Showing posts with label Siddharth Diwan. Show all posts
Showing posts with label Siddharth Diwan. Show all posts

Monday, September 28, 2015

मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है, उसमें चाह रहती है कि चीजें इससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं: कनु बहल

.Q & A  .Kanu Behl, film writer and director (TITLI).

Amit Sial, Shashank Arora and Ranvir Shorey in a still from Titli.
ये भी ‘तितलियों’ की हत्या का दौर है। चैतन्यता, प्रेम, आजादी, यौन उन्मुखता, समानता, प्रकृति, फकीरी और सहिष्णुता पर संकट है। इस बीच कनु बहल की फिल्म ‘तितली’ आ रही है। कहानी दिल्ली में रहने वाले एक परिवार की है। तीन भाई हैं। सबसे छोटा है तितली। संवेदनशील है और आपराधिक पेशे से दूर जाना चाहता है, उसका ये नाम संभवत: इसीलिए रखा गया है। ये भूमिका नवोदित शशांक अरोड़ा ने अदा की है। बड़े भाई विक्रम का रोल रणवीर शौरी और प्रदीप का रोल अमित सियाल ने किया है। तितली की शादी नीलू से की जाती है जो किसी और से प्यार करती है। नीलू के रोल में शिवानी रघुवंशी हैं। तीनों भाइयों के पिता की भूमिका वरिष्ठ रंगकर्मी और एक्टर-डायरेक्टर ललित बहल ने की हैं। वे नवोदित निर्देशक कनु के पिता हैं।

दिल्ली में पले-बढ़े कनु की मां नवनिंद्र बहल भी वरिष्ठ अदाकारा और एक्टर-राइटर-डायरेक्टर हैं। नोएडा की एपीजे स्कूल में पढ़े कनु ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज से बिजनेस में बैचलर्स डिग्री ली। 2003 में वे कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (SRFTI) सिनेमा की पढ़ाई करने गए। चार साल बाद 2007 में मुंबई पहुंचे और वहां निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की दूसरी फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए!’ में असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए। उनकी अगली फिल्म ‘लव सेक्स और धोखा’ (2010) में भी वे ए.डी. थे। उन्होंने जर्मनी के चैनल ZDF और जापान के NHK के लिए डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। 2010 में कनु ने अपनी पहली फिल्म ‘तितली’ लिखनी शुरू की जिसकी स्क्रिप्ट 2012 में एनएफडीसी की स्क्रीनराइटर्स लैब में चुनी गई। फिल्म में उनके सह-लेखक हैं शरत कटारिया जो पहले ‘भेजा फ्राय’ जैसी फिल्म लिख चुके हैं और बतौर निर्देशक इस साल उनकी पहली फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ आई है। ‘तितली’ का निर्माण दिबाकर बैनर्जी और यशराज फिल्म्स ने किया है। इसका फिल्मांकन सिद्धार्थ दीवान और एडिटिंग नम्रता राव ने की है। फिल्म पिछले साल फ्रांस के केन (Cannes) फिल्म फेस्ट की विशेष श्रेणी ‘अं सर्तेन रगाद’ (Un Certain Regard) में प्रदर्शित की गई तब से और चर्चा में है। यहां ‘कैमरा दॉर’ (Caméra d'Or) श्रेणी में भी इसे नामांकित किया गया। विश्व के 22 से ज्यादा फिल्म महोत्सवों में अब तक जा चुकी है।

‘तितली’ भारत भर के सिनेमाघरों में 30 अक्टूबर को प्रदर्शित होने जा रही है। इसके अलावा कनु अपनी अगली फिल्म भी लिख रहे हैं। इसका नाम ‘आगरा’ बताया जाता है। ये एक 24 साल के लड़के की कहानी है जो एक लड़की के प्यार में पड़ जाता है। लेकिन जल्द ही ज्ञात होता है कि वो लड़की काल्पनिक है। अभी भारत में प्रेम की परिस्थिति क्या है इसे भी ये कहानी प्रस्तुत करेगी। कनु से उनके जीवन, तितली, सिनेमा और सोच पर बात हुई। प्रस्तुत है:

एक साल पहले ‘तितली’ का ट्रेलर आ गया था और केन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी तब चली गई थी। क्या तब पूरी तरह तैयार नहीं हो गई थी? या भारतीय प्रिंट में समय लगा?
नहीं, दरअसल फिल्म का अंतरराष्ट्रीय चक्र (festival cycle) करीब एक से डेढ़ साल लंबा होता है। एक बार केन (Cannes) चली जाती है तो काफी सारे शीर्ष फेस्टिवल्स में जाती है। हम फेस्टिवल फेरे को पहले पूरा करना चाहते थे। फिल्म पूरे जहां में कुछ सबसे बड़े फिल्म महोत्सवों में गई है। ये रॉटरडैम (Rotterdam) में गई है जो नीदरलैंड्स में होता है। गोटेनबर्ग (Gothenburg) में गई है जो स्वीडन में होता है। एएफआई (American Film Institute), लॉस एंजेलस में गई है। बीएफआई (BFI), लंदन में गई है। इसने 9* पुरस्कार जीते हैं। आमतौर पर ऐसी छोटी फिल्म के लिए काफी प्रयास करने पड़ते हैं। इंटरनेशनल मॉडल को फॉलो करना पड़ता है। इसके पीछे का सारा आधार तैयार करना होता है।

समाज में बहुत सारे विषय और चिंताएं हैं लेकिन पितृसतात्मक (Patriarchal) समाज पर ही आपने अपनी पहली फिल्म क्यों बनाई? ऐसा क्या लिंक रहा इस विषय से?
बहुत ईमानदारी से बोलूंगा। मैंने जब ये फिल्म लिखनी शुरू की थी तो मुझे नहीं पता था कि ये किन-किन थीम्स से रूबरू होगी। मैंने इससे पहले एक और फिल्म लिखी थी जिसकी स्क्रिप्ट मैं एक-डेढ़ साल लेकर घूमा हूं। दिबाकर (बैनर्जी) को भी पढ़ाई। मैंने बनाने की कोशिश की और कहीं न कहीं मुझे अहसास हुआ कि यार, ये ईमानदार फिल्म नहीं है! मैंने बस लिखने के लिए एक फिल्म लिख दी है। इसका कोई मतलब नहीं है। उसके बाद मैं डिप्रेशन में चला गया पांच-छह महीने। घर बैठा। मैंने सोचा कि यार तुमने शुरू क्यों किया था? तुम फिल्म क्यों बनाना चाहते थे सबसे पहले? वो इसलिए कि मुझे कहानी कहनी थी। सच्ची कहानी। जो अपने से जुड़ी हो। फिर वहां से पूरा विचार शुरू हुआ कि इस बार मैं जो लिखूंगा उससे मेरा अपना जीवन और अनुभव जुड़ा होना चाहिए। अच्छे तरीके से और भली-भांति तो मैं अपने परिवार को ही जानता था। सोचने लगा, तो वो एक बहुत ही नेचुरल सब्जेक्ट बन गया मेरे लिए... नॉर्थ इंडिया में रहते हुए, दिल्ली में रहते हुए .. जो कि एक बहुत पेट्रियार्कल सोसायटी है। मेरा अपने पिता से बहुत ही मुश्किल रिलेशनशिप रहा है। कुछ वो चीजें स्क्रिप्ट में ढुलनी शुरू हुईं।

 तो फिल्म बन गई एक ऐसे युवा के बारे में जो अपने बड़े भाई से भागना चाहता है क्योंकि बड़ा भाई बहुत हिंसक है। उसे मारता है, पीटता है, तंग करता है। इसमें कुछ अतिरिक्त बात लाने और इन बिंदुओं को तीखा करने के लिए मैंने और शरत (कटारिया) ने उसे एक फैमिली में सेट किया कि वो एक कारजैकर्स (कार लूटने वाले) की फैमिली से है। क्योंकि ... तभी-तभी ये रेप केस (दिल्ली, 2012) भी हुआ था। उसे भी समझने की कोशिश कर रहे थे। हम लोग लड़खड़ा रहे थे, ढूंढ़ रहे थे कि ये फिल्म है क्या? ये सारी चीजें अभी मैं बोल रहा हूं तो आपको लगेगा कि सोच के करीं, पर सच्चाई ये है कि ये सारे जो फिल्म के दरवाजे थे वो बतौर लेखक हमारे सामने एक-एक करके खुले। हमें ये भी लगा था कि इस फैमिली का हिंसक होना जरूरी है न सिर्फ घर में बल्कि बाहर भी। तो हमने कारजैकिंग की पृष्ठभूमि बनाई और उसके बारे में रिसर्च करना शुरू किया। कहानी के मुझसे जुड़े इमोशंस ये थे कि मेरा अपने फादर से डिफिकल्ट रिलेशनशिप था जो कि अपने आप में ही बहुत कॉमन चीज हैं। शरत का भी अपने पिता से कठिन रिश्ता था, सिद्धार्थ (दीवान) जिन्होंने फिल्म शूट कीं उनका भी अपने पिता से रिश्ता कठिन था। तो ये सबके भी विचार जुड़ते गए फिल्म में, जैसे-जैसे क्रू एड होती गई। शुरुआत यहीं से हुई थी।

 उसे हम पकड़ कर चले और पहला ड्राफ्ट लिखा। इससे ये कहानी चार मर्दों के परिवार की बन गई। एक पुरुषों वाली फैमिली में कोई लड़की आती है और क्या होता है? लेकिन फिर सोचा कि यार, बड़े भाई का किरदार तो आरोपित (accusatory) करने वाला लग रहा है। बड़ा भाई तितली को मार रहा है लेकिन इसमें तो हम गए ही नहीं कि ये ऐसा क्यों कर रहा है? इस घर में बड़ा पैटर्न क्या है? हमने बात करना शुरू किया कि यार अगर हम बोल रहे हैं कि ये जो छोटा लड़का है, वो अपने भाई से भागना चाह रहा है क्योंकि उसे बड़ा भाई जैसा है वैसा पसंद नहीं है तो वो भाई ऐसा बना क्यूं? विचार आया कि ये बाप क्या कर रहा है यहां? इसका क्या रोल है? उसे जब तलाशा तो हमें बाप मिला फिल्म में। एक और ड्राफ्ट लिखा तो लगा कि अच्छा, बड़ा भाई बाप की वजह से ऐसा है। लेकिन फिर हमने सवाल पूछा कि बाप ऐसा क्यों कर रहा है? तो उससे हमें एक दादाजी की फोटो मिली घर में। देखिए, ..फिल्म एक स्पेस है जिसमें हम 100 या 110 दस मिनट में एक स्टोरी कहना चाह रहे हैं.. और जिस दिन हमें आइडिया आया कि घर में एक दादाजी की फोटो है जिसकी पिताजी बार-बार पूजा करते हैं तो वो चक्र (circularity) ज्ञात हुआ। तब हमें पता चल गया कि ये फिल्म किस बारे में हैं?

 असल में फिल्म पितृसत्ता से भी ऊपर उठकर एक फैमिली के बारे में है। परिवार के पावर डायनेमिक्स (power dynamics) आपस में क्या होते हैं उस बारे में है। परिवार में जो ये भूत घूमते रहते हैं न चित्रों के.. और इन एक से दूसरी छवि में जो हस्तांतरित (pass on) होता रहता है.. ये एक्चुअली उसके बारे में है। तब हमें पता चला कि इस लड़के को लगता है कि वो बड़े भाई से भागना चाहता है पर असल में तो वो बाप से या दादा की फोटो से भागने की कोशिश कर रहा है। और शरीर के भागने से कुछ नहीं होगा। आप कितना भी भाग जाओ वो तो हमारे अंदर है। ये करते-करते स्क्रिप्ट की यात्रा रही है। ये मेल डॉमिनेशन से पेट्रियार्की से सर्कुलैरिटी पर चली गई है। मेरे हिसाब से पेट्रियार्की एक रनिंग थीम है फिल्म की। अगर हम सबसे बड़े माले पर जाकर इस पूरी ईमारत को देखें तो सबसे बड़े तौर पर ये फिल्म फैमिली सर्कुलैरिटी के बारे में है।

आपने फिल्म के साथ इतना वक्त बिताया है कि उसे बहुत स्तर पर और बहुत लहजों से जानते हैं। लेकिन बाहर से सिर्फ ट्रेलर देखते हैं तो मोटे तौर पर पेट्रियार्की ही समझ आती है। बड़ा चैलेंज अभी भी हमारे यहां पितृसत्ता वाला समाज है। आप रोज घटनाएं देख रहे हैं। पढ़ने-लिखने के दौरान निराशा ही होती है। ‘मैं हूं मर्द तांगे वाला’ और ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’ के अमिताभ से लेकर हालिया ‘बाहुबली’ के प्रभास को ले सकते हैं जो शिवेंदु का किरदार करते हैं जिसमें हीरोइन (तमन्ना भाटिया) का उद्देश्य होता है कि वो बदला लेना चाहती है तो नायक उसे रोक देता है। अर्थ दिखता है ‘तू खूबसूरत रह, तू मुझसे लव कर, तेरा काम मैं करूंगा’।
बिल्कुल। ‘तितली’ पेट्रियार्की के बारे में ही है लेकिन इससे पहले भी ऐसी फिल्में रही हैं जो शायद इस मसले को डील कर चुकी हैं। हम बात कर रहे थे कि जब ये सारी फिल्में हैं तो हम अपनी फिल्म क्यों बना रहे हैं? यही बात क्यों कह रहे हैं? तो तय हुआ कि हम इस पर ही खत्म नहीं करना चाहते थे कि हमारे यहां पेट्रियार्की है और वो खराब है, हम उससे जूझ रहे हैं। ये तो सबको मालूम है। इस बात पर तो कई सदियों से लड़ाई चल ही रही है। लेकिन एक बार जब हमने मजबूती से तय कर लिया कि ‘तितली’ में इस विषय पर बात करना चाहते हैं तो उसके बाद हमारा पूरा प्रयास इस पर था कि ये क्यों है? और ये कहां से आती है? और इस पूरी डिबेट को खोला कहां जाए? इसकी शुरुआत कहां से होती है? और अगर इसे तोड़ना है तो क्या किया जाए? बात सिर्फ वहीं पर नहीं रुक जानी चाहिए जहां हर फिल्म ले जा चुकी है। बात उससे आगे जानी चाहिए। पेट्रियार्की के ढांचे को कैसे तोड़ा जाए? फैमिली के मायने क्या हैं? क्यों ये जुड़ी तो उसी से है न! प्रयास इसी पर रहा है कि परिवार और पितृसत्ता को समझा जाए और उसमें जो गलत पैटर्न नजर आ रहे हैं उनसे कैसे जूझा जाए। ये प्रॉबल्म इतना बड़ा है तो इसका मामूली सॉल्यूशन से काम नहीं चल सकता। हमने सोचा कि इसके भीतर जाकर कुछ फिल्टर व परदे और खोले जाएं जो हमें नजर (view) दे कि शायद इस मसले का हल यहां से खुल सकता है। क्योंकि पेट्रियार्की का स्ट्रक्चर हम सबसे बड़ा है। हम उन्हीं परिवारों, उसी पितृसत्ता और उन्हीं भूतों से जूझते हुए कुछ समझे बगैर 80 साल का जीवन जी लेते हैं। यही 70-80 साल अगर पेट्रियार्की के स्ट्रक्चर को समझकर उसका समाधान ढूंढ़ने में लगाएं तो शायद उसे बेहतरी से तोड़ पाएंगे, न कि इंसानों से ही लड़ते रहें। तो फिल्म शुरू उसी लड़ाई से होती है।

यानी आप उपाय भी साथ में बताने की कोशिश कर रहे हैं जो ज्यादातर फिल्मकारों द्वारा नहीं किया जाता। सत्यजीत रे की ‘महानगर’ बहुत चतुराई से दर्शक से कहती है कि घर की औरत को बाहर निकालो, शुरू में दिक्कत होगी आपको, मां-बाप को लेकिन बाद में बदलाव स्वीकार हो जाता है। ‘अशनी संकेत’ में जाति व्यवस्था पर बहुत मानवीय तरीके से बता देते हैं जहां उनका ध्यान इंसान की बुराई पर नहीं समस्या के ढांचे पर है कि ये समस्या रहेगी अगर आप इसे ऐसे रहने देंगे तो। ‘पाथेर पांचाली’ भी ऐसी थी। या अरुणा राजे की ‘रिहाई’ बहुत ही मजबूत नारीवादी फिल्म थी। आपने कहा कुछ पहले फिल्में रहीं जो इस विषय पर बात कर चुकी हैं, आप के जेहन में कौन सी थीं?
मैं इतनी फिल्में नहीं देखता आजकल। पिछली बार फिल्में फिल्म स्कूल में ही देखी थीं। मैं लिट्रेचर से ज्यादा जुड़ा था। इस संदर्भ में आर. डी. लैंग (R. D. Laing) हैं पॉपुलर साइकैट्रिस्ट, उनकी किताब है ‘द पॉलिटिक्स ऑफ द फैमिली’ (The Politics of the Family)। ये हमारा प्रमुख दस्तावेज बनी थी फिल्म के लिए। मेरी जो समझ है वो इससे बनी, और इससे मेरा वास्ता संयोग से ही हुआ था। मैंने किसी को स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट पढ़ने के लिए दिया था कि हम क्या कर रहे हैं और हम बहुत एक्साइटेड हो गए थे कि ये देखो हमें लग रहा है कि हमने कुछ नया ढूंढ़ िलया है। ये सर्कुलैरिटी की बात किसी ने नहीं की थी। उन्होंने पढ़ी और जवाब दिया कि ‘आपने कभी आर. डी. लैंग पढ़ा है?’ मैंने और शरत ने बोला, नहीं सर हमने तो नहीं पढ़ा है। तो बोले, ‘आप ये किताब पढ़ो।’ जब पढ़ी तो अहसास हुआ कि हम जो सोच रहे थे कि हमने नया ढूंढ़ा है दरअसल एक इंसान अपना पूरा जीवन इसी बारे में बात करते हुए निकाल के गया है। इस पेशे में उन्होंने जो भी पचास-साठ साल बिताए वो इसी इश्यू पर लिख रहे थे। सर्कुलैरिटी पे ही लिख रहे थे। कि कैसे पीढ़ियों में व्यक्तित्व यात्रा करते हैं। एक जेनरेशन की पर्सनैलिटी दूसरे पे आती है। हम अपने ही आसपास के लोगों से लड़ते रहते हैं, ब्लेम करते रहते हैं लेकिन शायद ये साइकल ब्रेक करना ज्यादा जरूरी होता है। बाकी फिल्में तो हैं ही लेकिन हमने स्क्रिप्ट लिखते हुए कोई फिल्म नहीं देखी जो परिवार से जुड़ी हो। हमने फिल्मों के अपने सामान्य ज्ञान से ही बातें लीं कि वे कहां तक पहुंची हैं। मेरा तो फिल्म स्कूल जाने का पूरा इरादा ही यही था कि क्या फिल्में बन चुकी हैं और कहां आगे जाया जा सकता है? सेम फिल्में दोबारा बनाने का कोई सेंस नहीं है।

