Sunday, October 9, 2011

एटॉम, हमारा रॉकी बेलबोआ

फिल्म: रियल स्टील
निर्देशक: शॉन लेवी
कास्ट: ह्यू जैकमेन, डकोटा गोयो, इवेंजलीन लिली
स्टारः साढ़े तीन, 3.५


'...एज द डेज कीप टर्निंग इनटू नाइट' गाने की धीमी सूदिंग आवाज के साथ चार्ली का ग्रे ट्रक दौड़ा जा रहा है, पीछे अपने रोबॉट को लादे। ओल्ड अमेरिका की सड़कों, खाली खेतों और कस्बों से गुजरता हुआ। बीच में मेलों में जगमगाते तंबू आ रहे हैं। दरअसल ये वो कंट्रास्ट है जो एक रोबो या मशीनी मानव वाली फिल्मों में हम नहीं देख पाते हैं। कुछ ऐसा ही झक्कास मशीनी सा हमने 1979 में आई 'मैड मैक्स' में देखा था। रेगिस्तान में चीथड़ों और लेदर के न जाने कौन से जमाने के फैशनेबल कपड़े पहने जंगली से मगर इंसान, उनकी गाडिय़ां और तेल की लूट। हीरो मेल गिब्सन। हथियारों के साथ ये बीहड़ का कंट्रास्ट था। हाल ही में डेनियल क्रेग की 'काऊबॉयज वर्सेज एलियंस' आई। उसमें भी स्पेसशिप में आए एलियंस से घोड़ों पर गायें टोरने वाले चरवाहों का मुकाबला था। कम से कम अत्याधुनिक हथियार और बस दुनाली बंदूकों के साथ। चाहते तो डायरेक्टर शॉन लेवी 'रियल स्टील' में उड़ते स्पेसशिप, अल्ट्रा मॉडर्न डिजाइन के शहर, गैजेट्स और कॉम्पलैक्स रोबो लैंग्वेज रख सकते थे पर उन्होंने नहीं रखकर इस फिल्म को स्पेशल बनाया। इससे फिल्म इंसानी होकर दर्शकों के ज्यादा करीब हो जाती है। यही तो वजह है कि इमोशन के इस निचोड़ से 'एटॉम' की जापानी रोबॉट 'ज्यूस' से बॉक्सिंग फाइट आंखों में आंसू ले आती है। यही तो वजह है कि एटॉम 2011 का रॉकी बेलबोआ लगने लगता है। पीपुल्स चैंपियन हो जाता है। अपनी सरलता, आरामदायक वॉचिंग और ट्रीटमेंट की वजह से ये फिल्म एक मस्ट वॉच बन जाती है। जो लोग फिल्मों के नाम पर उलझा हुआ मांझा छोड़ जाते हैं उन्हें देखना चाहिए कि एक अच्छी फिल्म बनाने में बस इतना ही कॉमन सेंस लगता है, डेढ़ होशियारी नहीं। बिना उम्मीदों के जाएं, मगर जरूर देखें। फैमिली, फ्रैंड्स और खुद के साथ।

चार्ली और मैक्स की कहानी
पूरी रात अपना ट्रक ड्राइव करके चार्ली केंटन (ह्यू जैकमेन) अपने रोबॉट एमबुश को 2020 के अमेरिका में कहीं बॉक्सिंग करवाने ले जा रहा है। पर उसका रोबॉट भिड़ता है बहुत वजनी सांड सिक्स शूटर से और ध्वस्त हो जाता है। कर्ज में डूबे चार्ली की लाइफ कुछ ऐसी ही है। अपने बॉक्सिंग करियर में कुछ नहीं कर पाया है, अब पता चलता है कि उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड मर गई है और पीछे चार्ली का 11 साल का बेटा मैक्स (डकोटा गोयो) छोड़ गई है। इन बाप-बेटे को कुछ वजहों से साथ रहना है। मैक्स रोबो बॉक्सिंग को अलग नजरिए से देखता है और फिर उसे पुरानी जेनरेशन का रोबो एटॉम मिलता है। यहीं से आगे की एक्साइटिंग हार-जीत की जर्नी शुरू होती है।


