Sunday, October 2, 2011

फोर्स संभाल नहीं पाए निशिकांत

फिल्मः फोर्स
निर्देशकः निशिकांत कामत
कास्टः जॉन अब्राहम, जेनेलिया डिसूजा, विद्युत जमवाल
स्टारः ढाई, 2.5

चाहे 'फोर्स' का एसीपी यशवर्धन हो या 'दम मारो दम' का एसीपी विष्णु कामत, इनका पहला वास्ता हमेशा 'सरफरोश' के एसीपी राठौड़ की आदर्श इमेज से होता है। होना भी चाहिए, क्योंकि अभी तक तो हमारी फिल्मों में राठौड़ (आमिर खान) जैसा दर्शकों को आसानी से समझ आने वाला, स्मार्ट और ह्यूमन एसीपी कोई आया नहीं है। 'फोर्स' में ये सब नहीं है और यही दिक्कत है। जॉन एक्टिंग में और बेहतर होते तो फिल्म का रुख अलग होता। विद्युत जमवाल विलेन बने हैं। कहना होगा कि शायद ही किसी फिल्म में किसी गुंडे या विलेन की उन जैसी हीरोनुमा एक्शन वाली एंट्री हुई है। जेनेलिया बबली लगकर अपना फर्ज निभा जाती हैं। निर्देशक निशिकांत ही फिल्म के इमोशन और प्रस्तुतिकरण संभाल नहीं पाते। मैं 'फोर्स' नहीं देखने की सलाह नहीं दे रहा हूं। देखें, जरूर देखें, बल्कि कुछ चीजें तो बहुत अच्छी हैं। पर 'सरफरोश' वाला सुकून इस फिल्म में नहीं है। दोस्तों के साथ एक बार ट्राई कर सकते हैं।

फोर्स की कहानी
एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) सीनियर नारकोटिक्स ऑफिसर है। कम बात करता है। न कोई आगे है न पीछे इसलिए अपने पेशे में किसी टास्क से डरता नहीं है। मुंबई में अपनी चार लोगों की टीम से वह ड्रग्स का खात्मा करने में बड़ी सफलता पाता है। फिर उसकी जिंदगी में माया (जेनेलिया डिसूजा) आती है। प्यार होता है। पर यहीं विष्णु (विद्युत जमवाल) के रूप में एक बड़ी लड़ाई उसका इंतजार कर रही है।

प्रस्तुति में गड़बड़ी
वैसे तो फिल्म में सबकुछ है। हैंडसम और हल्क जैसा हीरो जॉन अब्राहम। हैंडसम, खूंखार, तेज तर्रार और बहुत शक्तिशाली विलेन विद्युत जमवाल। बबली, स्वीट और फूलों सी खिली-खिली हीरोइन जेनेलिया। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की स्पेशल चार लोगों की टीम। गुजरात के कच्छ, गोवा, पंजाब बॉर्डर, अफगानिस्तान बॉर्डर, जालंधर की जेल और हिमाचल के सोलन तक फैली ड्रग्स रैकेट की दास्तां। सॉलिड बातें। एक लव स्टोरी। एक हेट स्टोरी। और सबसे ऊपर एक बेहतरीन डायरेक्टर निशिकांत कामत। समस्या है प्रस्तुतिकरण। किस इमोशन को दर्शक के सामने कितनी देर रखना है और कब उठाकर दूसरा सीन देना है, ये पता नहीं। निशिकांत ने अपनी फिल्म 'मुंबई मेरी जान' में पांच-छह कहानियों का बहुत ही सरलता से और मनोरंजक तरीके से पेश किया था। यहां एक ही फिल्म, एक ही कहानी है पर वह उसे कुछ उलझा देते हैं। हम विलेन से नफरत करें, उससे पहले ही एसीपी सर की माला जपती हिरोइन आ जाती है। जब इनके प्यार को एंजॉय करने लगते हैं तो फिर ड्यूटी कॉल आ जाती है और हम गुंडों के बीच पहुंच जाते हैं। आप हीरोइन को फिल्म खत्म होने के पांच मिनट पहले तक जिंदा रखते हैं फिर मार देते हैं, ये स्टूपिड क्लाइमैक्स है। हीरो का प्रतिशोध सिर्फ पांच मिनट चलता है जो स्टूपिड है।

