Saturday, February 5, 2011

बुलेट और इश्क में मिला मनोरंजन

फिल्मः ये साली जिंदगी
डायरेक्टरः सुधीर मिश्रा
कास्टः इरफान खान, अरुणोदय सिंह, सौरभ शुक्ला, अदिति राव हैदरी, चित्रागंदा सिंह, यशपाल शर्मा, प्रशांत नारायणन, सुशांत सिंह, विपिन शुक्ला, विपुल गुप्ता
डायलॉगः मनु ऋषि और सुधीर मिश्रा
स्टारः 3.5

सुधीर मिश्रा की ये फिल्म अच्छी मिसाल है इस बात की कि ग्रे शेड्स में कभी 'कमीने’ जैसी फिल्म बनाना चाहें, तो आप उसे सौ फीसदी एंटरटेनिंग भी रख सकते हैं। फिल्म के क्रेडिट 'सिन सिटी’ और 'जेम्स बॉन्ड’ मूवीज के अंदाज में स्कैची से आते हैं। छूटते ही सौरभ शुक्ला की जबान में ठेठ हरियाणवी डायलॉग आ लगता है... रे घुस गी ना पुराणी दिल्ली अंदर और आ गे ना प्रैण भार (प्राण बाहर)... यहां जो सिनेमा शुरू होता है वो आखिर तक बांधे रखता है। फिल्म में बहुत बार हिंदी के कर्स वर्ड इस्तेमाल हुए हैं। हालांकि ये रेग्युलर और फनी लगते हैं, बाकी फैमिली के साथ जाना न जाना अपनी पसंद पर है। बेस्ट ऑप्शन है अपने फ्रेंड्स के साथ जाना। काफी दिन बाद कोई रिपीट वेल्यू वाली फिल्म आई है जिसे आप दूसरी और तीसरी बार देख सकते हैं। सौरभ शुक्ला, इरफान, अरुणोदय, अदिति, यशपाल शर्मा और किडनैपिंग गैंग के मेंबर्स खासे याद रहेंगे।

ये साली... क्या है कहानी?
अरुण (इरफान खान) को गोली लगी है, प्रीति (चित्रागंदा सिंह) उसे थामे है। यहीं से अरुण फ्लैशबैक में अपनी कहानी में हमें ले जाता है। पेशे से सीए अरुण अपने दोस्त और दुश्मन मेहता (सौरभ शुक्ला) की फर्म में ब्लैक-वाइट मनी इधर-उधर करता है। इस काम में उसका कोई मुकाबला नहीं। जब से सिंगर प्रीति से मिला है धंधे पर असर पड़ रहा है। उधर तिहाड़ में बंद है कुलदीप सिंह चौधरी (अरुणोदय सिंह), अपनी बीवी शांति (अदिति राव हैदरी) से बहुत प्यार करता है, पर शांति को कुलदीप का धंधा पसंद नहीं। वह बड़े (यशपाल शर्मा) के साथ काम करता है। जेल में बंद बड़े का रूस में बैठा सौतेला भाई छोटे (प्रशांत नारायणन) बड़े के खातों की डिटेल लेने के बाद उसे मारने का प्लैन बना रहा है। आगे की कहानी मैं नहीं बताउंगा। इतना बता देता हूं कि प्रीति कैबिनेट मिनिस्टर वर्मा के होने वाले दामाद श्याम सिंघानिया (विपुल गुप्ता) से प्यार करती है। बड़े को जेल से छुड़ाने के लिए श्याम को किडनैप होना है। बस इतना ही। मूवी देखने जाएं तो ये कहानी भूल जाएं। नए सिरे से देखें। ढेर सारे कैरेक्टर हैं, पर ढेर सारे एंटरटेनमेंट के साथ।

कच्ची कैरी, अरुणोदय अदिति
अरुणोदय हिंदी फिल्मों के उन बाकी भारी डील-डौल वाले लड़कों की तरह नहीं हैं, जो मेट्रोसेक्सुअल तो दिखते हैं, पर रोल के मुताबिक ऑर्डिनरी नहीं लग पाते। पर अरुणोदय यहां खुद में ठेठपन लेकर आते हैं। फिल्म में बीवी शांति से बार-बार थप्पड़ खाते हैं, और अपने पत्थर जैसे चेहरे पर अपनी रूठी बीवी को तुरंत मनाने का भाव ले आते हैं। अरुणोदय के जेल वाले इंट्रोडक्टरी सीन देखिए। यहां वो इतने बलवान शरीर के होने के बावजूद एक आम कैदी की तरह डरे-डरे और रियलिस्टिक से रहते हैं। इस फिल्म के साथ वो इंडस्ट्री के कई नए लड़कों से आगे निकले हैं। इसमें सुधीर के उन्हें प्रस्तुत करने के तरीके को भी श्रेय जाता है। अदिति दिल्ली की चाल-ढाल वाली लड़की लगती हैं। एक ऐसे बच्चे की मां भी लगती हैं जिसका पिता जेल में है और सब जिम्मेदारी का बोझ उसी पर है। वो जब गुस्से में कुलदीप को साला कुत्ता कमीना... बोलती हैं तो उनके एक्सप्रैशन ओवरएक्टिंग नहीं लगते। चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। सिर्फ इस कपल की स्टोरी देखने के लिए ही मैं फिल्म दो बार और देख सकता हूं। जब भी दोनों फ्रेम में आते हैं तो फिल्म में कच्ची कैरी का सा स्वाद और खूबसूरती घुल जाती है। ये कपल झगड़ते हुए भी इतना रोमैंटिक लगता है, कि शादी से पहले के प्यार की गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली कोई फिल्म नहीं लगी है। हम नए जमाने के 'राजों' और 'सिमरनों' से खुद को कनेक्ट शायद न कर पाएं, पर शांति और कुलदीप से कर पाते हैं।

अब हिंदी के एफ वर्ड
फिल्म में कर्स वर्ड और आम बोलचाल वाली गालियां खूब हैं। पर ये थोपी हुई नहीं लगतीं। इस बार सुधीर मिश्रा की फिल्म का एक मुख्य कैरेक्टर ये फाउल लेंग्वेज है। ज्यादातर वक्त पर परिस्थितियों के हिसाब से खुद-ब-खुद सामने आते बुरे शब्द हंसाते हैं। संभावना यही है कि फैमिली के साथ देखने आई ऑडियंस को ये पसंद नहीं आए, पर हिंदी बोलने-समझने वाली यंग ऑडियंस को सब बहुत नेचरल और मजेदार लगेगा। फिल्म की कहानी ही हरियाणा-दिल्ली के बीच डोलती है इसलिए वहां की बसों, गलियों, रोड़ों, फॉर्म हाउसों और मॉन्युमेंटों, सब जगह देसी एफ-सी-जी-एम-बी वर्ड घुले हैं। इस वजह से फाउल लेंग्वेज की ज्यादा शिकायत नहीं कर सकता। वैसे इन शब्दों का फिल्मों में न होना तो हमेशा ही स्वस्थ रहता है।

