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Sunday, October 16, 2011

माइकल पिंटो को देख गुस्सा क्यों आता है

फिल्मः माई फ्रेंड पिंटो
निर्देशकः राघव धर
कास्टः प्रतीक बब्बर, कल्कि कोचलिन, अर्जुन माथुर, दिव्या दत्ता, श्रुति सेठ, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अमीन हाजी, करीम हाजी
स्टारः ढाई, 2.5

नीले होते परदे पर जब 'संजय लीला भंसाली फिल्म्स' नाम उभरता है तो दर्शकों में फुसफुसाहट शुरू हो जाती है। 'अरे यार ये उसी बेकार डायरेक्टर की फिल्म तो नहीं। मुझे नहीं पसंद।' फिर ओपनिंग क्रेडिट्स आते हैं, समीर-पिंटो के बचपन की ब्लैक एंड व्हाइट फोटो में छिपे। डेब्युटेंट डायरेक्टर राघव धर की ये रचनात्मकता उस नीलेपन से ध्यान हटाती है। परदे पर पिंटो आता है और दर्शक उसके कैरेक्टर में इंट्रेस्ट लेने लगते हैं। चार्ली चैपलिन और रॉवन एटकिंसन इन दोनों ही ने जो हास्य ईजाद किया था, उसे प्रतीक यहां फॉलो करते नजर आते हैं। आप प्रतीक के ऊपर की तरफ अधखुले होठों और बेबी स्टेप्स लेते कदमों में चैपलिन को पाएंगे। वहीं चीजों से टकराने, सामान गिराने, अपनी पीछे जलती कार छोड़ जाने और मल्लू डॉन को परदे से लटककर अनजाने में ही बचाने में एटकिंसन यानी मिस्टर बीन को। 'माई फ्रेंड पिंटो' कहीं-कहीं खूब हंसाती है, पर ओवरऑल बहुत अच्छी नहीं है। पिंटो के रोल के साथ बहुत कुछ किया जा सकता था, पर प्रतीक की कुछ सीमाएं हैं, यहीं पर कैरेक्टर कुचला जाता है। प्रतीक के साथ फ्रेम में जहां-जहा शकील खान और दिव्या दत्ता है, वहीं वह ऑरिजिनल लग पाते हैं। दिव्या का नशे में झूमते हुए पिंटो से बात करने वाला सीन बेदाग है। शायद सबसे ठीक। फिल्म के गानों में लॉन्जी फर्नांडिस की कोरियोग्रफी है। चूंकि वह संजय भंसाली की फिल्मों में रेग्युलर हो गए हैं ऐसे में यहां भी गानों में वैसे ही स्टेप दिखते हैं। म्यूजिक निराश करने वाला है। एक बार देखने के लिए फिल्म बुरी नहीं है, ट्राई कर सकते हैं। ज्यादा शिकायत नहीं होगी।

कहानी पिंटो की
माइकल पिंटो (प्रतीक बब्बर) गोवा के किसी छोटे से गांव में पला बढ़ा है। मुंबई अपने दोस्त समीर (अर्जुन माथुर) के पास आया है। ममा के गुजरने के बाद अब दुनिया में बचपन के बेस्ट फ्रेंड समीर के अलावा कोई नहीं है। समीर अपनी नौकरी और अपनी म्यूजिक कंपनी बनाने के सपने में उलझा है। उसकी वाइफ सुहानी (श्रुति सेठ) पिंटो को देखकर ज्यादा खुश नहीं होती। अब कहानी इसी रात के कुछ घंटों की है। कि कैसे समीर और सुहानी पिंटो को अपने फ्लैट पर छोड़कर एक पार्टी में जाते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि पिंटो वहां से निकलकर अपने भोलेपन से मुंबई को दोस्त बना लेता है। उस रात वह स्ट्रगलिंग डांसर आरती (कल्कि कोचलिन), रिटायर हो चुके मलयाली डॉन (मकरंद देशपांडे), बी ग्रेड फिल्मों की एक्ट्रेस रेशमा (दिव्या दत्ता) और बहुत से दूसरे लोगों के दिलों में जगह बना लेता है।

किरदारों का काम-धाम
# प्रतीक का चेहरा मासूम जरूर है पर फेक लगता है, डायलॉग डिलीवरी में तो वो अभी पासिंग मार्क्स लेना भी नहीं सीखे हैं।
# कल्कि के जमा चार-पांच सीन हैं। फिल्म में वो डांसर बनना चाहती हैं, पर हम पूरे दो घंटे बस प्रतीक को ही नाचते देखते हैं। टैक्सी से उतरती कल्कि की पहली झलक बहुत आकर्षक है, उसके बाद खास नहीं।
# 'लगान' के बाघा यानी अमीन हाजी अपने हमशक्ल भाई करीम हाजी के साथ नजर आते हैं। इनके रोल भी अधपके हैं।
# राज जुत्शी को उनके नकली दांतों में पहचान पाना मुश्किल होता है।
# मकरंद देशपांडे का बेस्ट वर्क 'सर' में ही पीछे छूट गया है। शुरू के सीन्स में तो ये ही समझ नहीं आता कि वो पारसी डॉन हैं कि साउथ इंडियन। बाद में जब कहीं लिखा आता है मल्लू डॉन, तब मालूम चलता है।
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गजेंद्र
सिंह भाटी