शरत कब जुड़े ‘तितली’ से? और सवाल ये था कि एक निर्देशक या लेखक जो मूल कॉन्सेप्ट अपने दिमाग में पैदा करता है उसे किसी सह-लेखक की जरूरत क्यों पड़ती है? दूसरा, आपके विचार को वो उतनी ही आत्मीयता या मौलिकता से कैसे जान सकता है? क्योंकि वो तो दूसरा आदमी है। और फिर प्रोसेस क्या रहता है लिखने में? वो क्या मदद कर पाता है? जैसे ‘मसान’ में नीरज (घेवन) ने वरुण ग्रोवर को साथ जोड़ा था। तो अच्छी बात बन बड़ी। आपकी फिल्म में भी शरत हैं। क्या सह-लेखक एक बाहरी ही नहीं बना रहता?
Sharat and Kanu.
मेरे हिसाब से फिल्ममेकिंग बहुत सहयोगपूर्ण (collaborative) काम होता है। शरत से लेकर सिद्धार्थ (जिन्होंने शूट की) से लेकर नम्रता (जिन्होंने एडिट की) तक हर इंसान अपनी कहानी इस फिल्म में लेकर आया। इसीलिए ये फिल्म इतनी अच्छी बनी है। शरत तो इसका सबसे पहला हिस्सा था जब कोई नहीं था। शरत का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उससे मैं मिला था करीब अक्टूबर 2012 में। और हमें करीब डेढ़ साल लगा ये फिल्म लिखने में। उसका आना बहुत जरूरी इसलिए था क्योंकि एक तो मुझे लगता है हर स्क्रिप्ट एक जीता जागता इंसान होती है। मुझे लगता है उसमें इतनी सारी चीजें, इतने सारे किरदार होते हैं कि एक आदमी का उस पर खेलना थोड़ा सीमित हो जाता है। दो लोग जब मिलकर खेल रहे हैं और उनमें लेन-देन होता है बातचीत का तो हर पात्र के अंदर जो जीवन है थोड़ा बढ़ता है। और खिल उठता है। और उसके अंदर का प्ले ज्यादा दिखता है। हम दोनों के व्यक्तित्व भी थोड़े विरोधाभासी हैं। तो विरोध थे। लेकिन बहुत जल्द ही हमें एक कॉमन चीज को मिल गई, वो ये कि हम दोनों एक ही जगह से थे। कम और ज्यादा हम दिल्ली के समान इलाकों से थे। मैं पटपड़गंज में रहता था और शरत वेस्ट दिल्ली में रहता था। जिन लोगों के बारे में हम बात कर रहे थे उनको मैं और वो बहुत अच्छे से जानते थे। वहीं पर हमको एक बहुत स्ट्रॉन्ग कॉमन ग्राउंड मिल गया। जब हम किसी भी चीज के बारे में बात करते थे तो बहुत जल्दी हमारा एक कोड बन जाता था। शरद की मजबूती है राइटिंग की, वो है कैरेक्टर्स और डायलॉग्स.. और मेरा स्ट्रक्चर का सेंस है और कहानी का सेंस है तो वो एक बहुत अच्छी चाबी बनी और हम दोनों जुड़ गए। वो बहुत बड़ी ताकत थी।

.. मैं ऑथर स्टोरी में बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखता हूं। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर कोई ऑथर होता है या कोई बहुत बड़ी चीज होता है। मुझे लगता है डायरेक्टर अपना बहुत राजनीतिकरण करते हैं। जबकि फिल्म में टीम वर्क होता है। शरत टीम का सबसे पहला हिस्सा था और दोनों के आने से कहानी कोई तीसरी ही चीज बन गई। मेरे न होने से भी वह नहीं होती और उसके न होने से भी। जब दोनों साथ आए और बात करनी शुरू की, कि भई ये क्यों हो रहा है? शरत बोला कि भई तू तो तितली को बिल्कुल ही पीड़ित (victim) दिखा रहा है और बड़ा भाई बस विलेन ही बन रहा है। उस सवाल पर हम आगे बढ़े। उसके बाद मैंने सवाल पूछे उसके शरत ने जवाब दिए। ये जो मंथन होता है इसके बिना सिर्फ एक राइटर-डायरेक्टर के लिए - कम से कम मेरे मामले में अगर मैं दूसरों की बात न भी करूं - प्रोसेस थोड़ा सा एकाकी (lonely) हो जाता है और थोड़ा सा लाइफ उसमें से जाती रहती है। मुझे लगता है एक को-राइटर के होने से एक वैधता (validity) मिलती है, कहानी को सार्वभौमिकता (universality) मिलती है। क्योंकि वो सिर्फ आपकी कहानी नहीं होती.. आपके पास मौका आ जाता है ये देखने का कि ये किसी और की कहानी भी बन सकती है कि नहीं? या ये सिर्फ मेरी कहानी है? और जिस पल आपको पता चलता है कि हां ये किसी और की कहानी बन सकती है इसका मतलब.. सही है। इसका मतलब आप एक ऐसी विशेष (archetypal) चीज बोल रहे हैं जो आपसे आगे बढ़कर एक बड़ी परिस्थिति के बारे में भी बात कर रही है।

क्या ऐसा होता है कि जिस स्क्रिप्ट या कहानी पर आप जितना वक्त बिताते हैं वो उतनी अच्छी होती जाती है.. या उल्टा? जैसे ‘पीके’ है तो उसमें राजकुमार हीरानी और अभिजात जोशी ने तीन-चार साल बिता दिए और आपने इस पर डेढ़ साल और शायद एक साल पहले किया होगा। या ऐसा भी होता है कि दस दिन या एक-दो सिटिंग में आपने लिख दी हो वो भी आइकॉनिक बन सकती है?
नियम तो कोई नहीं है। मैं सिर्फ इतना बोल सकता हूं कि अच्छी फिल्में एक कहानी के बारे में नहीं होती, कैरेक्टर्स के बारे में होती हैं। मेरे हिसाब से। और कैरेक्टर आता है आपकी लाइफ के निचोड़ से, अनुभव से। जितना ज्यादा आप उसे समय देते हैं वो कैरेक्टर उतना ही ज्यादा आपसे बात करने लग जाता है। और एक्चुअली बहुत सारी लिखाई होती है कैरेक्टर के पास पहुंचने तक.. वही सारा जो एफर्ट होता है, सारा जो डिजाइन होता है वो वही होता है कि कब आप अपने और कैरेक्टर के बीच की दीवार हटा दें और वो आपसे सच्चाई से बात करने लगे। कुछ लोग होते हैं जो दस-दस दिन में भी स्क्रिप्ट लिख लाते जाते हैं और बड़ी अच्छी होती है। लेकिन मेरा विश्लेषण ये है कि ऐसे लोग थोड़े से बिखरे (sporadic) हो जाते हैं। उनकी एक स्क्रिप्ट बहुत अच्छी होती है, फिर एक नहीं, फिर एक बहुत अच्छी होती है। वो थोड़ा सा त्रुटि वाला प्रोसेस (Error sticken process) होता है। कभी कभी हो जाता है कभी नहीं होता है। लेकिन जितना टाइम आप किसी चीज को दें उतना वो आपको वापस देती है, ये तो तय है। अगर आप उतना ही समर्पित हैं अपने प्रोसेस को लेकर.. सिर्फ टाइम के लिए टाइम लगाएंगे तो जाहिर है कुछ नहीं होगा.. अगर आप उतने ही समर्पण के साथ अपनी कहानी और पात्रों के पीछे जा रहे हैं और उनकी पूंछ पकड़कर बोलें कि हां भई बताओ तुम क्या कहना चाहते हो.. तो मुझे लगता है ज्यादा टाइम हमेशा फायदेमंद ही होता है।

‘तितली’ को लेकर एक्टर्स, सिनेमैटोग्राफर, एडिटर और बाकी टीम को आपका ब्रीफ क्या रहा?
हमने सबसे पहले तो सबको वो किताब पढ़ाई। फिर कुछ म्यूजिक था। एक-दो गाने थे जो मैंने सबको सुनाए। जो मूड देते हैं फिल्म का। कि हम ये मूड देना चाहते हैं.. 

गाने मतलब?
मैंने जो म्यूजिक सुना हुआ था लाइफ में जिससे मुझे पता लगा कि हम इस मूड का पीछा कर रहे हैं। वो गाने। और हमारा एक शब्द था - मैं अपनी हर फिल्म में एक शब्द रखता हूं जो कहानी का पूरा निचोड़ होता है। ‘तितली’ में वो शब्द था उत्पीड़न (oppression)। ‘तितली’ हर तरह के ऑप्रेशन के बारे में है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यही थी कि ये फिल्म चक्र (circularity) के बारे में है। इस बारे में है कि कैसे जिस इंसान की पर्सनैलिटी से आप सबसे ज्यादा दूर भागना चाहते हो.. आप जितना दूर उससे भागते हो वो उतना ही आपके अंदर जागना शुरू हो जाता है। आप दूर भाग तो जाते हो लेकिन क्योंकि आप इतना उसके बारे में सोच रहे हो कि उसकी लौ आपके अंदर उतनी ही जलनी शुरू हो जाती है। इस फिल्म का हर पात्र, हर पल, हर कॉस्ट्यूम, हर प्रॉपर्टी, हर बात इसी बारे में है। इसे इसी लेंथ से देखना है। इसके अलावा ये बात की कि तुम्हारी लाइफ में क्या अनुभव थे जो इस चीज से जुड़ते हैं? और जब भी किसी से ये बात करते थे तो कोई न कोई नया अनुभव जुड़ता था। देखिए, फैमिली ऐसी चीज है कि जिससे हर कोई जुड़ा होता है। तो हरेक का अनुभव है और हम मानवों के पैटर्न इतने समान हैं कुल मिलाकर कि हर किसी की फैमिली में कुछ न कुछ झगड़ा या परेशानी होती था। बात करते थे तो वो वहीं से निकल कर आता था। कि हां यार, मैं अपने पिता जैसा नहीं बनना चाहता था लेकिन अब मैं बड़ा हो रहा हूं तो उन्हीं के जैसा बनता जा रहा हूं। कि हां मैं अपनी मां से इतना ज्यादा कुढ़ती थी, पूरी कोशिश करी कि कभी अपनी मां जैसी न बनूं लेकिन अब मुझे लगता है कि यार मैं तो बिलकुल वैसी ही होती जा रही हूं।

आपका बचपन ज्यादा कहां बीता? पंजाब में या दिल्ली में? कैसा था? किस किस्म के बच्चे थे? क्या तब घर में माहौल लिट्रेचर या कहानियों का था?
मेरे लिए तो अपने बारे में कहना थोड़ा मुश्किल ही है कि कैसा था? मेरे माता-पिता से शायद आपको बात करनी चाहिए.. लेकिन घर में माहौल था। मेरे पिता (ललित बहल).. वो भी फिल्म में हैं। इसमें पिता का रोल कर रहे हैं। वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। उनकी फीचर डेब्यू है ‘तितली’। माहौल शुरू से था। पापा एक्टर हैं, प्रोड्यूसर हैं, डायरेक्टर हैं... उन्होंने दूरदर्शन के लिए काफी काम किया। जब सैटेलाइट चैनल्स नहीं आए थे उससे पहले। शॉर्ट फीचर्स करते थे वो। दिल्ली में काफी जाने-माने हैं अपने वर्क के लिए। मेरी मां एक्टिंग टीचर हैं। वे प्रोफेसर थीं पटियाला के डिपार्टमेंट ऑफ टेलीविजन एंड थियेटर में। खुद लिखती भी हैं। वे दोनों साथ में टीम की तरह ही काम करते थे। मेरी मां लिखा करती थीं जो मेरे पिता डायरेक्ट करते थे या उल्टा होता था मां डायरेक्ट करती थी और पिता लिखते थे। तो आप कह सकते हैं कि वातावरण तो था ही। मैं बच्चा था तो याद है कि मां के साथ जाया करता था ‘द टेन कमांडमेट्स’ (The Ten Commandments, 1956) जैसी फिल्में देखने। ‘बेन हर’ (Ben-Hur, 1959) देखने। दिल्ली में शकुंतलम (सिनेमाघर) था तो वीकेंड पर मुझे याद है हम लोग वहां चले जाया करते थे। कोई न कोई क्लासिक लगी होती थी। मेरी शुरुआती याद भी ‘बेन हर’ की ही है। कि इसमें इतनी बारीकी से ह्यूमन लाइफ को कैप्चर किया गया है। सोचता था कि ये क्या दुनिया है? तो वो सब माहौल था, लिट्रेचर भी था ही, पढ़ने पर एक ज़ोर था। मेरे शुरू के करीब 8-9 साल पटियाला में गुजरे, उसके बाद मैं दिल्ली आ गया। फिर मैं 20-22 की उम्र तक दिल्ली में ही रहा। उसके बाद कैलकटा गया सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट। वहां पढ़ा चार साल। और 2007 से मैं बॉम्बे में हूं। कुछ सात-आठ साल हो गए यहां।

लिट्रेचर कैसा था? कॉमिक्स या स्टोरी बुक्स या कुछ और?
मैं सब कुछ पढ़ता था। कॉमिक्स पढ़ता था। उसी से शुरू किया। बॉलीवुड एक गहरा प्रभाव था। फिल्में देखना शुरू किया। 17-18 साल तक मैं सब कुछ देखता था। विश्व साहित्य में भी क्लासिक्स से लेकर नाबोकोव (Vladimir Nabokov 1899-1977) तक जो भी लाइब्रेरी में मिलता था पढ़ लेता था। थोड़ा सा मुझे लगता है स्पलिट पर्सनैलिटी (दोहरा व्यक्तित्व) है, दोस्त भी थे, बाहर भी बहुत रहता था लेकिन कैसे न कैसे अपने आप में भी था और पढ़ने में भी बहुत टाइम निकाल लेता था। पता नहीं मैं दोनों चीजें कैसे करता था। एक्टिव भी था फिजिकली लेकिन साथ ही घर पर बिलकुल अकेला बैठ लगातार दो-तीन दिन तक पढ़ता भी रहता था। ये दोनों ही बातें मुझमें आ गईं कि एक समय में अंतर्मुखी हो जाता हूं और दूसरे ही पल बाहर जाकर लोगों से इंटरैक्ट कर सकता हूं जब भी जरूरत हो।

इतिहास में देखें तो सबसे अमर कहानियां या आर्टवर्क जन्मा है तो भीषण त्रासदी में या अमानवीय घटनाओं से। हिटलर का संदर्भ देखें तो कितने आर्टवर्क और फिल्में रची गईं। वियतनाम युद्ध के बाद हम वॉर पर कितनी कालजयी फिल्में देख पाते हैं। भविष्य में आप और क्रिएटिव रहें, सृजन करते रहें इसके लिए जीवन में कोई कष्ट है जो निश्चित है? जैसे कहते हैं लेखक अगर पीड़ा में नहीं है तो अच्छा नहीं लिख सकता कभी..। आप सोचते हैं कि कष्ट की सप्लाई बंद हो गई तो मिडियोक्रिटी आ जाएगी?
जी बिलकुल सोचा है। आपसे पूरी तरह सहमत हूं। ये तो एक निरंतर चिंता हर आर्टिस्ट की होती ही है। पर मुझे नहीं लगता वो इतना ज्यादा किसी दर्द से जुड़ा होता है। विचार से जुड़ा होता है। ऐसे अगर आप देखें तो ऐसी अतीव-पीड़ा (extra ordinary pain) मेरी लाइफ में कुछ भी नहीं है जो किसी और ने महसूस न की हो। कई लोगों ने मुझसे भी ज्यादा पेन फील किया है लेकिन उन्होंने शायद बाहर आकर इतना अभिव्यक्त नहीं किया होगा जितना मैं करने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे लगता है ये पेन से ज्यादा विचार से जुड़ा होता है। और सक्सेस आने से पेन कम भी हो जाए तो मुझे नहीं लगता है उससे फर्क पड़ता है। फर्क इससे पड़ता है कि आपकी सक्सेस आपके पास समय कितना छोड़ती है विचार के लिए। ..और अपने अंदर मंथन के लिए। और फिर भी उतने ही सवाल पूछते रहें आप। उतना वक्त आपके पास बचता है या नहीं बचता? मुझे लगता है फर्क इसी बात का होता है। ऐसे तो बहुत से लोगों ने सफलतापूर्वक मर्डर के बारे में भी लिखा है जिन्होंने खुद कभी मर्डर नहीं किया। ये प्रतिबिंबित करने के बारे में है। कि आप अपने आसपास की चीजों को कितना गहरे में समझ पाते हैं और उसे रिफ्लेक्ट कर पाते हैं। अंदर की पीड़ा की कितनी थाह ले पा रहे हैं। मेरे लिए हर फिल्म ह्यूमनिस्ट होनी जरूरी है। जैसे तितली में भी पांच किरदार हैं और फिल्म का नाम तितली है लेकिन वो सिर्फ तितली के बारे में नहीं लिखी गई है न? पांचों किरदारों के लिए लिखी गई है। पांचों के दर्द हैं, उन सबके लिए लिखी गई है। मेरा काम एक फिल्मकार के तौर पर ये नहीं है कि मैं अपना दर्द बढ़ाए रखूं या अपना दर्द बरकरार रखूं और सिर्फ उसके बारे में बात करूं। मैं वो कहानियां करना चाहूंगा जिनमें हम सबने जो अपने दर्द बनाए हुए हैं उनके बारे में बात की जाए। ये पूरी तरह प्रतिबिंबित करने से जुड़ा होता है। और वो रिफ्लेक्शन टाइम कैसे बचाऊं मैं अपने लिए, आगे जाते हुए, वो मेरी चिंता है। उसकी तरफ मैं ध्यान दे भी रहा हूं।