खामी मसलन ये
जेनेलिया का बार-बार हर दूसरे फ्रेम में आना फिल्म में एसीपी, उसके मिशन और विलेन लोगों के असर को ढीला करता है। वो सीन जिसमें जमवाल अपने आदमी के सिर पर पत्थर फैंककर मार देता है। उससे दर्शक भौंचक्के रह जाते हैं, पर वो उस औचकपन को एंजॉय कर पाए उससे पहले ही सीन कट हो जाता है और अगले सीन में जॉन जेनेलिया कोल्ड कॉफी पी रहे होते हैं। एक इमोशन में दर्शक को डुबोकर इतनी जल्दी निकाल लेना, गलत फैसला होता है।

हमारे हीरो के डायलॉग कितने करारे
# (खरीदना नहीं है, छीनना है) साइज देखकर बात किया कर, बच्चे के हाथ से बर्फ का गोला नहीं छीनना है। (एक टपोरी से)
# (तुम डरे नहीं? वो चेहरे पर पानी की जगह असल में तेजाब फैंक देता तो?) वो ऐसा नहीं करता, मुझे टपोरी को देखते ही उसकी औकात का अंदाजा हो जाता है। (जेनेलिया से)
# ये सूखे पेड़ पर गुलाब का फूल कब खिल गया। (एनसीबी टीम में जॉन का साथी, जॉन जेनेलिया से बात करते देख)
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गजेंद्र सिंह भाटी

तेरे मेरे बड़े लाऊड फेरे

फिल्मः तेरे मेरे फेरे
निर्देशकः दीपा साही
कास्टः विनय पाठक, रिया सेन, जगरत देसाई, साशा गोराडिया
स्टारः दो, २.०

जब कोई फिल्म सिर्फ दो-तीन किरदारों पर टिकी हो तो ये बहुत जरूरी हो जाता है कि स्क्रिप्ट और डायलॉग दर्शक को बांधकर रखें। कॉमेडी है तो सिचुएशन आती जाएं और हर सीन कसा हुआ रहे। 'तेरे मेरे फेरे' देखते वक्त बहुत बार लगता है कि काश हाथ में रिमोट होता और फिल्म को फास्ट फॉरवर्ड कर पाते। डायरेक्टर दीपा साही ने शादी के बाद एक-दूसरे के साथ एडजस्ट करने की बात को अलग तरीके से दिखाया है, पर फिल्म इंट्रेस्टिंग नहीं रह पाती। राहुल और पूजा के चीखने और चिल्लाने की आवाज कान फोड़ देती है। हां, माना कि इससे फिल्म का कंसेप्ट प्रूव हो जाता है, पर दर्शकों की तो बैंड बज जाती है न। फिल्म में सभी सिचुएशन बड़ी रियल हैं और कुछ सीन तो बेहद हंसाने वाले हैं पर कुल खूबियां बस इतनी ही हैं। फ्रेम में जब तक विनय पाठक रहते हैं तब तक मजा आता है, उसके बाद नहीं। एक बार ट्राई कर सकते हैं।

कहानी है एडजस्ट करने की
राहुल भसीन (जगरत देसाई) और पूजा पाहूजा (साशा गोराडिया) को पहली ही नजर में एक-दूजे से प्यार हो जाता है और दोनों शादी कर लेते हैं। शादी से पहले दोनों को अपने गुण और आदतें बिल्कुल एक सी लगती हैं, लेकिन सिर्फ तब तक जब वो हनीमून पर जाते हैं। अपनी कैरवन में हिमाचल के रास्तों से गुजरते हुए इन दोनों की चें चें पें पें शुरू हो जाती है। लि ट लेकर चढ़े जय धूमल (विनय पाठक) को अपनी प्रेमिका मुस्कान (रिया सेन) के पास पहुंचना है, पर राहुल और पूजा की पकाऊ लड़ाई देख-देख आखिर में वह भी कभी शादी नहीं करने की कसम खा लेता है। आखिर में इन दोनों जोडिय़ों का क्या होता है, ये छोटी सी मिस्ट्री है।

