Monday, September 26, 2011

यूं ही बने रहें सर जॉनी इंग्लिश

फिल्म: जॉनी इंग्लिश रीबोर्न (अंग्रेजी)
निर्देशक: ऑलिवर पार्कर
कास्ट: रॉवन एटकिंसन, गिलियन एंडरसन, रोजमंड पाइक, डोमिनिक वेस्ट, डेनियल कालुया
स्टार: तीन, 3.0

चार्ली चैपलिन के बाद बड़ी पवित्रता से हर एक दर्शक को अगर कोई हंसा पाता है तो वो हैं ब्रिटिश एक्टर रॉवन एटकिंसन। कभी मिस्टर बीन तो कभी जॉनी इंग्लिश बनकर। 'जॉनी इंग्लिश रीबोर्न' भी खूब हंसाती है। रात के शो में चंडिगढिय़न बॉयज सीटों पर उछल-उछलकर हंसे। पेट पकड़कर हंसे। तो ये एक मस्ट वॉच है। पूरी फैमिली के साथ जरूर देखें। हफ्ते की श्रेष्ठ फिल्म। इस बार आपका जॉनी इंग्लिश कुछ स्मार्ट है। वह मार खाता ही नहीं है, पिटाई करता भी है। उसके पास अत्याधुनिक गैजेट हैं। वह हिमालय की ऊंचाइयों में चीन से कहीं अपनी शक्तियां बढ़ाकर :) लौटा है। ये जरूर ध्यान रखिएगा कि फिल्म में हर सेकंड लाफ्टर का डोज नहीं है। सुकून पर ज्यादा ध्यान दिया गया है।

अब क्या करेगा जॉनी
ब्रिटिश सीक्रेट एजेंसी एमआई-7 को जब ये पता चलता है कि चीन के प्रधानमंत्री की जान को खतरा है तो वह अपने सबसे बेस्ट एजेंट को याद करती है। स्पेशल एजेंट सर जॉनी इंग्लिश (रॉवन एटकिंसन)। जॉनी अपने पिछले मिशन के बाद से ही एशिया में किसी एकांत जगह पर अपने आपको मजबूत करने में जुटा है। बुलावा आने पर वह लौटता है और काम पर लगता है।

कसर कहां रही
# फिल्म के शुरुआती क्रेडिट बोरिंग तरीके से आते हैं। हां, माना कि ये जेम्स बॉन्ड मूवीज के क्रेडिट्स के साथ मसखरी करने की कोशिश में होता है, पर फिर भी ये इंट्रेस्टिंग नहीं हैं।
# स्पेशल एजेंट टकर बने डेनियल कालुया जॉनी के पार्टनर के तौर पर बोझिल लगते हैं, उनके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उनमें हंसी का कोई अंश नहीं है।
# पिछली फिल्म की तुलना में यहां रॉवन कुछ धीमे पड़े हैं, ये उनकी लेखनी में दिखता है। ***************
गजेंद्र सिंह भाटी

बिन मौसम मेला है ये

(खिलखिलाती, फिल्म को पहले ही प्रडिक्ट कर लेती, बेहद मजाकिया निष्ठुर उन लड़कियों ने फिल्म को यूं सम अप किया)

फिल्म: मौसम
निर्देशक: पंकज कपूर
कास्ट: शाहिद कपूर, सोनम कपूर, अदिति शर्मा, कमल चोपड़ा, मनोज पाहवा, सुप्रिया पाठक
स्टार: दो, 2.0

