॉक्युमेंट करना थे। यहां रोजमर्रा की जिदंगी में स्ट्रगल करने वाले बच्चे नजर आते हैं जो बहुत खुश होते हैं नाचते हैं। हमें सीख मिलती है कि समाज ने इनको कुछ दिया नहीं, न ही इनके पास कुछ है, फिर भी ये खुश हैं और जैसे भी है लाइफ को एंजॉय कर रहे हैं। ये सब चीजें मैंने नोटिस की, जब एक फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था। मैंने जितनी भी फिल्में देखी हैं उनमें कोई भी फिल्मकार इन चीजों को कैप्चर करता नहीं दिखा है। उन फिल्मों में दिखाया ये गया है कि ये लोग अपनी गरीबी से दूर भागना चाहते हैं। वैसा है नहीं। उन्हें पछतावा नहीं है, वो अपनी लाइफ को एंजॉय करते हैं। उन्हें प्रॉब्लम्स तो हैं पर छोटी-छोटी चीजों में वो खुशी ढूंढ लेते हैं।

बजट कितना लग जाता है?
आपके संसाधन क्या हैं इस पर निर्भर करता है। अगर आपके पास लोकेशन है, टेक्नीशियन हैं, एक्टर हैं तो बना सकते हो। निर्भर करता है कि स्टोरी क्या है। डिजिटल टेक्नॉलजी आ गई है तो आपके पास स्टोरी अच्छी है, एक्टर हैं, सीन रेडी हैं, क्रू है तो बना सकते हो कम लागत में भी।

आपकी फिल्म में जो काम करने वाले लड़के हैं या दूसरे लोग नॉन-एक्टर्स हैं या सड़कों पर उनसे कम्युनिकेट करने वाले हैं... उन्हें कैसे चुना?
इसमें गुब्बारे बेचने वाला कैरेक्टर अरबाज मेरे यहीं गुब्बारे बेचता है। मैंने एक-दो बार उससे बात की तो बड़ा मजा आया। फिर देखा कि सब मजे लेकर उससे बात करते हैं, जो लेता है वो भी, जो नहीं लेता वो भी। मुझे लगा कि इस बच्चे में बहुत करिज्मा है। ये स्क्रीन पर काफी अच्छा भी लगेगा। फिर जो मुख्य किरदार है राहुल उसे यूं लिया कि हमारे यहां एक समोसा बेचने वाला है। मैंने उससे पूछा कि मुझे इस एज ग्रुप में बच्चा चाहिए, कोई हो तो बताओ। तो उसने मुझे एक ग्रुप दिया, उसमें कोई सात-आठ बच्चे थे। उन बच्चों से हमने बात की, उन्हें जाना। पता लगा कि राहुल की रियल लाइफ में दिक्कतें थी। उसके पिता पीकर आते हैं, मां को मारते हैं, राहुल को भी मारते हैं। वह भाग जाता है। फिर हफ्ते-दस दिन बाहर रहता है। किसी तरह जीता है, कभी रिक्शा में सो जाता है, कभी कहीं चला जाता है। ये सुनकर मुझे लगा कि जिसने रियल लाइफ में ये देखा है तो उसे इससे किरदार निभाने में मदद मिलेगी। हमने एक्टिंग तो उसकी देखी नहीं थी पर लगा कि यार ये कर लेगा, क्योंकि उसे वो इमोशन पता हैं। बच्चे यूं कास्ट हुए। जो बड़े हैं मां-बाप के रोल में तो उनमें से एक तो मेरा दोस्त ही था। वो यहां थियेटर करता है। एक्ट्रेस भी थियेटर से है। उन्हें मैं जानता था और एक दूसरी फिल्म की कास्टिंग के दौरान उनसे ताल्लुक हुआ।

उनसे काम निकलवाते हुए कोई दिक्कत आई हो तो?
नहीं, बच्चों से तो काम निकलवाते हुए तो कोई दिक्कत हुई नहीं। किस्मत कहूंगा कि बड़ी आरामी से कर दी एक्टिंग। कुछ-कुछ बच्चे माइंडसेट बना नहीं पा रहे थे, जो हमें चाहिए था। इसलिए हमने वो सीन बदले। काफी कुछ इनकी लाइफ से हमने नया सीखा। नए सीन जोड़े और शूटिंग के दौरान ही कहानी भी बदली। काफी मजेदार रहा बच्चों के साथ काम करना।