मोटा मोटी बातें
एक सीन में दूसरा सीन पूरी तरह गुंथा हुआ है, कहीं भी कट या एडिटिंग में खामी नहीं दिखती। किसी सिचुएशन में जो भी अपने आप मुंह में आ जाए वही सुधीर और मनु ऋषि के डायलॉग बन गए हैं। मनु ने ही दिबाकर बेनर्जी की 'ओए लक्की लक्की ओए’ के डायलॉग लिखे थे। आपने उन्हें मजेदार कॉमेडी 'फंस गए रे ओबामा’ में अन्नी के रोल में देखा होगा। 'ये साली जिंदगी’ की हाइलाइट है दिल्ली-हरियाणा की टोन और ठेठ देसी गालियां.. जो कैरेक्टर्स की एक-एक सांस के साथ बाहर निकलती रहती हैं। इंटरवल से पहले किडनैपिंग के प्रोसेस में फिल्म थोड़ी धीमी लगने लगती है, पर हर दूसरा-तीसरा डायलॉग गुदगुदी चालू रखता है। जब गाड़ियां छतरपुर के फार्म हाउसों और हरियाणा बॉर्डर की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती चलती हैं तो पृष्ठभूमि में चल रहा सारारारारा.. गाना अलग ही असर पैदा करता चलता है।

कुछ कैरेक्टर अलग से
फ्लैशबैक में इरफान अपनी कहानी सबसे आसानी से सुनाते हैं। चाहे फिल्म का शुरुआती सीन हो जब मेहता के आदमी उन्हें बालकनी से लटका देते हैं या फिर क्लाइमैक्स से पहले कुलदीप से करोलबाग का पता बताकर बात करने का सीन, इरफान अपनी 'प्यार में साली हो गई जिंदगी’ वाला शेड बरकरार रखते हैं। वो एक परफैक्ट फिक्सर-सीए लगते हैं और बार-बार लगते हैं। चित्रागंदा ने अपने रोल में कोई कसर नहीं छोड़ी है, पर जो तल्खी और अभिनय-रस अदिति के कैरेक्टर को मिलते हैं उनके कैरेक्टर को नहीं मिलते। कुछ मूमेंट खास हैं फिल्म में। इंस्पेक्टर सतबीर बने सुशांत सिंह का पहले-पहल बावळी बूच.. कहने का अंदाज। बड़े के रोल में यशपाल शर्मा का कुलदीप से कहना क्या हुआ? डर लग रहा है? अबे जान ही तो जाएगी ना, पर कर्जा तो उतर जाएगा ना। इन पलों के अलावा पूरी की पूरी किडनैपिंग गैंग एक विस्तृत कैरेक्टर है। इसमें कोई प्योर हरियाणवी लोकगीत गाता है, तो कोई खास लहजे में अंग्रेजी बोलता है। सब फिल्मों के लिहाज से बिल्कुल ताजा लगता है।

आखिर में...
अरुणोदय का अपने बेटे के स्कूल जाना और प्रिंसिपल की शिकायत पर कि इसने दूसरे बच्चे को मारा उससे पूछना कि क्यों मारा? बड़ा इंट्रेस्टिंग सीन है। बच्चा कुछ-कुछ ऐसे जवाब देता है मेरी खोपड़ी घूम जाती है फिर मुझे कुछ दिखता नहीं है। बस दे घपा घपा.. बोलते वक्त बच्चे का हाव भाव और पिता अरुणोदय को उसमें दिखता अपना अक्स कुछ असहज जरूर लगे पर कमाल है। यहां अगर सुधीर इस सीन को न भी लाते तो उनसे कोई पूछने नहीं आता। मगर यहीं पर आकर, ऐसे ही एंटरटेनिंग पलों से ये साली जिंदगी बाकी क्राइम-थ्रिल-लव वाली स्टोरीज से अलग हो जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, February 4, 2011

थियेटर से खुश निकलेंगे, मेरी गांरटीः सुधीर मिश्रा

एक छोटा सा साक्षात्कार...
अब तक की बेस्ट कॉमेडी कही जाने वाली 'जाने भी दो यारों’ से सुधीर मिश्रा ने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। बाहैसियत स्क्रिप्टराइटर। उन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया गया उनकी निर्देशित फिल्म 'चमेली’ और 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के लिए। कुछ खास सिनेमाई भाषा वाली फिल्में भी उन्होंने बनाई। अब सुधीर तैयार हैं अपनी फिल्म 'ये साली जिंदगी’ के साथ, जो इस शुक्रवार यानी चार फरवरी को रिलीज हो रही है। उनके मुताबिक ये उनकी सबसे एंटरटेनिंग फिल्म है। प्रस्तुत हैं उनसे मेरी बातचीत के कुछएक अंश:

अभी एक महीने पहले तक जब मैं आप तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था, आप अपनी फिल्म 'तेरा क्या होगा जॉनी’ को रिलीज करने की तैयारी कर रहे थे। अब देखने में आया कि रिलीज हो रही है 'ये साली जिंदगी’?
हां, सही है। पहले और बाद का चक्कर था। पर मैं 'ये साली जिंदगी’ का को-प्रॉड्यूसर भी हूं। इसलिए इसकी रिलीज को लेकर श्योर हूं। ये आखिरकार चार फरवरी को रिलीज हो रही है। होर्डिंग लगे हुए हैं, पोस्टर लगे हुए हैं। प्रिंट-रिलीज सब फाइनल है। बस अब आपको थियेटर में जाकर देखनी है।

क्या ये दोनों ही फिल्में आपने साथ-साथ बनाई हैं?
नहीं, पहले मैंने 'तेरा क्या होगा जॉनी’ बनाई थी। उसमें पोस्ट प्रोडक्शन और दूसरी किस्म की दिक्कतें थीं। इसकी शूटिंग पूरी होने के बाद मैंने 'ये साली जिंदगी’ का शूट शुरू किया।

हर बार आप कुछ-कुछ डार्क और ब्लंट सी फिल्में बनाते हैं। इस फिल्म को देखना कैसा अनुभव होगा?
'ये साली जिंदगी’ के साथ मैंने पहली शर्त ही एंटरटेनमेंट की रखी। इस बार कोई एक्सपेरिमेंट नहीं, कोई डार्क शेड्स नहीं, सिर्फ एंटरटेनमेंट मिलेगा। ये लव स्टोरी और थ्रिलर है। इसमें एक डायलॉग है इसी से फिल्म को समझ सकते हैं ...लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे चू** आशिकी के चक्कर में मर गया और लौंडिया भी नहीं मिली। इश्क के खतरे क्या हैं इसी पर एक मनोरंजक टेक है। जब बुलेट और लव में से एक चीज चुननी हो तो आप क्या चुनेंगे यही सार है।

प्रोमो में अरुणोदय और अदिति के साथ वाले सीन काफी आकर्षक लग रहे हैं। इनका काम कैसा रहा है?
मूवी में इन दोनों का कपल काफी रोचक सा है। अरुणोदय ने तो बहुत ही बढिय़ा परफॉर्मेंस मूवी में दी है। देखिएगा, ये एक बहुत बड़ा स्टार बनेगा। इंडस्ट्री में ऐसा लड़का मैंने नहीं देखा। इसका बल्की और फिट शरीर भी है और गजब की एक्टिंग भी। ये लड़का छाएगा।

अदिति का 'दिल्ली-6’ में ग्लैमरस लुक नहीं था। क्या इस मूवी में भी ऐसा ही है?
यहां अदिति का कैरेक्टर बड़ा आजाद और कलरफुल है। कैरेक्टर से अलग देखें तो वो एक अच्छी डांसर है, सिंगर है, एक्ट्रेस है। बहुत आगे जाएगी। मैं हमेशा बोलता हूं, चूंकि मैं टैलेंट की कद्र करता हूं इसलिए प्रतिभा को तुरंत पहचान लेता हूं।