कुछ और...
'माया मेमसाब' और ' डार्लिंग ये है इंडिया' में जो तेवर हम एक्ट्रेस दीपा साही में देखते हैं, वही तेवर और वही लाउड आवाज उनके निर्देशक बनने के बाद उनकी पहली फिल्म की हीरोइन शाशा गोराडिया में भी हमें नजर आते हैं। पीछे-पीछे ओवरएक्टिंग करते हुए फिल्म के सह-लेखक जगरत भी हो जाते हैं। झगड़े में इन दोनों का चीखना चिल्लाना ये भी महसूस करवाता है कि संभवत: दीपा ने थियेटर के स्टेज पर और फिल्मी कैमरे के लेंस के आगे रहने वाली दो एक्टिंग दुनियाओं का ख्याल नहीं रखा। बावजूद इसके अपने अनुभव की वजह से विनय पाठक चीखते और लाऊड होते हुए भी सुहावने लगते हैं। राहुल के मां, पिता और छोटे भाई बने सुष्मिता मुखर्जी, दर्शन जरीवाला और रोहन शाह बीच-बीच में राहत देते हैं। रिया सेन के हिस्से ज्यादा कुछ है नहीं, पर कहीं से भी वो हिमाचली तीखी मिर्च नहीं नजर आती हैं। उनके इंग्लिश एक्सेंट के आगे सारी एक्टिंग पसर जाती है। ईमानदार होने के बावजूद दीपा साही की ये कोशिश दर्शकों का पूरा मनोरंजन नहीं कर पाता है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, September 26, 2011

यूं ही बने रहें सर जॉनी इंग्लिश

फिल्म: जॉनी इंग्लिश रीबोर्न (अंग्रेजी)
निर्देशक: ऑलिवर पार्कर
कास्ट: रॉवन एटकिंसन, गिलियन एंडरसन, रोजमंड पाइक, डोमिनिक वेस्ट, डेनियल कालुया
स्टार: तीन, 3.0

चार्ली चैपलिन के बाद बड़ी पवित्रता से हर एक दर्शक को अगर कोई हंसा पाता है तो वो हैं ब्रिटिश एक्टर रॉवन एटकिंसन। कभी मिस्टर बीन तो कभी जॉनी इंग्लिश बनकर। 'जॉनी इंग्लिश रीबोर्न' भी खूब हंसाती है। रात के शो में चंडिगढिय़न बॉयज सीटों पर उछल-उछलकर हंसे। पेट पकड़कर हंसे। तो ये एक मस्ट वॉच है। पूरी फैमिली के साथ जरूर देखें। हफ्ते की श्रेष्ठ फिल्म। इस बार आपका जॉनी इंग्लिश कुछ स्मार्ट है। वह मार खाता ही नहीं है, पिटाई करता भी है। उसके पास अत्याधुनिक गैजेट हैं। वह हिमालय की ऊंचाइयों में चीन से कहीं अपनी शक्तियां बढ़ाकर :) लौटा है। ये जरूर ध्यान रखिएगा कि फिल्म में हर सेकंड लाफ्टर का डोज नहीं है। सुकून पर ज्यादा ध्यान दिया गया है।

अब क्या करेगा जॉनी
ब्रिटिश सीक्रेट एजेंसी एमआई-7 को जब ये पता चलता है कि चीन के प्रधानमंत्री की जान को खतरा है तो वह अपने सबसे बेस्ट एजेंट को याद करती है। स्पेशल एजेंट सर जॉनी इंग्लिश (रॉवन एटकिंसन)। जॉनी अपने पिछले मिशन के बाद से ही एशिया में किसी एकांत जगह पर अपने आपको मजबूत करने में जुटा है। बुलावा आने पर वह लौटता है और काम पर लगता है।

