Monday, August 8, 2011

अधबीच बहस आते वीडियो किस्से

एन. चंद्रा जैसे फिल्ममेकर ने 1993 में मिथुन चक्रवर्ती को लेकर 'युगांधर' बनाई थी। इसमें नक्सलवाद, वामपंथ, पूंजीवाद, जनता, सिस्टम, विचार और भटकाव जैसे उन विषयों पर बात की गई जिनको लेकर हमारे समाज की बहस अधबीच में है। पर इस अधबीच के बीच ही निर्देशक तीन घंटे की फिल्म बनाता है और अपनी मनपसंद साइड ले लेता है। वह बहुत मौकों पर गलत भी होता है। चूंकि फिल्म माध्यम कहानी कहते-कहते हमारा ब्रेनवॉश करने की क्षमता रखता है तो समाज की राय प्रभावित होती है। इस बीच उन ऑडियंस का क्या जो निर्देशक के लॉजिक से इत्तेफाक नहीं रखती। क्या एक लोकतांत्रिक सेटअप में दोनों पक्षों को जगह नहीं मिलनी चाहिए?

चाहती
तो 'युगांधर' भी नक्सली विरोध के विचार में कोई एक पक्ष ले सकती थी, पर ये मूवी हिंसा और अंहिसा दोनों पर वास्तविक स्टैंड लेती है और एक कम हानिकारक राह सुझाती है। एक सीन है। फौज ने पास ही में डेरा डाल दिया है और कृष्णा (मिथुन) अपने लोगों से कहता है, 'हमारे बीच के आधे लोग... औरतें, बच्चे और घायल हैं, मगर हम लड़ेंगे। क्योंकि हमारी लाशें देखकर कोई तो कहेगा कि आखिर इतने लोगों ने क्यों और किस कारण से अपनी जानें दे दी।' फिल्म के आखिर में अहिंसा का रास्ता चुनने वाले कृष्णा को गांधी की तरह असेसिनेट कर दिया जाता है। फिर परदे पर एक गांधी सा लगने वाला आदमी आता है और कहता है, 'देख कृष्णा मुझे मेरी जमीन 20 साल बाद मिल गई है।' इसके बड़े मायने हैं।

अब आते हैं जल्द रिलीज होने जा रही प्रकाश झा की 'आरक्षण' पर। फिल्म में एक डायलॉग है, 'अगर आप आरक्षण के साथ नहीं तो उसके खिलाफ हैं।' फिल्म में सैफ का मूछों वाला रूप और अग्रेसिव संवाद बेहद कैची जरूर हैं, पर समाज में इकोनॉमिक रिजर्वेशन, धार्मिक रिजर्वेशन और जाति आधारित रिजर्वेशन के विरोध में तर्क देने वाले आम लोग और जर्नलिस्ट भी बसते हैं। फिर कहूंगा, बात सही-गलत के साथ एक-दूसरे को बोलने की बराबर जगह देने की भी है। ये भी नहीं है कि हर दर्शक फिल्म पर अपने फीडबैक दे पाए या नई फिल्म बनाकर अपने जवाब दे दे। फिल्में अभी भी वन वे ट्रैफिक ही हैं। थोड़े वक्त पहले एनडीटीवी इमैजिन पर लॉन्च हुआ सीरियल 'अरमानों का बलिदान-आरक्षण' मैरिट की वकालत करता था और आधार बनाता था मंडल कमीशन के दौर को। यहां भी फिल्म मीडियम का इमोशनल इस्तेमाल करके इस सामाजिक बहस को प्रभावित करने की कोशिश की गई। जो फिल्मों को सिर्फ बर्गर की तरह खाते हैं, वो बिना सोचे-समझे उस लॉजिक के हो जाते हैं।

शिक्षा मंत्री रहते हुए कपिल सिब्बल ने 10वीं क्लास तक फेल-पास सिस्टम को हटाने की बात कही। अब भारत के हजारों अंदरुनी गावों में राजीव गांधी विद्यालयों में टीचर लगे नौजवान शिकायत करते हैं कि बच्चा पढ़ेगा नहीं, कॉपी खाली छोड़ देगा तो भी पास करना पड़ेगा। यहीं पर आती है 'थ्री इडियट्स', एलीट एजुकेशन के दायरे में रहते हुए कुछ फील गुड बात कहती है। फिल्म एक गैर-लिट्रेचर माने जाने वाले अंग्रेजी नॉवेल से प्रेरित थी, पर इसने फिल्म के जरिए एजुकेशन सिस्टम कैसा हो इस बहस पर एक अपने मन की टिप्पणी कर दी थी।