बहुत बार ये होता है कि जो पहली फिल्म बना रहे होते हैं, वो अपनी निजी जिंदगी के अनुभव फिल्म में डालते हैं, उन इमोशन का पुश ही इतना होता है। क्या फिल्म के इन किरदारों का या कहानी के किसी हिस्से का आपकी असल जिदंगी से कोई लेना-देना रहा है। या खुद से बाहर इन चीजों को देखा और उनसे कहानी बनाई?
कुछ-कुछ वाकये हैं जो मैंने अपनी लाइफ से डाले हैं। जैसे बचपन की चीजें हैं, मुझे लगता है कि हर किसी ने वो काम किए होंगे। जैसे, किसी के बाग से आम चुरा लिए। आलू वाले के आलू चुराना। ऐसी बचपन की मस्तियां मैंने डाली हैं फिल्म में। और गणपति में जो-जो चीजें हम किया करते थे, वो सब फिल्म में दिखाया है। बच्चों की क्या-क्या एक्टिविटी रहती हैं और उन्हें क्या करने में मजा आता है ये सब कैप्चर किया है।

कहानी का औपचारिक खाका क्या है?
पारंपरिक नरेटिव स्ट्रक्चर फॉलो नहीं किया है। गणपति में लास्ट के दो दिन के दौरान के वाकये दिखाए हैं जिनसे पता चलता है कि इन बच्चों की एक्टिविटी क्या है, इनके घर पर क्या होता है, ये कहां अपना वक्त बिताते हैं। कहानी है उसमें पर बहुत बारीक है। बस अनुभव है इन बच्चों का और गणपति उत्सव में जो शहर का माहौल होता है उसका।
 
अभी तक कौन-कौन से फेस्ट में जाकर आई है?
टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर हुआ था। रफ कट ‘फिल्म बाजार - वर्क इन प्रोग्रेस’ सेक्शन में दिखाया गया, तब बन ही रही थी। वहां अवॉर्ड मिला हमें। वहां ‘मिस लवली’ और ‘शिप ऑफ थिसियस’ जैसी अच्छी फिल्में भी थीं। वहां से रॉटरडम प्रॉड्यूसर्स लैब में चुनी गई। चार फिल्में चुनी गईं थी, उसमें एक मेरी थी। फिर आबूधाबी कॉम्पिटीशन सेक्शन में थी जहां सिर्फ गिनी-चुनी फिल्में ही दुनिया भर से दिखाई जाती हैं। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे बेहतरीन मंचों से ये फिल्में चुनते हैं। फिर ये मुंबई फिल्म फेस्टिवल में थी इंडियन कॉम्पिटीशन में जहां इसको स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड मिला। अब ये प्रीमियर होगी पाम स्प्रिंग फिल्म फेस्टिवल में जो कि अमेरिका का बहुत प्रतिष्ठित फिल्म समारोह है। काफी फिल्म फेस्ट अभी इंट्रेस्टेड हैं। बुलावे तो आ रहे हैं अभी देखते हैं कि कहां जाती है।

वही बात है कि डिस्ट्रीब्यूटर्स नहीं मिलते, मिल जाते हैं तो दर्शक नहीं मिलते। यानी फिल्म बनाने के बाद सारी चुनौतियां शुरू होती हैं, इनका क्या कोई समाधान है? क्या युवा साथी सलाह देते हैं? या पैशन फॉर सिनेमा वाले दिनों के जो दोस्त हैं उनसे मशविरा होता है? क्योंकि करना तो पड़ेगा, बिना किए सारी मेहनत बेकार जाएगी।
मुझे लगता है कि हर कोई अपनी जंग अकेले लड़ रहा है और अगर हम एक समूह के तौर पर साथ आकर डिस्ट्रीब्यूटर्स या टीवी चैनलों से बात करें तो शायद कोई सुनने वाला हो। अभी तो कोई सुनता नहीं है। पक्के तौर पर लोग तो अलग फिल्में देखना चाहते हैं। पर फिलहाल तो सब बैठे हैं, अकेले ही जंग लड़ रहे हैं, पता नहीं कैसे सबको साथ लाया जाए और आगे बढ़ा जाए। हम यूनाइटेड फ्रंट बनाकर बातचीत करें तो शायद कुछ हो सकता है। बाकी अभी जो भारतीय सिनेमा के सौ साल हुए हैं तो इस मौके पर सिनेमा के प्रसार के लिए सरकार कुछ पैसा दे रही है। हम बहुत सारे फिल्ममेकर्स ने याचिका दस्तख़त करके दी है कि कोई 200 करोड़ रुपये इंडिपेंडेंट फिल्मों के लिए अलग थियेटर्स बनाने पर खर्च किए जाएं। अगर वैसा कुछ होता है तो भी अच्छा है। बाकी ये हाइली टैक्स्ड इंडस्ट्री है, 30-40 फीसदी मनोरंजन टैक्स कटता है। फ्रांस में तो ऐसे पैसे से छोटी फिल्मों की मदद की जाती है, वहां तो अंतरराष्ट्रीय फिल्मों तक पर पैसा खर्च किया जाता है। अब हमें पता नहीं कि हमारे यहां एंटरटेनमेंट टैक्स जो लिया जाता है उसका कितना हिस्सा फिल्मों पर निवेश किया जाता है या नहीं किया जाता है। हालांकि इस पैसे का इस्तेमाल भी इंडिपेंडेंट फिल्में बनाने में होना चाहिए। अभी एनएफडीसी और फिल्म डिविजन ही हैं जो फिल्में बनाते हैं, पर मुझे लगता है कि फंड ग्रुप भी होने चाहिए। विदेशों में फंड ग्रुप होते हैं, यानी आपको अपने प्रोजेक्ट डिवेलपमेंट के लिए फंड मिलते हैं। फिर आपको फिल्म बनाने के लिए फंड मिलता है, फिर फिल्म डिस्ट्रीब्यूट करने के लिए फंड मिलता है। तो ऐसा हमारे यहां भी हो। हमारे यहां भी एग्जिबीशन सेंटर हों और सरकार फंड देना शुरू करे तो काबिल लोगों को फिल्म बनाने और आगे आने का मौका मिलेगा। ये सब किया जा सकता है।

