Sunday, October 16, 2011

माइकल पिंटो को देख गुस्सा क्यों आता है

फिल्मः माई फ्रेंड पिंटो
निर्देशकः राघव धर
कास्टः प्रतीक बब्बर, कल्कि कोचलिन, अर्जुन माथुर, दिव्या दत्ता, श्रुति सेठ, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अमीन हाजी, करीम हाजी
स्टारः ढाई, 2.5

नीले होते परदे पर जब 'संजय लीला भंसाली फिल्म्स' नाम उभरता है तो दर्शकों में फुसफुसाहट शुरू हो जाती है। 'अरे यार ये उसी बेकार डायरेक्टर की फिल्म तो नहीं। मुझे नहीं पसंद।' फिर ओपनिंग क्रेडिट्स आते हैं, समीर-पिंटो के बचपन की ब्लैक एंड व्हाइट फोटो में छिपे। डेब्युटेंट डायरेक्टर राघव धर की ये रचनात्मकता उस नीलेपन से ध्यान हटाती है। परदे पर पिंटो आता है और दर्शक उसके कैरेक्टर में इंट्रेस्ट लेने लगते हैं। चार्ली चैपलिन और रॉवन एटकिंसन इन दोनों ही ने जो हास्य ईजाद किया था, उसे प्रतीक यहां फॉलो करते नजर आते हैं। आप प्रतीक के ऊपर की तरफ अधखुले होठों और बेबी स्टेप्स लेते कदमों में चैपलिन को पाएंगे। वहीं चीजों से टकराने, सामान गिराने, अपनी पीछे जलती कार छोड़ जाने और मल्लू डॉन को परदे से लटककर अनजाने में ही बचाने में एटकिंसन यानी मिस्टर बीन को। 'माई फ्रेंड पिंटो' कहीं-कहीं खूब हंसाती है, पर ओवरऑल बहुत अच्छी नहीं है। पिंटो के रोल के साथ बहुत कुछ किया जा सकता था, पर प्रतीक की कुछ सीमाएं हैं, यहीं पर कैरेक्टर कुचला जाता है। प्रतीक के साथ फ्रेम में जहां-जहा शकील खान और दिव्या दत्ता है, वहीं वह ऑरिजिनल लग पाते हैं। दिव्या का नशे में झूमते हुए पिंटो से बात करने वाला सीन बेदाग है। शायद सबसे ठीक। फिल्म के गानों में लॉन्जी फर्नांडिस की कोरियोग्रफी है। चूंकि वह संजय भंसाली की फिल्मों में रेग्युलर हो गए हैं ऐसे में यहां भी गानों में वैसे ही स्टेप दिखते हैं। म्यूजिक निराश करने वाला है। एक बार देखने के लिए फिल्म बुरी नहीं है, ट्राई कर सकते हैं। ज्यादा शिकायत नहीं होगी।

कहानी पिंटो की
माइकल पिंटो (प्रतीक बब्बर) गोवा के किसी छोटे से गांव में पला बढ़ा है। मुंबई अपने दोस्त समीर (अर्जुन माथुर) के पास आया है। ममा के गुजरने के बाद अब दुनिया में बचपन के बेस्ट फ्रेंड समीर के अलावा कोई नहीं है। समीर अपनी नौकरी और अपनी म्यूजिक कंपनी बनाने के सपने में उलझा है। उसकी वाइफ सुहानी (श्रुति सेठ) पिंटो को देखकर ज्यादा खुश नहीं होती। अब कहानी इसी रात के कुछ घंटों की है। कि कैसे समीर और सुहानी पिंटो को अपने फ्लैट पर छोड़कर एक पार्टी में जाते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि पिंटो वहां से निकलकर अपने भोलेपन से मुंबई को दोस्त बना लेता है। उस रात वह स्ट्रगलिंग डांसर आरती (कल्कि कोचलिन), रिटायर हो चुके मलयाली डॉन (मकरंद देशपांडे), बी ग्रेड फिल्मों की एक्ट्रेस रेशमा (दिव्या दत्ता) और बहुत से दूसरे लोगों के दिलों में जगह बना लेता है।