जीवन का वो पल कब था जब कहा कि सिर्फ फिल्में ही करनी हैं? आप इतना आश्वस्त क्यों थे कि इसी में पूरी जिदंगी बिता पाएंगे?
कठिन सवाल है। कोई एक पल नहीं था। शायद मैं बहुत भाग्यशाली था क्योंकि मैंने कहानियों को बहुत पास से देखा। 4-5 साल का था, जबसे होश संभाला था कहानियां बनते हुए देख रहा था, उनका पावर देख रहा था। मैंने और कुछ इतना करीब से देखा ही नहीं। लेकिन तब भी.. मैंने बड़े होते हुए अपने माता-पिता को इतना स्ट्रगल करते हुए देखा टेलीविजन में.. जितनी वो मेहनत करते थे जितना काम करते थे मेरे हिसाब से उन्हें इसका उतना फल नहीं मिला। इस वजह से काफी टाइम तक मैं ऑलमोस्ट उल्टे मूड में था। सोच चलती रही। फिर काफी समय बाद वर्ल्ड सिनेमा के संपर्क में आया तो लगा कि ये जगह, ये काम है मेरे लिए, कि ऐसी भी फिल्में होती हैं। मैंने कीज़्लोवस्की (Krzysztof Kieśslowski) की ‘ब्लू’ (Blue, 1993) देखी, या कुबरिक (Stanley Kubrick) की ‘शाइनिंग’ (The Shining, 1980) देखी या ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’ (2001: A Space Odyssey, 1968) देखी.. या फिर कुस्तरिका (Emir Kusturica) की ‘अंडरग्राउंड’ (Underground, 1995) देखी। इस एक्सपीरियंस से जब गुजर रहा था तो मैं हिल गया कि ये बहुत ज्यादा इंस्पायरिंग है.. अगर ये काम है तो मुझे एक कोशिश तो करनी है कुछ महत्वपूर्ण करने की। वो मेरे लिए प्रेरक वक्त रहा 21-22 साल की उमर में। तब पहली बार आत्मविश्वास के साथ मैंने बोला कि हां मुझे ये करना है। फिल्में करनी हैं और मुझे इस तरह की फिल्में करनी हैं।

फिल्ममेकिंग जैसी अस्थिर चीज को जो भी छात्र या आकांक्षी लोग अपने लिए चुनें और उसमें सफल न हो पाएं तो क्या करें? ये तो तय है कि हर कोई सफल न होगा। हर कोई ‘तितली’ या ‘मसान’ तो नहीं बना सकता।
मुझे लगता है आपको फिल्मों में नहीं आना चाहिए अगर ये लगता है कि आगे सफल न हुए तो क्या करेंगे। ये थोड़ा सा पागलों वाला काम है। चाहे जितना भी अव्यावहारिक लगे लेकिन कभी ये सोचें ही नहीं कि मेरा बैकअप प्लान क्या होगा। क्योंकि ये पेशा बैकअप प्लान के लिए नहीं बना है। और ये करियर है भी नहीं। मुझे नहीं लगता फिल्मों को आपको करियर की तरह देखना चाहिए। ये जीवन जीने का एक तरीका (way of life) है। आप कुछ कहानियां कहना चाहते हैं। और वो कहानियां आपके अंदर हैं। और आप उन कहानियों से जूझ के और कई बार अपने आप से लड़कर उन्हें बाहर लाते हैं। तो वो भी एक तरह का ध्यान (meditation) है न! एक तरह का .. थोड़ा घिसा-पिटा (corny) लगता है शब्द पर .. पूजा है! उसके बीच में अगर आप अपना ध्यान हटाएंगे ये सोचने में कि स्थिरता, करियर.. तो आपका मेडिटेशन थोड़ा सा खराब होगा। ये जूझने वाला मामला है। हो जाता है। मैं भी वित्तीय तौर पर कोई बहुत स्थिर या सुरक्षित आदमी नहीं हूं। पर इतना विश्वास तो जरूर होता है कि हम अगला दिन देख लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर आप ‘मसान’ या कुछ खास तरह की फिल्में बनाना चाहते हैं, कहानियां कहना चाहते हैं तो आपका सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है वो ये है कि मुझे ये कहानी कहनी है। वो कैसे हो, कब हो और उससे जुड़ी हुई कठिनाइयां जो हैं उनसे जूझा जा सकता है।

आपने सत्यजीत रे फिल्म संस्थान में जाने से पहले कैसा सिनेमा देखा था और बाद में कैसे सिनेमा से वास्ता हुआ? कैसा तर्जुबा था?
वहां जाने से दो साल पहले से मैं समान किस्म का सिनेमा ही देख रहा था। जाने से पहले मैंने कीज़्लोवस्की देखा था। कुस्तरिका देखा था। लेकिन फिल्म स्कूल में जाकर और भी बहुत देखा। समकालीन भी और क्लासिक सिनेमा भी। ऑरसन वेल्स (Orson Welles, 1915-1985) भी देखा, अब्बास कीरोस्तामी (Abbas Kiarostami, 1940 - ) देखा। समकालीन में ज़ाक ऑर्दियाद (Jacques Audiard) देखा, स्टीव मेक्वीन (Steve McQueen) देखा। स्टीव की ‘हंगर’ (Hunger, 2008) देखी, ‘शेम’ (2011) देखी। हर किस्म का सिनेमा देखा। कोरियन सिनेमा में आजकल क्या हो रहा है। पर मुझे लगता है मेरे लिए जो सबसे बड़ा प्रभाव था जो पूरी तरह अप्रत्याशित था वो था डॉक्युमेंट्री। मैंने डॉक्युमेंट्री के बारे में कभी सोचा नहीं था। इत्तेफाकन ये हुआ कि जिन सालों में मैं फिल्म स्कूल में था उन सालों में डॉक्युमेंट्री मूवमेंट कैलकटा में बहुत स्ट्रॉन्ग हो रहा था और वो इंस्टिट्यूट से ही शुरू हो रहा था। उससे मेरा इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ के प्रति एक्सपोजर बहुत बढ़ा। जिसने मेरी फिल्म को भी काफी प्रभावित किया है। बहुत मैं उसका शुक्रगुजार रहा क्योंकि हमारे यहां डॉक्युमेंट्रीज़ बहुत सीमित और अरुचि वाली हैं लेकिन इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ देखकर मुझे एक अलग तरह की आजादी उनमें मिली। जिसे कहते हैं न कि कहानी से छुटकारा मिला और कैरेक्टर से प्यार हुआ और मुझे ये समझ में आया कि फिक्शन फिल्मों में भी कैसे वो अप्लाई किया जा सकता है? कैसे वो फ्रीडम दिया जा सकता है जहां कहानी के स्ट्रक्चर से ऊपर उठकर आप खाली एक किरदार के साथ चल सकते हैं।

कुछ ऐसी विस्फोटक डॉक्युमेंट्रीज़ जो बहुत प्रासंगिक हैं?
बहुत सारी हैं। कोसोकोवस्की की बहुत इंट्रेस्टिंग हैं। एक रशियन फिल्ममेकर हैं विक्टर कोसोकोवस्की (Viktor Kossakovsky)। उनकी बहुत सारी फिल्में हैं। वो अपने आप में.. बहुत अलग हैं। हमारे यहां इंडिया में निष्ठा जैन की फिल्में हैं जिनकी हाल ही में ‘गुलाबी गैंग’ आई। इससे पहले उन्होंने बहुत अच्छी फिल्में बनाई हैं। एक बहुत कमाल लिथुएनियन फिल्ममेकर हैं ऑड्रियस स्टोनिस (Audrius Stonys )।

डॉक्युमेंट्रीज़ में षड्यंत्र सुझाने वाली या हिला देने वाली फिल्मों की काफी संख्या है और वे इस कदर होती हैं कि उन्हें मान लिया जाए तो जीना मुश्किल हो जाता है। ‘जाइटगाइस्ट’ (Zeitgeist, 2007-2011) है, ‘फूड इंक’ (Food, Inc. 2008) है, वॉलमार्ट (Wal-Mart: The High Cost of Low Price, 2005) के बारे में है, या जापान में डॉल्फिन किलिंग पर बनी ‘द कोव’ ( The Cove, 2009) जिसे ऑस्कर भी मिला। दुनिया में हो रही ये साजिशें (conspiracy theories) देख हम इतने दुखी हो जाते हैं कि लगता है अब कुछ भी नहीं करना चाहिए मुझे मर जाना चाहिए ये दुनिया इतनी खराब है।
हम सब लोग ही इन सब चीजों से तो जूझते ही हैं। पॉइंट ये है कि हम इन सब विचारों का मूल क्या निकालते हैं, इन्हें मजबूत कैसे करते हैं और मुझे लगता है कि जो भी फिल्ममेकर ऐसी कोई फिल्में बनाता है तो इस उद्देश्य से ही बनाता है कि इसे देखकर कोई दुखी हो जाए या असमंजस में पड़ जाए या निराश हो जाए। बाकी हर इंसान जो भी काम कर रहा है और जो भी क्षेत्र उसने चुना है, उसके इर्द-गिर्द कोई मुद्दा फिल्म ने उठाया है तो उस पर जो एक्शन ले सकता है उसे लेना चाहिए। उधर ही आगे जाया जा सकता है। अन्यथा तो जीवन का कोई मतलब ही नहीं है। मेरा इससे डील करने का तरीका यही है कि किसी ऐसी सूचना से या किसी ऐसे इमोशन से एक्सपोज़ होता हूं जो मुझे बहुत डिस्टर्ब करता है या जिससे मैं बहुत ज्यादा प्रभावित होता हूं .. तो मैं वापस उसकी ओर जाता हूं, विचार मंथन करता हूं और उससे कुछ अच्छी चीज या अपना कुछ आउटपुट लेने की कोशिश करता हूं। मैं जितना योगदान दे सकता हूं उस मुद्दे को उठाने में या सॉल्यूशन की ओर जा सकता हूं उतना योगदान में अपने क्षेत्र में कर रहा हूं। वही एक विचार है जो हर वर्क ऑफ आर्ट करना चाहता है। आदर्श रूप से तो वही सबको करना चाहिए।

नम्रता राव एडिटिंग टेबल पर और सिद्धार्थ दीवान विजुअली कौन सी ऐसी चीजें या विचार लाए जो सिर्फ उन्हीं का योगदान था ‘तितली’ में?
ये इतना करीबी और साथ का काम होता है कि मेरे लिए बोलना मुश्किल है... । सिद्धार्थ की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वो कैमरा को छुपा देते हैं। हमने जब सोचा कि हमें इस फिल्म का मिजाज डॉक्युमेंट्री की तरह रखना है। ऐसा देखते हुए आपको लगना ही नहीं चाहिए कि फिक्शन फिल्म देख रहे हो, ऐसा लगे कि एक्सीडेंटली ये लोग रील पर कैप्चर हो गए। कैमरा दिखता नहीं है। ऐसा लगता है कि ये लोगों का जीवन है और पता नहीं हम कैसे इसे देख पा रहे हैं।

 एक हम लोगों का सबसे बड़ा डर इमेज को लेके, फिल्म के विजुअल लुक को लेके ये था कि जब एक खास तबके के लोगों की कहानियां कही जाती हैं तो ये बहुत शोषण भरा (exploitative) हो जाता है कभी कभी। ऐसा लगता है कि फिल्म गंदगी या धूल के बारे में ज्यादा है और लोगों के बारे में कम है जबकि हमारा शुरू से ही ये अटेम्प्ट था कि ये फिल्म इन लोगों के बारे में है और ये लोग इस स्पेस में रहते हैं। तो इस स्पेस को सबसे ज्यादा समग्रता (totality) से कैसे रेप्रेजेंट किया जाए? स्पेस का दुरुपयोग कैसे न किया जाए? मुझे लगता है ये सिद्धार्थ और प्रोडक्शन डिजाइनर पारुल दोनों का योगदान कि इस स्पेस को उसकी गरिमा दी, सही कोनों (areas) की ओर देखा, लोगों की ओर देखा, उनके भावों की ओर देखा, ये देखा कि कैसे उनकी बेचैनी (desperation), कैसे उनके हालात भी आएं लेकिन कैसे वो शोषण भरा (exploitative) न हों? फिल्म का विजुअल टेक्सचर जो कि उभर के आता है उसमें उनका योगदान है। हालांकि हमारी अपनी फिल्म है तो अपनी ही तारीफ लगती है लेकिन मुझे लगता है ये उन सबसे कम फिल्मों में से है जो अपने स्पेस की गरिमा को जिंदा रखती है और इसमें इसे नीचा करके देखने वाली दृष्टि नहीं है जो हमारी सबसे बड़ी चिंता थी।

Shashank, Amit, Lalit Behl, Shivani Raghuvanshi and Ranvir in a scene.

 सिद्धार्थ और पारुल ने फिल्म के जैसे रंग चुने.. हम लोगों को शुरुआती विचार था कि थोड़ा ब्लू (नीले) और यैलो (पीले) में जाएंगे .. फिर जब रेकी पर गए.. असल इलाकों में गए तो हमने देखा कि ज्यादा पिंक (गुलाबी) और ग्रीन (हरा) यूज़ होता है। और क्या होता है कि लोगों के पास कभी-कभी पैसे नहीं होते हैं तो वो एक ही कमरा पेंट करवा लेते हैं। बहुत सारे घर हमने देखे जिसमें मिसमैच कलर थे। एक कलर पिछले पंछे (coat) का रह गया था या नए का रह गया था। और न जाने क्यों चमक (brightness) देने के लिए लोगों का आइडिया पिंक का है... तो पिंक और ग्रीन को यूज करने का विचार था और दूसरा हम उत्पीड़न/दमन (opression) की बात कर रहे थे तो तमाम रेकी के बाद हम तीनों ने सोचा कि पिंक और ग्रीन ज्यादा रियल और अभी के रंग रहेंगे .. ये रंग ही वो लोग हैं.. न कि एक झूठा प्रतिनिधित्व है जो हमेशा ब्लू और यैलो का रहता है कि जो थोड़ा सा वॉर्म कर देता है और फ्रेम को थोड़ा सा उठा देता है। उसके बजाय पिंक और ग्रीन लिए गए, वही थीम हमने रखी। हमारा फिल्म में एक डिवाइड भी ये बना कि घर का स्पेस, कॉलोनी का स्पेस और शहर का स्पेस। .. जब ये (पात्र) बाहर जाते हैं तो मॉल्स और सिटी ज्यादा सिल्वर और ब्लू बन जाते हैं। असल में हमने सिटी को ज्यादा ब्लू और सिल्वर किया, घर को और इनकी गली और इनके स्पेसेज को पिंक और ग्रीन में देखा। तो ऐसे ही एलिमेंट्स और रंगों का इस्तेमाल .. कि इतने मौन (mutedly) ढंग से क्यों हम इनकी कहानी के इमोशन कह रहे हैं। जो इनकी बेचैनी है और जो कहेंगे हालात - बेहतर शब्द की गैर-मौजूदगी में - हैं, सिर्फ रंग से उनका प्रतिनिधित्व कैसे करना है, वो भी आपके सिर में बहुत अवचेतन वाले तरीके (in a subconscious way) से। हमने एक पक्ष लिया कि इस फिल्म में चीजों को हम यूं ही चमका कर या ठूंसकर नहीं दिखा देंगे, ये फिल्म वैसी ही होगी जैसा है। बहुत मौकों पर लगता है कि फिल्में फिल्ममेकर्स को रेप्रेजेंट करती हैं लेकिन एक्चुअली मैं ये मान रहा हूं ... मेरा सबसे फेवरेट फिल्ममेकर है क्यूबरिक (Stanley Kubrick).. क्योंकि कोई क्यूबरिक नहीं है सिर्फ उसकी फिल्में हैं। वो हर एक फिल्म, एक हस्ती है, उसके बीच में क्यूबरिक नहीं आते हैं। वो नहीं बोलते कि मेरी फिल्म है। एक फिल्म जो है वैसे ही प्रस्तुत कर दी जाए, ये भी एक बड़ा टैलेंट है कि हम लोग इसके अंदर न आ जाएं। हम एक-दूसरे की आंखों में झांककर कह सकें कि ये फिल्म इस फिल्म के बारे में ही है और ये जो स्पेस है वो स्पेस रेप्रजेंट होनी चाहिए। तो पारुल और सिद्धार्थ के ये बड़े योगदान थे।

 नम्रता की बात करूं तो लोगों को लेकर उनकी अंतर्दृष्टि और वे कैसे उनकी ओर देखती हैं ये खास है। हम दोनों ने एडिट (editing) पर शुरू से ही तय किया था कि ये फिल्म प्रतिक्रियावादी (reactive) नहीं होगी। ये डायलॉग के बारे में नहीं है। ये इस बारे में है कि जब लोग दूसरे लोगों की ओर देखते हैं, और उन्हें लगता है हम देखे नहीं जा रहे। हम कैसे चोरी छुपे एक-दूसरे को देखते हैं, कैसे एक-दूसरे को ऑब्जर्व करते हैं.. तो एडिट पैटर्न पूरा उस पर निकला। नम्रता की जो बहुत ही महीन समझ है लोगों की, रिश्तों की.. वो इसमें स्थानांतरित हुई कि लोग जब दूसरे लोगों को देखते हैं .. बात करते हुए .. तो वो फिल्म कैसे बदलती है। बहुत सारा एडिट फिल्म के इस नजरिए के साथ है, जो उनके और मेरे दोनों के लिए बहुत रोचक था। क्योंकि उन्होंने भी देखने का एक नया नजरिया विकसित किया।

