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Sunday, August 19, 2012

यूं तोड़ें फिल्में गढ़ने का डरावना कोडः भविष्य के सभी भारतीय पीटर जैक्सनों के लिए एक पत्र...

(कॉलम सीरियसली सिनेमा से)

कुछ जज्बेधारी, फिल्मों को एजुकेशनली देखते हैं। मरने से पहले खुद भी एक-दो फिल्म तो बनाकर ही मरना चाहते हैं। पर इनके सपनों और कहानियों का दम ये सोचते ही घुट जाता है कि बनाने के लिए बड़े कैमरे कहां से लाएंगे? सैंकड़ों लोगों की क्रू को महीनों तक कैसे देखेंगे-भालेंगे? प्रॉड्यूसर भला कौन बनेगा? फिर डिस्ट्रीब्यूटर और पब्लिसिटी के लफड़े। मतलब ऐसे प्रोसेस से कैसे पार पाएंगे? ... लेकिन बहुतों ने बहुतेरे तरीकों से फिल्में बनाकर फिल्ममेकिंग प्रोसेस के डरावने कोड को तोड़ा है।

मूलत: डॉक्युमेंट्री बनाने वाले नील माधव पांडा की फिल्म ‘आई एम कलाम’ की बात करते हैं। उन्होंने शूटिंग बीकानेर के भैंरू विलास में की। यहां एक्सीलेंट साज-ओ-सामान और लुक वाली सैंकड़ों हवेलियां हैं। औसत खर्चे में रुककर शूटिंग कर सकते हैं। लोकल आर्टिस्ट, ऊंटगाड़े और उम्दा लोकसंगीत आसानी से मिल जाते हैं। लोकेशन की बात करें तो यहां रेगिस्तानी लैंडस्केप में कैमरा किधर भी पैन करें एक अच्छा खासा शॉट बन जाता है। राजस्थान समेत देश के बाकी दूसरे राज्यों में भी ऐसी जगहें, म्यूजिक और ऑप्शन हैं। मतलब ये कि कम बजट, लोकेशन चुनने की स्मार्ट चॉयस और सिंपल स्टोरीटेलिंग से एक सार्थक और कमर्शियल फिल्म यूं बन जाती है।

अमेरिका में जितनी भी जॉम्बी (मृत दिमाग वाली चलती-फिरती खूनी लाशें) मूवीज बनी हैं उन्हें देखकर लगता है कि करोड़ों के बजट और बड़े स्टूडियोज की बैकिंग के बगैर ऐसी मूवी नहीं बना सकते। मगर मार्क प्राइस ने 2008 में बनाई। 18 महीनों में बनी 'कॉलिन' को मार्क ने स्टैंडर्ड डैफिनिशन वाले पैनासॉनिक मिनी-डीवी कैमकॉर्डर से शूट किया और एडिटिंग अपने होम पीसी पर की। इसके लिए उन्होंने एडोब प्रीमियर सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया। प्रमोशन के लिए उन्होंने फेसबुक और माइस्पेस का सहारा लिया। सृष्टि का न्याय देखिए, 2009 के कान फिल्म फेस्ट में 45 पाउंड की ‘कॉलिन’ की स्क्रीनिंग 750 लाख पाउंड की थ्रीडी फिल्म ‘अप’ के साथ हो रही थी।

फिल्म में दिखने वाले तकरीबन 100 जॉम्बी कैरेक्टर मार्क के दोस्त हैं और उनके हाथों में दिखते हथियार भी सब अपने-अपने घरों से लाए थे। मेकअप और एनिमेशन के लिए उन्होंने बहुत से ऐसे प्रफेशनल्स को मेल और खत भेजे। मार्क ने लिखा था कि फिल्म के लिए वह मेकअप का सामान और इंस्ट्रूमेंट भी नहीं मुहैया करा सकते। आर्टिस्टों को खुद लाना होगा। बस हर एनिमेटर और मेकअप आर्टिस्ट को अपनी मर्जी का जॉम्बी बनाने की छूट होगी। बदले में उन्हें फिल्म क्रेडिट और अपने पोर्टफोलियो में लगाने के लिए फिल्म की फुटेज मिलेगी।