पूरा थियेटर निराश था। यही निराशा 'सांवरिया' के पहले शो में देखी थी। 'मौसम' खत्म होने में अभी 25 मिनट थे और आठ लड़कों का वह ग्रुप उठकर जाने लगा। मेरे पास बैठे एक पिता खड़े हुए और बेटे से बोले, 'मैं गाड़ी निकाल रहा हूं तुम ममी और भैया के साथ बाहर आ जाना।' पूरे थियेटर से आ रही बू की आवाजों के बाद भी मैं डटा रहा। चाहता था कि पंकज कपूर की ये फिल्म बहुत अच्छी हो। मैंने पचास एंगल से मन ही मन इसे अच्छा साबित करने की कोशिश की पर कर नहीं पाया। फिल्म का पहला आधा घंटा और बीच-बीच में आते रियलिस्टिक किरदार, चीजें, कपड़े, बोली, गांव और सीन बड़े अच्छे हैं। उसके बाद हर बदलते मौसम में हम परेशान होने लगते हैं। ऐसे लगता है कि कोई जबरदस्ती एक ऐसा नॉवेल पढ़कर हमें सुना रहा है जो हमें बहुत बोरिंग लग रहा है। बहुत सारी सिनेमैटिक, एब्सट्रैक्ट और अच्छी चीजें होने के बावजूद दुख के साथ मैं कहूंगा कि मौसम अच्छी नहीं है।

शॉर्ट में स्टोरी
मल्लूकोट, पंजाब में रहने वाले हरिंदर सिंह (शाहिद कपूर) को अपने पड़ोस में आई कश्मीरी शरणार्थी लड़की आयत (सोनम कपूर) से मासूमियत भरा प्यार हो जाता है। पर इकरार से पहले वह बिछड़ जाते हैं। फिर बदलते मौसम की तरह मिलते-जुदा होते रहते हैं।

हां पकंज, हमें सहानुभूति है
एक मुस्लिम परिवार पर बीतती कहानी 1991, 1993, 1999, 2002 से गुजरती है। 1984 का भी जिक्र आता है। दुख भरी है। एयरफोर्स के वीर रस वाले फाइटर प्लेन, पौशाक, बैज, टशन और गर्व हैं। बड़े लैंडस्केप हैं। स्कॉटलैंड है, स्विटजरलैंड है, अमेरिका है। ये सब तो ठीक पर दोनों लीड स्टार शाहिद और सोनम एक्टिंग करना नहीं जानते हैं। ये दोनों पंकज कपूर की इस फिल्म के हर सीन को मटियामेट करते रहते हैं। पंकज भी निर्देशन के दौरान फिल्म की कहानी से न जुड़े रहकर अपने बेटे की प्रोफाइल शूट करते लगते हैं। (हां, ये बात और है कि 'मौसम' जैसी दर्जनों प्रोफाइल फिल्में भी शाहिद को बेहतर एक्टर पाएंगी, ऐसा लगता नहीं है) साथ ही वह बीच में कई पोएटिक भाषाओं में बातें करने लगते हैं, जो कि आम दर्शकों के मतलब की चीज नहीं है। कहानी को भी वो रेलेवेंट नहीं रख पाते। ऑटो से लौटते वक्त मेरे साथ एक अनजाना यंग कपल बैठा था। लड़की कहने लगी, 'यार पता नहीं ये फिल्म किस बंदे ने बनाई है। बड़ी बोरिंग थी। सब कुछ डाल दिया। इतना भी कम था तो रीसेंट ब्लास्ट भी डाल देते।'

नहीं सुधरेंगे क्या?
शाहिद जो एटिट्यूट चेहरे पर लेकर चलते हैं वह खोखला है। वह भयंकर रूप से निराश करते हैं। उन्हें थोड़ा रुककर ये भी जान लेना चाहिए कि अपने मैनरिज्म या शारीरिक भाव-भंगिमाओं के साथ वह कभी सहज नहीं हो पाते। अभी नहीं हो पाए हैं, आगे भी मिजाज कम ही लगते हैं। आर्मी की वर्दी में कैसे सोबर रहा जाता है ये जानने के लिए शाहिद 'लक्ष्य' की डीवीडी लें और एडजुटेंट मेजर प्रताप सिंह बने अभिमन्यु सिंह को देखें। अभिमन्यु आईएमए की पासिंग आउट परेड में माइक पर बोल रहे होते हैं। सोनम फिल्म में थोपी हुई लगती हैं। शुरू के आधे घंटे में वह निर्देशक साहब की वजह से नॉर्मल लगती हैं, इसकी प्रशंसा करूंगा। उसके बाद तो न पूछें।