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गजेंद्र
सिंह भाटी

Saturday, October 8, 2011

सच्चे दोस्त साथ बैंक तक लूटा करते हैं

फिल्म: थर्टी मिनट्स ऑर लेस
निर्देशक: रुबिन फ्लैश्चर
कास्ट: जेसी आइजनबर्ग, अजीज अंसारी, दिलशाद वदसारिया, डैनी मेकब्राइट, निक स्वॉर्डसन
स्टार: ढाई, 2.5

'थर्टी मिनट्स ऑर लेस' के पोस्टर पर बड़े अक्षरों में लिखा था 'फ्रॉम द मेकर्स ऑफ जॉम्बीलैंड।' बता दूं कि 'जॉम्बीलैंड' डायरेक्टर रुबिन फ्लैश्चर की पहली और सबसे मजेदार फिल्म थी। इसमें भी जेसी आइजनबर्ग थे। तो वो जो डरपोक, निराश और फेल लड़के की इमेज मजबूती से जेसी के करियर में बनी उसमें रुबिन की इस पहली फिल्म का भी हाथ था। फिर 'द सोशल नेटवर्क' ने जेसी का रुतबा बदला। अब आई है 'थर्टी मिनट्स...।' इस फिल्म में उतना और वैसा एंटरटेनमेंट नहीं है जिसके होने की अनिवार्य शर्त हॉलीवुड की फिल्मों में बड़ी बेदर्दी से रखी जाती है। जिसमें ताबड़तोड़ स्पीड, लच्छेदार डायलॉग और हमारे प्रियदर्शन की फिल्मों जैसी भागमभाग हो। 'थर्टी मिनट्स...' में ये सब नहीं है। जो लोग स्क्रिप्ट के नेचरल और सिंपल होने की अहमियत समझते हैं, उन्हें ये तीन स्टार वाली अच्छी फिल्म लगेगी, बाकियों के लिए आधा स्टार कम। जेसी और अजीज का तालमेल जितना हंसोड़ और सुहावना है, उतना ही ढीला तालमेल है डैनी और निक स्वॉर्डसन का। फिल्म की पहली और सबसे अरुचिकर चीज यही है। दोस्त लोग जा सकते हैं, एंजॉय करेंगे। फैमिली के साथ इसलिए नहीं जा सकते क्योंकि इसे 'ए' रेटिंग मिली है। आप फिल्म में कहीं अचानक असहज हो उठेंगे। जो दर्शक कन्फ्यूज हैं वो डीवीडी का इंतजार कर सकते हैं या फिर फिल्म के टीवी पर आने का। फिल्म का एक फनी डायलॉग मुझे वो लगा जब निक के शरीर पर बम बंधा है और शेट उसे निकालने के उपाय ढूंढ रहा है और बोलता है, 'वॉट डिड दे डू इन हर्ट लॉकर।'

