Sunday, September 25, 2011

ये स्पीडी संसार बेलिया

फिल्म: स्पीडी सिंग्स
निर्देशक: रॉबर्ट लीबरमैन
कास्ट: विनय विरमाणी, रसल पीटर्स, कैमिला बेल, अनुपम खेर, रॉब लो, सकीना जाफरी, गुरप्रीत घुग्गी
स्टार: तीन, 3.0

इंटरनेशनली 'ब्रेकअवे' के नाम से रिलीज हुई हमारी 'स्पीडी सिंग्स' एक संतोषजनक फिल्म है। बहुत नई और धांसू नहीं है पर निराश नहीं करती। आप एंजॉय करते हैं। फिल्म में रसल पीटर्स जैसे बेहद फेमस स्टैंड अप कॉमेडियन हैं, गुरप्रीत घुग्गी हैं और अनुपम खेर हैं पर सब जाया हैं। क्योंकि उनके इंग्लिश बोलते चेहरों के पीछे दूसरे लोगों के हिंदी वॉयसओवर फिट नहीं हो पाते। अब रसल पीटर्स को ही लीजिए। उन्हें हम पसंद ही उनके हिंदी डायलॉग्स, एक्सेंट और टाइमिंग की वजह से करते हैं। वॉयसओवर में सब दब जाता है। शेरां दी कौम पंजाबी... वीर जी वियोण चलेया... और ए साडा संसार बेलिया... जैसे गाने थियेटर में बैठे लोगों को खूब पंसद आते हैं। हल्की-फुल्की अच्छी एंटरटेनर हैं। ट्राई कर सकते हैं।

स्पीडी सिंग्स की कहानी
दरवेश सिंह (अनुपम खेर) टोरंटो में रहते हैं। वाहेगुरु और अपने बिजनेस को सबकुछ मानते हैं। बेटा राजवीर (विनय विरमाणी) आइस हॉकी खेलना चाहता है पर पिता क्रिकेट पसंद करते हैं (उनके मुताबिक क्रिकेट को इंडियन देखते हैं, आइस हॉकी को कौन जानता है)। वह चाहते हैं कि राजवीर अपने चाचा अंकल सैमी (गुरप्रीत घुग्गी) के ट्रक बिजनेस का वारिस बने। बाप-बेटे में यही अनबन है। अपने पैशन को पूरा करने के लिए राजवीर पूरी तरह से सिख दोस्तों की आइस हॉकी टीम भी बना लेता है और कोच डैन (रोब लोव) को भी मना लेता है। पर चुनौतियां तो बस शुरू हुई हैं।

कुछ कड़वा
# आइस हॉकी पर डायरेक्टर रॉबर्ट लीबरमैन ने 'द माइटी डक्स 3' भी बनाई थी और गेम के लिहाज से वो फिल्म उनकी 'स्पीडी सिंग्स' से बहुत बेहतर है।
# कैनेडा की पृष्ठभूमि में अक्षय कुमार की 'पटियाला हाउस' में भी खेल (क्रिकेट), बाप-बेटे के रिश्तों की अनबन, पराई धरती पर अपना अस्तित्व साबित करने की कोशिश और सिखों के मान की बात थी। यहां भी ये सब है। यहां खेल है आइस हॉकी का और ये फिल्म ज्यादा इमोशनल टेंशन नहीं देती।
# फिल्म के लीड एक्टर विनय की ही लिखी इस फिल्म में बहुत की हॉलीवुड फिल्मों का घालमेल है। हंसी-मजाक और पंजाबी म्यूजिक भी बिल्कुल नया नहीं है, पर दोबारा देख-सुनकर भी हम पकते नहीं हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, September 21, 2011