आप इशरत जहान एनकाउंटर और सोहराबुद्दीन शेख-कौसर बी एनकाउंटर के तथ्यों को देख रहे हैं और आपके सामने 'आन: मेन एट वर्क', 'अब तक छप्पन' और 2007 में आई विश्राम सावंत की 'रिस्क' है। इन फिल्मों में हर एक एनकाउंटर के साथ हमें मजा आता जाता है। कभी खुद से पूछा है क्यों? आप कभी पूछते नहीं और आपकी सोशल डिबेट कमजोर हो जाती है। ये जरूर याद रखिए की फिल्मों से किसी भी गलत विचार और इंसान तक को जस्टिफाई किया जा सकता है, फिर ये तो एनकाउंटर है। मधुर भंडारकर की 'आन' से होते हुए पुनीत इस्सर की 'गर्व' और हैरी बवेजा की 'कयामत: सिटी अंडर थ्रेट' तक पहुंचें तो सारे बुरे किरदार मुसलमान हैं। हां, कुछ भले मुसलमान भी स्क्रिप्ट में डाल दिए जाते हैं ताकि दर्शक का लॉजिक चुप हो जाए। ऐसा ही किरदार है सुनील शेट्टी का। एक पाकिस्तानी फौजी अधिकारी से बात करते वक्त भारतीय मुलमानों को देशभक्त बताने में ये स्क्रिप्ट बेहूदगी की हद तक स्टीरियोटिपिकल थी। एक लाइन गौर फरमाएं, 'अरे, पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान तो हिंदुस्तान में रहते हैं।' ये फिल्में ये भी प्रूव कर देना चाहती हैं कि हर आतंकी और अंडरवल्र्ड डॉन मुसलमान ही होता है।

दिल्ली की अदालत ने संविधान की धारा-377 पर एक पॉजिटिव फैसला सुनाया था। पर हिंग्लिश और हिंदी दोनों ही फिल्मों में अब भी फुसफुसाते हुए 'डू यू नो, शी इज लेस्बो' और 'तुम गे हो?' सुनाई दे ही जाता है। इनसे लेकर 'कॉमेडी सर्कस' तक में एलजीबीटी (गे) कम्युनिटी पर भद्दे मजाक किए जाते हैं।

'गुजारिश' में ईथन मेस्कैरेनहस की इच्छा मृत्यु यानी मर्सी किलिंग की याचिका खारिज हो जाती है। हमारे सभ्य समाज और कानून में इसे मंजूरी नहीं हैं पर संजय लीला भंसाली ने अपनी कहानी में फैसला किया कि दोस्त और सर्वेंट सोफिया मरने में ईथन की मदद करेगी। और फेयरवेल पार्टी के साथ ईथन एक हैपी मैन की तरह मरता है।

हाल ही में निर्देशक अश्विनी चौधरी ने माना था कि एक डायरेक्टर को अपनी कहानी का भगवान होने की फीलिंग होती है। वह जब चाहता है बरसात होती है, जब चाहता है कैरेक्टर रोता है और जब चाहता है हंसता है। मगर फिल्मी भगवान के वीडियो किस्सों और चाहत से बहुत कम बार असल जिंदगी के मुद्दे हल होते हैं। नीरज पांडे की ' वेडनसडे' में मुंबई बम धमाकों से पीडि़त एक आम आदमी पूरी कानून व्यवस्था और सिस्टम को अपने हाथ में लेता है, और कथित मुस्लिम आतंकियों को सिस्टम के हाथों फिल्मी अंदाज में मरवा देता है। उसे लगता है कि उसने धमाकों के जवाब में सही प्रतिक्रिया दी है। अगर यही सही है तो ऐसा सिविलियन जस्टिस तो बिहार में चोर को साइकिल के पीछे बांधकर खींचने का भी है। उसे पेड़ से बांधकर जानवरों की तरह मारने में भी है। क्या हम उसे स्वीकार कर सकते हैं?

गजेंद्र सिंह भाटी
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साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से

Saturday, August 6, 2011

मूड नहीं आपकी आपात आवश्यकता है 'आई एम कलाम'

फिल्म: आई एम कलाम
निर्देशक: नील माधव पांडा
कास्ट: हर्ष मायर, गुलशन ग्रोवर, हसन साद, पितोबाश त्रिपाठी, बिएट्रिस, मीना मीर
स्टार: तीन, 3.0

चूंकि मैं खुद बीकानेर मूल का हूं इसलिए फिल्म में भाषा और किरदारों के मारवाड़ी मैनरिज्म में रही बहुत सारी गलतियों को जानता हूं। मगर उन्हें यहां भूलता हूं। डायरेक्टर नील माधव सोशल विषयों पर फिल्में और डॉक्युमेंट्री बनाते हैं। उनकी ये पहली फिल्म बच्चों के लिए काम करने वाले स्माइल फाउंडेशन के बैनर तले बनी है। खासतौर पर बच्चों और हर तबके को समझ आए इसलिए फिल्म बेहद सिंपल रखी गई है। ऐसे में बात करने को दो ही चीजें बचती हैं। एक एंटरटेनमेंट और दूसरा मैसेज। दोनों ही मामलों में फिल्म 80-100 करोड़ में बनने वाली फिल्मों से लाख अच्छी है। धोरों पर बिछे म्यूजिक और दृश्यों को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए। एक बार सपरिवार जरूर देखें।