ये अच्छा है
#
आयत के अब्बू बने एक्टर कमल चोपड़ा ने कश्मीरी शरणार्थी की आवाज और लाचारी को जैसे निभाया है वह बेहतरीन है। फिल्म के बाकी एक्टर उनसे ही बहुत कुछ सीख सकते हैं।
# फिल्म के पहले आधे घंटे में पंजाब को पंकज कपूर ने बहुत सच्ची खूबसूरती से फिल्माया है। मसलन ये बेहद नेचरल सीन है जहां हरिंदर स्कूटर पर आयत के अब्बू को लेकर आ रहा है और पीछे मोहल्ले की चाची लड़ रही है और उनकी आवाज पूरी गली में गूंज रही है।
# मनोज पाहवा की एक्टिंग। वो सीन जब आयत को कातर निगाहों से देखने के लिए अपनी साइकिल की चैन बनाने का नाटक करता हरिंदर है, सामने बैठे मनोज कहते हैं, 'आजकल तो इसकी चैन हमेशा ही उतरी रहती है।' चाय पीते हुए उनका वो लुक और अंदाज उनके वॉन्टेड वाले अंदाज से कितना अलग है।
# गांवों की गलियों को पंकज की नजर से देखना। मनोज पाहवा का किरदार पहले घोड़ागाड़ी चलाता था, अब रिक्शा ले लेता है। ऑरिजिनल फटा सा रिक्शा है। छट से फटा हुआ। गली से आयत और फूफी को सामान साथ जब दुपहरी में ऑटो में लेकर वह ऑटो गियर में डालकर चलते हैं और पीछे से धूल उड़ती है तो अपने गांव की हूबहू ऐसी ही गलियों की याद आ जाती है।
# गोधरा दंगों के दौरान दंगाइयों से हरिंदर/हैरी आयत को बचाता है तो वह पूछती है.. 'ये कौन है हैरी।' हैरी जवाब देता है, 'भयानक साये हैं आयत, इनके न चेहरे होते हैं न नाम।' ऐसे कुछ संवाद ज्यों ही आते हैं हम समझ जाते हैं कि पंकज कपूर की जबां बोल रही है। मसलन, कमल चोपड़ा के किरदार का एक सीन में ये कहना, 'बाकी तो सब लकड़ी पत्थर है। रख लेने दो उन्हें। इंसानों को उजाड़ रहे हैं, न जाने क्या जोड़ लेंगे।' जैसे शुरू में ये डायलॉग है। 'ये कार सेवा क्या है'... 'कुछ नहीं, ब्लू स्टार मरा नहीं कि अयोध्या पैदा हो गया।'

हमें ये संदर्भ गवारा नहीं
# एक सोल्जर वॉर टाइम में हर पल आखिर कैसे अपने खोए प्यार के बारे में सोचता रह सकता है। (वो भी एक ऐसा प्यार जो महाप्रेमनुमा है इसका एहसास फिल्म बिल्कुल नहीं करवा पाती है, बस ये फैक्ट निगलने के लिए हमारे आगे रख दिया जाता है) खासतौर पर तब जब वो फोन पर अपनी बहन से स्टाइलिश पैशनेट देशभक्ति के अंदाज में कुछ यूं कहता है, 'आई वोन्ट कम, अनटिल आई पुश देम (दुश्मन) बैक टु देयर ब्लडी होल्स।' बेहद फनी और नकली लगता है। क्या देशभक्ति महज इस सीन में ही है।
# मल्लूकोट के दिनों में जब एक सीन में शाहिद अपने चार दोस्तों को कार में बिठाकर ट्रेन से रेस लगाता है, फिर ट्रेन से पहले रेलवे स्टेशन क्रॉस कर लेता है, बाल-बाल बचते हुए, तो पलटकर जाती ट्रेन को देखता है। यहां यूं लगता है कि ये बंदा एयरफोर्स से अपने लैटर का इंतजार कर रहा है और कितना पैशनेट है आम्र्ड फोर्सेज में जाने को लेकर। मगर बाद में ये पैशन खत्म सा हो जाता है।
***************
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 25, 2011