किरदारों का काम-धाम
# प्रतीक का चेहरा मासूम जरूर है पर फेक लगता है, डायलॉग डिलीवरी में तो वो अभी पासिंग मार्क्स लेना भी नहीं सीखे हैं।
# कल्कि के जमा चार-पांच सीन हैं। फिल्म में वो डांसर बनना चाहती हैं, पर हम पूरे दो घंटे बस प्रतीक को ही नाचते देखते हैं। टैक्सी से उतरती कल्कि की पहली झलक बहुत आकर्षक है, उसके बाद खास नहीं।
# 'लगान' के बाघा यानी अमीन हाजी अपने हमशक्ल भाई करीम हाजी के साथ नजर आते हैं। इनके रोल भी अधपके हैं।
# राज जुत्शी को उनके नकली दांतों में पहचान पाना मुश्किल होता है।
# मकरंद देशपांडे का बेस्ट वर्क 'सर' में ही पीछे छूट गया है। शुरू के सीन्स में तो ये ही समझ नहीं आता कि वो पारसी डॉन हैं कि साउथ इंडियन। बाद में जब कहीं लिखा आता है मल्लू डॉन, तब मालूम चलता है।
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गजेंद्र
सिंह भाटी

Thursday, October 13, 2011

कहानी सुना पाने के लिए 'हीरो विद अ थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़ने की ही जरूरत नहीं है

अंजुम रजबअली से बातचीत...

अंजुम रजबअली सुलझे हुए फिल्म राइटर हैं। गोविंद निहलानी की फिल्म 'द्रोहकाल' में सह-लेखन से उन्होंने शुरुआत की। उनकी लिखी 'आरक्षण' कुछ हफ्ते पहले रिलीज हुई। प्रकाश झा की पिछली चारों फिल्मों की स्क्रिप्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहे अंजुम ने 'चाइना गेट', 'गुलाम', कच्चे धागे' और 'राजनीति' जैसी फिल्में भी लिखी हैं। साथ ही साथ वह एफटीआईआई, पुणे और मुंबई के विस्लिंग वुड़्स फिल्म स्कूल में एचओडी हैं।

इन दिनों किस काम में व्यस्त हैं?
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट, पुणे में ऑनररी हैड ऑफ द डिपार्टमेंट हूं। विस्लिंग वुड्स में भी यही जिम्मा संभाल रहा हूं। दोनों जगह पढ़ाता हूं। वर्कशॉप भी होते रहते हैं। 'इप्सा' सोसायटी की फैलोशिप में चीफ एडवाइजर हूं। फिल्म राइटर एसोसिएशन में कमिटी मैंबर हूं। जहां तक लिखने का काम है तो प्रकाश की अगली फिल्म लिख रहा हूं। 'इश्किया' फेम अभिषेक चौबे के साथ स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। केरल के फिल्ममेकर साजी करूण के लिए भी अंग्रेजी में एक स्क्रिप्ट लिखी है।

इन दोनों फिल्म स्कूलों में बैकग्राउंड और टैलंट के लिहाज से कैसे स्टूडेंट आते हैं?
दोनों के फाइनेंशियल बैकग्राउंड अलग होते हैं। उनमें अपने-अपने समाज और उनकी सोशल-इकोनॉमिक रिएलिटी का भी फर्क होता है। मगर उनमें यूनिवर्सल ह्यूमन क्वेस्ट एक बराबर होती है। चाहे रतन टाटा का बेटा हो या ऑफिस पीयून का, दोनों में खोज की भावना समान होती है। इंटेंसिटी समान होती है। मैं अध्यापक के तौर पर उन्हें बस इतना बता सकता हूं कि तुम्हारी रिएलिटी ये है। दोनों ही संस्थानों के बच्चों को जिंदगी और आसपास के सवाल परेशान करते हैं और यहीं से आइडिया और क्रिएटिविटी आते हैं।

क्या 'हीरो विद थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़े बगैर भी कभी कोई किस्सागो किसी गांव से आकर अपनी कहानी से हमें हिलाकर रख सकता है?
सौ प्रतिशत। कैंपबेल की किताब 'हीरो विद...' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट कोई आविष्कार नहीं हैं। इन्हें किसी ने अपने मन में नहीं गढ़ा है। अगर कोई नेचरल तरीके से चीजों के टच में हो, तो ही काफी है। आदमी के अपने बेसिक स्ट्रगल से ड्रामा निकलता है। हां, इन्हें पढऩे से क्लैरिटी आ जाती है। जो अपने टैलंट को नेचरली आगे बढ़ाते हैं उन्हें फिल्म स्कूलों की जरूरत नहीं है। हां, जिन्हें लगता है कि गाइडेंस चाहिए, वो आएं तो उनकी हैल्प होती है।

दोनों संस्थानों के स्टूडेंट्स ने अब तक किन अच्छी फिल्मों पर काम किया है?
पुणे में सात साल के कोर्स में और विस्लिंग वुड्स में पांच साल के कोर्स में तकरीबन हमारे स्टूडेंट्स ने पंद्रह बेहद अच्छे क्रेडिट लिए हैं। उन्होंने 'शैतान', 'रॉक ऑन', 'आगे से राइट' और 'कच्चा लिंबू' जैसी हिंदी फिल्में लिखी हैं तो 'मी शिवाजी राजे भोसले बोलतोय' जैसी मराठी और अपर्णा सेन की 'इती मृणालिनी' जैसी बंगाली फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी हैं।