कलाम से मिलिए
अपने धर्ममामा भाटी (गुलशन ग्रोवर) के फाइव स्टार नाम वाले ढाबे पर काम करने लगा है छोटू (हर्ष मायर)। जयपुर रोड़ पर बसे रेतीले डूंगरगढ़ और बीकानेर की लोकेशन है। ढाबे पर बच्चन का बड़ा फैन लिप्टन (पितोबाश त्रिपाठी) भी काम करता है। वह छोटू से जलता है क्योंकि तेजी से फ्रेंच व अंग्रेजी बोलना और भाटी मामा जैसी चाय बनाना सीखकर बाद में आया छोटू सबकी आंखों का तारा बन रहा है। ऊपर से वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी भी बनना चाहता है। पास ही में एक हैरिटेज हवेली है जहां रॉयल फैमिली रहती है और सैलानी भी आकर रुकते हैं। सुबह-सुबह अपनी ऊंटनी पर बैठकर चाय पहुंचाने जाते छोटू (खुद को वह कलाम कहलवाना ज्यादा पसंद करता है) की दोस्ती हवेली के राजकुमार कुंवर रणविजय (हसन साद) से हो जाती है। मगर दोनों की मासूम दोस्ती के बीच ऊंचे-नीचे की खाई है। मगर छोटू के सपने अडिग हैं, उसकी आंखों में भयंकर पॉजिटिविटी है और चेहरे पर हजार वॉट की स्माइल है। बच्चों की शिक्षा और उन्हें सपने देखने देने की सीख के साथ फिल्म खत्म होती है। एक नैतिक शिक्षा की अच्छी कहानी की तरह क्लाइमैक्स करवट बदलता है।

सुंदर निर्मल कोशिश
अपने-अपने बच्चों को हर कोई ये फिल्म आपातकालीन तेजी से दिखाना चाहेगा। इसमें आज के प्रदूषित माहौल का एक भी कार्बन कण नहीं है। अच्छी भाषा और स्वस्थ मोटिवेशन के साथ सिनेमा के आविष्कार को सार्थक करते हुए हम हमारे वक्त की सख्त जरूरत वाली कहानी परदे पर देखते हैं। ओवरऑल आडियंस के साथ खासतौर पर बच्चों के लिए 'चिल्लर पार्टी' के बाद आई दूसरी अच्छी फिल्म है 'आई एम कलाम'।

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इस फिल्म की टेक्नीक और शुद्धता-अशुद्धता पर मुट्ठी भर बातें और हो सकती है। कहां इसकी शूटिंग हुई। वो जगह कैसी है। बीकानेर के जिस भैंरू विलास में फिल्म के बहुत बड़े हिस्से को फिल्माया गया, उसका इतिहास क्या रहा है। कैसे उस हैरिटेज हवेली की अपनी एक शेक्सपीयर के नाटकों सी तबीयत वाली कहानी है। वो ढाबा असल में कैसे डूंगरगढ़ रोड़ पर बना है। उस ऊंटनी के मालिक का क्या नाम है। उस ऊंटगाड़ी में बैठे ढोली का नाम क्या है। कैसे फिल्म की स्टारकास्ट के कपड़ों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। कैसे एक उड़ीसा मूल का फिल्म डायरेक्टर मारवाड़ की पृष्ठभूमि, उसकी रेत, उसके भाषाई रंगों, वहां के कल्चर में छिपी सत्कार की शैली और लोगों को अपने तरीके से एक दो घंटे की फिल्म में दिखाता है। कैसे उसके इस परसेप्शन को दुनिया भर के लोग 'आई एम कलाम' देखने के बाद अपना सच बना लेते हैं। चूंकि फिल्म का संदेश पवित्र है इसलिए ये सब बातें और तकनीकियां बाद में भी देखी-भाली जा सकती हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, July 31, 2011

गायें जलाते एलियन और हीरोइक चरवाहे

फिल्म: काऊबॉयज एंड एलियंस (अंग्रेजी)
निर्देशक: जॉन फेवरॉउ
कास्ट: डेनियल क्रेग, हैरिसन फोर्ड, ओलिविया वाइल्ड, सैम रॉकवेल, पॉल डेनो
स्टार: तीन, 3.0