एक एडिटर फिल्म को कितना तब्दील करता है? आपने अगर स्क्रिप्ट पर डेढ़ साल बिताया है और एक-एक अक्षर बहुत सोच-विचार-शोध के बाद लिखा है कि यहां ये दृश्य ऐसे ही होगा। क्या एडिटर उसे बिलकुल बदल देता है? दृश्यों का क्रम या संरचना बदलता है?
नहीं, ये बहुत बड़ा क्लीशे है। एडिटिंग एक अन्य प्रोसेस है जहां फिल्म दोबारा लिखी जाती है। खासकर तितली जैसी फिल्म जो शूट ही डॉक्युमेंट्री स्टाइल में की गई है और डॉक्युमेंट्री में शुरू से होता है कि फिल्म बना रहे हैं और धीरे-धीरे कैरेक्टर को जान रहे हैं और कैरेक्टर का जैसे-जैसे पता चलता है तो कुछ नई ही फिल्म निकल आती है। हमारे सीमित संसाधनों में ऐसा बहुत हुआ। छोटी सी फिल्म है हमारी, बहुत ज्यादा हम शूट नहीं कर पाए लेकिन उसके बीच में भी बहुत सारी चीजें हमने करी थीं तो नम्रता ने तकरीबन री-कंस्ट्रक्ट ही की फिल्म.. हां ये जरूर था कि नम्रता जब तक आईं तो 8-9 महीने का एडिट हो चुका था। वो फिल्म पर तीसरी एडिटर थीं। मैं इससे पहले दो अन्य एडिटर्स पर काम कर रहा था। चीजें जिस दिशा में जा रही थीं उनसे अंतत: मैं खुश नहीं था। लेकिन जब तक वे आईं बहुत कुछ हो चुका था। लेकिन अगर ओवरऑल प्रोसेस की बात करें तो उस 8-9 महीने के फेज़ में बहुत सी री-राइटिंग हुई थी। हमने बहुत लंबे-लंबे हिस्से शूट किए जो फिल्म में है ही नहीं। ये जानते हुए कि ये फिल्म के लिए जरूरी नहीं हैं। री-राइट और एडिट के प्रोसेस के बाद लगा कि ये जरूरी नहीं हैं। ये इस प्रोसेस का बहुत ऑर्गेनिक हिस्सा है। ये पहले भी हो रहा था और नम्रता के आने के बाद बहुत ज्यादा हुआ। वो आईं तब हमारा 2 घंटे 40 मिनट का कट था, बाद में वो 2 घंटे और 4 मिनट का रह गया। तो ये करीब 30 पर्सेंट कम हो गया था।

दिबाकर के साथ आपने 8 साल बिताए हैं। उन्होंने आपसे कुछ सीखा होगा। आपने उन्हें ऑब्जर्व करते हुए पूरी जिंदगी के लिए क्या सीख ली है?
अनुशासन। ठहराव। दिबाकर के साथ काम करते हुए सबसे बड़ी बात जो मैंने सीखी है वो ये कि सारा काम शांति से हो सकता है और शांति से काम कम से कम दस गुना बेहतर होता है। मैं खुद बहुत गर्म दिमाग था जब मैं फिल्म स्कूल से निकला था। मेरा अनुभव बहुत सीमित था। और मैं वैसे काम करता था जैसा मैंने अपने पेरेंट्स को करते हुए देखा। लेकिन जब मैंने ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के वक्त दिबाकर को जॉइन किया और शांत माहौल देखा तो सोचा, यार ये तो बहुत शांति से काम हो रहा है और कई गुना ज्यादा अच्छा काम हो रहा है। बहुत ही गहन स्तर का अनुशासन, कठोर परिश्रम.. वो हर पहलू पर काम करते रहते हैं .. चाहे स्क्रिप्ट हो, एडिट हो, चाहे उनका शूट करने का तरीका हो.. वो अंतिम छोर तक, सिरे तक चीजों को लेकर जाते हैं, जब तक आपको पूरा विश्वास न हो जाए और उससे ऊपर भी 50 परसेंट पक्का करना और उस पक्के पर भी आपको विश्वास न हो जाए कि इससे ज्यादा अब मेरे पास कुछ बचा नहीं है। ज्यादातर फिल्मकार थोड़े आलसी होते हैं और एक बिंदु के बाद उन्हें कुछ अच्छा मिल जाता है तो उसके आगे नहीं जाते लेकिन ये जो दृढ़ता (rigor) है दिबाकर की.. अच्छे से भी आगे जाना और चलते रहना जब तक यकीन न हो जाए कि अब इससे बेटर अगले पांच साल तक मैं कुछ नहीं कर सकता.. वो मुझे लगता है बहुत महत्वपूर्ण पाठ है जो मैंने सीखा है।

आज आपकी सर्वकालिक पसंदीदा फिल्में कौन सी हैं? जिन्हें बार-बार देखते हैं।
बहुत सारी हैं। कुस्तरिका की ‘अंडरग्राउंड’। कुबरिक की - वैसे तो आप उनकी कोई भी फिल्म उठा लें - ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’। कीरोस्तामी की ‘विंड विल कैरी अस’ (The Wind Will Carry Us, 1999)। ज़ाक ऑर्दियाद की ‘अ प्रोफेट’ (2009)। स्टीव मैक्वीन की ‘हंगर’। डारर्डीन ब्रदर्स (Jean-Pierre & Luc Dardenne) की ‘रॉजे़टा’ (Rosetta 1999)। सब अलग-अलग फिल्में हैं और वर्ल्ड सिनेमा का इतना विस्तृत नजरिया देती हैं कि आप ...। बहुत फिल्में हैं पर मेरे जेहन में एकाएक ये ही आ रही हैं।

टैरेंस मलिक (Terrence Malick) की?
मुझे उनका काम पसंद है पर उनका मैथड.. अपनी फिल्मों को बनाने में वे खुद को जिस प्रोसेस में झोंकते हैं वो बहुत-बहुत मुश्किल होता है। हाल के दिनों में वो कुछ निराशाजनक रहे हैं मेरे लिए लेकिन उनका हर प्रोजेक्ट सांसें थाम देने वाला रहा है। उनके प्रयास का जो दायरा होता है वो एक्सीलेंट है। ‘द ट्री ऑफ लाइफ’ (The Tree of Life, 2011) मुझे काफी अच्छी लगी थी। लेकिन क्रिश्चन बेल वाली उनकी पिछली फिल्म (Knight of Cups, 2015) के साथ ऐसा नहीं था। लेकिन निश्चित तौर पर सिनेमा के मास्टर्स में से एक हैं।

और वर्नर हरजॉग (Werner Herzog)?
वे तो दादाजी हैं। फिल्मों के ग्रांडफादर हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझे उनके बारे में बोलना भी चाहिए। वे अमेजिंग हैं। उनकी सारी डॉक्युमेंट्रीज़, उनका सारा फिक्शन वर्क इस दुनिया से परे है।

बीते एक-दो साल में अच्छी लगी भारतीय या विदेशी फिल्म?
मुझे अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ बहुत अच्छी लगी।

चारों ओर विलाप की स्थिति है, क्या चीज है जो आपको उम्मीद देती है? क्रिएटिव लोगों के पास उम्मीद कहां से आती है जब नेगेटिव चीजों से घिरे हैं?
बहुत इंट्रेस्टिंग सवाल है। इससे हम सभी जूझ रहे हैं। मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, कहीं से भी आ रहा हो वो अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है। उसके अंदर मंथन चलता है, एक गुस्सा होता है, इस गुस्से के कई नाम हो सकते हैं। उसके अंदर एक चाह रहती है कि चीजें जैसी हैं उससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं? कोई भी क्रिएटिव आदमी, आर्टिस्ट कहीं भी काम कर रहा हो वो इसी जरूरत से संचालित होता है कि वो इस बारे में बोलना चाहता है कि ये चीज ऐसी क्यों है और इससे बेहतर होनी चाहिए। वो होप यहीं से आती है कि शायद जिस भी बारे में वो सोच रहा है, जो भी उसे विचलित कर रहा है उसके बारे में बात करने के बाद वो चीज बेहतर हो सकती है। मुझे लगता है इसीलिए कहा जाता है कि क्रिएटिव लोग सबसे विचलित करने वाले टाइम में रहते हैं क्योंकि ये उन्हें ज्यादा ईंधन देता है, ज्यादातर फूड फॉर थॉट देता है ताकि निराशा (hopelessness) के बारे में बात कर सकें। ये आर्टिस्टों के लिए अच्छा है, जितना ज्यादा निराशा होगी उतना ज्यादा उनके काम की क्वालिटी प्रतिबिंबित होगी।

रचनात्मक गतिरोध की अवस्था में उम्मीद कहां से लेंगे? आगे जब आइडियाज़ नहीं सोच पाएंगे या फिल्में कई स्तरों पर फंसने लगेंगी या वित्तीय दुश्वारियां होंगी।
मैं सिंपल सा आदमी हूं। सबकी तरह कनफ्यूज हूं। सबकी तरह परेशान हूं। लेकिन हिम्मत है.. जज्बा है। कोशिश है कि झूठ न बोला जाए। जो कहानी है, जिस पर काम कर रहे हैं, उसे जितनी सच्चाई से बोला जा सके वो बोला जाए.. और उसमें वक्त लगता है। बात ये नहीं है कि फिल्म बन नहीं रही है.. मैं बस अपना समय ले रहा हूं जो भी मैं कर रहा हूं। जो अगली भी फिल्म है। क्योंकि मुझे पता है ये एक बहुत जटिल कहानी है। एक फिल्मकार के तौर पर एक कदम आगे ले जाएगी। प्रोसेस जारी है। मैं अपनी अगली फिल्म लिख रहा हूं। लड़खड़ाहट तो चलती रहती है और उसे तो मान लेना चाहिए हर फिल्मकार को। उसे तो हिस्सा बना लेना चाहिए अपनी जिंदगी का। कनफ्यूजन को, ठोकरों (stumbling) को। सुबह उठकर बोलना चाहिए कि अरे आज मैं कनफ्यूज्ड हूं, आओ आओ.. और आप उस कनफ्यूज़न को गले लगा लें। उसकी ओर मुस्कराएं और कहें, हम फिर से दोस्त हैं इस पूरे दिन के लिए। क्योंकि वहीं से ऊर्जा (kick) आती है। अगर वो नहीं होगा और सुबह उठकर आपको पता होगा कि आप हूबहू क्या लिखने वाले हैं, कौन सी फिल्म बनने वाली है तो उसका मतलब है कि कुछ गलत है। या कुछ गलत जाने लगा है।

फलसफा..?
मेरा मोटो नहीं है पर ये कुछ ऐसा है जो मैं हाल ही में ढूंढ़ रहा हूं और मेरी लाइन होगी कि ‘बस एक और दिन’ (just another day)। हम हर दिन को बहुत ज्यादा महत्व देने की कोशिश करते हैं अपनी लाइफ में। लेकिन अगर वो प्रेशर हम अपने ऊपर से निकाल दें और हर दिन को उस दिन के लिए जिएं, तो हमें अपने आप को और जीवन को जानने में थोड़ी आसानी हो जाती है। मैं अकसर जागता हूं तो खुद से कहता हैं .. बस एक और दिन।

‘तितली’ या ऐसी अन्य जागरूक फिल्में हैं, ये सिर्फ उन्हीं के समझ में आती हैं जो पहले से जागरूक हैं। जैसे ये केन फिल्म फेस्ट में गई तो फ्रेंच समाज इतना विकसित है कि वो बहुत तारीफ करेगा जब भी ऐसे प्रयास देखेगा। लेकिन जो लोग खुद आक्रांता हैं या अत्याचार करते हैं, लोगों का दमन करते हैं वो कभी न ये फिल्म समझने वाले हैं, न मानने वाले हैं?
ऐसा बिलकुल नहीं है। देखिए, ‘तितली’ फेस्टिवल के लिए बिलकुल नहीं बनी थी। मैंने कभी ये सोच के नहीं बनाई थी कि मेरे को ये फिल्म केन लेकर जानी है, ये जो भी हुआ है वो फिल्म जैसी बनी है उसकी वजह से हुआ है।

..मान लें कि मैं संदर्भ के साथ ये समझ चुका हैं कि एक औरत और एक आदमी में समानता होनी चाहिए। और मेरे कुछ दोस्त हैं जो बिलकुल विपरीत हैं, वो ये सब करते हैं घर में और कभी पश्चाताप नहीं करते। तो उस आदमी को तो ‘तितली’ पहले समझ में आनी चाहिए तभी समाज बेहतर होगा लेकिन वो कभी समझेगा ही नहीं और स्वीकार नहीं करेगा।
आपको क्या लगता है क्यों नहीं समझते हैं? आप बोल रहे हैं कि फिल्म कमसमझ आने वाली (obtuse) होती है। बाकी सब की बात तो नहीं कर सकता लेकिन मुझे लगता है कि ‘तितली’ ऐसी (obtuse) नहीं है। वो हाड़ मांस के लोगों के बारे में है। ऐसे लोगों के बारे में है जिनको आप जानते हैं। जिनसे आप रिलेट कर सकते हैं। वो सारे कैरेक्टर भी इसलिए पास हैं आपके जीवन के.. आप ये नहीं बोल पाएंगे ‘तितली’ देख के कि यार समझ में नहीं आ रही। आप ये शायद कह सकते हैं कि यार ये लोग बहुत देखे हुए हैं और मैं अब नहीं देखना चाहता। ये इतने करीब हैं मेरे कि मैं देख कर असहज हो रहा हूं कि मैं नहीं देख पाऊंगा ये फिल्म। ये जरूर बोल सकते हैं आप। लेकिन समझने में कठिन है ये कोई नहीं बोलेगा। मेरा अपना स्टैंड ये है एक फिल्मकार के तौर पर कि मैं फेस्टिवल्स के लिए फिल्म नहीं बना रहा, मैं एक फिल्म बना रहा हूं जो लोगों तक जुड़नी चाहिए। जो मेरे से जुड़ी हुई है कहानी और हाड़-मांस के लोगों के बारे में है, ये शायद मेरी सारी फिल्मों के बारे में सच रहेगा। मैं आपको ये कहना चाहता हूं कि ये केन जाना और बुद्धिजीवी और ये.. 

..नहीं, ये केंद्र नहीं है। मसलन, मेरी बड़ी बहन जो मुश्किल से पूरे जीवन में तीन-चार बार थियेटर भेजी गई हैं, उन्हें मैंने कहा कि ‘पीकू’ देख सकती हैं, अच्छी फिल्म है। बहन गृहिणी हैं। कॉलेज की पढ़ाई भी घर रहकर की। पितृसत्ता वाला समाज रहा। उन्होंने कहा कि इसमें (टॉयलेट कॉमेडी, घर की बातें) जो है वो हम रोज देखते हैं, कुछ मूड फ्रेश करने या खुश करने वाली फिल्म होती तो ठीक रहता। तो सवाल का केंद्र ये है कि उन्हें ही सशक्त करने वाली चीज है जो उन्हें ही नहीं सुहाती। ये चिंता नहीं? आपने अपना प्रयास दिया तितली’ बनाकर, पर जिन्हें समझना चाहिए वो न समझें तो?
मेरा ये सोचना है कि मैं अकेला ये बीड़ा नहीं उठा सकता कि मुझे समाज बदलना है या बड़ा बदलाव लाऊं। मैं एक इंसान हूं एक बहुत बड़े ढांचे में। जो मुझे अपनी सच्चाई से करना है वो मैं कर रहा हूं। इसके बाद मुझे लगता है बीड़ा दर्शकों के हाथ में खुद है, वो उन्हें खुद ही उठाना पड़ेगा। वो कोई चम्मच से उनके मुंह में डालकर बदल भी नहीं सकता। चीजें नहीं बदल सकती जब तक वे खुद पैरों पर खड़े होकर बोलें कि हां हमें कुछ आगे का (evolved) देखना है। जीवन की कुछ विकसित समझ लेनी है। और ईमानदारी से कहूं तो मैं इस चीज से खुद को परेशान भी नहीं करता। मेरा काम है, जो मैं कर रहा हूं वो करना पूरी सच्चाई से। इसके बाद मैं इस विश्वास के साथ फिल्में बनाता हूं कि अगर मैं ये कहानी सिंपल तरीके से कह रहा हूं, सिंपल डायलॉग के साथ, सिंपल किरदार हैं, तो लोग उसे देखेंगे और कंज्यूम करेंगे। और घर जाकर साथ वाले को बोलेंगे यार प्लीज ये देखकर आओ, ये समझ में आ रही है। ऑडियंस का बीड़ा भी उतना ही है जो उन्हें कभी न कभी तो उठाना ही होगा। ये सारी चीजें बहुत बड़े मुद्दों से जुड़ी नहीं हैं, ये सारी चीजें एजुकेशन से जुड़ी हैं, सिस्टम से जुड़ी हैं। ये सब बदलने के लिए एक बड़े स्तर पर बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है। सब मिलकर छोटा-छोटा अपना किरदार निभाकर पूरा कर सकते हैं। वो हम सबको साथ में ही करना है।

जब आप 3 साल की सीरियाई बच्चे ऐलान कुर्दी का समंदर किनारे पड़ा शव या ऐसी कोई भी मानवीय कहानी/छवि देखते हैं तो आपके भीतर क्या प्रक्रिया घटनी शुरू होती है?
मैं भी सबसे पहले एक इंसान के तौर पर ही प्रतिक्रिया देता हूं। क्योंकि मैं फिल्ममेकर बाद में हूं। और मेरे लिए वो कनेक्शन बनाए रखना जरूरी है। कुछ अलग नहीं चलता है। मुझे लगता है ये लंबा प्रोसेस होता है, आप रोज का अपना ह्यूमन एक्सपीरियंस निचोड़ते जाते हैं और उसे एक ह्यूमन की तरह ही कंज्यूम करते हैं। जब भी आप किसी कहानी को लिखना शुरू करते हैं तो उसमें इस निचोड़ के कुछ-कुछ कुछ-कुछ हिस्से बाहर आ जाते हैं। तो मेरे लिए वो इतना कॉन्शियस प्रोसेस नहीं है। और मैं उसे कॉन्शियस रखता भी नहीं हूं। क्योंकि मैं अपने अवचेतन (sub-conscious) को प्रोसेस करने देता हूं जो भी होता है। अगले डेढ़-दो साल तक उसके संदर्भ में जो मेरे अनुुभव बाहर आते हैं पहले ही प्रोसेस किए हुए वो कहानी में जुड़ते जाते हैं। क्योंकि प्रयास यही रहता है कि कहानी को जितना आज की दुनिया से जुड़ा बना सकते हैं उतना बनाएं। कॉन्शियसली अगर आप हर चीज को उस तरह से देखने लग जाएं तो बहुत ही उपभोक्तावादी रवैया (consumerist attitude) बन जाता है। फिर तो आप हर चीज को निचोड़कर स्टोरी बनाना चाह रहे हो। जो कि जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है कि जीवन जिओ और अनुभव करो जो भी अनुभव कर सकते हो। फिर अपनी कहानी आने दो।

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे (FTII) के अध्यक्ष के तौर पर गजेंद्र चौहान (टीवी-सीरीज ‘महाभारत’ के युधिष्ठिर बने थे) की नियुक्ति गलत हैं, इसका छात्र विरोध कर रहे हैं। एक छात्रा-छात्र में एक्टिविस्ट को कहां तक चलकर रुक जाना चाहिए और एक फिल्मकार को सक्रिय हो जाना चाहिए?
देखिए एक्टिविज़्म की तो बात ही नहीं है। सबसे पहले इस पर एक्टिविज़्म का लेबल लगाना बहुत ही ज्यादा गलत है। मुझे लगता है ये एक बहुत ही ज्यादा बेवकूफाना हरकत है जिसने भी गजेंद्र चौहान को नियुक्त किया है। वो बिलकुल भी योग्य नहीं हैं। मैं खुद फिल्म स्कूल से हूं और बिल्कुल समझता हूं जो ये स्टूडेंट मुद्दा उठा रहे हैं। सबसे पहले तो हमें ये समझना चाहिए कि ये स्कूली बच्चे नहीं हैं। 15-16 साल के नहीं हैं। ये सब एडल्ट हैं। 25-26 साल के लोग हैं। जो अपनी शिक्षा खत्म करके एक ऐसी जगह आए हैं जहां उन्हें आजादी से मन की विधा पढ़नी है। ऐसा नहीं है कि स्टूडेंट्स प्रिंसिपल बदलने को बोल रहे हैं। वे ऐसा व्यक्ति चाहते हैं जो उनको आगे लेकर जा सके। ये उनका अधिकार है। ये सब बहुत ही वयस्क नजरिए से आपसे बात कर रहे हैं कि आप किस तरह के फिगरहैड को नियुक्त कर रहे हैं। एशिया का प्रीमियर फिल्म स्कूल है वो, एशिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म स्कूल है जिसे देश-विदेश के संस्थानों के समर्थन वाले ख़त आ रहे हैं कि आप ये क्या कर रहे हैं? ये दुखदायी स्थिति है कि 100 दिन से वो लोग लगे हुए हैं और उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। अगर आप जागरूक लोगों को बोलेंगे कि वो एक्टिविस्ट हैं तो फिर दुनिया का क्या होगा? वो स्टूडेंट तो बस अपने आप-पास होने वाली परिस्थिति से वाकिफ हैं। और पर्याप्त रूप से रूचि रखते हैं दुनिया से संबंध विकसित करने की। जो उन्हें वहां पर सिखाया जाता है। वही तो उस मंदिर की सबसे बड़ी सीख है। वहां सबसे पहले यही सिखाया जाता है कि आपको अपने आंखों-कानों के दरवाजे बंद नहीं करने हैं, उनको खुला रखना है और जो अपने आप-पास का जीवन है उसे निचोड़कर अपने दिल में लेकर आना है। जो उनके मंदिर में हो रहा है उसके बारे में ही बात नहीं करेंगे और इस बात करने को आप एक्टिविज़्म बोलने लग जाएंगे तो ये कितना न्यायपूर्ण है!

