Saturday, December 17, 2011

इस एलीट एक्शन में कुछ हंसी लाए हैं रैटाटूई वाले ब्रेड बर्ड

फिल्मः मिशन इम्पॉसिबल-घोस्ट प्रोटोकॉल (अंग्रेजी)
निर्देशक: ब्रेड बर्ड
कास्ट: टॉम क्रूज, पॉला पैटन, जैरेमी रेनर, साइमन पेग, माइकल नेक्विस्ट, अनिल कपूर, व्लादिमीर माशकोव
स्टार: तीन, 3.0'मिशन: इम्पॉसिबल-घोस्ट प्रोटोकॉल' का सबसे थ्रिलिंग सी है। ईथन बने टॉम क्रूज दुबई की 2,717 फुट ऊंची ईमारत बुर्ज खलीफा की एक सौ चौबीसवीं मंजिल पर, कांच पर सिर्फ चुंबकी दस्तानों के सहारे चढ़ रहे हैं। बिना कोई सिक्योरिटी वायर पहने। नीचे गिरे तो मौत पक्की। तभी कुछ बुरा होता है। एक दस्ताने की बैटरी खत्म हो जाती है। वो उस दस्ताने को फैंक देते हैं। मौत से बाल-बाल बचते हुए कुछ ऊप चढ़ते हैं तो देखते हैं कि हवा से उड़कर वो दस्ताना जरा दूर कांच पर चिपक गया है। जैसे हीरो को चिढ़ा रहा हो। सीन में यहां ऐसा कॉमिक सेंस बनता है कि ऑडियंस हंस पड़ती है। यकीन नहीं होता कि मिशन इम्पॉसिबल जैसी एलीट एक्शन सीरिज में, सबसे रौंगटे खड़े करने वाले सीन में भी हमें हंसाने की कोशिश हो सकती है। चुस्त एक्शन में चुटकी काटने भर की कॉमेडी की एंट्री इस फ्रैंचाइजी में डायरेक्टर ब्रेड बर्ड की एंट्री से ही हो जाती है। इन्होंने 'रैटाटूई' और 'द इनक्रेडेबल्स' जैसी फनी फन फिल्में बनाई है। अगर दुबई, मुंबई और मॉस्को में ईथन के जेम्स बॉन्डनुमा सनसनीखेज एक्शन सीन कहीं कम नहीं होते तो बीच-बीच में चपल हास्य भी घुलता रहता है।

अस्पताल से भागने की कोशिश में खिड़की से बाहर हवा में टंगा ईथन फंस गया है, तो मुंह में सिगरेट दाबे रूसी इंटेलिजेंस ऑपरेटिव सिदिरोव (व्लादिमीर माशकोव) खिड़की पर कुहनियां टिकाए कहता है, '(इशारे में) अब कूदो। नॉट गुड आइडिया।' ईथन वापिस कहता है, 'एक मिनट पहले तो लगा था।' इसी तरह बुर्ज खलीफा वाले स्टंट में मरते-मरते बचे ईथन और ब्रैंट को हांफते देख बस कुछ टेक्नीकल काम करके कमरे में लौटा बेंजी कहता है, 'ओह, ड़ा टफ काम है। (फिर) तुम लोग हांफ क्यों रहे हो, डि आई मिस समथिंग।'

उपलब्धि के नाम पर फिल्म में डायरेक्टर बर्ड का ये सेंस ऑफ ह्यूमर ही है। बाकी 'एम.आई.-4' में जो दावे स्टंट्स को लेकर किए गए थे, वो हैं। आप थियेटर में जाकर देख सकते हैं। फिल्म एंगेज करके रखती है। पर सीक्वल में हमारी उम्मीदें बिलाशक बहुत ज्यादा थी, जो पूरी नहीं हुईं। इसके अलावा स्क्रिप्ट के स्तर पर कुछ अनोखा सोचने की जरूरत है। क्या प्रॉड्यूसर लोग पढ़ रहे हैं? बीच में हमें लगता है कि उसी पुराने 'रूसी बुरे और विलेन होते हैं, अमेरिकी अच्छे होते हैं' ट्रैक पर फिल्म दौड़ रही है, पर कहानी कुछ बदल जाती है। पर अंत में वही होत़ा है, एक अमेरिकी हीरो हो जाता है और एक रूसी उसे थैंक यू बोल रहा होता है। हद है भई।

खैर, जैरेमी रेनर फिल्म में स्मार्टनेस लाते हैं और क्रोएशिया के अपने मिशन के बारे में बताते हुए इंटेंस लगते हैं। अच्छा है। साइमन पेग सबसे इंट्रेस्टिंग हैं। अगली फिल्म में भी वो जरूर रहेंगे। वो हर सीन में राहत देते हैं। अनिल कपूर का रोल सबसे कमजोर है। तकरीबन न के बराबर। पर अचरज क्या करना, एशियन कलाकारों का कद अमेरिकी फिल्मों में इतना ही तो रखा जाता है।