आकांक्षी फिल्ममेकर्स को राह अब भी मुश्किल लगती है तो रामगोपाल वर्मा की 1999 में आई छोटी सी हॉरर मास्टरपीस ‘कौन’ की मिसाल लेते हैं। मनोज वाजपेयी, उर्मिला और सुशांत सिंह.. मोटा-मोटी बस तीन लोगों की कास्ट थी। कोई गाना भी नहीं था। बस अनुराग कश्यप की तरह आप भी अच्छी स्क्रिप्ट लिख लें और रामगोपाल जैसी स्मार्ट निर्देशकीय समझ लेकर चलें। पिछले साल मार्च में रिलीज हुई अपनी तेलुगू फिल्म ‘डोंगाला मुथा’ में भी रामू ने ये प्रयोग किया था। सिर्फ पांच दिनों में सात लोगों की क्रू के साथ उन्होंने फिल्म बनाई और ये बड़ी हिट रही। इसमें कैनन के हैंड हैल्ड कैमरा यूज हुए थे। मतलब ये भी एक फॉर्मेट है।

चिंता अगर लंबे शेड्यूल की है तो वो भी व्यर्थ है। ऋषिकेश मुखर्जी की राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन को लेकर बनाई कल्ट फिल्म ‘आनंद’ महज 20 दिन में शूट हो गई थी। सनी देओल जैसे बड़े स्टार की ‘मोहल्ला 80’ भी दो महीने के सीधे शेड्यूल में शूट हुई है। कारण रहे, स्क्रिप्ट पर अनुशासित मेहनत, सीधी कहानी और चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन की स्पष्टता। एक बार राजकुमार हीरानी ने कहा था कि उनकी ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’-‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्मों में कोई एक्स्ट्रा रील खर्च नहीं हुई थी। राजू अपने सीन्स पर होमवर्क इतना अच्छे से करते हैं कि एक भी ऐसा सीन शूट नहीं करना पड़ता जिसे एडिटिंग में काटना पड़े। तो ये सबक भी है।

पिछले साल सरताज सिंह पन्नू नाम के युवा ने भी 'सोच लो' जैसी अच्छी फिल्म बनाई थी। शूटिंग जैसलमेर की पथरीली सुंदर लैंडस्केप पर की। चूंकि फिल्म बनानी थी और खुद की कोई ट्रेनिंग नहीं थी इसलिए एक चतुराई बरती। एफटीआईआई के ताजा ग्रेजुएट्स, डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी और टेक्नीशियंस को हायर किया। प्रॉडक्शन के लिए खुद की कंपनी सन इंटरनेशनल बना डाली। सार्थक दास गुप्ता ने अपनी अच्छी भली लाखों की पैकेज वाली कॉरपोरेट जॉब छोड़ दी और 2009 में 'द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई' बनाई। फिल्म की एब्सट्रैक्ट थीम पति-पत्नी के रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती थी। क्रिटीकली बहुत सराही गई। उनकी भी कोई ट्रेनिंग नहीं थी। पर सपना पूरा कर लिया।

एजुकेशनली फिल्में देखने और उन्हें बनाने के सपने पूरे कर डालने में पीटर जैक्सन (बैड टेस्ट), रॉबर्ट रॉड्रिग्स (अल मारियाची) और ओरेन पेली (पैरानॉर्मल एक्टिविटी) जैसे नाम भी आप फॉलो करेंगे तो बहुत प्रोत्साहित होंगे।

Peter Jackson, seen here, did all the mind blowing gory make-up and art-direction himself in BAD TASTE. 