ये स्पीडी संसार बेलिया

फिल्म: स्पीडी सिंग्स
निर्देशक: रॉबर्ट लीबरमैन
कास्ट: विनय विरमाणी, रसल पीटर्स, कैमिला बेल, अनुपम खेर, रॉब लो, सकीना जाफरी, गुरप्रीत घुग्गी
स्टार: तीन, 3.0

इंटरनेशनली 'ब्रेकअवे' के नाम से रिलीज हुई हमारी 'स्पीडी सिंग्स' एक संतोषजनक फिल्म है। बहुत नई और धांसू नहीं है पर निराश नहीं करती। आप एंजॉय करते हैं। फिल्म में रसल पीटर्स जैसे बेहद फेमस स्टैंड अप कॉमेडियन हैं, गुरप्रीत घुग्गी हैं और अनुपम खेर हैं पर सब जाया हैं। क्योंकि उनके इंग्लिश बोलते चेहरों के पीछे दूसरे लोगों के हिंदी वॉयसओवर फिट नहीं हो पाते। अब रसल पीटर्स को ही लीजिए। उन्हें हम पसंद ही उनके हिंदी डायलॉग्स, एक्सेंट और टाइमिंग की वजह से करते हैं। वॉयसओवर में सब दब जाता है। शेरां दी कौम पंजाबी... वीर जी वियोण चलेया... और ए साडा संसार बेलिया... जैसे गाने थियेटर में बैठे लोगों को खूब पंसद आते हैं। हल्की-फुल्की अच्छी एंटरटेनर हैं। ट्राई कर सकते हैं।

स्पीडी सिंग्स की कहानी
दरवेश सिंह (अनुपम खेर) टोरंटो में रहते हैं। वाहेगुरु और अपने बिजनेस को सबकुछ मानते हैं। बेटा राजवीर (विनय विरमाणी) आइस हॉकी खेलना चाहता है पर पिता क्रिकेट पसंद करते हैं (उनके मुताबिक क्रिकेट को इंडियन देखते हैं, आइस हॉकी को कौन जानता है)। वह चाहते हैं कि राजवीर अपने चाचा अंकल सैमी (गुरप्रीत घुग्गी) के ट्रक बिजनेस का वारिस बने। बाप-बेटे में यही अनबन है। अपने पैशन को पूरा करने के लिए राजवीर पूरी तरह से सिख दोस्तों की आइस हॉकी टीम भी बना लेता है और कोच डैन (रोब लोव) को भी मना लेता है। पर चुनौतियां तो बस शुरू हुई हैं।

कुछ कड़वा
# आइस हॉकी पर डायरेक्टर रॉबर्ट लीबरमैन ने 'द माइटी डक्स 3' भी बनाई थी और गेम के लिहाज से वो फिल्म उनकी 'स्पीडी सिंग्स' से बहुत बेहतर है।
# कैनेडा की पृष्ठभूमि में अक्षय कुमार की 'पटियाला हाउस' में भी खेल (क्रिकेट), बाप-बेटे के रिश्तों की अनबन, पराई धरती पर अपना अस्तित्व साबित करने की कोशिश और सिखों के मान की बात थी। यहां भी ये सब है। यहां खेल है आइस हॉकी का और ये फिल्म ज्यादा इमोशनल टेंशन नहीं देती।
# फिल्म के लीड एक्टर विनय की ही लिखी इस फिल्म में बहुत की हॉलीवुड फिल्मों का घालमेल है। हंसी-मजाक और पंजाबी म्यूजिक भी बिल्कुल नया नहीं है, पर दोबारा देख-सुनकर भी हम पकते नहीं हैं।
***************
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, September 21, 2011

