Showing posts with label director pankaj kapoor. Show all posts
Showing posts with label director pankaj kapoor. Show all posts

Monday, September 26, 2011

बिन मौसम मेला है ये

(खिलखिलाती, फिल्म को पहले ही प्रडिक्ट कर लेती, बेहद मजाकिया निष्ठुर उन लड़कियों ने फिल्म को यूं सम अप किया)

फिल्म: मौसम
निर्देशक: पंकज कपूर
कास्ट: शाहिद कपूर, सोनम कपूर, अदिति शर्मा, कमल चोपड़ा, मनोज पाहवा, सुप्रिया पाठक
स्टार: दो, 2.0

पूरा थियेटर निराश था। यही निराशा 'सांवरिया' के पहले शो में देखी थी। 'मौसम' खत्म होने में अभी 25 मिनट थे और आठ लड़कों का वह ग्रुप उठकर जाने लगा। मेरे पास बैठे एक पिता खड़े हुए और बेटे से बोले, 'मैं गाड़ी निकाल रहा हूं तुम ममी और भैया के साथ बाहर आ जाना।' पूरे थियेटर से आ रही बू की आवाजों के बाद भी मैं डटा रहा। चाहता था कि पंकज कपूर की ये फिल्म बहुत अच्छी हो। मैंने पचास एंगल से मन ही मन इसे अच्छा साबित करने की कोशिश की पर कर नहीं पाया। फिल्म का पहला आधा घंटा और बीच-बीच में आते रियलिस्टिक किरदार, चीजें, कपड़े, बोली, गांव और सीन बड़े अच्छे हैं। उसके बाद हर बदलते मौसम में हम परेशान होने लगते हैं। ऐसे लगता है कि कोई जबरदस्ती एक ऐसा नॉवेल पढ़कर हमें सुना रहा है जो हमें बहुत बोरिंग लग रहा है। बहुत सारी सिनेमैटिक, एब्सट्रैक्ट और अच्छी चीजें होने के बावजूद दुख के साथ मैं कहूंगा कि मौसम अच्छी नहीं है।

शॉर्ट में स्टोरी
मल्लूकोट, पंजाब में रहने वाले हरिंदर सिंह (शाहिद कपूर) को अपने पड़ोस में आई कश्मीरी शरणार्थी लड़की आयत (सोनम कपूर) से मासूमियत भरा प्यार हो जाता है। पर इकरार से पहले वह बिछड़ जाते हैं। फिर बदलते मौसम की तरह मिलते-जुदा होते रहते हैं।

हां पकंज, हमें सहानुभूति है
एक मुस्लिम परिवार पर बीतती कहानी 1991, 1993, 1999, 2002 से गुजरती है। 1984 का भी जिक्र आता है। दुख भरी है। एयरफोर्स के वीर रस वाले फाइटर प्लेन, पौशाक, बैज, टशन और गर्व हैं। बड़े लैंडस्केप हैं। स्कॉटलैंड है, स्विटजरलैंड है, अमेरिका है। ये सब तो ठीक पर दोनों लीड स्टार शाहिद और सोनम एक्टिंग करना नहीं जानते हैं। ये दोनों पंकज कपूर की इस फिल्म के हर सीन को मटियामेट करते रहते हैं। पंकज भी निर्देशन के दौरान फिल्म की कहानी से न जुड़े रहकर अपने बेटे की प्रोफाइल शूट करते लगते हैं। (हां, ये बात और है कि 'मौसम' जैसी दर्जनों प्रोफाइल फिल्में भी शाहिद को बेहतर एक्टर पाएंगी, ऐसा लगता नहीं है) साथ ही वह बीच में कई पोएटिक भाषाओं में बातें करने लगते हैं, जो कि आम दर्शकों के मतलब की चीज नहीं है। कहानी को भी वो रेलेवेंट नहीं रख पाते। ऑटो से लौटते वक्त मेरे साथ एक अनजाना यंग कपल बैठा था। लड़की कहने लगी, 'यार पता नहीं ये फिल्म किस बंदे ने बनाई है। बड़ी बोरिंग थी। सब कुछ डाल दिया। इतना भी कम था तो रीसेंट ब्लास्ट भी डाल देते।'

