Thursday, April 14, 2011

पथैटिक हैं एक्टिंग सिखाने वाली ये दुकानें: ओमपुरी

ओमपुरी के साथ संक्षिप्त बातचीत...

अपनी एक नई फिल्म के प्रचार से सिलसिले में चंडीगढ़ आए हुए थे एक्टर ओमपुरी। उनसे पहली बार आमना-सामना हो रहा था। सफेद बाल, सफेद टी-शर्ट, खराश भरी भारी आवाज और भारी होते शरीर के साथ उनका एक रौबीला स्वरूप भी दिखाई दे रहा था। हालांकि ये कहीं-कहीं नेगेटिव भी हो रहा था, तो कहीं मित्रवत भी, उन्हें मीडियावालों पर गुस्सा आ रहा था, तो सभी लोग सही एंगल से तस्वीरें खींच पाए इसकी चिंता भी। वो किसी नशे में लग रहे थे तो पूरी तरह होश-ओ-हवास में भी। उनके साथ बैठे तनु वेड्स मनु के पप्पी जी यानी एक्टर दीपक डोबरियाल डर से सहम रहे थे तो बाहर से सौम्य होने की कोशिश भी कर रहे थे। मतलब सब कुछ नियंत्रण में होते हुए भी तुरंत बेकाबू हो जाएगा ऐसा लग रहा था। मैंने अपनी बारी का यही कोई चार घंटे इंतजार किया। फिर बात की तो कुछ परेशान होते हुए भी सहज होकर उन्होंने किनारे बैठकर बात की। मगर तब तक मेरी इच्छा नहीं रही। बात करने का इतना उत्साह अब नहीं बचा था। पर ये भी था कि बहुत कुछ पूछना है। तो चार सवाल पूछे। उनके जवाब की कुछ जरूरी बात छूट भी गईं। भीड़-भड़ाके और हड़बड़ाहट के बीच बात टूटी। फिर करीब एक घंटे बाद एक होटल की दूसरी मंजिल पर नाश्ता करते वक्त उनसे आखिरी सवाल पूछा, इसमें कुछ ऑफ द रेकॉर्ड बिंदू भी रहे। फिर उन्हें उठना पड़ा। मिजाज ठीक नहीं थे तो उठकर चल पड़ा। दूसरी मंजिल की लिफ्ट की तरफ जा रहा था कि वो कुछ और मीडियावालों से बातकर सामने आते दिखे। मैंने हाथ मिलाकर कह दिया चलता हूं सर। थैंक यू। इस बार उनकी पकड़ में और चेहरे की मुस्कान में अलग ही अपनत्व लगा। पर उन्हें पांच मिनट में ही आसमान की उड़ान भरनी थी और मुझे सड़क पर उड़ना था। सो, उड़ चले। सोचता हूं किसी दुरूस्त माहौल में पारस्परिक रूचि के साथ उनसे फिर मुलाकात होगी, लंबी बातचीत के लिए। फिलहाल ओमपुरी के साथ ये संक्षिप्त बातचीतः

‘आक्रोश’ और ‘मंडी’ जैसी फिल्मों में आपने काम किया। वहां से आज इतने सालों का सफर तय कर लिया। मैंने देखा है कि अपनी फिल्मों में आप आज भी हर एक सीन में अपना सौ फीसदी देते हैं। आखिर वो क्या चीज है जो आपको इतने साल बाद आज भी ऐसा करने की प्रेरणा देती है या आप कर पाते हैं?
कुछ नहीं, बस इस क्षेत्र और अभिनय की विधा से प्यार है इसलिए ऐसा कर पाता हूं। बाकी बहुत से ऐसे एक्टर हैं जो आज भी दशकों बाद अपने काम को उसी तरह से लिए हुए हैं। इसमें मैं अमिताभ बच्चन की बहुत इज्जत करता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और उनके जैसे अपने काम को गंभीरता से लेने वाले इंसान बहुत कम हैं। इस उम्र में भी उसी अनुशासन के साथ काम कर रहे हं। तो मैं भी ऐसे ही कर लेता हूं।

कॉमेडी में फूहड़पन या वल्गैरिटी को आप कैसे लेते हैं। टीवी पर कॉमेडी सर्कस जैसे प्रोग्रैम हैं जिसमें सिर्फ हंसी पैदा करने के लिए एक्टर एक दूसरे को लातें मारते हैं और डबल मीनिंग बातें करते हैं?
मैं इसके बिल्कुल खिलाफ हूं। बल्कि मैं तो ऐसे प्रोग्रैम देखता ही नहीं हूं। ये बहुत ही घटिया और सस्ती कॉमेडी होती है जिसे एक्टिगं तो जोड़कर ही नहीं देखा जाना चाहिए।

कॉमेडी मूवीज तो आपने लगातार बहुत की हैं, अब आने वाले वक्त में क्या आपको सीरियस काम करते हुए भी देखा जा सकेगा?
नहीं यार मैं नहीं समझता हूं कि अब मैं करुंगा। सीरियस सिनेमा में मेरा टाइम बीत चुका है। आई एम ओवर। पर हां, कुछ दूसरी फिल्में कर रहा हूं। इसमें ‘डॉन-2’ है और ‘अग्निपथ-2’ है। बाकी तो कर लिया यार जो करना था।