कसर कहां रही
# फिल्म के शुरुआती क्रेडिट बोरिंग तरीके से आते हैं। हां, माना कि ये जेम्स बॉन्ड मूवीज के क्रेडिट्स के साथ मसखरी करने की कोशिश में होता है, पर फिर भी ये इंट्रेस्टिंग नहीं हैं।
# स्पेशल एजेंट टकर बने डेनियल कालुया जॉनी के पार्टनर के तौर पर बोझिल लगते हैं, उनके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उनमें हंसी का कोई अंश नहीं है।
# पिछली फिल्म की तुलना में यहां रॉवन कुछ धीमे पड़े हैं, ये उनकी लेखनी में दिखता है। ***************
गजेंद्र सिंह भाटी

बिन मौसम मेला है ये

(खिलखिलाती, फिल्म को पहले ही प्रडिक्ट कर लेती, बेहद मजाकिया निष्ठुर उन लड़कियों ने फिल्म को यूं सम अप किया)

फिल्म: मौसम
निर्देशक: पंकज कपूर
कास्ट: शाहिद कपूर, सोनम कपूर, अदिति शर्मा, कमल चोपड़ा, मनोज पाहवा, सुप्रिया पाठक
स्टार: दो, 2.0

पूरा थियेटर निराश था। यही निराशा 'सांवरिया' के पहले शो में देखी थी। 'मौसम' खत्म होने में अभी 25 मिनट थे और आठ लड़कों का वह ग्रुप उठकर जाने लगा। मेरे पास बैठे एक पिता खड़े हुए और बेटे से बोले, 'मैं गाड़ी निकाल रहा हूं तुम ममी और भैया के साथ बाहर आ जाना।' पूरे थियेटर से आ रही बू की आवाजों के बाद भी मैं डटा रहा। चाहता था कि पंकज कपूर की ये फिल्म बहुत अच्छी हो। मैंने पचास एंगल से मन ही मन इसे अच्छा साबित करने की कोशिश की पर कर नहीं पाया। फिल्म का पहला आधा घंटा और बीच-बीच में आते रियलिस्टिक किरदार, चीजें, कपड़े, बोली, गांव और सीन बड़े अच्छे हैं। उसके बाद हर बदलते मौसम में हम परेशान होने लगते हैं। ऐसे लगता है कि कोई जबरदस्ती एक ऐसा नॉवेल पढ़कर हमें सुना रहा है जो हमें बहुत बोरिंग लग रहा है। बहुत सारी सिनेमैटिक, एब्सट्रैक्ट और अच्छी चीजें होने के बावजूद दुख के साथ मैं कहूंगा कि मौसम अच्छी नहीं है।

शॉर्ट में स्टोरी
मल्लूकोट, पंजाब में रहने वाले हरिंदर सिंह (शाहिद कपूर) को अपने पड़ोस में आई कश्मीरी शरणार्थी लड़की आयत (सोनम कपूर) से मासूमियत भरा प्यार हो जाता है। पर इकरार से पहले वह बिछड़ जाते हैं। फिर बदलते मौसम की तरह मिलते-जुदा होते रहते हैं।

हां पकंज, हमें सहानुभूति है
एक मुस्लिम परिवार पर बीतती कहानी 1991, 1993, 1999, 2002 से गुजरती है। 1984 का भी जिक्र आता है। दुख भरी है। एयरफोर्स के वीर रस वाले फाइटर प्लेन, पौशाक, बैज, टशन और गर्व हैं। बड़े लैंडस्केप हैं। स्कॉटलैंड है, स्विटजरलैंड है, अमेरिका है। ये सब तो ठीक पर दोनों लीड स्टार शाहिद और सोनम एक्टिंग करना नहीं जानते हैं। ये दोनों पंकज कपूर की इस फिल्म के हर सीन को मटियामेट करते रहते हैं। पंकज भी निर्देशन के दौरान फिल्म की कहानी से न जुड़े रहकर अपने बेटे की प्रोफाइल शूट करते लगते हैं। (हां, ये बात और है कि 'मौसम' जैसी दर्जनों प्रोफाइल फिल्में भी शाहिद को बेहतर एक्टर पाएंगी, ऐसा लगता नहीं है) साथ ही वह बीच में कई पोएटिक भाषाओं में बातें करने लगते हैं, जो कि आम दर्शकों के मतलब की चीज नहीं है। कहानी को भी वो रेलेवेंट नहीं रख पाते। ऑटो से लौटते वक्त मेरे साथ एक अनजाना यंग कपल बैठा था। लड़की कहने लगी, 'यार पता नहीं ये फिल्म किस बंदे ने बनाई है। बड़ी बोरिंग थी। सब कुछ डाल दिया। इतना भी कम था तो रीसेंट ब्लास्ट भी डाल देते।'