पहले ही दृश्य में जब पथरीले खाली लैंडस्केप में कैमरा शांति से मूव कर रहा होता है। अचानक से फ्रेम में डेनियल क्रेग ठिठक आता है। बेहोशी से जागा हुआ। फिर तीन काऊबॉयज उसे परेशान करने लगते हैं और वह करारा जवाब देता है। अच्छा सीन है। एक और सीन में कर्नल बने हैरिसन के मवेशियों को चराने वाला नदी किनारे दारू के नशे में हल्का होने को होता है कि बड़ा धमाका होता है। वह नदी में गिर जाता है। बाहर आकर देखता है तो सारी गायें और मवेशी जल रहे होते हैं। इन दो सीन में जो गैर-मशीनी रोचक बात है, वह मूवी में आगे भी जारी रह पाती तो मजा आ जाता। हालांकि ये एलियंस से न्यूक्लियर हथियारों के साथ लडऩे वाली फिल्मों से काफी दूर है और हमारा टेस्ट बदलती है। मेरे लिए यही खास है। इस जॉनर की कहानियों में इस तसल्लीबख्श फिल्म को फ्रेंड्स को साथ देख सकते हैं। फैमिली के साथ भी। बस अति-महत्वाकांक्षी होकर न जाएं।

चरवाहों और एलियंस की शत्रुता
एरिजोना के बंजर रेगिस्तान की बात है। जेक लोनरगन (डेनियल क्रेग) की बेहोशी एकदम से टूटती है। याददाश्त गायब है। कलाई पर एक रहस्यमयी चीज बंधी है। वह अगले टाउन में घुसता है। धीरे-धीरे पता चलता है कि वह बड़ा लुटेरा है। इस टाउन के सबसे ताकतवर आदमी कर्नल डॉलराइड (हैरिसन फोर्ड) का सोना भी उसने लूटा था। ये सब अपने पुराने हिसाब चुकता करें, उससे पहले इन पर एलियन विमानों का हमला होता है। कर्नल के बेटे पर्सी (पॉल डेनो) को भी बाकी लोगों की तरह ये विमान उड़ा ले जाते हैं। अब जेक, कर्नल और एक घूमंतू लड़की एला (ओलिविया वाइल्ड) अपने दोस्तों-दुश्मनों सबसे मिलकर इन एलियंस से टक्कर लेते हैं।

कंसेप्ट हमें खींचता है
मॉडर्न अमेरिका में एलियन अटैक हमने बहुत देख लिए। 'बैटलफील्ड: लॉस एंजेल्स', 'इंडिपेंडेंस डे', 'वॉर ऑफ द वल्ड्र्स', 'प्रिडेटर' और 'मैन इन ब्लैक' जैसी दर्जनों फिल्में हमारे सामने हैं। ये जो एलियन-काऊबॉय की लड़ाई है यहां कोई अत्याधुनिक हथियार और फाइटर प्लैन नहीं है। काऊबॉयज को लडऩा है तो ले-देकर अपने घोड़ों पर चढ़कर और पिस्टल-राइफल्स के सहारे। बिल्कुल नया और तरोताजा करने वाला ये कंसेप्ट है। साथ ही गुजरे दौर की तासीर वाले 'बॉन्ड' ब्रैंड डेनियल क्रेग हैं और 'इंडियाना जोन्स' छाप (बूढ़े होते) हैरिसन फोर्ड हैं। चूंकि बात 1873 की है, इसलिए एलियंस को सोना चाहिए।

कहानी के वक्त से न्याय
डेनियल ने उस दौर के हिसाब से अपना वजन कम किया है। एलियंस जानवरों की तरह भागते और शैतानों की तरह दिखते हैं, जो कहानी के टाइम के साथ न्याय करता है। लोकेशन और कॉस्ट्यूम्स में कोई नुक्स नहीं हैं। बस कहानी में बहुत सी जगहों पर गैप नजर आते हैं। इंतजार करना पड़ता है। इसे कमी भी माना जा सकता है और शोर-शराबे से दूर एक पीसफुल अलग टेस्ट वाली एलियन मूवी भी। क्लाइमैक्स में भी ज्यादा खौफ और डर पैदा करने की कोशिश नहीं की गई है। आखिर हमारे हीरो लोगों को अजेय जो बताना है भई। जैसे हमारी साउथ की फिल्मों में होता है। हीरो एक भी मुक्का नहीं खाता है। इस फिल्म पर आते हैं। एलियंस किसी लेजर रोशनी से इंसानों को नहीं सोखते हैं, बल्कि जंजीरों और हुक से खींचकर उड़ा ले जाते हैं। इस तथ्य को भी फिल्म के प्लस में रख लीजिए।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 30, 2011

एक स्क्रिप्ट जिसे रद्दी में होना था

फिल्म: गांधी टु हिटलर
निर्देशक: राजीव रंजन कुमार
कास्ट: रघुवीर यादव, नेहा धूपिया, नलिन सिंह, निकिता आनंद, अमन वर्मा, लकी वखारिया
स्टार: एक 1.0