'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों की लेखन शैली को आप कैसे देखते हैं?
इन फिल्मों के कैरेक्टर अपने समाज से बहुत गहरे से जुड़े हैं। असल लाइफ से जुड़े इश्यू निकलकर आते हैं। दर्शकों को पहले ही पता था, हमें अब पता लग रहा है कि इस किस्म की ऑथेंटिसिटी रखी जाए तो लोग रिलेट कर सकते हैं। 'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों में आपको बड़े मुद्दों की जरूरत नहीं है, एक स्कूटर भी इश्यू बन सकता है। पहले हमें बड़े ड्रामा चाहिए थे। अमिताभ अपनी मां को लेने आ रहा है, और मंदर इंडिया अपने बेटे को मार रही है। अब इनकी जरूरत नहीं है। माहौल खुला है, लोगों का नजरिया विस्तृत हुआ है। हबीब फैजल ने ये फिल्म लिखी तो कहा कि ये वही लोग हैं जिनसे वह वास्ता रखते हैं। जैसे जयदीप की 'खोसला का घोंसला' थी। 'चक दे इंडिया' थी। 'तारे जमीं पर' थी। अब बड़ी फिल्मों में भी इन मुद्दों को लेकर विश्वास है।

'डेल्ही बैली' और 'कॉमेडी सर्कस' के बीच क्या राइटर्स की कोई आचार संहिता होती है?
नहीं, होती तो नहीं है। सब व्यक्तिगत एस्थैटिक सेंस और व्यक्तिगत मूल्यों पर निर्भर करता है। मुझे ये चीजें गवारा नहीं इसलिए मैं नहीं लिखता हूं। कुछ लिखते हैं। कुछ हद तक ये सोशल सच्चाई का प्रतिबिंब है।

प्रॉड्यूसर्स-राइटर्स मसले में कौन सही है?
फिल्ममेकिंग के एक हिस्से के तौर पर राइटिंग की हमेशा अवहेलना की गई है। राइटर के रोल को प्रॉड्यूसर सही से समझ नहीं पाते। उन्हें सही वैल्यू नहीं देते। राइटर भी वही लिख रहे हैं जो डायरेक्टर कहता है। वो उसमें इंडिपेंडेंट वैल्यू कुछ नहीं लाते। समाधान इसी में है कि प्रॉड्यूसर-राइटर एक दूसरे के बीच के इक्वेशन को समझें।

अपने अनुभव से, रिसर्च करके या टीम में, क्या स्क्रिप्ट लिखने का कोई तय तरीका है?
वैसे तो बहुत होते हैं, पर मूल बात ये है कि क्या एक व्यक्ति के तौर पर आप इमोशनली कनेक्ट कर पा रहे हैं। जयदीप ने कहीं पढ़ा कि वीमन हॉकी की टीम कुछ टूर्नामेंट जीतकर आई है और मीडिया में उसको बहुत छोटी सी जगह मिली। हालांकि क्रिकेट को बहुत ज्यादा स्पेस मिलती है। तो उसे अचंभा हुआ कि यार ये भी तो एक अचीवमेंट है। जब वो गया और कैंप देखा तो वह इमोशनली प्रभावित हुआ। वो बोल रहा था और उसकी आंखों में आंसू आ रहे थे। ऐसा इमोशनल कनेक्शन होना सबसे जरूरी है।

कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग में क्या फर्क है?
कहानी मुख्यत: छह-आठ पेज या पंद्रह पेज तक की फ्री फ्लोइंग कहानी है। बाद में मैं स्टेपआउट लाइन बनाता हूं जिसे स्क्रीनप्ले कहते हैं। फिल्म के जो 100 मूमेंट होते हैं उन्हें कैप्चर करके एक-एक सीन में तोड़ा जाता है। इनका ब्यौरा स्क्रीनप्ले के तौर पर लिखा होता है। अब इन एक-एक सीन को बयां करते हुए डायलॉग लिखे जाते हैं, जो कैरेक्टर बोलता है।