आप अपने हिसाब की मूवीज बनाते हैं और ऐसा लगता है कि उन्हें रिलीज करने में आपको हमेशा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है?
देखिए, जहां तक सवाल 'ये साली जिंदगी’ का है तो उसे रिलीज करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। क्योंकि ये एक एंटरटेनिंग मूवी थी। जब आप अपनी पसंद की फिल्म बनाएंगे तो इन दिक्कतों से तो गुजरना ही पड़ेगा।

जब एंटरटेनमेंट पर ही ध्यान दिया गया है तो फिर फिल्म का टाइटल 'ये साली जिंदगी’ कुछ एक्सपेरिमेंटल सा क्यों लगता है?
ये एक मुहावरे के तौर पर लिया है मैंने। दिल्ली की कहानी है और वहां इन्हीं मुहावरों में बात होती है। ये 'साली’ शब्द मैंने किसी गाली या गलत मतलब में नहीं लिया है। साली कोई गाली नहीं है। ये एक फनी वे में कहा गया है। जहां तक फिल्म से इसका कनेक्शन है तो मैं आपको गारंटी देता हूं कि आप थियेटर से खुश होकर, मुस्कराते और हंसते बाहर निकलेंगे।

आपकी हर फिल्म में मुंबई किसी न किसी रोल में मौजूद रहती है। क्या यहां भी है?
ये कहानी दिल्ली की है। इसलिए खासतौर पर इसमें यहीं की चीजें शूट होनी थीं। हमनें करोलबाग, गुड़गांव, हरियाणा बॉर्डर और पुरानी दिल्ली को चुना। यहां शूटिंग करके बड़ा मजा आया। मैं कह सकता हूं कि दिल्ली को इस अंदाज में आपने किसी भी फिल्म में नहीं देखा होगा।

पहले टाइटल आपने 'दिल दर-बदर’ रखा था। उसे बदल क्यों दिया?
जब फिल्म के लिए एक गाना लिख रहे थे तो ये सूझा। इसमें लाइन थीं,

जिंदगी पे तेरा मेरा किसी का न जोर है,
हम सोचते हैं कुछ वो साली सोचती कुछ और है,
हम चाहते यहां है साली जाती कहीं ओर है,
लम्हे और लम्हों के बीच ये टेढ़े मेढ़े मोड़ है,
ये जिंदगी, ये साली जिंदगी।


तो मुझे ये टाइटल पसंद आ गया। और फिर ये टाइटल मूवी की थीम को एक्सप्रेस भी करता है।

आप बड़े अंतराल लेकर फिल्में बनाते हैं। इस कहानी में ऐसी क्या बात थी कि आपने इसी पर फिल्म बनाई?
क्योंकि ये मनोरंजक थी। मैं भी काफी वक्त से ऐसी फिल्म बनाना चाहता था जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकें। ऐसी फिल्म जो मजेदार हो। इसी वजह से मैं आकर्षित हुआ इस कहानी की तरफ। ये एक अलग सी लव स्टोरी है। इसमें थ्रिल का पहलू साथ-साथ चलता है।

इरफान, अरुणोदय, अदिति और चित्रांगदा में तो आपके दो यंग कपल हो गए। पर साथ-साथ सुशांत सिंह, यशपाल शर्मा, प्रशांत नारायणन और विपिन शर्मा जैसे मंझे हुए एक्टर भी फिल्म में हैं। क्या इसलिए कि एंटरटेनमेंट के साथ-साथ सीरियस एक्टिंग भी चलती रहे?
हां, कुछ-कुछ ऐसा ही है। सुशांत, विपिन और यशपाल फिल्म की वेल्यू और कंटेट क्वालिटी को बढ़ा देते हैं। सौरभ शुक्ला भी हैं, सौरभ तो बड़े कमाल हैं। ये सब मिलकर फिल्म को मजबूत करते हैं।

फिल्म में सितार प्लेयर निशात खां साब ने म्यूजिक दिया है। कैसा एक्सपीरिंयस रहा?
निशात साब बहुत बड़े आदमी हैं। उन्होंने कार्लोस सेनटाना, एरिक क्लेप्टन और जॉन मैकलॉफ्लिन जैसे बड़े आर्टिस्टों के साथ परफॉर्म किया है। लंदन के अलबर्ट हॉल तक उनका आर्ट पहुंचा है। म्यूजिक बहुत ही राहत भरा दिया है। क्यूं अलविदा... मेरा फेवरेट गाना है इस फिल्म के एलबम में से।
गजेंद्र सिंह भाटी (प्रकाशित)

Saturday, January 29, 2011

कॉमेडी यूज एंड थ्रो जैसी

फिल्मः दिल तो बच्चा है जी
डायरेक्टरः मधुर भंडारकर
कास्टः अजय देवगन, इमरान हाशमी, ओमी वैद्य, शहजान पद्मसी, श्रद्धा दास, श्रुति हसन, टिस्का चोपड़ा, रितुपर्णा सेनगुप्ता
स्टारः दो, 02


मेरे पास तीन लड़कों की इस कहानी को देखने की तीन वजहें थी। पहला इसका टाइटल जो मेरा ध्यान सीधे 'इश्किया' के खट्टे से गाने दिल तो बच्चा है जी... की ओर ले जाता है। दूसरा ये कि तीन बार नेशनल अवॉर्ड जीत चुके मधुर भंडारकर की ये पहली कमर्शियल कॉमेडी फिल्म है। तीसरा फिल्म की स्टार कास्ट। सीरियस और कॉमिक रोल के लिहाज से अजय देवगन को 'गंगाजल' के अनुशासित आईपीएस और 'गोलमाल' के गुस्सैल गोपाल से ही आंका जाता है, ऐसे में उन्हें एक दब्बू और शर्मीले लड़के नरेन बने देखना आकर्षित कर रहा था। 'थ्री इडियट्स' के बाद ओमी वैद्य की ये दूसरी मूवी थी और इमरान हाशमी किसी मल्टीस्टारर फिल्म में एक लाइट से रोल में नजर आ रहे थे। अब जब 'दिल तो बच्चा है जी' देख ली है तो इसे दोबारा देखने की ये तीन वजहें भी नहीं रह गई हैं। ये एक घटिया फिल्म नहीं है, पर कमर्शियल एंटरटेनर होने का दावा करती मधुर की ये फिल्म एंटरटेनमेंट देने में नाकाम रहती है। शुरू में स्टोरी और कैरेक्टर्स को जानने की जिज्ञासा होती है, पर बाद में बिना अच्छे डायलॉग और म्यूजिक के फिल्म का पेस धीमा बना रहता है। क्लाइमैक्स आते-आते फिल्म कुछ इंट्रेस्टिंग होती है कि अगले पंद्रह मिनट में थियेटर की एग्जिट लाइट्स जल जाती हैं। फ्रेंड्स के साथ एक बार जा सकते हैं, पर अल्टीमेटली ये एक यूज एंड थ्रो फिल्म ही रहती है।