Friday, September 2, 2011

मनोरंजन और मैसेज बगैर देखना चाहें तो हाजिर है पीले जूतों वाली लड़की

फिल्म: दैट गर्ल इन यैलो बूट्स
निर्देशक: अनुराग कश्यप (I hope you feel the film, because you will not enjoy it.)
कास्ट: कल्कि कोचलिन, प्रशांत प्रकाश, कुमुद मिश्रा, पूजा सरूप, गुलशन दैवय्या, नसीरूद्दीन शाह, शिवकुमार सुब्रमण्यम
स्टार: ढाई, .5

'दैट गर्ल इन यैलो बूट्स' की शूटिंग शुरू करने से पहले निर्देशक अनुराग कश्यप जरूर वल्र्ड सिनेमा में गिनी जाने वाली कोरियाई या यूरोपियन फिल्मों के खुमार में रहे होंगे। एक फिल्ममेकर के लिए उन फिल्मों का जोन ही ऐसा होता है कि आपको उठ-जगाकर एक खास बोल्ड-ब्रीफ-क्रू फिल्मशैली बरतने के लि सम्मोहित कर देता है। बहुत अच्छी बात है। मगर इस तरह की फिल्में (ये फिल्म भी) फैमिली (या अकेले भी) मनोरंजन और अच्छे सामाजिक संदेश इन दो सबसे अहम लक्ष्यों को ठोकर मारते हुए आगे बढ़ती है। उन्हें निर्देशक खुद के लिए और खास दर्शकों को बौद्धिक तौर पर संतुष्ट करने के लिए ही बनाता है। हां, रेगुलर फिल्में इन फिल्मों से धाकड़ सिनेमैटिक लेंगवेज और तरोताजा लगने वाली स्क्रिप्ट के सबक सीख सकती हैं। आते हैं 'दैट गर्ल...' पर। ये फिल्म आपको खुश नहीं करेगी। चौंकाने के लिए और बीच-बीच में आंखों पर हाथ रखने के लिए बनाई गई है। देखने वाले इसे फिल्म फेस्टिवल्स में या यूटीवी वल्र्ड मूवीज चैनल पर किसी दिन देखेंगे। फिल्म के विषय और कुछ एडल्ट कंटेंट को छोड़ दें तो तारीफ का सबसे बड़ा कोना है अनुराग का अलग कथ्य वाला समृद्ध निर्देशन। फिर राजीव रवि की सिनेमेटोग्रफी और श्वेता वेंकट की एडिटिंग। अपनी इमेज के लिहाज से कल्कि अपने रोल में कहीं भी उन्नीस नहीं नजर आती हैं। मगर कहीं-कहीं कमाल तो कहीं ओवर। एक्टिंग में छाप छोड़ जाते हैं पूजा सरूप (न जाने ये अब तक मुंबई में सिर्फ थियेटर ही क्यों कर रही थीं) और गुलशन दैवय्या (हिंदी फिल्मों के यादगार गैंगस्टर्स में शामिल होते हुए)। फिल्म कभी भूले-भटके दोबारा देखूंगा भी तो इनकी एक्टिंग और फिल्ममेकिंग के हिस्सों को पढऩे के लिए।

पीले जूते किसके
बस
इतना जानें कि ब्रिटेन से रूथ अपने पिता के स्नेह भरे पत्र के सहारे उन्हें ढूंढने आई है। फोटो नहीं है, पता नहीं और मां का इस फैसले में समर्थन नहीं है। चूंकि वीजा संबंधी अड़चने हैं और पिता की तलाश करनी है तो एक मसाज पार्लर में काम करती है। पार्लर की मालकिन माया (पूजा सरूप) अच्छे दिल की लेकिन चौबीस घंटे फोन पर 'पकवास' करने वाली औरत है। रूथ ऑफिस-ऑफिस डोनेशन की शक्ल में घूस देती है। सादे कपड़ों वाला इंस्पेक्टर (कार्तिक कृष्णन) भी उसे घर के आगे ही बैठा मिलता है। एक्सट्रा मनी बनाने के लिए पार्लर में मसाज के अलावा 'और भी कुछ' करती है। बायफ्रैंड प्रशांत (प्रशांत प्रकाश) भी रूथ की जिंदगी में कुछ हल नहीं करता, बल्कि उसे मुश्किलें ही देता है। एक इच्छुक गैंगस्टर चितियप्पा गौड़ा (गुलशन दैवय्या) है जो फिल्म को इंट्रेस्टिंग करता है और रूथ को परेशान। मुंबई और रूथ की जिंदगी में अंधेरा बढ़ रहा है। क्लाइमैक्स बेहद कम एक्साइटिंग है इसके लिए तैयार रहें।