ये तर्क दिया गया है गजेंद्र जी के खिलाफ कि उन्होंने ‘खुली खिड़की’ और अन्य सी-ग्रेड फिल्में की हैं। क्या ये स्टूडेंट्स का एलिटिस्ट होना नहीं हो गया? क्या संदर्भ गलत लिया गया है कि सिर्फ वे ही ज्ञानवान हैं?
मैं बिलकुल सहमत नहीं हूं। अगर आपने देखा हो तो और भी लोग जिनकी बात हो रही है उस ओहदे के लिए.. जैसे मान लीजिए अनुपम खेर हैं, उन्होंने भी हर तरह का काम किया है। उन्होंने बहुत सारी अच्छी फिल्में की हैं लेकिन वो खुद सबसे पहले मानेंगे कि उन्होंने खराब फिल्में भी की हैं। ये आपकी खराब फिल्मों के बारे में नहीं हैं, ये आपकी योग्यता के बारे में हैं। जिस इंसान से टेलीविजन इंटरव्यू पर पूछा जाता है कि आपकी फेवरेट इंटरनेशनल फिल्म क्या है? और वो खुलेआम कहता है कि ‘मैं जवाब देने से मना करता हूं’ (I refuse to comment), तो वो खुद ही बोल रहा है कि मैं इस पद को योग्य नहीं हूं। एफटीआईआई के चेयरमैन से आप क्या उम्मीद करते हैं? - कल को अगर वो बात कर रहे हैं किसी एक्सचेंज प्रोग्राम में या कहीं जाकर हमारे स्टूडेंट्स के बारे में बोल कर रहे हैं तो वो वार्ता, सुनने लायक, जागरूक और तथ्यपरक तो होनी चाहिए न? उनका तो अनुभव और शब्दावली ही बॉलीवुड तक सीमित है, बात ये हो रही है। ये फिल्में (सी-ग्रेड) करने के बावजूद अगर उनका ज्ञान होता, अनुभव विस्तृत होता तो मुझे नहीं लगता किसी को भी समस्या होती क्योंकि वो उनकी बातों और व्यक्तित्व में साफ झलकता। और सिर्फ गजेंद्र चौहान की भी बात नहीं है। उनकी नियुक्ति के अलावा जो समिति भी गठित हुई है, उसमें आठ में से चार लोग भी पर्याप्त योग्यता नहीं रखते.. कि वो संस्थान में शैक्षणिक फैसले ले सकें स्टूडेंट्स के प्रतिनिधि के तौर पर जिससे क्रिएटिव माहौल बन सके संस्थान में। ये राजनीतिक होना, एलिटिस्ट होना या एक्टिविस्ट होना नहीं है। ये सिर्फ करिकुलर के उच्च शैक्षणिक पैमानों के बारे में है और रचनात्मकता के बारे में है जो हमारी फिल्म स्कूल में है। सिर्फ वही मसला है।

नई सरकार आने के बाद सेंसर बोर्ड की नीतियां भी बदल गई हैं। मानें कि अगर दो कार्यकाल तक ये सरकार रहती है तो आप कैसे सामना करेंगे? कुछ महीने पहले दिल्ली में फिल्मकारों के एक समूह ने सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ से मुलाकात की थी। उस दौरान उन्हें मुंबई आने और इंडस्ट्री से मेल-जोल बढ़ाने का निमंत्रण दिया तो वे कथित तौर पर बोले, ‘तो आप चाहते हैं मैं आऊं और तुम सबके लिए आइटम नंबर करूं।’ आप इसे कैसे देखते हैं? ये क्या सोच है? फिल्मों की आर्ट फॉर्म का सम्मान न देना।
ये कोई नई समस्या नहीं है। पहले भी थी, आज भी है। 70 के दशक में जब श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल और बहुत सारे अन्य फिल्मकार काम कर रहे थे तब भी ये ही मुद्दे थे, तब भी सरकारें यही करती थीं, ये कोई नई बात नहीं है। ये हमेशा से होता आया है। मैं अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूं। मुझे जो कहना है मैं वो कह सकता हू्ं। उसके बाद जो भी हालात हैं वो बदलते रहते हैं। अभी कुछ हैं कल को कुछ और भी हो सकते हैं। अंतत: बात तो यही है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं, अभी जो सरकार है वो भी लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई है और मान लीजिए ये लोगों के पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो कल को एक और सरकार आ जाएगी। हमें कहीं न कहीं लोकतंत्र में विश्वास तो रखना ही पड़ेगा। और अपने आप में फेथ रखना पड़ेगा। उसके साथ हम अपने मुद्दे उठाकर आगे चलते रहेंगे। ये चीजें एक्चुअली एड करती हैं, ये हमें निराश नहीं करें। बोलें तो अच्छी हैं।

जीवन में कैसे विषय आकर्षित करते हैं जिन पर आगे फिल्में बनाना चाहेंगे?
हर तरह की चीज फेसिनेट करती है। मेरी आजमाइश ये है कि मैं हर तरह की बातों पर बात कर पाऊं। मुझे साइंस-फिक्शन भी उतनी ही रोचक लगती है जितना एक ड्रामा लगता है। जितना थ्रिलर इंट्रेस्ट करता है, जितना एक पोलिटिकल फिल्म इंट्रेस्ट करेगी। मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा। निर्भर करेगा कि मेरी खुद की समझ कितनी है कहानी के बारे में जिंदगी के तब के बिंदु पर। बहुत ही ज्यादा एक गतिशील (dynamic) और बदलने वाली (malleable) सी चीज है। पर मेरी रूचि काफी व्यापक है। मौजूदा समय में मुझे फैमिली स्ट्रक्चर में बहुत रुचि है। न सिर्फ वो एक महीन लेवल पर ह्यूमन अंडरस्टैंडिंग देता है बल्कि व्यापक दुनिया के लिहाज से एक समझ दे जाता है। तो अभी मैं उसमें काम कर रहा हूं क्योंकि उसमें सूक्ष्म और स्थूल (micro & macro) का बहुत अच्छा जुड़ाव नजर आता है। लेकिन अंतत: मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा और सब में गोता लगाना चाहूंगा। इसीलिए मुझे क्यूबरिक जैसा फिल्मकार बहुत ही पसंद है क्योंकि उनकी फिल्में एक-दूसरी से बिलकुल अलग थीं। उनसे भौचक्का हूं।

 
Kanu Behl

Kanu Behl is a young and talented film writer and director based in Mumbai. His directorial debut TITLI is slated to release on October 30 this year. It has gone to several prestigious international film festivals in last one year or so. Most prominently, it was selected in the Un Certain Regard section of the Cannes Film Festival (France) in 2014. It is produced by Dibakar Banerjee and Yashraj Films. Kanu is from Delhi. In 2003, he joined the Satyajit Ray Film and Television Institute and did his PG diploma in cinema. Later he assisted director Dibakar Banerjee on Oye Lucky! Lucky Oye! in 2007-2008 and co-worte Dibakar's next Love Sex aur Dhokha. Kanu as also writing his next titled Agara.

****** ****** ******

Thursday, May 15, 2014

मैं बहुत घूमता हूं, घूमना आपकी दृष्टि (vision) खोल देता है, इससे आपकी सूचना को सोखने की क्षमता बढ़ जाती है, आप दूसरों से ज्यादा देख पाते होः सिद्धार्थ दीवान

 Q & A. .Siddharth Diwan, Cinematographer Titli, Haramkhor, Peddlers, Queen.

Siddharth Diwan
‘तितली’ इस साल की सबसे प्रभावपूर्ण फ़िल्मों में से है। इसका निर्देशन कनु बहल और छायांकन सिद्धार्थ दीवान ने किया है। दोनों ही सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान से पढ़े हैं। फ़िल्म का पहला ट्रेलर इनके साथ पूरी टीम की नई दृष्टि से कहानी कहने की कोशिश दर्शाता है। इस विस्तृत बातचीत में सिद्धार्थ ने बताया है कि कैमरे के लिहाज से फ़िल्म को लेकर उनके विचार क्या थे। अपनी दिल्ली को उन्होंने अभूतपूर्व तरीके से क़ैद किया है। फ़िल्म मौजूदा कान फ़िल्म महोत्सव में गई हुई है। आने वाले महीनों में रिलीज होगी। सिद्धार्थ इसके अलावा श्लोक शर्मा की पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामख़ोर’ का छायांकन भी कर चुके हैं, जो बहुत ही संभावनाओं भरी फ़िल्म है। ये कुछ वक्त से तैयार है लेकिन दर्शकों के बीच पहुंचने में वक्त लग रहा है। 2012 में आई वासन वाला की उम्दा फ़िल्म ‘पैडलर्स’ का छायांकन सिद्धार्थ ने किया था और उनकी अगली फ़िल्म ‘साइड हीरो’ का भी संभवतः वे ही करेंगे। हाल ही में विकास बहल की ‘क्वीन’ के एक बड़े हिस्से की सिनेमैटोग्राफी सिद्धार्थ ने ही की थी। इसके अलावा वे ‘द लंचबॉक्स’, ‘कहानी’ और माइकल विंटरबॉटम की ‘तृष्णा’ जैसी फ़िल्मों के छायांकनकर्ताओं में रह चुके हैं। उन्होंने ‘द लंचबॉक्स’ फेम रितेश बत्रा की लघु फ़िल्म ‘मास्टरशेफ’ (2014) भी शूट की है।

चार बरस की उम्र से फ़िल्मों की दीवानगी पाल लेने वाले सिद्धार्थ दिल्ली से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई के बाद कुछ साल मुंबई में अलग-अलग स्तरों पर वीडियोग्राफी और कैमरा वर्क से जुड़े रहे। काम की अधिकता के बीच उन्होंने कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान से पढ़ने का मन बनाया। यहां से उनका रास्ता और केंद्रित हो गया। धीरे-धीरे वे उस मुकाम पर पहुंचे जहां देश के कुशल और भावी फ़िल्मकारों के साथ वे काम कर रहे हैं। न सिर्फ वे निर्देशकों के विचारों को शक्ल दे रहे हैं, बल्कि अपने अभिनव प्रयोग और सिनेमाई समझ भी उसमें जोड़ रहे हैं। उनके आगे के प्रोजेक्ट भी उत्साहजनक होने वाले हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

आपके छायांकन वाली ‘क्वीन’ को काफी सराहा गया है और ‘तितली’ को लेकर भी शुरुआती प्रतिक्रियाएं काफी अच्छी हैं। आपके पास क्या फीडबैक आ रहा है?
 रिएक्शन अच्छे आ रहे हैं। अभी तो ‘तितली’ सलेक्ट (कान फ़िल्म फेस्ट-2014 की ‘अं सर्ते रिगा’ श्रेणी में) हुई ही है। जब पहला प्रदर्शन होगा, आलोचक देखेंगे, लोग देखेंगे, तब पता चलेगा कि वे कैसे रिएक्ट करते हैं। पिछले से पिछले साल जब मेरी फ़िल्म ‘पैडलर्स’ चुनी गई थी तब भी उत्साह हुआ था। होता है क्योंकि पहला कदम था। लेकिन थोड़ा वक्त गुजरने के बाद जब पहली स्क्रीनिंग का मौका आता है तो वो तय करता है कि लोगों को कैसी लग रही है। अंतत: जनता ही मायने रखती है। तो देखते हैं। पर हां, ‘तितली’ के लिए एक अच्छी शुरुआत है। एक छोटी फ़िल्म है। बहुत मुश्किलों में, कम बजट में बनाई है। कनु के लिए भी अच्छा है, उसकी पहली फ़िल्म है।

पहली स्क्रीनिंग तो मायने रखती है लेकिन आपने भी इतनी फ़िल्में देखी हैं और ‘तितली’ को बनाते वक्त इतना अंदाजा तो होगा ही कि जो फ़िल्म बना रहे हैं उसमें ये खास बात है। ‘कान’ में चुने जाने से भी एक संकेत तो मिलता ही है। जब आप शूट कर रहे थे तो ऐसे क्या तत्व आपने इसमें पाए जो इसे 2014 के सबसे अच्छे सिनेमाई अनुभवों में से एक बना सकते हैं?
वो तो मैंने शुरू में स्क्रिप्ट पढ़ी तभी पता था। फ़िल्म की ही इसलिए कि स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी। नहीं तो शायद करता भी नहीं। जब मुझे कनु मिला तो शुरू में जो एक नर्वसनेस होती है पहली बार कि क्या फ़िल्म होगी? क्या है? लेकिन मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे कनु का विश्व दर्शन (world view) पता चला। ये फ़िल्म एक पितृसत्ता के बारे में है। समाज के दबाए गए तबके के बारे में है। ये पूरी तरह आदमी की दुनिया है। आपको बड़ी मुश्किल से फ़िल्म में औरतें नजर आएंगी। जब मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तभी फ़िल्म की दुनिया से काफी प्रभावित हुआ। कुछ ऐसा जो हमारे बीच विद्यमान है और बहुत अंधेरे भरा है।

In a scene from Titli; Ranvir Shorey, Shashank Arora and Amit Sial
लेंस की नजर से आपने फ़िल्म को कैसे कैप्चर किया है? उसमें क्या कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो आश्चर्यचकित करेंगे?
कैमरा के लिहाज से बहुत छुपी हुई है ‘तितली’। आपको कैमरा के होने का अहसास होगा ही नहीं। कैमरा का क्राफ्ट नहीं दिखेगा। हमने बहुत अलग तरह के या अंतरंगी शॉट लेने या एंगल बनाने की कोशिश नहीं की है। पूरा विचार ही कैमरा के पीछे ये था कि पता ही न चले, काफी छुपा रहे। ठीक उसी वक्त, जो हमने फॉर्मेट चुना, कैमरा चुने, लेंस चुने, वो उस दुनिया को बड़ा करने (enhance) के लिए। क्योंकि हम ऐसे इलाकों में शूट कर रहे थे... मतलब मैं दिल्ली में पला-बढ़ा हूं और हमने जिस तरह की जगहों पर शूट किया वो मैंने खुद कभी नहीं देखी थीं। जैसे हमने बहुत सारी फ़िल्म संगम विहार में शूट की है। हमने दिल्ली की किसी भी उस जगह को नहीं लिया जो हर दिल्ली वाली फ़िल्म में दिखाई जाती है। मतलब ये दिल्ली-6 वाली दिल्ली नहीं है जहां पर किसी भी वक्त रोड पर 5000 लोग हैं, रिक्शा है, नियॉन लाइट्स हैं। ऐसा कुछ नहीं है। बहुत खाली स्पेसेज़ हैं और ये शून्य भरी जगहें विद्यमान हैं। दिल्ली की सबसे पॉश जगह के पीछे ही संगम विहार है जो अवैध कॉलोनी है। ऐसे घर हैं जो झोंपड़ियों और शहरी मकानों के बीच का संक्रमण लगते हैं। यही वो जगह है जहां से हमारे सिक्योरिटी गार्ड्स, पेट्रोल भरने वाले लोग और हाउस हेल्प आते हैं। वो यहीं पर रहते हैं। मतलब ये वो लोग हैं जो हमारे लिए दरवाजे खोलते हैं। तो ‘तितली’ में जो दुनिया दिखाई गई है वो काफी अलग है। विज़ुअली, कैमरा के लिहाज से हमने पहले न देखी गई दिल्ली दिखाने की कोशिश की है। हमारा विचार ही यही था कि वो दिल्ली दिखाएं जो सिनेमाई तौर पर एक्सप्लोर नहीं हुई है। इसलिए मैंने शूटिंग के लिए ‘सुपर 16’ (Super 16mm camera) को चुना। हमने उसके लिए बहुत सारे टेस्ट किए थे। हर ओर से बहुत दबाव है कि डिजिटल होना चाहिए, डिजिटल होना चाहिए, जबकि मैं हमेशा से बहुत मजबूती से इसके उलट सोचता रहा हूं। मैंने पहले ‘पैडलर्स’ डिजिटल पर की थी, पर ‘तितली’ के लिए ‘सुपर 16’ को चुना क्योंकि इस कहानी में हम सबसे ठोस टैक्सचर वाले लोगों को दिखा रहे हैं और मैं आश्वस्त था कि 16एमएम इस टैक्सचर को और बढ़ा देगा। इसे लेकर शुरू में हम लोग बहुत दुविधा में थे। ऐसे में मुंबई में हम ठीक वैसे इलाकों में गए जो संगम विहार जैसे थे। वहां मैंने डिजिटल और 16एमएम का तुलनात्मक टेस्ट किया। फिर इसे डायरेक्टर को दिखाया और उसके बाद हर कोई ये बात मान गया कि 16एमएम इस फ़िल्म का फॉर्मेट होगा। बाकी फ़िल्म में कैमरा दृश्यों को अति-नाटकीय बनाने की कोशिश नहीं करता बल्कि सहज रूप से कैप्चर करता है।