तीस सेकंड की खरपतवार की खपत हम पर कैसे हो

बहुत भोली और मासूम लगने वाली एड फिल्में सिर्फ तीस सेकंड में हमारे अगले तीस सालों पर असर छोड़ जाती हैं। अच्छा भी और बुरा भी। इन दिनों इसके बुरे उदाहरण ज्यादा रहे हैं। कुछ हफ्ते पहले ही ब्रिटेन की विज्ञापनों के स्टैंडर्ड पर नजर रखने वाली एजेंसी ने कॉस्मेटिक्स कंपनी 'लॉरिएल' के लेटेस्ट एड पर रोक लगा दी। वजह ये थी कि इसमें हॉलीवुड एक्ट्रेस जूलिया रॉबट्र्स और क्रिस्टी टर्लिंगटन के चेहरों को फोटोशॉप सॉफ्टवेयर के जरिए डिजीटली ज्यादा सुंदर बनाया गया था, जितना इस क्रीम के इस्तेमाल से नहीं होता। ये अनैतिक भी था और प्राकृतिक ब्यूटी के खिलाफ भी। लॉरिएल ऐश्वर्या रॉय को लेकर जो इंडियन वर्जन बनाती है, उसमें भी फोटोशॉप के जरिए एक्ट्रीम गोरापन और झीनी स्किन दिखाई जाती है। वहीं शाहरुख का 'मर्दों वाली क्रीम लगाते हो' एड तो बेहूदगी की इंतहा है।

आपका ये जानना जरूरी है कि इन विज्ञापनों को बनाने वाले आपकी आलोचना से परे नहीं होते। एड और पीआर का कोर्स पढ़कर फील्ड में आने वाले यंगस्टर कुछ भी कैची और शॉकिंग बनाने लगते हैं। टेलीकॉम कंपनी यूनीनोर का बीते दिनों टीवी पर दिन में दर्जनों बार आने वाला एड लीजिए। 'लव सेक्स और धोखा' और 'शैतान' जैसी हालिया फिल्मों में दिखे एक्टर राजकुमार यादव के पैर पर प्लास्टर बंधा है और वह अपनी गर्लफ्रेंड और उसकी दूसरी दोस्त को फोन पर झूठ बता रहा है कि बच्चों की पतंग उतारते हुए चालीस फुट नीचे गिर गया और लग गई। जब उसका दोस्त कहता है, क्यों फोन का बिल बढ़ा रहा है तो राम कुमार कहता है, 'अबे दो पैसे में दो पट रही हैं, क्या प्रॉब्लम है।' यहां से टेलीकॉम कंपनी का नाम हमें याद हो जाता है, एड बनाने वाले का भी प्रमोशन पक्का हो जाता है, पर दो पैसे में दो पटाने का संवाद कितना ओछा और घटिया है, ये हम ज्यादा सोचते नहीं हैं। ऐसा ही एड है टाटा नैनो का। कार में पत्नी कुछ गुनगुनाने लगती है तो पति कहता है, 'इतने साल स्कूटर की तेज हवा मुझसे कुछ चुरा रही थी'.. जब वह पूछती है क्या, तो जवाब होता है, 'तुम्हारी आवाज' उद्देश्य क्या है? सिर्फ इतना कि स्कूटर वालों, स्कूटर फैंको और कार ले लो। मतलब नैनो की सेल्स बढ़ाने के लिए स्कूटर को आउटडेटेड या व्यर्थ बताने का अप्रत्यक्ष संदेश। क्या ये एड एक नैनो को बनने में खर्च होने वाले देश के हजारों लीटर पानी की बात करता है। करोड़ों नैनो खरीदने पर पार्किंग और सड़कों पर ट्रैफिक की समस्या होगी उसका क्या? स्कूटर वाला उसी पर रहना चाहता है। वह संतोषी जीव है, आप उसे जबरदस्ती महत्वाकांक्षी क्यों बनाना चाहते हैं। संसार में सबकी जरूरत के लिए तो पर्याप्त है, लालच के लिए नहीं।