एम.आई. 4 की कहानी
आईएमएफ की एजेंट कार्टर (पॉला पैटन) और टेक्नीकल फील्ड एजेंट बेंजी (साइमन पेग) मॉस्को की एक जेल में बंद मशहूर एजेंट ईथन हंट (टॉम क्रूज) को निकालते हैं। अब ये ईथन की नई टीम है और उन्हें अगला मिशन मिलता है रूस के मशहूर क्रेमलिन पैलेस से सीक्रेट डॉक्युमेंट चुराने और 'कोबाल्ट' कोड नेम वाले शख्स का पता लगाने का। उनके इस मिशन के बीचोंबीच के्रमलिन का एक हिस्सा बम से उड़ा दिया जाता है। इसका आरोप अमेरिका पर लगता है। ईथन को आईएमएफ सेक्रेटरी (टॉम विल्किनसन) बताते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने ऑपरेशन 'घोस्ट प्रोटोकॉल' घोषित कर दिया है। इसका मतलब होता है कि पूरी संस्था आईएमएफ को बंद कर दिया जाए। पर ईथन और उसकी टीम को सरकार के हाथों में पडऩे से पहले कोबाल्ट का पता लगाना है और क्रेमलिन पर हमले का दाग अमेरिका के सिर से धोना है। इस टीम में अब आईएमएफ का डेस्क एनेलिस्ट विलियम ब्रैंट (जैरेमी रेनर) भी शामिल है। इन लोगों का लक्ष्य दुबई से होता हुआ मुंबई तक जाता है। कहानी के प्रमुख किरदारों में रूसी न्यूक्लियर रणनीतिकार कर्ट हैंड्रिक्स (माइकल नेक्विस्ट) भी है। अनिल कपूर मुंबई के मशहूर रईस बृजनाथ बने हैं।


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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 15, 2011

“भेजे का एक स्क्रू हमेशा ढीला ही होना चाहिएः राजकुमार गुप्ता”

राजकुमार गुप्ता नई पीढ़ी के उन चंद डायरेक्टर्स में से हैं, जो कमर्शियल सिनेमा में रियलिज्म की घुट्टी मिलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। सधे कदमों के साथ। 'आमिर’ और 'नो वन किल्ड जैसिका’ के बाद वो अपनी पहली ब्लैक कॉमेडी बनाने जा रहे हैं। फिल्म का नाम 'घनचक्कर’ रखा गया है और इसमें इमरान हाशमी लीड रोल निभाएंगे। इसके अलावा वह एक हल्की-फुल्की उचकी सी रोमैंटिक मूवी 'रापचिक रोमैंसकी स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता से उनके फैमिली बैकग्राउंड, फिल्मों में आने और फिल्में बनाने के अनुभवों पर बात हुई।


आप, दिबाकर बैनर्जी, श्रीराम राघवन और अनुराग कश्यप जैसे फिल्ममेकर आम लोगों का सिनेमा बनाते हैं, बाकी फिल्ममेकर काल्पनिक कहानियां, क्या ऐसा है?
कभी भी एकतरफा चीज नहीं होनी चाहिए। जब मैं अनुराग के साथ काम कर रहा था तो हम 'ब्लैक फ्राइडे’, 'नो स्मोकिंग’, 'गुलाल’ और 'एल्विन कालीचरण’ येफिल्में करना चाहते थे, लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। सब फ्रस्ट्रेटेड थे। तब लगता था कि इंडस्ट्री में एक माफिया बन चुका है जो सिर्फ एक तरह की फिल्में बनाना चाहता है। हम इस बात को लेकर लड़ते थे कि यार कम से कम फिल्में तो बननी चाहिए। अलग-अलग तरीके की। मुझे लगता है कि हम अपनी तरह का सिनेमा बनाएं। जो झकझोरने वाला हो जिससे हम संतुष्ट हों। लेकिन कभी ये न करें कि कोई बना रहा है तो उसको गाली दें। कोई पोर्न फिल्म भी बनाना चाहता है तो ये उसका हक है, भले ही बाद में कोई उसकी आलोचना करे।

'बॉडीगार्ड’ जैसी फिल्मों की सफलता चुनौती देती है कि जनता का मन समझने में हम कहां भूल कर रहे हैं?
सब फिल्में बनाते हैं, जिसको जो फिल्में बनानी है बनाओ। अब कोई बॉडीगार्ड बनाना चाह रहा है तो मुझसे तो बनेगी नहीं भई। जिससे बन सकती है उसे बनानेदो।

क्या कनविक्शन ही सबसे जरूरी है?
हर डायरेक्टर या क्रिएटिव आदमी सटका हुआ होता है। वो पागल होता है इसीलिए वो वो होता है। उसके भेजे का एक स्क्रू तो हमेशा ढीला होता है। होना भी चाहिए। क्योंकि लिखने के दौरान, डायरेक्ट करने के दौरान उसे लोगों के हजारों ओपिनियन सुनने पड़ते हैं, ऐसे में उसे खुद से क्या चाहिए इस कनविक्शन को भटकने नहीं देना होता है।

आपका बैकग्राऊंड क्या है?
हजारीबाग, झारखंड में जन्मा। बहुत बुरा स्टूडेंट था। शर्मीला था। जैसा छोटे शहरों में होता है, पापा बैंक में थे तो मैं बैंकर बनना चाहता था। दसवीं वहां से की, बारहवीं डीपीएस बोकारो से और बी. कॉम में ग्रेजुएशन दिल्ली के रामजस कॉलेज से। वहां मेरा क्रिएटिव राइटिंग की तरफ झुकाव हुआ। एड फिल्में देखता था लगता कि मैं एड फिल्में लिख सकता हूं। कॉपीराइटर बन सकता हूं। ग्रेजुएशन हुई तो तय कर लिया कि बंबई जाना है। करना है या मरना है। शुरू में मेरे पास दो-ढाई हजार रुपये ही थे। एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। लड़-झगड़कर हॉस्टल ले लिया। इससे अच्छी बात ये हुई कि अगले नौ महीने तक मेरा रहने और खाने का इंतजाम हो गया। साल 2000 आया। एड फिल्में लिखी। सीरियल लिखे। सहारा का सीरियल 'कगार' लिखा। फिल्ममेकिंग को लेकर मैं सीरियस वहां से हुआ। वहां से चीजें डिस्कवर करते-करते यहां तक पहुंच गया।