आधी कहानी
विटोज पिज्जा में डिलीवरी बॉय है निक (जेसी आइजनबर्ग)। विटोज की '30 मिनट में पिज्जा घर वरना फ्री' वाली पॉलिसी का शिकार निक हमेशा होता है। हमेशा कुछ सेकंड से चूक जाता है। बॉस की डांट खाता है। उसका स्कूल टाइम बेस्ट फ्रेंड शेट (अजीज अंसारी) अब खुद स्कूल टीचर है। निक उसकी जुड़वा बहन कैटी (दिलशाद वदसारिया) से प्यार करता है, पर शेट से छिपकर। वहीं, ड्वेन (डैनी मेकब्राइट) और ट्रैविस (निक स्वॉर्डसन) दो नाकारा इंसान हैं। बैठे मक्खियां मारना और फालतू काम करना पसंद है। इनके ढीले मिजाज पर ड्वेन का पूर्व आर्मीमैन पिता चिढ़ता है और इनको खूब सुनाता है। पर अब ड्वेन किसी हत्यारे को हायर करके अपने पिता को मरवाना चाहता है। (सीरियसली मरवाना चाहता है, पर फनी लगता है) ताकि फिर उसे कोई कुछ न कहे और पिता के पैसों से वह प्रॉस्टिट्यूशन का बिजनेस शुरू कर सके। इतनी कहानी इसलिए सुना दी क्योंकि फिल्म में कुछ सरप्राइजिंग है तो उसका ट्रीटमेंट और कैरेक्टर्स। कहानी नहीं। सुपारी की एवज में उसे एक लाख डॉलर की रकम देनी पड़ेगी। इसके लिए वह ट्रैविस के साथ मिलकर सोचता है कि किसी बंदे को बैंक लूटने के लिए ब्लैकमेल करे और पैसे का इंतजाम करे। इन दोनों के लिए बैंक लूटने वाला वो बंदा बदकिस्मती से बनता है निक। ऐसे में क्या उससे कट्टी कर चुका शेट उसका साथ देगा? लास्ट में क्या होगा? कैसे होगा? यही निककहानी है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, October 6, 2011

जिन्हें नाज है डेविड पर वो कहां हैं: रास्कल्स

फिल्म: रास्कल्स
निर्देशक: डेविड धवन
कास्ट: अजय देवगन, संजय दत्त, कंगना रनाउत, अर्जुन रामपाल, लीजा हैडन, चंकी पांडे
स्टार: डेढ़, 1.5


डेविड धवन की 'आंखें, 'साजन चले ससुराल', 'हीरो/कुली नं. वन' और 'स्वर्ग' पर बड़ी हुई पीढ़ी उनकी फिल्मों पर जान छिड़कती है। उनकी 'राजाबाबू' आज टीवी पर आती है तो सौंवी बार भी फिल्म की रिपीट वैल्यू वही होती है। मगर वो ये डेविड नहीं हैं जो हमें 'रासकल्स' देते हैं। यूं ज्यादातर नहीं होता कि थियेटर में लोग हंस रहे हों और फिल्म मुझे न पसंद आए। पर यहां हुआ। फिल्म वाहियात है, अब से पहले बन चुकी फिल्मों का फालूदा है, डायलॉग्स में हद से ज्यादा बॉलीवुड का रेफरेंस है, गानों की कोरियोग्रफी अश्लील से कम नहीं है, न कोई कहानी है न एक्टिंग। सारे कैरेक्टर इतने लाऊड हैं कि सिर दुखने लगता है। कुछ जगह हंसी आती है, पर अगले ही पल छिन जाती है। चेतू और भग्गू की ये कहानी अगर दिखाई जानी भी चाहिए रात को साढ़े दस के बाद वाले शो में, वो भी 'ए' सर्टिफिकेट के साथ। ये जुमला डेविड धवन की फिल्मों के साथ शुरू हुआ था कि 'इनकी फिल्में देखनी हैं तो दिमाग घर छोड़कर जाइए।' अब नया जुमला ये है कि 'अपना कॉमन सेंस और मॉरैलिटी भी दरिया में बहाकर जाइए।'

बदमाशों की कहानी
वैसे तो युनूस सजवाल के लिखे इस स्क्रीनप्ले में कहानी ढूंढने से भी नहीं मिलती पर पढ़ लीजिए। भगत भोंसले (अजय देवगन) और चेतन चौहान (संजय दत्त) ठग यानी कॉनमैन हैं। दोनों अलग-अलग वाकयों में एंथनी (अर्जुन रामपाल) को लूटकर बैंकॉक भाग जाते हैं। यहां दोनों एक ही पैसेवाली लड़की खुशी (कंगना रनाऊत) को फंसाने और एक-दूसरे को रास्ते से हटाने की कोशिशों में लगे हैं। इर्द-गिर्द कॉलगर्ल डॉली (लीजा हैडन) और होटल मैनेजर बीबीसी (चंकी पांडे) जैसे किरदार भी हैं।