'कौन बनेगा करोड़पति' के इस सीजन में अमिताभ बच्चन ने वापसी की है। इस बार फिल्म माध्यम के इमोशनल टूल्स का इस्तेमाल करते हुए गरीबी और मध्यम वर्ग की लाचारी को भुनाते हुए एड बनाए गए हैं। यहां इस एड में एक युवती बुझे चेहरे और लाचारगी के साथ कैमरे में बोलती है, 'मैं अपनी मां के लिए घर बनाना चाहती हूं। (अब भयंकर विवशता का एहसास करवाते हुए कहती है)...हमारा घर बहुत छोटा है।' सुनकर दिल कांप जाता है। पर क्या 'गजब राखी की अजब कहानी' की कमर्शियल नौटंकी से आगे भी 'कौन बनेगा करोड़पति' बढ़ पाएगा।


हालिया 'रॉयल एनफील्ड: हैंडक्राफ्टेड इन चेन्नई' विज्ञापन, शानदार सिनेमैटिक स्टोरीटेलिंग और फोटोग्रफी का उदाहरण है। सुबह घर से एनफील्ड के प्लांट में जाने को निकलता पति, बाल बांधती वाइफ, घर में बैठी बूढ़ी मां, दरवाजे से झरकर आती सूरज की किरणें, भागकर पिता को टिफिन पकड़ाती और गाल पर पाई देती बिटिया, चेन्नई की सड़कों के रंग समेटता अपनी एनफील्ड पर चलता व व्यक्तिआसपास धार्मिक नाच भी हो रहे हैं और रजनीकांत की फिल्म 'रोबॉट' के पोस्टर भी लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे आप थियेटर में फिल्म देख रहे हैं। ये मिसाल है कि एड फिल्में सिनेमैटिकली भी फीचर फिल्मों जैसी होती हैं।


मैं आज की इन एड फिल्मों में नुक्स इसलिए निकाल पा रहा हूं क्योंकि हमारे पास सोशल एडवर्टीजमेंट के सुंदर प्रयास मौजूद हैं। उनमें फोटोग्रफी, डायरेक्शन, लिरिक्स, कॉपी और कहानी को किसी फिल्म सी तवज्जो दी गई है। सार्थकता के भाव के साथ हमारे दिलों को पवित्र कर जाने वाली एक ऐसी ही एड थी राष्ट्रीय साक्षरता अभियान की जो दूरदर्शन पर आती थी।
इसके बोल थे, पूरब से सूर्य उगा, ढला अंधियारा, जागी हर दिशा दिशा, जागा जग सारा...।

गजेंद्र सिंह भाटी
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साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से

Monday, September 19, 2011

एस-ई-एक्स और मजेदार मूर्ख प्यार

फिल्म: क्रेजी स्टूपिड लव (अंग्रेजी)
निर्देशक: ग्लेन फिकारा और जॉन रेक्वा
कास्ट: स्टीव कैरल, रायन गोज्लिंग, जूलिएन मूर, एमा स्टोन, मैरिसा टोमइ, केविन बैकन, जोनाह बोबो, एनेलेई टिपटन
स्टार: तीन, 3.0

'क्रेजी स्टूपिड लव' के रूप में बहुत दिन बाद कोई ऐसी स्क्रिप्ट आई है जो बेहद हल्की-फुल्की और ठंडी हवा के झौंके जैसी है। फिल्मों को हर एक सेकंड एंटरटेन करना चाहिए, इस विचार के उलट भी कुछ दर्शक होते हैं और उन्हीं दर्शकों के लिए है ये मूवी। समझने में बड़ी आसान, बिना कोई फिल्ममेकिंग की टेक्निकल टेंशन देते हुए आसान से आसान रूप में आगे बढ़ती हुई। बेहद कम्युनिकेटिव। मैरिड कपल्स जरूर देखें, क्योंकि विषय प्यार है और अमेरिकन फिल्मों का प्यार तो आपको पता ही है कितना ओपन होता है। स्टीव कैरल बेहद एफर्टलेस एक्टर हैं। 'ब्रूस ऑलमाइटी' में न्यूज एंकर के छोटे से मजाकिया रोल में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी थी। तब से वो ऐसे एक्टर हो गए हैं जिनसे उम्मीदें नहीं बांधनी पड़ती है। हालांकि स्टूपिड लव की इस कहानी में कुछ समाधान अमेरिकी कैपिटलिज्म वाले हैं, पर उनपर अलग बात हो सकती है। रायन गोज्लिंग भी एफर्टलेस हैं। जैसे उनके लुक्स हैं वैसी ही उनकी एक्टिंग भी है। धारदार। बेहद प्रभावी। कुछ ऐसी ही अलग मूड वाली धारधार एक्टिंग उनकी आने वाली फिल्म 'ड्राइव' में भी नजर आएगी, जिसमें वो 'ट्रांसपोर्टर' फिल्मों के जैसन स्टैथम अंदाज वाले ड्राइवर बने हैं। जूलियेन मूर अपने रोल के प्रति ईमानदार रहती हैं। उनका रोल जिस जरूरत वाला था वो उन्होंने पूरी की है। फिल्म में सबसे फनी पार्ट है कैल का बेटा बने रॉबी, जो पूरी फिल्म में अपनी प्यार जैसिका को पाने के लिए कोशिशें करते रहते हैं, साथ ही अपने पिता को भी प्रेरणा देते रहते हैं।

