Thursday, August 6, 2015

मानो मत, जानोः “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” ...परस्पर

“Do not believe, Know!” …is a series about relevant documentary films and filmmakers around the world who’ve devoted their lives to capture the most real, enlightening, shocking, just and humane stories. They’ll change the way you think and see everything. Watch & read them here. 

 Documentary. .Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair (2012), directed by Ajay Bhardwaj.

“धर्मशाला धाड़बी रैंदे, ठाकर द्वारे ठग्ग
विच मसीतां रहण कुसत्ती, आशक रहण अलग्ग”
- मछंदर खान मिसकीन, फिल्म में बुल्ले शाह की काफी उद्धरित करते हैं
अर्थ हैः धर्मशालाओं में धड़वाई (व्यापारी) और ठाकुरद्वारों में लुटेरे बस गए हैं। मस्जिदों में वे रहते हैं जो वहां रहने के योग्य नहीं। आशिक (ईश्वर से प्रेम करने वाले) तो इन सबसे अलग रहते हैं।

पंजाब का सांझा विरसा और उस विरसे की बहुत परिष्कृत मानवीय-धार्मिक समझ अजय भारद्वाज की डॉक्युमेंट्री “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” में नजर आती है। ये फिल्म उनकी “पंजाब त्रयी” सीरीज में तीसरी है। मौजूदा मीडिया और पॉप-कल्चर ने एक सभ्यता के तौर पर हमें जो सिखाना जारी रखा है उससे हमें सुख और सच्ची समझ की प्राप्ति नहीं हो सकती। ये फिल्म भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद दोफाड़ पंजाब में मजबूती से बचे अलग-अलग धर्मों, वर्गों के लोगों में प्रेम, स्नेह और सह-अस्तित्व के निशान तो दिखाती ही है, दर्शन के स्तर पर भी बहुत समृद्ध और सार्थक करके जाती है। शायद ये समझने के लिए “मिलांगे...” हमें पांच-छह बार देखनी पड़े।

A still from "Milange..."
हम इस डॉक्युमेंट्री के पात्रों की बातों और समझ को देख हैरान होते हैं। वे ईश्वर को माही कहते हैं। वे अंतरिक्ष, आकाशगंगा और साइंस पढ़कर घमंडी नहीं हो गए हैं। वे पूरी विनम्रता से आश्चर्य करते हैं कि उस इलाही की महिमा का पार नहीं जो पानी पर धरती को तैराए रखता है। कि कैसे गर्म, धूल भरी हवाएं लहरा रही होती हैं और न जाने पल में कहां से काले बादल आ जाते हैं। इन पात्रों के विचार फकीरी वाले हैं। इनकी धर्म की व्याख्या बेहद आधुनिक, बेहद मानवीय है। ऐसी फिलॉसफी आधुनिक पाश्चात्य नगरीय सभ्यता शायद कभी नहीं पा सकेगी।

पिछली दो फिल्मों (कित्ते मिल वे माही, रब्बा हुण की करिये) की तरह इसमें भी उस पंजाब को तस्वीरों से सहेजा गया है जो भविष्य में न होगा। ईंटों के सुहावने घर, गोबर लीपे आंगन व दीवारें, गलियों में बैठे कुत्ते, टूटे पेड़ की शाख पर बैठे कौवे, खुली नालियां, स्कूल की ड्रेस में जाते भोले-प्यारे बच्चे। मज़ार के बाहर झाड़ू से सीमेंट की चौकी बुहारी-धोई जा रही है। शांति है। सुकून है। पैसा गौण है, प्रेम प्राथमिक है। धर्म सब स्वीकार्य हैं। ऊपर वाले को लेकर कोई लड़ाई, दंगा, फसाद नहीं है। ये हिंदु भगवान को भी मानते हैं, अल्ला को भी, वाहे गुरु को भी। 2015 के भारत में आप धर्म को लेकर जो बपौती की हेकड़ी पाएंगे, जो वैमनस्य की बू पाएंगे, दंगों का भय पाएंगे, दुनिया में हो रहा क़त्ल-ए-आम पाएंगे.. वो इस पंजाब में नहीं पाएंगे। वो पंजाब जो मुख्यधारा की कवरेज से दूर है। वो पंजाब जिसे बंटवारा भौगोलिक रूप से ही बांट पाया।

अजय इसी पंजाब को ढूंढ़ रहे हैं। उनके हर फ्रेम में जाते हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है। यहां धर्म की विवेचना अलग है और देश में अभी के माहौल में धर्म की परिभाषा अलग रची जा रही है। इस परिभाषा से लगता है कि कैसे हमें संकीर्ण सोच वाले दड़बों में हमारे बड़ों, हमारी जाति-धर्म वालों ने घेर रखा है। हम हिंदु हैं तो अन्य हिंदुओं से चिपक रहे हैं, हम मुस्लिम हैं तो रूढ़ि की अलग ही बेड़ी में बंधे हैं। अगर कहें कि ऐसा लग रहा है हम कई सौ साल पहले के युग में पहुंच गए हैं और आक्रांताओं का हमला होने वाला है। या ख़लीफायत स्थापित करने का वक्त आ गया है। तो धर्म की रक्षा को हिंदु और आक्रामक हो गए हैं। ये कितना हास्यास्पद है।

राजकुमार हीरानी की दिसंबर में प्रदर्शित फिल्म ‘पीके’ इसका सटीक जवाब देती है। जब स्टूडियो में पीके-तपस्वी संवाद होता है तो छद्म धर्मगुरू तपस्वी धमकाने वाले अंदाज में कहते हैं, “आप हमारे भगवान को हाथ लगाएंगे और हम चुपचाप बैठे रहेंगे? बेटा.. हमें अपने भगवान की रक्षा करना आता है!” जवाब में पीके कहता है, “तुम करेगा रक्षा भगवान का? तुम! अरे इत्ता सा है इ गोला। इससे बड़ा-बड़ा लाखों-करोड़ों गोला घूम रहा है इ अंतरिक्ष मा। और तुम इ छोटा सा गोला का, छोटा सा सहर का, छोटा सा गली में बैठकर बोलता है कि उ की रक्षा करेगा.. जौन इ सारा जहान बनाया? उ को तोहार रक्षा की जरूरत नाही। वो अपनी रक्षा खुदेही कर सकता है”। ये जवाब उन सबको भी है जो खुद को भगवान का संरक्षक या सैनिक मान लेते हैं। जैसे हाल ही में “जय भीम कॉमरेड” और “मुजफ्फरनगर बाकी है” जैसी फिल्मों का प्रदर्शन रोकने वाले। ये खेदजनक है कि अपने भीषण अज्ञान को उन्होंने सर्वोच्च ज्ञान और सार्वभौमिक सत्य मान लिया है जो उनमें उनके पूर्वाग्रहों से है, जो उनमें उनके घर के बड़ों, जातिगत समाजों द्वारा रोप दिया गया है। ये तत्व पशुवत हैं जिनमें सिर्फ अज्ञान और अहंकार है। क्या अहंकार से ईश्वर मिलता है? एक-दूसरे धर्मों से असुरक्षित महसूस करवाए जाने वाले लोग “मिलांगे..” में मछंदर खान को सुनें। वे गुनगुना रहे हैं.. “बालक पुकारते हैं बंसी बजाने वाले। कलजुग में भी खबर लो द्वापर में आने वाले”। सुनकर आप सुन्न हो जाते हैं।

हर पहचान (identity) को अपने में समाहित करने वाले इस धर्म की विवेचना और सूफीयत के अलावा फिल्म बंटवारे के बाद पंजाब में बची सांझी विरासत की मजबूती को भी पुष्ट करती चलती है जो इस “पंजाब त्रयी” की पिछली दो फिल्में भी कर चुकी हैं। शीर्षक में जिन बाबा रतन का जिक्र है वो बाबा हाजी रतन हैं जिनकी दरगाह भटिंडा में स्थित है। उन्हें भारतीय उप-महाद्वीप के अलावा इस्लामी दुनिया में भी श्रद्धा की नजर से देखा जाता है। माना जाता है कि वे पैगंबर मोहम्मद से मिले थे। लेकिन इस अपुष्ट तथ्य से ज्यादा जरूरी बात ये है कि कैसे उन जैसे चरित्र अलग-अलग धर्मों और वर्गों के लोगों द्वारा समान रूप से पूजे जाते हैं। इन सूफी चरित्रों के मेले अनेक वर्षों से पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में लगते रहे जो सब लोगों को करीब लाए। जैसे बाबा हाजी रतन का मेला 1947 के बहुत पहले से लगता था। दूर-दूर से लोग वहां आते थे। ये पंजाब का काफी बड़ा मेला था। फिर छापर का, बाबा मोहकम शाह जगरांव वाले का , नोहरभादरा में गोगामेड़ी का और सरहिंद का जोर मेला भी हैं।

पिछली डॉक्युमेंट्री के दयालु पात्र प्रो. करम सिंह चौहान की लिखी पुस्तक ‘बठिंडा’ से हम इन मेलों और विरसे को नजदीक से जानते है। वे बाबा रतन मेले के बारे में लिखते हैं, “यहां मुस्लिम सूफी संत आते थे, कव्वालियां गाते थे, गजब मेला लगता था। बुल्ले शाह, शाह हुसैन और अन्य गाए जाते थे। इस दौरान खास याद आती है बाबू रजब अली की गायकी। विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। 35 साल वहां रहने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। वे वहां रह-रहकर अपनी जन्मभूमि के लिए आंसू बहाते रहे। भठिंडा की धरती पर बाबू रजब अली शाह अली गाते थे, दहूद गाते थे वहीं साथ ही साथ गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों के बलिदानों की कहानी गाकर श्रोताओं की आंखों में पानी ले आते थे”। इस बीच मछंदर कहते हैं कि हालांकि वो मुस्लिम थे फिर भी साहिबजादों की कहानी ऐसे गाते थे कि कोई गा नहीं सकता। वे सूफी फकीर थे और उनका कोई धर्म नहीं होता। रजब अली, महाभारत के किस्से गाते थे, भीम-कृष्ण सब को गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन ओलिया जैसे मुस्लिम धर्म के मेलों में बाबा रतन का मेला चौथा सबसे बड़ा था और यहां हर धर्म के लोग आते थे।

छापर में गुग्गा मढ़ी (जिसे हम राजस्थान में गोगामेड़ी कहते हैं) की दरगाह में बने भित्तीचित्रों से तब के माहौल और व्यापक सोच की झलक मिलती है। इनमें सोहणी है जो दरिया पार कर रही है महिवाल से मिलने के लिए। मिर्जा पेड़ की छांव में सो रहा है और साहिबा उसके पास बैठी है। उधर साहिबा के भाई पीछा कर रहे हैं। पुन्नू ऊंट पर जा रहा है, पीछे सस्सी बैठी है। पंजाब के नामी पहलवान किक्कर सिंह और गुलाम लड़ रहे हैं। छापर के बेहद मशहूर गायक डोगर और उसके साजी हैं जिनके पीछे गांव का जमींदार रूरिया सिंह बैठकर सुन रहा है। मेले में आए लोगों के लिए निहंग कुएं से पानी सींच रहे हैं।

इस दुनिया के पात्रों का दर्शन (philosophy) बहुत ही सुखद है।

मछंदर कहते हैं, “अल्लाह किसी को मिला है तो बरास्ता (via) ही मिला है। हीर ने रब को पाया तो रांझे के रास्ते पाया। ससी ने पाया तो पु्न्नू के रास्ते पाया। मजनू ने पाया तो लैला के रास्ते”। वे मजनू का किस्सा सुनाते हैं। एक बार अल्ला का प्रतिनिधि उससे मिला। उसने कहा अल्ला ने याद फरमाया है। फकीर मजनू बोला कि मुझे तो अल्लाह से मिलने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर अल्लाह को मुझसे मिलना है तो मैं क्यों जाऊं वो खुद आए। और हां, जहां भी वो है, वो कभी मेरे सामने न आ जाए। अगर मुझसे चार बातें ही करनी हैं तो लैला बनके आ जाए।

क्या प्रेम की ये पराकाष्ठा इस और उस दोनों जन्मों को सफल नहीं कर देती?

एक बेहद अज्ञानी और गैर-स्मार्ट लगने वाला पात्र कहता है, “नमाज पढ़ लो या गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ लो, बात एक ही है.. बस उस मालिक के आगे सुनवाई होनी चाहिए। सब बोलियां उसी की बनाई हुई हैं। वो सब बोलियां जानता है। हम नहीं जानते”।

(यहां ajayunmukt@gmail.com संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी मंगवा सकते हैं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair” - Watch an extended trailer here:


On the eve of the British leaving the subcontinent in 1947, Punjab was partitioned along religious lines. Thus was created a Muslim majority state of Punjab (west) in Pakistan and a Hindu /Sikh majority state of Punjab (east) in India. For the people of Punjab, it created a paradoxical situation they had never experienced before: the self became the Other. The universe of a shared way of life – Punjabiyat — was marginalised. It was replaced by perceptions of contending identities through the two nation states. For most of us this has been the narrative of Punjab– once known as the land of five waters, now a cultural region spanning the border between Pakistan and India.

However, the idea of Punjabiyat has not been totally erased. In ways seen and unseen, it continues to inhabit the universe of the average Punjabi’s everyday life, language, culture, memories and consciousness. This is the universe that the film stumbles upon in the countryside of east Punjab, in India. Following the patters of lived life, it moves fluidly and eclectically across time, mapping organic cultural continuities at the local levels. It is a universe which reaffirms the fact that cultures cannot be erased so very easily. This is a universe marked by a rich tradition of cultural co-existence and exchange, where the boundaries between the apparently monolithic religious identities of ‘Hindu’, ‘Muslim’ and ‘Sikh’ are blurred and subverted in the most imaginative ways.

Moreover, one finds in this universe, mythologies from the past sanctifying such transgressions and reproducing themselves in the present; iconographies of Hindu gods and Sikh gurus share space with lovers, singers and wrestlers, creating a rich convergence of the sacred, the profane, and the subversive. Nothing represents this more than the Qissa Heer, a love balled exemplifying a unique Punjabi spirituality identified with love, whose multiple manifestations richly texture this landscape. Yet, there are absences to deal with. Strewn across this cultural terrain are haunting memories which have become second skin —of violence of 1947; of separation from one’s land; of childhood friends lost forever; of anonymous graves that lie abandoned in village fields. Accompanying this caravan of seekers and lovers are the ascetic non believers in whom a yearning for love and harmony turns into poetry against war and aggression. Such is the land of Punjab where miracles never cease to capture the imagination.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Thursday, May 21, 2015

कुछ नहीं है, सब औसत काम कर रहे हैं.. जिसको जो समझ में आ रहा है, कर रहा है.. बस ; मुझे नहीं लगता एक भी शख्स ऐसा है जो पेज टर्निंग काम कर रहा है: हिमांशु शर्मा


 Q & A. .Himanshu Sharma, Writer of – Tanu Weds Manu, TWM Returns, Ranjhanaa.
 