अपने बारे में कुछ बताएं।
एक छोटे से गांव कलागा से हूं जो काठियावाड़, गुजरात में है। वहां जमीन है, खेतीबाड़ी है। पिता किसान थे। शुरुआती बचपन गांव में गुजरा। फिर मुंबई में पढ़ाई हुई। फिल्मराइटर बनने का नहीं सोचा था। साइकॉलजी में मास्टर्स किया। संयोग से बाबा आजमी (शबाना आजमी के भाई) से दोस्ती हो गई। उसने कहा तो लिखा फिर अच्छा लगने लगा। महबूब खान, विमल रॉय, गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल की फिल्में पसंद थी। जब कहानियां लिखने की बात आई तो मुझे अपने गांव आने वाले सिंगिंग स्टोरीटेलर 'बारोठ' याद आए। तो बारीकी से याद करने लगा कि कैसे थे, कैसे गाते थे, क्या रिदम होती थी। फिर जिन गोविंद निहलानी का काम मैं बहुत पसंद करता था उन्हीं के साथ 'द्रोहकाल' लिखी। फिर महेश भट्ट के लिए 'गुलाम' लिखी। उसके बाद राजकुमार संतोषी के और प्रकाश झा के साथ काम किया।

चंद पसंदीदा स्क्रिप्ट
# पिरवी (शाजी करूण)
# ब्लू (विदेशी भाषा में)
# जो जीता वही सिकंदर
# दीवार
# लगान
# पाथेर पांचाली
# मेघे ढाका तारा

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गजेंद्र
सिंह भाटी

Sunday, October 9, 2011

एटॉम, हमारा रॉकी बेलबोआ

फिल्म: रियल स्टील
निर्देशक: शॉन लेवी
कास्ट: ह्यू जैकमेन, डकोटा गोयो, इवेंजलीन लिली
स्टारः साढ़े तीन, 3.५


'...एज द डेज कीप टर्निंग इनटू नाइट' गाने की धीमी सूदिंग आवाज के साथ चार्ली का ग्रे ट्रक दौड़ा जा रहा है, पीछे अपने रोबॉट को लादे। ओल्ड अमेरिका की सड़कों, खाली खेतों और कस्बों से गुजरता हुआ। बीच में मेलों में जगमगाते तंबू आ रहे हैं। दरअसल ये वो कंट्रास्ट है जो एक रोबो या मशीनी मानव वाली फिल्मों में हम नहीं देख पाते हैं। कुछ ऐसा ही झक्कास मशीनी सा हमने 1979 में आई 'मैड मैक्स' में देखा था। रेगिस्तान में चीथड़ों और लेदर के न जाने कौन से जमाने के फैशनेबल कपड़े पहने जंगली से मगर इंसान, उनकी गाडिय़ां और तेल की लूट। हीरो मेल गिब्सन। हथियारों के साथ ये बीहड़ का कंट्रास्ट था। हाल ही में डेनियल क्रेग की 'काऊबॉयज वर्सेज एलियंस' आई। उसमें भी स्पेसशिप में आए एलियंस से घोड़ों पर गायें टोरने वाले चरवाहों का मुकाबला था। कम से कम अत्याधुनिक हथियार और बस दुनाली बंदूकों के साथ। चाहते तो डायरेक्टर शॉन लेवी 'रियल स्टील' में उड़ते स्पेसशिप, अल्ट्रा मॉडर्न डिजाइन के शहर, गैजेट्स और कॉम्पलैक्स रोबो लैंग्वेज रख सकते थे पर उन्होंने नहीं रखकर इस फिल्म को स्पेशल बनाया। इससे फिल्म इंसानी होकर दर्शकों के ज्यादा करीब हो जाती है। यही तो वजह है कि इमोशन के इस निचोड़ से 'एटॉम' की जापानी रोबॉट 'ज्यूस' से बॉक्सिंग फाइट आंखों में आंसू ले आती है। यही तो वजह है कि एटॉम 2011 का रॉकी बेलबोआ लगने लगता है। पीपुल्स चैंपियन हो जाता है। अपनी सरलता, आरामदायक वॉचिंग और ट्रीटमेंट की वजह से ये फिल्म एक मस्ट वॉच बन जाती है। जो लोग फिल्मों के नाम पर उलझा हुआ मांझा छोड़ जाते हैं उन्हें देखना चाहिए कि एक अच्छी फिल्म बनाने में बस इतना ही कॉमन सेंस लगता है, डेढ़ होशियारी नहीं। बिना उम्मीदों के जाएं, मगर जरूर देखें। फैमिली, फ्रैंड्स और खुद के साथ।