'आमिर’ कैसे बनी?
मेरी चौथी या पांचवी स्क्रिप्ट 'आमिर’ थी। 2006 में लिख ली थी। स्ट्रगल शुरू हुआ। तब अनुराग 'नो स्मोकिंग’ के साथ स्ट्रगल कर रहा था। उसने कहा कि तुम्हें भी काम और पैसे चाहिए। स्ट्रगल भी करना है, तो मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म में असिस्टेंट बन जाओ। फिर हम मिलकर तुम्हारी फिल्म के लिए स्ट्रगल करेंगे। 'नो स्मोकिंग’2008 में खत्म हुई और 2007 में मुझे एक इंडिपेंडेंट प्रॉड्यूसर मिल गया 'आमिर’ के लिए। एक बात मैंने तय कर रखी थी कि कॉरपोरेट हाउस के साथ ही फिल्म करनी है। क्योंकि दौ सौ लोगों की फिल्म को बनने के बाद कोई हाथ भी न लगाए तो किसी का भला नहीं होता। फिर यूटीवी स्पॉटबॉय आ गया। मैंने अनुराग को कहा कि मेरी फिल्म के क्रिएटिव प्रॉड्यूसर बनो। मैं उसे साथ इसलिए रखना चाहता था क्योंकि उसने इंडस्ट्री ज्यादा देखी है। तो 2008 में फिल्म बनी और रिलीज हुई।

'नो वन किल्ड जैसिका’ कैसे लिखी?
मैं स्पष्ट था कि इस फिल्म में मुझे किसी पर आरोप नहीं लगाने थे। न ही कोई अपील या जांच करनी थी। इस घटना ने पूरे मुल्क का ध्यान बटोरा। लोग कहने लगे कि हम भी टैक्सपेयर हैं भई, ये बात तो गलत हुई। हमें अच्छी नहीं लगी। हम तो कैंडल लेकर जाएंगे यार। हर दिन तो कोई कैंडल लेकर या मैं हूं अन्ना की टोपी पहनकर घर से निकलता नहीं है न। ये बड़ी ड्रमैटिक चीज थी। डर ये लगा कि इस कहानी के सब पहलुओं को साथ कैसे रख पाऊंगा। स्क्रिप्ट की बारहवीं स्टेज में पता लगा कि स्टोरी कहां जा रही है। कई लोगों से मिला।सबरीना से भी। फिर एक महीना इस प्रोसेस से अलग होकर घर गया। लौटा और लिखना शुरू किया।

कोई फिल्म बनाना चाहता है तो शुरुआत कैसे करे?
पहले तो आपके पास एक कहानी हो, स्क्रिप्ट हो। स्क्रिप्ट होगी तो किसी प्रॉड्यूसर के पास जा सकते हैं। और सीखते-सीखते फिल्म बना सकते हैं। अपने पर भरोसा रखना बहुत जरूरी है। यकीन जानिए आप कुछ भी कर सकते हैं। दूसरा रास्ता ये है कि किसी डायरेक्टर को असिस्ट करें और साथ-साथ में लिखते रहें। और जब डेढ़ दो साल बाद सारे तौर-तरीके जान जाएं तो अपनी फिल्म बनाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, December 14, 2011

“मैं आपसे असहमत हूं: अभिषेक बच्चन”

सफेद कुर्ते-पायजामे में बैठे अभिषेक बच्चन। अपने हंसने-हंसाने के उस जाने-पहचाने अंदाज के साथ, जो उन्होंने अपने पिता अमिताभ बच्चन से विरासत में पाया है। अपने एक्सक्लूसिव होने के उस आवरण के साथ, जो हर हिट-फ्लॉप के बावजूद उनके इर्द-गिर्द बना हुआ है। कोई ऐसा सवाल पूछता है तो कोई वैसा। पर मुंह बनाने की बजाय वह या तो अहसमति जताते हैं, या फिर उस सवाल को हंसी में छिपा देते हैं। बेटी के जन्म के बाद उनके व्यक्तित्व में एक अलग किस्म का ठहराव, झुकाव और तसल्ली देखी जा सकती है। हो सकता है ऐसा ही कुछ बदलाव परदे पर उनके अभिनय में भी दिखे। अब्बास-मुस्तान के निर्देशन में उनकी फिल्म 'प्लेयर्स’ 6 जनवरी 2012 को रिलीज हो रही है। इसी सिलसिले में उनसे बातचीत हुई। कुछेक सवाल दूसरे सिरों से भी आए, बाकी इसी छोर से।


आलोचना
मुझे स्वीकार है
फिल्म क्रिटिक्स भले ही उनकी फिल्मों की तारीफ नहीं कर पाते हों, पर अभिषेक कहते हैं कि मैंने हमेशा खुद को बदला है। उनके मुताबिक, “मेरी कोशिश रहती है कि हर फिल्म पिछली से अलग हो। 'दिल्ली-6’, 'दोस्ताना’, 'खेलें हम जी जान से’ या 'दम मारो दम’ सब अलग थीं। अब 'प्लेयर्स’ आई है जो एक्शन फिल्म है। आने वाली फिल्मों में 'बोल बच्चन’ कॉमेडी है और 'धूम-3’ मसाला एंटरटेनर है।" मगर इतनी कोशिशों के बाद भी जब उनकी फिल्म आती है तो एक झटके से आलोचक उनके काम को खारिज कर दते हैं। क्या वो इस क्रिटिसिज्म को स्वीकार करते हैं या मन ही मन कहते हैं कि नहीं, इस फिल्म में मैंने अच्छा काम किया था, मैं सहमत नहीं हूं? उनका बेहद सुलझा हुआ छोटा जवाब आता है, “नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं हमेशा क्रिटिसिज्म को स्वीकार करता हूं।"

