Monday, May 21, 2012

संवादों की मजबूती वाली एक अच्छी फिल्म 'जन्नत-2'

फिल्मः जन्नत-2
निर्देशकः कुणाल देशमुख
कास्टः इमरान हाशमी, रणदीप हुड्डा, मनीष चौधरी, एशा गुप्ता, मोहम्मद जीशान अयूब, बृजेंद्र काला
स्टारः तीन, 3.0
रेटिंगः ए (एडल्ट)  - गालियों का ध्यान रखें


इसे हथियारों की तस्करी पर बनी एक सस्ती फिल्म माना जा रहा था। इमरान हाशमी की बाकी फिल्मों जैसी ही एक और। कम से कम जरा एलीट किस्म की फिल्में पसंद करने वाले दर्शकों के मन में तो यही पूर्वापेक्षा थी। पर फिल्म बहुत मामलों में अलग हो जाती है। बहुत फर्क पड़ता है संजय मासूम के संवादों से। शुरू से ही इमरान अपने चपल संवादों और वैसे ही हंसी भरे हाव-भाव से अपने किरदार सोनू दिल्ली को बेहद संप्रेषित बनाते जाते हैं। कैसे, इन संवादों के जरिए देखते हैं। सोनू दिल्ली छोटे-मोटे हथियारों की गैर-कानूनी ब्रिकी करता है। ऐसे अपराधियों पर एसीपी प्रताप (रणदीप हुड्डा) की नजर है। उसे लगता है कि सोनू के जरिए वह हथियारों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता तक पहुंच सकेगा। तो वह उसे दिल्ली के एक पुल पर बुलाता है। और इस मुलाकात में सोनू अनजान, भोला और ईमानदार आदमी बनते हुए कहता है... 
क्या बात कर रहे हो साहब
करीना कट पीस
इसी नाम से दुकान है जमना पार अपनी
कभी आ जाओ
अच्छी मलाई वाली चाय पिलाऊंगा...

पर जाहिर है खान नहीं मानता। वह हथकंडे अपनाता है। सोनू से पूछताछ करता रहता है, उसकी हथेली पर चाकू मारकर डराता है, उसे पुल से नीचे यमुना में लटका देने की कोशिश करता है, पर जैसे-तैसे बात निपटती है। यहां से सोनू अस्पताल पहुंचता है। बड़बड़ाता हुआ, हमें हंसाता हुआ। यहां डॉक्टर होते नहीं हैं, रात का वक्त होता है, ड्यूटी पर तकरीबन कोई नहीं होता। एक कमरे के आगे एक आदमी लाइन में लगा होता है। उसे हटाते हुए वह कहता है और हम चकित होते जाते हैं...
भाईसाहब, खून निकल रहा है
पहले मैं दिखा दूं, कहीं एड्स न हो जाए

भोली मक्कारी बरतते हुए वह डॉक्टर जाह्नवी सिंह तोमर के पास पहुंच जाता है। सीरियस मूड में, लंबे कद की खूबसूरत मॉडल जैसी डॉक्टर। अब यहां हाथ से बहते खून का दर्द मिट सा जाता है, और उसे मन ही मन प्यार हो जाता है। जाह्नवी हाथ पर पट्टी बांधते हुए पूछती है, वैसे तुम्हारे हाथ पर क्या हुआ... और वह (वैसे वह जाह्नवी से शुरू में झूठ नहीं बोलता, जैसा एक छोटा-मोटा अपराधी तो हर बात में आसानी से बोलता जाएगा) कहता है...
एक पुलिस वाले को गलतफहमी हो गई थी
उसने हाथ पर चाकू मारकर पुल पर उल्टा टांग दिया था
ये जो नए-नए पुल हैं न
कितने डेंजरस है आज समझ आ रहा है

मुझे इस डायलॉग में छिपा गहरा सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत ज्यादा रास आया। भला कितनी बार ऐसा होता है जब चलताऊ किस्म की मूवीज में इतने गहरे निहितार्थ वाले संवाद डाले जाते हों। महानगरों में जो बड़े-बड़े कंक्रीट के फ्लाइओवर और छह लेन-आठ लेन सड़के बन रही हैं, उनपर तो आलोचनाओं की पोथियां लिखी जा रही हैं, जो विकास के मॉडल पर विमर्श करती हैं। मैं खुद इसे बहुत जरूरी विषय मानता हूं। पर यहां इमरान हाशमी की कमर्शियल सी फिल्म में, वो भी हंसी-भरे संवाद में यह कहना कि ये नए-नए पुल कितने डेंजरस हैं आज पता चल रहा है... औसत बात तो नहीं है। इमरान के हाव-भाव और मैनरिज्म इस फिल्म में कुछ बदले-बदले हैं। उन्होंने खुद के अभिनय में पहले की तुलना में बेहतरी लानी शुरू की लगता है, जिसकी परिणीति ‘शंघाई’ में जरूर होगी।

आते हैं रणदीप हुड्डा पर। उनका खुले बटन वाला लुक और चुस्ती से भागने वाला अंदाज उन्हें आम एसीपीयों में अलग बनाता है। उनका हर रात शराब पीना, फिर अपनी टीम के द्ददा (बृजेंद्र काला) से छुट्टे सिक्के मांगना, टेलीफोन बूथ में जाना और अपने ही घर में बार-बार फोन मिलाना, घंटी का बजना, बाद में मैसेज छोड़ने की प्रतिक्रिया देती टेलीफोन ऑपरेटर की आवाज का बार-बार आना। ये सब कहानी का एक अलग जायकेदार इमोशनल पहलू है। दरअसल प्रताप की जान से ज्यादा प्यारी वाइफ ऐसे ही किसी गैर-कानूनी हथियार से मारी गई थी, जिसके जिम्मेदार थे हथियारों के तस्कर। तो वह ऐसे रैकेट के पीछे पड़ा है। ‘रिस्क’ और ‘डी’ जैसी फिल्मों के बाद से उनके लिए ऐसे धीर-गंभीर और सपट रोल करना आसान हो गया है। हमें उन्हें ऐसी भूमिकाओं में स्वीकार करना भी। उनके हिस्से भी एक बड़ा अच्छा संवाद आता है। जब फिल्म के महत्वपूर्ण अंत की ओर जाते हुए सोनू दिल्ली कहीं पीछे न हट जाए, एसीपी प्रताप उसे कहता है...
जैसे मेरे सिर में अटकी हुई गोली मुझे मरने नहीं देती
वैसे ही बल्ली की मौत तुझे जीने नहीं देगी...

आगे बढ़ने से पहले संक्षेप में कहानी जान लेते हैं। पुरानी दिल्ली की गलियों में सोनू दिल्ली (इमरान हाशमी) कुत्ती कमीनी चीज के नाम से मशहूर है। वह और उसका जिगरी दोस्त बल्ली (मोहम्मद जीशान अयूब) छोटे-मोटे गैरकानूनी हथियार, शराब और पायरेटेड डीवीडी बेचने जैसा काम करते हैं। उन्हीं से उनकी लाइफ चलती है। सोनू को डॉक्टर जाह्नवी (एशा गुप्ता) से प्यार हो जाता है और यहीं से वह शरीफों वाली जिंदगी जीने का मन बना लेता है। मगर इससे पहले उसे एसीपी खान (रणदीप हुड्डा) की मदद करनी होगी, हथियारों के सबसे बड़े सप्लायर मंगल सिंह तोमर (मनीष चौधरी) तक पहुंचाने में। वह ऐसा करने भी लगता है, पर एक के बाद एक उसका रास्ता कठिन होता जाता है।

‘रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ द ईयर’, ‘ब्लड मनी’ और टीवी सीरिज ‘पाउडर’ में दिखने वाले मनीष चौधरी ने इस फिल्म में हरियाणवी रूप धरा है। मंगल सिंह तोमर के रूप में वह उन्हीं मैनरिज्म के साथ नजर आते हैं, उसमें कोई फर्क नहीं आया है। हां, भाषा और उच्चारण में जरा बदलाव वह लाए हैं। सोनू से जब वह मिलते हैं तो कहते हैं...
हम दोनों की कुंडली मिलेगी
लगता है
शनि प्रबल है तेरा
लोहे में फायदा पहुंचाएगा...