फिर से सवाल कॉमेडी पर है। आपने तकरीबन हर प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ काम किया है। ऐसे में हमारे यहां का बेस्ट डायरेक्टर इसमें आप किसे मानते हैं?
मैं प्रियदर्शन को बहुत काबिल निर्देशक मानता हूं इसमें। फिल्मों और कॉमेडी को लेकर इसमें जो उनकी समझ है उसका कोई मुकाबला नहीं है। जब हम ‘मालामाल वीकली’ की शूटिंग कर रहे थे तो एक सीन के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप इस तरीके से भागने और गिरने को कह रहे हैं ये तो बिल्कुल अजीब सा है। रियलिस्टक भी नहीं है और इसका सेंस भी कुछ समझ में नहीं आता। तो उन्होंने अपना मतलब समझाया। उन्होंने कहा कि आप टॉम एंड जैरी की कार्टून मूवी देखिए। इसमें वो बिल्ला चूहे के पीछे भागता है, उसके लगती है, पीटा जाता है खून भी आ जाता है पर लोग हंसते हैं, ठीक वैसे ही हमारी कॉमेडी है। लोग रिलैक्स होने और एंजॉय करने आते हैं। ऐसे में थोड़ा सा खून निकलने और गिरने-पड़ने भागने का मतलब सिर्फ टॉम एंड जैरी के संदर्भ में ही है। तो इस तरह उनकी समझ और उनकी क्षमता काफी ज्यादा है।

प्रियदर्शन की फिल्मों में जो गांव दिखाया जाता है, जो लोग दिखाए जाते हैं उसका असली गांव से कोई वास्ता नहीं होता। इसपर आपका क्या कहना है?
बिल्कुल सही है। उनके गांव से असली गांव बहुत जुदा होते हैं। स्टोरी नॉर्थ ईस्ट के धूप भरे गांवों की होती है और मूवी में साउथ के गांव शूट होते हैं। ये अंतर तो होता है।

जो युवा फिल्मों में आना चाहते हैं, एक्टर बनना चाहते हैं उन्हें आप क्या सलाह देंगे?
बस यही की पूरे पैशन के साथ आएं। लेकिन पहले सबसे जरूरी है कि अपनी पढ़ाई को पूरा करें। याद रखें पहले सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई को पूरा करें। उसके बाद किसी अच्छे इंस्टिट्यूट से इसकी ट्रेनिंग लें। एक्टिंग सिखाने के नाम पर जो ये दुकानें खुल गईं है न, जो लाखों रुपए लेकर तीन महीने में एक्टिंग सिखाने का दावा करती हैं, उनमें बिल्कुल नहीं जाएं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी), या एफटीआईआई, पुणे (फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूड ऑफ इंडिया) या सत्यजीत रे इंस्टिट्यूड से एक्टिंग सीखें।

मगर जिन एनएसडी, एफटीआईआई और सत्यजीर रे संस्थान का आपने जिक्र किया वो तो बहुत ही थोड़े हैं, इस फील्ड में आने वाले बहुत ज्यादा तो वो कैसे आ पाएंगे। इसके लिए क्या उन्हें एकलव्य बनना पड़ेगा?
नहीं, पर इसका मतलब ये नहीं कि वो इन दुकानों में जाएंगे। मेहनत करो और इन इंस्टिट्यूड में आकर दिखाओ। अगर नहीं आ सकते तो इसका मतलब तुममें एक्टर बनने की क्षमता ही नहीं है।

पर सीटें भी तो बहुत कम हैं?
तो क्या हुआ। उन्हें हासिल करो। मैं चंडीगढ़ में एक बड़े प्राइवेट एक्टिंग इंस्टिट्यूड में गया था। वहां शूटिगं कर रहा था तो मुझसे कहा गया कि आप जाएंगे तो बच्चों का हौसला बढ़ेगा। जब मैं गया तो वहां के बच्चों की एक्टिंग की हालत देखकर मुझसे सहा नहीं गया। आई मीन वो लोग पथैटिक थे। पर वहां आए हुए थे और क्यों तो साब एक्टिगं सीख रहे हैं, लाखों रुपए दिए हैं। तो ये हालत है, मुंबई की भी बाकी दुकानों की, पुणे की भी प्राइवेट दुकानों की। सब बेकार हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, April 10, 2011

बच्चों का प्यारा ब्लू...

फिल्मः रियो (अंग्रेजी, थ्रीडी-एनिमेशन)
डायरेक्टरः कार्लोस सेल्दाना
वॉयसः जेसी आइजनबर्ग, एनी हैथवे, रॉड्रिगो सेंतोरो, बेबल गिलबर्टो, केट डि कास्टिलो, जेमी फॉक्स, जॉर्ज लोपेज, विलियम, ट्रेसी मॉर्गन, जेक टी. ऑस्टिन, लेस्ली मेन, जेमीन क्लीमेंट, जेन लिंच, रॉबिन थाइक
स्टारः तीन, 3.0


फीचर फिल्मों के मुकाबले एनिमेशन मूवीज हमेशा बेस्ट परफॉर्म करती हैं। 'रियो' पहले आ चुकी 'शार्क टेल्स' या 'आइस एज' जितनी फनी तो नहीं है पर नीले तोते की ये कहानी बच्चों को खूब पसंद आएगी। ज्यादा कैरेक्टर होने की वजह से कहीं मूवी कुछ भारी होती है पर ओवरऑल ठीक लगती हैं। मुझे निराशा हुई कहानी से, क्योंकि इसमें पूरा टच बॉलीवुड वाला आ जाता है। हथकड़ी में बंधे हमारे नीले हीरो-हीरोइन तोते दुश्मनों से भाग रहे हैं और धीरे-धीरे उन्हें प्यार हो जाता है। क्लाइमैक्स पूरा फिल्मी है। ब्लू उड़ नहीं सकता ये फैक्ट कुछ ज्यादा लंबा खिंच जाता है। इसके अलावा मूवी में इमोशनल मूमेंट्स की भी कुछ कमी है। बड़ों को ये फिल्म जहां नॉर्मल लगेगी वहीं बच्चे शुरू से आखिर तक खिलखिलाने के कई मौके ढूंढ ही लेंगे।