पचास मिनट। पचास मिनट हैं आपके पास। ये फिल्म झेलने के लिए। क्योंकि ज्यादा चांस यही है कि उन चार लोगों की फैमिली की तरह आप भी पचासवें मिनट तक थियेटर से उठकर चले जाएंगे। मैं हिम्मती था तो बैठा रहा। ऐसा नहीं है कि लोग सीरियस फिल्में देखना नहीं चाहते। बस राकेश रंजन कुमार का डायरेक्शन हो और नलिन सिंह का लेखन हो तो सीरियस, पॉलिटिकल और विचाराधारा वाले विषयों पर बनी हिंदी फिल्मों से विश्वास उठ जाता है। हिटलर का भय क्या होता है और उसका ऑरा क्या था ये जानना है तो आप 2008 में आई निर्देशक ब्रायन सिंगर की फिल्म 'वॉलकायरी' देखिए। इसमें हिटलर बने डेविड बैंबर को देखिए, कर्नल स्टॉफनबर्ग बने टॉम क्रूज को देखिए। 'गांधी टु हिटलर' में हम कहानी कहने के निहायती गैर-गंभीर तरीके से किसी भी फिल्मी मनोरंजन वाले भाव को तरस जाते हैं। फिर होता ये है कि रोने वाले सीन में भी हम निर्दयी बनकर हंसते हैं। मेरी सख्त चेतावनी - ये फिल्म कभी न देखें।

विचारधारा की फेल कहानी
दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मन तानाशाह एडॉल्फ हिटलर (रघुवीर यादव) की सेना कमजोर पड़ रही है। आजाद हिंद फौज बनाने वाले बोस (भूपेश कुमार) जर्मनी छोड़ देते हैं और 1945 में उनके सैनिक जंगलों-पहाड़ों में भटकते हैं। बलवीर सिंह (अमन वर्मा) और उसके पांच-छह साथियों की टुकड़ी भी भटक रही है। बलवीर की गांधीवादी वाइफ अमृता (लकी वखारिया) पति के लौटने का इंतजार कर रही है। इंडिया में गांधी (अविजीत दत्त) अंहिसा का महत्व पढ़ा रहे हैं। कहानी गांधी, हिटलर और बलवीर के तीन सिरों पर चलती है।

सीरियस विषय, बचकाना ट्रीटमेंट
पूरी फिल्म में रघुवीर सैनिक वर्दी की बजाय सूट पहने हैं, जो हिटलर को ऑथेंटिक और प्रभावी नहीं बना पाता। उनका अंग्रेजी एक्सेंट कमजोर है। ऐसे में उनके मुंह से शेक्सपीयर के उद्धरण बेहद अप्रभावी लगते हैं। फिल्म की सबसे बड़ी नाकामी यही है कि इस हिटलर से जरा भी डर नहीं लगता। नलिन शर्मा हिटलर के प्रॉपगैंडा मिनिस्टर जोसफ गॉबेल्स बन हैं। गॉबेल्स को वह क्षण भर भी नहीं जीवित कर पाते। साथी कलाकारों पर वह बोझ की तरह लगते हैं। जर्मनी की गोरी चमड़ी वाली सेना के उलट फिल्म में हिटलर और उनके सब कमांडर सांवले हैं। यही नहीं फ्रांसीसी सेना और रूसी सेना के सैनिक भी सांवले हैं। अब जिसने इतिहास पढ़ा है और ऐसे इश्यू पर बनी हॉलीवुड या यूरोपियन मूवीज देखी हैं, वो इस तथ्य को कैसे निगल पाएगा। इस फिल्म के शॉट्स के साथ दूसरे विश्वयुद्ध की असली रॉ फुटेज मेल नहीं खाती।

फिल्म बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
अविजित दत्त ने गांधी के रोल के साथ न्याय किया है। वो कद, त्वचा, चाल और भावों से ऑथेंटिंक गांधी लगते हैं। पर दो सीन छोड़कर पूरी फिल्म में वह बस चलते रहते हैं। इसका कोई सेंस नहीं बनता। बताया गया था कि हिटलर को गांधी के लिखे खतों पर ये फिल्म आधारित है। फिल्म जब खत्म होने को होती है तब ऐसा जिक्र आता है। दूसरा हिंसा और अहिंसा जैसी सीरियस विचाराधाराओं से साथ न्याय भी नहीं हो पाता है। अमन वर्मा का अभिनय फिल्म में सबसे बेहतर है। मगर जंगलों में भटकते उन्हें अपनी बीवी के और उनकी बीवी को उनके खत कैसे मिलते हैं, ये समझ नहीं आता। स्टोरी डिवेलपमेंट जैसा कुछ भी इस स्क्रिप्ट में नहीं है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, July 27, 2011

वो जो सोसायटी के ढांचे पर प्रहार करना चाहते थे

फिल्म 'होबो विद अ शॉटगन' का केंद्रीय किरदार जो गन चलाकर "न्याय" करता है.