तीस सेकंड की खरपतवार की खपत हम पर कैसे हो

बहुत भोली और मासूम लगने वाली एड फिल्में सिर्फ तीस सेकंड में हमारे अगले तीस सालों पर असर छोड़ जाती हैं। अच्छा भी और बुरा भी। इन दिनों इसके बुरे उदाहरण ज्यादा रहे हैं। कुछ हफ्ते पहले ही ब्रिटेन की विज्ञापनों के स्टैंडर्ड पर नजर रखने वाली एजेंसी ने कॉस्मेटिक्स कंपनी 'लॉरिएल' के लेटेस्ट एड पर रोक लगा दी। वजह ये थी कि इसमें हॉलीवुड एक्ट्रेस जूलिया रॉबट्र्स और क्रिस्टी टर्लिंगटन के चेहरों को फोटोशॉप सॉफ्टवेयर के जरिए डिजीटली ज्यादा सुंदर बनाया गया था, जितना इस क्रीम के इस्तेमाल से नहीं होता। ये अनैतिक भी था और प्राकृतिक ब्यूटी के खिलाफ भी। लॉरिएल ऐश्वर्या रॉय को लेकर जो इंडियन वर्जन बनाती है, उसमें भी फोटोशॉप के जरिए एक्ट्रीम गोरापन और झीनी स्किन दिखाई जाती है। वहीं शाहरुख का 'मर्दों वाली क्रीम लगाते हो' एड तो बेहूदगी की इंतहा है।

आपका ये जानना जरूरी है कि इन विज्ञापनों को बनाने वाले आपकी आलोचना से परे नहीं होते। एड और पीआर का कोर्स पढ़कर फील्ड में आने वाले यंगस्टर कुछ भी कैची और शॉकिंग बनाने लगते हैं। टेलीकॉम कंपनी यूनीनोर का बीते दिनों टीवी पर दिन में दर्जनों बार आने वाला एड लीजिए। 'लव सेक्स और धोखा' और 'शैतान' जैसी हालिया फिल्मों में दिखे एक्टर राजकुमार यादव के पैर पर प्लास्टर बंधा है और वह अपनी गर्लफ्रेंड और उसकी दूसरी दोस्त को फोन पर झूठ बता रहा है कि बच्चों की पतंग उतारते हुए चालीस फुट नीचे गिर गया और लग गई। जब उसका दोस्त कहता है, क्यों फोन का बिल बढ़ा रहा है तो राम कुमार कहता है, 'अबे दो पैसे में दो पट रही हैं, क्या प्रॉब्लम है।' यहां से टेलीकॉम कंपनी का नाम हमें याद हो जाता है, एड बनाने वाले का भी प्रमोशन पक्का हो जाता है, पर दो पैसे में दो पटाने का संवाद कितना ओछा और घटिया है, ये हम ज्यादा सोचते नहीं हैं। ऐसा ही एड है टाटा नैनो का। कार में पत्नी कुछ गुनगुनाने लगती है तो पति कहता है, 'इतने साल स्कूटर की तेज हवा मुझसे कुछ चुरा रही थी'.. जब वह पूछती है क्या, तो जवाब होता है, 'तुम्हारी आवाज' उद्देश्य क्या है? सिर्फ इतना कि स्कूटर वालों, स्कूटर फैंको और कार ले लो। मतलब नैनो की सेल्स बढ़ाने के लिए स्कूटर को आउटडेटेड या व्यर्थ बताने का अप्रत्यक्ष संदेश। क्या ये एड एक नैनो को बनने में खर्च होने वाले देश के हजारों लीटर पानी की बात करता है। करोड़ों नैनो खरीदने पर पार्किंग और सड़कों पर ट्रैफिक की समस्या होगी उसका क्या? स्कूटर वाला उसी पर रहना चाहता है। वह संतोषी जीव है, आप उसे जबरदस्ती महत्वाकांक्षी क्यों बनाना चाहते हैं। संसार में सबकी जरूरत के लिए तो पर्याप्त है, लालच के लिए नहीं।