सुनो बच्चों कहानी
ब्राजील के जंगलों में झूमते-गाते रंग-बिरंगे पंछियों पर बहेलियों का हमला होता है। तस्करी के लिए वो सब विशेष किस्म के पंछियों को कैद कर अमेरिका ले आते हैं। इनमें एक होता है छोटा सा नीला तोता ब्लू (जेसी आइजनबर्ग), जिसका पिंजरा मूर लेक मिनेसोटा में वैन से गिर जाता है। इस मकाउ स्पीशीज के दुर्लभ तोते को पालती है छोटी बच्ची लिंडा। दोनों साथ बड़े होते हैं। इसी बीच एक वैज्ञानिक टूलियो (रॉड्रिगो सेंतोरो) लिंडा को बताता है कि ब्लू की प्रजाति का एक फीमेल तोता उसे मिला है और इनकी स्पीशीज को आगे बढ़ाने के लिए ब्लू को ब्राजील ले जाना होगा। बस वहां जाना होता है और घर में पले ब्लू की जिंदगी में आफत आ जाती है। वहां कुछ तस्कर और उनका विलेन जैसा पालतू मुर्गा नाइजल (जेमीन क्लीमेंट) पीछे पड़ जाता है। अब उसे खुद को भी बचाना है और अपने लव जूल (एनी हैथवे) को भी। इसमें उनकी मदद करते हैं एक बुलडॉग लुइस (ट्रेसी मॉर्गन), नीली गर्दन वाला मुर्गा पेद्रो (विलियम), हरे ढक्कन की टोपी पहने पीली चिडिय़ा नीको (जेमी फॉक्स) और लकड़ी में छेद करने वाला पंछी राफेल (जॉर्ज लोपेज).

चित्रकथा चश्मे वाली
थ्री-डी के चश्मे के साथ रोशनी की प्रॉबल्म है। इमेजेज बिल्कुल करीब और जिंदा लगती हैं पर अंधेरे से सिरदर्द होने लगता है। यहां तक कि परदे पर से रोशनी आपके सामने पर कुर्सियों से रिफ्लेक्ट होने लगती है और ये अजीब लगता है। इसके अलावा कुछ चीजें तो कमाल की हैं। बुलडॉग के मुंह से लटकती मोटी-मोटी लार हो या लाल मोटरसाइकल की हैडलाइप पर लगा जंग... सब-कुछ किसी रियल मूवी से भी रियल लगता है। फिल्म में एनिमेशन का काम इतना बारीक है कि कहीं कोई गलती नहीं निकाल सकते, सिवाय शाम के दृश्यों में धुंधली होती रोशनी के। नीले रंग के ब्लू और जूल नीले ही बैकग्राउंड में देखने में अजीब लगते हैं। ये ध्यान रहे कि 'रियो' किसी कैरेक्टर का नाम नहीं है, बल्कि ये ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरो के लिए यूज किया गया है।

वॉयस देवता कौन
'सोशल नेटवर्क' के बाद तुरंत ही जेसी आइजनबर्ग की आवाज सुनने को मिल गई। उनकी और एनी हैथवे की जोड़ी वॉयसओवर में जमती है। एक बैचेन-सॉफिस्टिकेटेड तोते की आवाज में जेसी अपने बाकी मूवी कैरेक्टर जैसे लगते हैं। इसमें मार्क जकरबर्ग के निभाए कैरेक्टर को भी शामिल कर सकते हैं। एनी हैथवे कॉन्फिडेंस से भरी नजाकत वाली शी-पैरट ब्लू को आवाज देते हुए खुद सी लगती हैं। फिल्म के हिंदी वर्जन में अपनी आवाज देते हैं विनय पाठक और रणवीर शौरी। मुझे अंग्रेजी वॉयसओवर ज्यादा बेहतर लगा। विलेन मुर्गे नाइजल को आवाज देते जेमीन क्लीमेंट कुछ-कुछ अमरीश पुरी का सा असर छोड़ते हैं।

आखिर में...
डायरेक्टर कार्लोस सेल्दाना ब्राजील के हैं और लंबे टाइम से 'रियो डि जेनेरो' की कहानी कहना चाहते थे। उन्होंने ब्राजीली म्यूजिक और मूड वाली ये फिल्म बना भी दी है, पर बेस्ट तो आज भी 'आइस एज' सीरिज की उनकी मूवीज ही हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

एक कॉमन सी कॉमेडी

फिल्मः जस्ट गो विद इट
डायरेक्टरः डैनिस ड्यूगन
कास्टः एडम सैंडलर, जेनिफर एनिस्टन, बैली मेडिसिन, ग्रिफिन ग्लूक, डैन पैट्रिक, ब्रुकलिन डेकर, डेव मैथ्यूज, निक स्वॉर्डसन, निकोल किडमैन
स्टारः दो 2.0


हिंदी में जैसे 'थैंक यू’ बनती है, हॉलीवुड में वैसे ही 'जस्ट गो विद इट' बनती है। इनमें कॉमन ये होता है कि अपने-अपने '..वुड' में इन जैसी दर्जनों फिल्में पहले ही बन चुकी होती हैं। इस वजह से ये मूवीज होपलैस होती हैं। बस फर्क होता है तो एडिटिंग और स्क्रिप्ट की क्वालिटी का, जिसकी वजह से 'जस्ट गो विद इट' टाइमपास बन जाती है। फिल्म में दो एक्टर्स का काम सबसे खास लगता है। पहला चाइल्ड एक्ट्रेस बैली मेडिसन का जो ब्रिटिश राजघराने के एक्सेंट में कमाल की बात करती हैं। दूसरे हैं कॉमिक एक्टर निक स्वॉर्डसन जो हर बार बोरियत से बचा ले जाते हैं। एडम सेंडलर और जेनिफर के फैन हैं तो जरूर जाइये, अन्यथा ये फ्रेंड्स के साथ बस एक बार देखी जा सकती है।