स्टूपिड प्यार यूं होता है
फिल्म के पहले सीन में ही कैल वीवर (स्टीव कैरल) को उसकी वाइफ एमिली (जूलियेन मूर) ये कहकर चौंका देती है कि वह तलाक चाहती है, क्योंकि वह अपने कलीग डेविड लिंडहेगन (केविन बैकन) के करीब आ चुकी है। अपनी आधी उम्र में पहुंच चुका कैल समझ नहीं पाता कि क्या कहे। कैल का 13 साल का बेटा रॉबी (जोना बोबो) खुद की और अपनी बहन की 17 साल की बेबीसिटर जैसिका राइली (एनेली टिपटन) से प्यार करता है, जबकि जैसिका कैल के प्रति आकर्षित है। जिंदगी की इस नई उलझन के बीच कैल को एक बार में जैकब पामर (रायन गोज्लिंग) मिलता है, जो उसे स्टाइल और शरीर में फिट बनाता है और दूसरी औरतों के साथ डेट पर जाकर अपने कॉन्फिडेंस को बढ़ाने के तरीके सिखाता है। पर प्यार में मूर्खताओं की इस कहानी में चार-पांच कहानियां चलने लगती हैं और इससे दो घंटे फनी बन पड़ते हैं।

मसलन डायलॉग
एक सीन में कैल के पड़ोसी बर्नी (जॉन कैरल लिंच) की वाइफ कैल के चरित्र के बारे में कोई एडल्ट बात कह रही होती है, तो अपने बच्चों के सामने ऐसे नहीं बोलने की बात कहते हुए बर्नी बोलता है, 'आई डोन्ट लाइक दिस एस-ई-एक्स टॉक इन फ्रंट ऑफ द के-आई-डी-एस।' ये बड़े गुदगुदाने वाले तरीके से होता है। मुझे ये डायलॉग सबसे फनी और खास इसलिए लगा क्योंकि आम अमेरिकी मूवीज की तरह ढर्रे वाले बुरे शब्द यहां यूज नहीं होते और पूरा फन भी कायम रहता है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 18, 2011