'कौन बनेगा करोड़पति' के इस सीजन में अमिताभ बच्चन ने वापसी की है। इस बार फिल्म माध्यम के इमोशनल टूल्स का इस्तेमाल करते हुए गरीबी और मध्यम वर्ग की लाचारी को भुनाते हुए एड बनाए गए हैं। यहां इस एड में एक युवती बुझे चेहरे और लाचारगी के साथ कैमरे में बोलती है, 'मैं अपनी मां के लिए घर बनाना चाहती हूं। (अब भयंकर विवशता का एहसास करवाते हुए कहती है)...हमारा घर बहुत छोटा है।' सुनकर दिल कांप जाता है। पर क्या 'गजब राखी की अजब कहानी' की कमर्शियल नौटंकी से आगे भी 'कौन बनेगा करोड़पति' बढ़ पाएगा।


हालिया 'रॉयल एनफील्ड: हैंडक्राफ्टेड इन चेन्नई' विज्ञापन, शानदार सिनेमैटिक स्टोरीटेलिंग और फोटोग्रफी का उदाहरण है। सुबह घर से एनफील्ड के प्लांट में जाने को निकलता पति, बाल बांधती वाइफ, घर में बैठी बूढ़ी मां, दरवाजे से झरकर आती सूरज की किरणें, भागकर पिता को टिफिन पकड़ाती और गाल पर पाई देती बिटिया, चेन्नई की सड़कों के रंग समेटता अपनी एनफील्ड पर चलता व व्यक्तिआसपास धार्मिक नाच भी हो रहे हैं और रजनीकांत की फिल्म 'रोबॉट' के पोस्टर भी लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे आप थियेटर में फिल्म देख रहे हैं। ये मिसाल है कि एड फिल्में सिनेमैटिकली भी फीचर फिल्मों जैसी होती हैं।


मैं आज की इन एड फिल्मों में नुक्स इसलिए निकाल पा रहा हूं क्योंकि हमारे पास सोशल एडवर्टीजमेंट के सुंदर प्रयास मौजूद हैं। उनमें फोटोग्रफी, डायरेक्शन, लिरिक्स, कॉपी और कहानी को किसी फिल्म सी तवज्जो दी गई है। सार्थकता के भाव के साथ हमारे दिलों को पवित्र कर जाने वाली एक ऐसी ही एड थी राष्ट्रीय साक्षरता अभियान की जो दूरदर्शन पर आती थी।
इसके बोल थे, पूरब से सूर्य उगा, ढला अंधियारा, जागी हर दिशा दिशा, जागा जग सारा...।

गजेंद्र सिंह भाटी
**************
साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से

Monday, September 19, 2011

एस-ई-एक्स और मजेदार मूर्ख प्यार

फिल्म: क्रेजी स्टूपिड लव (अंग्रेजी)
निर्देशक: ग्लेन फिकारा और जॉन रेक्वा
कास्ट: स्टीव कैरल, रायन गोज्लिंग, जूलिएन मूर, एमा स्टोन, मैरिसा टोमइ, केविन बैकन, जोनाह बोबो, एनेलेई टिपटन
स्टार: तीन, 3.0