हथियारों के इस गैरकानूनी धंधे को करने के पीछे की वजहों में खानदानी रसूख कायम रखने या पाने की न जाने मंगल सिंह की कौन सी कोशिश है। इसमें एक कम्युनिटी, जाति और धर्म की बात भी है। खैर, ये चीज भी नित्य-प्रतिदिन वाली नहीं है। एक सीन में सोनू को समझाते हुए मनीष का किरदार कुछ यूं बोलता है...
सन्यासी, अपराधी और लीडर
इन तीनों के रास्ते में रोड़ा होता है परिवार
इसलिए मैंने अपनी बीवी को मार दिया
क्योंकि मेरे लिए मिशन जरूरी था
पुरखों की कला का लोहा मनवाना था

फिल्म में मेरे पसंदीदा संवादों में एक वह है जिसमें एक इंस्पेक्टर एसीपी बने रणदीप के लिए कहता है (जब वह दारु पीकर अपनी मरी हुई वाइफ को फोन करने की कोशिश करता है) ...अढ़ाया पढ़ाया जाट फिर भी सौलह दूनी आठ।

पहले की फिल्मों में कहानी का लक्ष्य होता था दो दिलों के बीच प्यार होते दिखाना, फिर उसे पाने की लड़ाई और शादी के पहले क्या हुआ ये बताना। मगर ‘विकी डोनर’ और ‘जन्नत-2’ देखते वक्त महसूस होता है कि स्क्रिप्ट बेधड़क हो चली है। शादी इंटरवल से पहले ही हो जाती है। उसके बाद कुछ मोड़ आते हैं और हमें उससे एतराज नहीं होता। फिल्मों में रिसर्च के मामले में हाल ही में ‘पान सिंह तोमर’ का नाम लिया गया। ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में भी कहानी पर शोध किया गया, हालांकि उसमें विषयवस्तु की कमी नहीं थी। ‘जन्नत-2’ के बारे में भी एक वरिष्ठ अभिनेता ने मुझसे एक साक्षात्कार में हाल ही कहा था कि इसके लिए निर्देशक कुणाल देशमुख ने काफी रिसर्च की है। हथियारों की तस्करी, गैरकानूनी मैन्युफैक्चरिंग की जगहों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में।

फिल्म में गालियां बहुत है। आंशिक रूप से जे पी दत्ता की ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ में, सुधीर मिश्रा की ‘ये साली जिंदगी’ में और बाकी कई फिल्मों में पहले हम सुन चुके हैं, मगर इस फिल्म में बहुत हैं। अब ऐसा लगता है कि गालियों वाली फिल्मों के लिए अलग रेटिंग हो जानी चाहिए। क्योंकि फिल्मों की नई पौध में एक किस्म ऐसी है जो रिएलिटी को सिनेमा बना देने में यकीन रखती है और ऐसा करने पर रिएलिटी की बहुतेरी ऐसी चीजें भी इस लोकप्रिय माध्यम में आ जाती है जो सबको नहीं करनी चाहिए, पर लोग करते हैं। फिल्मों में गालियां न हो तो बहुत ही अच्छा, पर कम से कम उम्र को तो रेटिंग में डाला जा ही सकता है। ‘जन्नत-2’ में गालियां मानें तो थोपी नहीं लगतीं। जैसे किरदार हैं, वो जिंदगी के हर पल में ऐसे ही कर्स वर्ड बोलते हैं। और वो इस फिल्म में भी है। तकनीकी तौर पर कहीं कोई खामी नहीं लगती। फिल्म का अंत बड़ा हिम्मती है, पर चतुराई से समेटा गया है। कुल मिलाकर हम दो-ढाई घंटे के शो के बाद ठगा महसूस नहीं करते, न ही हमें कुछ भी फालूदा परोसा जाता है। हथियारों की तस्करी से ये कहानी बहुत आगे जाती है। फिल्म का नाम भी उपयुक्त नहीं है। बस सीक्वल बनाकर जन्नत ब्रैंड से कुछ फायदा दिलाने की कोशिश है, जो बेहद कमजोर बात है। आगे खुद देखें और जानें।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, May 20, 2012

रियल-फिल्मी के बीच स्मृतियों में नहीं आ पाती इशकजादे

फिल्मः इशकजादे
निर्देशकः हबीब फैजल
कास्टः परिणीति चोपड़ा, अर्जुन कपूर, अनिल रस्तोगी, रतन राठौड़
स्टारः ढाई, 2.5
चेतावनीः अगर आपने फिल्म नहीं देखी है, तो कृपया देखने के बाद ही आगे पढ़ें, क्योंकि कहानी आगे खोल दी गई है।

पूरी फिल्म में श्रेष्ठ है पहला दृश्य। जहां स्कूल से लौट रहे पांच-छह साल के बच्चे जोया और परमा एक दूसरे को बड़ी-बड़ी मासूम गालियां दे रहे हैं। “तेरा बाप सूअर, नहीं तेरा बाप सूअर। तू सूअर का पिल्ला, तू सूअर की बच्ची। तेरा बाप कुत्ता, तेरा बाप डॉग कुत्ता, तू डॉग कुत्ते का पिल्ला। यू ब्लडी फूल। नहीं, तू ब्लडीफूल”। साथ में रेल की पटरियां दौड़ रही हैं। पटरियों के साथ-साथ सड़क पर साइकिल रिक्शा, जिसमें लड़कियां बैठी हैं और लड़के पीछे पैदल चल रहे हैं। इनकी आपसी गालियां और कुत्ते-बिल्ली वाला झगड़ा रेल के गुजरने के सुर में धीमा होता जाता है।... इतना स्मृतिसहेजक दृश्य है कि रोम-रोम खुश और हैरान हो जाता है। छोटी जोया के रोल में इस बच्ची का अभिनय बरसों याद रहने वाला लगता है। इसके बाद पूरी फिल्म में स्मृतियों का सामान बस एकआध जगह ही है।

शुरू करते हैं कहानी के साथ। उत्तर भारत में कहीं बड़ा बंदूक-तमंचों वाला जिला है अल्मौड़। यहां के दो एमएलए कैंडिडेट हैं चौहान (अनिल रस्तोगी) और कुरैशी (रतन राठौड़)। इनके पॉलिटिकल बैर का असर शुरू से ही बच्चों परमा चौहान (अर्जुन) और जोया कुरैशी (परिणीति) पर भी रहा है। फिलहाल चुनाव की तैयारियां चल रही हैं और दोनों बच्चे भी इसमें जोरदार तरीके से शामिल हैं। जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार। पर इस बीच नोक-झोंक प्यार में बदल जाती है, जिसमें बीच में एक बड़ा पेंच आता है। इस पेंच के बाद में इनका प्यार हकीकत हो जाता है, पर भारतदेश में समाज, परिवार और परिवार की इज्जत नाम की चीजें भी होती हैं। फिर ऑनर किलिंग नाम की चीज भी है। यहां भी इनके परिवार वाले इनके परिवार को स्वीकार कर लें, यह असंभव ही हैं।