चार्ली और मैक्स की कहानी
पूरी रात अपना ट्रक ड्राइव करके चार्ली केंटन (ह्यू जैकमेन) अपने रोबॉट एमबुश को 2020 के अमेरिका में कहीं बॉक्सिंग करवाने ले जा रहा है। पर उसका रोबॉट भिड़ता है बहुत वजनी सांड सिक्स शूटर से और ध्वस्त हो जाता है। कर्ज में डूबे चार्ली की लाइफ कुछ ऐसी ही है। अपने बॉक्सिंग करियर में कुछ नहीं कर पाया है, अब पता चलता है कि उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड मर गई है और पीछे चार्ली का 11 साल का बेटा मैक्स (डकोटा गोयो) छोड़ गई है। इन बाप-बेटे को कुछ वजहों से साथ रहना है। मैक्स रोबो बॉक्सिंग को अलग नजरिए से देखता है और फिर उसे पुरानी जेनरेशन का रोबो एटॉम मिलता है। यहीं से आगे की एक्साइटिंग हार-जीत की जर्नी शुरू होती है।


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गजेंद्र
सिंह भाटी

Saturday, October 8, 2011

सच्चे दोस्त साथ बैंक तक लूटा करते हैं

फिल्म: थर्टी मिनट्स ऑर लेस
निर्देशक: रुबिन फ्लैश्चर
कास्ट: जेसी आइजनबर्ग, अजीज अंसारी, दिलशाद वदसारिया, डैनी मेकब्राइट, निक स्वॉर्डसन
स्टार: ढाई, 2.5

'थर्टी मिनट्स ऑर लेस' के पोस्टर पर बड़े अक्षरों में लिखा था 'फ्रॉम द मेकर्स ऑफ जॉम्बीलैंड।' बता दूं कि 'जॉम्बीलैंड' डायरेक्टर रुबिन फ्लैश्चर की पहली और सबसे मजेदार फिल्म थी। इसमें भी जेसी आइजनबर्ग थे। तो वो जो डरपोक, निराश और फेल लड़के की इमेज मजबूती से जेसी के करियर में बनी उसमें रुबिन की इस पहली फिल्म का भी हाथ था। फिर 'द सोशल नेटवर्क' ने जेसी का रुतबा बदला। अब आई है 'थर्टी मिनट्स...।' इस फिल्म में उतना और वैसा एंटरटेनमेंट नहीं है जिसके होने की अनिवार्य शर्त हॉलीवुड की फिल्मों में बड़ी बेदर्दी से रखी जाती है। जिसमें ताबड़तोड़ स्पीड, लच्छेदार डायलॉग और हमारे प्रियदर्शन की फिल्मों जैसी भागमभाग हो। 'थर्टी मिनट्स...' में ये सब नहीं है। जो लोग स्क्रिप्ट के नेचरल और सिंपल होने की अहमियत समझते हैं, उन्हें ये तीन स्टार वाली अच्छी फिल्म लगेगी, बाकियों के लिए आधा स्टार कम। जेसी और अजीज का तालमेल जितना हंसोड़ और सुहावना है, उतना ही ढीला तालमेल है डैनी और निक स्वॉर्डसन का। फिल्म की पहली और सबसे अरुचिकर चीज यही है। दोस्त लोग जा सकते हैं, एंजॉय करेंगे। फैमिली के साथ इसलिए नहीं जा सकते क्योंकि इसे 'ए' रेटिंग मिली है। आप फिल्म में कहीं अचानक असहज हो उठेंगे। जो दर्शक कन्फ्यूज हैं वो डीवीडी का इंतजार कर सकते हैं या फिर फिल्म के टीवी पर आने का। फिल्म का एक फनी डायलॉग मुझे वो लगा जब निक के शरीर पर बम बंधा है और शेट उसे निकालने के उपाय ढूंढ रहा है और बोलता है, 'वॉट डिड दे डू इन हर्ट लॉकर।'

आधी कहानी
विटोज पिज्जा में डिलीवरी बॉय है निक (जेसी आइजनबर्ग)। विटोज की '30 मिनट में पिज्जा घर वरना फ्री' वाली पॉलिसी का शिकार निक हमेशा होता है। हमेशा कुछ सेकंड से चूक जाता है। बॉस की डांट खाता है। उसका स्कूल टाइम बेस्ट फ्रेंड शेट (अजीज अंसारी) अब खुद स्कूल टीचर है। निक उसकी जुड़वा बहन कैटी (दिलशाद वदसारिया) से प्यार करता है, पर शेट से छिपकर। वहीं, ड्वेन (डैनी मेकब्राइट) और ट्रैविस (निक स्वॉर्डसन) दो नाकारा इंसान हैं। बैठे मक्खियां मारना और फालतू काम करना पसंद है। इनके ढीले मिजाज पर ड्वेन का पूर्व आर्मीमैन पिता चिढ़ता है और इनको खूब सुनाता है। पर अब ड्वेन किसी हत्यारे को हायर करके अपने पिता को मरवाना चाहता है। (सीरियसली मरवाना चाहता है, पर फनी लगता है) ताकि फिर उसे कोई कुछ न कहे और पिता के पैसों से वह प्रॉस्टिट्यूशन का बिजनेस शुरू कर सके। इतनी कहानी इसलिए सुना दी क्योंकि फिल्म में कुछ सरप्राइजिंग है तो उसका ट्रीटमेंट और कैरेक्टर्स। कहानी नहीं। सुपारी की एवज में उसे एक लाख डॉलर की रकम देनी पड़ेगी। इसके लिए वह ट्रैविस के साथ मिलकर सोचता है कि किसी बंदे को बैंक लूटने के लिए ब्लैकमेल करे और पैसे का इंतजाम करे। इन दोनों के लिए बैंक लूटने वाला वो बंदा बदकिस्मती से बनता है निक। ऐसे में क्या उससे कट्टी कर चुका शेट उसका साथ देगा? लास्ट में क्या होगा? कैसे होगा? यही निककहानी है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, October 6, 2011