Kangana Ranaut, in a still from Tanu Weds Manu Returns.
‘क्वीन’ के बाद कंगना रणौत को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। उन्हें शीर्ष कलाकारों ने निजी तौर पर बधाई दी। अपनी कतार में आने का आभास दिया। लेकिन ‘तनु वेड्स मनु’ न होती तो ‘क्वीन’ भी न होती और कंगना को सकारात्मक छवि नहीं मिलती। एक बाग़ी, खिलंदड़, वर्जित कार्य करने वाले ऐसी नायिका पहले यूं न दिखी। बदल रहे वक्त में हिमांशु शर्मा ने तनु का पात्र सही टाइमिंग से लिखा। हालांकि फिल्म के अंत को लेकर आपत्तियां हैं लेकिन शुरुआत के लिए ही सही फिल्म उपलब्धि थी। बहुत समय बाद लोकगीतों वाली मिठास “तब मन्नू भय्या का करिहैं” गाने में चखी गई। कानपुर या अन्य उत्तर भारतीय शहरों के मध्यम वर्गीय लोगों और उनके संतोषों का चित्रण भी मौलिक तरीके से पेश हुआ।

बाद में निर्देशक आनंद राय के साथ हिमांशु की लेखनी ‘रांझणा’ लेकर आई। बनारस और दिल्ली स्थित देसी पात्रों की कहानी। अब ‘तनु वेड्स मनु’ रिटर्न्स ला रहे हैं। शुक्रवार 22 मई को रिलीज से पहले हिमांशु से बात हुई। वे मृदुभाषी, खुले, विनम्र, आत्म-विश्वासी और चतुर हैं। वे लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में कॉलेज की पढ़ाई कर चुके हैं। ‘टशन’ में उन्होंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर सीमित काम किया। फिर फिल्म लेखन की ओर मुड़ गए। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ के बाद वे आनंद के साथ एक अन्य फिल्म पर काम करेंगे। वे बतौर निर्देशक भी एक फिल्म बनाएंगे। ये भी लखनऊ में ही स्थित होगी। स्क्रिप्ट लिख रहे हैं। आने वाले पांच-छह वर्षों के लिए उनके जेहन में कुछ कहानियां हैं।

उनसे बातचीत:

संक्षेप में या विस्तार से अपनी अब तक की जर्नी को कैसे देखते हैं?
मुझे लगता है अभी मैंने जीवन में उतना काम किया नहीं है। कि मुड़कर देखूं और सोचूं कि जर्नी कैसी रही है। मेरे पास बहुत बॉडी ऑफ वर्क नहीं है। किसी एक लेवल पर निरंतरता के साथ अच्छा काम करने के लिए आपको कुछ और फिल्में चाहिए होती हैं। जितने भी बड़े राइटर्स हैं उनका एक बॉडी ऑफ वर्क रहा है। मुझे नहीं पता कि अभी मेरी जर्नी को जर्नी कहा भी जाना चाहिए या नहीं। ये महज तीसरी फिल्म है मेरी जो मैंने लिखी है। ये जरूर कहूंगा कि पहली फिल्म में भी वही लिखा जो मुझे ठीक लगा कि हां ये मजा दे रहा है, या ये मुझे उदास कर रहा है, या ये मुझे हंसा रहा है। मुझे हंसा रही है तो कहानी सबको हंसाएगी, उसी उम्मीद के साथ मैंने कोई भी अपना काम किया है। तो ‘रांझणा’ और ‘तनु मनु-1’ तक तो ठीक ही लग रहा है मामला। अब बाकी इसमें देखते हैं कितना पसंद आता है सबको।

आपकी पहली फिल्म थी ‘स्ट्रेंजर्स’, उसका एक डायलॉग है (जिमी शेरगिल का किरदार बोलता है), “मुझे लगता है कि लिखने में और शिट करने में कोई खास फर्क नहीं होता। ये एक ही चीज है। जो आपको परेशान कर रहा है वो सब आप निकाल देते हो। ये भी राइटिंग के साथ है”..
(हंसते हुए) दरअसल वो कॉन्सेप्ट मेरा था लेकिन उसे लिखा मेरे एक दोस्त हैं गौरव सिन्हा उन्होंने था। स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स पूरे उनके थे। लेकिन, हां वो बड़ी अजीब लाइन है..

मैं इस संदर्भ में पूछ रहा था कि ‘तनु वेड्स मनु’ लिखने से पहले क्या कुछ परेशान कर रहा था या सिर्फ लोगों का मनोरंजन करना था?
कोई ऐसी नीड नहीं थी। पढ़ रहा था दिल्ली में। यहां काम ढूंढ़ रहा था। असिस्टेंट डायरेक्टर बना। वाहियात किस्म का असिस्टेंट डायरेक्टर था मैं। बहुत ही बुरा। मैंने ‘टशन’ में असिस्ट किया विजय कृष्ण आचार्य जी को। उस दौरान मुझे लगा कि भई ये काम तो नहीं हो सकता। अगर मुझे फिल्म डायरेक्ट करनी हो और मुझे ऐसा एडी (असिस्टेंट डायरेक्टर) मिले तो मैं तो गोली मार देता। मैं बहुत ही बुरा था। मेरे पास और कोई चॉइस नहीं थी। लिखने का मन था तो उसके बाद लगा कि भई एडीगिरी तो नहीं हो सकती। तो लिखना शुरू किया फिर ‘तनु वेड्स मनु’ लिखी। ठीक रहा उसका हिसाब-किताब। तो ‘रांझणा’ लिखी फिर। ऐसा कुछ नहीं था कि उथल पुथल चल रही है कहानी कहने की या कुछ बात बोलने की। ऐसा नहीं है। वो बड़ा मजबूरी का काम था। कि भईया ये काम नहीं हो सकता, ये काम कर लो। हां, ‘राझंणा’ के वक्त... मैं ये जरूर कहूंगा कि ‘तनु-मनु’ लिखने के बाद मैं जिस जगह खुद को, अपने दिमाग को, मन को पा रहा था वहां मैं कुछ ऐसा अटेंप्ट करना चाहता था जो इमोशन और ड्रामा के लिहाज से बहुत ओवरवेल्मिंग (भावुक, जोरदार) हो। तो वो कहानी बहुत दिल से निकली। क्योंकि सब कह रहे थे कि ‘तनु मनु’ चल गई है तो तुम्हे ‘टू’ (सीक्वल) लिखनी चाहिए। या कुछ इस जॉनर (श्रेणी) का लिखना चाहिए। लेकिन मैं ‘रांझणा’ लिखना चाहता था और वो बहुत इमोशनल नीड थी मेरी। वो कहानी आजमाने की। ‘तनु मनु’ लिखते वक्त मैं सिर्फ असिस्टेंट डायरेक्शन से भागना चाहता था।

तनु का किरदार आपने क्यों रचा? क्योंकि जैसे सिंगल स्क्रीन के आधारभूत दर्शक को तब देखा, वो एक बार के लिए चकरा गया कि ये लड़की कर क्या रही है? इस लड़के से इतना बुरा सलूक क्यों कर रही है? और हम इतनी बिगड़ी हीरोइन वाली फिल्म क्यों देख रहे हैं? इससे पहले हीरोइन उन्होंने ऐसी देखी थी मसलन, दक्षिण की तकरीबन सभी फिल्मों की जो अपनी मूर्खता और नाज़-नखरे से हीरो को रिझाती रहती है और दर्शक भी खुश होता है। वो भी ये समझता है कि मैं राजकुमार हूं और ये मुझे एंटरटेनमेंट दे रही है। कमर्शियल सिनेमा के उन पारंपरिक दर्शकों के बारे में सोचा था कि लिख रहे हैं और प्रतिक्रिया कैसी आएगी?
औरत या मर्द होने से पहले इंसानी तौर पर आप उस चीज को देखें तो मुझे ऐसा कोई बहुत चमत्कारिक काम नहीं लग रहा था। मतलब मेरी खुद की कॉलेज के टाइम में ऐसी बहुत सी दोस्त रही हैं। और एक छोटा सा एनार्किक नेचर होना या एक तरीके की खुदपसंदी कहना ज्यादा बेहतर होगा इसे.. खुदपसंदी ऐसी है कि बाकी कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। तो मुझे ये बड़ा नेचुरल, बहुत ह्यूमेन लगा। बहुत ही आम लड़की जैसा लगा। और मुझे लगता है बहुत सारी चीजें हमारी फिल्मी समझ से बनती हैं। क्योंकि हमने ऐसा खुद देखा है तो वही लिख रहे हैं। या वही बना रहे हैं। अपना जो देखा है आप उसे एक बार ट्राई तो करिए। और मेरा ये सिंपल रूल है कि आपको खुद ये काम करते हुए मजा आ रहा है ... मैं कोई प्रशिक्षित राइटर नहीं हूं, मैंने कहीं से कोई ट्रेनिंग नहीं ली है ऐसे ही काम चल रहा है भगवान भरोसे - तो उसमें ये है कि एक सीन के बाद दूसरा सीन देखने में अगर मुझे मजा आ रहा है तो बाकी लोगों को भी आएगा यार। मैं थोड़े ही न मार्स (मंगल) से आया हूं। जमीन से ही उठा हुआ इंसान हूं। लखनऊ में परवरिश हुई। 120-130 करोड़ की जनता के बारे में सोचकर अपना काम करेंगे तो कनेक्ट करेगा। मैंने जब तनु का किरदार लिखा तो मेरे मन में ऐसा नहीं था कि ओ, मैं बड़ा पाथब्रेकिंग कुछ लिख रहा हूं। मुझे यही आता था। मुझे ये ही लड़की पता थी। मुझे ये ही लड़की लिखनी थी। उसके अलावा कुछ और लिखने के काबिल भी नहीं था। तो आई थिंक उसमें कोई प्लानिंग नहीं थी ऐसी। मुझे जो समझ में आया मैंने वो काम किया। अब बाकी वो दस में से छह लोगों को पसंद आया है कि दो लोगों को, वो अलग बात है।

फिल्म की आलोचना भी हुई। कौन सी आलोचना आपको उचित लगी? लगा कि आपको आने वाले काम में कुछ बेहतर करने में मदद करेगी?
ज्यादातर क्रिटिकल इवैल्युएशन (आलोचनात्मक मूल्यांकन) पर ध्यान देना मैं बेहतर समझता हूं। जो चीज पसंद आई वो तो बहुत अच्छी बात है, हमें थैंकफुल होना चाहिए। लेकिन पसंद आई ये दोबारा, बार-बार पढ़कर के आप क्या कर लेंगे? उस पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए कि कौन सी चीजों ने काम नहीं किया। बहुत सारी शिकायतें थीं, अच्छे-खासे लोगों ने दिक्कतें जताई थीं। चाहे वो ‘रांझणा’ हो या ‘तनु मनु’ हो, दोनों में ही ऐसा हुआ। ..पर मुझे लगता है एक क्रिटीक और एक राइटर में फर्क होता है। मुझे लगता है एक क्रिटीक का एक ऑब्जेक्टिव व्यू (वस्तुपरक नजरिया) होता है। एक लिट्ररेरी डिसकोर्स के साथ वो उसको देखता है या समझ उसकी एक अलग तरीके की होती है बनिस्पत उस शख्स के जो खुद लिख रहा है। मुझे नहीं लगता कि दुनिया में कोई अनबायस्ड राइटिंग (पूर्वाग्रह-रहित लेखन) होती है। आपका झुकाव कहीं न कहीं होगा! बिलकुल होगा! आपका अपना अनुभव, आपका अपना चरित्र झलकेगा और वो होना चाहिए। आप निबंध नहीं लिख रहे। आप एक कहानी लिख रहे हैं। तो उसमें कुछ अच्छी चीजें भी होंगी और कुछ बुरी चीजें भी होंगी। और मुझे लगता है वो इमपरफेक्शन जो है वो भी आपका ही हिस्सा है। उससे आप घबराएं मत। उससे दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है। हां, ये भी है कि आप मुंह भी न मोड़े उस आलोचना से। आपको लगता है कि आपकी राइटिंग में आगे क्राफ्ट के लिहाझ से आलोचना मदद कर पाएगी तो आप निश्चित तौर पर उसे समझें।

एक आलोचना ये रही कि अंत में आखिर आपने तनु को संस्कारी बना ही दिया? शादी ही आखिरी रास्ता रखा? अगर आप उसे वैसा ही रहने देते तो क्या ये फिल्म खास नहीं हो जाती?
रैट्रोस्पेक्ट में सोचूं तो हां बिलकुल, कहानी को ऐसे भी रखा जा सकता था। मेरे दिमाग में नहीं आया। शायद मुझे यही करते हुए ज्यादा यकीन आ रहा था अपनी कहानी पर। देखिए साब, इसी कहानी को कोई एक राइटर दूसरे तरीके से लिखेगा, एक डायरेक्टर दूसरे तरीके से बनाएगा। इसी कहानी को मैं इस तरीके से लिखना पसंद करूंगा और आनंद राय इसी तरीके से बनाना पसंद करेंगे। तभी तो इतनी मात्रा में भिन्न-भिन्न फिल्में हैं। क्योंकि इतने सारे दृष्टिकोण हैं। मुझे लगता है ऐसा हो सकता था लेकिन हो तो कुछ भी सकता था। होने को क्या नहीं हो सकता? किसी भी कहानी में। मैंने वही लिखा जिसमें मेरा खुद का भरोसा था।

तनु के किरदार को लेकर कंगना ने आपसे क्या चर्चा की? और आमतौर पर फिल्म के कलाकार स्क्रीनराइटर से मिलकर अपने रोल को कितना समझते हैं?
बिलकुल, एक्टर्स मिलते हैं, चर्चा करते हैं। एक्टर्स अमूमन अब खुल गए हैं। उनमें एक स्तर की इंटेलिजेंस, स्मार्टनेस, दृष्टिकोण, मैक्रो लेवल पर कहानी को समझने की ताकत ... ये आई है। बढ़ी है। आपने भी देखा होगा कि अचानक से जो स्टार परसोना हुआ करता था वो बदला है। सोशल मीडिया के उदय के बाद से। एक कनेक्ट अलग हुआ है, स्टार्स का। उनका तरीका अलग हुआ है अपने दर्शकों से बात करने का। मुझे नहीं लगता कि अब कोई भी सिंहासन पर ऊपर बैठा है जिस पर 60 और 70 के दशक में स्टार्स बैठा करते थे। आज की डेट में ट्विटर पर आप अमिताभ बच्चन साहब को भी बोल देते हैं, शाहरुख साहब को भी आप कुछ बोल देते हैं, रणबीर कपूर से भी आप कुछ बोल सकते हैं। और वो जवाब भी देते हैं आपको। इनकी अप्रोच बहुत बदली है अपने स्टारडम को लेकर। इसी का परिणाम मैक्रो लेवल पर कहानी में उनकी दिलचस्पी के रूप में आया है। कंगना जी की बात करूं तो उनकी कहानी को लेकर बहुत अच्छी समझ है। किरदार को लेकर हमारी पहली फिल्म में भी बात हुई थी। बहुत खुलकर बात हुई। उन्होंने अपने बिंदु रखे। वो सारी बातें जो उन्हें लग रही थीं। और स्क्रिप्ट ही है, कुरआन तो है नहीं कि ऊपर से लिखकर आई है। जिस एक्टर को परफॉर्म करना है वो स्क्रिप्ट से कम्फर्टेबल होना चाहिए। एक बात मोटा-मोटी समझ में आ गई उसके बाद लाइन्स तो बदली जा सकती हैं।

एक लेखक या निर्देशक (भविष्य के) के तौर पर आपकी आंखों में आज के किन एक्टर्स के देखकर चमक आती है जो आपके किरदारों को एक अलग ही धरातल पर ले जा सकते हैं?
मुझे लगता है कि रणबीर कपूर बहुत कमाल के एक्टर हैं। उनसे मिलना भी हुआ है। मुझे जितनी समझ उनकी दिखती है या उनके काम में दिखती है वो बेदाग़ है। वो बहुत नया काम कर रहे हैं। भविष्य में अगर उनके काबिल स्क्रिप्ट हुई तो जरूर उनके साथ काम करना चाहूंगा।

‘तनु वेड्स मनु’ की तेलुगु रीमेक ‘मि. पेल्लीकोडुकू’ से आप कितने संतुष्ट थे? क्या आपको नहीं लगता उसमें आपके पात्रों की सेंसेबिलिटीज इतनी बदल गई थीं कि मर गई थीं?
मैंने ट्रेलर देखा था उसका। मुझे लगा कि यार बेकार में पैसे खर्च किए और राइट्स लिए। ऐसे ही बना लेना चाहिए था। ये तो वो फिल्म है ही नहीं। आपने यूं ही पैसे खर्च कर दिए।

‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ की कहानी वाकई में आपको कहनी थी कि कमर्शियल वजहों से ही लिखी?
मुझे कहनी ही थी। मजेदार बात बताता हूं आपको। ‘तनु मनु’ के बाद सबने बोला कि ये काम कर रही है तुम पार्ट-2 लिख दो। लेकिन कुछ दिमाग में आ ही नहीं रहा था। मैंने कहा क्या लिख दो? खत्म है ये कहानी। तब मैं ‘रांझणा’ लिखना चाहता था। लिखी। फिर ‘रांझणा’ के दौरान दिमाग में ये कहानी आई। एक कॉन्सेप्ट बना। मुझे लगा कि हां यार ये मजेदार है। ये कहानी कही जा सकती है और मेरा कहने का मन है। इसमें एक पैसे की भी दूसरी बात नहीं थी। अगर कमर्शियल पहलू की वजह से बनानी होती तो मैं तुरंत ही बना देता। ‘तनु मनु-1’ के बाद ये आ जाती। ‘रांझणा’ बनाने के बाद जब लगा कि इस दुनिया में जाया जा सकता है तभी गए। वरना मैं कहां से लिख लेता। जबरदस्ती की कहानी तो दिखाई दे जाती।

Characters of Datto and Manu in a scene from the film.
इसमें दत्तो का किरदार आपने हरियाणा का ही क्यों लिया, किसी और प्रदेश का रख सकते थे?
आप फिल्म देखेंगे तो बिलकुल समझ आएगा कि ये हरियाणा से ही क्यों है। ये कहीं और की नहीं हो सकती थी। ये बहुत नेचुरल और ऑर्गेनिक तरीके से आया, ज्यादा गणित लगानी ही नहीं पड़ी। कि ये कहां की हो, अरे इसे वहां का बना दें तो ज्यादा मजा आएगा। ऐसा बिलकुल नहीं था। मुझे लगता है कोई भी कहानी अपना चरित्र और अपनी पृष्ठभूमि खुद ही बता देती है। ‘रांझणा’ जैसी कहानी लखनऊ में नहीं घट सकती थी, ‘तनु मनु’ जैसी कहानी बनारस में नहीं घट सकती थी। क्योंकि बनारस उतनी इंटेंसिटी देता है जो ‘रांझणा’ में थी। एक इमोशनल ओवरवेल्मिंगनेस देता है। और कुंदन का चरित्र जो है वो लखनऊ में नहीं पाया जाता। वो बनारस की पैदाइश है। वो बनारस में ही पनप सकता है। ‘तनु मनु’ की कहानी भी लखनऊ में ही सेट हो सकती थी। इसलिए दत्तो का कैरेक्टर सिर्फ हरियाणा से ही आ सकता था। मेरी समझ से कम से कम। तो बहुत नैचुरली आया है वो। इसके लिए मैंने कोई एक पैसे का गणित नहीं लगाया है।

पिछली ‘तनु..’ में ‘जुगनी..’ गाना रखा गया था, इसमें भी ‘बन्नो..’ गाने में नायिका के लिए संबोधन जुगनी है। क्या जुगनी का कोई संदर्भ है, कोई बैक स्टोरी है?
जुगनी तो हमारा फोक का ही गाना है पंजाब का। और जुगनी किसी भी संदर्भ में बहुत तरीके से इस्तेमाल की गई है। वो कभी आपकी माशूका होती है, कभी कुछ और होती है, कभी सिर्फ एक विचार होती है। आपको जो बात कहनी है, वो हर बात जुगनी कह सकती है। जुगनी का कोई चेहरा नहीं है। वो विचारात्मक लेवल पर ऑपरेट करने वाली टर्म है। आपको अगर डर लग रहा है सीधे कहने में तो जुगनी के नाम पर कह दीजिए। चाहे आरिफ लोहार हों या पंजाब के दूसरे लोक गायक हों, उनके द्वारा जुगनी का अलग-अलग तरह से, अलग-अलग रेनडिशन में अलग-अलग बात के लिए इस्तेमाल किया गया है। ये तो बहुत पारंपरिक विचार है। कि जुगनी है जो ये बात कह सकती है। जुगनी कौन है, मुझे लगता है ये तो किसी को नहीं पता।

पहली फिल्म में आपने ‘जुगनी..’ गाना रखा, सीक्वल में ‘बन्नो..’ गाना है। इन पुराने गीतों को रिवाइव करने की वजहें थीं?
‘बन्नो..’ ये रहा कि कनिष्क और वायु जो फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर हैं, हमसे फिल्म के मिड में मिले। बहुत सारे म्यूजिक डायरेक्टर्स अपना कुछ-कुछ भेज रहे थे। साथ काम करने का मन था सभी का। ये गाना सुनते ही हम लोगों को बड़ा मजेदार लगा। और फिल्म की दुनिया का लगा। ऐसा नहीं लग रहा था कि अरे, जबरदस्ती कोई गाना ठूसना पड़ रहा है। बहुत नेचुरल ऑर्गेनिक तरीके से वो उस फिल्म में घुल रहा था। तो ले लिया। और एक ट्रेडिशनल वैल्यू भी थी उसकी। फोक बेस्ड गाना है वो।

पहली फिल्म में ‘रंगरेज..’ गाना था इसमें ‘घणी बावरी..’ है... क्या आपको लगता है धुन प्रधान भविष्य में लिरिक्स बचे रह पाएंगे?
राजशेखर जो लिरिक्स लिखते हैं हमारे, वे कॉलेज के वक्त से साथ हैं हमारे। हमेशा उन्होंने विचार पर गाना लिखा है। शब्दावली पर वो आदमी उतना निर्भर नहीं रहता जितना विचार पर रहता है। उनसे हमेशा एक नया थॉट मिलता रहा है चाहे वो ‘रंगरेज..’ हो, ‘घणी बावरी..’ या ‘ओ साथी मेरे..’ जो सोनू जी ने गाया है। वो विचार प्रधान लिखते आए हैं और हमें भी वही जंचता है। कुछ बात जैसी बात हो तो आप बोलिए।

‘बन्नो..’ गाने में बोल हैं – ‘बन्नो तेरा स्वैगर लागे सेक्सी..’ यहां सेक्सी शब्द के मायने क्या हैं?
मेरे लिए सेक्सी का अर्थ था तेवर। एक टशन जो होता है न। बन्नो की इस स्वैगर में टशन है यार। एक बात है इसमें। एक उम्फ फैक्टर है। तो मुझे लगता है हमने उसे यूं लिया था।

‘रांझणा’ में एक दृश्य है जहां जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली) में धनुष को स्टूडेंट घेर लेते हैं कि वो चोर है। और सुबह तक बैठकर ये जान पाते हैं कि वो चोर क्यों बना क्योंकि वो गरीब है? क्या ये तंज जरूरी था और क्या जेएनयू में होने वाली बौद्धिक चर्चाओं को आप सतही और खोखली मानते हैं?
नहीं, नहीं ये वाकया सच में हुआ है। मैं जेएनयू या वहां के बौद्धिक एलीट या नॉन-एलीट, या शिक्षाविदों के खिलाफ हूं ऐसी कोई बात नहीं है। पर ये वाकया (फिल्म वाला) वहां घटा है और मुझे पता है इसीलिए मैंने उसको लिखा।

मतलब ओवरऑल जेएनयू या वहां के विचारों का ये प्रतिनिधित्व नहीं करता?
मुझे लगता है हिंदुस्तान का सबसे प्रेमियर इंस्टिट्यूट है वो। वहां से जितने लोग निकले हैं उनकी राजनीतिक समझ और उनका योगदान अभूतपूर्व है। इसके लिए तो उन्हें किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। उस किस्से से कोई लेना देना नहीं था। वो चरित्र जो अभय देओल का था मुझे लगा कि ये इस दुनिया में एक अच्छापन देगा।

आनंद से आप पहली बार कब मिले थे? आप दोनों इतने लंबे भागीदार किन कारणों से बन पाए?
मैं 2004 में पहली बार उनसे मिला था। वो एक कंपनी में कुछ नौकरी टाइप वाला काम कर रहे थे। उससे पहले उन्होंने बहुत सारा टेलीविजन किया था। और अब उन्होंने अपना टेलीविजन करना छोड़ दिया था, वो प्रोड्यूस भी कर रहे थे, डायरेक्ट भी कर रहे थे और काफी अच्छा कर रहे थे। पर वो भी उकता गए उसी काम को करते हुए। वो भी ऐसे ही घूम रहे थे। मैं 2004 में बॉम्बे पहुंचा ही था। उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि फिल्म तो यार ऐसी कुछ है नहीं पर मैं बनाने की कोशिश कर रहा हूं। बाकी तुम बता दो तुम्हारा खर्चा कितने में चल जाएगा महीने में। मैं उतने का जुगाड़ करवा देता हूं तुम्हारा और कुछ करते हैं साथ में। तो उस तरीके से शुरू हुआ। बट, मुझे लगता है वो एसोसिएशन चलने का एक बहुत बड़ा कारण ये रहा कि मैं कभी भी कमीशन्ड राइटिंग नहीं कर पाया। कि मतलब किसी का एक सबजेक्ट हो और आप बस स्क्रीनप्ले लिख दीजिए, डायलॉग लिख दीजिए। शायद इसीलिए न मैं बाहर काम भी नहीं कर पाया। मैं वही लिख सकता हूं जो मेरा मन है। और आनंद अपना मूड बना लेते हैं वही काम करने का जो मेरा मन है। तो अगर इसके बाद मेरा मन एक एक्शन फिल्म लिखने का है तो दो-तीन महीने में ही जब तक मैं इस कहानी पर काम कर रहा होऊंगा वो अपना मन बना लेंगे कि अगली एक्शन बनानी है। एक तरीके से उनका मन नहीं होता मेरा मन हो जाता है कि किस जॉनर में काम करना चाहिए। मेरा मन था ‘रांझणा’ करने का और उन्होंने अपने मन में उस तरीके से ढाल लिया। एक ट्रैजिक कहानी लिखने का मेरा मन था, वो उनका नहीं था पर वो ढाल लेते हैं खुद को। और वो उस तरह के नहीं कि बोले, दस सीन हो गए आओ बैठ कर बात करें। नहीं। पूरी स्क्रिप्ट जब मैं सुनाता हूं तब वो सुनते हैं। निश्चित तौर पर हम रोज मिलते हैं, रोज ऑफिस में बैठकर बातें होती हैं। खाना साथ हो जाता है। उन सबके चलते एक बातचीत रहती है। वो दुनिया मैं उनको दिखा देता हूं। पर जो सीन-दर-सीन प्रोग्रैशन कहानी का वो उन्हें बाद में ही पता चलता है। और उस पर मुझे नहीं याद उन्होंने कभी कोई बदलाव बताए हों, उन्हें दिक्कत लगी हो। लेकिन उनको जो चीज करनी होती है उसे वो करते हैं। यही सबसे बड़ी वजह है कि हम बहुत अच्छे से घुलते हैं। मुझे इसीलिए उनके साथ काम करने में हमेशा मजा आया है।

Himanshu with Anand.
दोनों में कोई रचनात्मक मतभेद नहीं होते? होते हैं तो सुलझाते कैसे हैं?
होते हैं बिलकुल होते हैं, जैसे सबके साथ होते हैं। वो जिस किस्म के डायरेक्टर हैं उन्हें जोर किसी चीज पर अच्छा नहीं लगता। जैसे, आपको लगता है कि कहानी में बहुत भारी ट्विस्ट है, वो उसे ऐसे पेश करते हैं जैसे कोई बात ही न हो। और जो आपको एवेंई सी बात लगती है उसे वे बड़ा बना देते हैं। तो उनका एक बड़ा रोचक तरीका है काम करने का। उससे कई बार नाइत्तेफाकी रहती है मेरी। उन चीजों को लेकर हमारी कई बार बहस हुई है। लेकिन वो ज्यादा-कम बहस तक ही रही है। उसकी वजह से ऐसा कोई अंतर नहीं आ गया।

वो कौन सी घटना, किताब या बात थी जिससे आप फुल टाइम राइटर बने?
सच बताऊं तो ऐसा कुछ न था। ऐसा तो था नहीं कि मैं बड़ा इलाहाबाद का कलेक्टर लगा था और छोड़कर आ गया। कॉलेज खत्म किया। फिर एक साल एनडीटीवी में काम किया। वहां एक हेल्थ शो लिखता था मैं। नॉन-फिक्शन काम में मजा नहीं आया, बॉम्बे आ गया। कुछ दोस्त आ रहे थे। उनके साथ आ गया। कुछ दिन असिस्टेंट डायरेक्शन किया। उसमें लगा कि यार ये काम मेरी सर्वश्रेष्ठ कोशिश नहीं है। .. फिर लिखने का मन था। कि यार लिख सकता हूं कोई कहानी। कहानियों के प्रति एक रूझान रहा है। लिट्रेचर का स्टूडेंट रहा हूं। तो उस तरीके से एक झुकाव था लिखने पे। मेरे पास ऐसा कोई भारी कारण नहीं है कि मैं क्यों लिख रहा हूं और न मैं सोचता हूं इस तरीके से। मुझे कतई नहीं लगता कि बड़ा भारी काम आप कर रहे हैं फिल्में बनाके। इससे बेहतर और जरूरी काम भी हैं दुनिया में। अभी मेरी किसी से यही बात हो रही थी कि इतना घमंड और इतना इतराना, ये किस बात का? आप पेट्रोल नहीं पैदा कर रहे न। स्टील नहीं बना रहे। देश आप पर निर्भर नहीं है। आप अच्छे समय के दोस्त हैं। आप लेजर (आनंद, विलासिता) बिजनेस में हैं। जब लोगों के पेट भरे होंगे, उनको तब आपकी याद आएगी। पहले बंदर नाचता था, भालू नाचता था। अब आप ये करके दिखा दीजिए।

अपने परिवार के बारे में कुछ बताएं। और परवरिश के दौरान की वो चीजें या वाकये जिन्होंने आपको आज ऐसा बनाया?
मैं एकमात्र हूं घर में जो फिल्मों में हूं। बाकी मेरे घर में सारे ही गवर्नमेंट जॉब्स में रहे। मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग में थे। दो साल पहले रिटायर हुए। मेरी मम्मी हाउसवाइफ हैं। मैं सबसे बड़ा हूं बच्चों में, उसके बाद एक बहन है और एक भाई है। बहन मेरी सिंगापुर में सेटल्ड है और भाई इंजीनियर है। और आप यकीन जानिए ग्रैजुएशन सैकेंड ईयर तक मैं यूपीएससी की तैयारी कर रहा था। पर उस दौरान मैं थियेटर भी करने लगा था। किरोड़ीमल कॉलेज में जहां से मैंने अपना ग्रैजुएशन किया। वहां उनका थियेटर ग्रुप था द प्लेयर्स। एमेच्योर लेवल का ग्रुप है ये। प्रफेशनल नाटक नहीं होते। पर वो तीन साल मेरी जिंदगी के निर्णायक बिंदु हैं। वहां पर जाकर बहुत सीखा। वहां स्टाफ एडवाइजर थे केवल अरोड़ा। उन्होंने द प्लेयर्स के सारे ही लोगों की जिंदगी को बहुत प्रभावित किया। उससे पहले लखनऊ में ही मैंने स्कूलिंग की थी। पर वहां आकर के... वो आपको ये नहीं बताते कि कैसे बेहतर एक्टर बन जाएं या कैसे बेहतर राइटर बन जाएं या कैसे बेहतर स्टेज डायरेक्टर बन जाएं लेकिन एक बेहतर इंसान बनना, एक बेहतर सोच आना वो उस संस्था ने जरूर सिखाया। हम सभी को। राजशेखर जो हमारी फिल्म के गीतकार हैं, वो भी वहीं से हैं। और काफी लोग हैं। विजय कृष्ण आचार्य वहीं से हैं। कबीर खान जो हैं, वो वही से हैं। तो बहुत कमाल के वो तीन साल गुजरे मेरे। और उसमें काफी कुछ बदला। उससे पहले निश्चित तौर पर एक जबान, एक लहजा, स्मॉल टाउन की तमीज़ लखनऊ से ही आई। उस सिटी का बहुत एहसानमंद हूं।