बंद करो बर्बादी
एक गाना है 'परदा गिरादे'। इसमें ढेर सारे टेक्नीशियन, पैसा, डांसर्स और रिसोर्सेज खर्च हुए हैं, मगर बदले में मिलते हैं तो बस कुछ अश्लील इशारे और घटिया कोरियोग्रफी। उसपर अजय और संजय दत्त का अकड़े शरीरों के साथ नाचने की कोशिश करना। इस गैर-जरूरी फिल्म को बनाने में भी सोमालिया के गरीब बच्चों के जिक्र को बार बार लाया गया है। एक तो ये असंवेदनशील है और दूजा ये संदर्भ दर्शकों के रत्तीभर भी काम नहीं आता। डॉली और खुशी से बात-बात पर जोंक की तरह चिपटते दोनों हीरो छिछोरे लगते हैं। ऐसा लगता है कि डायरेक्टर डेविड धवन कोमा से उठे हैं और फिल्में बनाना सीख रहे हैं। और 'रासकल्स' के रूप में उनकी अच्छी और लुभावनी फिल्मों का विकृत रूप सामने आया है।

वूडी से लेते डेविड
सन 1969 में वूडी एलन की बनाई एक कॉमेडी फिल्म आई थी 'टेक द मनी एंड रन'। इसके एक सीन में वूडी का किरदार बैंक लूटने जाता है। काऊंटर पर कैशियर को वह जो पर्ची देता है उसपर लिखा होता है, 'प्लीज पुट 50 थाउजेंड डॉलर इनटू दिस बैग। एक्ट नेचरल। आई एम पॉइंटिंग अ गन एट यू।' इस अद्भुत सीन में कैशियर एक्ट को एब्ट और गन को गब पढ़ता है। फिर पूरे बैंक का स्टॉफ इन दो शब्दों पर ही उससे बहस करने लगता है। ठीक 42 साल बाद डेविड धवन गन को गम पढ़वाते हुए ये सीन 'रासकल्स' में अजय-संजय और बैंकॉक के बैंक स्टॉफ पर फिट कर देते हैं। ऐसी बहुत सारी नकलें मारकर भी बुरी तरह फेल होने की ये फिल्म बेहतरीन मिसाल है।

संजय छैल के डायलॉग्स का खेल
# मैं हूं अजरूद्दीन जलालुद्दीन फकरूद्दीन फेसबुकवाला।
# अमेरिका को लादेन मिल गया, लेकिन आपको चेतन नहीं मिलेगा।
# ए भगु भाई, आ तमारे मस्त मस्त दो नैन अस्त कैसे हो गए।
# क्या कहानी बनाई है, इसे सुनकर तो संजय लीला भंसाली 'ब्लैक' पार्ट-2 बना दे।
# हे भगवान, आज पता चला कि कपड़ा उतारना कितना आसान है और पहनाना कितना मुश्किल। (शायद फिल्म में सबसे फनी)
# नग्नमुखासन, बैंक की लोन की तरह ध्यान अंदर लो और इंस्टॉलमेंट की तरह छोड़ो।
# प्लीज वेलकम भगत भोसले, भोसले के होंसले ने दुश्मनों के घोंसले तोड़ दिए।
# एंथनी बदनाम हुआ रास्कल्स तेरे लिए।
# जिस आंधी तूफान में लोगों के आशियाने उजड़ जाते हैं, उसमें हम लोग चड्डी और बनियान सुखाते हैं।
# ये इसकी बेटी है? इसकी कैसे हो सकती है। काले गुलाबजामुन के घर सफेद रसगुल्ला।

आखिर में
धवन की कॉमेडी को गोविंदा और करिश्मा बेस्ट एक्सप्लोर कर पाते थे। यहां सब लाऊड हैं। फिल्म में शक्ति कपूर, कादर खान, गोविंदा और जॉनी लीवर को मिस करते हैं। इस फिल्म में हैं तो बस चंकी पांडे और सतीश कौशिक। वो भी फीके से। अनीस बज्मी, रूमी जाफरी, कादर खान... डेविड से ज्यादा हम उनकी सफल फिल्मों के राइटर्स को मिस कर रहे हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, October 2, 2011