नहीं सुधरेंगे क्या?
शाहिद जो एटिट्यूट चेहरे पर लेकर चलते हैं वह खोखला है। वह भयंकर रूप से निराश करते हैं। उन्हें थोड़ा रुककर ये भी जान लेना चाहिए कि अपने मैनरिज्म या शारीरिक भाव-भंगिमाओं के साथ वह कभी सहज नहीं हो पाते। अभी नहीं हो पाए हैं, आगे भी मिजाज कम ही लगते हैं। आर्मी की वर्दी में कैसे सोबर रहा जाता है ये जानने के लिए शाहिद 'लक्ष्य' की डीवीडी लें और एडजुटेंट मेजर प्रताप सिंह बने अभिमन्यु सिंह को देखें। अभिमन्यु आईएमए की पासिंग आउट परेड में माइक पर बोल रहे होते हैं। सोनम फिल्म में थोपी हुई लगती हैं। शुरू के आधे घंटे में वह निर्देशक साहब की वजह से नॉर्मल लगती हैं, इसकी प्रशंसा करूंगा। उसके बाद तो न पूछें।

ये अच्छा है
#
आयत के अब्बू बने एक्टर कमल चोपड़ा ने कश्मीरी शरणार्थी की आवाज और लाचारी को जैसे निभाया है वह बेहतरीन है। फिल्म के बाकी एक्टर उनसे ही बहुत कुछ सीख सकते हैं।
# फिल्म के पहले आधे घंटे में पंजाब को पंकज कपूर ने बहुत सच्ची खूबसूरती से फिल्माया है। मसलन ये बेहद नेचरल सीन है जहां हरिंदर स्कूटर पर आयत के अब्बू को लेकर आ रहा है और पीछे मोहल्ले की चाची लड़ रही है और उनकी आवाज पूरी गली में गूंज रही है।
# मनोज पाहवा की एक्टिंग। वो सीन जब आयत को कातर निगाहों से देखने के लिए अपनी साइकिल की चैन बनाने का नाटक करता हरिंदर है, सामने बैठे मनोज कहते हैं, 'आजकल तो इसकी चैन हमेशा ही उतरी रहती है।' चाय पीते हुए उनका वो लुक और अंदाज उनके वॉन्टेड वाले अंदाज से कितना अलग है।
# गांवों की गलियों को पंकज की नजर से देखना। मनोज पाहवा का किरदार पहले घोड़ागाड़ी चलाता था, अब रिक्शा ले लेता है। ऑरिजिनल फटा सा रिक्शा है। छट से फटा हुआ। गली से आयत और फूफी को सामान साथ जब दुपहरी में ऑटो में लेकर वह ऑटो गियर में डालकर चलते हैं और पीछे से धूल उड़ती है तो अपने गांव की हूबहू ऐसी ही गलियों की याद आ जाती है।
# गोधरा दंगों के दौरान दंगाइयों से हरिंदर/हैरी आयत को बचाता है तो वह पूछती है.. 'ये कौन है हैरी।' हैरी जवाब देता है, 'भयानक साये हैं आयत, इनके न चेहरे होते हैं न नाम।' ऐसे कुछ संवाद ज्यों ही आते हैं हम समझ जाते हैं कि पंकज कपूर की जबां बोल रही है। मसलन, कमल चोपड़ा के किरदार का एक सीन में ये कहना, 'बाकी तो सब लकड़ी पत्थर है। रख लेने दो उन्हें। इंसानों को उजाड़ रहे हैं, न जाने क्या जोड़ लेंगे।' जैसे शुरू में ये डायलॉग है। 'ये कार सेवा क्या है'... 'कुछ नहीं, ब्लू स्टार मरा नहीं कि अयोध्या पैदा हो गया।'

हमें ये संदर्भ गवारा नहीं
# एक सोल्जर वॉर टाइम में हर पल आखिर कैसे अपने खोए प्यार के बारे में सोचता रह सकता है। (वो भी एक ऐसा प्यार जो महाप्रेमनुमा है इसका एहसास फिल्म बिल्कुल नहीं करवा पाती है, बस ये फैक्ट निगलने के लिए हमारे आगे रख दिया जाता है) खासतौर पर तब जब वो फोन पर अपनी बहन से स्टाइलिश पैशनेट देशभक्ति के अंदाज में कुछ यूं कहता है, 'आई वोन्ट कम, अनटिल आई पुश देम (दुश्मन) बैक टु देयर ब्लडी होल्स।' बेहद फनी और नकली लगता है। क्या देशभक्ति महज इस सीन में ही है।
# मल्लूकोट के दिनों में जब एक सीन में शाहिद अपने चार दोस्तों को कार में बिठाकर ट्रेन से रेस लगाता है, फिर ट्रेन से पहले रेलवे स्टेशन क्रॉस कर लेता है, बाल-बाल बचते हुए, तो पलटकर जाती ट्रेन को देखता है। यहां यूं लगता है कि ये बंदा एयरफोर्स से अपने लैटर का इंतजार कर रहा है और कितना पैशनेट है आम्र्ड फोर्सेज में जाने को लेकर। मगर बाद में ये पैशन खत्म सा हो जाता है।
***************
गजेंद्र सिंह भाटी