'क्रेजी स्टूपिड लव' के रूप में बहुत दिन बाद कोई ऐसी स्क्रिप्ट आई है जो बेहद हल्की-फुल्की और ठंडी हवा के झौंके जैसी है। फिल्मों को हर एक सेकंड एंटरटेन करना चाहिए, इस विचार के उलट भी कुछ दर्शक होते हैं और उन्हीं दर्शकों के लिए है ये मूवी। समझने में बड़ी आसान, बिना कोई फिल्ममेकिंग की टेक्निकल टेंशन देते हुए आसान से आसान रूप में आगे बढ़ती हुई। बेहद कम्युनिकेटिव। मैरिड कपल्स जरूर देखें, क्योंकि विषय प्यार है और अमेरिकन फिल्मों का प्यार तो आपको पता ही है कितना ओपन होता है। स्टीव कैरल बेहद एफर्टलेस एक्टर हैं। 'ब्रूस ऑलमाइटी' में न्यूज एंकर के छोटे से मजाकिया रोल में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी थी। तब से वो ऐसे एक्टर हो गए हैं जिनसे उम्मीदें नहीं बांधनी पड़ती है। हालांकि स्टूपिड लव की इस कहानी में कुछ समाधान अमेरिकी कैपिटलिज्म वाले हैं, पर उनपर अलग बात हो सकती है। रायन गोज्लिंग भी एफर्टलेस हैं। जैसे उनके लुक्स हैं वैसी ही उनकी एक्टिंग भी है। धारदार। बेहद प्रभावी। कुछ ऐसी ही अलग मूड वाली धारधार एक्टिंग उनकी आने वाली फिल्म 'ड्राइव' में भी नजर आएगी, जिसमें वो 'ट्रांसपोर्टर' फिल्मों के जैसन स्टैथम अंदाज वाले ड्राइवर बने हैं। जूलियेन मूर अपने रोल के प्रति ईमानदार रहती हैं। उनका रोल जिस जरूरत वाला था वो उन्होंने पूरी की है। फिल्म में सबसे फनी पार्ट है कैल का बेटा बने रॉबी, जो पूरी फिल्म में अपनी प्यार जैसिका को पाने के लिए कोशिशें करते रहते हैं, साथ ही अपने पिता को भी प्रेरणा देते रहते हैं।

स्टूपिड प्यार यूं होता है
फिल्म के पहले सीन में ही कैल वीवर (स्टीव कैरल) को उसकी वाइफ एमिली (जूलियेन मूर) ये कहकर चौंका देती है कि वह तलाक चाहती है, क्योंकि वह अपने कलीग डेविड लिंडहेगन (केविन बैकन) के करीब आ चुकी है। अपनी आधी उम्र में पहुंच चुका कैल समझ नहीं पाता कि क्या कहे। कैल का 13 साल का बेटा रॉबी (जोना बोबो) खुद की और अपनी बहन की 17 साल की बेबीसिटर जैसिका राइली (एनेली टिपटन) से प्यार करता है, जबकि जैसिका कैल के प्रति आकर्षित है। जिंदगी की इस नई उलझन के बीच कैल को एक बार में जैकब पामर (रायन गोज्लिंग) मिलता है, जो उसे स्टाइल और शरीर में फिट बनाता है और दूसरी औरतों के साथ डेट पर जाकर अपने कॉन्फिडेंस को बढ़ाने के तरीके सिखाता है। पर प्यार में मूर्खताओं की इस कहानी में चार-पांच कहानियां चलने लगती हैं और इससे दो घंटे फनी बन पड़ते हैं।

मसलन डायलॉग
एक सीन में कैल के पड़ोसी बर्नी (जॉन कैरल लिंच) की वाइफ कैल के चरित्र के बारे में कोई एडल्ट बात कह रही होती है, तो अपने बच्चों के सामने ऐसे नहीं बोलने की बात कहते हुए बर्नी बोलता है, 'आई डोन्ट लाइक दिस एस-ई-एक्स टॉक इन फ्रंट ऑफ द के-आई-डी-एस।' ये बड़े गुदगुदाने वाले तरीके से होता है। मुझे ये डायलॉग सबसे फनी और खास इसलिए लगा क्योंकि आम अमेरिकी मूवीज की तरह ढर्रे वाले बुरे शब्द यहां यूज नहीं होते और पूरा फन भी कायम रहता है।