रॉमकॉम कहानी
डैनी मेकबी (एडम सेंडलर) लॉस एंजेल्स में एक प्लास्टिक सर्जन है। उम्र काफी हो गई है पर शादीशुदा नहीं है। अच्छा इंप्रैशन बनाने के लिए अंगुली में अंगूठी पहन मैरिड होने का दिखावा करता है। उसे सबसे बेहतर कोई जानता है तो वो है उसकी ऑफिस मैनेजर कैथरीन (जेनिफर एनिस्टन), जो तलाकशुदा है और दो बच्चों की मां है। एक पार्टी में डैनी की मुलाकात सुंदर युवती पामर (ब्रुकलिन डैकर) से होती है। दोनों करीब आते हैं, पर जब वो डैनी की अंगूठी देखती है तो बुरा फील करती है कि वह एक मैरिड आदमी का घर खराब कर रही है। अब अपनी खराब मैरिड लाइफ दिखाने के लिए वह कैथरीन से मदद मांगता है। एक झूठ से दूसरा पैदा होता जाता है। बाद में इस प्लैन में कैथरीन की ब्रिटिश एक्सेंट वाली बेटी मैगी (बैली मैडिसन) और हवाई जाकर डॉल्फिन के साथ तैरने का सपना देखने वाला बेटा माइकल (ग्रिफिन ग्लूक) भी शामिल हो जाता है। आखिर में डैनी-कैथरीन के बीच असली रिश्ते निकलकर आने है। अनुमानित सा क्लाइमैक्स है।

बुरा-भला, भला-बुरा
एडम और जेनिफर दोनों ही इजी एक्टिंग वाले लोग हैं। एडम चेहरे पर कोई एक्सप्रैशन लाए बगैर डायलॉग बोलते हैं और जेनिफर तुरत-फुरत में एक्सप्रैशन बदलती रहती हैं। दोनों में समानता ये है कि लोग बहुत हंसते हैं। गड़बड़ शुरू होती है इनके फिल्म के चुनाव से। 'जस्ट गो विद इट' तांबे की नहीं, यूज एंड थ्रो गिलास है। इसका एक बार यूज तो है पर लंबे वक्त में कोई महत्व नहीं। निकोल किडमैन डैवलिन के कैरेक्टर में मिसफिट लगती हैं। सबसे वाहियात है, उनका और जेनिफर का एक क्लब में स्टूपिड सा डांस। शुरू में प्लास्टिक सर्जन डैनी के क्लिनिक में एडल्ट सर्जरी की बातें ज्यादा होती हैं, उसके बाद सारी कहानी हवाई में इनके पिकनिक पर चली जाती है। डायलॉग और सिचुएशन के लिहाज से इस फिल्म में नया कुछ भी नहीं किया गया है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 9, 2011

नो जी थैंक यू!

फिल्मः थैंक यू
डायरेक्टरः अनीस बज्म़ी
कास्टः अक्षय कुमार, सोनम कपूर, इरफान खान, रिमी सेन, बॉबी देओल, सेलीना जेटली, सुनील शेट्टी
स्टारः डेढ़ 1.5


साउथ के एक्टर चिरंजीवी को लेकर 1990 में एक फिल्म बनी थी। नाम था 'प्रतिबंध।' इसके राइटर थे 'थैंक यू' के डायरेक्टर अनीस बज्मी। अनीस ने उस फिल्म में चिरंजीवी को बनाया बॉम्बे पुलिस में सब-इंस्पेक्टर सिद्धांत और जूही चावला को खिलौने बेचने वाली शांति। ये सारा का सारा खांचा 'जंजीर' और उसमें अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी के कैरेक्टर्स से उठाया गया। अनीस की वो इमेज और एटिट्यूड 'थैंक यू' में भी जिंदा है। ये फिल्म आसानी से टाली जा सकती है। अक्षय कुमार ने अपने पिता के नाम पर बनाई 'हरि ओम प्रॉडक्शंस' तले एक और बुरी फिल्म प्रॉड्यूस की है। एक बांसुरी बजाते मसीहा की कहानी सोचे जाने तक तो ठीक थी, पर स्क्रिप्ट, एक्टिंग और डायरेक्शन की प्रक्रिया में उसे बिखेर दिया गया। एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स का इश्यू भी सीरियस था पर क्रेडिट्स में राइटर्स की जगह जो चार-पांच नाम आते हैं, वो मिलकर भी इसे एक डीसेंट कहानी नहीं बना सके। थियेटर में लोग हंसते जरूर हैं पर फिल्म हिस्ट्री में इस मूवी का नाम कभी याद नहीं रखा जाएगा। न देखें तो बेहतर।

कहें कहानी
इंडिया से बाहर की तमाम खूबसूरत लोकेशन कभी हमारे कैरेक्टर्स का घर बनती हैं तो कभी नाचने-कूदने की जगह। खैर, इस पर गौर भी न करिएगा कि ये कहानी है कहां की। बस सुनिए। तीन दोस्त हैं। विक्रम (इरफान खान), राज (बॉबी देओल) और योगी (सुनील शेट्टी)... इनकी वाइफ हैं शिवानी (रिमी सेन), संजना (सोनम कपूर) और माया (सेलीना जेटली). मैन आर डॉग, जो घर से बाहर मुंह मारते रहते हैं, इसी अंग्रेजी कहावत पर एक और कहानी। तीनों पति एक-दूसरे के दोस्त, बिजनेस पार्टनर और अय्याशियों में राजदार हैं। एक बार संजना को अपने पति राज पर शक हो जाता है। यहां आना होता है माया के दोस्त किशन (अक्षय कुमार) का, जो एक प्राइवेट डिटैक्टिव है। ये बात पतियों को नहीं पता। इससे आगे कोई कहानी नहीं है बस टुकड़ों में बंटे सीन हैं, जो कभी हजम होते हैं कभी नहीं। जाहिर है आखिर में ये तीनों मर्द रंगे हाथों पकड़े जाएंगे, पर लाख टके का (मगर मालूम) सवाल ये है कि फिर क्या होगा? इनकी वाइफ क्या करेंगी? किशन का मकसद क्या है? घबराने की बात नहीं। ये सवाल जितने सीरियस यहां पढऩे में लग रहे हैं उतने, मूवी देखने के दौरान नहीं लगेंगे।