यशराज बैनर की हालिया फिल्मों में ‘बैंड बाजा बारात’ माफिक बुनावट दिखने लगी है। इनमें फ्रेम्स की डीटेलिंग और बुनियादी चीजों में रिएलिटी भरी होती है और कहानी में काल्पनिक वेल्डिंग वाले स्पर्श होते हैं। इससे किरदार, जगहें और इमोशन हमें हमारे बीच के ही असली लगने लगते हैं, पर कहानी में कहीं न कहीं कुछ नकली पैकेजिंग होती है। ‘इशकजादे’ भी हमें ऐसे ही असमंजस में डालती है। फिल्म में अल्मौड़, कुरैशी-चौहान फैमिली, एमएलए का चुनाव, कस्बाई सभ्यता और परमा-जोया-द्ददा जैसे नाम हमें बिल्कुल नए और असली लगते हैं, पर किरदारों का व्यवहार और उनकी कहानी ड्रामैटाइज्ड।

जैसे...
  • परमा को शादी के बाद अपना शरीर और आत्मा सौंप देने वाली जोया को जब लगता है कि उसे धोखा दिया गया है, तो उसके चेहरे पर ठगा जाने वाला भाव अद्भुत है। काया फट जाने को होती है। मगर जब वह परमा की मां के कमरे में होती है और उसे धोखे के बाद पहली बार मिलती है तो बदले की तीव्रता-तीक्ष्णता कुछ बिखरी और दिशाहीन लगती है।
  • वैसे परमा बिल्कुल सिरफिरा और गुस्सैल है। छोटी सी बात पर कैरोसीन डिपो वाले के झोपड़-गोदाम में आग लगा देता है। जरूरत न होते हुए भी कुरैशियों के हथियारबंद घर से चांद बेबी (गौहर खान) को उठा लाता है। ... अब जब दद्दा ने ही उसे इस किस्म का असभ्याचारी जानवर बनाया है तो इस बात पर परमा को थप्पड़ को जड़ देता है। और नाराज होने की बजाय परमा हंस क्यों पड़ता है?
  • मां की बातें उसके पल्ले क्यों नहीं पड़ती? वह मां का बेटा बनकर नहीं द्ददा का पोता बनकर क्यों रहता है?
  •  सबसे कचोटने वाली बात यह रहती है कि जब उसकी आंखों के सामने दादा उसकी मां को गोली मार देता है तो (हबीब फैजल उसे और जोया को जानवर कहकर परिभाषित करते हैं) वह गुस्से में वापस उसी क्षण दादा को गोलियों से क्यों नहीं भून देता? छोड़ क्यों देता है? क्यों फिल्म में यहां तक हमें यह नहीं समझाया गया है कि वह इतना सहनशील भी हो सकता है?
  • मरती मां कहती है, परमा अपनी गलती सुधार। और, शॉक की मनःस्थिति होते हुए भी न जाने कैसे वह अगले तीन-चार मिनट में कपड़े पहन, बैग और बाइक ले जोया को बचाने अल्मौड़ा की गलियों में आ जाता है। मां के मरने का गम इतना जल्दी मिट गया?
  • रुतबे वाले कुरैशी साहब की बेटी जोया को देखने और सगाई करने जावेद आए हैं। पार्टी रखी गई है। कोठे वाली चांद बेबी (गौहर खान) मर्दों के बीच नाच रही है। तभी सहेलियों का हाथ थामे जोया का प्रवेश होता है। अब सगाई समारोह के उपलक्ष्य में एक बड़े इज्जतदार-रसूखदार घर में नचनिया नाच ही रही है कि रिएलिटी फिल्म फिल्मी हो जाती है। चांद बेबी के साथ जोया भी नाचने लगती। चारों और मर्द हैं। जो मर्द चांद बेबी को हवस की नजर से देखकर नाच का लुत्फ उठा रहे, क्या वो जोया को भी ऐसे ही नहीं देखेंगे। ये सब उस स्थिति में हो रहा है कि अल्मौड़ एक दकियानूसी सामाजिक मनःस्थिति वाले लोगों का जिला है और कुरैशी साहब के घर का माहौल भी उतना ओपन नहीं है। तो जोया का नाचना अजीब लगता है। अगर यहां निर्देशक साहब उसे नचा सकते हैं तो फिल्म के क्लाइमैक्स में भी दोनों इशकजादों के इशक को भी कुछ फिल्मी बना देते। अगर कुरैशियों के घर में जोया नचनिया के साथ नाच सकती है तो उसके प्यार को भी तो कुरैशी साहब कुबूल कर रही सकते थे।
  • फिल्म के आखिरी सीन में गजब का विरोधाभास है। हमें बताया जा रहा है कि भारत में जोया और परमा जैसे प्यार करने वालों का यही हश्र होता है। यानी कि उन्हें जान ही देनी पड़ती है। मान लिया। मगर इतने रियलिस्टिक अंत के तरीके पर नजर डालिए। जोया और परमा ने एक दूसरे के पेट में पिस्टल लगा रखी है और एक के बाद एक गोलियां मार रहे हैं। त्वचा से गोली भीतर जा रही है और जोया का चेहरा शिकनहीन है। कोई अजीबपना नहीं, कोई दर्द नहीं, कोई ठेस सी नहीं, कोई असहजपना नहीं। वह मुस्कुरा रही है, मुस्कुरा रही है और मुस्कुरा रही है। अब बताइए थियेटर से बाहर क्या मुंह और क्या हासिल लेकर निकलें।

विस्तृत तौर पर फिल्म पर आऊं तो 'इशकजादे की कहानी में कब, कहां, क्या होगा, अनुमान नहीं लगा सकते। यहीं इसकी खासियत भी है। फिल्म अरिष्कृत, कच्ची और जिलों वाली जिंदगी सी धूल-मिट्टी भरी है। मसलन, पहले ही सीन में जीप में तीन लड़कों का मिट्टी का तेल लेने आना। मिट्टी का तेल कुरैशियों के यहां न जाए और चौहानों के यहां आए, इस बात पर डिपो वाले की झोंपड़ी फूंक देना। कमसकम मैदान के समानांतर बनी दीवार के पास की कच्ची सड़क पर बराबर दौड़ती जीप और उड़ती धूल से तो अपना-अपना जिला सभी को याद आ ही जाता है। परमा का चप्पल पहनकर जीप चलाना भी और दबंग लिखा लोअर पहनना भी। हां, भाषा के लिहाज से अर्जुन जरा भी अल्मौड़ के नहीं हो पाए हैं। शुरू में परमा और उसके दोनों दोस्तों को ‘तेरा आशिक झल्ला वल्ला...’ गाते देख भी अजीब लगता है क्योंकि तब तक उस गाने का कोई संदर्भ नहीं होता है।

निर्देशक हबीब फैजल और परिणीति चोपड़ा ने हिंदी सिनेमा को जोया के रूप में एक ऐसी लड़की दी है जिसके इमोशन गेहुंए रंग के हैं। परिणीति जैसे फ्रैश इमोशन मौजूदा वक्त की कोई भी हीरोइन शायद ही दे पाए। मसलन, स्मूच करते हुए, दो से एक होते हुए, तमंचा चलाते हुए और प्यार में ठगा महसूस करते हुए। अर्जुन कपूर का किरदार परमा कुछ जटिल है। उसके मन में क्या चल रहा है, आप जो चाहें अनुमान लगाएं, छूट है। पर कहीं स्क्रिप्ट के स्तर पर यह कैरेक्टर स्पष्ट नहीं हो पाया है, या हमें स्पष्टता से समझाया नहीं गया है। जिसके कुछ अंश ऊपर आ चुके हैं। पर कुल मिलाकर दोनों नए अभिनेताओं का काम आगे के लिहाज से ठीक-ठाक रहा है।

हबीब ने 'दो दूनी चार’ में राह सुझाई थी, मैसेज दिया था। पर 'इशकजादे’ में बस कमेंट किया है। एक्टिंग सबकी अच्छी है। मुश्किल इतनी ही है कि फिल्म सच्चाई और एंटरटेनिंग होने के बीच कन्फ्यूज होती झूलती है। आप चौंकते है, तारीफ करते हैं, पर टेंशन फ्री नहीं हो पाते। फन महसूस नहीं कर पाते। जैसी भी है इस कोशिश के लिए हबीब फैजल और पूरी कास्ट की हौसला अफजाई कर सकते हैं, तमाम सवालों के बीच।
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गजेंद्र सिंह भाटी