‘16एमएम’ के अलावा कैमरा और लेंस कौन से इस्तेमाल किए?
इसमें हमें पहले से पता था कि पूरी फ़िल्म हैंड हैल्ड होने वाली है। तो 16एमएम था। उसके भी पीछे कारण था कि छोटा कैमरा है, हल्का है। हमने ऐरी 416 (Arriflex 416) भी इस्तेमाल किया। वो कैमरा डिजाइन ही हैंड हेल्ड के लिए किया गया है। इसका आकार ही ऐसा है कि आपके कंधे पर फिट हो जाता है और शरीर का हिस्सा बन जाता है। उसके साथ हमने अल्ट्रा 16 (Ultra 16mm) लेंस इस्तेमाल किए।

श्लोक शर्मा की फ़िल्म ‘हरामख़ोर’ का भी काफी वक्त से इंतजार हो रहा है जिसमें सिनेमैटोग्राफी आपने ही की है। उसे बने हुए ही संभवत: एक साल हो चुका है। उसके निर्माण के दौरान के अनुभव क्या रहे?
उसका शूट गुजरात में किया था हमने, अहमदाबाद में। वो काफी अच्छी फ़िल्म है। मुझे पता नहीं अभी तक क्यों फ़िल्म रिलीज नहीं हो रही है, बहुत ही अच्छी फ़िल्म है। नवाज भाई (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) इसके मुख्य कलाकारों में से हैं। मुझे लगता है कि ये ऐसी फ़िल्म है जिसका हक बनता है फ़िल्म महोत्सवों की यात्रा करना। इसे भी लोग देखेंगे तभी जान पाएंगे। ये कोई आम नाच-गाने वाली फ़िल्म नहीं है। उसमें कमर्शियल एलिमेंट्स नहीं हैं। बावजूद इसके काफी एंगेजिंग फ़िल्म है। मुझे लगता है लोग इसे जरूर देखेंगे, एंटरटेनिंग भी है। वो भी विज़ुअली हमने जैसे एक्सप्लोर की है, बहुत रोचक है।

और इसके छायांकन के साथ आप कैसे आगे बढ़े?
‘हरामख़ोर’ में थोड़ी अलग अप्रोच थी। ये पूरी तरह इम्प्रोवाइज्ड फ़िल्म थी। हम लोगों ने 15 दिन में शूट की थी। इसमें दो मुख्य किरदार, जिनके जरिए फ़िल्म चल रही है, बच्चे हैं। ज्यादा से ज्यादा 12 साल के हैं। हमारा बहुत ही इम्प्रोवाइज्ड अप्रोच था जिसमें हमने एक्टर्स को कभी कुछ बोला नहीं क्योंकि हमें पता था कि ये लोग कुछ भी स्वतः स्फूर्त कर सकते हैं। कोई रिहर्सल नहीं होती थी। कुछ ऐसा नहीं होता था कि उनको बोला जाए, तुम यहां से यहां से यहां जाना, यहां से ये करना। हम उनको सीन समझाते थे और छोड़ देते थे। फिर मैं कंधे पर कैमरा लेता, उनका पीछा करता और जो भी हो रहा होता था उसे कैप्चर करता था। ये चीजों का करने का तकरीबन-तकरीबन सेमी-ड्रॉक्युमेंट्री नुमा अंदाज था। बहुत अलग तरह का फिल्मांकन रहा ये। इसमें मेरा काम काफी स्वाभाविक (instinctive) था। मैं लाइट्स वगैरह भी ऐसे जमा रहा था कि बच्चे यहां-वहां जा सकें, उपकरणों की वजह से उनकी एनर्जी कम नहीं करना चाहता था। और श्लोक भी ऐसा है। वो भी काफी ऊर्जा भरा है और अपनी एनर्जी स्क्रीन पर लाना चाहता था। मेरी लाइटिंग और लेंस इसीलिए ऐसे होते हैं कि उस एनर्जी को कैप्चर करते हैं। ‘हरामख़ोर’ में यही हमारी अप्रोच थी।

आपने अपनी शैली का जिक्र किया तो मुझे कुछ ऐसी फ़िल्में याद आती हैं जिनमें काफी लंबे दृश्य रहे। उनमें कैमरा पुरुषों को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जैसे, टोनी जा की फ़िल्म ‘टॉम-यम-गूंग’ (Tom-Yum-Goong, 2005) है जिसमें एक काफी लंबा दृश्य है जिसमें वो पांच-छह मंजिला ईमारत की सीढ़ियों पर घूम-घूम पर स्टंट करते हैं, शत्रुओं को पीटते हैं। उसके लिए फ़िल्म के जो पहले सिनेमैटोग्राफर थे वो टोनी के स्टैमिना की बराबरी नहीं कर पा रहे थे तो उनके स्थान पर किसी और को लाया गया और उसने ये पूरा सीन उतनी ही तत्परता किया। यानी चुनौती का ये स्तर आप लोगों को रहता है?
जी, रहता है। उस वक्त आपको बहुत ही तत्पर और जागरूक रहना होता है। जो अभी आप उदाहरण दे रहे हो, वो बहुत ही कोरियोग्राफ्ड सीन है जिसमें उन्होंने शायद दस दिन तो इसके बारे में सोचा होगा कि यहां से वहां कैरेक्टर जाएगा, कैमरा यहां होगा, वो उसे ऐसे फेंकेगा। लेकिन ‘हरामख़ोर’ में फर्क ये था कि इसमें हमने कोई कोरियोग्राफी डिजाइन नहीं की थी। हम नहीं चाहते थे कि कोई डिजाइन अतिक्रमण करे। क्योंकि हमारी हमेशा कोशिश रहती है कि कुछ भी डिजाइन किया हुआ न लगे। दर्शक को महसूस होना चाहिए कि जो बस सीधा कैप्चर किया गया है। तो हमारा भी तरीका मुश्किल भरा था ही, क्योंकि पता नहीं था वे लोग कहां जाएंगे? कब तक जाएंगे? कई बार टेक्स 10-10 मिनट तक चलते रहते थे। लेकिन ठीक उसी वक्त वो बहुत स्वाभाविक था क्योंकि आपको नहीं पता वो कब क्या करेंगे? इस तरह मेरा काम ज्यादा स्वाभाविक (instinctive) और सहज (intuitive) हो गया। लेंस भी जो मैंने चुने, उस हिसाब से कि कैरेक्टर कितना दूर खड़ा होगा? कहां से लाइट आएगी? ये सब ऐसी चीजें थीं जो मैंने अपने अनुभव और इनट्यूशन से कैलक्युलेट की।

अब तक आपने जितनी भी फ़िल्में की हैं, उनमें कौन सी ऐसी है जिसकी पूरी कोरियोग्राफी आपने की?
‘पैडलर्स’, ‘हरामख़ोर’ और ‘तितली’ मैंने पूरी शूट की। उसके बाद ‘क्वीन’ मैंने आधी शूट की। ‘द लंचबॉक्स’ के काफी हिस्से मैंने शूट किए। ‘कहानी’ में थोड़े से हिस्से किए। एक माइकल विंटरबॉटम की फ़िल्म है ‘तृष्णा’ (2011), उसके कुछ हिस्से किए।

एक सिनेमैटोग्राफर के तौर पर क्या ‘क्वीन’ आपको एक नया अनुभव देने वाली फ़िल्म रही? कि बॉबी बेदी ने काफी फ़िल्म शूट कर ली थी फिर उनका देहांत हो गया। उसके बाद अब उसे कहां से शुरू करना है? कैसे पढ़ना है? जो पहले के विजुअल्स हैं उन्हें कैसे जारी रखना है? दृश्यों का रंग क्या होगा? किसी अन्य छायांकनकार के सामने ऐसी चुनौतियां आती हैं तो उसे अपनी योजना के चरण क्या रखने चाहिए?
मुझे इतनी अलग परिस्थितियों का पता नहीं लेकिन ‘क्वीन’ के हालात मेरे लिए थोड़े आसान रहे। इतना लगा नहीं कि जटिल है टेक ओवर करना। एक चीज थी कि बॉबी ने जो पार्ट शूट किए थे, वो बिलकुल अलग थे। ‘क्वीन’ ऐसी फ़िल्म है कि जब शुरू होती है तो टोन, टैक्सचर और इमोशन के मामले में बिलकुल अलग फ़िल्म है। पर जैसे ही वो (कंगना) हनीमून के लिए निकलती है तो फ़िल्म का स्टाइल बिलुकल ही अलग हो जाता है। वो मेरे लिए एक फायदा हो गया। मैं जब फ़िल्म से जुड़ा तो मुझे बॉबी के किसी काम की नकल नहीं करनी पड़ी। मेरे को विकास ने बोला कि वो वैसे भी बॉबी को बोलने वाले थे कि इससे ठीक पहले उन्होंने एमस्टर्डम-पैरिस के हिस्से शूट किए थे, उन्हें भूल जाएं, ताकि दिल्ली वाले भाग को नई तरह से देख सके। जब मैं आया तो मैंने पहले क्या शूट हुआ है ये नहीं देखा था। मुझे विकास ने विकल्प दिया था कि “क्या तुम देखना चाहते हो बॉबी ने अब तक क्या फिल्माया है?” साथ ही उसने ये भी कहा कि “मैं राय दूंगा कि तू वो सब न देख। अंतिम मर्जी तेरी है। पर तू नहीं देखेगा तो ज्यादा बेहतर है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि स्टाइल वैसा ही हो”। तो मैंने इसलिए वो हिस्से देखे ही नहीं। मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी और अपना खुद का विज़न बनाया, अपना खुद का स्टाइल बनाया। जो फ़िल्म के लिए अच्छा साबित हुआ। जैसे कंगना पहले दिल्ली में रहती है और जब वो बाहर निकलती है, उसके लिए दुनिया खुलने लगती है और उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है और फिर स्टाइल भी बदलती है। तो उस लिहाज से मेरे लिए अच्छा था। शायद रचनात्मक तौर पर मेरे लिए उतना संतुष्टिदायक नहीं होता अगर मैं पहले के फिल्मांकन के तरीके को कॉपी कर लेता। यूं ‘क्वीन’ मेरे लिए बहुत फुलफिलिंग अनुभव बन गई।

आपने बाकी कैमरा के साथ एपिक रेड (EPIC Red) भी इस्तेमाल किया है जिसका पीटर जैक्सन के निर्देशन में बनी ‘द हॉबिट’ जैसी विशाल फ़िल्मों में इस्तेमाल हुआ है। पंजाबी फ़िल्मों में भी इस्तेमाल हुआ है। ये कैमरा कैसा है? इसका भविष्य कैसा है? बाकी कैमरा के मुकाबले आप इसे कैसे देखते हैं? कितना ताकतवर है?
काफी अच्छा कैमरा है। मैं ये नहीं कहूंगा कि किसी दूसरे कैमरा से बेहतर है या बुरा है। इसके खुद के अपने गुण हैं। अभी जो दो-तीन कैमरा हैं, जैसे सोनी एच65 (Sony XVM-H65) है या एलिक्सा (ALEXA) हो गया, उन सबमें ये कैमरा छोटा है आकार में, और हल्का है। इसकी ऐसी शारीरिक बनावट के बहुत सारे फायदे हो जाते हैं। जब आप छोटे स्पेस में काम कर रहे हो या हैंड हैल्ड कर रहे हो या स्टैडीकैम कर रहे हो, आपको छुपकर काम करना है, नजर में नहीं आना है, तो उन सब परिस्थितियों में आपको बहुत फायदा हो जाता है। पर कई बार मैं रेड को एलिक्सा पर तवज्जो देता हूं। रेड में ज्यादा फ़िल्म जैसा टैक्सचर और क्वालिटी है, ज्यादा फ़िल्मीपन है। उनमें नुकीली बारीकियां (edges) ज्यादा हैं, जिस तरह से वो स्किन टोन (skin tone) देता है। मुझे पहले बहुत से डिजिटल कैमरा से दिक्कत होती थी कि वो बहुत सपाट चित्र देते थे, उनमें कोई टैक्सचर नहीं होते थे। रेड ऐसा नहीं है, उसमें इमेज ज्यादा टैक्सचर्ड है और उसमें गहराई है। फ्लैट इमेज नहीं है। अब इसमें ही नया ड्रैगन (EPIC DRAGON) आ गया है जो चीजें काफी बदल देगा। बहुत स्टेप ऊपर चला गया है।

आपने एक बार जिक्र किया था कि “Man of Steel is a big disappointment!”, वो आपने किस लिहाज से कहा था? फ़िल्म की कहानी के या सिनेमैटोग्राफी के?
कहानी के लिहाज से। जब ट्रेलर देखा था मैंने तो मुझे बहुत प्रॉमिसिंग लगी थी। जो क्रिस नोलन (डायरेक्टर) ने ‘द डार्क नाइट’ (2008) के साथ किया था कि वो सिर्फ हीरो ही नहीं उसमें एक मानवीय तत्व भी था। तो ‘मैन ऑफ स्टील’ के ट्रेलर ने ये दिखाया लेकिन फ़िल्म देखी तो उसमें ऐसा कुछ न था। अमेरिकन फ़िल्में!

हॉलीवुड में जितनी भी विशाल और सुपरहीरो जैसी फ़िल्में आती हैं उनमें क्या डायरेक्टर से ज्यादा जिम्मेदारी सिनेमैटोग्राफर्स की हो जाती है? क्योंकि उसे अप्रत्यक्ष चीजों में से प्रत्यक्ष चीजें निकालनी पड़ती हैं। जो है नहीं उसे वैसे ही अवतरित करवाना होता है। क्या आपको लगता है कि उनमें छायांकनकार की भूमिका ज्यादा होती है और डायरेक्टर की थोड़ी सी कम होती है?
मुझे अभी ऐसा लगता नहीं। जब मैं करूंगा सुपरहीरो फ़िल्में तो हो सकता है कुछ और मानना हो जाए। लेकिन मुझे लगता नहीं कि डायरेक्टर का रोल कभी भी कम हो सकता है। अमेरिकन सिस्टम इतना मुझे पता नहीं कि वहां काम कैसे होता है लेकिन कुछेक विदेशी प्रोजेक्ट्स पर मैंने असिस्टेंट के तौर पर काम किया है, और डायरेक्टर का रोल तो हमेशा रहेगा ही। हां, सिनेमैटोग्राफर का रोल बदल जाता है, बढ़ भी जाता है, क्योंकि बहुत सारे एलीमेंट काम कर रहे होते हैं। मतलब तकनीकी तौर पर। सौंदर्य (aesthetics) और रचनात्मकता (creatively) के लिहाज से तो हमेशा ही काफी कुछ जोडऩा होता है। वो तो आप किसी भी टेक्नीशियन या किसी भी क्रिएटिव आदमी से छीन नहीं सकते। टेक्नीकली ऐसी फ़िल्मों में सिनेमैटोग्राफर का कद काफी बढ़ जाता है क्योंकि बाद में जैसा पोस्ट-प्रोडक्शन होना है उसकी पूर्व-कल्पना करते हुए शूट करना होता है। आपको ये ध्यान में रखते हुए शूट करना होता है कि बाद में क्या विज़ुअल इफेक्ट्स होंगे, क्या सीजी (कंप्यूटर जनरेटेड) वर्क होगा। ट्रिक्स, कैमरा, नई टेक्नॉलजी जो इस्तेमाल होती है, कैमरा मूवमेंट्स करने के लिए, लाइटिंग के लिए... वो सब बहुत ज्यादा जटिल, उलझाने वाला हो जाता है। इन सबको विज़ुअल इफेक्ट्स और सीजी के सामंजस्य में लेकर चलना पड़ता है। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर का काम कम होता है, पर सिनेमैटोग्राफर का काम बढ़ जाता है। ऐसी टेक्नॉलजी भी होती है जहां आपके बेसिक्स भर से काम नहीं चलता।

कैमरा हमारे आसपास की उन आवाजों को भी सुनता है जो हमने सुननी तकरीबन बंद कर दी हैं, जो सारा कोलाहल (chaos) है उसके बीच में। और कैमरा उन चीजों को भी देखता है जो हम बेहतरीन लेंस वाली आंखें होते हुए भी नहीं देखते। एक फ्रेम में अगर हम एक चीज देख रहे हैं तो कैमरा सारी चीजें देख रहा है। ये जो परिदृश्य (phenomenon) है ये किसी फ़िल्म को बहुत ध्यान से देखते हुए नजर में आता है, आपके और उन चीजों के बीच किसी तीसरी उपस्थिति के तौर पर जो द्वितीय उपस्थिति यानी ऑब्जेक्ट्स को ज्यादा बेहतरी से स्वीकार कर रहा है। आपने इस बारे में पढ़ाई करते हुए और सिनेमैटोग्राफी करते हुए सोचा है? अब भी इसकी अनुभूति कैसे करते हैं?
मैं बहुत ट्रैवल करता हूं। मैं निजी तौर पर बहुत महसूस करता हूं कि जब हम एक ही जगह पर, उसी घर में, काम पर जाना, बाजार जाना, उस दुनिया में लंबे वक्त तक रहना, ये सब लगातार, रोज़-रोज़ करते हैं तो आपका देखना बंद हो जाता है। मतलब आप घर से निकल रहे हो, सीढ़ियों से नीचे जा रहे हो, सब कर रहे हो लेकिन चीजों को नोटिस करना बंद कर देते हो। आपके लिए सब एक ही हो गया है। आप रोज़ वो देखते हो। मैं निजी तौर पर इसलिए बहुत घूमता हूं। ये घूमना आपकी दृष्टि (vision) खोल देता है। जब नई जगहों पर जाते हो, नए कल्चर को देखते हो, नए स्थापत्य (architecture), नए चेहरे, नए लोग देखते हो, तो आपकी आंखें खुल जाती हैं और सूचना को सोखने की जो क्षमता होती है वो बढ़ जाती है। इससे आप दूसरों से ज्यादा देख पाते हो। यही वजह है कि बाहर से जब बहुत सारे लोग आते हैं और भारत को शूट करते हैं, या इंडिया से बाहर जाकर लोग शूट करते हैं तो इससे दिखता है कि दुनिया को देखने का नजरिया कितना अलग है। क्योंकि हम लोग एक बिंदु के बाद देखना बंद कर देते हैं। हम लोग फिर चल रहे हैं, कर रहे हैं, पर देख नहीं रहे, समझ नहीं रहे। इसलिए मैं हमेशा इस कोशिश में रहता हूं कि किसी न किसी बहाने बाहर चला जाऊं। ज्यादा देखने लगूं। इससे आपकी देखने और सोखने की प्रैक्टिस बढ़ जाती है।