आंदर्स. गिरफ्तार होने के बाद.
आंदर्स बेरिंग ब्रूविंग ने पिछले हफ्ते नॉर्वे में हुए नरसंहार को करना तो कबूल लिया है, मगर उसकी आपराधिक जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं किया है। उसे नहीं लगता कि उसे सजा मिलनी चाहिए। उसके वकील गेर लिपिस्टेड कहते हैं, "आंदर्स ने माना था कि इन कृत्यों को करना बहुत ही निर्मम था, पर उसके दिमाग में इनका किया जाना जरूरी था। वह सोसायटी और सोसायटी के ढांचे पर प्रहार करना चाहता था।"

आंदर्स से आते हैं इस केस के मनोविज्ञान पर और ऐसे विषयों की प्रतिनिधि फिल्मों पर। ऐसी फिल्में जो महीन तरीके से 'मेकिंग ऑफ अ किलर' विषय का स्टडी मटीरियल बनती हैं। जो सोसायटी पर अटैक करने वालों के मन में घुसती हैं। दो महीने पहले रिलीज हुई निर्देशक जेसन आइजनर की कैनेडियन फिल्म 'होबो विद अ शॉटगन' एक हक्का-बक्का करने वाली फिल्म है। इसमें 67 साल के डच एक्टर रुटजर हुवे ने एक ऐसे बिना घर-बार के फक्कड़ की भूमिका अदा की है जो 'होप टाऊन' में आता है। इस कस्बे में होप कहीं नहीं है बस अपराध और अन्याय है। वह मेहनत करने की कोशिश करता है, एक अपराधी को पुलिस स्टेशन तक पकड़कर ले जाता है, पर पुलिस उसे ही पीटती है। उसके सीने पर गर्म लोहा दागकर कचरे के डिब्बे में फैंक दिया जाता है। बिना संवेदना और बिना न्याय वाली व्यवस्था में वह बंदूक हाथ में ले लेता है। कस्बे के अपराधियों को एक-एक करके खत्म करता है। उसके कृत्यों से लोगों में हौसला आता है। मैं इस फिल्म के संदेश, हिंसक कंटेंट और निष्कर्ष से वास्ता नहीं रखता, पर इस बुजुर्ग होबो की कहानी में आप एक किलर को बनाने में सिस्टम और समाज की भूमिका को देखते हैं।

मार्टिन स्कॉरसेजी की कल्ट फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' में रॉबर्ट डि नीरो का किरदार ट्रैविस भी उसी मानसिक ब्लास्ट वाली स्थिति में है। मैनहैटन के ऊंचे नाम और चमक-दमक तले ट्रैविस सबसे करीब है शहर की परेशान करने वाली असलियत के। वह उनींदा है। रात-दिन टैक्सी चला रहा है। इसमें चढऩे वालों को देखता है। पीछे की सीट पर न जाने क्या-क्या होता रहता है। जब वो उतरते हैं तो सीट की सफाई करते हुए इस पूर्व मरीन के दिमाग में शहर की बदसूरत तस्वीर और गाढ़ी होती जाती है। उसे शहर के वेश्यालय परेशान करते हैं। एक लड़की उसे भली दिखती है, पर धोखा खाता है। चुनाव होने को हैं और सभी राजनेताओं के बयान उसे खोखले और धोखा देने वाले लगते हैं। कहीं व्यवस्था नहीं है। अमेरिका में राजहत्याओं या पॉलिटिकल एसेसिनेशन्स का ज्यादातर वास्ता ट्रैविस जैसे किरदारों से ही रहा है। जैसा हमारे यहां नाथूराम गोडसे का था। हां, उसका रोष विचारधारापरक और
साम्प्रदायिक ज्यादा था, यहां ट्रैविस सिस्टम से नाखुश हैं।

'फॉलिंग डाउन' के पोस्टर में माइकल डगलस; 'टैक्सी ड्राइवर' में रॉबर्ट.
ठीक वैसे ही जैसे जोएल शूमाकर की 1993 मे आई फिल्म 'फॉलिंग डाउन' का विलियम है। इस रोल को माइकल डगलस ने प्ले किया था। विलियम इस दिन पूरे लॉस एंजेल्स को आड़े हाथों लेता है। अकेले में उसे लूटने की कोशिश करने वाले गुंड़े, परचून की दुकान पर छुट्टे मांगने पर सामान खरीदने की शर्त रखता कोरियाई दुकानदार और फास्ट फूड चेन में ब्रेकफस्ट की जगह जबरदस्ती लंच थोपता व्यक्ति... ये सब विलियम की फ्रस्ट्रेशन का शिकार होते हैं।