इतनी ढिलाई क्यों?
तीनों हीरोइन दोस्त हैं। एक मॉल में जब पहली बार मिलती हैं तो हाय-हैलो कहते वक्त उनके होठों से वॉयसओवर बिल्कुल नहीं मिलता। एक मल्टीस्टारर और घोर कमर्शियल फिल्म में ये छोटी-छोटी भद्दी गलतियां देखनी पड़ जाएंगी ये सोचा न था। कुछ ऐसा ही होता है अक्षय कुमार के कैरेक्टर के इंट्रोडक्टरी सीन में। टोरंटो जैसे किसी शहर की ऊंची इमारत की छत पर लेटे किशन अंग्रेजी बांसुरी बजा रहे हैं और उनके होठ सिले पड़े हैं। वो बांसुरी में फूंक नहीं रहे पर उसमें से प्रीतम का म्यूजिक निकल रहा है। फिल्म में मुन्नी और शीला के मुकाबले रजिया को उतारा गया। रजिया गुंडों में फंस गई... इस गाने में बस ये पांच शब्द हैं जो नए या रोचक जुमले से लगते हैं। बेहतर होता अगर इनका इस्तेमाल किसी 20 सैकंड के एड में कर लिया जाता। क्योंकि यहां इस गाने में और कुछ भी नहीं है। मल्लिका शेरावत गैरजरूरी और बेढंगी लगीं, अब उन्हें सोच-समझकर कपड़े उतारने चाहिए। एक सेकंड के लिए भी उन्हें या उनके डांस को देखना मुश्किल हो जाता है। डायलॉग कहीं-कहीं काफी फनी हैं और कहीं औसत। मसलन इरफान के कैरेक्टर का ये डायलॉग... औरत को ऋषि-मुनी नहीं समझ सके तो मैं कैसे समझूंगा। फर्स्ट हाफ में फिल्म एडल्ट कंटेंट और भाषा वाली लगती है। लगता है कि कमर्शियल कारणों से ही एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स जैसे गंभीर इश्यू में ऐसी मिलावट की गई। इस पर भी कुछ कमी न रह जाए तो पुराने फिल्मी मसालों में से करवा चौथ का सीक्वेंस उठाकर डायरेक्टर अनीस बज्मी ने यहां लगा लिया।

घिस रहे हैं फ्लॉप चिराग
फिल्म का पहला हाफ देखकर लगता है कि इरफान खान ने (फीस को छोड़ दें तो) अपनी जिंदगी की सबसे व्यर्थ फिल्म चुनी है। सेकंड हाफ में वो तीन-चार अच्छे गुदगुदाने वाले सीन देते हैं। जब इरफान की वाइफ बनी रिमी बताती है कि उसने सारी प्रॉपर्टी अपने नाम करवा ली है तो बीवी पर शेर बने रहने वाले इस कैरेक्टर की आवाज हलक में अटक जाती है। पूरी फिल्म में ये पहला और शायद आखिरी कंप्लीट ह्यूमरस सीन है। इसके अलावा सब कैरेक्टर्स को भांत-भांत के ढेरों फैशनेबल कपड़े पहनाने में 'थैंक यू' जरूर एक सीरियस मूवी लगती है। क्लाइमैक्स में अपनी वाइफ को मनाने के लिए इरफान का अक्षय से हेल्प मांगने वाला सीन भी छोटा मगर रिझाने वाला है। सोनम कपूर को देखना किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। ये संजय लीला भंसाली ही थे जिन्होंने रणबीर-सोनम को 'सांवरिया' में अदभुत रूप में पेश किया, बस उसके बाद से दर्शक इस हीरोइन को झेल ही रहे हैं। न वो रो पाती हैं, न हंस पाती हैं। ऐसा लगता है जैसे दो दिन से उन्हें खाना नहीं दिया गया है। मुकेश तिवारी तो 'गोलमाल सीरिज' के टाइम से ही साइड किक डॉन बनकर रह गए हैं। वही मूछें, वही बाल और आस-पास काली टी-शर्ट में पिस्टल पकड़े गुर्गे। न लुक में कोई फर्क है न डायलॉग डिलीवरी में और न ही रोल में।

थोड़ी एक्टिंग होती तो अहसान होता
मूवी में सबसे ज्यादा इरिटेट किया है एक्टर्स की एक्टिंग ने, जो उन्होंने की ही नहीं। करोड़ों की फीस लेते हैं, स्टार्स बने बैठे हैं पर बस एक्ट ही नहीं करते। अगर इसका दोष भी डायरेक्शन और स्क्रिप्ट पर डाला जाए तो सिरफिरी फिल्में पहले भी होती थी। प्राण, जगदीप, धर्मेंद्र, सुनील दत्त और असरानी ये कुछ पुराने नाम हैं, जो फिल्ममेकिंग की बाकी कमतरी को अपने अभिनय से ढकते थे। फिर अरुणा ईरानी, कादर खान, गुलशन ग्रोवर और अनिल कपूर जैसे नाम भी रहे जिन्होंने पूरे करियर में एक भी फिल्म में ढीली एक्टिंग नहीं की, फिल्में भले ही घटिया रही हों। पर क्या करें हमारे गोरे दिमाग वाले इंडियन अक्षय कुमारों, बॉबी देओलों और सोनम कपूरों का जिन्हें कैमरे के लेंस के पीछे बैठे ऑडियंस नजर नहीं आते। अक्षय और सोनम के बीच हर फ्रेम में उम्र के तालमेल का टकराव साफ दिखता है। वो भी असहज होते रहते हैं, हम भी। उल्टे सुनील शेट्टी कई सपाट फिल्मों के बाद यहां कुछ अलग करने की कोशिश करते दिखते हैं।