कैप्टन अमेरिका दौड़ेगा नहीं पर चलेगा, जरूर चलेगा

फिल्म: कैप्टन अमेरिका - द फस्र्ट अवेंजर (अंग्रेजी)
निर्देशक: जो जॉनस्टन
कास्ट: क्रिस इवान्स, हैली एटवेल, ह्यूगो वीविंग, टॉमी ली जोन्स, सबैश्चियन स्टैन, डॉमिनिक कूपर, नील मेकडॉनफ, डेरेक ल्यूक, स्टैनली टुकी
स्टार: ढाई, 2.5
बहुत सारी खूबियों के बावजूद मैं 'कैप्टन अमेरिका: द फस्र्ट अवेंजर' को औसत फिल्म मानूंगा। दुख की बात है। जब स्टीव रॉजर्स ट्रीटमेंट के बाद सुपर सोल्जर बन जाता है और उसी सीन में नाजी एजेंट के पीछे न्यू यॉर्क की सड़कों पर नंगे पांव दौड़ता है, तो बस यहीं तक फिल्म बहुत ही इंट्रेस्टिंग लगती है। उसके बाद स्क्रिप्ट से इमोशन गायब हो जाते हैं, विलेन का कैरेक्टर स्पष्ट नहीं हो पाता, कहानी में घुमाव नहीं आते, न दर्शकों और लोगों में डर का माहौल बनता है और न सुपरहीरो के आने पर तालियां बजती हैं। अब यहां कैप्टन अमेरिका के गैर-मशीनी स्टंट आगे भी जारी रहते तो फिल्म अद्भुत हो सकती थी, पर ऐसा होता नहीं। आप 2003 में आई 'रनडाउन/वेलकम टू द जंगल' में ड्वेन जॉनसन (द रॉक) को देखिए। जंगल में उनके इंसानी स्टंट कमाल के हैं। वो एक सुपर हीरो फील देते हैं, यहां कैप्टन नहीं दे पाते। फिर भी एक अलग सुपरहीरो टेस्ट के लिए ये फिल्म जरूर एंजॉय कर सकते हैं।

मिलें कैप्टन अमेरिका से
आर्कटिक की बर्फ में 2011 में वैज्ञानिकों को अमेरिकी झंडे में लिपटी गोल ढाल जैसी चीज मिलती है। बता दूं कि ये सुपरहीरो 'कैप्टन अमेरिका' की ढाल है। अब कहानी 1942 में पहुंचती है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाजी अफसर जोहान (ह्यूगो वीविंग) नॉरवे से कोई रहस्यमयी शक्तियों वाला क्रिस्टल चुराता है और अपनी विशेष सेना और ताकत बनाने लगता है। वहीं न्यू यॉर्क में कम कद का दुबला-पतला कमजोर स्टीव रॉजर्स (क्रिस इवॉन्स) सेना की भर्ती में लिया नहीं जाता। पर उसके भीतर छिपे अच्छे इंसान को डॉ. अब्राहम (स्टैनली टुकी) पहचानते हैं और उसे 'सुपर सोल्जर' बना देते हैं। बहुत सी सतहों से होते हुए स्टीव का मुकाबला जोहान से होता है।

कहां क्या लगता है...
# 'द क्यूरियस केस ऑफ बेंजामिन बटन' में बूढ़े पैदा हुए ब्रेड पिट को दिखाने के लिए जो तकनीक बरती गई, वही यहां क्रिस इवॉन्स पर अपनाई जाती है। एक सेकंड भी ऐसा नहीं लगता कि ये दुबला-पतला स्टीव असल में छह फुट से ज्यादा का छरहरा हीरो हो जाएगा।
# समझ नहीं आता कि हर बार एक औसत अमेरिकी को सुपर बनने के लिए कोई डायमंड, क्रिस्टल या कुछ और ही क्यों चाहिए होता है? क्या इंसानी ताकत काफी नहीं। हर बार इस देश के दुश्मन रूसी, जापानी, जर्मन, मुस्लिम और चीनी ही क्यों होते हैं?
# स्टीव का कांधे पर अमेरिकी फ्लैग वाली ढाल लटकाए नाजी आर्मी कैंप में इधर-ऊधर भागना अखरता है।
# सुपरहीरो बनने के बाद स्टीव को रंगीन ड्रेस पहनाकर देश की जनता के सामने प्रोपगेंडा करवाया जा रहा है, वह उदास है। तभी एक बुद्धिभरा सांकेतिक सीन आता है। वह बारिश में बैठा एक चित्र बना रहा है, जिसमें उसकी जगह एक बंदर सुपरहीरो की ड्रेस में छाता लेकर नाच रहा है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, September 17, 2011