बचपन में आप क्या पढ़ते थे? लिट्रेचर, कॉमिक्स? मम्मी या दादी-नाना कुछ कहानी सुनाते थे?
हम लखनऊ में रहते थे। मेरे दादा-दादी, मतलब मेरे पिताजी दिल्ली से हैं। मम्मी मेरठ से हैं। हम मई-जून की छुट्टियों में वहां जाया करते थे। कॉमिक मैंने बहुत पढ़ी। हिंदी कॉमिक्स मतलब ध्रुव, नागराज, चाचा चौधरी उसे पढ़ने के लिए मैं बहुत पिटा हूं। और उस समय यकीन जानिए सपने में भी नहीं था कि फिल्म्स या फिल्म राइटिंग या फिल्म डायरेक्शन या इस तरीके के क्षेत्र में जाना कुछ नहीं था। मुझे लगता है कि आज के दौर में इतने एवेन्यूज यंग जेनरेशन को पता हैं पर तब 90 के दशक में डॉक्टर, इंजीनियर और यूपीएससी के अलावा क्या होता था? मसलन, जर्नलिज्म को ही ले लीजिए। कौन बोलता था कि मैं जर्नलिस्ट बनना चाहता हूं? ये इतने सारे विकल्प, एवेन्यूज बहुत बाद की बातें हैं।

अवचेतन (सब-कॉन्शियस) में आप वो जो कॉमिक्स बचपन में पढ़ते थे, आज जब लिखने बैठते हैं तो बहुत हेल्प होती है। कि अंततः ऐसे ही आप रच पाते हैं चीजें। इतना सब पढ़ा है, वो न पढ़ा होता तो शायद न लिख पाते।
हां, आई एम श्योर। सब-कॉन्शियस लेवल पर ऐसा जरूर होगा। लेकिन मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मैं किन कारणों से ऐसा कर पा रहा हूं या नहीं कर पा रहा हूं। मुझे लगता है कि एक किस्सागोई वाली जो बात होती है वो उत्तर प्रदेश में आपको दिख जाएगी। टोटैलिटी में आप कह सकते हैं कि यूपी का आदमी बड़ा आलसी होता है और बातों में बड़ा मजा आता है उसे।

प्रतिभाशाली भी होते हैं।
बस वो थोड़े मेहनती हो जाएं तो बहुत अच्छा होगा। मैं उस मामले में टिपिकल यूपी से ही बिलॉन्ग करता हूं। खासा आलसी इंसान हूं। पर हां, वो किस्सागोई की बात होती हैं न कि बैठे हैं चाय पी रहे हैं और सरकारें बन गईं, सरकारें गिर गईं बातों में हीं।

आपको लेकर माता-पिता के कुछ सपने थे जो फिल्मों में आने से टूटे? और जब फिल्मों में आने का उन्हें कहा तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?
सारे ही लोग चाहते थे कि यूपीएसी दो और यूपीएससी तुम्हे सीरियसली करना चाहिए। पर मेरे पिताजी काफी लिबरल टाइप के आदमी हैं। बहुत सज्जन इंसान हैं, बहुत पेशेंट हैं। उन्होंने मेरे को एक ही बात बोली थी जो बहुत सही थी कि देखो बेटा तुम लाइफ में जो कर रहे हो, ठीक है कर लो। तुम्हारी अपनी सोच है। पर बात ये है कि कल को अगर फिल्म इंडस्ट्री में जाकर के तुम बहुत नाम कमाओ और अवॉर्ड मिले तुम्हे तो तुम स्टेज पर मेरा नाम मत लेना। पर अगर तुम भीख मांग रहे हुए वहां वीटी स्टेशन पे तो भी मेरा मत लेना। तब ये न बोलना कि यार पिताजी आप तो उमर में बड़े थे, आपको समझाना चाहिए था। अपनी फेलियर के भी तुम जिम्मेदार होगे, अपनी सक्सेस के भी तुम्ही होगे। बाकी जो मन लगे तुम समझदार हो, जो करना है करो।

मां ने कुछ नहीं कहा?
मम्मी का इतना कोई विरोध नहीं रहा।

आप लखनऊ में थे, दिल्ली में थे, फिल्में देखते थे, बाहर से जो सम्मोहन होता था, आज अंदर आने के बाद और फिल्ममेकिंग की मशीनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद क्या वो सम्मोहन आज भी बना हुआ है? या अब थोड़ी सी सामान्य हो गई है चीजें?
मुझे बड़ा मजा आता था गोविंदा की फिल्में देखने में। और यश जी की फिल्में देखने में। मैं ‘दीवार’ जैसी फिल्म, ‘शोले’ जैसी फिल्म या जो सुभाष घई का सिनेमा हुआ करता था उन पर पलता था। ‘राम लखन’ और ‘कालीचरण’। मतलब मुझे ये हाइप वाले ड्रामा बड़ा मजा देते थे। पर ऐसा नहीं था कि मैं ये करना चाहता हूं। मुझे मजा आ रहा है देखने में हां ठीक है, बाकी काम तो आपको अपना कुछ करना ही होगा जीवन में। तब कभी दिमाग में भी नहीं था कि फिल्म्स बनाएंगे, फिल्म्स लिखेंगे या फिल्म्स में काम करेंगे। और अभी भी आप यकीन जानिए मैं इस जगह को (मुंबई फिल्म उद्योग) को उस तरह बिलॉन्ग भी नहीं करता। बड़ा सेक्लूजन टाइप है। मतलब अभी भी मेरे वही दोस्त हैं जो कॉलेज के टाइम से हुआ करते थे। अभी भी मेरा कोई नया सर्किट यहां बना नहीं है। अपना जो समझ में आता है, जो बातों में लगता है, एक-दूसरे से जो कहानी कहने में मजा आता है, बस उसी पे काम कर रहा हूं मैं और वही लिखता हूं। बाकी मुझे लगता है ये बड़ा ... क्या कहेंगे उसे, नकली शायद ज्यादा सख्त शब्द हो जाए, पर बड़ा भ्रम है जी ये बहुत सारा। आप चाहें तो दिन की तीन फिल्मी पार्टी रोजमर्रा के हिसाब से जा सकते हैं पर बात ये है कि आपको कहना है ये काम? मतलब आप वहां जाएं, हंसें, बोलें लेकिन कुछ अर्थ बनानी चाहिए चीजें। अभी भी जो गैदरिंग का सेंस है वो पुराने दोस्तों के साथ बैठना, बातें करना, चाय पीना उसी से आता है। मैं काफी संतुष्ट हूं। ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं है मेरी। कि अरे ये दुनिया कुछ उस तरह से एक्सप्लोर की जाए।

फिल्में बनाने वाले लोग मुंबई में रहते हैं, महानगरीय जीवन-शैली उनकी होती है लेकिन प्रेरणा जो उनकी होती है वो छोटे शहरों से आती है। ऐसा क्यों होता है? और आप शायद मुंबई में पले-बढ़े होते तो ऐसी चीज (तनु मनु, रांझणा) शायद दे ही नहीं पाते।
बिलकुल। लेकिन तब शायद मैं कोई और कहानियां दे रहा होता। आप देखिए, यहीं पर छोटे शहरों की कहानियां भी बन रही हैं और बड़े शहरों की भी कहानियां बन रही हैं। आप जोया अख्तर का काम देखिए। बहुत अच्छा काम है उनका। चाहे उनकी पिछली फिल्म ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ हो या अब ‘दिल धड़कने दो’। अब जोया जहां से आती हैं, उनको वही दुनिया पता है। वो गर्मी की छुट्टियों में स्पेन ही जाती थीं। हम मेरठ जाते थे। आप मेरठ को ज्यादा बेहतर समझते होंगे। वो पैरिस, स्पेन और रोम को ज्यादा बेहतर समझती हैं। तो वो ईमानदारी से वहां की दुनिया पेश कर रही हैं। हम ये बात बता देते हैं कि यार मेरठ में लड़का ऐसे बोलता है और इन-इन चीजों से गुजरता है। सो सबकी अलग दुनिया है। बहुत सारी कहानियां हैं इस दुनिया में तो। कोई कहीं की सुनाता है, कोई कहीं की।

आप आने वाले समय में निर्देशन भी करना चाहते हैं तो ये अर्बन, एलिटिस्ट कहानियों में आपकी रुचि है।
अच्छी कहानी में हमेशा इंट्रेस्ट रहेगा। अच्छी कहानी चाहे किसी भी दुनिया से आए आपको मजा आता है। जरूरी थोड़े ही है कि आप उस दुनिया को जानें। बैटमैन को कोई जानता थोड़े ही है या किसी का दोस्त बैटमैन है। पर मजा आता है। तो किसी भी दुनिया की कहानी हो, अच्छे तरीके से पेश की जाएगी तो क्यों नहीं मजा आएगा। आगे कोई एक अर्बन सेटअप में कहानी समझ आती है तो मैं बिलकुल लिखूंगा। बिलकुल उसको डायरेक्ट करना चाहूंगा। पर अभी जिस कहानी पर मैं काम कर रहा हूं और जो मैंने सोचा कि इससे डायरेक्शन शुरू करूंगा वो लखनऊ में सेट है। क्योंकि वो दुनिया मुझे ज्यादा करीब की जान पड़ती है।

क्या फिल्में समाज पर असर डालती हैं? अच्छा या बुरा?
मुझे लगता है इतना बड़ा कुछ है नहीं फिल्म कि समाज बदलने की ताकत रखे। ऐसा कुछ नहीं है। मुझे नहीं जान पड़ता है। हां बाकी ये जरूर है कि एक तरह का प्रतिबिंब जरूर होता है। आप किसी भी एक देश के समकालीन समय की फिल्म देखकर के उस समय की सेंसेबिलिटी जरूर समझ सकते हैं। हम सब अपने समय की ही उपज हैं। ऐसा तो है नहीं कि फिल्म देखने वाले अलग दुनिया से आ रहे हैं और बनाने वाले अलग दुनिया से। आ तो सब एक ही दुनिया से रहे हैं। तो उन मेकर्स की सेंसेबिलिटीज या बेचैनी कह लीजिए या उनकी चिंता कह लीजिए, या उनकी समझ कह लीजिए या नजरिया कह लीजिए। वो आपको जरूर समझ में आता है उस वक्त का। उस वक्त का एथोज समझ में आ जाता है उस वक्त की कहानियां देखकर के। इसीलिए सत्तर में ‘दीवार’ जैसी कहानियां बनती हैं। एक गैंग्स्टर का ग्लोरिफिकेशन दिखता है। या एक स्मगलर का। क्योंकि वो एक फेज था। हम आजादी के बाद डिसइल्यूज़न्ड (मोहभंग) थे। क्योंकि हमें नहीं समझ आ रहा था। हमें लगा था कि आजादी के बाद सबके पेट भरे होंगे। जैसे कुछ चमत्कार हो जाएगा। पर कुछ नहीं हुआ और वो 20 साल में समझ आने लगा। गोरे साहब की जगह भूरे साहब आ गए। वो फिल्मों में झलकने लगा। आज जितनी फिल्में आ रही हैं उससे आपको आज के समय की समझ मिल सकती है। सामाजिक, राजनीतिक समझ। मुझे नहीं लगता कि ये इतना भारी काम है कि कोई फिल्म आकर सामाजिक परिवर्तन ला सके। और एक बात बताऊं इतना कोई बेहतरीन काम भी नहीं हो रहा। ऐसा नहीं है कि पिछले हफ्ते ‘मुगलेआजम’ आई और अगले हफ्ते ‘कैसेब्लांका’ आ जाएगी। ऐसा नहीं है। बहुत ही औसत काम हो रहा है इंडस्ट्री में। पर बात ये है कि हम इतने वक्त से बिरियानी के पैसे लेकर के खिचड़ी खिला रहे हैं न लोगों को कि हल्का सा एक पुलाव भी बड़ा खुश कर जाता है। आप सोचिए कितना सस्ता वर्ड हो गया है ...कल्ट क्लासिक। अरे ये फिल्म तो कल्ट है। अच्छा? अगले फ्राइडे फिर एक कल्ट आ जाएगी। तो ये तो हालत हो गई है। और ये मैं अपने को सबसे पहले गिनकर बोल रहा हूं। मैं भी कोई बड़ा भारी ऐसा काम नहीं कर पा रहा कि दुनिया को लगे भई इन्होंने तो कुछ बड़ा बदल दिया। कुछ नहीं है, सब औसत काम कर रहे है। जिसको जो समझ में आ रहा है, कर रहा है। बस। मुझे नहीं लगता कि एक भी शख्स ऐसा है जो पेज टर्निंग वाला काम कर रहा है कि अरे ऐतिहासिक है ये।

लेखक पैदा होते हैं कि बनते हैं?
मुझे लगता है कि तीन फिल्में लिखकर के इसका जवाब देना बड़ा कठिन है। तीन ही हैं आखिरकार। मेरा कोई ऐसा बॉडी ऑफ वर्क नहीं है कि मैं अपनी एक एकेडेमिक समझ बना पाऊं।

टैरेंस मलिक ने तो पांच बनाई हैं चालीस साल में।
वो है, वो है, पर मुझे नहीं लगता कि अभी मैं उस स्थान पर हूं। मैं खुद अभी बहुत चीजों से जूझ रहा हूं। मैं खुद अपने ही काम से कई बार बोर हो जाता हूं। मुझे लगता है वही दुनिया, वही एक से सीन, वही सोच, वही अप्रोच.. कुछ बदलना चाहिए। मैं अभी अपने काम को लेकर बड़ा चिंतित रहता हूं कि कुछ ऐसा हो पाए कि यार किसी और को बाद में लगे खुद को लगे कि कुछ हुआ। तो अभी मैं अपने जीवन और करियर में इन बातों पर ध्यान लगा रहा हूं। बाकी तो ये बड़े बुढ़ापे के सवाल हैं। कि राइटर पैदा होता है कि बनता है। ठीक है साब, दस हजार काम होते हैं तो एक राइटर भी होता है।

आप अखबार पढ़ते होंगे। ऑनलाइन देखते होंगे। जितनी भी खबरें आती हैं। मसलन, दिल्ली के चिड़ियाघर में बाघ के पिंजरे में एक युवक के गिरने की घटना है, उसके हाथ जोड़ने की तस्वीर है, आईएसआईएस के रोज आने वाले बिहैडिंग के वीडियो हैं, धर्मांधता है, सेंसर बोर्ड है या नेट न्यूट्रैलिटी है। जब इन्हें देखते हैं तो आपके अंदर का लेखक कितनी जल्दी सक्रिय हो जाता है?
नहीं वो लेखक से उतना लेना-देना नहीं है। देश के नागरिक या मानव के तौर पर देखते हैं। उस पर विचार करते हैं। वो बहुत ह्यूमेन ग्राउंड पर असर डालता है। राइटर बाद में आता है। दुनिया ऐसे तो नहीं जी जा सकती कि कोई आपसे अपना दुख-दर्द बांट रहा है और आप अचानक से बोलें कि यार ये तो बड़ी अच्छी कहानी है। पहला रिएक्शन तो यही होता है कि सब ठीक हो जाएगा, तू चिंता मत कर भाई। तो मेरा तो वही रहता है बाकी कुछ कहानियां हैं तो अगले पांच साल तक मुझे बिजी रखने के काबिल हैं। तो अभी तो डरा हुआ नहीं हूं इतना। कहानी का उतना कोई अभाव नहीं है। जब होगा तब पेपरों को उस तरीके से पढ़ना शुरू किया जाएगा।