बच्चे दिल की कहानी
कुछ भी अनोखा नहीं है कहानी में। इसके अंश आपने 'नई पड़ोसन', 'ढोल', 'एक्सक्यूज मी', 'स्टाइल' और 'गोलमाल' जैसी फिल्मों में देखे होंगे। तो झट पट मुद्दे की बात पर आते हैं। 38 साल के नरेन आहूजा (अजय देवगन) की एक जर्नलिस्ट वाइफ (रितुपर्णा सेनगुप्ता) और एक छोटी बेटी है। वैवाहिक जीवन टूट सा गया है, तलाक के पेपर दोनों ने फाइल कर रखे हैं। ऐसे में नरेन अपने खाली पड़े घर में रहने चला जाता है जहां उसके पेरंट्स रहते थे। घर की किश्त का खर्च निकालने के लिए वो दो पार्टनर रख लेता है। पहला है झटपट शादी डॉट कॉम में शादियां करवाने वाला मिलिंद केलकर (ओमी वैद्य) और दूसरा जिम ट्रैनर अभय सूरी उर्फ ऐबी (इमरान हाशमी). लव को लेकर नरेन शर्मीला है तो मिलिंद सिद्धांतवादी और अभय लड़की और पैसे पर जीने वाला। तीनों की लाइफ में प्यार का प्रोसेस अलग-अलग तरह से चलता है। नरेन मन ही मन अपने बैंक की इंटर्न जून पिंटो (शहजान पद्मसी) को चाहने लगा है। मिलिंद को रेडियो जॉकी गुनगुन (श्रद्धा दास) से प्यार हो गया है पर गुनगुन को फिल्मों में करियर बनाना है। अभय का अफेयर पहले अनुष्का नारंग (टिस्का चोपड़ा) के साथ चलता है फिर वो निकी नारंग (श्रुति हसन) को चाहने लगता है। क्लाइमैक्स में कहीं कुछ नयापन लगता है। ऐसे ही क्लाइमैक्स वाली एक अच्छी एंटरटेनिंग फिल्म है डेविड धवन की 'दीवाना मस्ताना।'

एडल्ट नहीं पर 'ए' सर्टिफिकेट
मूवी में मोटा-मोटी दो अडल्ट डायलॉग हैं, चूंकि प्रोमो में फिल्म को कुछ अलग दिखाने के लिए अजय-शहजान के बीच का एडल्ट डायलॉग ही दिखाया जाता है। इस खातिर इसका जिक्र जरूरी है। इनमें ये पहला तो प्रोमो में ही दिखता है। जून (शहजान पद्मसी) अपने बॉस नरेन (अजय) को अपनी एक दोस्त के बारे में कहती है, सर डू यू नो, शी जस्ट लॉस्ट हर वी। वी मतलब? वॉलेट! (नरेन) ...नहीं सर, वी मतलब वर्जिनिटी। दूसरा है इमरान हाशमी के कैरेक्टर को इंट्रोड्यूस करवाने का तरीका। परेश रावल का वॉयसओवर सुनाई देता है... ये है अभय। दोस्त इन्हें ऐबी कहकर बुलाते हैं। ये जिम ट्रैनर हैं। इनकी लाइफ में तीन एफ हैं। पहला फन, दूसरा फ्लर्टिंग और ...तीसरा तो आप समझ ही गए होंगे। इसके बाद फिल्म में कुछ भी एडल्ट जैसा नहीं है। वही कहानी। तीन दोस्त या दो दोस्त, लाइफ में आती गर्ल्स, पैदा होता आकर्षण, प्यार, इजहार और लड़का जीत जाता है या जाता है हार। हां, लड़का-लड़की स्वभाव में अलग हो सकते हैं। शर्मीला लड़का, बेशर्म लड़का, सिद्धांतवादी लड़का, एम्बीशस लड़की, तेज लड़की, स्वीट लड़की। ये सब कैरेक्टर हर दूसरी यंग रॉमैंटिक कॉमेडी में होते हैं।

कॉमेडी हो तो कैसी
तीन दोस्तों की कहानी पर बनी आज तक की सबसे खास फिल्म है 'चश्मे बद्दूर।' इसमें गुदगुदी भी है, कॉमेडी भी है, क्लासिक होने का तत्व भी है, फ्रैश स्क्रिप्ट-डायलॉग्स भी हैं और सिनेमैटिक जीनियस भी है। फारुख शेख, राकेश बेदी और रवि बासवानी के कैरेक्टर्स सिद्धार्थ, ओमी और जोमो के बीच जो रैपो और सिचुएशनल कॉमेडी बनती है वो यहां मधुर अपनी मूवी में रत्तीभर भी नहीं ला पाते। 'दिल तो बच्चा है जी' के शुरुआती क्रेडिट्स जब आते हैं तो तीनों दोस्तों के कैरिकेचर कुछ-कुछ टीवी सीरियल 'मालगुड़ी डेज' के स्केचैज की याद दिलाते हैं। उम्मीद बंधती है कि कुछ ताजी हंसी नसीब होगी। नहीं हो पाती। फिल्म के डायलॉग लिखे हैं संजय छैल ने। यकीन नहीं होता कि इन्हीं संजय ने कभी 'रंगीला' के डायलॉग लिखे थे और इन्हीं संजय ने कभी 'कच्चे धागे' जैसी कमर्शियल फिल्म लिखी थी। प्रीतम का म्यूजिक एक भी ऐसा गाना नहीं दे पाया जिसे पलटकर दोबारा सुनने का मन करे। मुझे निराशा हुई कि फिल्म 'जिस्म' के लिए बेहतरीन गीत लिखने वाले नीलेश मिश्रा ने अभी कुछ दिनों से... और ये दिल नखरेवाला... जैसे टाइमपास बोल वाले गाने लिखे हैं।

आखिर में...
'दिल तो बच्चा है जी' मधुर भंडारकर की सबसे कमजोर फिल्म है। आज भी उनकी पहली फिल्म 'चांदनी बार' ही उनकी बेस्ट फिल्म है। बाद में इसमें 'सत्ता' और 'पेज थ्री' जैसे नाम शामिल कर सकते हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, January 15, 2011

लवली देओल्स और कुछ कमियां

फिल्मः यमला पगला दीवाना
डायरेक्टरः समीर कर्णिक
कास्टः धर्मेंद्र, सनी देओल, बॉबी देओल, कुलराज रंधावा, नफीसा अली, सुचेता खन्ना, अनुपम खेर, मुकुल देव, पुनीत इस्सर
स्टारः ढाई 2.5