‘मुंबई चा...’ से पहले क्या-क्या किया है?
इंजीनियरिंग की। अमेरिका में मास्टर्स की। वहां काम भी किया। एक महीने का कोर्स किया फिल्ममेकिंग में। फिर लगा कि ये चीज करनी चाहिए क्योंकि बहुत सम्मोहक लगी। बचपन से ही पेंटिंग में बहुत रुचि रही है। फोटोग्राफी भी की है। सिनेमा भी विजुअल मीडियम है जैसे एडिटिंग हो गई, सिनेमैटोग्राफी हो गई, डायरेक्शन हो गया.. तो उस कोर्स ने मेरी इमैजिनेशन को काफी कैप्चर किया, लगा कि जिंदगी में कुछ और किया तो मतलब नहीं है। तो धीरे-धीरे जॉब समेटी और यहां आ गया। यहां आकर एक वेबसाइट थी पैशन फॉर सिनेमा जो अब नहीं है, उस पर लिखने का काम शुरू किया। बॉलीवुड से थोड़ा अलग जो फिल्में थीं उनको हमने सपोर्ट किया। इंडियन इंडिपेंडेट सिनेमा पर लिखा। वहां एक्सपोजर मिला। फिर लगा कि अगर आपको फिल्म बनानी है तो बस स्क्रिप्ट लिख दो, जो भी हो। पर बात बनी नहीं क्योंकि वो कमर्शियल फिल्में तो थी नहीं जो मैं बनाना चाहता था। उसके बाद पांच-छह स्क्रिप्ट लिखीं। उसमें से एक के बारे में लगा कि ये बना सकते हैं। तो फिर मैंने ये फिल्म बनाई। बाकी मेरा किसी भी फिल्म में एक भी ऑफिशियल क्रेडिट है नहीं।

किस फिल्म से जुड़े रहे थे, क्या सीखा?
ये तो बहुत मुश्किल है कहना कि क्या सीखा, क्योंकि आपको पता नहीं चलता कि क्या सीख रहे हैं। पर जैसे, ‘नो स्मोकिंग’ थी तो उसके सेट पर जाना और वहां से ब्लॉगिंग करना, ये ट्रेंड मैंने शुरू किया। मेकिंग देखी फिल्म की, पर वो भी कमर्शियल प्रोसेस ही था। फिर मौका मिला न्यू यॉर्क में सनी देओल की फिल्म ‘जो बोले सो निहाल’ के प्रोडक्शन का हिस्सा बनने का। उसमें मेरा काम था कि सनी देओल की वैन न्यू यॉर्क में चलाता था और उन्हें घुमाता था। यहां भी इसका और ‘नो स्मोकिंग’ का प्रोसेस एक जैसा ही लगा। फिर एहसास हुआ कि डायरेक्टर बनना है तो ये सब करने से नहीं होगा। इसलिए मैंने इधर-उधर काम ढूंढने में ज्यादा ध्यान दिया नहीं। सोचा कि क्यों किसी के आगे-पीछे घूमना, ये एक तरह से वक्त जाया करना ही हुआ। कुछ मिलना तो है नहीं, फ्रस्ट्रेशन ही आएगी। लगा कि स्क्रिप्ट तैयार करूं और फिल्म बनाऊं। एक प्रोड्यूसर मुझे मिले भी, उनकी हालत खराब हो गई तो पीछे हट गए। बाकी कुछ साल पहले डिजिटल टेक्नोलॉजी आ गई तो इसने बहुत आसान कर दिया, कि अगर आपके पास कहानी है और अच्छे आइडिया हैं तो आप अच्छी फिल्म बना सकते हो। तय किया कि एक फिल्म बनाई जाए, चाहे जितने भी संसाधन हों, जैसी भी कहानी हो। फिर मैंने अपनी टीम जुटाई, लोकेशन देखी, कास्टिंग की बच्चों की और शूट कर दी फिल्म।