समझने में आसान और बनावट में होशियार फिल्मकारी

फिल्मः साहब बीवी और गैंगस्टर
निर्देशकः
तिग्मांशु धूलिया
कास्टः माही गिल, जिमी शेरगिल, रणदीप हुड्डा
स्टारः तीन, 3.0

पहला शॉट। हरे पेड़ों के झुरमुट के बीच पुराने पैलेस का व्यू। ऊपर एक चीत्कारती हुई चील मंडरा रही है। यहीं से धोखे और प्यार की इस कहानी का मूड तय हो जाता है। कि यहां सब चील और बाज जैसे मांस नोचने वाले हैं। शेक्सपीयरन ड्रामा या विशाल भारद्वाज की फिल्मों में जो अंधेरा और कड़वापन होता है वो बहुत बार दर्शकों की समझ से बाहर होता है। ऐसी फिल्में बेहद तनाव देने वाली और मुश्किल होती हैं। यहीं पर 'साहब बीवी और गैंगस्टर' अलग हो जाती है। बेडरूम ड्रामा होते हुए भी और 'हासिल' और 'शागिर्द' जैसे ठोस निर्देशक (तिग्मांशु धूलिया) के हाथों बनी होने के बावजूद फिल्म सरल है, पर पूरी तरह स्मार्ट भी। खासतौर पर बड़े शहरों के दर्शकों के लिहाज से आराम से समझ में आने वाला ड्रामा है। स्क्रिप्ट और डायलॉग ऐसे हैं जो इन दिनों फिल्मों में दुर्लभ हो गए हैं। फिल्म के सब कैरेक्टर्स की एक्टिंग बेदाग है। ये जरूर है कि सेकंड हाफ में फिल्म की कसावट जरा ढीली हो जाती है। कुछ एडल्ट सब्जेक्ट, कुछ सेकंड हाफ का ढीलापन और कुछ जरा कम धांसू क्लाइमैक्स। इन तीन वजहों से फिल्म बहुत बेहतरीन नहीं हो पाती है। देखने की सलाह।

एक छोटी पूर्व रियासत में
उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश में कहीं एक छोटी सी रियासत है। यहां के राजा साहिब (जिमी शेरगिल) खुद को राजनीतिक और आर्थिक रूप से ताकतवर बनाए रखने में लगे हैं। रानी (माही गिल) दिमागी तौर पर प्यार की भूखी है, पर साहिब का प्यार लालबाड़ी की महुआ (श्रिया नारायण) के पास है। कन्हैया (दीपराज राणा) बरसों से साहिब की परछाई है। साहिब का लोकल दुश्मन है गेंदा सिंह (विपिन शर्मा)। फिर हवेली में बबलू उर्फ ललित (रणदीप हुड्डा) की एंट्री होती है। यहीं से कहानी में प्यार, धोखा, छल, खून और साजिशें सरल तरीके से शामिल होती हैं।

मधुर और डिफाइनिंग गाने
फिल्म के गाने कहानी के तीनों किरदारों को डिफाइन करते हैं। शुरू में ही 'जुगनी दम साहिब दा भरदी, पर ए प्यार यार नू करदी...' सुनाई देता है और जुगनी, साहब, यार की कहानी समझ आ जाती है। फिर फिल्म की दो नायिकाओं (माही और श्रिया) के मन का हाल बताने आता है 'रात मुझे ये कह के चिढ़ाए, तारों से भरी मैं, तू अकेली हाये...''साहिब बड़ा हठीला...' गाने के बोल जिमी के किरदार के लिए है। अपनी रानी, अपने कस्बे को लोगों, अपने दुश्मनों और अपनी लाइफ के प्रति सरवाइव करने के हठीले रवैये को न्यायोचित करता हुआ। गैंगस्टर कहलाने वाले बबलू के हिस्से सटीक बोल आते हैं। 'मैं एक भंवरा, छोटे बागीचे का, मैंने ये क्या कर डाला...'। इन सभी गानों का संगीत गुनगुनाने लायक है। फिल्म में उनकी प्लेसिंग और भी बेहतर।