इस फिल्म पर लिखना मेरे लिए कुछ उलझन भरा रहा। उलझन इसके एंटरटेनमेंट को डिफाइन करने की। पंजाबी सेंटिमेंट्स वाली ऑडियंस के लिए 'यमला पगला दीवाना' एक फन राइड है। देओल फैमिली के फैन्स भी देखकर खुश होंगे। मगर ओवरऑल ये काफी कमियों वाली मूवी है। मुकेश ठाकुर की ढीली एडिटिंग और समीर कर्णिक का बिखरा डायरेक्शन 'यमला पगला दीवाना' में स्टोरीटेलिंग फैक्टर को मार देता है। कुछ देखने लायक रहता है तो मुकुल देव, सनी देओल और सुचेता खन्ना के निभाए कैरेक्टर। सनी वैंकूवर से आए परमवीर सिंह के रोल में मूवी को एक साथ थामे रहते हैं। बिल्ला के कैरेक्टर में मुकुल देव का ठेठ पंजाबी एक्ट और कैनेडा ड्रीम्स में खोई भोली के रोल में सुचेता इस फालूदा फिल्म में ताजगी ले आते हैं। पंजाबी ऑडियंस के लिहाज से मैं मूवी को साढ़े तीन स्टार दूंगा, मगर अपनी रेटिंग में ढाई स्टार रख रहा हूं।
कहानी क्या है?
परमवीर सिंह ढिल्लों (सनी) अपनी वाइफ मैरी (एमा ब्राउन गैरेट) और दो बच्चों के साथ वैंकूअर कैनेडा में रहते हैं। अपनी मां (नफीसा अली) की इच्छा पूरी करने और बीस साल पहले घर छोड़ गए पिता और छोटे भाई को खोजने वो बनारस जाते हैं। यहां भाई गजोधर (बॉबी) और पिता (धरम सिंह) मिल तो जाते हैं, पर दोनों अव्वल दर्जे के ठग हैं। इन्हें सही रास्ते पर लाना है और मां के पास ले जाना है। परमवीर की इस कोशिश के बीच गजोधर और साहिबा (कुलराज रंधावा) की लव स्टोरी है। साहिबा के भाई जोगिंदर (अनुपम खेर), बिल्ला (मुकुल देव), जरनैल (हिमांशु मलिक) और एक-दो दूसरे भाई हैं। मूवी थोड़ा-थोड़ा रुलाती है, पर क्लाइमैक्स समेत ज्यादातर टेंशन फ्री ही रखती है। कहानी से ज्यादा जोर टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी हंसी पर ही रहता है।
इससे बेहतर डिजर्व करते हैं धर्मेंद्र
पल-पल न माने टिंकू जिया, इसक का मंजन घिसे है पिया... इस आइटम नंबर में धर्मेंद्र और बॉबी की एंट्री होती है। यहां धर्मेंद्र की प्लेसमेंट और उनका इस्तेमाल परेशान करता है। लंपट और लड़कियों के इर्द-गिर्द मंडराने वाले धरम सिंह से उस धर्मेंद्र को अलग करना मुश्किल हो जाता है, जिसे मूवी में देखने सब आए हैं। परमवीर सिंह, गजोधर और धरम सिंह भी असल में हमें सनी, बॉबी और धर्मेंद्र ही लगते हैं। तीनों को असली रिश्ते से अलग करके नहीं देख पाते हैं। धर्मेंद्र के कैरेक्टर को बिना लॉजिक डिवेलप किया गया है। धरम सिंह बुरे क्यों हैं? ये नहीं बताया जाता। बीवी को क्यों छोड़ देते हैं? नहीं बताया जाता। छोटे बेटे गजोधर को शराबी और अय्याश क्यों बना देते हैं? ये भी नहीं बताया जाता। शुरू से लेकर क्लाइमैक्स तक गजोधर यानी बॉबी धर्मेंद्र को ओए धरम तू बड़ा कमीना है यार... कहते दिखते हैं। ये कॉमिक अंदाज समझ में नहीं आता, न ही डायरेक्टर समीर इस लाइन का संदर्भ बताते हैं।
हैंडपप वाला हीरो जमा
मूवी में स्क्रिप्ट से ज्यादा देओल्स की फैन फॉलोइंग और जट फैक्टर काम करता है। तीनों देओल में सिर्फ सनी का कैरेक्टर ही थियेटर स्क्रीन पर खुद के 'सनी देओल' इम्प्रेशन को जी पाता है। वो हैंडपंप लेकर नाचते हैं तो भी लॉजिकल लगता है, जट रिस्की ऑफ्टर बाल्टी विस्की... डायलॉग बोलते हैं उस वक्त भी लॉजिकल लगते हैं। परमवीर सिंह का उनका कैरेक्टर भी इस इल्लॉजिकल मूवी में खरा लगता है। पूरी फिल्म में सनी के जितने भी एग्रेसिव होने वाले सीन आते हैं उनमें ऑडियंस को एड्रेनलिन रश होता है। उनके कुछ स्टंट्स सम्मोहित करने वाले हैं।
यमला पगला.. गाना और मूवी
प्रोमो में दिखने और सुनाई पडऩे वाले 'प्रतिज्ञा' फिल्म के गाने मैं जट यमला पगला दीवाना... से मूवी की कहानी का कोई लेना देना नहीं है। सोनू निगम इस रीमिक्स में मोहम्मद रफी वाली नक तो नहीं ला पाते, पर क्लासिक वेल्यू की वजह से ये गाना इस मूवी में भी एक्साइट करता है। फिल्मांकन में सनी 'जीत' फिल्म के यारा ओ यारा मिलना हमारा... के डांस स्टेप करते हैं, तो धर्मेंद्र कुछ नए और कुछ 'प्रतिज्ञा' के ही इस असली गाने के स्टेप दोहराने की कोशिश करते है। बॉबी के लिए बचते हैं उनकी पहली फिल्म 'बरसात' के डांस स्टेप्स।
कैरेक्टर्स कम-बेशी
इन ढाई घंटों में किसी को सीरियसली ले पाते हैं तो सिर्फ सनी देओल और मुकुल देव (गुरमीत उर्फ बिल्ला) को। जोगिंदर सिंह बने अनुपम खेर भी हमेशा की तरह अपने कॉमिकल कैरेक्टर को सही से निभा जाते हैं। गजोधर और धरम सिंह की तरह उनकी दाढ़ी नकली भी नहीं लगती। परमवीर सिंह के छोटे बेटे का 'डिट्टो' कहने का अंदाज थियेटर से बाहर आने के बाद भी याद रहता है। धर्मेंद्र और नफीसा अली की जोड़ी 'मेट्रो' मूवी के उनके कपल की याद दिलाती है। पर क्लाइमैक्स में उनके मिलने के सीन में फिल्ममेकर ने गंभीरता नहीं बरती। बीस-तीस साल बाद अपनी बीवी से मिल रहा एक दोषी पति कम से कम एक आंसू तो बहा ही सकता था। एमा ब्राउन और कुलराज रंधावा के यादगार रोल तो नहीं हैं, पर जरूरत जितना काम दोनों कर जाती हैं। भोली के किरदार में सुचेता खन्ना छाप छोड़ती हैं। कैनेडा की दीवानी भोली हूबहू 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' की प्रीति जैसी है। यहां आकर कहानी भी ऐसी ही हो जाती है। तीनों देओल का एक सीन जिसमें सनी शराब पी रहे बॉबी से उनकी मां के बारे में पूछते हैं और जवाब में बॉबी धर्मेंद्र को देखकर कहते हैं कि यही मेरी मां और बाप है। इस लिहाज से कि वो इसमें अपने पिता के सामने एक्ट कर रहे थे, बॉबी का ये फिल्म में बेस्ट सीन रहा।
असर भी होता है
'यमला पगला दीवाना' के शुरू में मजाक का पात्र बनते हैं मारवाड़ी (जानी लीवर), मारवाड़ी (भंवरलाल, धरम सिंह का एक फर्जी भेष) और नेपाली (एक बच्चा)। मुझे लगता था कि बॉलीवुड के फिल्ममेकर अब शायद समझदार हो चुके हैं और कम्युनिटी या राज्य विशेष को लेकर अब वो घिसे-पिटे मजाक नहीं करेंगे। पर यहां समीर कर्णिक मुझे गलत साबित करते हैं। मजाक में ही सही ये चलन अच्छा नहीं है। माना कि तेरी भेण दी... एक फनी पंजाबी मुहावरा सा है... पर वहां भी इसे बुरा ही माना जाता है। परमवीर के दो छोटे बच्चे इस मुहावरे को बोलते और लड़ते दिखते हैं तो उनकी गोरी मैम बीवी भी बीच-बीच में विदेशी एक्सेंट के साथ ये लाइन बोल जाती हैं। फिल्म-फिल्म में ये दोष भी मनोरंजन की सीरिंज में भरकर दर्शकों को इंजेक्ट कर दिया जाता है।
आखिर में...
पंजाब के मिर्जा-साहिबा की प्रेम कहानी का जिक्र है, जो स्क्रिप्ट में पहली इनोवेटिव चीज है। चढ़ा दे रंग... अच्छे बोल और अच्छे म्यूजिक वाला गाना है। फिल्मांकन में इसके कुछ शॉट बेहद खूबसूरत लगते हैं। धर्मेंद्र के लिखे इस गाने में कोरियोग्रफी तो खास नहीं बन पाई पर बोल हैं...कड्ड के बोतल डब्बे चो, जट मुंह नूं जग लावे, होये डफली बज्जे आपो आप, ते नशा सुरम चढ़ जावे।
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, January 8, 2011