आपने इंजीनियरिंग की, फिल्में देखीं, फिर यहां आ गए, पैशन फॉर सिनेमा में लिखा। तो जिस वक्त आप लिख रहे थे और दूसरी फील्ड से आए फिल्म पैशनेट्स से बात करते थे, तो भीतर बहुत आग रही होगी। अब फिल्मों का मेकिंग प्रोसेस समझने के बाद और ये देखने के बाद कि नए फिल्मकारों के लिए सारा रास्ता बंद पड़ा है, क्या कुछ निराशा उस आग में जुड़ गई है?
मैं ये तो नहीं कहूंगा कि निराश हूं। निराश तो बिल्कुल नहीं हूं। एक तरह से संतुष्टि है कि ‘मुंबई चा राजा’ ने एक मुकाम हासिल किया है। अगर इंडिया के इंडिपेंडेंट सिनेमा की बात आती है तो 2012 के इंडि सिनेमा की हरेक सूची में इस फिल्म का नाम है। और जिन दूसरी फिल्मों का इसमें नाम लिया जाता है, उनमें से अधिकतर बॉलीवुड के पैसे से बनी है। शायद मेरी ही ऐसी है जो प्योरली इंडिपेंडेंट है और उसी वजह से सराही गई है। इस बात की खुशी है कि हमने ऐसी फिल्म बनाई और इतने बड़े-बड़े बजट वाली फिल्मों के बराबर में इसका नाम लिया जा रहा है। हर कोई जानता है इस फिल्म के बारे में। तो निराश नहीं हूं। एक तरह से ये बहुत अच्छी बात है कि डिजिटल टेक्नोलॉजी आने से जिसको फिल्म बनानी है वो बना रहा है। कुछ लोग हैं जो इंतजार भी कर रहे हैं कि कोई आए, उनके कंधे पर हाथ रखे और उनकी फिल्म बनवा पाए। कुछ शायद वेट ही करते रहेंगे। बहुत सारी फिल्में बन रही हैं अभी जो लोग डिजिटली शूट कर रहे हैं। ये अच्छा साइन है जो पिछले एक साल में देखने में आ रहा है। मतलब किसी की परवाह न करते हुए खुद ही आगे आकर फिल्म बना रहे हैं। एक परेशान करने वाली बात ये है कि बॉलीवुड की कुछ फिल्में हैं जिन्हें इंडिपेंडेट फिल्मों का नाम दिया जा रहा है। जिनमें विचार भी वैसा नहीं है, जाने-माने एक्टर भी हैं, गाने हैं और सब चीजें हैं... फिर भी इंडिपेंडेंट करार दिया जा रहा है। हमारे यहां हर तरह के सिनेमा के लिए जगह है, दर्शक हर तरह की फिल्में देखता है। लोग सलमान की फिल्में भी देखेंगे, अनुराग की भी देखेंगे, इंडिपेंडेंट भी देखेंगे। पर जो फिल्म बॉलीवुड से आ रही है उसे कम से कम बॉलीवुड फिल्म कहा जाना चाहिए, इंडिपेंडेंट नहीं। ये थोड़ा गड़बड़ है। लोगों को बेवकूफ भी बनाया जा रहा है कि ये इंडिपेंडेंट फिल्म है।

पर हमारे यहां इंडिपेंडेंट या इंडि की परिभाषा भी बहुत से लोगों को नहीं मालूम। वो असमंजस में हैं कि क्या है? छोटे बजट की फिल्म, जो थोड़ी अलग लगे या जो थोड़ी आर्टिस्टिक लगे... उसके कह देते हैं। ये स्पष्टता आई नहीं है...
हां, ये बहुत गलत धारणा है स्वतंत्र सिनेमा को लेकर। यहां तक कि हमारे क्रिटिक्स भी गड़बड़ करते हैं, आम लोगों की तो बात छोड़िए आप। क्रिटिक्स को भी नहीं पता कि कौन सी बॉलीवुड हैं और कौन सी इंडिपेंडेट। फेस्टिवल्स भी कन्फ्यूज्ड हैं, उन्हें भी समझ नहीं आता, वो भी बॉलीवुड फिल्म को चुन लेते हैं।