सेट पर जाने के बाद सबसे पहले आप क्या करते हैं? आपका सबसे पहला संस्कार क्या होता है? जैसे अगर लाइटिंग की बात करूं तो बहुत से सिनेमैटोग्राफर्स का होता है कि वो एक लाइट जलाते हैं और देखते हैं फ्रेम के अंदर रोशनी का क्या हिसाब-किताब है, तो ऐसे आपने कोई अपने रिचुअल कायम किए हैं?
अभी जिस तरह की फ़िल्में मैंने की हैं उनमें मैंने लाइटिंग को चेहरों के बजाय स्पेसेज के लिए अप्रोच किया है। क्योंकि ज्यादातर फ़िल्मों में क्या होता है कि - खासतौर पर वो ग्लॉसी फ़िल्में जिनमें पूरी लाइटिंग का ध्यान चेहरों को सुंदर बनाने में होता है - मुख्य किरदार सुंदर दिखें, बाकी बस यूं ही। अभी मैं जिस तरह की फ़िल्में कर रहा था उनमें ये महत्वपूर्ण नहीं था कि कौन स्टार है, उनमें कहानी ज्यादा जरूरी थी, जिस दुनिया में, जिन स्पेसेज में हैं, वो ज्यादा जरूरी थी। तो मैं सबसे पहले ये देखता हूं कि मेरी लाइट कहां से आ रही है, स्त्रोत क्या है, वो लोगों पर कैसे पड़ेगी, परछाई कहां होगी। एक बार वो लाइट हो जाए तो फिर अगर बहुत जरूरत है तो मैं बाकी लाइट्स तय करता हूं। कुछ पतली लाइट्स बरतता हूं ताकि फ्रेम का कॉन्ट्रास्ट बदल सकूं। आपने जो सवाल किया उसके संदर्भ में एक बात ये भी है कि जितनी भी फ़िल्म मैंने की हैं उनमें दिन में हम छह-छह सात-सात और कई बार दस-दस सीन कर रहे होते हैं। बजट होते नहीं हैं। तो मैं वो रिचुअल नहीं करता हूं। तब मुझे दिमाग में ज्यादा योजनाबद्ध और सीमित होना पड़ता है। वहां जाकर आप चुन नहीं सकते कि हां भई लाओ क्या है, कैसा दिख रहा है?

आपने परछाइयों का भी जिक्र किया, कि शैडोज कहां रह रही हैं वो भी बहुत जरूरी है। तो बहुत महत्वपूर्ण कारक सिनेमैटोग्राफी में ये भी होता है। ये भी कहा जाता है कि इसमें रोशनी से ज्यादा जरूरी परछाइयां होती हैं। तो शैडोज क्या बाकी चीजों का विश्लेषण करने में जरूरी होती हैं कि उनका फ्रेम में होना भी उतना ही जरूरी होता है? या किसी और वजह से ऐसा कहा जाता है?
शैडो बहुत जरूरी है, इन द सेंस, कि फ्रेम में कितना शैडो है इससे पता चलता कि तुम फ्रेम में कितना दिखा रहे हो और कितना छुपा रहे हो। अगर लाइट तुम फेस के सामने रख रहे हो तो चेहरा पूरा दिख रहा है, सबकुछ दिख रहा है, मतलब वो कुछ कह रहा है, स्ट्राइक कर रहा है। लाइट सब्जेक्ट के दाएं या बाएं लगा दो तो चेहरे का आधा हिस्सा दिखता है और आधा नहीं दिखता, इससे नाटकीयता पैदा होती है। यही लाइट अगर ऊपर लगा दो तो आपको चेहरा तो दिख रहा है लेकिन हिस्सों में। आंखें नहीं दिखती। आपको चेहरे का आकार दिखता है, बाल वगैरह, पर आंखें नहीं दिखती। जैसे कि उन्होंने (Gordon Willis) ‘द गॉडफादर’ (1972) में किया। उससे एक नाटकीय असर पैदा होता है। तो कहां से शैडो आ रही है, क्या छुप रहा है, क्या दिख रहा है और कितना उसका घनत्व है... ये ऐसे बहुत तरह के कॉम्बिनेशन होते हैं। ऐसे एक हजार से ज्यादा कॉम्बिनेशन होते हैं जिनसे हम अलग-अलग मूड और भाव पैदा कर सकते हैं। शैडो की अहमियत बहुत मजबूत होती है।


Above - 'Dreams' artwork by Akira Kurosawa; Here - screenshot from his film 'Dreams' (1990)
दो-तीन ऐसे निर्देशक रहे हैं, ज्यादा भी होंगे, जो स्कैच और पेंटिंग्स का काफी सहारा लेते हैं। फ़िल्मों में आने से पहले वे पूरी कहानी और फ़िल्म को स्कैच के जरिए बना लेते थे। बाद में भी इसे आजमाते रहे। जैसे मार्टिन स्कॉरसेजी (Martin Scorsese) सबसे शुरुआत में अपनी फ़िल्म सीन-दर-सीन एक स्कैचबुक में हाथ से उकेर देते थे। संभवतः वे बाद में भी ऐसा करते रहे। जापान के महान फ़िल्मकार कुरोसावा (Akira Kurosawa) हैं तो वो पेंटिंग्स बहुत अच्छी बनाते थे और पेंटिंग्स में बने दृश्य को फ़िल्मों में जिंदा करते थे। मुझे ये जानने में दिलचस्पी है कि सिनेमैटोग्राफी का कोर्स करते हुए या ऐसे भी, आपने क्लासिक पेंटिंग्स का अध्ययन किया है? करने की कोशिश की है? जानने की कोशिश की है कि कैसे कोरियोग्राफ किया है उन्होंने संबंधित चित्र को? और फ़िल्मों में इन्हें पढ़ने की प्रेरणा कितनी मदद करती है? दूसरा, ये अभ्यास कितना महत्वपूर्ण है आज भी सिनेमा के छात्रों के लिए? कि देखिए एक छोटी सी पेंटिंग है जो चलायमान नहीं है, मृत है और आपके सिनेमा के चलायमान जीवित दृश्य को बनाने के लिए प्रेरित कर देती है। ये सोचते हुए ही बड़ा अचंभित करता है।
मैंने बहुत ज्यादा किया है ऐसा। इंस्टिट्यूट के टाइम पे, उससे पहले भी, अभी भी। मैं हमेशा सुनिश्चित करता हूं कि मैं ट्रैवल करूं, म्यूजियम जाऊं। और असल में मैं गया भी हूं। पिछले साल में एम्सटर्डम में वैन गॉग (Vincent van Gogh) म्यूजियम गया था। कई अन्य म्यूजियम और एक मशहूर पेंटर के घर भी गया। इसके अलावा जब हम संस्थान (Satyajit Ray Film & Television Institute: SRFTI) में थे तो इसे बहुत स्टडी करते थे। अलग-अलग पेंटर्स के वर्क को। उनसे सीखने को बहुत मिलता है। और फ़िल्मी लोगों के लिए तो अलग-अलग कारणों से। काफी ज्यादा। जैसे हमने कई आर्टिस्ट का काम देखा। मसलन, रेम्ब्रांट (Rembrandt van Rijn, 1606–1669, Dutch) और एल ग्रेको (El Greco, 1541–1614, Spanish-Greek) का, कि वे सोर्स कैसे यूज कर रहे हैं? लाइटिंग कैसे कर रहे हैं? Faces और spaces पर लाइटिंग कैसे कर रहे हैं? शैडोज कैसे हो रहे हैं? हमने डेगस (Edgar Degas, 1834–1917, French) और एडवर्ड हॉपर (Edward Hopper, 1882–1967, American) जैसे कलाकारों का काम देखा। कि कैसे वे फ्रेम में लोगों के स्थान तय कर रहे हैं? उन्हें स्थित कर रहे हैं? मुझे लगता है एडवर्ड हॉपर काफी सिनेमैटिक हैं। उनका हर फ्रेम ऐसा लगता है जैसे किसी फ़िल्म से निकाला गया दृश्य है। जो बहुत नाटकीय और सिनेमाई हैं। उसी वक्त में डेगस बैलेरीना डांसर्स को पेंट किया करते थे। कैसे वे उन डांसर्स की पोजिशनिंग करते थे? उनकी शारीरिक भाव-भंगिमा (posture) बनाते थे? उन लोगों से सीखने को बहुत कुछ है। मैं जिस संस्थान में था वहां पर तो ऐसे लोगों को बहुत ज्यादा रेफर किया जाता था। हम लोग पेंटिंग्स को देखते थे, उनके आर्टिस्टिक काम को देखते थे। काफी बार हमारा काम भी वहां से प्रेरित होता था। रंगों के लिहाज से, पोजिशन के हिसाब से, लाइटिंग के लिहाज से। कई बार हमें रेम्ब्रांट जैसे आर्टिस्टों के काम को देखने के लिए कहा जाता था। वो लोग अपने वक्त और कला के मास्टर्स थे। इन एलीमेंट्स में दिग्गज थे। साथ ही जाहिर है आपको अपना खुद का स्टाइल विकसित करना भी बहुत जरूरी होता है।

जैसे बहुत से इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार हैं जिनके पास बजट नहीं है और बिलकुल बेसिक कैमरा हैं, वे प्रकाश के स्त्रोत के तौर पर किन-किन चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं? कौन से नेचुरल एलिमेंट्स, कौन सी छोटी हल्की लाइट्स, लैंप, टॉर्च... क्या-क्या?
आजकल तो कैमरा ही बहुत इवॉल्ड और बहुत आधुनिक हैं, कम रोशनी में भी बहुत संवेदनशील हैं। आप तो आइपैड की रोशनी तक बरत सकते हैं। एक पूरी फीचर फ़िल्म बनी है जिसमें उन्होंने रोशनी आइपैड से की। मैंने खुद कितनी बार टॉर्च या फोन की लाइट, या कैंडल्स या कहीं से बल्ब उठा लाए, इनकी रोशनी से काम किया है। अब तो मोटी बात इतनी ही है कि हमें बस तय करना होता है कि स्टाइल क्या है फ़िल्म की। अगर उसमें फिट बैठता है तो कोई भी ऐसी चीज यूज़ कर सकते हैं जो रोशनी का निर्माण करती है। कैमरा बहुत ही सेंसेटिव हो गए हैं। असल में मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म की है जिसमें मैंने इस फोन की लाइट इस्तेमाल की है। जरूरी नहीं है कि बड़े एचएमआई, 1के, 2के, 5के, 18के से लाइटिंग करो। जाहिर है कुछ जगह पर जरूरी होता है। पर आज के टाइम तो बल्ब मिल जाएगा 40 वॉट का तो उससे भी लाइटिंग हो जाएगी। और हमने ‘पैडलर्स’ में वो किया है। हमने पूरी फ़िल्म में ट्यूबलाइट और बल्ब के अलावा शायद ही कुछ यूज़ किया है।

आपकी फेवरेट फॉर्म ऑफ लाइटिंग क्या है? मसलन, कुछ दिग्गज सिनेमैटोग्राफर्स को ट्यूबलाइट की रोशनी बहुत ही निर्मल लगती है और वो उन्हें अपनी फ़िल्मों के फ्रेम उतने ही निर्मल रखने पसंद होते हैं।
क्या जरूरत है, उसके हिसाब से होता है। पर मुझे प्राकृतिक रखना ही पसंद हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता कि सोर्स ऑफ लाइट पता चले। जब दर्शकों को पता चलता कि यहां एक लाइट मार रहा है, यहां से बैकलाइट आ रही है तो मुझे निजी तौर पर ये पसंद नहीं आता। मेरे लिए रोशनी का स्त्रोत उसी हिसाब से तय होता है कि बिलुकल नेचुरल लगे। पर मैं सब यूज़ करता हूं। ट्यूबलाइट, मोमबत्ती की रोशनी, आग... कुछ भी। सत्यजीत रे की फ़िल्मों की बात करें तो उनकी फ़िल्मों के व्याकरण में रोशनी के लिए सबसे ज्यादा किन तत्वों का इस्तेमाल हुआ है? धूप का? जैसे ‘पाथेर पांचाली’ (1955) में दोनों बहन-भाई खेत में से रेलगाड़ी देखने जा रहे हैं और सामने से चिलचिलाती धूप की रोशनी खेत में खड़ी फसल के बीच से छन-छन कर आ रही है। इसका जिक्र संभवत: मार्टिन स्कॉरसेजी ने एक बार किया है कि उन्हें ये दृश्य बेहद पसंद है और रोशनी के ऐसे इस्तेमाल की वजह से ही। - शुभ्रतो मित्रो जो सत्यजीत रे के डीओपी (director of photography) थे उन्होंने तो सॉफ्टबॉक्स और बाउंसलाइटिंग का पूरा परिदृश्य - जो आज इतना फेमस है, हर कोई उसे यूज़ करता है - शुरू किया था। इसी ने उन फ़िल्मों को बेहतर बनाया। ब्लैक एंड वाइट एरा में कठोर लाइट्स, कठोर परछाइयों और कठोर बैकलाइट्स का बोलबाला था। ये शुभ्रतो मित्रो और सत्यजीत रे ही थे जिन्होंने रोशनी के इस प्राकृतिक (naturalistic) तरीके का भारतीय फ़िल्मों से परिचय करवाया था। क्योंकि प्रकृति में कई सारी नर्म रोशनियां (soft lights) होती हैं। जैसे सूरज की रोशनी बहुत कठोर होती है लेकिन वो बहुत सी सतहों पर पड़ती है और जमीन, कपड़ों व अनेक चीजों से टकराकर उछलती है जो कई नर्म रोशनियों का निर्माण करती है। तो ये फिनोमेनन ही इन दो लोगों ने शुरू किया था। वो लाइट को बाउंस करते थे। जैसे घर के अंदर बैठे हैं, शाम है, तो सूरज सीधे अंदर नहीं आएगा। उसकी किरण जमीन से टकराएंगी और वहां से उछलकर अंदर आएगी। नहीं तो अगर आप पुरानी ब्लैक एंड वाइट फ़िल्में देखें तो हर वक्त चाहे रात हो या दिन हो, एक्टर के चेहरे पर मोटी लाइट रहती थी या बैकलाइट होती थी। ऐसा लगता था सूरज सीधा अंदर आ रहा है, चाहे दिन का कोई भी वक्त हो। लेकिन मित्रो ने इसे बदला। उन्होंने नेचुरलिस्टिक अंदाज अपनाया। शाम का वक्त है तो सूरज की साफ्ट लाइट अंदर आएगी। पश्चिम की तरफ मुंह किया है तो अंदर आएगा। दोपहर में सूरज अंदर नहीं आएगा, सिर्फ बाऊंस लाइट आएगी।

इन दिनों ये बहस भी जारी है कि ‘2के’ (2K - resolution) पर्याप्त है और ‘4के’ (4K - resolution) जरूरी नहीं है। वो इंडि फ़िल्मकारों के लिए सुविधाजनक होने के बजाय चुनौतियां रच देता है। अनचाहे ढंग से जगह ज्यादा घेरता है। जबकि ‘2के’ और ‘4के’ के लुक में ज्यादा फर्क भी नहीं है। एक तो इस बारे में आपका क्या मानना है? दूसरा, फ़िल्म स्टॉक की गहनता और सघनता का मुकाबला डिजिटल का ‘2के’ या ‘4के’ कर सकता है क्या?
मुझे नहीं लगता कि अभी तक फ़िल्म स्टॉक वाली गुणवत्ता हासिल हो पाई है डिजिटल में। लेकिन उसी वक्त मैं ये भी नहीं कहूंगा कि वो उससे कम है। डिजिटल की अपनी खुद की एक क्वालिटी है और टैक्सचर है। तो 35 एमएम से उसकी तुलना करने का कोई कारण और बिंदु नहीं है। और मुझे नहीं लगता कि डिजिटल को कभी भी फ़िल्म स्टॉक का विकल्प माना जाना चाहिए। हमें ये कतई नहीं कहना चाहिए कि अब हमें फ़िल्म की जरूरत नहीं है। डिजिटल का अपना लुक है, फ़िल्म का अपना लुक है। ये तो वही बात हो गई कि पोस्टर कलर से कर रहे हो या वॉटर कलर से कर रहे हो या किससे कर रहे हो? अलग-अलग टैक्सचर है। यहां तक कि डिजिटल में भी सब कैमरों के अलग भाव हैं। एलिक्सा का अलग है, रेड का अलग है, सोनी का अलग है, 35एमएम का अलग है, 16एमएम का अलग है। हकीकत यह है कि ये पूरी तुलना केवल उन्हीं लोगों द्वारा की जाती है जो पैसे में लीन हैं। जो इस तकनीक के अर्थशास्त्र में शामिल हैं। मुझे लगता है हमारे लिए कोई तुलना नहीं है। डिजिटल भी अच्छा है और फ़िल्म भी। अगर आप सुपर16 को सैद्धांतिक रूप से देखें तो संभवत: ये कमतर माध्यम माना जाएगा। इसका नेगेटिव छोटा है, इसके साथ कई मसले हैं। इन लिहाज से ये 35एमएम और कुछ हद तक रेड से कमतर है। पर मैंने इसका उपयोग किया इसके टैक्सचर के लिए, इसके सौंदर्य के लिए, इसकी भाषा के लिए। तुलना ठीक नहीं है। सब कैमरा अच्छे हैं और सबके अपने-अपने गुण हैं।