नहीं सुधरेंगे क्या?
शाहिद जो एटिट्यूट चेहरे पर लेकर चलते हैं वह खोखला है। वह भयंकर रूप से निराश करते हैं। उन्हें थोड़ा रुककर ये भी जान लेना चाहिए कि अपने मैनरिज्म या शारीरिक भाव-भंगिमाओं के साथ वह कभी सहज नहीं हो पाते। अभी नहीं हो पाए हैं, आगे भी मिजाज कम ही लगते हैं। आर्मी की वर्दी में कैसे सोबर रहा जाता है ये जानने के लिए शाहिद 'लक्ष्य' की डीवीडी लें और एडजुटेंट मेजर प्रताप सिंह बने अभिमन्यु सिंह को देखें। अभिमन्यु आईएमए की पासिंग आउट परेड में माइक पर बोल रहे होते हैं। सोनम फिल्म में थोपी हुई लगती हैं। शुरू के आधे घंटे में वह निर्देशक साहब की वजह से नॉर्मल लगती हैं, इसकी प्रशंसा करूंगा। उसके बाद तो न पूछें।

ये अच्छा है
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आयत के अब्बू बने एक्टर कमल चोपड़ा ने कश्मीरी शरणार्थी की आवाज और लाचारी को जैसे निभाया है वह बेहतरीन है। फिल्म के बाकी एक्टर उनसे ही बहुत कुछ सीख सकते हैं।
# फिल्म के पहले आधे घंटे में पंजाब को पंकज कपूर ने बहुत सच्ची खूबसूरती से फिल्माया है। मसलन ये बेहद नेचरल सीन है जहां हरिंदर स्कूटर पर आयत के अब्बू को लेकर आ रहा है और पीछे मोहल्ले की चाची लड़ रही है और उनकी आवाज पूरी गली में गूंज रही है।
# मनोज पाहवा की एक्टिंग। वो सीन जब आयत को कातर निगाहों से देखने के लिए अपनी साइकिल की चैन बनाने का नाटक करता हरिंदर है, सामने बैठे मनोज कहते हैं, 'आजकल तो इसकी चैन हमेशा ही उतरी रहती है।' चाय पीते हुए उनका वो लुक और अंदाज उनके वॉन्टेड वाले अंदाज से कितना अलग है।
# गांवों की गलियों को पंकज की नजर से देखना। मनोज पाहवा का किरदार पहले घोड़ागाड़ी चलाता था, अब रिक्शा ले लेता है। ऑरिजिनल फटा सा रिक्शा है। छट से फटा हुआ। गली से आयत और फूफी को सामान साथ जब दुपहरी में ऑटो में लेकर वह ऑटो गियर में डालकर चलते हैं और पीछे से धूल उड़ती है तो अपने गांव की हूबहू ऐसी ही गलियों की याद आ जाती है।
# गोधरा दंगों के दौरान दंगाइयों से हरिंदर/हैरी आयत को बचाता है तो वह पूछती है.. 'ये कौन है हैरी।' हैरी जवाब देता है, 'भयानक साये हैं आयत, इनके न चेहरे होते हैं न नाम।' ऐसे कुछ संवाद ज्यों ही आते हैं हम समझ जाते हैं कि पंकज कपूर की जबां बोल रही है। मसलन, कमल चोपड़ा के किरदार का एक सीन में ये कहना, 'बाकी तो सब लकड़ी पत्थर है। रख लेने दो उन्हें। इंसानों को उजाड़ रहे हैं, न जाने क्या जोड़ लेंगे।' जैसे शुरू में ये डायलॉग है। 'ये कार सेवा क्या है'... 'कुछ नहीं, ब्लू स्टार मरा नहीं कि अयोध्या पैदा हो गया।'