ये जानना इसलिए भी जरूरी है कि जब कभी भी कोई ऐसी यंत्रावली (मेकेनिज्म) बनेगी जो इंडि फिल्मों को सपोर्ट करने की शुरुआत करेगी तो सारी दिक्कत शुरू हो जाएगी... नुकसान कहां होगा?
जैसे कुछ फिल्में हैं तो वो गवर्नमेंट फंड से बन रही हैं और उनमें बॉलीवुड का पैसा भी लगा है। तो फंड देने वाले भी कन्फ्यूज्ड हैं। एक फिल्म पर इतना लग रहा है जितने में आप चार-पांच इंडिपेंडेंट फिल्में बना लोगे। फिर तुलना जब होती है तो बॉलीवुड की फिल्मों से होती है। सूचियां गलत हो जाती हैं। क्रिटिक्स देखते नहीं हैं। क्योंकि उन फिल्मों को फायदा मिल रहा है, उन्हें रिलीज भी मिल रही है, बजट भी हाई रहा है। तो ये टक्कर भी समान नहीं रहती। अब इसकी परिभाषा भी चकराने वाली है, आप कैसे परिभाषित करोगे कि कौन सी इंडि फिल्म है, कौन सी नहीं है। ये लोग जैसे बात करते हैं या किसी रिपोर्ट को पढ़ते हैं तो बहुत अजीब लगता है कि ये आदमी क्या बात कर रहा है, इसको बिल्कुल भी पता नहीं है।

परिवार वाले क्या कहते हैं, आपके फैसले से खुश हैं, या कहते हैं छोड़ दो?
किस्मत से मेरे परिवार वाले तो शुरू से ही बहुत सहयोग करते रहे हैं। उनकी वजह से ही मैं ये फिल्म बना सका हूं। अगर फैमिली सपोर्ट न हो तो तकरीबन नामुमकिन है ये सब करना। पर वो काफी डाउट में भी रहते ही हैं कि क्या कर रहा है। लेकिन उन्हें समझाना आपकी जिम्मेदारी है। उन्हें यकीन दिलाओ की मुझे तो यही करना है और कुछ करना ही नहीं है। शुरू में अगर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार का कोई बच्चा कहता है कि मुझे फिल्म बनानी है तो पेरेंट्स सोचेंगे ही और खासकर तब जब आपने इंजीनियरिंग की हुई है। मगर उन्हें यकीन दिला पाते हो तो वो पक्का सपोर्ट करेंगे, और सपोर्ट बहुत जरूरी है क्योंकि आपकी लाइफ में बहुत प्रॉब्लम्स आएंगी औऱ आप अकेले नहीं कर सकते हो। परिवार का समर्थन चाहिए ही चाहिए।

आपके परिवार में किस-किस का सपोर्ट रहा?
मेरे डैडी सुरिंदर सिंह माहे और माताजी सुखदेव कौर का। मेरी वाइफ रीना माहे का बहुत योगदान रहा। मेरे भाई सुखदीप सिंह ने बहुत मदद की है।

कौन से ऑल टाइम फेवरेट भारतीय या विदेशी फिल्मकार है जिनकी फिल्मों को आप बहुत सराहते हैं?
मुझे सत्यजीत रे बहुत पसंद हैं। उनकी स्टोरीटेलिंग क्षमता जो है वो बहुत ही उच्चतर क्वालिटी की है। मैं तुलना नहीं कर रहा पर उन्होंने एक अलग ही मुकाम हासिल किया है। बिल्कुल एफर्टलेस स्टोरीटेलिंग है उनकी। फिर मुझे कुरोसावा (अकीरा) बहुत पसंद हैं, जापान के फिल्ममेकर। अभी इंटरनेशनल फिल्मकारों में मुझे ब्रिलेंटे मेंडोजा बहुत पसंद हैं। वह फिलीपीन्स के हैं। इनका काफी नाम भी है, तो समकालीनों में ये बहुत पसंद हैं।

आपके बचपन की प्यारी और प्रभावी फिल्में कौन सी रहीं? क्योंकि बचपन की फिल्मों का शायद सबसे ज्यादा योगदान होता है आपके फिल्मी तंतुओं को विकसित करने में...
तब तो कमर्शियल देखकर भी मजा आता है। हमने भी अमिताभ बच्चन साहब की फिल्में देखीं, बड़ा आनंद आता था। वह मेरे फेवरेट थे, माने अभी भी हैं। फिल्ममेकर्स में, शायद हम इंजीनियरिंग कर रहे थे जब शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ आई थी, मुझे बहुत अच्छी लगी थी। एक मुझे ‘मालगुड़ी डेज’ बहुत अच्छा लगता था जो टीवी पर आता था। फिर रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ बहुत अच्छी लगी। अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्राइडे’ अच्छी लगी थी नई फिल्मों में। मुझे वर्ल्ड सिनेमा बहुत अट्रैक्ट करता है। वर्ल्ड सिनेमा बहुत असर छोड़ता है। ‘सिटी ऑफ गॉड’ (2002) है, ईरान की बहुत फिल्में हैं जैसे ‘चिल्ड्रेन ऑफ हैवन’ (1997)। फिर मेक्सिसन-स्पैनिश फिल्म निर्देशक लुई बुवेल की ‘लॉस ऑलविडोस’ (1950) है। विट्टोरियो डि सीका की ‘बाइसिकिल थीव्ज’ (1948) है।