वर्मा का डिपार्टमेंट खराब हो रहा है और हमारा टाइम

फिल्मः डिपार्टमेंट
निर्देशकः राम गोपाल वर्मा
कास्टः राणा डगुबाती, संजय दत्त, अमिताभ बच्चन, विजय राज, अभिमन्यु सिंह, मधु शालिनी, अंजना सुखानी, लक्ष्मी मांचू
स्टारः डेढ़, 1.5

‘शिवा’ 1990 में आई थी। रामगोपाल वर्मा की पहली हिंदी फिल्म। तब के बड़े स्टार नागार्जुन, वर्मा के सिनेमा सेंस से बड़े प्रभावित हुए थे और उन्होंने फिल्म के निर्माण में पैसा लगाया। मेरी नजर में ‘शिवा’ वर्मा की अब तक की सबसे पैनी सिनेमैटिक फिल्म है। कैमरा, कहानी, किरदारों की प्रस्तुति, उनकी इमेज मेकिंग, इमोशंस का उठाव और भराव और निर्देशन में ब्लंट फैसले... सब के सब बड़े संतुलित थे।

‘डिपार्टमेंट’ तक आते-आते मामला बिल्कुल उल्टा हो जाता है। सब सिनेमैटिक पहलुओं का संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाता है। दर्शक थियेटर में जिस कहानी को सुनने आते हैं, उसकी जगह रामगोपाल उन्हें माचिस की डिबिया जितने छोटे कैमरों की करामातें दिखाते हैं। कहानी सुनाने की बजाय उनका पूरा ध्यान कैमरों को चाय की प्याली, पानी की गिलास, चाय के भगोने, डगुबाती के माथे, अमिताभ के हाथ, संजय की लात और पिस्टल पर बांधने में रहता है। हालांकि कैमरों से खेलने की उनकी इन्हीं आदतों ने उन्हें दूसरों से खास बनाया है। ‘नॉट अ लव स्टोरी’ और ‘डोंगाला मुथा’ को रामगोपाल ने कैनन 5डी से शूट किया, पारंपरिक मोटे-मोटे कैमरों को त्यागते हुए। अब ‘डिपार्टमेंट’ शूट हुई ईओएस 5डी कैमरों से। मैंने ‘रक्तचरित्र’ और ‘रक्तचरित्र-2’ के वक्त लिखा था कि फिल्ममेकिंग के स्टूडेंट्स इन फिल्मों से बहुत कुछ सीखेंगे, मगर ‘डिपार्टमेंट’ इस बात में बड़ा सबक है कि क्यों टेक्नीक के लिए स्टोरीटेलिंग और किरदारों को ताक पर नहीं रखना चाहिए।

आते हैं कहानी पर। ये मुंबई है। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट महादेव (संजय) फिल्म शुरू करते हैं। सरकारी रजामंदी से वह डिपार्टमेंट नाम की एक टीम बनाते हैं, जो कानूनी होते हुए भी गैरकानूनी काम करती है। यानी सीधे अपराधियों का एनकाउंटर। वह बड़े काबिल मगर सस्पेंडेड इंस्पेक्टर शिव (डगुबाती) को भी टीम में लेते हैं। अब शिव इस बात को लेकर कन्फ्यूज है कि यहां कौन सही है और कौन गलत? क्योंकि महादेव एक गैंगस्टर मोहम्मद गौरी (जो कभी नजर ही नहीं आता) के लिए काम करता है। फिर अपनी जान बचाने के बदले में कभी गैंगस्टर रह चुके मिनिस्टर सरजीराव (अमिताभ) शिव को बुलाते हैं, उसे फ्लैट देते हैं और इशारों पर नचाने लगते हैं। कहानी में सावतिया (विजय राज) का गैंग भी है, जिसमें डीके (अभिमन्यु सिंह) और उसकी महबूबा नसीर (मधु शालिनी) बगावती तेवर अपनाए हुए हैं। कर्तव्य और करप्शन के खेल में फंसे किरदारों की कहानी मरती-मारती आगे बढ़ती है।

अभिमन्यु सिंह और विजय राज (संदर्भ के लिए विजयराज ‘जंगल’ में और अभिमन्यु ‘रक्तचरित्र’ में) का इतना शानदार इस्तेमाल हो सकता था, मगर दोनों के किरदार बोरियत भरी फूं फा ही करते रह जाते हैं। अमिताभ बच्चन ने ‘आग’ और ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’के बाद इस फिल्म में भी इतना अजीब बनने की कोशिश की है। या कहूं तो रामू ने उन्हें बनाने की कोशिश की है। मसलन, हाथ में घंटी बांधने वाला लॉजिक। बचकानेपन की इंतहा। मुझे अभी भी याद है जब रामगोपाल के असिस्टेंट रह चुके पुरी जगन्नाथ के निर्देशन में बनी ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ रिलीज हुई थी और लोगों ने फिल्म को पसंद नहीं किया था, तब रामगोपाल ने वही ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने कथित तौर पर अभिताभ बच्चन को प्यार से गंदी गालियां दी थी। उनके मुताबिक एक फैन के तौर पर साउथ में रहते हुए उनके और पुरी के मन में अमिताभ की जो फैंसी एंग्री यंग मैन वाली इमेज थी, उसे बुड्ढे के तौर पर फिल्म में सही से फिल्माया गया। जबकि बतौर आम दर्शक हमें ये तर्क हजम नहीं होता। वक्त बदला है, फिल्में भी और लोगों की सेंसेबिलिटीज भी। मगर रामगोपाल अडिग रहे हैं, चाहे वह सही हो या चाहे गलत। उन्होंने अपनी मर्जी की ही फिल्में बनाई है। इन लापरवाहियों का ही नतीजा है कि फिल्म दो घंटे से कुछ ज्यादा की होते हुए भी चार घंटे की लगने लगती है। इसके लिए 'अज्ञात’ लिखने वाले भी नीलेश गिरकर जिम्मेदार हैं, जिन्होंने ‘डिपार्टमेंट’ की कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। निराशाजनक। रही सही कसर संगीत पूरी कर देता है। कहीं तो ये म्यूजिक ‘सरकार’ और ‘सरकार राज’ में फिल्म को नए आयामों पर ले गया था पर यहां सिरदर्दी है। खासतौर पर फिल्म में डाला गया तथाकथित चर्चित आइटम सॉन्ग। गाना नहीं मीट की दुकान है।

वर्मा इसे एक सीधी-साधी फिल्म भी बनाने निकलते तो काफी था। पर इतना भी वह नहीं कर पाए। कोई आश्चर्य नहीं कि 'शिवा’ को लेकर उन्होंने अपने ब्लॉग में बहुत पहले लिखा था, “मुझे बस फिल्ममेकिंग में एंट्री लेनी थी, और उस वक्त मौका था, इसलिए बहुत सारी फिल्मों को कॉपी करके शिवा बना दी, ताकि बाद में अपने मन की फिल्में बना सकूं”। यही कहूंगा कि वह फिल्म अच्छी थी और अब जो वह अपने मन की कर रहे हैं वह लोगों के लिए व्यर्थ है। एक ऐसी ही व्यर्थ मन की चलाई चीज है डिपार्टमेंट, जिसे थियेटर में देख पाना बड़ा ही मुश्किल है। हां, टीवी पर प्रसारण के दौरान हो सकता है, खाली वक्त में कुछ अच्छी चीजें भी ढूंढी जा सकेंगी।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, May 19, 2012

Growing impatient with Shahrukh Khan!

An actor’s ego at times leads to unseemly situations at public places. ON the recent controversy where Shahrukh Khan allegedly misbehaved with the Wankhede stadium, Mumbai security staff after an IPL match. 



This is one race of people for whom psychoanalysis is of no use whatsoever. For the popular medium of cinema and its artisans at least, I’d agree with what Austrian neurologist Sigmund Freud says here, the man who gave us the discipline of psychoanalysis. It was at the time of Ketan Mehta’s "Maya Memsaab", around 1993. Shahrukh Khan threatened a journalist for writing an article about him, Deepa Sahi and Ketan Mehta booking a room in a hotel and rehearsing an intimate scene of the movie, later, which turned out to be the Maya Memsaab sex scene controversy. It was the only day of today’s King Khan’s life that he was jailed.

As if it wasn’t enough, he called that reporter and said something like this, “I’m going to come to your house right now and f*** you in front of your parents”, and he went, till the gates of his house, shouting and threatening. Don’t know about Tuesday’s Wankhede Stadium episode but the star was at best of his abusive language then. A year or two later Khan met with the same journalist at a party, hugging and saying sorry to him, realising that the article was written by someone else from the magazine.

I find it a curious case of ego. An artist’s ego. And if you don’t count cinema as an art, then call it an actor’s ego. If it creates ruckus at public places, it determines your ace on stage and before camera too. Remember Shia Labeouf, who was beaten to the ground by a shirtless man named Mike after a reported heated exchange inside a bar in Vancouver, Canada last October. It was said that Shia was pretty intoxicated, like it is being said about Shahrukh, which wasn’t proven by paparazzi though. The ego that got Shia punched in the head, made him the star actor of “Transformers: dark of the moon” too.

There is a long history, as to what we are talking about. Salman Khan and his on record brawls with media persons, charged by his artistic ego and anger were pretty regular until recently.

A few film journalists many times say about Amitabh Bachchan that you can’t be in talking terms and criticising him at the same time. He only likes the ones who admire him. You talk something that makes him unhappy and he’ll make sure you never get to interview him ever again.

This is with filmmakers too. Few days back, the director of "Char Din Ki Chandni" Samir Karnik lashed out at critics saying in saalon ko to bulana bhi nahi chahiye, in kutton ko to marna chahiye, mera hi popcorn khate hain aur meri hi film ko ek aur aadha star dete hain (these dogs and bastards must be beaten, must be banned, they eat my popcorn, watch my movie and give half or one star).

Neither Shahrukh nor Shia are bad human beings, it just that they have a responsibility in public sphere, which is time and again broken. And who’s accountable? Art, ego, stardom, human behaviour, consumerism, market, money or a highly intolerable society we’re living in? Maybe all. But, it doesn’t matter until we start talking about society as a whole, humanity as a whole. It all starts from here only.

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Gajendra Singh Bhati

Thursday, May 17, 2012

रिसर्च वगैरह नहीं करती हूं, बस खुले मैदान में दौड़ लगा देती हूं: स्नेहा खानवलकर (साउंड ढूंढती टुंग-टुंग गर्ल)


स्नेहा खानवलकर को जान लेना इन दिनों एक बुद्धिभरा काम हो सकता है। अगर उन्हें जानेंगे तो आप ‘टुंग टुंग’ जैसी अद्भुत रचना सुनेंगे। फिर आप ‘जिया हो बिहार के लाला’ सुनेंगे और देखेंगे। मौजूदा वक्त की दो जोरदार-मजेदार चीजें। एमटीवी के संभवतः पहले जनोपयोगी कार्यक्रम ‘साउंड ट्रिपिन’ के प्रोमो जब टीवी पर आने लगे और उनमें जब वह पतली सी लड़की जगह जगह अपना रिकॉर्डर लिए दौड़ती और साउंड रिकॉर्ड करती दिखी, तो हर्ष हुआ। वह गन्ने का रस निकालने वाली मशीन, ट्रैक्टर की आवाज, किसी राहगीर का संवाद, लकड़ी पर रंदा घिसने की आवाज, पारंपरिक खराश भरी रेडियो अनाउंसर की आवाज और न जाने क्या-क्या अपने काले छोटे से उपकरण में कैद कर रही थी। नतीजतन बने चार-पांच सुंदरतम संगीतमयी गाने। साउंड ट्रिपिन का प्रारुप ये है कि ये बेहद प्रतिभाशाली और जज्बेधारी संगीतकार भारत की दस अंदरुनी और अति रंग-बिरंगी जगहों पर जाएंगी और वहां की आवाजों को कैद करके एक गीत की रचना करेंगी। शुरुआत हुई पंजाब से और गाड़ी पहुंची है कानपुर तक।

अब तक की कृतियों को आप सुन और देख सकते हैं। पंजाब में घूमकर बना टुंग टुंग, बनारस के घाटों पर राम राम, येल्लापुर (कर्नाटक) में बना येरे येरे पाउसा, गोवा में बना सुसेगाडो और कानपुर में फिंगर। सबकी आधे-आधे घंटे की मेकिंग तो रोचक है ही, बाद में तैयार होने वाला तीन-चार मिनट का गाना और भी ज्यादा। जिया हो बिहार के लाला अनुराग कश्यप की आने वाली फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का गाना है। म्यूजिक दिया है स्नेहा है। न सिर्फ इस गाने का बल्कि पांच-छह घंटे की दो भागों में बंटी इस फिल्म के एक-डेढ़ दर्जन दूसरे गानों का भी।

स्नेहा खानवलकर का नाम पहली बार सुनाई दिया था दिबाकर बैनर्जी की फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के रिलीज होने के बाद। उन्होंने इस नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म में संगीत दिया था। ‘तू राजा की राज दुलारी’ और ‘जुगनी’, फिल्म के लिए स्नेहा के बनाए दो उम्दा लम्हे थे, क्योंकि ये कोई आम गाने नहीं थे जिन्हें किसी भी गायक से गवा दिया गया। इन दोनों ही गानों के लिए स्नेहा पंजाब और हरियाणा घूमी, वहां से ऑडियो मटीरियल जुटाया और अंततः कुछ बेहद माटी से जुड़ी आवाजों को ढूंढकर ये गाने गवाए। बाद में उन्होंने ‘लव सेक्स और धोखा’ का संगीत तैयार किया।

भारतीय फिल्म संगीत के साथ हाल ही में हुई सबसे अच्छी घटनाओं में स्नेहा को गिना जा सकता है। वह वक्त के साथ फिल्मों में बदलने वाले संगीत को सीख रही हैं और सीखकर आई हैं। उनमें घूमकर आवाजें ढूंढने का चस्का है, जो मौजूदा वक्त में शायद किसी भी संगीतकार को नहीं है, सब साउंड सॉफ्टवेयरों के मरीज हैं। उनके घूमने से भारत के भीतर की आवाजें, धुनें सामने आ रही हैं। आप बस नजरों में रखिएगा, ये लड़की कुछ करेगी। स्नेहा से हुई एक लंबी बातचीत का एक छोटा सा अंश यहां प्रस्तुत हैः

अनुराग बड़े एक्साइटेड थे कि स्नेहा ने एक डेढ़ दर्जन ठेठ अंचल वाले गाने बनाए हैं 'गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में...
फिल्म के हिसाब से बनाया और अनुराग लाइक्स इट। मैंने क्या किया कि फिल्म का बैकड्रॉप बिहार था तो सब बिहार बिहार ही कर दिया। पहले कभी वहां का म्यूजिक नहीं सुना था इसलिए सुन-सुनकर खुश हो रही थी। वहां बहुत आवाजें हैं। भिखारी ठाकुर जैसे उम्दा कवि वहां हुए हैं। बहुत मीठे लोग होते हैं। पंजाब में भी मीठे होते हैं, पर वहां (पंजाब) आप थोड़े गुस्से से भी गा सकते हैं।

'ओए लक्की...’, 'एलएसडी’ और अब 'गैंग्स...’ का म्यूजिक बनाने के दौरान ही आप नए साउंड ढूंढती गईं या फिर पहले ही तैयार थीं?
डिमांड सिर्फ 'ओए लक्की...’ के एक गाने में हुई थी। मुझे एक कविता ढूंढने को कहा गया था, जो ढूंढने निकली पंजाब में और मिली हरियाणा में। उस वक्त जो घूमते हुए सीखा, वो आज भी साथ है। मैं रिसर्च वगैरह नहीं करती हूं बस खुले मैदान में दौड़ लगा देती हूं। आप नुआंस (बारीकियां) चुनते हो। 'एलएसडी’ में टाइटल ट्रैक एक ही तरह का होना था, तो उसमें मैंने ढिश्क्याउऊं... करके शुरू किया। मुझे डायरेक्टर भी ऐसे मिले, जिनसे कह सकती थी कि ऐसा गाना बनाऊं और वो कहते, हां हां, बनाओ।

इतने घंटों की ऑडियो मटीरियल होती है, उनमें से सिर्फ कुछ नोट्स या पॉइंट लेने होते हैं और बाकी छोडऩे होते हैं...
ये कैसे करती हैं? बहुत मुश्किल होता है। आई एम ग्लैड कि आपने पूछा। किसी भी साउंड की मां बनकर सिर्फ उससे ही पूरा गाना बना सकते हो। जैसे, अगर कुछ बूदें भी रिकॉर्ड हुई हैं और उन्हीं से कुछ बनाया जाए तो उसकी फ्रीक्वेंसी तय करेगी कि रिदम या गाना कैसा होगा। जरा टेक्नीकल है समझाना।

प्रोग्रैम और पंजाब की यात्रा के बारे में बताने वाली थीं...
हां, मैं चार साल पहले 'ओए लक्की...’ के लिए पंजाब आई थी। तब लगा कि सब म्यूजिक एक्सप्लोर कर चुकी हूं। लेकिन 'टुंग टुंग’ बनाने के दौरान नए-नए साउंड मिलते ही गए। यहां के 76वें किला रायपुर रुरल ओलंपिक्स से लेकर जालंधर की क्रिकेट बैट फैक्ट्री तक में घूमी। शानदार साउंड मिले। ज्योति और सुल्ताना नूरां दो कमाल की सिंगर लड़कियां हैं। मैं उनसे चार साल पहले मिली थी, इस दौरान भी मिली। बड़ा मजा आया। उन्हीं के घर में स्टूडियो सेटअप लगाया और उन्हीं की आवाज में रिकॉर्डिंग की। गाने में तुंबी, अलगोजा और टड बजाने वाले प्लेयर्स को मैं नहीं भूली हूं। जैसे तुंबी के लिए चंडीगढ़ से तुरिया जी आए थे।

कैसे-कहां सीखा म्यूजिक डायरेक्शन?
बचपन में जितने भी गाने अच्छे लगते थे, मुझे आज भी उनका एक-एक पिक अप, इंटरल्यूड और फिलर याद है। इतना पैशन था। म्यूजिक के सॉफ्टवेयर खुद सीखे। मम्मी के घर ग्वालियर घराने में क्लासिकल सिंगिंग सुनकर बड़ी हुई। हमें बिठाकर सिखाया जाता था। त्यौहार के दिन सुबह चार बजे ही तानपुरा लग जाता था। दादाजी वगैरह के पास होते थे। पहले मजबूरन गाना पड़ता फिर अच्छा लगने लगा। मेरे बेसिक्स ठीक हो गए। पापा मेरे खूब गवाते थे। कहते कि नहीं-नहीं ऐसा गाओ। वो फोर्सफुली गवाया अब काम आ रहा है।

परवरिश के दौरान भीतर म्यूजिक कैसे पलता गया?
मम्मी की फैमिली का म्यूजिक करेक्ट सुर-ताल वाला था, करेक्ट प्रोजेक्शन घराना टाइप का। लेकिन हमसे 'बाजे रे मुरलिया’ गाने को कहा जाता था तो हम 'चप्पा चप्पा चरखा चले’ भी गाते थे, थाली बजाकर। 'तुनक तुनक तुन’ भी गाते थे। रहमान के गाने भी गवाए जाते थे, जैसे द जैंटलमैन का गाना 'मैं दीवाना आवारा पागल’। हम बहनें प्यारी-प्यारी हरकतें करती थीं। मराठी में शांता जी, ह्रदयनाथ मंगेशकर और भीमसेन जोशी का 'बाजे रे मुरलिया’ और कुमार गंधर्व के भजन गाते थे। मेरे यंग कजिन थे, जो बड़े थे वो हरिहरन की गजलें सुनते थे, बीटल्स को भी। मेरा इंटरनेशनल म्यूजिक को एक्सपोजर 10वीं के बाद हुआ क्योंकि इंदौर में ऐसा माहौल नहीं था। फिर धीरे-धीरे बॉलीवुड, इंग्लिश वाली जंगल बुक, फिडलर ऑन द रूफ.. ये सब। बड़ी हुई तो 12वीं में आने के बाद गिटार और कॉलेज वाला कनेक्शन यंग लड़कों के साथ समझ आने लगा। फिर मैंने सारी म्यूजिकल्स फिल्में सुननी शुरू की। डांस म्यूजिक सुनना शुरू किया।

फिल्में-कहानियां कौन सी पसंद है?
गो कॉमिक्स बहुत पसंद है। फिल्मों में 'प्यासा’ पसंद है। जिसे देखने के बाद कुछ दिन के लिए गुरुदत्त की तरह हो जाती हूं। कवियों की तरह बातें करती हूं। बुक्स में मुझे रोल्ड डाल (ब्रिटिश नॉवेलिस्ट) की अडल्ट शॉर्ट स्टोरीज और ग्राफिक नॉवेल बहुत पसंद है। यूशीहीरो तात्सूमी (जापानी मंगा आर्टिस्ट) को भी पढ़ती हूं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, May 9, 2012

“मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहा करता था मैम! शॉट रेडी”: अर्जुन कपूर

मुलाकात इशकजादे के मुख्य किरदारों परिणीति चोपड़ा और अर्जुन कपूर से


'इशकजादे’ के परमा और जोया के बीच कुत्ते-बिल्ली का बैर है, बचपन से, अल्मोड़ की गलियां इसकी गवाह हैं। अल्मोड़, जहां ये कहानी करवट बदलती है। क्रमशः अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा के निभाए इन दोनों किरदारों में जो कच्चापन है, जो शुरू में नफरत वाला भाव है, हर बात में एक-दूसरे का विरोध करने की इच्छा है और यह सब करने के बाद दोनों में जो अटूट प्रेम हो जाता है, वह उतना ही दुनियावी सत्य है जितना ‘रॉकस्टार’ फिल्म में दिखाई गई फिलॉसफी कि सच्चा संगीत तब निकलता है जब दिल टूटा हो, दर्द से भरा हो।

अपनी फिल्म के बारे में बातचीत करने जब अर्जुन और परिणीति मिलने पहुंचे तो उनकी नोक-झोंक और एक-दूसरे की बात को काटकर मजाक में उड़ाने में वही भाव छिपा था। उनकी फिल्म 11 मई को रिलीज हो रही है। हबीब फैजल की बतौर निर्देशक यह दूसरी फिल्म होगी। पहली थी 2010 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘दो दूनी चार’। हबीब ने ‘बैंड बाजा बारात’ की स्क्रिप्ट भी कुछ ऐसे ही किरदारों वाली लिखी थी। इन दोनों फिल्मों के ‘इशकजादे’ से किसी भी किस्म के जुड़ाव से जाहिर इनकार करते हुए अर्जुन और परिणीति कहते हैं कि “तीनों फिल्मों का कोई मेल नहीं है, हां, अगर समानता ढूंढें भी तो यही है कि हबीब अपनी फिल्मों के महिला किरदार बेहद मजबूत रखते हैं। ‘बैंड बाजा बारात’ में भी श्रुति कक्कड़ स्मार्ट है और नेतृत्व करती है। ‘इशकजादे’ में भी जोया बिल्कुल बागी सी बहादुर है”।

हबीब फैजल पहले जर्नलिस्ट थे। उनकी इस पृष्ठभूमि का फायदा उनकी हर फिल्म को होता है। किरदारों, उनके हाव-भाव, जगहों, उनके व्यष्टि विश्लेषण और चीजों की सहज आसान पैकेजिंग करने में वह सिद्धस्त हैं। यही वजह रही होगी कि इश्कजादे जैसी टर्म उन्होंने गढ़ी, उस पर उसे ठेठ स्पर्श देते हुए इशकजादे में बदल दिया। अर्जुन कहते हैं, “हबीब सर पहले एनडीटीवी में कैमरामेन थे, इस वजह से अपनी रिपोर्टिंग के दौरान वह भारत भर में घूमे, उन्हें देश की बहुत सारी जगहें अच्छे से पता है। फिल्म में अल्मोड़ जैसी छोटी जगह में इन दोनों किरदारों की कहानी तभी उन्होंने रखी। जब हमारी बात होती थी तो वह बताते थे कि अब छोटे शहर छोटे नहीं रह गए हैं। वो हर मामले में बड़े शहरों जैसे हो रहे हैं। दूसरा वहां फिल्में पहुंच रही हैं, ऐसे में वहीं किरदार और कहानी स्थापित कर पाना अब संभव हो गया है”।

फिल्म में अर्जुन और परिणीति के किरदारों में जो ठेठपना था, वह उनमें पहले से होगा यह तो मुश्किल लगता है, ऐसे में क्या हबीब ने उन्हें समझाया ही उसी तरीके से? इसके सीमित उत्तर में अर्जुन स्क्रिप्ट का रुख करते हैं। वह बताते हैं, “पहले ये फिल्म किसी और नाम से बनने वाली थी। कभी भी अगर आप स्क्रिप्ट पढ़ पाएं तो देखेंगे कि उसमें किरदारों का एक-एक ब्यौरा लिखा था, उसे पढ़ने के बाद कोई बात समझने को रह ही नहीं गई”।

प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन परिणीति के लिए फिल्मों में आना अकल्पनीय था। पैदाइश हरियाणवी रही, वह अंबाला में जन्मी। ब्रिटेन से बिजनेस की पढ़ाई की। बाद में यशराज फिल्म्स की मार्केटिंग और पीआर कंसल्टेंट हो गईं। लगता है कि ऊर्जा से भरे रहने और किसी को भी अपने हीरोइनों वाले जलवे नहीं दिखाने का गुण उनमें पीआर और मार्केटिंग की उसी दुनिया से आया है। एक्ट्रेसेज की समझ के उलट उनमें पब्लिक रिलेशन के कई गुर रच-बस गए लगते हैं। फिर कोई तीन साल पहले उन्होंने फिल्मों में आने के बारे मे सोचा। उन्होंने ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ में डिंपल चड्ढा की अपनी पहली ही भूमिका में सबको प्रभावित किया और बेस्ट फीमेल डेब्यू का फिल्मफेयर अवॉर्ड पाया। अब जिन दो फिल्मों में वह नजर आ सकती हैं उनमें एक है प्रदीप सरकार की फिल्म और दूसरी का नाम है ‘एक वनीला दो परांठे’।

वहीं अर्जुन एक बड़ी फिल्म फैमिली से आते हैं। दादा सुरिंदर कपूर गीता बाली के सचिव थे फिर उन्होंने बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया। खासतौर पर अनिल कपूर के अभिनय वाली। अर्जुन की कहानी उन स्टार पुत्र-पुत्रियों जैसी रही है जो एक वक्त में एक क्विंटल से भी ज्यादा वजनी होते हैं, बाहर से फिल्ममेकिंग की पढ़ाई करके आते हैं या अपने फैमिली फ्रेंड को उसकी फिल्म असिस्ट कर रहे होते हैं, बाद में किसी की प्रेरणा से उनका कायापलट होता है और एक दिन फिल्म लॉन्च होती है। जैसे सोनम कपूर, करण जौहर या फिर रणबीर कपूर। लेकिन इसके अलावा भी अर्जुन की निजी जिंदगी कुछ कष्टों से भरी रही है। उनके पिता बोनी कपूर हैं। श्रीदेवी के बोनी की जिंदगी में आने के बाद से अर्जुन ने मां मोना शौरी कपूर को टूटते-बिखरते और उबरते हुए देखा। हालांकि उनकी और उनकी बहन अंशुला की पिता के दूरियां नहीं रहीं। मोना की कैंसर से लड़ते हुए इस मार्च में मृत्यु हो गई। वह अपने बेटे की पहली फिल्म भी नहीं देख पाईं, जो उनका बहुत बड़ा सपना रहा होगा। फिल्म इंडस्ट्री में मोना की बहुत इज्जत थी। उनकी मृत्यु के बाद ट्विटर पर करण जौहर जैसे ज्यादातर सेलेब्रिटी लोगों ने खेद जताया, सार था, “यू विल बी मिस्ड मोना मैम”। मोना, मुंबई के फ्यूचर स्टूडियोज की सीईओ थीं, इनडोर शूटिंग का ये बहुत आलीशान स्टूडियो है। उन्होंने टीवी के लिए ‘युग’ और ‘विलायती बाबू’ से शो भी बनाए।

अपने पिता के प्रोडक्शन में बनी कई फिल्मों में अर्जुन असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। जैसे ‘वॉन्टेड’, ‘नो एंट्री’ और ‘मिलेंगे-मिलेंगे’ में वह असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे। इसके अलावा महज 17 साल की उम्र में वह मशहूर तेलुगू फिल्मकार कृष्णा वाम्सी के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। फिल्म थी करिश्मा कपूर और नाना पाटेकर अभिनीत ‘शक्तिःद पावर’। इसमें उनके चाचा संजय कपूर भी थे। अगले साल उन्होंने करण जौहर की फिल्म ‘कल हो न हो’ में निखिल आडवाणी को असिस्ट किया। फिर वह ‘सलाम-ए-इश्क’ में भी सहायक निर्देशक रहे। उनकी आने वाली फिल्म होगी ‘वायरस दीवान’।

वह दरअसल शुरू से ही निर्देशक बनना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सेट्स पर रहना शुरू किया। फिल्ममेकिंग की प्रक्रिया से जुड़ी एक-एक चीज को समझना शुरू किया। मगर सलमान खान ने उन्हें देखा और कहा कि “तुम हीरो बनो, तुममें कुछ है”। अर्जुन कहते हैं, “सलमान सर ने एहसास दिलवाया। मैं उस वक्त 140 किलो का था, और मैंने खुद को बदलना शुरू किया”। वह कहते हैं कि “सलमान सर ने एक बार मुझे अर्जुन राणावत कहा था”। अपने असिस्टेंट से हीरो बन जाने की बात पर वह सहज भाव से स्पष्ट करते हैं, “मुझे याद है, मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहता था “मैम! शॉट रेडी, और अब मेरी पहली फिल्म आ रही है। हीरो बनना नाइस फीलिंग है पर मैं इन सब लोगों के बीच ही बड़ा हुआ हूं, सब मुझे प्यार करते हैं”।

फिल्म के प्रोमो और अब तक की झलकियों से युवाओं में बीच उन्हें लेकर जिज्ञासा है, कुछ के लिए वह सुपरस्टार अभी से हो गए हैं। जैसे ट्विटर पर काफी युवा उनके साथ सुपरस्टार जोड़ते हैं। मगर इस बात पर वह एकदम अनजान आदमी की तरह आगे-पीछे मुड़कर देखते हैं, “सुपरस्टार? कौन मैं? नहीं नहीं। पता नहीं। आप ट्विटर का कह रहे हैं, मेरा तो वहां अकाउंट ही नहीं है। तो कैसे पता होगा?”।

परिणीति और अर्जुन से बात करते हुए एक नयापन सा लगता है। इनकी सोच में एक किस्म का सहजपना है। अपने साथी एक्टर्स को लेकर, रिलीज डेट को लेकर, एक्टर या स्टार बनने को लेकर और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा को लेकर। मसलन, 11 मई को ‘इशकजादे’ के साथ ही करिश्मा कपूर की वापसी वाली फिल्म ‘डेंजरस इश्क’ भी रिलीज हो रही है। दोनों फिल्मों की भिड़ंत की बात पर दोनों का संयुक्त जवाब आता है, “क्या हो गया साथ रिलीज हो रही है तो। हमारे हिसाब से दर्शक दोनों फिल्में देख सकते हैं। देख सकते हैं न। वैसे भी इस अगले एक-दो वीक कोई बड़ी रिलीज नहीं है तो इस लिहाज से भी ये दो फिल्में ही हैं, तो दर्शक देख ही लेंगे। और, आखिर में बस पिक्चर अच्छी होनी चाहिए, यही जरूरी होता है”। उन्हें और परखने के लिए मैं सवाल करता हूं कि स्टार बनना है या अच्छा एक्टर कहलवाना है? जवाब तुरंत आ जाता है, “सर मुझे लगता है आप स्टार के तौर पर तभी स्वीकार किए जाते हैं, जब एक्टर अच्छे हों, कोई ऐसा स्टार नहीं होता जो बुरी एक्टिंग करता हो। तो दोनों चीजें विरोधाभासी हो ही नहीं पाती”, अर्जुन जवाब देते हैं और बाद में इसी बिंदु को परिणीति भी और समझाकर बताती हैं।

इन्हें परखने और जानने को अगली बात मन में ये भी थी कि इंडिपेंडेंट और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा इनके फिल्म चुनने के ढांचे में क्या कभी कहीं फिट होगा? क्या उनकी पीढ़ी रोल चुनने को लेकर ज्यादा एक्सपेरिमेंटल और बेधड़क है? अर्जुन कहते हैं, “हां”। वह जवाब आगे बढ़ाते हैं, “इन दिनों रोल भी ऐसे ही हैं। उनमें कमर्शियल और नॉन-कमर्शियल वाला गैप भी कम हो रहा है। जैसे, सलमान भाई ने चुलबुल पांडे का रोल किया तो अनोखे अंदाज में। ऋतिक रोशन ने 'अग्निपथ’ में अपना रोल बड़े अच्छे से निभाया था, वो अमिताभ बच्चन वाली 'अग्निपथ’ के रोल से अलग था। अब लोग भी एक्टर नहीं कैरेक्टर देखते हैं तो जितना अलग किरदार हो हमारे लिए उतना ही अच्छा। हमारी जेनरेशन में रणबीर कपूर इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। उन्होंने हर बार अलग रोल चुने हैं और लोगों ने पसंद भी किया है”।

हालांकि ये परिणीति की पहली फिल्म नहीं है, पर वह उत्साहित इतनी हैं कि पहली फिल्म हो। वह कहती हैं, “मुझे ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ के लिए अवॉर्ड मिला जिसकी बड़ी खुशी हुई। पर सही मायनों में ‘इशकजादे’ मेरी पहली फिल्म है। क्योंकि इसमें मेरा लीड रोल है। दूसरा ये रोल भी फुल फ्लेजेड है”।

बातचीत के बीच दोनों की चुहलबाजी चलती रहती है। उनके हर जवाब को अर्जुन मजाक में बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। वह रुकती हैं, मना करती हैं, फिर बोलती हैं। कहीं-कहीं हंसी फूट पड़ती है। जब वह सैफ अली खान को अपना फेवरेट एक्टर बताती हैं तो अर्जुन नाराज (मजाक में) होते हुए कहते हैं कि “ये क्या मैं तुम्हारे पास बैठा हूं और..” तो वह कहती हैं, “नहीं मेरे सबसे फेवरेट एक्टर हैं सैफ अली खान। और फिर अर्जुन कपूर भी फेवरेट है, चलो यार इसका भी नाम ले लेती हूं, इसे भी खुश कर देती हूं”। पूरी बातचीत में कहीं भी दोनों की मीठी मजाकों वाली रस्साकशी थमती नहीं।

लेख के शुरू में मैंने इस फिल्म में हीरो-हीरोइन के बीच घोर नफरत के बाद घोर प्यार वाली बात कही थी, उसके बारे में ये दोनों भी अपनी समझ बताते हैं, “हेट इज वैरी इम्पॉर्टेंट फॉर सिनेमा। जितनी नफरत दो यंग कैरेक्टर एक-दूसरे से करते हैं, जब उनमें प्यार होता है तो उतना ही ज्यादा होता है। उसी डिग्री का होता है। दो किरदारों के बीच जब ऐसा होता है तो वो निभाने और देखने में बड़ा शानदार लगता है”।

इतनी बातचीत के दौरान ये कहीं भी नजर नहीं आता कि अर्जुन अपनी पहली फिल्म की रिलीज से पहले बात कर रहे हैं और उन्हें नर्वस होना चाहिए, जवाब देते वक्त अटकना चाहिए, थोड़ा डरना चाहिए। पर ऐसा कहीं हो नहीं रहा होता है। मैं पूछता हूं कि क्या अपनी फिल्म को लेकर आपने डर या नर्वसनेस या धुकधुकी नहीं है? क्योंकि चेहरे से तो बिल्कुल नहीं लग रहा। इतना पूछते ही वह नरम हो जाते हैं। उनका तना एटिट्यूड वाला चेहरा जरा झुक जाता है, चेहरे पर मुस्कान आ जाती है कि कहीं उनकी नब्ज पकड़ ली गई है। वह बोलने लगते हैं, “नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं बिल्कुल नर्वस हूं। पर प्रेस के सामने तो ऐसी शक्ल बनाकर रखनी पड़ती है। (एनिमेटेड होकर) अब मैं उछलकर और गला फाड़कर तो कह नहीं सकता कि मैं एक्साइटेड हूं और नर्वस भी। पर...” उनके जवाब पर साथ ठहाके लगने लगते हैं।

बातों का अंत मैं उस सवाल से करना चाहता हूं, जो बड़ा संवेदनशील और दर्द जगाने वाला सा है। पर पूछ ही लेता हूं, कह देता हूं कि उचित समझें तो ही जवाब दें, कि क्या आपकी मां ने फिल्म के रशेज देखे थे, क्या वह खुश थीं? सवाल आधे रास्ते पहुंचा होता है कि वह कुछ गंभीर हो कह उठते हैं, “नहीं”। ... फिर वह कहते हैं, “मम्मी के बारे में सही वक्त होगा तो बोलूंगा। अभी नहीं। हां, लेकिन उन्होंने ट्रेलर देखा था ‘इशकजादे’ का और वह बड़ी खुश थीं”। अब मौका तस्वीरें खिंचवाने का होता है और हंसी-ठिठोली भरे पोज देने में दोनों खुद को डुबो लेते हैं। मन में एक बात आती है कि ये इनकी पहली फिल्म के रिलीज से पहले का वक्त है। कितने विनम्र लेकिन आत्मविश्वासी हैं दोनों। गुरुर का एक कण भी इन्हें छू नहीं गया है, क्या चार-पांच फिल्मों के आ जाने के बाद भी उनकी आंखों पर काला चश्मा नहीं चढ़ जाएगा, जो आज नहीं है। अभी तो लगता है नहीं...।

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गजेंद्र सिंह भाटी