आखिर में...
शुरू होने से पहले ही अहसास हो जाता है कि ये 'मस्ती' और 'नो एंट्री' की सीधी नकल है। क्लाइमैक्स में कुछ देर के लिए हीरो जेल पहुंचते हैं तो यहां आते-आते ये 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया' बन जाती है। आखिर में 'बावर्ची' के राजेश खन्ना की तरह रिश्तों के जग में उजियारा फैलाने वाले मसीहा बनकर अक्षय कुमार चौंकाते कम और हमारा मजाक बनाते ज्यादा लगते हैं। मुझे यकीन नहीं होता कि (ऑरिजिनल हो या किसी दूसरी फिल्म से प्रेरित) इन्हीं अनीस बज्मी ने 'सिर्फ तुम', 'प्यार तो होना ही था', 'दीवाना मस्ताना', 'लाडला', 'राजा बाबू', 'गोपी किशन' और 'आंखें' जैसी फिल्में और उनके डायलॉग लिखे थे। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 2, 2011

बिन थ्रिल का कैसा गेम

फिल्मः गेम
डायरेक्टरः अभिनय देव
कास्टः अभिषेक बच्चन, साराह जेन डियेज, बोमन ईरानी, जिमी शेरगिल, कंगना रानाउत, शहाना गोस्वामी
स्टारः डेढ़, 1.5


'गेम' के डायरेक्टर अभिनय देव अपनी इस फिल्म के साथ क्लासिक थ्रिलर्स के दौर को वापिस ले आने की बातें कर रहे थे। पर ऐसा हो नहीं पाया। फिल्म बनाना तो वैसे भी किसी एड फिल्म को बनाने से बिल्कुल अलग होता है, ऐसे में ये तो बेहद कठिन जॉनर था। हर सेकंड ऑडियंस को सीट की एज पर रखना जरूरी होता है। जैसा कि क्लासिक दौर में 'हमराज', 'मेरा साया', 'कोहरा', 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वैलथीफ' जैसी फिल्मों में था। 'गेम' में आत्मा जरूर इन फिल्मों वाली है पर इनका ट्रीटमेंट हॉलीवुड फिल्मों जैसा है। याद रखने की बात ये थी कि ऑडियंस आज भी हिंदुस्तानी हैं और उससे भी पहले एक डिमांडिग वॉचर है। फिल्म का क्लाइमैक्स ही आधे-अधूरे ढंग से सीट पर रोककर रखता है, उससे पहले का सारा वक्त बावलों की तरह बैठे-बैठे बीतता है। ये एक ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बजाय आप डीवीडी पर 'बॉर्न आइडेंटिटी' के सारे पार्ट देखकर अच्छा टाइम स्पैंड कर सकते हैं। यकीन मानिए नहीं देखेंगे तो ज्यादा कुछ मिस नहीं करेंगे। अब सिर्फ अभिषेक बच्चन को ही देखने थियेटर जाना है तो बात अलग है।

मिस्ट्री में क्या है...
ऑडियंस को ग्रिप में लेने के लिए मुंबई में 22 अगस्त, 2007 की रात से बात शुरू की जाती है। अंधेरी रात में एक लड़की सूनसान सड़क पर जा रही है और एक गाड़ी उसे उड़ाकर चली जाती है। अब ग्रिप लूज होती जाती है। हम पहुंच जाते हैं ग्रीस के सामोस में। बिलियनेयर कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) का यहां अपना एक द्वीप हैं। इनकी असिस्टेंट हैं समारा श्रॉफ (गौहर खान), इन्होंने दुनिया के चार अलग-अलग शहरों से चार लोगों को बुलाया है। पहले हैं विक्रम कपूर (जिमी शेरगिल), मूवी स्टार हैं। दूसरे हैं ओ. पी. रामसे (बोमन ईरानी) जो थाइलैंड में पीपुल्स पार्टी की तरफ से प्राइम मिनिस्टीरियल कैंडिडेट हैं। तीसरी हैं तिशा खन्ना (शहाना गोस्वामी) जो लंदन में क्राइम जर्नलिस्ट हैं। चौथे हैं हमारे अभिषेक बच्चन जो नील मेनन का रोल प्ले कर रहे हैं। तुर्की के इस्तांबुल के सबसे बड़े कसीनो के ओनर हैं। इन चारों के अपने-अपने पास्ट हैं, उससे बचने के लिए ये कबीर मल्होत्रा के पास जाने को राजी हो जाते हैं। जब ये सब सामोस पहुंचते हैं तो कबीर मल्होत्रा अपनी बेटी माया (साराह जेन डियेज) की मौत के लिए इनमें से तीन को जिम्मेदार ठहराता है और तिशा से कहता है कि वो उसकी दूसरी बेटी है। यहां तक कहानी बिल्कुल अलग ट्रैक पर चल रही होती है। अगले ही मोड़ कबीर मल्होत्रा का खून हो जाता है। स्पेशल इनवेस्टिगेशन ऑफिसर सिया अग्निहोत्री (कंगना रनाउत) यहां पहुंचती हैं। आप सोच रहे होंगे कि कहानी को इतनी डिटेल में क्यों सुना रहा हूं। दरअसल जिन फिल्मों को थियेटर में जाकर देखने का धर्म नहीं होता उन थ्रिलर्स की कुछ मिस्ट्री खोल भी दें तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। खैर, चारों यहां से चले जाते हैं और फिर किसी कारण से कहानी आगे बहुत सारे नए ट्विस्ट और टर्न से गुजरती है। नील माया से प्यार करता था, वह उसकी मौत का बदला लेने के लिए ओ. पी. रामसे और विक्रम के पीछे जाता है। फिल्म क्लाइमैक्स तक आते-आते बिल्कुल अलग हो चुकी होती है। नील की सच्चाई कुछ और ही निकलती है और कबीर मल्होत्रा का कातिल कोई अनएक्सपैक्टेड ही होता है।