आपकी फिल्म का जैसे वो दृश्य मैं देखता हूं जहां गली में वो धुआं छोड़ने वाला आता है और उसमें से जो उस गुब्बारे बेचने वाली की इमेज उभरती है, थोड़ा सा ही दिखता है कि दूसरे लड़के उसे पीटते हैं और फिर दृश्य को धुंआ ढक लेता है और आवाजें ही सुनाई देती हैं। या फिर दूसरा दृश्य जिसमें लड़के के हाथ पीछे को बंधे हैं और वह बेतहाशा सड़कों पर दौड़ रहा है और पीछे पीटने के लिए दौड़ रहा है उसका पिता। तो जब इंडिया में और विश्व में हजारों-लाखों फिल्में बन रही हैं या बन चुकी हैं। हजारों-लाखों कहानियां अलग-अलग विजुअल्स के साथ कही जा रही हैं या कही जा चुकी हैं... ऐसे में ये दो सीन जब मैं देखता हूं तो फिर भी मौलिक लगते हैं। सवाल ये है कि इतना कुछ कहा जा चुका है कि कोई हद नहीं है और हर चीज कही जा चुकी है। उसके बावजूद अब कुछ ऐसा नया लाना है हर फिल्मकार को जो बिल्कुल मौलिक हो और पहले किसी ने कहा न हो और दिखाते ही लोगों को बस रोक ले। ये कितना कठिन है और कैसे आता है?
मुझे लगता है कि अगर अपने कैरेक्टर्स के प्रति ईमानदारी है तो वहां से बहुत कुछ मिलेगा। अगर आप अपने किरदारों के साथ रहो और देखो कि वो क्या कर रहा है तो रियललाइफ से ऐसी-ऐसी चीजें मिलेंगी। जैसे, धुंए वाला सीन हमने किया तो पता चला कि बच्चे ऐसे मस्ती करते हैं कि धुएंवाला आता है और बच्चे एक-दूसरे को पीटते हैं और भाग जाते हैं। हमें लगा कि ये मजेदार चीज होगी दिखाने में। तो हमने शूट किया और शायद पहले ऐसे कहीं नहीं दिखाया गया है। बाकी जिस भागने वाले सीन की आप बात कर रहे हो वो दरअसल मेरी कल्पना ही थी कि दिखाया जा सकता है और असल लगेगा। इससे थोड़ा ये इमोशन भी आएगा कि बच्चा भाग रहा है और सब अपनी ही दुनिया में चल रहे हैं, कोई मदद नहीं कर रहा, किसी का ध्यान उस बच्चे पे जा नहीं रहा है। पता नहीं ये कहना मुश्किल है कि कहां से ये विचार आया होगा।

हम पुराने से पुराने लिट्रेचर और माइथोलॉजी का इस्तेमाल वैसे क्यों नहीं कर पाते जैसे हॉलीवुड फिल्में अपनी कॉमिक्स और नई-नवेली बायोग्राफी का कर लेती हैं? हम हजारों साल पुरानी चीजों का फायदा नहीं ले रहे हैं और वो पचास-साठ साल पुरानी चीजों को बार-बार रीसाइकल कर रहे हैं। ये अंतर क्यों है? इसका कारण आप क्या पाते हैं?
इसकी अहमियत आगे और भी ज्यादा होगी जब हम स्क्रिप्ट केंद्रित होंगे... उनके बजट और हमारे बजट में जमीन-आसमान का फर्क है। उनके बजट और मार्केट हमसे ज्यादा हैं। उनका एक प्रोसेस सेट है। सुनियोजित है। टेक्नीशियन तो हमारे भी अच्छे हैं। पर उनका जो प्रोसेस है, जैसे वहां साऊंड डिजाइन चलेगा तो अगर अच्छी फिल्म है तो उसके साउंड डिजाइन में आठ-नौ महीने और एक साल तक लग जाता है। हमारे यहां वैसा नहीं है। अगर ग्राफिक्स का काम होगा तो मिसाल लें जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ की, जिसे बनने में दस-बारह साल लग गए। वैसा हमारे यहां नहीं होता, न उतनी मेहनत लगती है न उतना पैसा। तो ये एक प्रॉब्लम है कि अधिकतर फिल्में साठ-पैंसठ दिनों में शूट होकर खत्म हो जाती हैं। हमारे यहां पैसे स्टार्स को चले जाते हैं, फिल्म में नहीं लगते। अगर 100 करोड़ की फिल्म है और उसमें 50 करोड़ स्टार ले लेगा तो बजट खत्म सा हो जाता है। हॉलीवुड में फिल्म बड़ी है तो स्टार्स नए होते हैं। अगर वहां एक एपिक बनाते हो तो आप शायद टॉम क्रूज को नहीं लोगे, नए एक्टर को लोगे। इंडिया में उल्टा है, अगर कोई बड़ी फिल्म बना रहे हो तो बड़ा स्टार चाहिए। कोई रिस्क भी लेना नहीं चाहता कि फिल्म में पैसा लगाएं और फिल्म अच्छी बनाएं। सबको इज़ी मनी चाहिए, मतलब टेबल पर ही पैसा बनाना है। हमारी धंधे वाली सोच है न। हम प्रॉडक्ट अच्छा नहीं बनाना चाहते। हम बना बनाया खेल चाहते हैं कि फलां स्टार ले लेंगें, उतने करोड़ दे देंगे, 20-30 करोड़ खर्चा करके बना लेंगे और 100 करोड़ में बेच देंगे। अगर स्टार को ही पचास करोड़ दे रहे हो सौ करोड़ की फिल्म में, तो कैसे चलेगा। बॉलीवुड के व्यूअर्स ज्यादा है हॉलीवुड से... वेस्टर्न ऑडियंस ज्यादा पैसे देकर भी फिल्म देखती हैं। सोच का फर्क है प्रोसेस का फर्क है। अब अगर एक इंडिपेंडेंट फिल्म बनाना चाहते हैं तो कोई प्रॉड्यूसर या डिस्ट्रीब्यूटर नहीं चाहता कि हाथ लगाए। मुनाफे की बात आ जाती है।