जिन्हें नाज है डेविड पर वो कहां हैं: रास्कल्स

फिल्म: रास्कल्स
निर्देशक: डेविड धवन
कास्ट: अजय देवगन, संजय दत्त, कंगना रनाउत, अर्जुन रामपाल, लीजा हैडन, चंकी पांडे
स्टार: डेढ़, 1.5


डेविड धवन की 'आंखें, 'साजन चले ससुराल', 'हीरो/कुली नं. वन' और 'स्वर्ग' पर बड़ी हुई पीढ़ी उनकी फिल्मों पर जान छिड़कती है। उनकी 'राजाबाबू' आज टीवी पर आती है तो सौंवी बार भी फिल्म की रिपीट वैल्यू वही होती है। मगर वो ये डेविड नहीं हैं जो हमें 'रासकल्स' देते हैं। यूं ज्यादातर नहीं होता कि थियेटर में लोग हंस रहे हों और फिल्म मुझे न पसंद आए। पर यहां हुआ। फिल्म वाहियात है, अब से पहले बन चुकी फिल्मों का फालूदा है, डायलॉग्स में हद से ज्यादा बॉलीवुड का रेफरेंस है, गानों की कोरियोग्रफी अश्लील से कम नहीं है, न कोई कहानी है न एक्टिंग। सारे कैरेक्टर इतने लाऊड हैं कि सिर दुखने लगता है। कुछ जगह हंसी आती है, पर अगले ही पल छिन जाती है। चेतू और भग्गू की ये कहानी अगर दिखाई जानी भी चाहिए रात को साढ़े दस के बाद वाले शो में, वो भी 'ए' सर्टिफिकेट के साथ। ये जुमला डेविड धवन की फिल्मों के साथ शुरू हुआ था कि 'इनकी फिल्में देखनी हैं तो दिमाग घर छोड़कर जाइए।' अब नया जुमला ये है कि 'अपना कॉमन सेंस और मॉरैलिटी भी दरिया में बहाकर जाइए।'

बदमाशों की कहानी
वैसे तो युनूस सजवाल के लिखे इस स्क्रीनप्ले में कहानी ढूंढने से भी नहीं मिलती पर पढ़ लीजिए। भगत भोंसले (अजय देवगन) और चेतन चौहान (संजय दत्त) ठग यानी कॉनमैन हैं। दोनों अलग-अलग वाकयों में एंथनी (अर्जुन रामपाल) को लूटकर बैंकॉक भाग जाते हैं। यहां दोनों एक ही पैसेवाली लड़की खुशी (कंगना रनाऊत) को फंसाने और एक-दूसरे को रास्ते से हटाने की कोशिशों में लगे हैं। इर्द-गिर्द कॉलगर्ल डॉली (लीजा हैडन) और होटल मैनेजर बीबीसी (चंकी पांडे) जैसे किरदार भी हैं।

बंद करो बर्बादी
एक गाना है 'परदा गिरादे'। इसमें ढेर सारे टेक्नीशियन, पैसा, डांसर्स और रिसोर्सेज खर्च हुए हैं, मगर बदले में मिलते हैं तो बस कुछ अश्लील इशारे और घटिया कोरियोग्रफी। उसपर अजय और संजय दत्त का अकड़े शरीरों के साथ नाचने की कोशिश करना। इस गैर-जरूरी फिल्म को बनाने में भी सोमालिया के गरीब बच्चों के जिक्र को बार बार लाया गया है। एक तो ये असंवेदनशील है और दूजा ये संदर्भ दर्शकों के रत्तीभर भी काम नहीं आता। डॉली और खुशी से बात-बात पर जोंक की तरह चिपटते दोनों हीरो छिछोरे लगते हैं। ऐसा लगता है कि डायरेक्टर डेविड धवन कोमा से उठे हैं और फिल्में बनाना सीख रहे हैं। और 'रासकल्स' के रूप में उनकी अच्छी और लुभावनी फिल्मों का विकृत रूप सामने आया है।