हर अड़चन अनूठेपन और मौलिकता से दूर करें
  • देश के अंदरुनी इलाकों में शानदार लोकेशंस हैं, जो बेहद सस्ती हैं।
  • स्टैंडर्ड डैफिनिशन के मिनी डीवी कैमकॉर्डर से भी शूट कर सकते हैं।
  • लिट्रेचर या लोककथाओं पर आधारित टाइट स्क्रिप्ट रच सकते हैं। स्क्रिप्ट मजबूत है तो मतलब आधी फिल्म बन गई।
  • म्यूजिक के लिए एमेच्योर बैंड्स या लोक संगीत-गायकों की मदद लें।
  • एफटीआईआई-एनएसडी जैसे संस्थानों के स्टूडेंट्स से मदद ले सकते हैं। अपने दोस्तों या आसपास के जानकार लोगों से एक्टिंग करवा सकते हैं। ईरानी फिल्मों में गैर-पैशेवर एक्टर्स बहुत सफलता से फिट होते हैं।
  • फिल्म का प्रचार करने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सहारा ले सकते हैं। कई वेब पोर्टल तो पूरी तरह नए युवा फिल्मकारों को प्रमोट करने के जज्बे के साथ ही निशुल्क काम कर रहे हैं, उनसे संपर्क किया जा सकता है। मुख्यधारा के हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में भी सिनेमा की बेहतरी और युवा फिल्मकारों की सहायता को आतुर पत्रकार हैं। उनके ब्लॉग, पर्सनल साइट, मेल पर संपर्क कर सकते हैं। मदद मिलेगी ही।
  • बाहर दर्जनों नामी फिल्म फेस्ट होते हैं, वहां अपनी फिल्म की डीवीडी मेल कर सकते हैं, उनसे संपर्क कर सकते हैं, जा सकते हैं। वहां सराहा जाने पर आत्मविश्वास दस-बीस गुना बढ़ जाता है।
अगर फिल्म मनोरंजन के पैमानों पर खरी उतरती है तो वितरकों और बड़े प्रॉड्यूसर्स से संपर्क कर सकते हैं। जैसे लॉर्ड ऑफ द रिंग्स फेम डायरेक्टर पीटर जैक्सन ने अपनी पहली (दोस्तों के साथ ऐसे ही जज्बे के साथ बिना संसाधनों और ट्रेनिंग के बनाई) ही फिल्म बैड टेस्ट (1987) बनाकर किया था। शॉर्ट फिल्म से 90 मिनट की फिल्म में तब्दील होने के बाद इसे न्यूजीलैंड के फिल्म कमीशन की वित्तीय मदद भी मिली। अंततः कान फिल्म समारोह में नजरों में चढ़ी ये फिल्म 12 मुल्कों में प्रदर्शन के लिए खरीद ली गई। 
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, September 21, 2011

तीस सेकंड की खरपतवार की खपत हम पर कैसे हो

बहुत भोली और मासूम लगने वाली एड फिल्में सिर्फ तीस सेकंड में हमारे अगले तीस सालों पर असर छोड़ जाती हैं। अच्छा भी और बुरा भी। इन दिनों इसके बुरे उदाहरण ज्यादा रहे हैं। कुछ हफ्ते पहले ही ब्रिटेन की विज्ञापनों के स्टैंडर्ड पर नजर रखने वाली एजेंसी ने कॉस्मेटिक्स कंपनी 'लॉरिएल' के लेटेस्ट एड पर रोक लगा दी। वजह ये थी कि इसमें हॉलीवुड एक्ट्रेस जूलिया रॉबट्र्स और क्रिस्टी टर्लिंगटन के चेहरों को फोटोशॉप सॉफ्टवेयर के जरिए डिजीटली ज्यादा सुंदर बनाया गया था, जितना इस क्रीम के इस्तेमाल से नहीं होता। ये अनैतिक भी था और प्राकृतिक ब्यूटी के खिलाफ भी। लॉरिएल ऐश्वर्या रॉय को लेकर जो इंडियन वर्जन बनाती है, उसमें भी फोटोशॉप के जरिए एक्ट्रीम गोरापन और झीनी स्किन दिखाई जाती है। वहीं शाहरुख का 'मर्दों वाली क्रीम लगाते हो' एड तो बेहूदगी की इंतहा है।