नो वन... से साल की गुड शुरुआत

फिल्मः नो वन किल्ड जेसिका
डायरेक्टरः राज कुमार गुप्ता
कास्टः विद्या बालन, रानी मुखर्जी, मोहम्मद जीशान, माइरा, राजेश शर्मा
स्टारः तीन***

पोस्टर देखने से ये अंदाजा नहीं होता कि 'नो वन किल्ड जेसिका' किस किस्म का एंटरटेनमेंट है। एजुकेट करने वाला, एंटरटेनमेंट देने वाला, सिनेमैटिकली संतुष्ट करने वाला या फिर चटख एक्टिंग और मजबूत स्क्रीनप्ले की खुशी देने वाला। जब 2011 की जनवरी का पहला शुक्रवार आता है, तो जवाब मिल जाता है। 'आमिर' के बाद डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता अपनी इस दूसरी मूवी में इन सभी पहलुओं में करीब-करीब जीत ही जाते हैं। मूवी को बढ़िया बनाने में उनका साथ देता है अमित त्रिवेदी का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर, आरती बजाज की बेदाग एडिटिंग और गौतम किशनचंदानी की कास्टिंग। ये सब परदे के पीछे के चेहरे हैं, पर असली चेहरे हैं। दिल्ली का जेसिका लाल मर्डर केस 1999 से 2010 तक चला। इतने बड़े दायरे को सवा दो घंटे की मूवी में भी समेटना है और उसमें फैक्ट-फिक्शन मिलाकर दिखाना है, ये संभव हुआ गौतम की कास्टिंग चॉयस की वजह से। थियेटर से घर अगर साथ कुछ ले जाते हैं तो वो यादें, रानी मुखर्जी और विद्या बालन नहीं देती हैं। वो यादें मिलती हैं माइरा (जेसिका), मोहम्मद जीशान अयूब (मनीष भारद्वाज) और राजेश शर्मा (इंस्पेक्टर एन.के.) के परफॉर्मेंस में। मूवी में काफी एफ.. वर्ड हैं, ऐसे में फैमिली के साथ जाना न जाना आपकी मर्जी पर है, हां.. दोस्तों के साथ सौ फीसदी जाएं। शानदार फर्स्ट हाफ, कुछ कमजोर सेकंड हाफ और कुल मिलाकर बढ़िया मूवी।

तो किसने मारा जेसिका को?
पोकरण में परमाणु परीक्षण हुए ही हैं, मीरा गैती (रानी मुखर्जी) एक रिपोर्टर के तौर पर अपने पहले बड़े असाइनमेंट करगिल वॉर के बारे में बता रही हैं। कहती हैं कि '1999 में करगिल की तोपें अभी शांत नहीं हुर्इं थी कि देश की राजधानी दिल्ली में एक फूट पड़ी।' इशारा है दिल्ली की मॉडल जेसिका लाल (माइरा) की ओर। मीरा कहानी कहती चलती है। सोशलाइट मल्लिका सहगल (बबल्स सब्बरवाल) के रेस्टोरेंट 'केनोज' में 29 अप्रैल 1999 को यहां की गेस्ट बारटेंडर जेसिका को गोली मार दी जाती है। मारने वाला हरियाणा सरकार की केबिनेट में मंत्री प्रमोद भारद्वाज (शिरीष शर्मा) का बेटा मनीष भारद्वाज (मोहम्मद जीशान) है। जेसिका की बहन सबरीना (विद्या बालन) रोते-बिलखते अपनी बहन के हत्यारों को न्याय दिलाने की ठान लेती है, पर एक-एक करके उसकी मुश्किलें बढ़ती रहती हैं। जेसिका का दोस्त और प्रमुख चश्मदीद गवाह विक्रम जयसिंह (नील भूपलम) बयान से मुकर जाता है। बाद में मूवी में मीरा की फुल एंट्री होती है और जाना-पहचाना क्लाइमैक्स उभरता है। मूवी का ट्रीटमेंट, डायरेक्शन और बड़ी सी कास्ट के नए चेहरे फिल्म को फ्रैश बनाए रखते हैं।

काट कलेजा कमियां
'आईसी 814' के कंधार हाइजैक वाले सीन में रानी के न्यूज पढ़ने का सीन रद्दी क्वालिटी का है। उन जैसी एक्ट्रेस से इतनी सतही एक्टिंग की उम्मीद नहीं थी। सिगरेट पीती, न्यूजरीडिंग करती, एफ..वर्ड बोलती, खुद को बिच कहती रानी इन सीन में ठीक तो लग सकती हैं, पर अपने रोल में वो खुद की तरफ से कुछ भी एैड नहीं कर पाई हैं। मूवी 'ए' सर्टिफिकेट से पास हुई है इसलिए हम करगिल से लौट रही मीरा गैती के मुंह से प्लैन में ..वहां होते तो गां** फट के हाथ में आ जाती... सुनते हैं। इनके गालियों के इस्तेमाल से एक बोल्ड सा कैरेक्टर ऑडियंस के आगे उभरने लगता है। पर जैसे जे.पी. दत्ता की 'एलओसी' में बिना कनविंस किए मां-बहन की गालियां बोलते बॉलीवुड के सोल्जर अनफिट लगे, ठीक वैसे ही इसमें हर जगह इस्तेमाल करती मीरा यानी रानी भी लगीं। फिल्मी एंटरटेनमेंट के रास्ते गालियों को ऑडियंस समाज के बीच ऑफिशियल करने की इतनी जरूरत थी भी नहीं।

बारीक मेहनत
मूवी में बारीकियों का इतना ध्यान रखा गया है कि केस के शुरुआतों दिनों में न्यूज चैनल की स्क्रीन बार पर सेंसेक्स 3,128 पॉइंट पर दिखता है। कोर्टरूम ड्रामा का जितना हिस्सा भी है बिल्कुल असली है। कोर्टरूम की बेंच-कुर्सियां-ट्यूबलाइट, वकीलों का टेंस करने वाला अंदाज और जज साब की चुप्पी, ये सब चीजें मेनस्ट्रीम मूवीज में बहुत ही कम ऐसे दिखती हैं। इनके लिए ज्यादातर सेट्स का ही इस्तेमाल किया जाता है, यहां राजकुमार गुप्ता ऐसा नहीं करते। कोर्टरूम की टेंशन और उमस एंटरटेनिंग तरीके से याद आती है तो 'मेरी जंग' और 'दामिनी' से। 'शौर्य' की भी याद आती है, पर मैं उसकी जगह 'अ फ्यू गुड मैन' को याद करना चाहूंगा। एनडीटीवी का पुराना लोगो, पुराने ऑफिस की बिल्डिंग, अंदर का व्यू और वहां पड़े तब के जमाने के पीसी मूवी को ऑथेंटिक फील देते हैं।