वूडी से लेते डेविड
सन 1969 में वूडी एलन की बनाई एक कॉमेडी फिल्म आई थी 'टेक द मनी एंड रन'। इसके एक सीन में वूडी का किरदार बैंक लूटने जाता है। काऊंटर पर कैशियर को वह जो पर्ची देता है उसपर लिखा होता है, 'प्लीज पुट 50 थाउजेंड डॉलर इनटू दिस बैग। एक्ट नेचरल। आई एम पॉइंटिंग अ गन एट यू।' इस अद्भुत सीन में कैशियर एक्ट को एब्ट और गन को गब पढ़ता है। फिर पूरे बैंक का स्टॉफ इन दो शब्दों पर ही उससे बहस करने लगता है। ठीक 42 साल बाद डेविड धवन गन को गम पढ़वाते हुए ये सीन 'रासकल्स' में अजय-संजय और बैंकॉक के बैंक स्टॉफ पर फिट कर देते हैं। ऐसी बहुत सारी नकलें मारकर भी बुरी तरह फेल होने की ये फिल्म बेहतरीन मिसाल है।

संजय छैल के डायलॉग्स का खेल
# मैं हूं अजरूद्दीन जलालुद्दीन फकरूद्दीन फेसबुकवाला।
# अमेरिका को लादेन मिल गया, लेकिन आपको चेतन नहीं मिलेगा।
# ए भगु भाई, आ तमारे मस्त मस्त दो नैन अस्त कैसे हो गए।
# क्या कहानी बनाई है, इसे सुनकर तो संजय लीला भंसाली 'ब्लैक' पार्ट-2 बना दे।
# हे भगवान, आज पता चला कि कपड़ा उतारना कितना आसान है और पहनाना कितना मुश्किल। (शायद फिल्म में सबसे फनी)
# नग्नमुखासन, बैंक की लोन की तरह ध्यान अंदर लो और इंस्टॉलमेंट की तरह छोड़ो।
# प्लीज वेलकम भगत भोसले, भोसले के होंसले ने दुश्मनों के घोंसले तोड़ दिए।
# एंथनी बदनाम हुआ रास्कल्स तेरे लिए।
# जिस आंधी तूफान में लोगों के आशियाने उजड़ जाते हैं, उसमें हम लोग चड्डी और बनियान सुखाते हैं।
# ये इसकी बेटी है? इसकी कैसे हो सकती है। काले गुलाबजामुन के घर सफेद रसगुल्ला।

आखिर में
धवन की कॉमेडी को गोविंदा और करिश्मा बेस्ट एक्सप्लोर कर पाते थे। यहां सब लाऊड हैं। फिल्म में शक्ति कपूर, कादर खान, गोविंदा और जॉनी लीवर को मिस करते हैं। इस फिल्म में हैं तो बस चंकी पांडे और सतीश कौशिक। वो भी फीके से। अनीस बज्मी, रूमी जाफरी, कादर खान... डेविड से ज्यादा हम उनकी सफल फिल्मों के राइटर्स को मिस कर रहे हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, October 2, 2011

समझने में आसान और बनावट में होशियार फिल्मकारी

फिल्मः साहब बीवी और गैंगस्टर
निर्देशकः
तिग्मांशु धूलिया
कास्टः माही गिल, जिमी शेरगिल, रणदीप हुड्डा
स्टारः तीन, 3.0

पहला शॉट। हरे पेड़ों के झुरमुट के बीच पुराने पैलेस का व्यू। ऊपर एक चीत्कारती हुई चील मंडरा रही है। यहीं से धोखे और प्यार की इस कहानी का मूड तय हो जाता है। कि यहां सब चील और बाज जैसे मांस नोचने वाले हैं। शेक्सपीयरन ड्रामा या विशाल भारद्वाज की फिल्मों में जो अंधेरा और कड़वापन होता है वो बहुत बार दर्शकों की समझ से बाहर होता है। ऐसी फिल्में बेहद तनाव देने वाली और मुश्किल होती हैं। यहीं पर 'साहब बीवी और गैंगस्टर' अलग हो जाती है। बेडरूम ड्रामा होते हुए भी और 'हासिल' और 'शागिर्द' जैसे ठोस निर्देशक (तिग्मांशु धूलिया) के हाथों बनी होने के बावजूद फिल्म सरल है, पर पूरी तरह स्मार्ट भी। खासतौर पर बड़े शहरों के दर्शकों के लिहाज से आराम से समझ में आने वाला ड्रामा है। स्क्रिप्ट और डायलॉग ऐसे हैं जो इन दिनों फिल्मों में दुर्लभ हो गए हैं। फिल्म के सब कैरेक्टर्स की एक्टिंग बेदाग है। ये जरूर है कि सेकंड हाफ में फिल्म की कसावट जरा ढीली हो जाती है। कुछ एडल्ट सब्जेक्ट, कुछ सेकंड हाफ का ढीलापन और कुछ जरा कम धांसू क्लाइमैक्स। इन तीन वजहों से फिल्म बहुत बेहतरीन नहीं हो पाती है। देखने की सलाह।