आपका ये जानना जरूरी है कि इन विज्ञापनों को बनाने वाले आपकी आलोचना से परे नहीं होते। एड और पीआर का कोर्स पढ़कर फील्ड में आने वाले यंगस्टर कुछ भी कैची और शॉकिंग बनाने लगते हैं। टेलीकॉम कंपनी यूनीनोर का बीते दिनों टीवी पर दिन में दर्जनों बार आने वाला एड लीजिए। 'लव सेक्स और धोखा' और 'शैतान' जैसी हालिया फिल्मों में दिखे एक्टर राजकुमार यादव के पैर पर प्लास्टर बंधा है और वह अपनी गर्लफ्रेंड और उसकी दूसरी दोस्त को फोन पर झूठ बता रहा है कि बच्चों की पतंग उतारते हुए चालीस फुट नीचे गिर गया और लग गई। जब उसका दोस्त कहता है, क्यों फोन का बिल बढ़ा रहा है तो राम कुमार कहता है, 'अबे दो पैसे में दो पट रही हैं, क्या प्रॉब्लम है।' यहां से टेलीकॉम कंपनी का नाम हमें याद हो जाता है, एड बनाने वाले का भी प्रमोशन पक्का हो जाता है, पर दो पैसे में दो पटाने का संवाद कितना ओछा और घटिया है, ये हम ज्यादा सोचते नहीं हैं। ऐसा ही एड है टाटा नैनो का। कार में पत्नी कुछ गुनगुनाने लगती है तो पति कहता है, 'इतने साल स्कूटर की तेज हवा मुझसे कुछ चुरा रही थी'.. जब वह पूछती है क्या, तो जवाब होता है, 'तुम्हारी आवाज' उद्देश्य क्या है? सिर्फ इतना कि स्कूटर वालों, स्कूटर फैंको और कार ले लो। मतलब नैनो की सेल्स बढ़ाने के लिए स्कूटर को आउटडेटेड या व्यर्थ बताने का अप्रत्यक्ष संदेश। क्या ये एड एक नैनो को बनने में खर्च होने वाले देश के हजारों लीटर पानी की बात करता है। करोड़ों नैनो खरीदने पर पार्किंग और सड़कों पर ट्रैफिक की समस्या होगी उसका क्या? स्कूटर वाला उसी पर रहना चाहता है। वह संतोषी जीव है, आप उसे जबरदस्ती महत्वाकांक्षी क्यों बनाना चाहते हैं। संसार में सबकी जरूरत के लिए तो पर्याप्त है, लालच के लिए नहीं।


'कौन बनेगा करोड़पति' के इस सीजन में अमिताभ बच्चन ने वापसी की है। इस बार फिल्म माध्यम के इमोशनल टूल्स का इस्तेमाल करते हुए गरीबी और मध्यम वर्ग की लाचारी को भुनाते हुए एड बनाए गए हैं। यहां इस एड में एक युवती बुझे चेहरे और लाचारगी के साथ कैमरे में बोलती है, 'मैं अपनी मां के लिए घर बनाना चाहती हूं। (अब भयंकर विवशता का एहसास करवाते हुए कहती है)...हमारा घर बहुत छोटा है।' सुनकर दिल कांप जाता है। पर क्या 'गजब राखी की अजब कहानी' की कमर्शियल नौटंकी से आगे भी 'कौन बनेगा करोड़पति' बढ़ पाएगा।


हालिया 'रॉयल एनफील्ड: हैंडक्राफ्टेड इन चेन्नई' विज्ञापन, शानदार सिनेमैटिक स्टोरीटेलिंग और फोटोग्रफी का उदाहरण है। सुबह घर से एनफील्ड के प्लांट में जाने को निकलता पति, बाल बांधती वाइफ, घर में बैठी बूढ़ी मां, दरवाजे से झरकर आती सूरज की किरणें, भागकर पिता को टिफिन पकड़ाती और गाल पर पाई देती बिटिया, चेन्नई की सड़कों के रंग समेटता अपनी एनफील्ड पर चलता व व्यक्तिआसपास धार्मिक नाच भी हो रहे हैं और रजनीकांत की फिल्म 'रोबॉट' के पोस्टर भी लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे आप थियेटर में फिल्म देख रहे हैं। ये मिसाल है कि एड फिल्में सिनेमैटिकली भी फीचर फिल्मों जैसी होती हैं।


मैं आज की इन एड फिल्मों में नुक्स इसलिए निकाल पा रहा हूं क्योंकि हमारे पास सोशल एडवर्टीजमेंट के सुंदर प्रयास मौजूद हैं। उनमें फोटोग्रफी, डायरेक्शन, लिरिक्स, कॉपी और कहानी को किसी फिल्म सी तवज्जो दी गई है। सार्थकता के भाव के साथ हमारे दिलों को पवित्र कर जाने वाली एक ऐसी ही एड थी राष्ट्रीय साक्षरता अभियान की जो दूरदर्शन पर आती थी।
इसके बोल थे, पूरब से सूर्य उगा, ढला अंधियारा, जागी हर दिशा दिशा, जागा जग सारा...।

गजेंद्र सिंह भाटी
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साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से