इस साल तमाम फिल्म फेस्टिवल में किन फिल्मों ने अपनी प्रस्तुति या कहानी से आपको हैरान किया है?
एक जो मैंने देखी और मुझे बहुत अच्छी लगी वह है चिली की ‘इवॉन्स वीमन’ (फ्रांसिस्का सिल्वा)। ‘शिप ऑफ थीसियस’ बहुत अच्छी फिल्म है इंडियन में, आनंद गांधी ने बनाई है। ‘मिस लवली’ भी कुछ अलग है। एक ‘शाहिद’ है हंसल मेहता की... मतलब ये दो-तीन फिल्में बहुत अच्छी निकली हैं। एक मैंने ‘द पेशेंस स्टोन’ (अतीक़ रहीमी) देखी है, अफगानिस्तानी कहानी पर बनी है, बहुत अच्छी लगी।

जब सक्षम होंगे और संसाधन पास होंगे तो कैसे विषय पर फिल्में बनाना पसंद करेंगे?
भारत की वो कहानियां कहना चाहूंगा जो दरकिनार कर दी जाती हैं। अभी असली भारत की कहानियों पर फिल्में इसलिए नहीं बनाई जा सकतीं क्योंकि वो मिडिल क्लास मार्केट को केटर नहीं करती हैं, वो मल्टीप्लेक्स में नहीं चलती हैं। मैं तो यही चाहूंगा कि ये कहानियां कही जाएं। जो स्क्रिप्ट मेरे पास हैं उनमें चार कहानियां तो जातिगत भेदभाव (कास्ट डिसक्रिमिनेशन) को लेकर ही हैं। एक बंत सिंह की है। फिर बिहार के जातिगत नरसंहार पर है। एक महाराष्ट्र में वाकया हुआ था जिसमें एक दलित फैमिली को सरेआम मार दिया गया था, एक कहानी वो है। फिर एक दलित आदमी के बारे में है जो मंदिर बनाना चाहता है, उसकी कहानी है। कुछ कमर्शियल स्क्रिप्ट भी हैं। एक फिल्म है जिसमें सारे मसाले हैं बॉलीवुड के। उन क्लीशे को मिलाकर कुछ मीनिंगफुल बनाने की कोशिश की है। उसमें आतंकवाद भी है और सोशल मुद्दे भी। काफी कहानियां हैं, देखते हैं पहली कौन सी शुरू होती हैं।

क्या ऐसी भी फिल्में हैं जिनसे आप नफरत करते हैं?
नफरत तो किसी से नहीं, पर कोई एजेंडा थोपने के लिए बनाता है तो नहीं देखता। मुझे फिल्म में एक मासूमियत नजर आनी चाहिए, वो फिल्म देखने में नजर आएगी। जिन फिल्मों में डायरेक्टर का ध्यान नहीं हो और जबरदस्ती बनाने की कोशिश की हो तो मजा नहीं आता।

कैसी किताबें पढ़ते हैं?
पढ़ता ही नहीं। मैंने कोशिश की है पर पढ़ी नहीं जाती, मैं नॉन-फिक्शन पढ़ लेता हूं पर पता नहीं क्यों किताबें मुझे रोक नहीं पातीं। मैं विजुअल्स से ज्यादा आकर्षित होता हूं। फिक्शन से थोड़ी एलर्जी सी है। नॉन-फिक्शन तो फिर भी पढ़ लेता हूं। इसमें असली इंसानों की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। ये सब मुझे पसंद हैं चाहे वो न्यूजपेपर आर्टिकल हों, ऑनलाइन ब्लॉग हों या अच्छे नॉन-फिक्शन हों।