इंसानी कसाईबाड़े में बंद आठ जिंदगियां

फिल्म: फाइनल डेस्टिनेशन 5 (अंग्रेजी)
निर्देशक: स्टीवन क्वेल
कास्ट: निकोलस डोगस्टो, माइल्स फिशर, एलन रो, जेक्लीन वुड, एमा बेल, पी.जे.बायर्न, आर्लन एस्कर्पेटा, डेविड कोएश्चनर, टोनी टॉड
स्टार: तीन, 3.0

सबसे पहले जान लें कि ये हॉरर फिल्म है। वीभत्स है और थ्रीडी में है इसलिए खून और मांस से लथपथ सीन देख बड़े से बड़ा सूरमा भी विचलित हुए बगैर नहीं रह पाएगा। तो फैमिली और बच्चों के साथ देखने का प्लैन बनाने से पहले सोच लें। अपने जॉनर के हिसाब से 'फाइनल डेस्टिनेशन 5' संतुष्ट करती है। मगर कहानी में नया कुछ नहीं है। एक्टिंग सबकी फेल है। मौत का इंतजार कर रहे उन आठ लोगों में सब बारी-बारी मर रहे हैं, मगर बचे हुए लोगों के चेहरे पर भय ही नहीं नजर आता। फिल्म में कभी-कभार फनी डायलॉग भी आ ही जाते हैं। 2000 में आई पहली 'फाइनल डेस्टिनेशन' के सबसे करीब ये फिल्म अपनी थ्रीडी के लिए जानी जाएगी। हर एक्सीडेंटल सीन को नक्काशीनुमा परफेक्शन से बनाया गया है। खासतौर पर ब्रिज गिरने वाला सीन। बाकी सात-आठ भयावह दृश्य और हैं। इस फ्रैंचाइजी के रेग्युलर फैन जरूर देखें।

उन भाग्यशाली आठ की कहानी
एक कंपनी के सभी कलीग घूमने जा रहे हैं। बस नॉर्थ बे ब्रिज पहुंचती है कि सैम (निकोलस डोगस्टो) को आभास होता है कि ब्रिज टूट जाएगा और -एक करके सब मर जाएंगे। उसका ध्यान भंग होता है और वो अपनी गर्लफ्रैंड मॉली (एमा बेल) का हाथ पकड़ सबको चेताते हुए बस से निकलकर भागने लगता है। जो लोग उसके पीछे जाते हैं वो बच जाते हैं बाकी मारे जाते हैं, क्योंकि ब्रिज वाकई में टूट जाता है। अब इन जिंदा बचे आठ लोगों के पीछे मौत लगी है और कहानी आगे बढ़ती है।

बात कमजोरी की
# कहानी में इनोवेशन नहीं है। सब कुछ इस सीरिज की पहली फिल्म जैसे होता है। कुछ लोग टुअर पर निकले हैं। कोई एक बड़े एक्सीडेंट को भांप लेता है। उसके कहने से कुछ लोग भाग लेते हैं और बच जाते हैं। फिर उस एक से पुलिस पूछताछ करती है। फिर सब सीमेट्री पर शोक प्रकट करने जुटते हैं। फिर एक अजीब सी बातें करने वाला बंदा आता है और कहता है, 'डेथ डज नॉट लाइक टु बी चीटेड।' अब यहां तक आते-आते पता चल जाता है कि इस फिल्म में आठों जिस क्रम में उस ब्रिज पर मरने वाले थे उसी क्रम में फिल्म के बाकी हिस्से में मारे जाएंगे।
# आइजेक (पी.जे.बायर्न) के हंसने के तरीके में टॉम हैंक्स की आवाज सुनाई देती है और पीटर (माइल्स फिशर) की पर्सनैलिटी हूबहू टॉम क्रूज जैसी लगती है। हालांकि फिल्म में दोनों ही गुण काम नहीं आते।
# बाकी चार फिल्मों की तरह इसमें भी थीम वही है। मौत के आने की आहट, उसका पूर्वाभास, उससे बच जाना और फिर अंतत: मारा जाना। जब ये इतना एब्सट्रैक्ट विषय है ही तो इसमें कुछ और मेहनत करके स्मार्ट मोड़, डायलॉग या सोच डाली जा सकती थी। राइटर एरिक हाइजरर ने कोई उल्लेखनीय स्क्रीनराइटिंग पहले नहीं की है, तो कमजोर स्क्रिप्ट होने की एक बड़ी वजह तो वो हैं। दूसरा फिल्म के निर्माता, जिनका ज्यादा ध्यान फिल्म को कमर्शियल बनाने और उसके थ्रीडी वर्जन पर टेक्नीकल काम करने में चला गया।