स्क्रिप्ट के दायरे में
आपको कई संदर्भ दिखाई देते हैं। ओशो का एनलाइटनमेंट, जिम मॉरिसन वाली टाई, पासपोर्ट ऑफिस में अफसर बाबू (मुश्ताक खान) की जेनुइन डकार और पीले जूते। 'गुलाल' में राम प्रसाद बिस्मिल की लिखी 'सरफरोशी की तमन्ना' की पुनर्रचना की गई थी और यहां करमारी गाने में कबीर के बदले-रखे शब्द हैं, जो सैंकड़ों साल बाद मुंबई की गंदली हकीकत पर फिलॉसफी की तरह फिट होते हैं। ये गीत फिल्म की सबसे यादगार चीज है। फिल्म में लिरिक्स वरुण ग्रोवर के हैं, उनकी अच्छी शुरुआत। फिल्म का म्यूजिक वल्र्ड सिनेमा वाली फिल्मों की सिग्नेचर ट्यून जैसा लगता है। इसकी अच्छी वजह है बैनेडिक्ट टेलर का नरेन चंदावरकर के साथ मिलकर संगीत देना। डायलॉग विविध किस्म के हैं। मसलन, तुम बड़ी सती सावित्री हो!; तुम कौनसी ब्रम्हा की छठी औलाद हो!; आई लाइक योर टीथ, सोर्ट ऑफ बग्स बनी मीट्स जूलिया रॉबट्र्स। यहां तक कि सिर्फ चंद सेकंड के लिए जब पीयूष मिश्रा ऑटो वाला बनकर आते हैं और रूथ को मा और दर बोलना सिखाते हैं।

एक जरूरी बात
चितियप्पा गौड़ा (गुलशन दैवय्या) नाम का अनोखा गैंगस्टर। अपुन, ठोक डाल, मच मच, खोखा, मेरे कू और भाई मैं क्या बोलता ए... न जाने मुंबई के सांचों में ढले गैंगस्टर्स की ये शब्दावली हिंदी फिल्मों में कितनी लंबी है, पर एक जैसी है। चितियप्पा की भाषा तरोताजा करने वाली है। कन्नड़ बोलता है, फिर कोशिश करके अंगे्रजी भी बोल ही लेता है। बस। अब ये चितियप्पा हमारी मूवीज में खास इसलिए है कि इसके कपड़े, बोली और व्यवहार स्टीरियोटिपिकल नहीं है। जैसा कि हमारी फिल्मों में दिखाया जाता है। दूसरा हमेशा डॉन या तो मराठी होते हैं या उत्तर भारतीय। जैसे कि 'मुंबई मेरी जान' में थॉमस (इरफान खान) से पहले कोई व्यथित कन्नड़, तमिल, तेलुगू या मलयालम बोलने वाला प्रवासी कामगार यूं हमारी फिल्मों में न दिखा था। अब 'दैट गर्ल...' चितियप्पा को लाई है। पूरे ऑरिजिनल ढंग से। जब वो अपने आदमियों के साथ रूथ के घर जाता है तो हम चौंक जाते हैं, क्योंकि ये कथित गुर्गे दिखने में इतने बूढ़े और सिंपल पेंट-शर्ट डाले नहीं होते थे। जो बकवास नहीं करते, रिवॉल्वर नहीं रखते, मीट की दुकान नहीं होते और गालियां नहीं बकते। ये अंदर रसोई से कॉफी बनाकर लाते हैं। लड़की से अदब से पेश आते हैं और बात-बात पर उचकते नहीं हैं। बात गुलशन दैवय्या की। एक संपूर्ण मॉडलनुमा हीरो की तरह गुलशन कुछ महीने पहले एक टीवी कमर्शियल में दिखे थे, बेहद संपूर्ण। फिर 'दम मारो दम' में। फिर प्रभावी ढंग से 'शैतान' में। अब 'दैट गर्ल...' में। उनकी एक्टिंग में घिसावट और बासीपन नहीं हैं। आगे भी उनपर संजीदगी से नजर रहेगी। पूरा सरूप पर भी।

आखिर में...
फिल्म में नसीरूद्दीन शाह, रजत कपूर, रोनित रॉय, मकरंद देशपांडे और पीयूष मिश्रा दिखते हैं। न जाने क्यों दिखते हैं। क्योंकि स्क्रिप्ट में उनका विशेष महत्व नहीं है। मित्रवत वजहें हो सकती हैं क्योंकि इन सबकी जगह अनजान कलाकार भी होते तो कुछ बदलता नहीं।

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गजेंद्र सिंह भाटी