***************
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 18, 2011

कैप्टन अमेरिका दौड़ेगा नहीं पर चलेगा, जरूर चलेगा

फिल्म: कैप्टन अमेरिका - द फस्र्ट अवेंजर (अंग्रेजी)
निर्देशक: जो जॉनस्टन
कास्ट: क्रिस इवान्स, हैली एटवेल, ह्यूगो वीविंग, टॉमी ली जोन्स, सबैश्चियन स्टैन, डॉमिनिक कूपर, नील मेकडॉनफ, डेरेक ल्यूक, स्टैनली टुकी
स्टार: ढाई, 2.5
बहुत सारी खूबियों के बावजूद मैं 'कैप्टन अमेरिका: द फस्र्ट अवेंजर' को औसत फिल्म मानूंगा। दुख की बात है। जब स्टीव रॉजर्स ट्रीटमेंट के बाद सुपर सोल्जर बन जाता है और उसी सीन में नाजी एजेंट के पीछे न्यू यॉर्क की सड़कों पर नंगे पांव दौड़ता है, तो बस यहीं तक फिल्म बहुत ही इंट्रेस्टिंग लगती है। उसके बाद स्क्रिप्ट से इमोशन गायब हो जाते हैं, विलेन का कैरेक्टर स्पष्ट नहीं हो पाता, कहानी में घुमाव नहीं आते, न दर्शकों और लोगों में डर का माहौल बनता है और न सुपरहीरो के आने पर तालियां बजती हैं। अब यहां कैप्टन अमेरिका के गैर-मशीनी स्टंट आगे भी जारी रहते तो फिल्म अद्भुत हो सकती थी, पर ऐसा होता नहीं। आप 2003 में आई 'रनडाउन/वेलकम टू द जंगल' में ड्वेन जॉनसन (द रॉक) को देखिए। जंगल में उनके इंसानी स्टंट कमाल के हैं। वो एक सुपर हीरो फील देते हैं, यहां कैप्टन नहीं दे पाते। फिर भी एक अलग सुपरहीरो टेस्ट के लिए ये फिल्म जरूर एंजॉय कर सकते हैं।

मिलें कैप्टन अमेरिका से
आर्कटिक की बर्फ में 2011 में वैज्ञानिकों को अमेरिकी झंडे में लिपटी गोल ढाल जैसी चीज मिलती है। बता दूं कि ये सुपरहीरो 'कैप्टन अमेरिका' की ढाल है। अब कहानी 1942 में पहुंचती है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाजी अफसर जोहान (ह्यूगो वीविंग) नॉरवे से कोई रहस्यमयी शक्तियों वाला क्रिस्टल चुराता है और अपनी विशेष सेना और ताकत बनाने लगता है। वहीं न्यू यॉर्क में कम कद का दुबला-पतला कमजोर स्टीव रॉजर्स (क्रिस इवॉन्स) सेना की भर्ती में लिया नहीं जाता। पर उसके भीतर छिपे अच्छे इंसान को डॉ. अब्राहम (स्टैनली टुकी) पहचानते हैं और उसे 'सुपर सोल्जर' बना देते हैं। बहुत सी सतहों से होते हुए स्टीव का मुकाबला जोहान से होता है।

कहां क्या लगता है...
# 'द क्यूरियस केस ऑफ बेंजामिन बटन' में बूढ़े पैदा हुए ब्रेड पिट को दिखाने के लिए जो तकनीक बरती गई, वही यहां क्रिस इवॉन्स पर अपनाई जाती है। एक सेकंड भी ऐसा नहीं लगता कि ये दुबला-पतला स्टीव असल में छह फुट से ज्यादा का छरहरा हीरो हो जाएगा।
# समझ नहीं आता कि हर बार एक औसत अमेरिकी को सुपर बनने के लिए कोई डायमंड, क्रिस्टल या कुछ और ही क्यों चाहिए होता है? क्या इंसानी ताकत काफी नहीं। हर बार इस देश के दुश्मन रूसी, जापानी, जर्मन, मुस्लिम और चीनी ही क्यों होते हैं?
# स्टीव का कांधे पर अमेरिकी फ्लैग वाली ढाल लटकाए नाजी आर्मी कैंप में इधर-ऊधर भागना अखरता है।
# सुपरहीरो बनने के बाद स्टीव को रंगीन ड्रेस पहनाकर देश की जनता के सामने प्रोपगेंडा करवाया जा रहा है, वह उदास है। तभी एक बुद्धिभरा सांकेतिक सीन आता है। वह बारिश में बैठा एक चित्र बना रहा है, जिसमें उसकी जगह एक बंदर सुपरहीरो की ड्रेस में छाता लेकर नाच रहा है।

***************
गजेंद्र सिंह भाटी