पोस्ट-प्रोडक्शन प्रक्रिया में आप कितनी भागीदारी करते हैं, या करना चाहते हैं, या करना चाहिए? क्योंकि जब शूट करते हैं तो आपने एक अलग नजरिया रखा है और ऐसा न हो कि एडिटिंग जो कर रहा है और आप संदर्भ समझाने के लिए मौजूद न हों तो आपके पूरे काम को खराब कर दे?
इसके लिए डायरेक्टर होता है। ये एक ऐसा भरोसा होता है जो आपको डायरेक्टर में होता है। असल में पोस्ट-प्रोडक्शन में एडिटर और डायरेक्टर ही रहते हैं। ये डायरेक्टर का काम है, फ़िल्म उसका विज़न है। मैं लकी रहा हूं कि ऐसे निर्देशकों संग काम किया है जो ये सब बहुत पकड़ के साथ समझते हैं। साथ-साथ मुझे बुलाते भी हैं। ऐसा नहीं है कि पोस्ट-प्रोडक्शन का मुझे पता ही नहीं होता। मैं जाता हूं, देखता हूं एडिट्स, पर हम लोग सिर्फ संकल्पना के स्तर (conceptual) पर चर्चा करते हैं। कि काम किरदारों के विकास और कहानी के विकास के लिहाज से कैसा चल रहा है? ज्यादातर तो ये फीडबैक लेवल पर होता है। वो सब मैं करता हूं, पर एडिटिंग में यूं शामिल नहीं होता। मैं एडिटर को कभी नहीं कह सकता है क्योंकि वो उसके दायरे में दख़ल देना होगा। अगर मुझे भी शूट पर डायरेक्टर के अलावा दस लोग आकर बोलेंगे, इसका ऐसा करो, वैसा करो तुम, तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता। तो मैं वो स्पेस देता हूं। हां, मैं फीडबैक दे सकता हूं क्योंकि मैं भी फ़िल्म का हिस्सा हूं। जितने भी लोगों के साथ मैंने काम किया है वो यही समझते हैं कि ये मिल-जुल कर करने की प्रक्रिया है। हम सब एक-दूसरे को प्रतिक्रिया देते है।

मुझे आप ये बताइए कि अगर कोई फ़िल्म स्कूल न जाए तो अच्छा सिनेमैटोग्राफर बन सकता है क्या? और फ़िल्म स्कूल के छात्रों की भी क्या सीमाएं होती हैं? आमतौर पर ये समझा जाता है कि एफटीआईआई (Film and Television Institute of India) से कोई आया है या ऐसे अन्य प्रतिष्ठित फ़िल्म संस्थानों से आया है तो उसकी सीमाएं अपार हैं, कि उनको सब समझ है। और जो बाहर से अन्य रास्तों से होता हुआ पहुंचा है उसके लिए बड़ा मुश्किल है। वो कितना भी संघर्ष कर ले, कभी उन छात्रों के स्तर तक पहुंच ही नहीं सकता क्योंकि उनके संदर्भ ही बड़े आसमानी हैं। आपको क्या लगता है फ़िल्म स्कूल बहुत जरूरी है? जिसके पास फीस नहीं है देने के लिए और जो प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुआ वो अपने सपने लेकर कहां जाए? उसके लिए आगे का रास्ता क्या है? वो कुछ भी कर सकता है?
अब वक्त बहुत अलग हो गया है। शायद आज से 15 साल पहले बोल सकता था कि फ़िल्म स्कूल वालों को जो मिलता था वो बाहर किसी को नहीं मिल सकता था। आज समय बदल गया है। पहले क्या होता था कि किसी को कुछ पढ़ना है तो किताबें ढूंढ़ने में ही महीनों लग जाते थे, या ऐसे लोग ढूंढ़ने में बड़ी मुश्किल होती थी जिनसे कुछ सीखना हो। आज इतने सारे लोग हैं अपने आस-पास जिनको इतना कुछ आता है। इंटरनेट है, किताबें है, लोग हैं, अब तो हर इक चीज पहुंच के दायरे में है। एक फ़िल्म स्कूल में आप क्या पाते हैं? बड़ी लाइब्रेरी? वो आप यहां पा सकते हो। फ़िल्मों तक पहुंच? अब आप किसी भी फ़िल्म को किसी भी कोने में हासिल कर सकते हो। ऐसे लोग जो उस फील्ड के जानकार होते हैं, उन तक पहुंचने के मामले में फ़िल्म स्कूल आगे रहते हैं। लेकिन आज के टाइम में आप जाकर उन्हें असिस्ट कर सकते हैं। आप उनके साथ काम करके अपने मुकाम तक पहुंच सकते हो। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें मैं जानता हूं जो कभी फ़िल्म स्कूल नहीं गए हैं और सिनेमैटोग्राफी सीखने में तो किसी फ़िल्म स्कूल जाने से ज्यादा जरूरी है ‘आपके सोचने का तरीका’, ‘आपके जीने का तरीका’। ऐसे खूब सारे लोग हैं जो किसी फ़िल्म स्कूल से नहीं हैं और जिन्होंने किसी को असिस्ट तक नहीं किया है, फिर भी वो बहुत बड़े नाम हैं। इसके अलावा आप हमेशा असिस्ट कर सकते हो, घर पर पढ़ सकते हो। आप फ़िल्में देख सकते हो और सीख सकते हो, आपको फ़िल्म स्कूल की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर फ़िल्म स्कूल जा सकें तो जाएं। क्योंकि मैं गया था। क्योंकि मुझे एक स्पेस चाहिए था। मैं मुंबई में था और बस काम ही काम किए जा रहा था। क्योंकि इस शहर में रहने, सीखने और पढ़ने की लागत बहुत ऊंची है। ऐसे में आपको लगातार काम करना होता है। तो मुझे वो वक्त नहीं मिल रहा था, वो स्पेस नहीं मिल रहा था। पढ़ने का, फ़िल्में देखने का, लोगों से बात करने का। इसलिए मैं फ़िल्म स्कूल गया। नहीं तो आप बिना जाए भी सब सीख सकते हैं। लेकिन अगर फ़िल्म स्कूल जा सकें और अच्छा करें तो तकनीकी तौर पर आप वो सब कर सकते हो जो कोई और नहीं कर सकता। मैं नहीं कह रहा कि गैर-फ़िल्म स्कूलों वाले लोग नहीं कर सकते, वो कर सकते हैं पर संस्थानों के लोग कुछ अतिरिक्त ला सकते हैं। उन्हें लाना भी चाहिए क्योंकि जो 3-4 साल की पढ़ाई वो करते हैं उसके बाद उन्हें वो अतिरिक्त लाना ही चाहिए। ताकि लोग उन्हें बाकियों के मामले तवज्जो दें।

अपने सर्वकालिक पसंदीदा फ़िल्म निर्देशकों के नाम बताएं?
मेरे सबसे पसंदीदा डायरेक्टर्स में से एक हैं हू साओ-सें (Hou Hsiao-Hsien)। वे ताइवान मूल के हैं। उन्होंने एक फ़िल्म बनाई थी ‘द वॉयेज ऑफ द रेड बलून’ (Flight of the Red Balloon, 2008)। एक और फ़िल्म बनाई थी ‘थ्री टाइम्स’ (Three Times, 2005)। ऐसी कई फ़िल्में हैं। ये आपको मैं समकालीनों में से बता रहा हूं। एक नूरी बिल्जी (Nuri Bilge Ceylan) हैं, तुर्की के हैं। विज़ुअली मैंने तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky) का काम हमेशा पसंद किया है। बहुत। और डेविड लिंच (David Lynch)। कई सारे नाम हैं। बहुत-बहुत काबिल लोग रहे हैं ये। इनारितु (Alejandro González Iñárritu) हैं।

स्टैनली कुबरिक (Stanley Kubrick) और किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) के काम में भी आप कुछ प्रेरणादायक पाते हैं?
कुछ नहीं बहुत कुछ। अरे, कुबरिक तो मेरे सबसे पुराने ऑलटाइम फेवरेट्स में से हैं! और मैंने उनके बॉडी ऑफ वर्क को वाकई में पसंद किया है। निजी तौर पर भी मैं खुद कुछ उन जैसा ही करना चाहता हूं। उन्होंने अपनी हर फ़िल्म कुछ अलग एक्सप्लोर की है। उनकी एक फ़िल्म साइंस फिक्शन है, दूसरी फ़िल्म ब्लैक कॉमेडी है, तीसरी फ़िल्म हॉरर है, चौथी फ़िल्म थ्रिलर है। कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने एक ही जॉनर की फ़िल्म दोबारा की हो। उन्होंने हर जॉनर एक्सप्लोर किया है। तो मैं उन जैसा होना चाहता हूं, ये आकांक्षा रखता हूं। हमारे यहां क्या होता है कि बहुत बार लोग कहते हैं, “कॉमेडी फ़िल्म है तो फलाने डीओपी को बुलाते हैं”। “हॉरर फ़िल्म है तो उस वाले को बुलाते हैं”। “एक्शन है तो किसी और को...”। मैं वो नहीं करना चाहता कि एक तरह का काम हो। अलग-अलग तरह का काम करना चाहता हूं।

आपकी पसंदीदा फ़िल्में कौन सी हैं? ऐसी जिन्हें बार-बार देखा जाए तो सिनेमैटोग्राफी के लिहाज से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है?
एक तो ‘वॉयेज ऑफ द रेड बलून’ है, हू साओ-सें की। एक फ़िल्म मुझे बहुत पसंद है, ‘गुड बाय लेनिन’ (Good Bye, Lenin!, 2003)। फिर कुबरिक की ही फ़िल्म है... ‘अ क्लॉकवर्क ऑरेंज’ (A Clockwork Orange, 1971), मुझे बहुत पसंद है। बहुत। फिर लिंच की फ़िल्म ‘ब्लू वेलवेट’ (Blue Velvet, 1986) है। गोदार (Jean-Luc Godard) की ‘ब्रेथलेस’ (Breathless, 1960) मेरी सबसे पसंदीदा में से है।

सिनेमैटोग्राफी में कौन आपको सबसे गज़ब लगते हैं, पूरी दुनिया में? बड़े खेद की बात है कि बेहद विनम्रता और जज्बे से पूरी जिंदगी लेंस के पीछे गुजार देने वाले ऐसे कुशल लोगों को बहुत कम याद रखा जाता है। वो डायरेक्टर्स के बराबर और बहुत बार ज्यादा जानते हैं।
जी। ऐसे लोग जिनके काम को मैंने बहुत देखा है, लगातार, बहुत पसंद किया है, उनमें एक हैं मार्क ली पिंग बिन (Mark Lee Ping Bin)। भारत में शुब्रतो मित्रो। फिर गॉर्डन विलिस मेरे सबसे पसंदीदा में से एक हैं। फिर डॉरियस खोंडजी (Darius Khondji) हैं। इन्होंने ‘सेवन’ (Seven, 1995) और ‘अमूर’ (Amour, 2012) शूट कीं। बहुत सी वूडी एलन की फ़िल्में शूट की हैं।

आप डॉक्युमेंट्री फ़िल्में भी देखते हैं? बहुत ऐसी होती हैं जिनके विज़ुअल बेहद शानदार होते हैं।
हां मैं देखता हूं। जब भी मौका मिलता है या सुनने में आता है कि कोई अच्छी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म आई है। ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ फिक्शन फ़िल्म देखता हूं। हर तरह की फ़िल्म देखता हूं।

अगर कोई 8 मेगापिक्सल या 12 मेगापिक्सल वाले मोबाइल कैमरा से फीचर फ़िल्म बनाना चाहे तो क्या संभावनाएं हैं? क्या उसकी प्रोसेसिंग या पोस्ट-प्रोडक्शन में दिक्कत आती है?
नहीं, आप कर सकते हैं। लोगों ने किया भी है। बनाई है आईफोन से। उसे बड़े परदे पर दिखाया भी जा सकता है। पर वही है कि पहले उसे टेस्ट करना पड़ेगा। कि कैसा दिख रहा है, कितना ब्राइट रखने या नॉइज रखने से बड़े परदे पर विज़ुअल होल्ड कर पा रहा है? ये सब टेस्ट करना पड़ेगा। इसमें इतना आसान नहीं है कि शूट करके वहां चले गए। अपनी सेटिंग्स पर टेस्ट करने के बाद ही आपको इसमें शूट करना होगा।

क्या पूरी फ़िल्म, कैमरा की एक ही सेटिंग पर शूट होनी जरूरी है? या रैंडम सेटिंग्स पर शूट करके उसे बाद में आसानी से एडिट किया जा सकता है? तकनीकी तौर पर यह संभव है?
अगर उस फ़िल्म को एक ही सेटिंग की जरूरत है, एक ही लुक चाहिए फिर तो रैंडम करने का अर्थ ही नहीं है। उसे तो फिर एक ही सेटिंग पर करना चाहिए। अगर फ़िल्म की जरूरत है कि उसे अलग-अलग दिखना चाहिए ही तो फिर ठीक है। अन्यथा न करें। रैंडम सेटिंग का मतलब होता है कि गलती हो गई उसे मालूम नहीं कि क्या कैसे करना था। सेटिंग और रीसेटिंग होती है, कभी भी रैंडम नहीं करते।

आप अपने परिवार के बारे में बताएं। माता-पिता के बारे में। उनका योगदान क्या रहा? अपने मन का काम करने के लिए उन्होंने आपको कितनी छूट दी? या छोडऩे के लिए दबाव डाला?
मेरे माता-पिता का या परिवार में दूर-दूर तक किसी का फ़िल्मों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरे डैड का बिजनेस है। मेरी मदर टीचर हैं। भाई सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर है। उन्हें तो कभी अंदाजा ही नहीं था कि मैं इस लाइन में घुसूंगा। यहां तक कि मुझे भी आइडिया नहीं था कि इस क्षेत्र में आऊंगा। जब घुसा और करने लगा तब हुआ। मुझे आज तक एक भी पल या दिन याद नहीं जब मेरे पेरेंट्स ने इस चीज को लेकर कभी सवाल किए या संदेह किया या बोला कि ये क्या कर रहे हो? या क्या करोगे? कैसे करोगे? कभी कुछ नहीं पूछा। उन्हें मुझमें एक किस्म का भरोसा भी था। क्योंकि मैं कभी भी कुछ भी करता था तो बहुत घुसकर करता था। गंभीरता से करता था। उन्हें यकीन था कि मैं अपना रस्ता खुद बना लूंगा, पा लूंगा। इस लिहाज से उनका सबसे बड़ा सपोर्ट यही था कि कभी जज नहीं किया मुझे, सवाल नहीं किए।

बचपन में फ़िल्में देखने जाते थे? साहित्य पढ़ते थे? कोई न कोई ऐसी चीज जरूर बचपन में होती है जो अंतत: जवानी में जाकर जुड़ती है।
हां मैं फ़िल्में बहुत देखता था। घर के पास वीडियो लाइब्रेरी होती थी। मुझे याद है वहां पर हर गुरुवार को नई वीएचएस आती थी। वो फिक्स होता था। जैसे ही लाइब्रेरी में आती थी सीधे मेरे घर आती थी। मैं हमेशा बहुत बेचैन और जिज्ञासु होता था। ऐसा नहीं होता था कि मैं एक-एक दिन में देखता था, मैं सारी उसी दिन एक साथ देख लेता था। मेरा ये रुटीन होता था। सब रैंडम चलता था। पता नहीं होता था कि कब क्या आएगी? कभी कोई कॉमेडी फ़िल्म आती थी, कभी क्लासिक आती थी, कभी हॉरर आती थी। दिल्ली में आपका घर कहां है? लाजपत नगर में।

अब तक जितनी फ़िल्में बनाई हैं उनमें सबसे ज्यादा किएटिव संतुष्टि किसे बनाकर मिली है? जो भी फ़िल्म स्कूल में सीखा था उसकी कसर किस फ़िल्म में निकाली?
फ़िल्म स्कूल में जो सीखा उसे तो सब भुलाकर ही शुरू किया। जो वहां सीखा वो कभी किया ही नहीं। मैंने अपनी हर फ़िल्म में अपने हिसाब से ही शूट किया है। बहुत ज्यादा स्ट्रगल किया। ‘पैडलर्स’ से लेकर ‘हरामख़ोर’ तक। बहुत संघर्ष था, बहुत सी रुकावटें थीं। बावजूद इसके मैंने हमेशा अपने और डायरेक्टर के हिसाब से शूट कया। ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रोड्यूसर लोगों ने कभी टोका हो, बोला हो कि ऐसे नहीं वैसे करो। हम जिस हिसाब से काम करना चाहते हैं, करते हैं। पर हां बहुत बार उपकरण नहीं होते, पैसा नहीं होता... ऐसी वित्तीय रुकावटें रही हैं।

वासन की अगली फ़िल्म (Side Hero) भी आप ही शूट करेंगे?
अभी कुछ तय नहीं है लेकिन हम लोगों को तो काम साथ में ही करना है। उसको भी मेरे साथ करना है और मेरे को भी उसके साथ करना है। क्योंकि हम लोगों की बहुत अच्छी बनती है। पर अभी पता नहीं है। मेरी और भी फ़िल्मों की बात चल रही है। अब अगर डेट्स टकराने लगीं तो पता नहीं मैं अपनी तारीखें छोड़ पाऊंगा कि नहीं। या वो अपनी फ़िल्म आगे-पीछे कर पाएगा कि नहीं। पर आशा है कि मैं उसकी फ़िल्म कर पाऊंगा।

Siddharth Diwan is a cinematographer. Director Vikas Bahl’s ‘Queen’ has been his latest release which’s garnered money and much acclaim. His upcoming ‘Titli’ is slated for its world premiere in the 'Un Certain Regard' category at the 67th Cannes Film Festival, happening right now. It has been directed by Kanu Behl. Siddharth has done cinematography for Shlok Sharma’s much awaited ‘Haraamkhor’ which is still to release. Other projects he has worked on in the past are Vasan Bala’s ‘Peddlers’, Sujoy Ghosh’s Kahaani, Michael Winterbottom’s ‘Trishna’ and Ritesh Batra’s ‘The Lunchbox.’ He hails from Delhi and lives in Mumbai.
-:- -:- -:- -:- -:-