डायलॉग की बात
बेटे मनीष को सजा से बचाने के लिए घर पर अंकल लोग बात कर रहे हैं, रेफरेंस है जेसिका केस से जुड़े असली वकीलों का, अंदाजा लगाइए कौन है। डायलॉग है ..भाई साहब, बी. एल. पंडित को ले लेते हैं। 50 पर्सेंट सक्सेस का रिकॉर्ड है। और वो दूसरा 100 पर्सेंट रिकॉर्ड वाला? सुरेश दुलाऩी। अरे अब वो केस नहीं लेता।.. जेसिका लाल बनी माइरा की एक्टिंग शुरू के सीन में 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' की चित्रांगदा सिंह की याद दिलाती है। मूवी का दूसरा बेस्ट डायलॉग उनके हिस्से आया है। सड़क किनारे जेसिका-सबरीना जा रही हैं। पास से गुजरी बाइक पर पीछे बैठा आदमी सबरीना पर हाथ मारता है और जेसिका उसके पीछे दौड़ती है, उसे पकड़कर पीटती है और उस आदमी के माफी मांगकर भाग जाने के बाद सबरीना से कहती हैं ... भेंजी तू भेन्जी ही रहेगी, लड़ना सीख। ये दिल्ली है दिल्ली, आज छूकर गया है, कल रेप करके जाएगा.... माइरा की ये इंटेंस डायलॉग डिलीवरी खास है। मनीष भारद्वाज के कैरेक्टर का एक डायलॉग कल्ट है। उसके बोलने का अंदाज मोहम्मद जीशान के डायलॉग पर किए अपने काम को दर्शाता है। '...सर, सर गुस्सा आ गया था मुझे। हजार रुपए तक देणे के लिए तैयार था मैं, वो फिर भी ड्रिंक्स देणे के लिए मना कर रही थी सर। .... फिर ? ...फिर मैंने पिस्टल निकाल ली।' सिंपली ब्रिलियंट। मनीष की मां के कैरेक्टर में एक्ट्रेस का बार-बार पति से कहना... कुछ भी हो जी, मेरे मोनू को कुछ नहीं होना चाहिए.. फनी तरीके से ही सही, ज्यादातर माओं की अंधी ममता को अच्छे से साथ लेकर चलता है।

अमित त्रिवेदी का ढिंचेक-ढिंचेक म्यूजिक
फिल्म की आधी जान है अमित का म्यूजिक। अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे गाने पूरे वक्त फ्रैश रखते हैं। टेंस इश्यू होने के बावजूद मूवी में आप टेंस नहीं होते, बल्कि अपनी रगों में एंटरटेनमेंट और स्टोरीटेलिंग को फील करते हैं। कैमरे से फिल्माई किसी औसत वीडियो फुटेज को सिनेमा में तब्दील करने का मुश्किल काम यहां म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर करता है। कुछ-कुछ क्लासिक सा फील मिलता रहता है।
# ये पल, जो हैं वो हादसे हैं... बहुत ही सॉफ्ट और मार्मिक गाना है।
# आली रे साली रे... की बेस्ट लाइन है.. जिसकी लुगाई बणेगी रे भाई, उसकी तबाही, पेपर में छपेगी हट!
# मेरा काट कलेजा दिल्ली, मुई दिल्ली ले गई... में दिल्ली की बारी भी काफी पहले आ जाती है। प्रगति मैदान के हनुमान मंदिर से लेकर आईएसबीटी तक, कालकाजी से लेकर पुरानी दिल्ली तक... रिक्शेवाले, ऑटोवाले, पानीवाले... सब इस एक गाने में सिमट आते हैं और मूवी का बेस तैयार कर देते हैं। इन शुरुआती तीन मिनटों में दर्शक को सीरियस हो जाना पड़ता है।
# जार जार हुआ एतबार, टुकड़े हजार हुआ एतबार... मूवी के एक हिस्से को एक्सप्लोर करता है। केस के मजबूत विटनेस पुलिस को दिए अपने बयान से कोर्ट में पलट गए हैं। एक कमजोर बहन सबरीना का एतबार टूट गया। अब वो दिल्ली की सड़कों पर से इन इमोशंस के साथ गुजर रही है। एक रुपए की पानी की गिलास पीते हुए, डीटीसी की बस में लटककर चलते हुए, राह पर हाथी से टकराते हुए। इन्हीं भावों को आगे बढ़ाती गाने की एक लाइन देखें... झुलसी हुई रुह के, चिथड़े पड़े बिखरे हुए.. उड़ती हुई उम्मीद, रोंदे जिन्हें कदमों तले।
गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, September 21, 2010

दबंगः मनोरंजन और समाज पर उसके साइड इफेक्ट

'दबंग' रिलीज हुए करीब डेढ़ हफ्ता हो गया। हिंदी और क्षेत्रीय मीडिया ने फिल्म का खूब मजा लिया है। तो अंग्रेजी मीडिया दो-तीन स्टार से ज्यादा नहीं दे पाया। मैं दंबग पर इसकी संपूर्णता में बात करना चाहता था। मगर एक बार रिव्यू लिख चुकने के बाद अब कुछ वक्त तक इसकी दोबारा चीर-फाड़ करने की इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है कि दबंग में मनोरंजन के पहलू की तारीफ नहीं की जा सकती है। दरअसल निर्देशक अभिनव कश्यप से जब पहली बार बात हुई तो उनके जवाब देने के अंदाज से ही जाहिर हो गया था कि उन्होंने क्या बनाया होगा। उनसे जब दबंग के रिलीज होने की तारीख पूछी तो उनका जवाब एकदम ड्रमेटिक यानी नाटकीय था। शायद सुखद नाटकीय। मजा आया बिलाशक। वह ऐसे बोले जैसे कुछ दशक पहले तक तांगे पर बैठा वो शख़्स बोला करता था। गांवों-कस्बों की पगडंडियों में फटे हुए माइक के साथ, सभी को फिल्म के पोस्टर से लेकर हिरोइन के नाच और खूंखार डाकूओं के बारे में बताता।
...मगर ये तो हुआ निर्देशक का पक्ष जिसने सिर्फ और सिर्फ सीटियों का अकाल झेल रहे थियेटरों को नई सांसें देने वाला मनोरंजन बनाया है। मगर फिल्मों के समाज पर पड़ने वाले असर को छानने वाली छलनी लेकर देखें ..तो मजा नहीं आया। ये फिल्म हंसाने वाली दवा जरूर है, पर दीर्घकाल में इसके कई दूसरी फिल्मों की तरह साइड इफेक्ट हैं। अब दर्शक और फिल्म आलोचक इस साइड इफेक्ट को गंभीरता से लेते हैं, या अभिनव की सिर्फ मनोरंजन को दी गई प्रबलता को स्वीकारते हैं। चौपाल पर बैठकर करने लायक बात है।

अभी के लिए तो दबंग की कुछ कमियों पर बात कर रहा हूं। बड़ी व्यापक पब्लिसिटी जब होती देखते हैं, तो कई थोपी गई चीजों को आप अपनी ही सोच मानने लगते हैं, यहां भी कुछ ऐसा नहीं हो इसलिए कुछ एक बातों पर नजर डाल सकते हैं।