क्या आप अपने साथ डायरी रखते हैं, नोट लेने या अनुभव लिखने करने के लिए?
काश ये काम मुझे आते। काश मैं इतना सीरियसली अपने काम को ले रहा होता। मैंने तो आपको बोला न, खासा लेजी राइटर हूं और खासा लेजी इंसान हूं। अपना बिस्तर, अपना सोफा, अपनी चाय, अपनी खिड़की, अपनी एक गजल बड़े गुलाम अली साहब की.. उसमें मैं बड़ा खुश रहता हूं। लिखाई मेरे दिमाग में तब शुरू होती है जब मुझे लगता है कि भाई अब आनंद राय मतलब मर जाएगा अगर नहीं दिया कुछ तो। तो मैं तभी उठता हूं। पर हर फिल्म के दौरान भी लिख ही रहा होता हूं और हर फिल्म के अंत में ये वादा करता हूं खुद से और आनंद राय से कि खबरदार जो आज के बाद तुमने मुझे इस तरह पुश किया तो। अब मैं स्क्रिप्ट खत्म करूंगा और तभी तुम बनाना। तो मैं चाहता हूं कि थोड़ा अनुशासन हो राइटिंग में। मुझे लगता है उस अनुशासन की कमी ही मुझे मार रही है बहुत-बहुत वक्त से। और.. मेरा एडिटर भी यही बोलता है कि हिमांशु मुझे तुम्हारा टैलेंट नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी मेहनत चाहिए। मैं थोड़ा कम मेहनती इंसान हूं।

राइटर्स ब्लॉक (रचनात्मक गतिरोध) आता है तो क्या करते हैं?
आता है। कई बार आप दीवार से सिर मारते रहिए। एक जगह अगर आपका चरित्र अटक गया तो अटक गया। और ये जो बातें होती हैं न जो आपने भी सुनी होंगी और मैंने भी सुनी कि “इस दुनिया में आ जाइए फिर आपको चरित्र बताएगा कि उसको कहां जाना है”। कोई किरदार आपको नहीं बताएगा। वो वहीं साला खड़ा रहेगा जहां पर आपने उसे छोड़ा है। आप ही को ले जाना हैं जहां उसे ले जाना चाहते हैं। वो खुद कुछ नहीं करेगा। लेकिन राइटर्स ब्लॉक बड़ा जरूरी होता है। जब तक आप उस डेड एंड पर जाकर नहीं खड़े होंगे कि जहां पर आपको लगे कि यार अब यहां से कहां निकलूं। अब वापस भागूं या इस दीवार को तोड़ कर के आगे बढ़ूं या साइड में भग जाऊं। जितना तकलीफ वो आपको देगा, उतना ही मजा आपकी स्क्रिप्ट में झलकेगा। अगर आप उस ब्लॉक तक पहुंचे हैं तो आपके साथ ऑडियंस भी तो पहुंचेगी न? मैं हमेशा कहता हूं जब फाइनली आप चंदन (सिनेमा, मुंबई) में फिल्म देखते हैं न, एक सिंगलप्लेक्स में, आपको वहां जाकर समझ आता है कि जो लोग बैठकर फिल्म देख रहे हैं वे ज्यादा बेहतर लेखक, एडिटर और निर्देशक हैं। वे आपको बताएंगे। परदे पर सीन देखकर लगता है कि ओ शिट, ये सीन न तीस सेकेंड पहले कट जाना चाहिए था। या ये लाइन मेरी वर्क नहीं कर रही है यहां जो मुझे लग रहा था करेगी। आप अपना काम थियेटर में देखिए, सारी गलतफहमियां, सारे मुगालते दो मिनट नहीं लगते दूर होने में। जब पीछे से आवाज आती है न “रील नंबर छह पे नहीं सात पे थी, अबे आगे बढ़ाओ”, आपको समझ में आ जाता है सारा मामला। ये जो टर्म हैं न, पब्लिक..। पब्लिक कुछ नहीं होती। आप उन्हीं का हिस्सा हैं। जब आप ट्रैफिक में होते हैं आपको लगता है न कितना ट्रैफिक है। लेकिन आपकी साइड वाली के लिए आप ट्रैफिक हैं।

फिल्म एडिट करते समय या हर डिपार्टमेंट द्वारा काम करते समय निर्देशक या निर्माता बताता है कि हमें ये उस दर्शक को लक्ष्य करके तैयार करना है। जबकि वो दर्शक कभी किसी को मिला ही नहीं, उसे किसी ने देखा ही नहीं है। न जाने कौन सा दर्शक, कहां, किस जेहनियत के साथ, किस मानसिक अवस्था, कितने ज्ञान के साथ क्या पसंद करेगा। तो उसे ढूंढ़ पाना या उसे लेकर एक मैच्योर जगह पहुंच पाना ये कभी हो नहीं पाया। लिखते समय क्या आप उस दर्शक को ढूंढ़ पाए हैं?
नहीं, बिलकुल नहीं। और उस पर ज्यादा सोच लगानी भी नहीं चाहिए। आप वही काम कर सकते हैं जो आपको आता है। ऐसा तो नहीं है न कि किसी एक फिल्म को लिखने के लिए मैं राजकुमार हीरानी से गुद्दी उधार ले सकता हूं? अगर ले सकता तो ले लेता। आप काम वही करेंगे जो आपको आता है, जो आपकी गुद्दी आपको बताएगी, जो आपका विवेक आपको बताएगा, जो आपका दिल आपको कहेगा। आप जितनी ईमानदारी से वो अटेंप्ट कर सकें आप बस वो करें। आप मेहनत करने की कोशिश करें। ईमानदार रहें। आप झूठ न बोलें। न खुद से न किसी और से। आप वो काम करें जो आपको अच्छा लगता है। क्योंकि आपको अच्छा लगेगा न तो हो सकता है चार-पांच और लोगों को अच्छा लगे। अगर आप ज्यादा चतुर बनेंगे तो वो जो तीन-चार लोगों को पसंद आने की गुंजाइश थी वो भी खत्म समझो। आप वो लिखिए जो आपको लिखने का मन है, बाकी आपके पास चारा क्या है। कम से कम वो तो तमीज से लिख दीजिए।

वो स्क्रिप्ट जो आपको बेदाग़ लगती हैं?
‘दीवार’। सलीम-जावेद साहब का जितना भी काम है वो। वो बहुत पके हुए और पुख़्ता राइटर्स हैं। उनका सेंस ऑफ ड्रामा, स्टोरी, कैरेक्टर। ‘दीवार’ वॉटरटाइट है। उसमें से एक सीन भी हटाना... मतलब सीन हटाना तो बहुत बड़ी बात है, मुझे नहीं लगता कि उसे आप किसी तरीके से भी बदल सकते हैं। असंभव है। आप उसमें से कोई भी सीन हटाकर देखें। कुछ मिस कर देंगे आप। उसके परे मुझे कुछ नहीं दिखता। हिंदी सिनेमा में ऐतिहासिक स्क्रीनप्ले का उदाहरण है ‘दीवार’। टॉम स्टॉपार्ड ने एक स्क्रिप्ट लिखी थी जिस पर फिल्म बनी ‘शेक्सपीयर इन लव’ (1998)। वो भी वॉटरटाइट स्क्रीनप्ले था। विदेशी में ये कमाल लगती है।

आकांक्षी फिल्म राइटर्स के लिए वो नियम जो उन्हें अपनी राइटिंग टेबल के आगे चिपकाने चाहिए।
सबसे पहले तो वो टेबल पर बैठें, क्योंकि मैं तो टेबल पर भी नहीं बैठ रहा। और दूसरी चीज, मुझे लगता है ईमानदारी। आप पूरी ईमानदारी से सही, गलत, अच्छा, बुरा, गुड-बैड-अग्ली जो भी आता है आप ईमानदारी से कह दें। ये एकमात्र चीज है जिसका मैं पालन करता हूं।

फिल्म राइटर बनने के लिए फिल्म स्कूल जाना जरूरी है?
मैं तो नहीं गया हूं। पर.. जाना चाहिए, यकीन है कुछ रोचक ही सीखने को मिलता होगा वहां।

इस साल की कोई उत्साहित करने वाली फिल्म देखी है? समकालीन लेखकों में कौन अच्छे लगते हैं?
मुझे कमाल की लगी ‘बदलापुर’। इस साल मैं ज्यादा फिल्में नहीं देख पाया पर ‘बदलापुर’ मुझे आउटस्टैंडिंग फिल्म लगी। और बहुत अच्छी राइटिंग लगी उसकी। वैसे भी मुझे श्रीराम सर का काम हमेशा ही अच्छा लगा है। मैंने उन्हें काफी लंबा मैसेज भी किया। और जैसे वो हैं, उन्होंने एक लाइन में उत्तर दिया, ‘थैंक यू हिमांशु’।

आने वाली फिल्में कौन सी हैं। आनंद राय के साथ ही हैं?
जी, आनंद के साथ ही है। मैं अगली फिल्म भी आनंद के लिए ही लिख रहा हूं। और एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं अपने लिए काम कर रहा हूं। ये दो ही हैं अभी।

आनंद के साथ फिल्म किस श्रेणी यानी जॉनर की है?
रोमैंटिक ड्रामा है। जिसमें वे काफी अच्छे हैं। मैं भी अभी उसी में ही ऑपरेट कर रहा हूं।

एक फिल्म आपकी सलमान के साथ भी है?
हम उनसे मिले। बहुत मजेदार रही मुलाकात। देख रहे हैं अभी वो बहुत बिजी हैं, उनके कमिटमेंट।

जिंदगी का फलसफा क्या है? जो निराशा में भी उठ खड़ा होने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है?
जिंदगी चरणों में आती है। और अच्छा टाइम नहीं रुकता तो बुरा क्यों रुकेगा। जूझना चाहिए। आप इसीलिए पैदा हुए हैं कि चीजों से जूझें।

जब आप फिल्मों में आना चाहते थे तो न जाने कितने किस्से थे जो आपको कहने थे, न जाने कितनी फिल्में आपको बनानी थी, अब जब आ गए हैं तो ऐसा नहीं लगता एकदम खाली हो गए हैं?
ये मेरी लाइफ में सबसे बड़ा डर है यकीन जानिए। ये कि एक दिन मैं सोकर उठूंगा और मेरे पास कोई कहानी नहीं होगी। कि आप खाली हो गए। और जब आप खाली हो जाएं न, तो बेहतर है चुप बैठें। बेकार में कहानियां न सुनाएं। बाकी ऐसी कोई दिक्कत नहीं है, लखनऊ में घर है अच्छा और शहर बहुत पसंद आता है। जहां से आए हैं वापस लौट जाएंगे। कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन अभी तीन-चार कहानियां हैं जो पांच-छह साल तो बिजी रख देंगी। उनको लेकर मैं एक्साइटेड हूं, मुझे अच्छा लग रहा है उनके बारे में सोचकर के।

राइटर्स में आपके ऑलटाइम फेवरेट कौन हैं?
हिंदी साहित्य का स्टूडेंट रहा हूं। प्रेमचंद को बहुत पढ़ा मैंने। भारतीय लेखकों में मुझे निर्मल वर्मा बहुत पसंद हैं। धर्मवीर भारती बहुत पसंद हैं और उनकी ‘गुनाहों का देवता’ जो है उसका बहुत ज्यादा प्रभाव रहा मुझ पर। बाकी आजकल एक बहुत धमाल किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ (1975) पढ़ रहा हूं। ज्यादा पढ़ नहीं पा रहा लेकिन सोचा हुआ है पढ़ाई करनी है फिर से लगकर। वापस दिल्ली यूनिवर्सिटी मोड में आने का विचार है मेरा।


Himanshu Sharma is a young film writer from India. He's from Lucknow, at present based in Mumbai. He's written three successful Hindi films so far - Tanu Weds Manu (2011), Ranjhanaa (2013), Tanu Weds Manu Returns (2015). The last one released on May 22 this year. For all the three films he has collaborated with director Anand Rai. He's writing two more scripts at the moment. One of them will be directed by Rai and the other one will be his directorial debut. Both will be romantic dramas situated in Lucknow.
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Thursday, October 9, 2014

कोई भी मुश्किल ऐसी नहीं है जिसका हल न हो और मेरा एक बड़ा उसूल है कि बड़ा फोकस नहीं रखतीः समृद्धि पोरे

 Q & A. .Samruddhi Porey, Director Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte-The Real Hero.



मला आई व्हायचय! समृद्धि पोरे की पहली फिल्म थी। इसे 2011 में सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। बॉम्बे हाईकोर्ट में सरोगेट मदर्स के मामलों से उनका सामना हुआ और उन्होंने इसी कहानी पर ये फिल्म बनाई। एक विदेशी औरत एक महाराष्ट्रियन औरत की कोख किराए पर लेती है। उसे गोरा बच्चा होता है लेकिन बाद में मां पैसे लेने से इनकार कर देती है और बच्चा नहीं देती। फिर वही बच्चा मराठी परिवेश में पलता है। आगे भावुक मोड़ आते हैं। समृद्धि कानूनी सलाहकार के तौर पर मराठी फिल्म ‘श्वास’ से जुड़ी थीं और इसी दौरान उन्होंने फिल्म निर्देशन में आने का मन बना लिया। कहां वे कानूनी प्रैक्टिस कर रही थीं और कहां फिल्ममेकिंग सीखने लगीं। फिर उनकी पहली फिल्म ये रही। अब वे एक और सार्थक फिल्म ‘हेमलकसा’ लेकर आ रही हैं। इसका हिंदी शीर्षक ये है और मराठी शीर्षक ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ है। रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित समाजसेवी प्रकाश आमटे और उनकी पत्नी मंदाकिनी के जीवन पर ये फिल्म आधारित है। इसमें इन दो प्रमुख भूमिकाओं को नाना पाटेकर और सोनाली कुलकर्णी ने निभाया है। फिल्म 10 अक्टूबर को हिंदी, मराठी व अंग्रेजी भाषा में रिलीज हो रही है। विश्व के कई फिल्म महोत्सवों में इसका प्रदर्शन हो चुका है। इसे लेकर प्रतिक्रियाएं श्रद्धा, हैरत और प्रशंसा भरी आई हैं।

प्रकाश आमटे, प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आमटे के पुत्र हैं। बाबा आमटे सभ्रांत परिवार से थे। उनके बारे में ये सुखद आश्चर्य वाली बात है कि वे फिल्म समीक्षाएं किया करते थे, ‘पिक्चरगोअर’ मैगजीन के लिए। वर्धा में वे वकील के तौर पर प्रैक्टिस करते थे। ये आजादी से पहले की बात है। वे स्वतंत्रता संग्राम में भी शामिल हुए। गांधी जी के आदर्शों से प्रभावित बाबा आमटे गांधीवादी बन गए और ताउम्र ऐसे ही रहे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा करनी शुरू की। तब समाज में कुष्ठ को कलंक से जोड़ कर देखा जाता था और इसे लेकर अस्पर्श्यता थी। आजादी के तुरंत बाद उस दौर में बाबा आमटे ने ऐसे रोगियों और कष्ट में पड़े लोगों के लिए महाराष्ट्र में तीन आश्रम खोले। उन्हें गांधी शांति पुरस्कार, पद्म विभूषण और रमन मैग्सेसे से सम्मानित किया गया। डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद अपना शहरी करियर छोड़ बेटे प्रकाश आमटे भी गढ़चिरौली जिले के जंगली इलाके में आ गए और 1973 में लोक बिरादरी प्रकल्प आश्रम खोला और आदिवासियों, पिछड़े तबकों और कमजोरों की चिकित्सा करने लगे। बच्चों को शिक्षा देने लगे। उनका केंद्र महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमाओं से लगता था और वहां के जंगली इलाकों में मूलभूत रूप में रह रहे लोगों के जीवन को सहारा मिला। उनकी एम.बी.बी.एस. कर चुकीं पत्नी मंदाकिनी भी इससे जुड़ गईं। बाबा आमटे के दूसरे पुत्र विकास और उनकी पत्नी भारती भी डॉक्टर हैं और वे भी सेवा कार्यों से जुड़ गए। आज इनके बच्चे भी गांधीवादी मूल्यों पर चल रहे हैं और अपने-अपने करियर छोड़ समाज सेवा के कार्यों को समर्पित हैं।