एक छोटी पूर्व रियासत में
उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश में कहीं एक छोटी सी रियासत है। यहां के राजा साहिब (जिमी शेरगिल) खुद को राजनीतिक और आर्थिक रूप से ताकतवर बनाए रखने में लगे हैं। रानी (माही गिल) दिमागी तौर पर प्यार की भूखी है, पर साहिब का प्यार लालबाड़ी की महुआ (श्रिया नारायण) के पास है। कन्हैया (दीपराज राणा) बरसों से साहिब की परछाई है। साहिब का लोकल दुश्मन है गेंदा सिंह (विपिन शर्मा)। फिर हवेली में बबलू उर्फ ललित (रणदीप हुड्डा) की एंट्री होती है। यहीं से कहानी में प्यार, धोखा, छल, खून और साजिशें सरल तरीके से शामिल होती हैं।

मधुर और डिफाइनिंग गाने
फिल्म के गाने कहानी के तीनों किरदारों को डिफाइन करते हैं। शुरू में ही 'जुगनी दम साहिब दा भरदी, पर ए प्यार यार नू करदी...' सुनाई देता है और जुगनी, साहब, यार की कहानी समझ आ जाती है। फिर फिल्म की दो नायिकाओं (माही और श्रिया) के मन का हाल बताने आता है 'रात मुझे ये कह के चिढ़ाए, तारों से भरी मैं, तू अकेली हाये...''साहिब बड़ा हठीला...' गाने के बोल जिमी के किरदार के लिए है। अपनी रानी, अपने कस्बे को लोगों, अपने दुश्मनों और अपनी लाइफ के प्रति सरवाइव करने के हठीले रवैये को न्यायोचित करता हुआ। गैंगस्टर कहलाने वाले बबलू के हिस्से सटीक बोल आते हैं। 'मैं एक भंवरा, छोटे बागीचे का, मैंने ये क्या कर डाला...'। इन सभी गानों का संगीत गुनगुनाने लायक है। फिल्म में उनकी प्लेसिंग और भी बेहतर।

ऐसे हों डायलॉग और राइटर लोग
संजय चौहान तिग्मांशु की लेखनी से निकले नगीने...
1. और सुनो.. जिसे जान से मार रहे हो, उसे दोस्त तो नहीं कहो। (साहिब अपने दोस्त की सुपारी लेकर आए एक ठेकेदार से)
2. मार मार के खोल दूंगा इसको, और देखूंगा इसके अंदर क्या है जो मेरे अंदर नहीं है। (बबलू अपनी गर्लफ्रैंड से, उसके नए बॉयफ्रैंड को हॉकी से पीटते हुए)
3. जो भी करना तमीज से करना, यहां बदतमीजी भी तमीज से की जाती है। (साहिब की बीवी बबलू से)
4. वेजिटेरियन या नॉन वेजिटेरियन? जी मौकाटेरियन। (बबलू साहिब की बीवी से)
5. खाना क्या बनवाया है? मुर्गा मंगवाया है साहब। अबे, मुर्गी भी मंगवा लिया करो कभी। (गेंदा सिंह अपने आदमी से)
6. सोच समझ के तो इम्तिहान लिया जाता है, इंतकाम नहीं लिया जाता राजाजी। (गेंदा सिंह)

नजरअंदाज नहीं करें

# दीपल शॉ का यू.पी. के एक्सेंट में बबलू को बे, बेटा और बा बा लू कहना। उनके करियर का पहला स्मार्ट रोल, जहां वो नेचरल लगी हैं।
# मंत्री जी बने अभिनेता। उनका मुख्यमंत्री से फोन पर अपने थाइलैंड टूअर के बारे में बात करना और 'वहां' के 'उस' एक्सपीरियंस के बारे में कहना, 'सर वहां तो फील ही नहीं होता कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। देयर इज नो फील ऑफ चीटिंग, एट ऑल सर।'

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गजेंद्र सिंह भाटी