आखिर में
फिल्म में इरीटेटिंग थे मुझसे पीछे बैठे दो पंजाबी दोस्त। हर खौफनाक और खूनी सीन में जब मांस के लोथड़े थ्रीडी चश्मे के लेंस के करीब भक्क से आकर लगते थे, वो दोनों फन के मारे जोर-जोर से हंसने लगते। जैसे मिस्टर बीन का प्रोग्रेम देख रहे हों। इसके उलट पूरे थियेटर में दर्शकों की सांस हलक में अटकी ही रही।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, September 13, 2011

'हीरानी से लडऩे को तरकश में बड़े तीर चाहिए'

इनकी सबसे पहली पहचान बनी 1991 के शुरू में दूरदर्शन पर आने वाले एपिक सीरियल 'चाणक्य' से। लेखक, निर्देशक और मुख्य अभिनेता चाणक्य डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी खुद थे। 2003 में इन्होंने फिल्म 'पिंजर' बनाई और अब ला रहे हैं सनी देओल की मुख्य भूमिका वाली 'मोहल्ला अस्सी'। ये फिल्म मशहूर उपन्यासकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर बनी है। कुछ वक्त पहले बड़ी तुरत-फुरत में हुई इस बातचीत के कुछ अंश:

'काशी का अस्सी' में बहुत सारे किरदार-कहानियां हैं, इसे दो घंटे की स्क्रिप्ट में ढालना कैसा रहा?
आप सही कह रहे हैं। पर किताब के अध्याय 'पांड़े कौन कुमति तोहें लागी' पर ही स्क्रिप्ट का ज्यादातर ढांचा आधारित है।

क्या उपन्यास की तरह फिल्म में भी गालियां उसी प्रवाह में हैं?
देखिए, समाज में गालियों को बुरा माना जाता है, पर इस कहानी में गालियां तृतीय पात्र की तरह हैं। वो आती हैं, पर फिल्म में कथा का पात्र, उसका संघर्ष, बाकी किरदारों की अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और उदारवाद में समाज में क्या-क्या उखड़ रहा है, रिश्ते और सब कुछ कैसे टूट रहा हैं... ये सब भी हैं। बाकी सिर्फ गालियों से कुछ नहीं होता है। हिंदी में हर साल 240 फिल्में बनती हैं, सब गालियों से तो सफल नहीं हो सकती है न। 'काशी का अस्सी' की तो पहचान ही गालियों से है।

मूल एक्शन छवि से सनी को अलग इमेज में लाते वक्त कुछ चिंता नहीं हुई?
नहीं। न ही मैंने इस इमेज की चिंता की और न ही सनी ने। एक अभिनेता वह होता है जो चुनौतियों को स्वीकार करे। दुर्भाग्य से सनी को वैसी भूमिकाएं कभी नहीं दी गई। उनकी एक्टिंग के दूसरे पहलू कभी लोगों के सामने नहीं आ पाए। और हम भूल जाते हैं कि सनी वही एक्टर हैं जिन्हें दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिले हैं। इतिहास गवाह रहा है कि जब भी कोई एक्टर अपनी स्थापित छवि को तोड़ता है तो लोग उसे सिर आंखों पर बिठाते हैं। प्राण साहब अपनी शुरुआती फिल्मों में मशहूर विलेन रहे हैं, पर जब उन्होंने पॉजिटिव चरित्र भूमिकाएं करनी शुरू की तो लोगों ने खूब सराहा। संजय दत्त को लीजिए। वो पहले अलग भूमिकाएं करते रहे, पर जब उन्होंने 'मुन्नाभाई...' की तो किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी।