ऐसे हों डायलॉग और राइटर लोग
संजय चौहान तिग्मांशु की लेखनी से निकले नगीने...
1. और सुनो.. जिसे जान से मार रहे हो, उसे दोस्त तो नहीं कहो। (साहिब अपने दोस्त की सुपारी लेकर आए एक ठेकेदार से)
2. मार मार के खोल दूंगा इसको, और देखूंगा इसके अंदर क्या है जो मेरे अंदर नहीं है। (बबलू अपनी गर्लफ्रैंड से, उसके नए बॉयफ्रैंड को हॉकी से पीटते हुए)
3. जो भी करना तमीज से करना, यहां बदतमीजी भी तमीज से की जाती है। (साहिब की बीवी बबलू से)
4. वेजिटेरियन या नॉन वेजिटेरियन? जी मौकाटेरियन। (बबलू साहिब की बीवी से)
5. खाना क्या बनवाया है? मुर्गा मंगवाया है साहब। अबे, मुर्गी भी मंगवा लिया करो कभी। (गेंदा सिंह अपने आदमी से)
6. सोच समझ के तो इम्तिहान लिया जाता है, इंतकाम नहीं लिया जाता राजाजी। (गेंदा सिंह)

नजरअंदाज नहीं करें

# दीपल शॉ का यू.पी. के एक्सेंट में बबलू को बे, बेटा और बा बा लू कहना। उनके करियर का पहला स्मार्ट रोल, जहां वो नेचरल लगी हैं।
# मंत्री जी बने अभिनेता। उनका मुख्यमंत्री से फोन पर अपने थाइलैंड टूअर के बारे में बात करना और 'वहां' के 'उस' एक्सपीरियंस के बारे में कहना, 'सर वहां तो फील ही नहीं होता कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। देयर इज नो फील ऑफ चीटिंग, एट ऑल सर।'

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गजेंद्र सिंह भाटी

फोर्स संभाल नहीं पाए निशिकांत

फिल्मः फोर्स
निर्देशकः निशिकांत कामत
कास्टः जॉन अब्राहम, जेनेलिया डिसूजा, विद्युत जमवाल
स्टारः ढाई, 2.5

चाहे 'फोर्स' का एसीपी यशवर्धन हो या 'दम मारो दम' का एसीपी विष्णु कामत, इनका पहला वास्ता हमेशा 'सरफरोश' के एसीपी राठौड़ की आदर्श इमेज से होता है। होना भी चाहिए, क्योंकि अभी तक तो हमारी फिल्मों में राठौड़ (आमिर खान) जैसा दर्शकों को आसानी से समझ आने वाला, स्मार्ट और ह्यूमन एसीपी कोई आया नहीं है। 'फोर्स' में ये सब नहीं है और यही दिक्कत है। जॉन एक्टिंग में और बेहतर होते तो फिल्म का रुख अलग होता। विद्युत जमवाल विलेन बने हैं। कहना होगा कि शायद ही किसी फिल्म में किसी गुंडे या विलेन की उन जैसी हीरोनुमा एक्शन वाली एंट्री हुई है। जेनेलिया बबली लगकर अपना फर्ज निभा जाती हैं। निर्देशक निशिकांत ही फिल्म के इमोशन और प्रस्तुतिकरण संभाल नहीं पाते। मैं 'फोर्स' नहीं देखने की सलाह नहीं दे रहा हूं। देखें, जरूर देखें, बल्कि कुछ चीजें तो बहुत अच्छी हैं। पर 'सरफरोश' वाला सुकून इस फिल्म में नहीं है। दोस्तों के साथ एक बार ट्राई कर सकते हैं।