होबो, ट्रैविस और विलियम तीनों भले ही सही नहीं हैं, पर सिस्टम और समाज भी इन तीनों से पहले इन तीनों से ज्यादा दोषी है। आंद्रे का केस इनसे अलग है, पर ये बात समान है कि आप अपने मीडिया, समाज और राजनीति के जरिए लोगों को जैसा बना रहे हैं, वो वैसा ही बन रहे हैं। माइकल मूर की 2002 में बनी डॉक्युमेंट्री 'बॉलिंग फॉर कोलंबाइन' नॉर्वे नरसंहार जैसे हादसों को सबसे ज्यादा सार्थकता से देखती है। ऑस्कर से सम्मानित ये डॉक्यु फीचर बताती है कि क्यों 1999 का कोलंबाइन हाई स्कूल नरसंहार हुआ और क्यों अमेरिका में सबसे ज्यादा अपराध दर है। इस असल वाकये में एरिक और डिलन नाम के दो सीनियर छात्रों ने एक सुबह अपने स्कूल कैंपस में अचानक गोलियां चलानी शुरू कर दी और दर्जनों को घायल करते हुए 12 दोस्तों और एक टीचर को मार डाला। बाद में दोनों में खुद को गोली मार ली।

(साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित.)

Tuesday, July 26, 2011

'मेरे सिवा धीरज पांडे का किरदार कोई भी नहीं कर पाता'

अगर प्रशां 'चाणक्य' जैसी क्लासिक टीवी सीरिज में कॉस्ट्यूम डायरेक्टर रहे हैं तो उन्होंने श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी और सुभाष घई जैसे डायरेक्टर्स की फिल्मों का आर्ट डायरेक्शन भी संभाला है। वह गाने भी लिखते हैं, गाते हैं, म्यूजिक भी देते हैं। टीवी पर वह 'फुलवा' कर रहे हैं। हाल ही में फिल्म 'ये साली जिंदगी' और 'भिंडी बाजार' में नजर आए। इतना सब करने के बावजूद ज्यादातर लोगों ने उन्हें नोटिस किया 'मर्डर-' में धीरज पांडे का रोल करने के बाद। वह कहते हैं कि इस फिल्म में लोगों ने उनकी तुलना मशहूर हॉलीवुड एक्टर एंथनी हॉपकिन्स तक से कर डाली। बेहद मुंहफट और संजीदा प्रशांत नारायणन से ये बातचीत।

बहुत बरसों से अच्छा काम कर रहे हैं, पर नोटिस हुए 'मर्डर-२' में।
मुझे लगता है मैं आज तक गरीबों और दोस्तों के साथ काम करता आया हूं। इन्होंने न मुझे कभी ढंग के पैसे नहीं दिए और न ही उनके पास अपनी मूवी रिलीज करने के पैसे थे। चाहे आप 'छल' देख लो, 'वैसा भी होता है' देख लो। ऐसी काफी अच्छी फिल्में में बुरी प्लानिंग वाले लोगों के साथ कर चुका हूं। अब कोई पॉइंट प्रूव नहीं करना चाहता हूं, कि अच्छा रोल है तो कर लेता हूं।

1992 से लेकर अब तक आपने टीवी और मूवीज दोनों को बदलते देखा है। डीडीवन के प्रोग्रैम्स से 'बंदिनी' और 'फुलवा' तक। पैरेलल और मैनस्ट्रीम मूवीज की फिक्स कैटेगरी से आज की बदलती लेंग्वेज वाली फिल्मों तक। इस सबको कैसे देखते हैं?
दुख ये होता है कि इतने सालों में हमारे पास तीन-चार अच्छे एक्टर्स ही हैं। इस दौरान न कोई विश्वस्तरीय एक्टर निकला है न कोई टेक्नीशियन। एक ए.आर.रहमान है जो बाहर की चीजें कर रहा है। मैं हूं, इरफान है। हम लोग बाहर की फिल्में करते हैं। टेक्नॉलजी, प्रैशर और मनी सब कुछ बढ़ गया है। पर पहले हम लोगों के पास टीवी में जो क्वालिटी होती थी, वह सेडली कम हुई है।

तो अपने काम के बारे में आगे क्या सोचा है?
मेरा काम आप बीस-तीस साल बाद भी देखेंगे तो वही फ्रैशनेस, जोश और जज्बा पाएंगे। मैं चाहता हूं कि मेरा माइंडब्लोइंग डीवीडी क्लेक्शन बने जो कोई भी इंडियन एक्टर सपने में ही देखे। यही लक्ष्य है। मुझे बस स्टूपिड मनी नहीं कमानी है। ये सारे एक्टर लोग तेल वेल बेच रहे हैं। कच्छे, बनियान, दारु और पान पराग बेच रहे हैं। अरे यार क्या करोगे, कितना पैसा डालोगे, कहां डालोगे। अगर जरा सी एक्टिंग की तमीज होती तो ये सब नहीं करते। मैं यार सिर्फ एक्टिंग ही बेचता आया हूं। इन लोगों को मेरे लेवल तक पहुंचते-पहुंचते लाइफ में काफी टाइम लगेगा।