इंडियन सेंस में देखें ये रीमेक
अब्बास-मुस्तान की फिल्में देखकर जवान हुए अभिषेक इनमें से अपनी फेवरेट बताते हैं। कहते हैं, “खिलाड़ी, बाजीगर और 1990 के बाद की सारी फिल्में मैंने देखी हैं। मुझे रेस और एतराज भी पसंद है। आई लव देम। शायद इसलिए मैं शुरू से उनके साथ काम करना चाहता था।" इन भाइयों की हालिया फिल्म 'प्लेयर्स’ हॉलीवुड फिल्म 'इटैलियन जॉब’ की ऑफिशियल रीमेक है। जब ऑरिजिनल फिल्म लोग देख चुके हैं, तो रीमेक के दर्शक क्या घट नहीं जाते? उन्हें क्यों और कैसे देखा जाए? सुनकर फिल्म में चार्ली मैस्केरेनहस का लीड रोल कर रहे अभिषेक कहते हैं, “ये फिल्म पहले 1969 में बनी थी और फिर 2003 में। उन्होंने इसके राइट्स खरीदे हैं। और इंडियन संदर्भ में अब्बास-मुस्तान भाई ने कहानी बदली है। वो लोगों को जरूर पसंद आएगी। और चाहे अंग्रेजी फिल्म का रीमेक हो, हमें इंडियन सेंस में देखना चाहिए। मैं भी फिल्में ऐसे ही देखता हूं।"

पापा की फिल्में लैजेंड्री और कल्ट
इस फिल्म में अभिषेक एक थीफ बने हैं। लेकिन ये रोल पॉजिटिव है। कहते हैं, “ये कैरेक्टर रॉबरी पैसों के लिए नहीं करता है, बदला लेने के लिए करता है। फिल्म सोना लूटने के बारे में है। जिसे मेरा कैरेक्टर चार्ली अपने दोस्तों के साथ लूटता है।" बातचीत के दौरान सवाल कहीं से उठकर कहीं जाते रहे। 'डॉन-टू’ और 'अग्निपथ’ जैसी अमिताभ बच्चन की फिल्मों की रीमेक वो क्यों नहीं करते? इसके जवाब में उनकी प्रतिक्रिया आती है, “अरे भाई, कोई मुझे पूछता नहीं तो मैं क्या करूं। मैं चाहूंगा कि मेरी फिल्मों का रीमेक हो, दूसरों की फिल्मों का मैं न करूं। पापा की जितनी भी फिल्में हैं वो लैजेंड्री हैं और कल्ट हैं। उन्हें वैसे ही रहने दिया जाए।"

आधे-अधूरे पर पूरे...
# 'बोल बच्चन’ में अजय देवगन के साथ काम कर रहा हूं।
# 'प्लेयर्स’ में जॉनी भाई भी हैं। वो बहुत बिजी एक्टर हैं और एक लैजेंड हैं। उनके साथ काम करके हमेशा सीखता हूं।
# उनका नाम मुस्तान (डायरेक्टर मुस्तान बर्मावाला) है और दुर्भाग्य से इंडस्ट्री ने उन्हें मस्तान नाम से रीनेम कर दिया है।
# ये डिबेट पुरानी है कि आर्ट जिंदगी की नकल करता है या जिंदगी आर्ट की। ये एंटरटेनमेंट की दुनिया है। आपको बस अपनी फिल्में बनाते रहना चाहिए।
# मैंने दोनों 'इटैलियन जॉब’ देखी है। ऑरिजिनल 1969 में बनी थी, ब्रिटिश एक्टर माइकल केन के लीड रोल वाली, वो मेरी फेवरेट फिल्मों में से है।

प्रश्नोत्तर सहमति-असहमति के
इन
दिनों हमारी फिल्में स्टाइल, टेक्नीक और एक्शन में हूबहू हॉलीवुड मूवीज सी ही लगने लगी हैं। हॉलीवुड ने तो अपना अंदाज खुद इजाद किया था, क्या हमें भी उन्हें कॉपी करने की बजाय अपना अंदाज नहीं ढूंढना चाहिए?
मैं इसे ऐसे नहीं देखता। मैं आपको बहुत सारी हॉलीवुड मूवीज दिखा सकता हूं जो इंडियन फिल्मों से इंस्पायर्ड हैं और उन जैसी बनी हैं। हॉलीवुड और हम सब एक बड़ी क्रिएटिव फैमिली हैं। हमारे बीच ये शेयरिंग होनी चाहिए। हमारे टेक्नीशियन वहां काम करते हैं, वहां के टेक्नीशियन यहां। तो ये भेद नहीं होना चाहिए।

'प्लेयर्समल्टीप्लेक्स के लिए है या सिंगल स्क्रीन के लिए। क्या हम ये बंटवारा करके देख सकते हैं?
नहीं, ये फिल्म दोनों के लिए है। अगर आपने अब्बास-मुस्तान भाई की फिल्में देखी हैं तो वो हर तरह की ऑडियंस के लिए होती हैं। और मुझे ये मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन को अलग करके देखने की बात कभी समझ नहीं आई है। मैं ये फर्क नहीं मानता। क्योंकि पांच साल पहले मल्टीप्लेक्स नहीं थे तो सब ऑडियंस थियेटर में जाकर देखती थी। फर्क कहां था?