Cover of Ran Mitra
प्रकाश और मंदाकिनी आमटे को 2008 में उनके सामाजिक कार्यों के लिए फिलीपींस का सार्थक पुरस्कार रमन मैग्सेसे दिया गया। उनके अनुभवों के बारे में प्रकाश की लिखी आत्मकथा ‘प्रकाशवाटा’ और जंगली जानवरों से उनकी दोस्ती पर ‘रान मित्र’ जैसी किताब से काफी कुछ जान सकते हैं। जब उन्होंने गढ़चिरौली में अपने कार्य शुरू किए, उसी दौरान उन्होंने वन्य जीवों के संरक्षण का काम भी शुरू किया। आदिवासी पेट भरने के लिए दुर्लभ जीवों, बंदरों, चीतों, भालुओं का शिकार करके खा जाते थे। प्रकाश ने देखा कि उनके बच्चे पीछे भूखे बिलखते थे तो उन्होंने भोजन के बदले मारे गए जानवरों के बच्चे आदिवासियों से लेकर अपने जंतुआलय की शुरुआत की। लोक बिरादरी प्रकल्प, इस जंतुआलय और करीबी इलाके को हेमलकसा के नाम से जाना जाता है। इसी पर फिल्म का हिंदी शीर्षक रखा गया है। यहां शेर, चीते, भालू, सांप, मगरमच्छ, लकड़बग्गे और अन्य जानवर रहते हैं। प्रकाश उन्हें अपने हाथ से खाना खिलाते हैं, उनके साथ खेलते हैं और उनके बीच एक प्रेम का रिश्ता दिखता है। समृद्धि ने अपनी फिल्म में ये रिश्ता बयां किया है। महानगरीय संस्कृति के फैलाव और प्रकृति से हमारे छिटकाव के बाद जब हेमलकसा जैसी फिल्में आती हैं तो सोचने को मजबूर होते हैं कि हमारी यात्रा किस ओर होनी थी। सफलता, करियर, समृद्धि, आधुनिकता, निजी हितों के जो शब्द हमने चुन लिए हैं, उनके उलट कुछ इंसान हैं जो मानवता के रास्ते से हटे नहीं हैं। उनकी महत्वाकांक्षा प्रेम बांटने और दूसरों की सहायता करने की है। और इससे वे खुश हैं। ‘हेमलकसा/डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ ऐसी फिल्म है जिसे वरीयता देकर देखना चाहिए। इसलिए नहीं कि फिल्म को या फिल्म के विषय को इससे कुछ मिलेगा, इसलिए कि हमारी जिंदगियों में बहुत सारी प्रेरणा, ऊर्जा और दिशा आएगी। खुश होने और एक बेहतर समाज बनाने की कुंजी मिल पाएगी।

इस फिल्म को लेकर समृद्धि पोरे से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैः

फिल्म को लेकर अब तक सबसे यादगार फीडबैक या कॉम्प्लीमेंट आपको क्या मिला है?
बहुत सारे मिले। …मुझसे पहले आमिर खान प्रोडक्शंस प्रकाश आमटे जी के पास पहुंच गया था। उन्हें ये अंदाजा हो गया था कि कहीं न कहीं ये कहानी विश्व को प्रेरणा दे सकती है। मैं वहां प्रकाश आमटे जी के साथ रही 15-20 दिन। मैंने कहा, मुझे आपकी जिंदगी पर फिल्म बनानी है। उन्होंने इसके अधिकार आमिर खान जी को दिए नहीं थे, लेकिन वो सारे काग़जात वहां पड़े हुए थे। मैं सोच रही थी कि नतीजा जो भी होगा, कोई बात नहीं, क्योंकि कोई बना तो रहा है। तब मुझे अपनी पहली फिल्म के लिए दो नेशनल अवॉर्ड मिल चुके थे। ऐसे में दर्शकों को ज्यादा उम्मीदें थीं। मेरी भी इच्छा थी कि इस बार फिर किसी सामाजिक विषय पर काम करूं। दूसरी फिल्म में भी मैं समाज को कुछ लौटाऊं। इसी उधेड़-बुन में मैंने कहा, “भाऊ (प्रकाश जी को मैं इसी नाम से बुलाती हूं), कोई बात नहीं, कोई तो बना रहा है”। वे ऐसे इंसान हैं जो ज्यादा बोलते नहीं हैं, बस कोने में चुपचाप काम करते रहते हैं। लेकिन अगर सही मायनों में देखें तो इतना विशाल काम है। शेर, चीते यूं पालना कोई खाने का काम नहीं है। पर वे करते हैं। उसमें भी उन्हें सरकार की मदद नहीं है। तो मन में था कि मैं कुछ करूं। मैं सोच रही थी कि आमिर खान बैनर के लोग करेंगे तो भी ठीक। बड़े स्तर पर ही करेंगे।

Dr. Mandakini, Samruddhi & Prakash Amte
भाऊ पर 11 किताबें लिखी जा चुकी हैं, मैं सब पढ़कर गई थी। मैं जब वहां रही तो उनसे पूछती रहती थी कि ये क्या है? वो क्या है? ये कब हुआ? वो कब हुआ? इन सारे सवालों के जवाब वे देते चले जाते थे। सुबह 5 बजे हम घूमने जाते थे। साथ में शेर होता था, मंदाकिनी भाभी होती थीं। जो-जो वे करते थे, मैं करती थी। कुछ दिन बाद मैं मुंबई आ गई। सात दिन बाद में उन्होंने ई-मेल पर अपनी बायोपिक के पूरे एक्सक्लूसिव राइट्स मुझे मेल कर दिए। सारी भाषाओं के। उन्होंने कहा कि “जब समृद्धि हमारे साथ 15-20 दिन रही तो हमें लगा कि 40 साल से जो काम हम कर रहे हैं, उसे वो जी रही थी। हमें लगा कि वो बहुत योग्य लड़की है और हमारे काम को सही से जाहिर कर सकती है”। तो भगवान के इस आशीर्वाद के साथ मेरी जो शुरुआत हुई वो अच्छा कॉम्प्लीमेंट लगा।

फिल्म बनने के बाद भी कई लोगों ने सराहा। अभी मैं स्क्रीनिंग के लिए कैनेडा के मॉन्ट्रियल फिल्म फेस्टिवल गई थी जहां फोकस ऑन वर्ल्ड सिनेमा सेक्शन में पूरे विश्व की 60 फिल्में दिखाई गईं। उनमें अपनी फिल्म ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ चुनी गई थी। भारत से ये सिर्फ एक ही फिल्म थी। और जिन-जिन की फिल्में वहां थीं, उन मुल्कों के झंडे लगाए गए थे। तिरंगा मेरे कारण वहां लहरा पाया, ये आंखों में पानी लाने वाला पल था। लंदन में थे तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने नानाजी और मुझे खास न्यौता दिया कि एक प्रेरणादायक व्यक्ति पर फिल्म बनाई है। ये सब यादगार पल हैं लेकिन जो मुझे सबसे ज्यादा बढ़िया लगा वो ये कि फिल्म बनने के बाद सिंगापुर में मैंने प्रकाश आमटे जी को पहली बार दिखाई। फिल्म शुरू होने के पांच मिनट बाद ही उनकी एक आंख रो रही थी और होठ हंस रहे थे। मैं पीछे बैठी थी, मोहन अगाशे मेरे साथ थे। उनका हाथ कस कर पकड़ रखा था क्योंकि मैं बहुत नर्वस थी। जिन पर मैंने फिल्म बनाई उन्हें ही अपने साथ बैठाकर फिल्म दिखा रही हूं, ये मेरी लाइफ का बड़ा अद्भुत पल था। फिल्म पूरी होने के बाद वे बहुत रो रहे थे क्योंकि उन्हें बाबा आमटे, अपना बचपन और बिछड़े हुए लोग जो चले गए हैं, वो सब दिख रहा था। उनकी खासियत ये है कि वे सब पर विश्वास करते हैं। चाहे सांप हो या अजगर। तो फिल्म बनाने के प्रोसेस में उन्होंने मुझे कभी नहीं टोका। उन्होंने मुझ पर जो विश्वास किया था मुझे लग रहा था कि क्या मैं उसे पूरा कर पाई हूं।

स्क्रीनिंग खत्म होने के बाद जैसे ही मैं उनके सामने पहुंची, उन्होंने मुझे एक ही वाक्य कहा, “तुमने क्या मेरे बचपन से कैमरा ऑन रखा था क्या? इतनी सारी चीजें तुम्हें कैसे पता चली? क्योंकि मैंने किसी को बताई नहीं”। मुझे ये सबसे बड़ा और उच्च कॉम्प्लीमेंट लगा। उसके बाद मुझे कोई भी अवॉर्ड उससे छोटा ही लगता है।

फिल्म के आपने नाम दो रखे, मराठी और हिंदी संस्करणों के लिए, उसकी वजह क्या थी? जैसे ‘हेमलकसा’ है, मुझे लगता है ये दोनों वर्जन के लिए पर्याप्त हो सकता था। ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ भी दोनों में चल सकता था।
बहुत ही बढ़िया क्वेश्चन पूछा आपने। कारण है। दरअसल प्रकाश आमटे जी का साहित्य मराठी में बहुत प्रसिद्ध है। देश के बाहर भी, लेकिन बाकी महाराष्ट्र और भारत में उनके बारे में ज्यादा नहीं पता है। लोग मेरे मुंह के सामने उन्हें बाबा आमटे कहते हैं। कहते हैं कि ये फिल्म बाबा आमटे पर बनाई है। बाबा आमटे ने कुष्ठ रोग से पीड़ितों के लिए बहुत व्यापक काम किया। प्रकाश जी उन्हीं के असर में पले-बढ़े और उसके बाद उन्होंने वहां एक माडिया गोंड आदिवासी समुदाय है जिसके लोग कपड़े पहनना भी नहीं जानते, उनके बीच काम किया। उनकी वाइफ मंदाकिनी सिर्फ अपने पति का सपना पूरा करने के लिए इस काम में उनके साथ लगीं, जबकि इसमें उनका खुद का कुछ नहीं था। दोनों के बीच एक अनूठी लव स्टोरी भी रही। जिस इलाके में उन्होंने काम किया वो नक्सलवाद से भरा है। वहां काम करना ही बड़ी चुनौती है। मैं भी बंदूक की नोक पर वहां रही। अब तो वे हमें जानने लगे हैं। ऐसे इलाके में जान की परवाह न करते हुए प्रकाश जी काम करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वहां के लोगों के बच्चे बंदूक थाम लेते हैं तो पीछे लौटने का रास्ता नहीं बचता। लेकिन प्रकाश जी ने इसे भी झुठलाया है। उन्होंने इन बच्चों को इंजीनियर-डॉक्टर बना दिया है। आज कोई न्यू यॉर्क में काम कर रहा है, कोई जापान में काम कर रहा है, कोई जर्मनी में। ये ऐसे बच्चे थे जिन्हें कोई भाषा ही नहीं आती थी। उन बच्चों को लेकर पेड़ के नीचे उन्होंने स्कूल शुरू किया था, आज वो जापान जैसे मुल्कों में बड़े पदों पर हैं।

तो ये इतनी विशाल कहानी थी। पहले तो मुझे हिंदी में ये कहानी समझानी थी। मराठी में प्रकाश जी को चाहने वाले लोग हैं, तो वहां पर मुझे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे के सिवा कोई और नाम नहीं रखना था। लोग इंटरनेशनली गूगल करते हैं और प्रकाश जी का नाम डालते हैं तो जानकारी आ जाती है। पूना, कोल्हापुर, शोलापुर में उन्हें सब नाम से जानते हैं। वहां लोग अपने बच्चों को उन पर लिखी कहानियों की किताब लाकर देते हैं। मुझे पता था मराठी में उनके नाम में ही वैल्यू है। लेकिन हिंदी के लिए मुझे लगा कि एक सामाजिक पिक्चर है वो कहीं बह न जाए। हेमलकसा क्या है? लोगों को पता ही नहीं है। उसका अर्थ क्या है? वहीं से जिज्ञासा पैदा हो जाती है। कि नाना पाटेकर इस फिल्म में काम कर रहे हैं, पोस्टर में शेर के साथ दिख रहे हैं लेकिन ये हेमलकसा क्या है? इसका अर्थ क्या है? ये जानने के लिए लोग खुद ढूंढ़ेंगे।

हेमलकसा ऐसी जगह है जो बहुत साल तक भारत के नक्शे पर ही नहीं थी। नक्सलवाद के बड़े केंद्रों में से एक था। कई स्टेट पहले मना करते थे कि ये हमें हमारे दायरे में नहीं चाहिए। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बिलकुल किनारे पर हेमलकसा है। वहां जाने के लिए 27 नदियां पार करनी पड़ती हैं। वहां तीन नदियों का संगम है। भारत में नदियों के संगम पर ऐसी कोई जगह नहीं जहां मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा नहीं हो, लेकिन वहां पर प्रकाश आमटे जी ने होने ही नहीं दिया। वो ईश्वर सृष्टि को मानते हैं। तो मैं हेमलकसा से कहानी को जोड़ना चाहती थी। प्रकाश आमटे बोलो तो लोग सिर्फ सामाजिक कार्यों का सोचकर भूल जाते हैं। लेकिन मुझे ज्यादा से ज्यादा लोगों से हेमलकसा का परिचय करवाना था। कि इसका मतलब क्या है, ये कहां है।

ये सवाल मुझे बहुत महत्वपूर्ण तो नहीं लगता है लेकिन हर बार पूछना चाहता हूं कि सार्थक और छोटे बजट की फिल्में जब रिलीज होती हैं तो उनका सामना बॉलीवुड की करोड़ों की लागत वाली फिल्मों से होता है। क्या ऐसी फिल्मों से आपको कोई चुनौती महसूस होती है? आपका ध्यान किस बात पर होता है?
बराबर है कि लोग करोड़ों की फिल्में बनाते हैं और उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना होता है। लेकिन मुझे वैसी नहीं बनानी, पहले से ही स्पष्ट है। मेरा इस फिल्म को बनाने का पहला कारण ये था कि मुझे प्रकाश आमटे जी की कहानी में एक फिल्म की कहानी नजर आई। उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है। हर आदमी कहता कि जो आप दिखा रहे हो वो सच में है क्या। विदेशों में स्क्रीनिंग के दौरान मुझसे बार-बार लोगों ने पूछा है। कि क्या ऐसा आदमी सच में है। मैं कहती हूं वे अभी भी जिंदा हैं। आप जाइए हेमलकसा और देखिए कैसे शेरों और भालुओं के साथ प्रकाश आमटे जी खेल रहे हैं। हम लोग जब उन जानवरों के पास जाते हैं तो वो नाखुन निकालते हैं, लेकिन उनको कुछ नहीं कहते है। क्योंकि कहीं न कहीं बॉन्डिंग है आपस में। तो ये अद्भुत कहानी है। आज भी घट रही है और लोगों को पता नहीं है। अब आपका सवाल, तो मुझे दुख नहीं होता बड़ी फिल्मों से मुकाबला करके। मेरी पहली फिल्म ने 37 अवॉर्ड जीते थे। दुनिया घूम ली। ये फिल्म भी अब तक 17 इंटरनेशनल अवॉर्ड जीत चुकी है। मॉन्ट्रियल जैसे बड़े फिल्म महोत्सवों में इसका प्रीमियर हुआ है। शिकागो फिल्म फेस्टिवल से बुलावा आया। यंग जेनरेशन के लोग ये फिल्म देखते हैं तो सुन्न हो जाते हैं, थोड़ी देर मुझसे बात नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे बेकार जीवन जी रहे हैं। जैसे, सिंगापुर।