फोर्स की कहानी
एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) सीनियर नारकोटिक्स ऑफिसर है। कम बात करता है। न कोई आगे है न पीछे इसलिए अपने पेशे में किसी टास्क से डरता नहीं है। मुंबई में अपनी चार लोगों की टीम से वह ड्रग्स का खात्मा करने में बड़ी सफलता पाता है। फिर उसकी जिंदगी में माया (जेनेलिया डिसूजा) आती है। प्यार होता है। पर यहीं विष्णु (विद्युत जमवाल) के रूप में एक बड़ी लड़ाई उसका इंतजार कर रही है।

प्रस्तुति में गड़बड़ी
वैसे तो फिल्म में सबकुछ है। हैंडसम और हल्क जैसा हीरो जॉन अब्राहम। हैंडसम, खूंखार, तेज तर्रार और बहुत शक्तिशाली विलेन विद्युत जमवाल। बबली, स्वीट और फूलों सी खिली-खिली हीरोइन जेनेलिया। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की स्पेशल चार लोगों की टीम। गुजरात के कच्छ, गोवा, पंजाब बॉर्डर, अफगानिस्तान बॉर्डर, जालंधर की जेल और हिमाचल के सोलन तक फैली ड्रग्स रैकेट की दास्तां। सॉलिड बातें। एक लव स्टोरी। एक हेट स्टोरी। और सबसे ऊपर एक बेहतरीन डायरेक्टर निशिकांत कामत। समस्या है प्रस्तुतिकरण। किस इमोशन को दर्शक के सामने कितनी देर रखना है और कब उठाकर दूसरा सीन देना है, ये पता नहीं। निशिकांत ने अपनी फिल्म 'मुंबई मेरी जान' में पांच-छह कहानियों का बहुत ही सरलता से और मनोरंजक तरीके से पेश किया था। यहां एक ही फिल्म, एक ही कहानी है पर वह उसे कुछ उलझा देते हैं। हम विलेन से नफरत करें, उससे पहले ही एसीपी सर की माला जपती हिरोइन आ जाती है। जब इनके प्यार को एंजॉय करने लगते हैं तो फिर ड्यूटी कॉल आ जाती है और हम गुंडों के बीच पहुंच जाते हैं। आप हीरोइन को फिल्म खत्म होने के पांच मिनट पहले तक जिंदा रखते हैं फिर मार देते हैं, ये स्टूपिड क्लाइमैक्स है। हीरो का प्रतिशोध सिर्फ पांच मिनट चलता है जो स्टूपिड है।

खामी मसलन ये
जेनेलिया का बार-बार हर दूसरे फ्रेम में आना फिल्म में एसीपी, उसके मिशन और विलेन लोगों के असर को ढीला करता है। वो सीन जिसमें जमवाल अपने आदमी के सिर पर पत्थर फैंककर मार देता है। उससे दर्शक भौंचक्के रह जाते हैं, पर वो उस औचकपन को एंजॉय कर पाए उससे पहले ही सीन कट हो जाता है और अगले सीन में जॉन जेनेलिया कोल्ड कॉफी पी रहे होते हैं। एक इमोशन में दर्शक को डुबोकर इतनी जल्दी निकाल लेना, गलत फैसला होता है।

हमारे हीरो के डायलॉग कितने करारे
# (खरीदना नहीं है, छीनना है) साइज देखकर बात किया कर, बच्चे के हाथ से बर्फ का गोला नहीं छीनना है। (एक टपोरी से)
# (तुम डरे नहीं? वो चेहरे पर पानी की जगह असल में तेजाब फैंक देता तो?) वो ऐसा नहीं करता, मुझे टपोरी को देखते ही उसकी औकात का अंदाजा हो जाता है। (जेनेलिया से)
# ये सूखे पेड़ पर गुलाब का फूल कब खिल गया। (एनसीबी टीम में जॉन का साथी, जॉन जेनेलिया से बात करते देख)
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गजेंद्र सिंह भाटी

तेरे मेरे बड़े लाऊड फेरे

फिल्मः तेरे मेरे फेरे
निर्देशकः दीपा साही
कास्टः विनय पाठक, रिया सेन, जगरत देसाई, साशा गोराडिया
स्टारः दो, २.०