‘पैशन फॉर सिनेमा’ क्यों बंद हो गया?
शुरू ऐसे हुआ कि इस जगह हम अपने विचार बांट सकें, पर चलते-चलते अपने आप में बहुत बड़ा बन गया, बड़े नाम वहां जुड़ गए। फिर वह प्लेटफॉर्म ऐसा हो गया कि काफी कुछ अचीव करना चाहता था। और भी काफी कुछ शुरू हो गया था। फिर वो ब्लॉग भर नहीं रहा कि अपना पॉइंट ऑफ व्यू शेयर कर पाएं। वो पीरियोडिकल या न्यूजपेपर जैसा हो गया। कि हर हफ्ते और महीने इतना तो छापना ही है। फिर पता नहीं कि कुछ मुख्य ऑथर्स के बीच हुआ कि वो बंद कर दिया गया। पुराने लोग वहां नहीं लिख रहे थे, वो वहां से निकल गए। एक मौके पर तो इतना स्तर गिर गया कि बरकरार करने का मतलब नहीं रहा।

फिल्म क्रिटिसिज्म कैसा होना चाहिए?
जो कॉमन प्रॉब्लम मैंने देखी हैं वो ये कि क्रिटिक्स लिखते हुए उम्मीद करते हैं कि फिल्म में ये होना चाहिए था। वह लिखते हैं कि डायरेक्टर को ये दिखाना चाहिए था ये नहीं दिखाना चाहिए था। जबकि हमें ये देखना चाहिए कि फिल्म में डायरेक्टर ने क्या किया है। अगर आप ऐसे करते हो तो लगता है कि आपका पहले से फिल्म को लेकर कोई एजेंडा है। आप उसे एक सेकेंड में इसलिए खारिज कर देते हो। क्रिटिक्स ही ऐसा करते हैं कि तुरंत कह देते हैं कि ये फिल्म तो भइय्या उस फलानी फिल्म जैसी है। जबकि उसे थोड़ा ये सोचना चाहिए कि फिल्ममेकर क्या करना चाहता था और वह ईमानदारी से क्या कर पाया है।

न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज आने वाले वक्त में शायद हम लोगों के बीच चर्चा का विषय रहेंगे। तो इन पर आप क्या सोचते हैं, होनी चाहिए, नहीं होनी चाहिए, कितनी होनी चाहिए?
मुझे लगता है कि अगर आपका सब्जेक्ट डिमांड करता है तो .. फिर वही ऑनेस्टी वाली बात है कि हां, अगर वो किरदार वाकई में ऐसा है तो आप कर सकते हो। ऑनेस्टी से फिल्माओं तो ठीक जरूर लो। पंजाब में तो हर लाइन में आपको दो गालियां मिलेंगी। अगर न्यूडिटी को कमर्शियल पॉइंट से भुना रहे हो तो फिर वो गलत है। अगर आपकी कहानी की मांग है तो दिखा सकते हो, गालियां भी दिखा सकते हो, पर अगर वो नहीं है और आप जबरदस्ती थोप रहे हो तो दिक्कत है। बाकी सेंसर बोर्ड पर है कि आपको क्या सर्टिफिकेट देते हैं। फिर लोगों पर है कि वो कैसे लेते हैं।

बहुत अधिक निराश होते हैं तो क्या करते हैं, कौन सी फिल्म लगाकर बैठते हैं या क्या सोचते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं होता मेरे साथ। मुझे नहीं लगता कि मैं निराश होता हूं। पर निराशा और नकारात्मक सोच को दूर रखना चाहिए। पहले लगता था क्या करें। फिर सोचा कि खुद ही करना पड़ेगा, कोई मदद तो आने से रही। फिल्म आपकी ही जिम्मेदारी है आपको ही पहल करनी पड़ेगी। पर अब तो फिल्म बन गई है फेस्ट में ट्रैवल कर रही है। पर मायूस तो होना ही नहीं चाहिए। इस दुनिया में तो बहुत धीरज चाहिए, यहां मायूसी की कोई जगह नहीं है। सही में अगर सिनेमा से लगाव है आपका, तो मायूसी आएगी ही नहीं। ये मीडियम सिखाता चलता है और इंटरनेट इतना अच्छा जरिया है कि सारा ज्ञान और सामग्री वह उपलब्ध है।

(साक्षात्कार का छोटा प्रतिरूप यहां पढ़ सकते हैं, कृपया पृष्ठ संख्या 4 पर जाएं)
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गजेंद्र सिंह भाटी