हमें ये संदर्भ गवारा नहीं
# एक सोल्जर वॉर टाइम में हर पल आखिर कैसे अपने खोए प्यार के बारे में सोचता रह सकता है। (वो भी एक ऐसा प्यार जो महाप्रेमनुमा है इसका एहसास फिल्म बिल्कुल नहीं करवा पाती है, बस ये फैक्ट निगलने के लिए हमारे आगे रख दिया जाता है) खासतौर पर तब जब वो फोन पर अपनी बहन से स्टाइलिश पैशनेट देशभक्ति के अंदाज में कुछ यूं कहता है, 'आई वोन्ट कम, अनटिल आई पुश देम (दुश्मन) बैक टु देयर ब्लडी होल्स।' बेहद फनी और नकली लगता है। क्या देशभक्ति महज इस सीन में ही है।
# मल्लूकोट के दिनों में जब एक सीन में शाहिद अपने चार दोस्तों को कार में बिठाकर ट्रेन से रेस लगाता है, फिर ट्रेन से पहले रेलवे स्टेशन क्रॉस कर लेता है, बाल-बाल बचते हुए, तो पलटकर जाती ट्रेन को देखता है। यहां यूं लगता है कि ये बंदा एयरफोर्स से अपने लैटर का इंतजार कर रहा है और कितना पैशनेट है आम्र्ड फोर्सेज में जाने को लेकर। मगर बाद में ये पैशन खत्म सा हो जाता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 25, 2011

ये स्पीडी संसार बेलिया

फिल्म: स्पीडी सिंग्स
निर्देशक: रॉबर्ट लीबरमैन
कास्ट: विनय विरमाणी, रसल पीटर्स, कैमिला बेल, अनुपम खेर, रॉब लो, सकीना जाफरी, गुरप्रीत घुग्गी
स्टार: तीन, 3.0

इंटरनेशनली 'ब्रेकअवे' के नाम से रिलीज हुई हमारी 'स्पीडी सिंग्स' एक संतोषजनक फिल्म है। बहुत नई और धांसू नहीं है पर निराश नहीं करती। आप एंजॉय करते हैं। फिल्म में रसल पीटर्स जैसे बेहद फेमस स्टैंड अप कॉमेडियन हैं, गुरप्रीत घुग्गी हैं और अनुपम खेर हैं पर सब जाया हैं। क्योंकि उनके इंग्लिश बोलते चेहरों के पीछे दूसरे लोगों के हिंदी वॉयसओवर फिट नहीं हो पाते। अब रसल पीटर्स को ही लीजिए। उन्हें हम पसंद ही उनके हिंदी डायलॉग्स, एक्सेंट और टाइमिंग की वजह से करते हैं। वॉयसओवर में सब दब जाता है। शेरां दी कौम पंजाबी... वीर जी वियोण चलेया... और ए साडा संसार बेलिया... जैसे गाने थियेटर में बैठे लोगों को खूब पंसद आते हैं। हल्की-फुल्की अच्छी एंटरटेनर हैं। ट्राई कर सकते हैं।

स्पीडी सिंग्स की कहानी
दरवेश सिंह (अनुपम खेर) टोरंटो में रहते हैं। वाहेगुरु और अपने बिजनेस को सबकुछ मानते हैं। बेटा राजवीर (विनय विरमाणी) आइस हॉकी खेलना चाहता है पर पिता क्रिकेट पसंद करते हैं (उनके मुताबिक क्रिकेट को इंडियन देखते हैं, आइस हॉकी को कौन जानता है)। वह चाहते हैं कि राजवीर अपने चाचा अंकल सैमी (गुरप्रीत घुग्गी) के ट्रक बिजनेस का वारिस बने। बाप-बेटे में यही अनबन है। अपने पैशन को पूरा करने के लिए राजवीर पूरी तरह से सिख दोस्तों की आइस हॉकी टीम भी बना लेता है और कोच डैन (रोब लोव) को भी मना लेता है। पर चुनौतियां तो बस शुरू हुई हैं।