नहीं, कस्बों में और इंडिया के इंटीरियर्स में लोगों को 'डेल्ही बैलीजैसी फिल्मों का सेंस ऑफ ह्यूमर शायद समझ आए, जबकि उन्हें 'सिंघमसमझ आएगी।
नो, नो! आई डिसअग्री विद यू! ये कहना गलत होगा कि रूरल में ऑडियंस को समझ नहीं आता। वो लोग बहुत इंटेलिजेंट हैं। उनकी पसंद अलग जरूर हो सकती है। समझ आना एक बात है और पसंद आना दूसरी। आप चंडीगढ़ से हैं, आपको शायद साउथ इंडियन फिल्म पसंद न आए, पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको समझ नहीं आएगी।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, December 11, 2011

सूडानी बच्चों का मशीन गन वाला संत

फिल्मः मशीन गन प्रीचर
निर्देशकः मार्क फॉर्स्टर
कास्टः जेरॉर्ड बटलर, मिशेल मोनाहन, माइकल शैनॉन, मैडलिन कैरल, सोउलेमने सवाने, रेमा मारवेन
सर्टिफिकेटः ए (एडल्ट)
स्टारः तीन, 3.0

सोमालिया के बागियों के खिलाफ अमेरिकी सैनिकों की हेल्प पर बनी 'ब्लैक हॉक डाउन’ और स्टीवन स्पीलबर्ग की 'सेविंग प्राइवेट रायन’ में रिएलिटी और इमोशन दोनों थे। बावजूद इसके दोनों मसाला एंटरटेनर थी। 'मशीन गन प्रीचर’ मसाला एंटरटेनर नहीं है। 'द रम डायरी’ जैसी बायोपिक की तरह ये भी जोड़ती तो है, पर कुछ फॉर्मल है। जैसे लाइफ होती है। फिल्म सैम चिलर्स की जिंदगी पर आधारित है जिन्होंने दक्षिणी सूडान में बच्चों के लिए काम किया। उनके लिए अनाथालय बनवाया और उन्हें अगुवा करने वालों के कब्जे से मुक्त करवाया। मगर असली सैम चिलर्स के काम करने के तरीके को सही और गलत ठहराने का फैसला फिल्म से करने की बजाय, उनके बारे में जानकर ही करें। फिल्म में आते हैं। जब सैम 'लॉड्र्स रजिस्टेंस आर्मी’ की गाडिय़ों पर हमले करके अगुवा बच्चों को छुड़वाना शुरू करता है तो वो सीन थ्रिलिंग बन पड़ते हैं। कुछ-कुछ रंगो को धुकधुकाते हुए। जेरॉर्ड बटलर सैम चिलर्स के रोल के लिए सही चुनाव रहे। उनका साथ देते अश्वेत एक्टर सोउलेमने सवाने भी सुहावने लगते हैं। कुछेक सीन विचलित करने वाले हैं इसलिए मूवी को ए सर्टिफिकेट मिला है। पर फूहड़, फालूदा और टाइमपास फिल्मों के बीच ऐसी फिल्में भी होनी चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की तरफ, फिल्मों में ही सही, रुचि जगाए। सूडान और उसके आंतरिक संघर्ष को ही लीजिए। इसमें इंटरनेशनल एजेंसियों की भूमिका भी जांची-परखी जा सकती है। अपने सब्जेक्ट और जरा से हटके ट्रीटमेंट की वजह से ये फिल्म मुझे औसत से अच्छी लगी। फिल्म में अमेजिंग चाइल्ड सिंगर रेमा मारवेन भी हैं। सैम बने जेरॉर्ड की बैप्टिज्म सैरेमनी के वक्त रेमा का फिल्म में असल में अमेजिंग ग्रेस गाना अद्भुत है।कौन है ये वाइट प्रीचर
पेंसिलवेनिया की जेल से सैम चिलर्स (जेरॉर्ड बटलर) छूटा है। ड्रग्स और आवारागर्दी में रहता है। घर पर एक बच्ची (मैडलिन कैरल), बीवी (मिशेल मोनाहन) और मां (कैथी बेकर) है। जब नशे की अति हो जाती है तो बीवी उसे चर्च ले जाती है और नशा छुड़वाती है। खैर, समुद्री तूफान आने से कस्बा तबाह हो जाता है और सैम को हाउसिंग का बिजनेस मिलता है। वो कुछ समृद्ध हो जाता है। एक बार युगांडा से आए किसी मिशनरी को सुनने के बाद उसकी सूडान जाने की इच्छा होती है। वहां लॉड्र्स रजिस्टेंस आर्मी (एलआरए) लोगों पर अत्याचार करती है। खासतौर पर छोटे बच्चों का किडनैप करना, उनके हाथों में हथियार थमाना और उनका यौन शोषण करना। सैम की मुलाकात यहां पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के एक सैनिक डेंग (सोउलेमने सवाने) से होती है। यहां से सैम दक्षिणी सूडान की हिंसक खूनी हकीकत देखता है और बच्चों को बचाने की कोशिश करता है। पर इस भलाई के काम के लिए भी सैम बहुत सारी मुश्किलों से गुजरता है।

असली सैम का संदेश
दूसरे इंटरनेशनल हेल्प ग्रुप्स के सैम के हिंसक तरीकों की आलोचना करने पर फिल्म के आखिर में असली सैम चिलर्स का वीडियो फुटेज है। उसमें वह कहते हैं, 'कोई अपहरणकर्ता या टेरेरिस्ट आपके बच्चे को अगुवा कर ले। और मैं आपसे कहूं कि आपके बच्चे को वापिस ला सकता हूं। तो फिर, इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं उसे कैसे लाता हूं।‘ फिल्म खत्म होने के बाद भी ये असली डॉयलॉग इम्प्रेस करता है। ये और बात है कि हिंसा कभी जायज नहीं होती।