लक्ष्य क्या है तुम्हारा
फिल्म शुरू होती है तो क्रेडिट्स में एक्सेल एंटरटेनमेंट के बैनर में बनी 'लक्ष्य' फिल्म की धुन अच्छा फील करवाती है। बस पहले पहल ही। उसके बाद ऑडियंस को धीमा जहर दिया जाने लगता है। मूवी के आखिरी बीस मिनटों को छोड़ दें तो थ्रिल जैसा कुछ नहीं लगता है। थ्रिलर फिल्म में किरदारों के चेहरों पर सिचुएशन के हिसाब से आने वाले इमोशन ही सबसे बड़ा रोल निभाते हैं। 'गेम' में ये रिएक्शन बड़े बेसिक से हैं। बोमन चिल्लाते हैं, जिमी डरते हैं, शहाना कन्फ्यूज करती हैं और अभिषेक हीरो माफिक बने रहते हैं। कंगना के सर्जरी करवाए हुए होठ अजीब लगते हैं और वो बैचेनी में पेन हिलाने के अलावा एक इनवेस्टिगेशन ऑफिसर के रोल को कुछ और नहीं दे पाती। अनुपम खेर के मुंह से 'ये 30 साल पहले की बात है, ये तीन साल पहले की बात है' के डायलॉग वाकई तीस साल पहले के डायलॉग ही लगते हैं। ये और बात है कि डायलॉग्स को तीस साल से पहले पैदा हुए फरहान अख्तर ने लिखा है।

बनाने वालों ने क्या बना डाला
कंगना के कैरेक्टर की एंट्री से फिल्म में कुछ जान आती है पर डायरेक्टर अभिनय देव की नाकामयाबी यहां हावी रहती है। उनका डायरेक्शन बेहद सतही है। उन्हें चीजों को ड्रमैटिक करना बिल्कुल नहीं आता है। एलन अमीन के एक्शन दृश्यों को छोड़ दें तो फिल्म के किसी सीन में बिल्कुल जान नहीं है। ये एक्शन दृश्य भी इंग्लिश फिल्मों का हिस्सा लगते हैं, हमारी 'गेम' के प्लॉट का हिस्सा नहीं लगते हैं। सामोस, बैंकॉक, लंदन, इस्तांबुल और इंडिया जैसे बड़े स्कैल को कहानी में शामिल करके मूवी को मैग्नम ओपस बनाने की कोशिश तो की जाती है पर सिर्फ यही पैमाना होता तो डिस्कवरी और नैशनल ज्योग्रैफिक के हर आधे घंटे के प्रोग्रैम को इंडिया के थियेटरों में रिलीज किया जाता।

आखिर में...
सेकंड हाफ के बाद अभिषेक बच्चन के कैरेक्टर नील के मॉर्निंग वॉक पर जाने का चेसिंग सीन फिल्म में सबसे इंटे्रस्टिंग है। इसमें वह इस्तांबुल की गलियों, बाजारों और पब्लिक प्लेसेज से होते हुए दौड़ रहे होते हैं। कुछ सेकंड्स के लिए 'रॉक ऑन' के डायरेक्टर अभिषेक कपूर भी एक डायरेक्टर के ही कैमियो में नजर आते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, March 12, 2011

ऐसे एलियन अटैक बहुत देखे हैं जी

फिल्मः बैटलः लॉस एंजेल्स और वर्ल्ड इनवेजनः बैटलफील्ड लॉस एंजेल्स
डायरेक्टरः जोनाथन लीब्समैन
कास्टः एरॉन एकार्ट, मिशेल रॉड्रिग्स, माइकल पेना, नजिंगा ब्लेक, ने-यो, ब्रिजेट मॉयोनाहन
स्टारः ढाई स्टार 2.5

जब 1971 के भारत-पाकिस्तान वॉर की ब्लैक एंड वाइट क्लिप्स दूरदर्शन पर नजर आती थी तो उसमें रेगिस्तान सी जमीन पर गोलियां चलाते बहुत सारे सैनिक दिखते थे, किसी की शक्ल या कोई एक कहानी नहीं दिखती थी ये एक बात है जो हॉलीवुड फिल्म 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में भी है। फिल्मी माध्यम के लिए ये एक घातक पहलू हो जाता है जब इस तरह के विषयों वाली फिल्म में कोई व्यक्तिगत मुकाबला हीरो और विलेन में नहीं होता। पूरी फिल्म में एलियन हमलावरों की शक्ल नहीं दिखती या किसी अमेरिकन सैनिक से सीधा मुकाबला नहीं दिखता है। सब ग्रुप्स में है। उधर से भी गोलिया चल रही हैं, इधर से भी। बस बीच में आधा दर्जन दूसरी हॉलीवुड फिल्मों के प्लॉट हैं, जो किसी फटे पैजामे पर पैबंद की तरह लगते रहते हैं। सब-कुछ किसी वीडियोगैम जैसा है। कम ह्यूमन और ज्यादा मशीनी। फिल्म का एक और निराशाजनक पहलू है, किसी ऑरिजिनल बैकग्राउंड स्कोर या म्यूजिक का न होना। अगर डर, हमले, मुकाबले, साहस और जीत के इमोशन से जुड़ी कोई धुन इनवेंट की जाती तो लॉस एंजेल्स का ये नकली बैटल असली लगता। टाइम पास से जरा सी कम मूवी है, कोई दूसरा ऑप्शन नहीं हो तो ही देखिएगा।