फिल्म बनाने से पहले रिकवरी की परवाह करते हैं?
मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की। वैसे भी कहानीकारों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। मेरी फिल्म में सनी हैं और वो एक स्थापित कलाकार हैं इसलिए मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है।

फिल्म कब रिलीज होगी?
नवंबर-दिसंबर तक रिलीज करने की सोच रहे हैं। तब बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा भीड़ भी नहीं होती है। जैसे अभी 'सिंघम' की रिलीज टाइमिंग रही।

हाल ही में अलग सिनेमैटिक लेंग्वेज वाली फिल्में आई हैं। सार्थकता के लिहाज से आप उन्हें कितना महत्व देते हैं?
स्टोरीटेलिंग तो देखिए हर दिन बदलती है। नानी-दादी की कहानी भी चलती है और यार-दोस्तों की भी। हमारे बीच हर स्टाइल की कहानी को जगह है। इसमें 'डेल्ही बैली' भी है, अनुराग का सिनेमा भी है और राजकुमार हीरानी का सिनेमा भी है।

इस फिल्म के कथ्य में आपने किस बात का ध्यान रखा है?
मैंने अपनी कहानी का प्रारब्ध, मध्य और अंत ढूंढने की कोशिश की है। एक फिल्मी स्टोरी कहने का जो क्लासिक फॉर्मेट होता है उसे तोडऩे की कोशिश की है।

मौजूदा फिल्ममेकर्स में किसके काम को अच्छा मानते हैं और क्यों?
मैं मानता हूं कि कहानी सबसे बड़ी होती है। राजकुमार हीरानी ने 'लगे रहो मुन्नाभाई' में महात्मा गांधी के किरदार को जैसे इस्तेमाल किया, उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैंने उन्हें फोन किया और कहा कि तुमसे लडऩे के लिए तरकश में बड़े तीर लाने पड़ेंगे क्योंकि तुमने काम ही ऐसा किया है।

हमेशा ऐतिहासिक किरदारों पर ही क्यों काम करते हैं?
मैंने हमेशा एतिहासिक विषयों पर फिल्में बनाई हैं। क्योंकि वर्तमान तो सबके सामने हैं, उसे सब जानते हैं, पर जो गुजर गया है वो अज्ञात है। जिज्ञासा होती है कि वो जब कभी रहा होगा तो उसका स्वरूप कैसा हुआ होगा।

अपनी बातचीत में आप 'वैराग्य' का भाव पैदा होने का जिक्र करते हैं। क्या पहचान या फीडबैक न मिलने से भी ऐसा होता है?
जो तारीफ नहीं मिलने पर वैराग्य की बात करते हैं, वो निराशा का भाव होता है, वैराग्य का नहीं। वैराग्य आपकी वैचारिक और सामाजिक पृष्टभूमि से आता है।

'चाणक्य' आज भी लोगों के क्लासिक डीवीडी कलेक्शन में शामिल है। क्या फिर अभिनय करने का ख्याल नहीं आता?
नहीं यार, बहुत हो गया वो। जितना करना था कर लिया। बाकी अपनी रचनात्मकता को प्रदर्शित करने के मौके अभिनय से ज्यादा निर्देशन में होते हैं।

इतनी कम फिल्में क्यों बनाते हैं?
एक बार सईद अख्तर मिर्जा से किसी ने पूछा था कि आप फिल्में क्यों नहीं बनाते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं कहां नहीं बनाता हूं कोई बनाने ही नहीं देना चाहता है। वही मेरे साथ है। फिल्मों की लागत बहुत बढ़ गई है। एक फ्लॉप हो जाए तो दूसरी बनाने के रास्ते बंद से हो जाते हैं। एक हिट हो जाए तो दूसरी के लिए सोचना नहीं पड़ता। मुझे ये लगता है कि 'मोहल्ला अस्सी' के बाद मुझे दूसरी फिल्म बनाने में कोई मुश्किल नहीं आनी चाहिए।

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गजेंद्र सिंह भाटी