भट्ट कैंप की 'मर्डर-2 में आपका चेहरा नहीं जुड़ता तो फिल्म में देखने लायक कुछ था नहीं?
मैं तो कहता हूं न यार, कि अगर किसी और ने किया होता तो ये रोल वो बर्बाद कर चुका होता। क्योंकि इस रोल में बर्बादी के बहुत चांसेज हैं। जो भी एक्टर थोड़ी समझदारी से काम नहीं लेगा तो वो सिर्फ बेवकूफ दिखेगा यहां। इसमें खुल के मूर्खता करने का मौका है और कहीं-कहीं उससे आप जितना बचोगे उतना ही दिखोगे।

कैरेक्टर के स्पेस में कितना घुसना है, कैसे घुसना है, क्या एड करना है, कैसे तय करते हैं?
बस अपने राइटर और डायरेक्टर पर भरोसा करो। आप उनसे मिलते हैं, बात करते हैं, उनका लहजा सुनते हैं। ये सब ऑब्जर्व करना पड़ता है। मैं पूरा स्लिप याद रखता हूं कि सीन 26 में क्या है और सीन 23 का ए सेक्शन कहां 72 बी में कनेक्ट करता है। यहां लोग सिर्फ अपनी डायलॉग कॉपी मंगवाते हैं, मेरे पास काफी टाइम से स्लिप पड़ा होता है। मेरा मैथड एक्टिंग से दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं है। मुझे बकवास किस्म का काम लगता है वो। अब सिर मुंडवाने और ये वो करवाने से एक्टिंग हो जाती तो क्या बात थी।

अपने बारे में कुछ बताइए?
मैं मूलत: केरल से हूं, जो दिल्ली का है और मुंबई का हो गया है। चौथी क्लास में दिल्ली आ गया। फादर डिफेंस में रहे। ग्रेजुएशन किरोड़ीमल कॉलेज से की, फिर दिल्ली स्टेट बैडमिंटन प्लेयर रहा। फिर ये सब छोड़-छाड़ के इस लाइन में आ गया प्रॉड्यूसर बनने। एक्टिंग नहीं करनी थी यार। बहुत साल खो दिए अपने। कॉस्ट्यूम डायरेक्शन किया, डायरेक्शन किया, चीफ असिस्टेंट डायरेक्शन किया। गोविंद निहलानी की फिल्म में असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर था। 'रुकमावती की हवेली', फिर 'सौदागर', फिर 'सरदार पटेल'। केतन मेहता का भी असिस्टेंट रहा एक साल।

सिर्फ प्रॉड्यूसर ही क्यों बनना चाहते थे?
हमारे साथ प्रॉब्लम ये है कि ज्यादातर प्रॉड्यूसर्स योग्य नहीं हैं। वो निगरानी नहीं रख सकते कि डायरेक्टर क्या कर रहा है। मतलब सेट पर, स्क्रिप्ट, थोड़ा कमांडिंग आदमी होना चाहिए, क्योंकि प्रॉड्यूसर का हाथ सिर्फ पैसे बांटने में नहीं जाता है। उसे तो ये भी पता है कि कैमरे में कौनसा लेंस लगा है। मतलब मैं उस किस्म का क्रिएटिव हैड बनना चाहता था।

अब क्रिएटिव हैड बनेंगे या एक्टिंग करनी है?
मैं सब कुछ करना चाहता हूं। कंपोजर भी हूं। गाने लिखता हूं। कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट भी तैयार है। एक शॉर्ट स्टोरी बुक और कॉफी टेबल बुक लिख रहा हूं।

इन बरसों में कितनी बार बहुत निराश हुए?
जब भी हुआ अपनी नॉन प्लानिंग की वजह हुआ। इसमें गैर-भरोसेमंद लोगों पर भरोसा करना भी शामिल है। पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि आर अब क्या करेंगे।

डिफेंस फैमिली से हैं तो पेरंट्स कहते नहीं कि ये तू क्या कर रहा है?
नहीं 'मर्डर-२' केरला में भी रिलीज हुई। तो बड़े खुश थे, पिक्चर देखी भी उन्होंने। मेरे डैड ने धीरे से मेरी मां को बोला, किसी को कानों कान खबर नहीं होनी चाहिए कि ये हमारा बेटा है। फिर फिल्म जैसे ही खत्म होगी, चुपचाप से चले जाएंगे। (ठहाके लगाते हैं)

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गजेंद्र सिंह भाटी