वहां हमारा शो होना था। चूंकि फिल्म का नाम ऐसा था और उसमें कोई इंटरनेशनल स्टार नहीं था तो टिकट बिक नहीं रही थी। सब इंग्लिश फिल्म देखने वाले बच्चे हैं। स्क्रीनिंग से पहले कुछ सीटें खाली पड़ी थीं तो हमारे आयोजक ने कुछ अनिच्छुक युवाओं को भी बुला लिया। वो बैठ गए। फिल्म पूरी होने के बाद सेशन के दौरान वो लड़के कोने में खड़े रहे। उनके बदन में टैटू वगैरह थे और वेस्टर्न फैशन वाले अजीब कपड़े पहन रखे थे। वे खड़े रहे ताकि समय मिलने पर बात कर सकें। जब मिले तो एकदम गिल्टी फील के साथ जैसे कोई गुनाह कर दिया हो, “हम आना नहीं चाहते थे पहले तो। जबरदस्ती ही आए थे। अब लग रहा है कि हम बहुत फालतू जिए हैं आज तक। हम इंडिया से यहां आकर बस गए हैं। बहुत पैसे कमा रहे हैं। डॉलर घर भी भेज रहे हैं। हमें लगता था कि हम सक्सेसफुल हैं, पर अब लगता है जीरो हैं। ये आदमी (प्रकाश आम्टे) तो जांघिया-बनियान पहनकर भी सबसे बड़ा विनर है दुनिया का। हम तो बड़ी गाड़ियों, चमक-धमक और दुनिया घूमने को ही अपनी उपलब्धि मान रहे थे”। वे लड़के पूरी तरह सुन्न हो गए थे। उनका कहना था कि “हमें कुछ तो अब करना है”। वे आदिवासियों के बीच आकर रुकना वगैरह तो कर नहीं सकते थे तो बोले कि “एक मेहरबानी करें, हम साल में एक बार कॉन्सर्ट करते हैं, ये उसके पैसे हैं, ये प्रकाश जी को दे दें। ये हमारा एक छोटा सा योगदान हो जाएगा। आप काम कर रहे हैं, करते रहें, हमसे सिर्फ पैसे ले लें”।

लोगों की जिदंगी में ऐसे-ऐसे छोटे बदलाव भी आ जाएं तो मुझे लगता है वो मेरा सबसे बड़ा अवॉर्ड होगा। शाहरुख खान की फिल्म करोड़ों कमा रही है तो मुझे वो नहीं चाहिए। मेरी सिर्फ एक चाह है कि मेरा मैसेज लोगों तक पहुंचे। पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचे। समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं। उनका संदेश लोगों तक पहुंचा सकूं तो मेरा जीवन भी सार्थक होगा।

प्रकाश जी का जीवन इस फिल्म में है, वैसे ही क्या बाबा आमटे और विकास आमटे की कहानी भी इसमें है?
Baba Amte & Prakash
पूरा आमटे परिवार ही सामाजिक कार्यों में जुटा है। हम लोग एक महीने की तनख्वाह भी किसी को नहीं दे सकते, किसी की सेवा नहीं कर सकते। मैं भी अगर जीवन के इस मुकाम पर सोचूं कि रास्ते के रोगी का घर लाकर इलाज करूं तो नहीं कर सकती। लेकिन बाबा आमटे ने वो काम किया है। वो भी अलग-अलग इतनी बड़ी कहानियां हैं कि एक फिल्म में सबको नहीं कहा जा सकता है। उनमें से मैंने प्रकाश जी की ही बायोपिक बनाई है अभी। उनके जीवन में पिता का जितना रोल होना चाहिए, भाई का जितना रोल होना चाहिए, मां का जितना रोल होना चाहिए, और बच्चों का, अभी उतना ही लिया है मैंने।

आपने नाना पाटेकर को प्रकाश जी के मैनरिज्म या अंदाज को लेकर ब्रीफ किया या सब उन्हीं पर छोड़ दिया? जैसे फिल्म में एक दृश्य है जहां वे प्रकाश आमटे जी के किरदार में आगंतुकों के सामने अपने प्रिय तेंदुओं व जंतुओं के साथ खेल रहे होते हैं।
नहीं, नहीं, नाना जी को एक्टिंग सिखाने वाला कोई पैदा नहीं हुआ है। प्रकाश आमटे और नाना बहुत सालों से एक-दूसरे को जानते हैं। बाबा आमटे के तीसरे बेटे के तौर पर नाना बड़े हुए हैं। वे तब से उस परिवार का हिस्सा हैं जब वे बतौर एक्टर कुछ भी नहीं थे। उसका फायदा मुझे फिल्म में मिला। इसके अलावा उनके जंतुआलय में जो प्राणि हैं वो अब नए हैं, तो उनके साथ काम करना था। हम लोग शूट से एक महीना पहले ही वहां चले गए थे। नाना जी ने बहुत मेहनत की। मैंने जो-जो स्क्रिप्ट में उनके किरदार के बारे में लिखा था, उन्होंने किया। जैसे, मैंने एक जगह लिखा था कि जब वे शेर के साथ नदी में नहाते हैं तो लौटते हुए उनके बदन पर टैनिंग का दाग दिखता है। तो वो टैनिंग का दाग मुझे चाहिए थे। उसके लिए भी नाना जी ने धूप में जल-जल के टैनिंग की। ऐसे बहुत सारे दृश्य और जरूरतें थीं। मेरे मन में थी। जब-जब मैंने उसे शेयर की, उन्होंने वो किया। जब तक मेरा मन संतुष्ट नहीं होता था, वे उतनी बार रीटेक्स करवाते थे। प्राणियों के साथ भी उन्होंने काफी वक्त बिताया, उन्हें खाना खिलाया, उनके साथ खेले। थोड़े बहुत शेर के नाखुन भी उन्हें लगे। पेट पर लगे, पीठ पर लगे। उनसे रिकवर होने के बाद उन्होंने फिर प्राणियों से दोस्ती बनाई। फिल्म में अगर वो शेर और तेंदुए के साथ इतने सहज दिख रहे हैं वो इसलिए कि उनकी दोस्ती पहले से ही हो चुकी है।

फिल्ममेकर क्यों बनीं? इतना जज़्बा इस पेशे को लेकर क्यों था?
मैं ये कहना चाहूंगी कि फिल्ममेकर बना नहीं जाता, फिल्ममेकर के तौर पर ही पैदा होते हैं। क्योंकि मैं वैसे पेशे से तो, आपको पता होगा, हाई कोर्ट (बॉम्बे हाई कोर्ट) में वकील हूं। मैं सरोगेट मदर विषय पर केस भी लड़ रही थी। कि कितना बड़ा कारोबार चल रहा है भारत में इस पर। जो पूरा स्कैंडल था। एक वकील के तौर पर मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी क्योंकि एग्रीमेंट हो चुका था दोनों मांओं में। मैंने देखा कि जो सरोगेट मदर्स यहां से भाड़े पर लेती हैं यूरोपियन लेडीज़ वो इसलिए क्योंकि अपना वजन खराब नहीं करना चाहतीं। 2002 में हमारे यहां कायदा बना। उससे सरोगेट मदर्स गैर-कानूनी नहीं है पर उनके लिए फायदेमंद भी नहीं है। पता चला कि ब्रोकर्स बहुत बीच में आ गए हैं। जितनी भी भारतीय महिलाएं अपनी कोख भाड़े पर देती थीं उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था। उनसे कहीं भी अंगूठा लगवा लिया जाता था। वो पैसे की मजबूरी में या बच्चे पालने के लिए इस ट्रेड में शामिल हो जाती थीं। कहीं भी अंगूठा लगा रही हैं, पता नहीं कितना जीरो लगता है, कितना लाख मिलता है? अभी एक प्रेगनेंसी के पीछे 10 से 12 लाख भाव चल रहा है भाड़े की कोख का। मैंने ब्रोकर्स को देखा है कि 9 लाख प्लस रखकर एक लाख उस लेडी को प्रेगनेंसी के नौ महीनों के बाद देते हैं। ये सब बहुत इमोशनल था। औरतें नौ महीने के बाद बच्चा हाथ में आता तो दूध पिलाती थीं और फिर कहती कि पैसा नहीं चाहिए बच्चा मेरा है। होता है न। गोरा बच्चा लेकर भाग गई। ये सारा कुछ इमोशनली इतना अजीब था कि मुझे लगा कहीं न कही फिल्म बनानी चाहिए। उस कहानी के साथ आगे बढ़ने के लिए मैंने खुद को फिल्ममेकिंग क्लास में डाला। फिल्ममेकिंग सीखी मुंबई यूनिवर्सिटी से। वहां मैंने एक छोटी फिल्म बनाई जो पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आई थी। मुझे भरोसा हुआ कि मैं फिल्म बना सकती हूं। ये सबसे प्रभावी माध्यम है कहानियां कहने का तो इनके जरिए समाज के लिए कुछ कर सकूं तो सबसे बढ़िया रहेगा। क्योंकि सारे लोग सिर्फ बोलते हैं। मुझे लगा चित्र के साथ बोलो तो लोग सुनते हैं।

आपके बचपन के फिल्मी इनफ्लूएंस क्या-क्या रहे? कहानियों के लिहाज से असर क्या-क्या रहे?
रोचक बात है कि मुझे खुद को भी नहीं पता। अभी मैं सोचूं कि कब से आया होगा ये सब? एक तो मेरी मम्मी बहुत पढ़ती थी। ऐतिहासिक पात्र व अन्य। वो पढ़ने के बाद रोज दोपहर को या सोते समय मुझे व मेरे छोटे भाई को कहानी बताती थी। उनके बताने का स्टाइल ऐसा था कि आंखों के सामने चित्र बन जाते थे। उन्हें मैं विजुअलाइज कर पाती थी। दूसरा, फिल्में बहुत कम देखने को मिलती थी। तुकाराम महाराज वाली या बच्चों वाली ही देखने को मिलती थी। धीरे-धीरे मम्मी-पापा के पीछे लगकर फिल्म देखना शुरू कर दिया। फिर मेरी जो चार-पांच दोस्त थीं, उन्हें बोलती थी कि तुम्हे फिल्म बताऊं कि कहानी बताऊं? अगर फिल्म बतानी है तो मैं सीनवाइज़ बताती थी कि वो ब्लैक कलर की ऊंची ऐड़ी की सैंडल पहनकर आती है और हाथ में कप होता है जिसमें पर्पल कलर के फूल होते हैं.. वही कप पिक्चर में भी होता था। मतलब पूरी की पूरी फिल्म इतनी बारीकी से ऑब्जर्व होती थी फिर दो-चार लड़कियों से आठ लड़कियां मेरी कहानी सुनने आती, फिर दस, फिर बारह, फिर सारा मुहल्ला। फिर धीरे-धीरे ये होने लग गया कि डायेक्टर का सीन कुछ और होता था और मुझे लगता था कि ये सीन ऐसा होता तो ठीक होता, ऐसी कहानी होती तो और अच्छी लगती। तो उन कहानियों में मैंने अपने इनपुट डालने शुरू कर दिए। अगर गलती से किसी ने देख ली होती फिल्म, तो कहती कि अरे ये तो कुछ और ही बता रही है। अगर 8-10 लड़कियों को कहानी में इंट्रेस्ट आने लग जाता था तो उस बेचारी को बाहर निकाल देती थी कि तेरे को नहीं सुनना तो तू जा, हमें सुनने दे। मुझे लगा कि तब से ये आ गया।

लेकिन शुरू में इस तरह आने का इरादा इसलिए नहीं बना क्योंकि हमारे यहां माहौल ऐसा था कि जो लड़के फिल्म देखने जाते हैं वो बिगड़े हुए हैं। फिल्म क्षेत्र शिक्षा का हिस्सा नहीं माना जाता था। कोई प्रोत्साहन नहीं था। तो मैंने बीएससी माइक्रो किया, लॉ की पढ़ाई की, कुछ दिन गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में काम भी किया, 15 साल प्रैक्टिस की। इन सबके बीच में लिखती रही। लिख-लिख के रख दिया। आज मेरे पास दस फिल्मों की कहानियां और तैयार हैं। इस बीच सरोगेसी वाला केस आया। इसी दौरान मैंने मराठी फिल्म ‘श्वास’ की टीम के साथ लीगल एडवाजर के तौर पर काम किया। तो एक-दो महीना उनकी मीटिंग्स में जाकर मैंने और मन पक्का कर लिया। घंटों निकल जाते थे लेकिन मैं बोर नहीं होती थी। तब मन इस तरफ पूरी तरह झुक गया।

'श्वास' का आपने जिक्र किया। अभी अगर क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो मराठी में बेहद प्रासंगिक फिल्में बन रही हैं। यहां के समाज में ऐसा क्या है कि सार्थक सिनेमा नियमित रूप से आता रहता है?
यहां साहित्य बहुत है। घर में बच्चों में पढ़ने का संस्कार डाला जाता है। जैसे बंगाल में रविंद्रनाथ टैगोर का है। मुझे लगता है कि आपके बचपन से ही ये मूल रूप से आ जाता है। रानी लक्ष्मीबाई हैं, शिवाजी महाराज हैं, विनोबा भावे हैं, गांधी जी हैं, इन सबकी कहानियां स्कूली किताबों में भी होती हैं। परवरिश में वही आ जाता है। इन कहानियों से मन में भाव रहता है कि समाज के प्रति आपका कोई ऋण है और वो आपको चुकाना है।

आपने कहा कुछ कहानियां आपकी तैयार हैं। कैसे विषय हैं जिनमें आपकी रुचि जागती है? जिन पर भविष्य में फिल्में बना सकती हैं?
जैसे सात रंग में इंद्रधनुष बनता है, वैसे ही मुझे सातों रंगों की फिल्में बनानी हैं। मुझे कॉमेडी बनानी है, हॉरर बनानी है, लव स्टोरी बनानी है... लेकिन सब में कुछ ऐसा होगा कि तुम्हारी-मेरी कहानी लगेगी। ऐसा नहीं लगेगा कि तीसरी दुनिया की कोई चीज है। फिल्में ऐसी बनाऊं जो बोरियत भरी भी न हों। पर उनमें सार्थकता होती है। असल जिंदगी में लोग मुझसे रोज मदद मांगते हैं तो लगता है कहीं न कहीं मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि लोगों के काम आ पा रही हूं। वो आते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये पूरा कर सकती है। कोई आपको मानता है ये बहुत बड़ा सम्मान है। मुझे लगता है सामाजिक फिल्में बनाने के कारण लोगों का मेरी ओर देखने का नजरिया ऐसा हो गया है। तो मैं उसे भी कम नहीं होने देना चाहती। एंटरटेनमेंट के क्षेत्र में हूं तो मनोरंजन तो करना ही चाहिए लेकिन इसके साथ आपको कुछ (संदेश) दे भी सकूं तो वो मेरी उपलब्धि है।

दुनिया में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं?
मैं ईरानियन फिल्मों की बहुत मुरीद हूं। माजिद मजीदी की कोई भी फिल्म मैंने छोड़ी नहीं है। उनकी फिल्में सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं मुझे।

भारत में कौन हैं? सत्यजीत रे, बिमल रॉय, वी. शांताराम?
जी। मैंने सभी फिल्में तो इनकी नहीं देखी हैं लेकिन वी. शांताराम जी की ‘दो आंखें बारह हाथ’ बहुत अच्छी है। इतने साल पहले, ब्लैक एंड वाइट के दौर में, ऐसा सब्जेक्ट लेकर बनाना, हैट्स ऑफ है। बारह कैदियों को लेकर, एक लड़की, मतलब सारी चीजें हैं। कैसे वो आदमी सोच सकता है। उस जमाने में। जब सिर्फ रामलीला और ये सारी चीजें चलती थीं।

आप इतने फिल्म फेस्टिवल्स में गई हैं। वहां दुनिया भर से आप जैसे ही युवा व कुशल फिल्मकार आते हैं। उनकी फिल्मों, विषयों और स्टाइल को लेकर अनुभव कैसा रहा? उनका रिएक्शन कैसा रहा?
सबसे पहले तो बहुत गर्व महसूस होता है कि मराठी फिल्ममेकर बोलते ही लोगों के देखने का नजरिया बदल जाता है। क्योंकि देश से बाहर क्या है, बॉलीवुड, बस बॉलीवुड और बॉलीवुड मतलब सपने ही सपने। फिल्म फेस्टिवल्स में जाकर कहती हूं कि मराठी फिल्ममेकर हूं तो उनके जेहन में आता है कि तब कुछ तो अलग सब्जेक्ट लेकर आई होगी। अन्य देशों के फिल्ममेकर्स की फिल्में देखकर लगता है कि टेक्नीकली वे बहुत मजबूत हैं। बाहरी मुल्कों में यंगस्टर्स इतनी नई सोच लेकर आते हैं, समझौता जैसे शब्द वे नहीं जानते कि भई काम चला लो। नहीं। वे बहुत प्रिपेयर्ड होते हैं, उनका टीम वर्क दिखता है। यही लगता है कि हमारे पास इतने ज्यादा आइडिया और कहानी होती हैं लेकिन हम टेक्नीक में कम पड़ जाते हैं। बजट की दिक्कत होती है। ये सब हल हो जाएगा तो न जाने हिंदुस्तानी फिल्में क्या करेंगी।