कुछ कड़वा
# आइस हॉकी पर डायरेक्टर रॉबर्ट लीबरमैन ने 'द माइटी डक्स 3' भी बनाई थी और गेम के लिहाज से वो फिल्म उनकी 'स्पीडी सिंग्स' से बहुत बेहतर है।
# कैनेडा की पृष्ठभूमि में अक्षय कुमार की 'पटियाला हाउस' में भी खेल (क्रिकेट), बाप-बेटे के रिश्तों की अनबन, पराई धरती पर अपना अस्तित्व साबित करने की कोशिश और सिखों के मान की बात थी। यहां भी ये सब है। यहां खेल है आइस हॉकी का और ये फिल्म ज्यादा इमोशनल टेंशन नहीं देती।
# फिल्म के लीड एक्टर विनय की ही लिखी इस फिल्म में बहुत की हॉलीवुड फिल्मों का घालमेल है। हंसी-मजाक और पंजाबी म्यूजिक भी बिल्कुल नया नहीं है, पर दोबारा देख-सुनकर भी हम पकते नहीं हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, September 21, 2011

तीस सेकंड की खरपतवार की खपत हम पर कैसे हो

बहुत भोली और मासूम लगने वाली एड फिल्में सिर्फ तीस सेकंड में हमारे अगले तीस सालों पर असर छोड़ जाती हैं। अच्छा भी और बुरा भी। इन दिनों इसके बुरे उदाहरण ज्यादा रहे हैं। कुछ हफ्ते पहले ही ब्रिटेन की विज्ञापनों के स्टैंडर्ड पर नजर रखने वाली एजेंसी ने कॉस्मेटिक्स कंपनी 'लॉरिएल' के लेटेस्ट एड पर रोक लगा दी। वजह ये थी कि इसमें हॉलीवुड एक्ट्रेस जूलिया रॉबट्र्स और क्रिस्टी टर्लिंगटन के चेहरों को फोटोशॉप सॉफ्टवेयर के जरिए डिजीटली ज्यादा सुंदर बनाया गया था, जितना इस क्रीम के इस्तेमाल से नहीं होता। ये अनैतिक भी था और प्राकृतिक ब्यूटी के खिलाफ भी। लॉरिएल ऐश्वर्या रॉय को लेकर जो इंडियन वर्जन बनाती है, उसमें भी फोटोशॉप के जरिए एक्ट्रीम गोरापन और झीनी स्किन दिखाई जाती है। वहीं शाहरुख का 'मर्दों वाली क्रीम लगाते हो' एड तो बेहूदगी की इंतहा है।