मैं एंटरटेनमेंट के मामले में कोई बात नहीं काटूंगा। बात सिनेमैटिक पहलुओं की है। फिल्म का धांसू और पहला फाइट सीन डायरेक्टर लुईस लेटेरिएर की फिल्म 'ट्रांसपोर्टर' से लिया गया है। फर्श पर तेल गिराकर जैसन स्टैथम के अंदाज में फाइट करने की कोशिश करते चुलबुल पांडे और कुछ गुंडे। इस सीन के कुछ पोर्शन एक आम चोरी हैं। दबंग के दूसरे फाइट सीन में कसर कंप्यूटर ग्राफिक्स की रह गई। चुलबुल मार रहे हैं, गुंडे छत से नीचे गिर रहे हैं और थोड़ा गौर करें तो नीचे का नकली आंगन देखा जा सकता है।

फिल्मों को लेकर एक बड़ी सीधी सी बात है। इनमें डायलॉग बिना लॉजिक के चल सकता है, मगर फिल्म का विजुअल नहीं। दबंग में एक्टिंग की बात करें। अरबाज और माही गिल का नदी किनारे वाला सीन आता है और थियेटर में बैठे दर्शक एक-दूसरे से बातें करने लगते हैं। क्यों? शायद इसलिए कि महत्वाकांक्षी मनोरंजन के बीच ये कुछ ढीला शॉट आ जाता है। इंटरवल तक अरबाज फिलर लगते हैं तो फिल्म में माही का रोल न के बराबर है। पुलिस इंस्पेक्टर ओम पुरी को अपनी बेटी की शादी सोनू से करनी है। पूरी फिल्म में नजर आते हैं लेकिन फिल्म के आख्रिर में वो 'चलो हनुमान जी लंका छोडऩे का वक्त आ गया है' .. बोलकर निकल लेते हैं। बिना खास संदर्भ वाले ओमपुरी के रोल को जाया ही किया गया है। 'हमका पीनी है, पीनी है..' गाने पर मेहनत से कोरियोग्राफी हुई है। पर दारू की बरसात और बंदूक से उड़ती गोलियों से ये एक थाना नहीं, किसी बाहुबली या डाकू का अड्डा लगने लगता है। अब इस सीन पर आएं। अरबाज खान तिजोरी से चुलबुल के पैसे निकालकर ले जा रहे है, मां डिंपल रोकती हैं। यहां डिंपल का कमजोर अभिनय खटकता है। ना तो वे मैलोड्रमेटिक मां बन पाती हैं और ना ही 'क्रांतिवीर-दिल चाहता है' जैसी ट्रैडमार्क फिल्मों में की हुई अपनी एक्टिंग दोहरा पाती हैं।

फिल्म में 'साउथ-टैरेंटिनो-बॉलीवुड' का मिक्स मैड वर्ल्ड है फिर भी हर चीज का लॉजिक है। मगर देखिए महेश मांजरेकर यूपी के लालगंज में भी मुंबईया बोल रहे हैं। एक सीन में कहते हैं.. 'ए मेरे को दारू मांगता है...ए दारू की तो मां की आंख..।' शुरू में छेदी सिंह और चुलबुल पांडे के टकराव का सीन सा बनने लगता है, मगर फिर इंटरवल तक के लिए वो गायब सा हो जाता है।

कहानी और कैरेक्टर
लालगंज, उत्तरप्रदेश में पुलिस इंस्पेक्टर हैं चुलबुल पांडे (सलमान खान)। सही-गलत सभी काम करते हैं, पर पूरे टेढ़े और दबंग तरीके से। बचपन से सौतेले पिता प्रजापति पांडे (विनोद खन्ना) से उन्हें वो प्यार नहीं मिला जो छोटे भाई मक्खी (अरबाज खान) को मिला। मां (डिंपल कपाडिय़ा) समझाती हैं कि मक्खी थोड़ा कमजोर है इसलिए उसका ध्यान रखना पड़ता है। पर दर्शकों के लिहाज से एक्साइटेड तरीके से चुलबुल पांडे अपना गुस्सा भाई-पिता पर उतारते रहते हैं। मक्खी मास्टरजी (टीनू आनंद) की बेटी निर्मला (माही गिल) से प्रेम करता है, मगर मास्टरजी राजी नहीं हैं, क्योंकि उनके पास प्रजापति पांडे को देने के लिए दहेज नहीं है। यहां के लोकल नेता हैं दयाल बाबू (अनुपम खेर), जिनका खास आदमी है छेदी सिंह (सोनू सूद)। छेदी अखाड़े में पहलवानी करता है, अपने पर्सनल फोटोग्राफर से फोटो खिंचवाता है, एमएलए का टिकट चाहता है और आपकी-हमारी फिल्म का विलेन है। पियक्कड़ हरिया (महेश मांजरेकर) की सुंदर बेटी राजो (सोनाक्षी सिन्हा) मिट्टी के बर्तन बनाती है।

अब कहानी के धागे खोलें। सलमान डकैती कर भागे गुंडों को को रोकते हैं, और माल अपने पास रख लेते हैं। चुलबुले हैं तो कोई इस बात का लोड नहीं लेता है। छेदी सिंह से ठन जाती है, चोरी का माल छेदी का था। चुलबुल पांडे का दिल राजो पर आ जाता है। मां की मौत हो जाती है और चुलबुल अपने भाई-पिता से अलग हो जाते हैं। हरिया की मौत के बाद चुलबुल राजो से शादी कर लेते हैं। मैं भी क्या कर रहा हूं...एक मसाला बॉलीवुड फिल्म की कहानी सुनाने की कोशिश कर रहा हूं। इसकी जरूरत क्या है। मोटी बात ये है कि अच्छी कहानी है।

कुछ देखी परखी
'हमका पीनी है...' और 'हुण हुण..दबंग दबंग..' गानों के फिल्मांकन और म्यूजिक में विशाल भारद्वाज की 'ओमकारा' का असर दिखता है। 'तेरे मस्त-मस्त दो नैन..' गाना अच्छा तो है, मगर इन दिनों आ रहे गानों की लैंथ कुछ कम सी लगने लगी है। क्वेंटिन टैरेंटीनो के अंदाज को डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने कहीं-कहीं बरता है, पूरी फिल्म में नहीं। कुछ ऐसी ही फील क्लामेक्स में गिटार की आती आवाज से होती है। या फिर उस वक्त जब अंतिम फाइट शॉट्स में परदा गहरा गुलाबी-हल्का लाल सा हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे 'रंग दे बसंती' के कुछ सीन में परदा ब्लैक एंड वाइट और रेतीले रंग सा हो जाता है। दबंग में साउथ की फिल्मों सा 'मसाला-एंटरटेनमेंट' कोशंट है। मगर मेरा मानना है कि ये एंटरटेनमेंट देखने वालों की दिमागी हेल्थ के लिए इतना अच्छा नहीं। इस बात में कोई शक नहीं कि दबंग सलमान के करियर की कुछ एक बेहतरीन फिल्मों में से एक है। 'मुन्नी बदनाम हुई...' गाने में हम सोनू सूद के फिल्मी करियर के सबसे लचीले और उम्दा परफॉर्मेंस को देखते हैं। सलमान के नाच के लिए दबंग को लंबे वक्त तक याद रखा जाना चाहिए। डायलॉग यूनीक हैं। अरसे बाद ऐसी फिल्म आई है जिसके एक-एक डायलॉग को मन से लिखा गया है। थियेटर से घर साथ लेकर जाते हैं...'क्या पांडे जी आप भी..' और 'भईया जी इस्माइल...' जैसे ढेर सारे डायलॉग्स को।
गजेंद्र सिंह भाटी