सोचता हूं...
# जेल से छूटकर आए सैम से घर में सबसे पहले उसकी छोटी सी बेटी मिलती है। कुछ सीन बाद जब वो उम्र में कुछ बड़ी नजर आती है तो पता चलता है कि सैम चिलर्स की जिंदगी के कुछ साल अपने काम को करते हुए बीच चुके हैं। क्योंकि हाउसिंग के काम में फक्कड़ से समृद्ध होने का कोई और संकेत फिल्म में नहीं है। एक सीन है। रात को पेंसिलवेनिया में हरिकेन आता है, सुबह बिजनेस से जुड़ा आदमी आकर कहता है कि बहुत सा बिजनेस आया है, टूटे घरों को बनाने का, करोगे क्या, तो सैम कहता है, 'हां, फिफ्टी-फिफ्टी में।' खैर, यहां के बाद सीधा वो सीन है जहां सैम अपनी वाइफ और बेटी को उनका नया बड़ा बंगला दिखाने लाया है। कुछ पलों में समझ आता है कि सैम पैसे वाला हो गया है। बाद में उसके सूडान जाने और आने के कई मौकों में भी बीतते टाइम का पता उसकी बेटी के बड़े होने से ही लगता है।
# चाहे इसे मिसिंग पहलू कह लें या नया प्रयोग कि सैम के दिमाग में चल रही उधेड़बुन और सुसाइडल टेंडेंसी स्क्रीन पर देखकर सीधे-सीधे समझ नहीं आती। दर्शक को खुद अनुमान लगाना पड़ता है। मसलन ये कि हां, शायद सूडानी लोगों की मदद के लिए लड़ रहा अश्वेत लीडर जब हैलीकॉप्टर क्रैश में मारा जाता है, तो सोफे पर बैठा सैम बौखला जाता है। अपने सूडानी कैंप के लिए बड़ी गाड़ी चाहिए, ताकि ज्यादा बच्चों को बचाया जा सके, पर कोई भी हैल्प करने से मना कर देता है। पैसे की किल्लत और ऊपर से मानवता की इस लड़ाई में एक बड़ा लीडर भी मारा गया और उसपर बेटी लिमोजीन खरीदने की बात कह रही है। फिर अपने दोस्त डॉनी को उसका बुरा भला कहना और टुकड़ों पे पल रहा कुत्ता कहना। कारोबार बेच, बीवी और बच्ची को रोता छोड़ चला जाना। पीछे से दोस्त डॉनी का ड्रग्स ओवरडोज और सैम के बुरा-भला कहने की वजह से मर जाना। वहां सूडान कैंप में पहुंचने पर भी बच्चों के प्रति वो प्यार अपनी आंखों में नहीं रख पाना। उस बागी को माथे में गोली मारना। हाथ पर गलती से सूप गिरा देने वाले अनाथ बच्चे को धक्का देना। ...ये सब विश्लेषण हमारे सामने जरूर होते हैं, पर सैम क्यों खुद को शूट कर लेना चाहता है। इसके कोई सीधे समझ आते इमोशन नहीं हैं। हमें सोचना पड़ता है। ये कि भगवान का उसकी मदद न करना और उसका सूडानी बच्चों की मदद न कर पाना उसे फ्रस्ट्रेट कर देता है।
# ये तो सैम के इमोशन की एक स्टेज है। शुरू में भी जैसे, एक युगांडा से आए हेल्पएड सज्जन को चर्च में सुनना और फिर एकदम से अफ्रीका जाने का मन बनाना, जबकि दर्शकों को पता नहीं चलता कि आखिर सैम इतना इम्प्रेस और प्रेरित, बाहर जाने के लिए क्यों हुआ है। इतना ही सपाट उसका बैप्टाइज होने का इरादा भी है। ये सपाट और पता न चलने वाली बात अच्छी भी है और बुरी भी। अच्छी इसलिए क्योंकि कुछ दर्शक स्मार्ट होते हैं, वो खुद समझना चाहते हैं और हीरो की लाइफ में कुछ भी अद्वितीय होता नहीं देखना चाहते। हर बार हीरो अपनी लाइफ में कोई बड़ा फैसला ले इसलिए किसी बड़े दैवीय चमत्कार का होना जरूरी नहीं होता। और वैसे भी असल लाइफ में ऐसा कहां होता है। होता भी है तो हम उसका विश्लेषण उतना हीरोइक तरीके से कहां करते हैं। चे गुवेरा की बायोपिक को ही लें। वो कोढिय़ों की मदद करने के लिए जाने को क्यों और कितना इच्छुक है ये उसी के दिमाग में है दर्शक को पता नहीं चलता। बस वो मोटरसाइकल जर्नी पर अपने दोस्त के साथ निकलता है। वैसे ही, यहां सैम का सूडान जाने का फैसला लेना भी उतना ही सिंपल सा हो सकता है। इंसानी सा। बुरा बस इतना ही है कि कहानी फिल्मी नहीं हो पाती।
# फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट्स में असली सैम चिलर्स नजर आते हैं। उनकी, उनकी फैमिली की तस्वीरें, उनके सूडान और चर्च में प्रीच करते हुए वीडियो, उनकी पर्सनैलिटी और अंदाज नजर आता है। बहुत कम ही ऐसा होता है जब फिल्मी नायक से असली बायोग्राफिकल फिगर ज्यादा प्रभावी लगता है। यहां भी सैम फिल्म के सैम (जेरॉर्ड बटलर) से बिल्कुल भी कम नहीं लगते हैं।ये फिल्म सैम चिलर्स की लिखी स्मृतियों "अनॉदर मेन्स वॉर" पर बनाई गई है। सैम आज भी युगांडा, सूडान, दक्षिणी सूडान और पूर्वी अफ्रीका में अपने काम जारी रखे हुए हैं। तमाम विवादों के साथ।
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गजेंद्र सिंह भाटी

मकबूल की बनाई चुस्त लंका

फिल्मः लंका
निर्देशकः मकबूल खान
कास्टः मनोज बाजपेयी, अर्जन बाजवा, टिया बाजपेयी, यशपाल शर्मा, मनीष चौधरी
सर्टिफिकेटः ए (एडल्ट)
स्टारः तीन, 3.0

'लंका माइंडब्लोइंग फिल्म नहीं है। मगर मनोज, टिया और अर्जन को लेकर इससे बेहतर फिल्म नहीं बन सकती थी। इस सब्जेक्ट से मिलती-जुलती फिल्म तिग्मांशु धूलिया की 'साहब, बीवी और गैंगस्टर भी थी। ऐसे में स्क्रिप्ट के स्तर पर कुछ भी बासी होता तो, लंका लुट जाती। पर मकबूल खान का डायरेक्शन, चीजों को रियल रखने की जिद और औसत से अच्छे डायलॉग फिल्म को चुस्त और हमें फ्रैश रखते हैं। पुलिस ऑफिसर भूप सिंह बने यशपाल शर्मा और सीआईडी लखनऊ के ऑफिसर बने मनीष चौधरी भी इसमें जान फूंकते जाते हैं। एंटरटेनमेंट को लेकर कोई दावे नहीं करूंगा, पर कोशिश ईमानदार और मेहनतभरी रही है। टिया बाजपेयी शुरू में अपने किरदार को स्थापित करते वक्त बेहद कमजोर एक्टिंग करती हैं और बाद में रोल ही स्लो हो जाता है। मनोज के लुक्स और अंदाज में वो भाईसाहब वाला डर और लाचारी दोनों है। अर्जन रोल में फिट लगते हैं, करियर के सबसे नेचरल रोल में। सिनेमा फैन्स जरूर देखें। एक-दो खूनी सीन्स के लिए फिल्म को 'ए’ सर्टिफिकेट मिला है। नो प्रॉब्लम।

भाई साहब की लंका
अजीब मिजाज का शहर है ये बिजनौर। इस लंका के रावण हैं जसवंत सिसोदिया यानी भाई साहब (मनोज बाजपेयी)। यहां की क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव हैं और पॉलिटिकल प्रभाव रखते हैं। दूसरे लफ्जों में कहें तो रसूखदार गुंडे हैं। तभी तो बिजनौर के चीफ मेडिकल ऑफिसर की बेटी अंजू (टिया बाजपेयी) को उसके ही घर में अपनी बिन ब्याही बना रखा है। कहानी में और बिजनौर में एक दिन जसवंत के चचेरे भाई (अर्जन बाजवा) की एंट्री होती है, जो बरसों पहले भाईसाहब का अपमान करने पर एक पुलिसवाले के सिर पर बैट मारकर भाग गया था। वह भाईसाहब से प्यार करता है, पर जब अंजू को देखता है तो दुविधा में फंसता है। गलत होते हुए भी भाईसाहब का साथ दे या अंजू की मदद करे?

मिंट की डली से डायलॉग
# आप मुख्यमंत्री जी से कह दो। या तो पानी आधा-आधा हो या फिर बिजनौर के बाहर से ही नहर निकालकर ले जाए।
# कप्तान हूं जिले का, अब क्या करूं, आप तो घास नहीं डालते।
अबे तू कोई गधा है जो घास डालूं।
# अंटी जी, चा शा नहीं पिलाएंगी?
# ये लड़का नहीं है सांड है, नकेल डालकर रखो।
अरे नकेल डाल के रखा तो खेत का बैल बन जाएगा। इसे तो छुट्टा सांड ही रखना है।
# पढऩे-लिखने से आता है धीरज। और धीरज सिखाता है सही वक्त का चुनाव करना। टाइम तो आण दे।
# जीने के लिए हिम्मत चाहिए होती है, मरने के लिए नहीं।
# याद रखो डाक साब। अगर अंजू मेरी न हुई तो मैं उसे दुनिया की कर दूंगा। उसे हर बाजार में बेचूंगा, हर चौक में बेचूंगा। और बेचता रहूंगा, बेचता रहूंगा, बेचता रहूंगा। जब तक उसकी सांसें बंद न हो जाएं।

मकबूल ने चुने जो ताजा तत्व
# टिया के मेडिकल ऑफिसर पिता का लाल-पीले रंग का सरकारी क्वार्टर।
# अर्जन बाजवा का बस से उतरकर, रिक्शे में बैठ, बिजनौर की सड़कों और ट्रैफिक में घुसते जाना।
# अंजू का डॉक्टरी का एग्जैम सेंटर, एक पुराना सा टूटा राजीव गांधी स्कूल।
# जसवंत भाईसाहब की गाड़ी के आगे लगी 'सिसोदिया’ लिखी जंग खाई नेमप्लेट।
# भूप सिंह का जान बचाने के लिए छिछली सी नदी के बीच से दौड़ते हुए आना।

'बैंडिट क्वीनके उस सीन को आदरांजलि...
जसवंत और उसके आदमियों का गांव के मोहल्ले और हर एक घर में घुसकर दुश्मनों को मारना खास सीन है। यहां कैमरा 380 डिग्री घूमता है। ये हूबहू 'बैंडिट क्वीन’ के उस सीन से प्रेरित है जिसमें फूलन और डाकू उस मुहल्ले के हर एक घर में घुसते हैं, जहां के कुएं पर उसके कपड़े उतारे गए थे। एक बातचीत में डायरेक्टर मकबूल खान ने खुद बताया था कि धौलपुर में 'बैंडिट क्वीन’ की शूटिंग वो स्कूल से भागकर देखने जाया करते थे। उसमें मनोज बाजपेयी भी थे।****************
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, December 4, 2011