जब कोई फिल्म सिर्फ दो-तीन किरदारों पर टिकी हो तो ये बहुत जरूरी हो जाता है कि स्क्रिप्ट और डायलॉग दर्शक को बांधकर रखें। कॉमेडी है तो सिचुएशन आती जाएं और हर सीन कसा हुआ रहे। 'तेरे मेरे फेरे' देखते वक्त बहुत बार लगता है कि काश हाथ में रिमोट होता और फिल्म को फास्ट फॉरवर्ड कर पाते। डायरेक्टर दीपा साही ने शादी के बाद एक-दूसरे के साथ एडजस्ट करने की बात को अलग तरीके से दिखाया है, पर फिल्म इंट्रेस्टिंग नहीं रह पाती। राहुल और पूजा के चीखने और चिल्लाने की आवाज कान फोड़ देती है। हां, माना कि इससे फिल्म का कंसेप्ट प्रूव हो जाता है, पर दर्शकों की तो बैंड बज जाती है न। फिल्म में सभी सिचुएशन बड़ी रियल हैं और कुछ सीन तो बेहद हंसाने वाले हैं पर कुल खूबियां बस इतनी ही हैं। फ्रेम में जब तक विनय पाठक रहते हैं तब तक मजा आता है, उसके बाद नहीं। एक बार ट्राई कर सकते हैं।

कहानी है एडजस्ट करने की
राहुल भसीन (जगरत देसाई) और पूजा पाहूजा (साशा गोराडिया) को पहली ही नजर में एक-दूजे से प्यार हो जाता है और दोनों शादी कर लेते हैं। शादी से पहले दोनों को अपने गुण और आदतें बिल्कुल एक सी लगती हैं, लेकिन सिर्फ तब तक जब वो हनीमून पर जाते हैं। अपनी कैरवन में हिमाचल के रास्तों से गुजरते हुए इन दोनों की चें चें पें पें शुरू हो जाती है। लि ट लेकर चढ़े जय धूमल (विनय पाठक) को अपनी प्रेमिका मुस्कान (रिया सेन) के पास पहुंचना है, पर राहुल और पूजा की पकाऊ लड़ाई देख-देख आखिर में वह भी कभी शादी नहीं करने की कसम खा लेता है। आखिर में इन दोनों जोडिय़ों का क्या होता है, ये छोटी सी मिस्ट्री है।

कुछ और...
'माया मेमसाब' और ' डार्लिंग ये है इंडिया' में जो तेवर हम एक्ट्रेस दीपा साही में देखते हैं, वही तेवर और वही लाउड आवाज उनके निर्देशक बनने के बाद उनकी पहली फिल्म की हीरोइन शाशा गोराडिया में भी हमें नजर आते हैं। पीछे-पीछे ओवरएक्टिंग करते हुए फिल्म के सह-लेखक जगरत भी हो जाते हैं। झगड़े में इन दोनों का चीखना चिल्लाना ये भी महसूस करवाता है कि संभवत: दीपा ने थियेटर के स्टेज पर और फिल्मी कैमरे के लेंस के आगे रहने वाली दो एक्टिंग दुनियाओं का ख्याल नहीं रखा। बावजूद इसके अपने अनुभव की वजह से विनय पाठक चीखते और लाऊड होते हुए भी सुहावने लगते हैं। राहुल के मां, पिता और छोटे भाई बने सुष्मिता मुखर्जी, दर्शन जरीवाला और रोहन शाह बीच-बीच में राहत देते हैं। रिया सेन के हिस्से ज्यादा कुछ है नहीं, पर कहीं से भी वो हिमाचली तीखी मिर्च नहीं नजर आती हैं। उनके इंग्लिश एक्सेंट के आगे सारी एक्टिंग पसर जाती है। ईमानदार होने के बावजूद दीपा साही की ये कोशिश दर्शकों का पूरा मनोरंजन नहीं कर पाता है।

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गजेंद्र सिंह भाटी