और एक बहुत जरूरी बात मुझे कहनी है कि जब हम भारत से बाहर जाते हैं तो एक होता है कि फिल्मों से आपके देश का चित्र तैयार हो जाता है लोगों के मन में। तब बाहर ‘डेल्ही बैली’ या ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, कोई फिल्म लगी थी। उसे सभी ने देखा। उसमें मुझे लगा कि अतिशयोक्ति की गई। जैसे पोट्टी में वो बच्चा भीग गया, ऐसे कहीं नहीं होता है हमारे यहां। ठीक है, गरीबी है हमारे यहां पे, पर ऐसा नहीं होता है। वे गलत दिखा रहे हैं और कैश कर रहा है बाहर का आदमी। ये मुझे अच्छा नहीं लगा। ये हमारी जिम्मेदारी है। जैसे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे जिन्होंने भी देखी है, उन्हें लगा है कि एक पति-पत्नी का रिश्ता ऐसा भी हो सकता है। हमारे देश का ये इम्प्रेशन कितना अच्छा जाता है। जबकि उन फिल्मों में किरदार और युवा इतनी गंदी भाषा इस्तेमाल कर रहा है। इससे बाहर के लोगों व दर्शकों में चित्रण जाता है कि भारत में आज का युवा ऐसा है। मुझे लगता है कि ये हम फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

गुजरे दौर की या आज की किन महिला फिल्ममेकर के काम का आप बहुत सम्मान करती हैं?
मुझे लगता है कि स्त्री भगवान ने बहुत ही प्यारी चीज बनाई है। वो क्रिएटर है। दुनिया बना सकती है। आपको जन्म देने वाली मां है, जननी है। वो सुंदर है। मन से सुंदर है, तन से सुंदर है। वो जो करती है अच्छा। मुझे लगता है कि इंडिया में जितनी भी लेडी फिल्ममेकर्स हैं वो कुछ नया लेकर आती हैं। कुछ सुंदरता है उनके काम में। पहले की बात करूं तो मैंने सईं परांजपे की फिल्में देखी हैं। बहुत सारी महिला फिल्मकार हैं जिनमें मैं बराबर पसंद करती हूं। सुमित्रा भावे हैं। नंदिता दास भी कुछ अलग बनाती हैं। दीपा मेहता हैं। इनमें मैं खुद को भी शामिल करती हूं।

‘हेमलकसा’ बनाने के बाद आपकी निजी जिंदगी में क्या बदलाव आया है? क्या व्यापक असर पड़ा है?
बहुत फर्क पड़ा है। मैंने 6 बच्चे गोद लिए हैं। मेरी खुद की दो बेटियां हैं। उन 6 बच्चों को घर पर नहीं लाई हूं पर पढ़ा रही हूं। बहुत से लोगों को प्रेरित किया है कि आप बच्चों की एजुकेशन की जिम्मेदारी ले लो, पैसा देना काफी नहीं है। मैं इन बच्चों को प्रोत्साहित करती हूं। बच्चों को जब दिखा कि कोई हम पर ध्यान दे रहा है, डांट रहा है, पढ़ाई का पूछ रहा है तो उनमें इतना बदलाव आया है। आप ईमारतें बना लो, कुछ और बना लो लेकिन बच्चों को अच्छा नागरिक बनाओ तो बात है। उन्हें बनाना नए भारत का निर्माण हैं। इन छह बच्चों में से कोई आकर कहता है कि मुझे मैथ्स नहीं पढ़नी है, मुझे फुटबॉल खेलना है। उस आत्मीयता में जो आनंद है वो मैं बता नहीं सकती। मेरी लाइफ में विशाल परिवर्तन हो गया है।

छोटा सा आखिरी सवाल पूछूंगा, आपकी जिदंगी का फलसफा क्या है? निराश होती हैं तो खुद से क्या जुमला कहती हैं?
कोई भी प्रॉब्लम ऐसी नहीं है जिसका सॉल्यूशन न हो। विचलित न हों। मेरी जिंदगी का एक बड़ा उसूल है कि मैं बड़ा फोकस नहीं करती हूं। मेरा ये फोकस नहीं है कि राष्ट्रपति के पास जाकर आना है। मैं छोटे-छोटे गोल तय करती हूं। वो एक-एक करके पाती जाती हूं। इसके बीच कुछ भी हो तो शो मस्ट गो ऑन। छोटी-छोटी चीजें हैं, सुबह ड्राइवर नहीं आया तो खुद गाड़ी चला हो। बाई नहीं आई तो चलो ठीक है, आज ब्रेड खा लो। कोई बड़ी मुश्किल नहीं होती। ये छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम बड़ा बनाते हैं। दूसरा, मेरी डायल टोन भी है, “आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता दो”। जीभर जिओ। खुद भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो।

Samruddhi Porey is a young Indian filmmaker. She is a practicing lawyer in Mumbai High court as well. Her first film 'Mala Aai Vhaychhy' won the National Award for Best Marathi Film. Now her second movie 'Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte - The Real Hero' is releasing on October 10. This film is based on Dr. Prakash Baba Amte, a renowned social worker and enviornmentalist from Maharashtra in India. Prakash and his wife Dr. Mandakini Amte has been presented the Ramon Magsaysay Award for community leadership, a few years back. Amte family is an inspiration for people across India and around the world. Nana Patekar and Sonali Kulkarni has played the lead roles in the movie.
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Wednesday, May 21, 2014

गॉर्डन विलिस - Godfather of cinematography!


"I spent a lot of time on films taking things out.
Art directors would get very cross with me. If something's not
going well, my impulse is to minimalize. The impulse of most people when something's not going well is to add — too many colors, too many items on a screen, too many lights. If you're not careful, you're lighting the lighting. American films are overlit compared to European ones. I like close-ups shadowy, in profile — which they never do these days... What's needed is 
simple symmetry, but everyone wants massive coverage these 
days because they don't have enough confidence in their work 
and there are way too many cooks in the kitchen."
- Gordon Willis (1931 – 2014), cinematographer
End of the Road [1970], Klute [1971], The Godfather [1972], The Godfather Part II [1974], The Parallax View [1974], All the President's Men [1976], Annie Hall [1977], Interiors [1978], Manhattan [1979], Stardust Memories [1980], Pennies from Heaven [1981], Zelig [1983], Broadway Danny Rose [1984], The Purple Rose of Cairo [1985], The Godfather Part III [1990], The Devil's Own [1997]

पिछले इंटरव्यू में सिनेमैटोग्राफी को लेकर हुई बातों में गॉर्डन विलिस का जिक्र आया ही था। रविवार को फेलमाउथ, मैसाच्युसेट्स में उनकी मृत्यु हो गई। वे 82 बरस के थे। बेहद सीधे-सादे। जैसे सिनेमैटोग्राफर्स होते हैं। फ़िल्मों, दृश्यों और जिंदगी को लेकर उनका नजरिया बेहद सरल था। वे कहते थे कि ‘द गॉडफादर’ या ‘ऑल द प्रेजिडेंट्स मेन’ या ‘मैनहैटन’ जैसी क्लासिक्स बनाने के दौरान उन्होंने सैद्धांतिक होने की कोशिश नहीं की बल्कि सरलतापूर्वक ये सोचा कि परदे पर चीजों को दिखाना कैसे है? उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि आम धारणा को उन्होंने कभी नहीं माना। छायांकन के बारे में लोकप्रिय सोच है कि रोशनी जितनी होगी, तस्वीर उतनी ही अच्छी आएगी, या एक्सपोज़र ठीक होना चाहिए। मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्मों में तो ऐसा हमेशा ही रहा है। गॉर्डन हमेशा अंधेरों में जाते थे। चाहे निर्देशक ख़फा हो, आलोचक या कोई और... वे करते वही थे जो उन्हें सही लगता था। वे कहते भी थे कि “कभी-कभी तो मैंने हद ही पार कर दी”। उनका इशारा दृश्यों में एक्सपोज़र को कम से कम करने और पात्रों के चेहरे पर और फ्रेम के अलग-अलग कोनों में परछाई के अत्यधिक इस्तेमाल से था। लेकिन ये सब वे बहुत दुर्लभ दूरदर्शिता के साथ करते थे। इसकी वजह से फ़िल्मों में अभूतपूर्व भाव जुड़ते थे। दृश्यों का मूड जाग उठता था। सम्मोहन पैदा होता था। कोई संदेह नहीं कि फ्रांसिस फोर्ड कोपोला की ‘द गॉडफादर’ अगर चाक्षुक लगती है, आंखों और दिमाग की इंद्रियों के बीच कुछ गर्म अहसास पैदा करती है तो गॉर्डन की वजह से। वे नहीं होते तो कोपोला की ‘द गॉडफादर सीरीज’ और वूडी एलन की फ़िल्मों को कभी भी क्लासिक्स का दर्जा नहीं मिलता।

इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े निर्देशक दृश्यों के फ़िल्मांकन की योजना बनाते वक्त सिनेमैटोग्राफर के सुझावों और उसकी कैमरा-शैली से जीवनकाल में बहुत फायदा पाते हैं। मणिरत्नम को पहली फ़िल्म ‘पल्लवी अनु पल्लवी’ में बालु महेंद्रा के सिनेमैटोग्राफर होने का व्यापक फायदा हुआ। रामगोपाल वर्मा के पहली फ़िल्म ‘शिवा’ में हाथ-पैर फूले हुए थे और एस. गोपाल रेड्डी के होने का फायदा उन्हें मिला। श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में जितना योगदान उनका है, उतना ही गोविंद निहलाणी का। वी.के. मूर्ति न होते तो क्या गुरु दत्त की ‘काग़ज के फूल’ उतनी अनुपम होती? सत्यजीत रे को शुभ्रतो मित्रो का विरला साथ मिला। गॉर्डन ने भी अपने निर्देशकों के लिए ऐसा ही किया। उन्होंने सिनेमैटोग्राफी के नियमों का पालन करने से ज्यादा नए नियम बनाए। उन्होंने किसी फ़िल्म स्कूल से नहीं सीखा, पर जो वे कर गए उसे फ़िल्म स्कूलों में सिखाया जाता है। 70 के दशक के अमेरिकी सिनेमा को उन्होंने नए सिरे से परिभाषित किया था। वैसे ये जिक्र न भी किया जाए तो चलेगा पर 2010 में उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट का ऑस्कर पुरस्कार प्रदान किया गया था। गॉर्डन के बारे में जानने को बहुत कुछ है। कुछ निम्नलिखित है, कुछ ख़ुद ढूंढ़े, पढ़े, जानें।

“वो एक प्रतिभावान, गुस्सैल आदमी था। अपनी तरह का ही। अनोखा। सटीक सौंदर्यबोध वाला सिनेमाई विद्वान। मुझे उसके बारे में दिया जाने वाला ये परिचय सबसे पसंद है कि, ‘वो फ़िल्म इमल्ज़न (रील की चिकनी परत) पर आइस-स्केटिंग करता था’। मैंने उससे बहुत कुछ सीखा”।
- फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, निर्देशक
द गॉडफादर सीरीज, अपोकलिप्स नाओ

“गोर्डी महाकाय टैलेंट था। वो चंद उन लोगों में से था
 जिन्होंने अपने इर्द-गिर्द पसरी अति-प्रशंसा (हाइप) को वाकई में 
सच साबित रखा। मैंने उससे बहुत कुछ सीखा”।
- वूडी एलन, लेखक-निर्देशक
मैनहैटन, एनी हॉल, द पर्पल रोज़ ऑफ कायरो, ज़ेलिग

“ये कहना पर्याप्त होगा कि अगर सिनेमैटोग्राफर्स का कोई रशमोर 
पर्वत होता तो गॉर्डन का चेहरा उसके मस्तक पर गढ़ दिया जाता। ... मैं हर रोज़, हर स्तर पर काम करने वाले सिनेमैटोग्राफर्स से बात करता हूं, और सर्वकालिक महान सिनेमैटोग्राफर्स के बारे में होने वाली बातचीत में उनका जिक्र हमेशा होता है। उनकी सिग्नेचर स्टाइल थी... दृश्यों का कंपोजीशन और दृश्य के मूड वाले भाव जगाती लाइटिंग जो अकसर एक्सपोज़र के अंधेरे वाले छोर पर पहुंची होती थी। गोर्डी के शिखर दिनों में ये स्टाइल बेहद विवादास्पद थी। लेकिन बाद में कई शीर्ष सिनेमैटोग्राफर्स पर इस स्टाइल का गहरा प्रभाव रहा और आज भी है। उनके साथी उन्हें अवाक होकर देखते थे। हॉलीवुड के महानतम कैमरा पुरुषों में से एक के तौर पर उनकी विरासत सुरक्षित है”।
- स्टीफन पिज़ेलो, एडिटर-इन-चीफ, अमेरिकन सिनेमैटोग्राफर्स मैग़जीन
गॉर्डन पर लिखी जाने वाले एक किताब पर उनके साथ काम किया

“गॉर्डन विलिस मुझ पर और मेरी पीढ़ी के कई सिनेमैटोग्राफर्स पर
 एक प्रमुख प्रभाव थे। लेकिन सिनेमैटोग्राफर्स की आने वाली पीढ़ी पर भी उनके काम की समकालीनता/नूतनता उतना ही असर डालेगी”।
- डॉरियस खोंडजी, ईरानी-फ्रेंच सिनेमैटोग्राफर
माइकल हैनेके, वॉन्ग कार-वाई, वूडी एलन, रोमन पोलांस्की, जॉन पियेर जॉनेत, डेविड फिंचर और सिडनी पोलाक की फ़िल्मों में छायांकन किया

“मैं विजुअली क्या करता हूं, ये तकरीबन वैसा ही जो सिंफनी
करती है। म्यूजिक जैसा... बस इसमें अलग-अलग मूवमेंट होते हैं। आप एक ऐसी विजुअल स्टाइल बनाते हैं जो कहानी कहती है। आप
कुछ एलिमेंट दोहरा सकते हो, और फिर कुछ ऐसा नया लाते हो जो अप्रत्याशित होता है। इसका सटीक उदाहरण मेरे गुरु गॉर्डन विलिस की फ़िल्म में है। ‘द गॉडफादर’ में हर दृश्य आंख से स्तर पर शूट किया गया है। और फिर वो पल आता है जहां मार्लन ब्रैंडो बाजार में खड़े हैं और उन्हें गोली मार दी जानी है... और आप तुरंत एक ऊंचे एंगल पर पहुंच जाते हो जो आपने फ़िल्म में पहले नहीं देखा है। फिर आपको तुरंत भय का अहसास होता है... कि कुछ होने वाला है। ये इसलिए क्योंकि आपने ऐसी विजुअल स्टाइल स्थापित कर दी है जो इतनी मजबूत है कि जब भी कुछ नया या अलग घटता है तो आप सोचते हैं, अरे... ये तो अलग है - ये तो टर्निंग पॉइंट है। अगर सबकुछ, बहुत सारे, अलग-अलग एंगल से शूट होगा तो कोई संभावना नहीं कि आप ऐसी स्टाइल रच पाओगे जो कहानी कहने के तरीके के तौर पर इस्तेमाल की जा सकेगी”।
- केलब डेशनेल, अमेरिकी सिनेमैटोग्राफर,
द पेट्रियट, द पैशन ऑफ द क्राइस्ट, द नेचुरल, द राइट स्टफ, फ्लाई अवे होम, विंटर्स टेल, माई सिस्टर्स कीपर

क्राफ्ट ट्रक वेबसाइट से बातचीत में गॉर्डन विलिस
भाग-1
भाग-2

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