आपका ये जानना जरूरी है कि इन विज्ञापनों को बनाने वाले आपकी आलोचना से परे नहीं होते। एड और पीआर का कोर्स पढ़कर फील्ड में आने वाले यंगस्टर कुछ भी कैची और शॉकिंग बनाने लगते हैं। टेलीकॉम कंपनी यूनीनोर का बीते दिनों टीवी पर दिन में दर्जनों बार आने वाला एड लीजिए। 'लव सेक्स और धोखा' और 'शैतान' जैसी हालिया फिल्मों में दिखे एक्टर राजकुमार यादव के पैर पर प्लास्टर बंधा है और वह अपनी गर्लफ्रेंड और उसकी दूसरी दोस्त को फोन पर झूठ बता रहा है कि बच्चों की पतंग उतारते हुए चालीस फुट नीचे गिर गया और लग गई। जब उसका दोस्त कहता है, क्यों फोन का बिल बढ़ा रहा है तो राम कुमार कहता है, 'अबे दो पैसे में दो पट रही हैं, क्या प्रॉब्लम है।' यहां से टेलीकॉम कंपनी का नाम हमें याद हो जाता है, एड बनाने वाले का भी प्रमोशन पक्का हो जाता है, पर दो पैसे में दो पटाने का संवाद कितना ओछा और घटिया है, ये हम ज्यादा सोचते नहीं हैं। ऐसा ही एड है टाटा नैनो का। कार में पत्नी कुछ गुनगुनाने लगती है तो पति कहता है, 'इतने साल स्कूटर की तेज हवा मुझसे कुछ चुरा रही थी'.. जब वह पूछती है क्या, तो जवाब होता है, 'तुम्हारी आवाज' उद्देश्य क्या है? सिर्फ इतना कि स्कूटर वालों, स्कूटर फैंको और कार ले लो। मतलब नैनो की सेल्स बढ़ाने के लिए स्कूटर को आउटडेटेड या व्यर्थ बताने का अप्रत्यक्ष संदेश। क्या ये एड एक नैनो को बनने में खर्च होने वाले देश के हजारों लीटर पानी की बात करता है। करोड़ों नैनो खरीदने पर पार्किंग और सड़कों पर ट्रैफिक की समस्या होगी उसका क्या? स्कूटर वाला उसी पर रहना चाहता है। वह संतोषी जीव है, आप उसे जबरदस्ती महत्वाकांक्षी क्यों बनाना चाहते हैं। संसार में सबकी जरूरत के लिए तो पर्याप्त है, लालच के लिए नहीं।


'कौन बनेगा करोड़पति' के इस सीजन में अमिताभ बच्चन ने वापसी की है। इस बार फिल्म माध्यम के इमोशनल टूल्स का इस्तेमाल करते हुए गरीबी और मध्यम वर्ग की लाचारी को भुनाते हुए एड बनाए गए हैं। यहां इस एड में एक युवती बुझे चेहरे और लाचारगी के साथ कैमरे में बोलती है, 'मैं अपनी मां के लिए घर बनाना चाहती हूं। (अब भयंकर विवशता का एहसास करवाते हुए कहती है)...हमारा घर बहुत छोटा है।' सुनकर दिल कांप जाता है। पर क्या 'गजब राखी की अजब कहानी' की कमर्शियल नौटंकी से आगे भी 'कौन बनेगा करोड़पति' बढ़ पाएगा।


हालिया 'रॉयल एनफील्ड: हैंडक्राफ्टेड इन चेन्नई' विज्ञापन, शानदार सिनेमैटिक स्टोरीटेलिंग और फोटोग्रफी का उदाहरण है। सुबह घर से एनफील्ड के प्लांट में जाने को निकलता पति, बाल बांधती वाइफ, घर में बैठी बूढ़ी मां, दरवाजे से झरकर आती सूरज की किरणें, भागकर पिता को टिफिन पकड़ाती और गाल पर पाई देती बिटिया, चेन्नई की सड़कों के रंग समेटता अपनी एनफील्ड पर चलता व व्यक्तिआसपास धार्मिक नाच भी हो रहे हैं और रजनीकांत की फिल्म 'रोबॉट' के पोस्टर भी लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे आप थियेटर में फिल्म देख रहे हैं। ये मिसाल है कि एड फिल्में सिनेमैटिकली भी फीचर फिल्मों जैसी होती हैं।


मैं आज की इन एड फिल्मों में नुक्स इसलिए निकाल पा रहा हूं क्योंकि हमारे पास सोशल एडवर्टीजमेंट के सुंदर प्रयास मौजूद हैं। उनमें फोटोग्रफी, डायरेक्शन, लिरिक्स, कॉपी और कहानी को किसी फिल्म सी तवज्जो दी गई है। सार्थकता के भाव के साथ हमारे दिलों को पवित्र कर जाने वाली एक ऐसी ही एड थी राष्ट्रीय साक्षरता अभियान की जो दूरदर्शन पर आती थी।
इसके बोल थे, पूरब से सूर्य उगा, ढला अंधियारा, जागी हर दिशा दिशा, जागा जग सारा...।

गजेंद्र सिंह भाटी
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साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से