देखो पुस रहो खुश

फिल्मः पुस इन बूट्स (थ्रीडी)
निर्देशकः क्रिस मिलर
वॉयसओवरः एंटोनियो बेंडारेस, सलमा हायेक, जैक गैलिफियानकस
स्टारः तीन, 3.0

एंटोनियो बेंडारेस स्पेनिश एक्टर हैं। अमेरिकी फिल्मों में ह्यूमर से भरी हीरोइक और छलिया किस्म की उनकी आइडेंटिटी सही मायनों में मार्टिन कैंपबेल की फिल्म ' मास्क ऑफ जोरो से बनी थी। हमारा पुस भी एंटोनियो टच वाले जोरो जैसा ही है। तिरछी टोपी, कमर में तलवार, पैरों में लंबे बूट, जबान पर हीरो वाले डायलॉग, चाल में एटिट्यूड, दिल में दूसरों की भलाई और बहुत सारी बहादुरी। मगर उसके हीरोइज्म में भी जो आम बिल्ला होने की मौलिकता है, वो फिल्म को खास बनाती है। इतने स्टंट करता है, लेकिन दूध का पैग लेता है, उसे जीभ से लपर-लपर पीता है। गली में ऊपर खिड़की में बैठकर किटी रोशनी फैंकती है और पुस अपनी मर्दानी पर्सनैलिटी भूलकर किसी औसत बिल्ली की तरह उसे पंजों से पकडऩे की कोशिश करता है। छुटपन में अनाथालय में हर सवाल के जवाब में उसका माऊं बोलना और बड़ा होने पर भी गिरना-पडऩा-गुर्राना ठीक वैसे ही है जैसे जैकी चेन का एक्शन करते हुए ह्यूमर क्रिएट करना या गिरने पर दर्द महसूस करना और सी-सी करना है। या फिर उम्र में मैच्योर होने के बाद भी 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ के जेठालाल का अपने बापूजी के सामने बच्चे की तरह कातर नजरों के साथ डांट खाना है। अगर ये बॉलीवुड की फिल्म होती तो एक बिल्ली के तौर पर पुस की कमजोरियों को भी हीरोइक बनाने की कोशिश होती।
खैर, फिल्म में मुलायम पंजों वाली किटी और पुस की रोमैंटिक जोड़ी सलमा हायेक और एंटोनियो के जाने-पहचाने वॉयसओवर से भी और बेहतर होती है। 'पुस इन बूट्स’ उतनी उम्दा नहीं है जितनी बीते इन दिनों में आई थ्रीडी मूवीज रही हैं। पर फिल्म औसत से अच्छी है। शुरू में बोलने वाले अंडे हम्पटी डम्पटी की एंट्री कुछ मजेदार नहीं लगती। बाद में हमें कुछ एडजस्ट करना पड़ता है। दूसरा ये कहानी भी एनिमेशन मूवीज के हिसाब से कुछ जटिल है। हमें 'श्रेक 2’ वाले पुस की पिछली जिंदगी को इस प्रीक्वल में किसी फ्लैशबैक की तरह देखना होता है। उसमें भी हम्पटी-डम्पटी के साथ उसकी दोस्ती क्यों टूटती है, पुस कहां से आया है, ये सब भी फ्लैशबैक में चलता है। बच्चों की तो इन दिनों हर थ्रीडी मूवी से चांदी हो रखी है। ये फिल्म भी उन्हें देखनी चाहिए। मजा आएगा। चूंकि ये एक अच्छी फिल्म भी है इसलिए हर कोई देख सकता है।

भूरे बिल्ले पुस की कहानी
जूतों वाले भूरे बिल्ले पुस (एंटोनियो बेंडारेस) पर मोटा ईनाम है। वह भगौड़ा घोषित है। भागकर वह एक कस्बे में पहुंचता है। यहां उसे पता चलता है कि जिन जादुई बीजों की तलाश वह ताउम्र कर रहा था वो बदमाश कपल जैक (बिली बॉब थोर्नटन) और उसकी वाइफ जिल (एमी सेडारिस) के पास है। इन बीजों के बारे में कहा जाता है कि इनसे उगने वाला पेड़ आसमान तक बढ़ जाता है और वहां ऊपर एक महल में सोने के अंडे देने वाला हंस रहता है। पुस जैक एंड जिल के कमरे से ये बीज चोरी करे उससे पहले वहां एक मास्क वाली बिल्ली किटी सॉफ्टपॉज (सलमा हायेक) पहुंच जाती है। पर दोनों के झगड़े में चोरी नहीं हो पाती। पुस किटी का पीछा करता है। कुछ तकरार के बाद वहां उसे अपने बचपन का अनाथालय का दोस्त हम्पटी एलेग्जेंडर डम्पटी (जैक गेलिफियानकस) मिलता है। हम्पटी एक बोलने वाला अंडा है और बरसों पहले पुस और उसकी दोस्ती टूट गई थी। खैर, कहानी में अब तय ये होना है कि क्या पुस हम्पटी पर भरोसा करके जादुई बीजों को हासिल करने में उसका साथ देगा? क्या पुस की किटी के साथ होती तकरार प्यार में बदलेगी? क्या उस पर लगा भगौड़े का लांछन मिट पाएगा?**************
गजेंद्र
सिंह भाटी