एलियन कहां से आएः कथा
कहानी आज ही के वक्त की है। अब से पहले की जितनी अफवाहें एलियंस को लेकर थी वो लॉस एंजेल्स की धरती पर सच हो गई हैं। बाहरी ग्रह की अंजानी ताकतों ने हमला कर दिया है। मरीन स्टाफ सार्जेंट माइकल (एरॉन एकार्ट) को एक नई प्लाटून के साथ कुछ सिविलियंस को बचाने और वहां बम फटने से पहले इवैक्यूएशन करने का काम सौंपा जाता है। प्लाटून में एक यंग ऑफिसर के अंडर उन्हें काम करना है। एक्सपीरियंस और क्षमता उनकी ज्यादा है। ये उलझन है, तो सिर पर बड़ी मुसीबत है एलियन अटैक की। आखिर में उनका उद्देश्य सिर्फ इस छोटे मिशन से बढ़कर पूरे अमेरिका और पूरी दुनिया की रक्षा करना हो जाता है। इस फिल्म में अगर सबसे ज्यादा सही अनुमान लगाने लायक कुछ है तो वो है इसकी कहानी।

विश्व तबाही पर फिल्में
इसमें कोई नई बात नहीं कि इन फिल्मों में हर बार एलियन का अटैक अमेरिका पर ही होता है, और फिर अमेरिकन उन्हें हराकर पूरी दुनिया को बचा लेते हैं। मुझे लगता है कि अगर इस मूल रवैये में बदलाव न भी हो, तो कम से कम हमले के तरीके और दुनिया को बचाने के तरीके में तो कुछ नया किया ही जा सकता है। स्टीवन स्पीलबर्ग की 'सेविंग प्राइवेट रायन' में टॉम हैंक्स की प्लाटून के जिम्मे युद्ध क्षेत्र से एक यंग सैनिक को बचाकर लाने काम आता है, तो यहां एरॉन एकार्ट को चंद पुलिसवालों (जो मारे जा चुके हैं) को बचाना है। 'ब्लैक हॉक डाउन' में भी सोमालिया में भेजी अमेरिकी टुकड़ी की यही कहानी होती है। दोनों ही फिल्मों और 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में सेना की टुकड़ी मिशन पर निकली है और सामने खतरे बहुत बड़े हैं। क्लाइमैक्स में लॉस एंजेल्स से एलिंयस का सफाया करने के बाद एरॉन एकार्ट का कैरेक्टर प्लाटून के साथ कैंप में लौटता है और बिना आराम किए फिर दूसरे शहर के लिए निकलने को तैयार होने लगता है। अपना असला भरने लगता है। ये सिचुएशन बिल्कुल 'ब्लैक हॉक डाउन' के क्लाइमैक्स से मिलती है।

इस सब्जेक्ट पर खास काम
इस विषय पर बनी फिल्मों में 'डिस्ट्रिक्ट नाइन' सबसे अलग रही है। ये पहली एलियन विषय वाली मूवी थी जो अमेरिकन एंगल से नहीं बनी थी। इसकी कहानी साउथ अफ्रीका की धरती पर करवट लेती है। जेम्स कैमरून की 'अवतार' का एक एंगल हॉलीवुड मूवीज के लिहाज से समाजवादी रहा और ये 'बैटल:लॉस एंजेल्स' से भी मिलता है। उसमें अमेरिकी पैंडोरा ग्रह पर जाते हैं, वहां के नेचरल रिर्सोसेज पर कब्जा करने और वहां की लोकल कौम को मिटाने। 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में अमेरिकी मीडिया के विजुअल्स दिखते हैं। इनमें एक विशेषज्ञ का कमेंट होता है, 'हर विदेशी अटैक सबसे पहले रिर्सोसेज के लिए होता है। अटैक करने वाले वहां की मूल जनता, देशज जनता को खत्म करते हैं। ऐसे ही उपनिवेश यानी कॉलोनाइजेशन शुरू होता है। अमेरिका का कॉलोनाइजेशन शुरू हो चुका है।'

एंटरटेनमेंट वाली बात
'इंडिपेंडेंस डे', 'मैन इन ब्लैक', 'ट्रांसफॉर्मर्स' और 'टर्मिनेटर' इस कैटेगरी की सबसे एंटरटेनिंग मूवीज हैं। इनमें कॉमेडी, देश पर खतरा, एलियन से डर, वीक कॉमन मैन और मजबूत कॉमन मैन जैसे तत्व है, जो इस तरीके से मिलाए गए हैं कि इन फिल्मों की एक रिपीट वैल्यू बन गई है। 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में इन सब तत्वों की कमी पड़ती है। एरॉन एकार्ट और टेक्नीकल सार्जेंट एलेना सेंटोज बनी मिशेल रॉड्रिग्स इस फिल्म के दो ऐसे चेहरे हैं जो फिल्म से जोड़े रखते हैं। वजह शायद ये रही एरॉन हाल ही में बहुत पसंद की गई 'रैबिट होल' में दिखे थे और मिशेल 'रेजिडेंट ईविल' और 'अवतार' जैसी फिल्मों में खुद को ऐसी फिल्मों की खास एक्ट्रेस साबित कर चुकी हैं। इस फिल्म में एक ह्यूमन आस्पेक्ट जो आकर्षित करता है वो है एरॉन के कैरेक्टर का एक्सपीरियंस्ड होते हुए भी एकेडमी से नए निकले लुटेनेंट के अंडर में काम करना। पर बाद में ये अनुभवी स्टाफ सार्जेंट हीरो बनकर उभरता है। डायरेक्टर जोनाथन ने टेक्नीकली फिल्म में नई चीजें की है। उन्होंने थ्री-डी कैमरा से शूट नहीं किया है। ये दिखता भी है। इससे गली के शॉट और बाकी सीन रॉ लगते हैं। एक दो जगहों पर ही सही दर्शक कुर्सियों के सिरों पर रहते हैं।

आखिर में...
फिल्म देखते वक्त मुझे 'द सोशल नेटवर्क' के ओपनिंग बैकग्राउंड स्कोर की याद आई। उस म्यूजिक ने मार्क जकरबर्ग की फिल्मी कहानी को एक नई पहचान दे दी थी। काश, जोनाथन लीब्समैन ने अपनी लॉस एंजेल्स पर हमले वाली इस फिल्म में म्यूजिक पर कुछ ऐसा ही भरोसा किया होता। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी