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Tuesday, February 14, 2023

Pathaan के खिलाफ चला कैंपेन कारगर क्यों नहीं रहा? (BBC Urdu से बात)

शाहरुख अभिनीत पठान ध्रुवीकृत करने वाली फ़िल्म रही है. घोर प्रशंसा भी मिली, घोर आलोचना भी हुई. BBC Urdu ने टटोलने की कोशिश की कि फिल्म के खिलाफ चला कैंपेन क्यों कामयाब नहीं हुआ और ये इतनी बड़ी हिट क्यों बन गई. 

मेरी समझ से - 

1. पहली वजह तो ये रही कि पठान फिल्म अच्छी थी. कंपैरेटिवली. अब्बास टायरवाला के डायलॉग्स और श्रीधर राघवन के स्क्रीनप्ले में कंपैरेटिवली ऐसी ताजगी थी जो यशराज की पिछली फिल्मों से गायब रही है. फिल्म में प्लॉट प्रडिक्टेबल होते हुए भी प्रडिक्टेबल नहीं था. 

2. दूसरी वजह, सलमान का फिल्म में आना. करण अर्जुन के बाद दोनों साथ एक्शन करते दिखे. दोनों का चलती ट्रेन पर एक्शन सीन बहुत अच्छा बन पड़ा. उनके आपसी ह्यूमर ने भी वर्क किया. मैं यहां तक कहूंगा कि अगर सलमान इस फिल्म में न होते तो ये इतनी कामयाब न होती. 

3. तीसरी वजह, फिल्म के खिलाफ जो विवाद खड़ा हुआ, वो फिल्म के फेवर में गया. विवादों का इनहेरेंट मिजाज यही है. वे सामने वाले को हिट करा जाते हैं. बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा, वही वाली बात. ये पद्मावत के वक्त भी हुआ था जब घूमर गाने में दीपिका का पेट और कमर कंप्यूटर वर्क से ढकना पड़ा था. संजय भंसाली से हिंसा हुई थी. सड़कों पर हिंसा हुई थी. लेकिन फिल्म इसीलिए हिट रही. पठान में भी ऐसा हुआ. दीपिका की बिकिनी का कलर बदला गया. और कॉन्ट्रोवर्सी ने इतनी पब्लिसिटी दे दी कि, पठान को देखने के लिए सैलाब सा बन गया.    

4. चौथी वजह, शाहरुख का अपना बड़ा फैनबेस है. वो सक्रिय था. उसने महीनों पहले से अच्छी पब्लिसिटी सोशल मीडिया पर करनी चालू कर दी थी. वे हर जगह जा जा कर ट्रोलर्स को जवाब दे रहे थे.  

5. पांचवी बात, फिल्म के रिव्यूज़ लार्जली अच्छे रहे. वर्ड ऑफ माउथ तो था ही. लेकिन तकरीबन सारे प्रॉमिनेंट रिव्यू अच्छे थे. यानी फ़िल्म 'क्रिटिक्स सर्टिफाइड' हो गई. शाहरुख की पिछली फिल्मों को क्रिटिकली बहुत पसंद नहीं किया गया. चाहे ज़ीरो हो, हैरी मेट सेजल हो या रईस हो. लेकिन यहां रिव्यूअर्स ने फुल मार्क्स दिए. 

6. आर्यन केस के वक्त शाहरुख से लोगों की सिंपेथी बनी. तब सबको लगा कि शाहरुख के साथ गलत हो रहा है. पॉलिटिक्स हो रही है. फिर आर्यन पूरी तरह बरी हो गए तो कन्फर्म हो गया कि शाहरुख और उनके परिवार को यूं ही ये सब झेलना पड़ा. यहां से उन्हें और उनके प्रोजेक्ट को लेकर स्ट्रॉन्ग गुडविल बन गई थी. जो ब्रह्मास्त्र के ओपनिंग सीन में लोगों की खुशी से भी दिखी. जिन्होंने पूरी फिल्म में शाहरुख के कैमियो को सबसे यादगार तक कहा. 

अंतिम बात - शाहरुख की ऑडियंस पढ़े लिखे तबके वाली है. जिनकी जेब में पर्चेजिंग पावर है. वो नहीं चाहती कि बचकाने मसलों पर कॉन्ट्रोवर्सी क्रिएट करके लोगों का टाइम वेस्ट किया जाए. वे सड़कों पर तो नहीं उतर सकते लेकिन टिकट खरीद सकते हैं. उन्होंने वही करके अपना मैंडेट दिखाया.  


Thursday, January 26, 2023

Pathaan Film REVIEW

सत्यजीत रे ने कहा था कि वे इतनी फिल्में देख चुके थे कि हॉलीवुड की फिल्मों के विशिष्ट गुण देखकर बता देते थे कि किस स्टूडियो ने प्रोड्यूसर की है. एमजीएम ने कि पैरामाउंट ने, वॉर्नर ने या ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स ने. किस डायरेक्टर ने बनाई है - जॉन फोर्ड ने कि विलियम वाइलर ने. फ्रैंक कापरा से कि जॉर्ज स्टीवन्स ने. यशराज स्टूडियो के साथ भी यही बात है. उनकी फ़िल्मों को पहचानना बड़ा आसान है. इस लिहाज से पठान में कुछ ऐसी ताजगी और करार दिखता है जो यशराज से चला गया था.

पठान में प्रडिक्टेबिलिटी नहीं है. कुछ जगहों को छोड़कर आप गेस नहीं कर पाते कि क्या होगा. जो आप गेस करते हैं, वो होता नहीं है. विलेन अपने हर फैसले से दर्शक को आउटस्मार्ट करता है. ह्यूमर और डायलॉग्स वर्क करते हैं. घिसे पिटे नहीं है. जैसे - सलमान और शाहरुख का ओपनिंग सीन बहुत सहज और विटी राइटिंग का बढ़िया एग्जांपल है. क्रेडिट जाता है श्रीधर राघवन और अब्बास टायरवाला को. 

Full Review at Lallantop Cinema:


Saturday, December 24, 2011

"उन्होंने कोई आधा घंटा 40 मिनट मिल्खा की कहानी सुनाई और मैं दंग रह गयाः फरहान अख्तर"

उनके निर्देशन वाली पहली ही फिल्म 'दिल चाहता है को नेशनल अवॉर्ड मिला। फिल्म यूथ पर छा गई। अगली फिल्म 'लक्ष्य कुछ यूं रही कि आर्मी में ऑफिसर बनना चाह रहे लड़के इसका गाना (हां यही रस्ता है तेरा, तूने अब जाना है) सुनकर खुद को मोटिवेट करते। फिर 'रॉक ऑन में चार्टबस्टर गाने गाकर और एक्टिंग करके उन्होंने सबको चौंकाया। इस शुक्रवार शाहरुख खान के साथ उनकी बनाई 'डॉन’ की सीक्वल 'डॉन-2’ रिलीज हुई है। अब खास ये है कि डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा की बहुप्रतीक्षित 'भाग मिल्खा भाग में मिल्खा सिंह का लीड रोल वो करेंगे। ये फरहान अख्तर हैं। सफल डायरेक्टर, सफल एक्टर, सफल प्रॉड्यूसर और सफल सिंगर। उनके खास सेंस ऑफ ह्यूमर और खराश भरी मोहक आवाज के साथ हुई ये बेहद संक्षिप्त मुलाकात। पढ़ें सबकुछ उऩके बातें डिलीवर करने के अपने अंदाज में, बिना कोई मोटी एडिटिंग के।


‘डॉन-2’ में आपको खुलकर खेलने का मौका मिला है? पिछली फिल्म में स्टोरी फिक्स थी, इसमें जैसे चाहे स्टोरी आगे बढ़ा सकते थे, जहां जाना चाहते जा सकते थे, जो करना चाहते कर सकते थे?
बिल्कुल। ऐसा ही था, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। ये एक्शन फिल्म है और सही मायनों में ये मेरी पहली एक्शन फिल्म है। जो पहली फिल्म थी वो ट्रिब्यूट थी, उस ‘डॉन’ को जो 1978 में आई थी। शाहरुख है, रितेश, प्रियंका, बोमन जी हैं, ओम जी हैं। सब के सब फैन थे पहली डॉन के। तो हमने सोचा कि मिलकर उस फिल्म को ट्रिब्यूट करें। उस फिल्म को ही नहीं, उस दौर में जो फिल्में बना करती थी। मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं जिन फिल्मों से। तो इस बार मौका मिला है कि डॉन के कैरेक्टर को ऑरिजिनल स्क्रीनप्ले में डालने का, या जिस तरीके से मैं एक्शन फिल्मों को देखता-समझता हूं उस तरीके की एक्शन फिल्म बनाने का। तो ये वो मौका था जो मुझे मिला।

जब मैं प्रोमो देखता हूं ‘डॉन-2’ का, उसी वक्त ‘मिशन इम्पॉसिबल-4’ और ‘द गर्ल विद ड्रैगन टैटू’ के प्रोमो भी देखता हूं। इन्हें देख लगता है कि सबकी क्वालिटी एक ही है, एक ही रेंज की हैं, इनकी मेकिंग और रंग एक से ही हैं। तो ये बढ़िया चीज है। दूसरी चीज ये कि सब दिखने में एक जैसी हैं। ऐसे में हम कैसे पहचानें या भेद करें कि ये इंडियन फिल्म है? इंडियन आइडेंटिटी के साथ आई है? पहचान मुश्किल नहीं होती?
मतलब मैं इंडियन हूं, जो लोग हैं इस फिल्म में वो इंडियन हैं। जिस लेंग्वेज में बात करते हैं वो हिंदी है। हिंदुस्तानी जबान। कुछ दो दिन पहले शाहरुख और मैं बात कर रहे थे कि ये सवाल काफी पूछा गया है, और हमारी फिल्म की ‘एम.आई.4’ से काफी तुलना की जा रही है। तो हम लोग सोच रहे थे कि एक्चुअली इतनी अच्छी बात है और इतनी बड़ी बात है। अगर सोचने जाएं कि पांच साल पहले जब ‘डॉन-1’ रिलीज हुई थी, तो उसी साल ‘एम.आई.3’ भी रिलीज हुई थी। तो मतलब कभी ये बात हुई ही नहीं कि दोनों फिल्मों का नाम एक ही सेंटेंस में लिया जाता हो। मगर जो अवेयरनेस है इंडियन फिल्मों की, जो टेक्नीकल सैवी आ गई है हिंदी फिल्मों में, जो पॉलिश आ गई है, सॉफिस्टिकेशन आ गई है, जिस तरीके से लोकेशंस पर हम वेलकम किए जाते हैं शूट करने के लिए। और एक जो ऑडियंस बढ़ रहा है इस फिल्म का। तो एक्चुअली ये बड़ी गर्व करने की बात है। कि ‘एम.आई.’ या हॉलीवुड की बड़ी फिल्मों के साथ एक बराबरी पर हमारा नाम लिया जाए, हमारी फिल्मों की बात हो। ये बात दिखाती है कि इंडियन फिल्में कितनी बढ़ी हैं। तो मुझे उससे प्रॉब्लम नहीं है, जहां तक कहानी के फर्क का सवाल है तो ‘एम.आई.4’ अलग ही होगी, मैंने तो नहीं देखी। रितेश ने जाकर देखी, शाहरुख ने जाकर देखी। उन हॉलीवुड फिल्मों का जो अंदाज है स्टोरीटेलिंग का, वो हमारे स्टोरीटेलिंग अंदाज से अलग होता है। जब ऑडियंस देखेगी तो खुद-ब-खुद समझ जाएगी।

भाग मिल्खा भाग की शूटिंग कब शुरू हो रही है?
मार्च से शुरू हो रही है।

तो आप कैसे जुड़े, पहले राकेश ओमप्रकाश मेहरा ऑडिशन करने वाले थे मिल्खा सिंह के लीड रोल के लिए।
ये सारी डीटेल तो मुझे नहीं पता, वो तो वो ही बता सकेंगे। मगर, वो मुझे मिले ऑफिस में। और उन्होंने मुझे कुछ आधे घंटे 40 मिनट में कहानी सुनाई, मैं बिल्कुल दंग रह गया कि एक तो इतनी अच्छी कहानी लिखी है, मुझे इसमें किरदार निभाने का मौका मिल रहा है। ये बहुत ही इम्पॉर्टेंट फिल्म है हिस्सा लेने के लिए। मुझे ताज्जुब भी बहुत हुआ, जैसे आप कह रहे हैं कि ऑडिशन किया था राकेश जी ने ‘भाग मिल्खा भाग’ के लिए। दूसरे लोगों से भी बात की होगी उन्होंने। मुझे बहुत ताज्जुब था कि उन्हें इतनी मुश्किल क्यों हो रही है एक एक्टर ढूंढने में। जब कहानी इतनी बेहतरीन है। तो मैं उन सब एक्टर्स को भी शुक्रिया कहना चाहूंगा जिन्होंने शायद न की हो (हंसते हुए) इससे मुझे मौका मिल गया।

मिल्खा सिंह बनने के लिए खुद को फिजीकली कितना पुश किया?
चल रहा है, जारी है। मैं ट्रेन कर रहा हूं। सेंट्रल रेलवे के एक कोच हैं, दिल्ली के भी एक कोच हैं रितेंदर सिंह जी। वो हमारे हैड कोच हैं। उन्होंने सेंट्रल रेलवे के मुंबई में एक कोच हैं मेल्विन, उन्हें मेरा कोच बनाया है। हफ्ते में तीन दिन ट्रेन करता हूं। अभी तो इतना ट्रेवल वगैरह कर रहा हूं कि लगातार प्रैक्टिस का टाइम नहीं मिलता है। मगर देखिए ‘डॉन-2’ रिलीज होगी। फिर जनवरी से शुरू करेंगे। हफ्ते में चार दिन, और जैसे बढ़ते जाएगा तो पांच दिन और छह दिन।

स्क्रिप्ट कितनी एक्साइटिंग है?
बहुत ही ज्यादा एक्साइटिंग है। मैंने लिखी नहीं है, मैं डायरेक्टर नहीं हूं तो ज्यादा कह नहीं सकूंगा उस बारे में। किसी और की प्रॉपर्टी है, इंटेलेक्चुअल राइट्स हैं। मगर बहुत ही बेहतरीन फिल्म है। कहानी के अलावा इसमें एक पॉजिटिव मैसेज है। हम सब थोड़े कम्फर्ट में हमेशा रहने के आदी हो गए हैं। लेकिन जो आप हासिल करना चाहते हैं उसके लिए अपने कम्फर्ट से कॉम्प्रोमाइज करने को कितना तैयार हैं ये सीखने की बात है। उन्होंने (मिल्खा सिंह) इतनी कुर्बानियां दी हैं, जो वो रनर बने, किस तरीके से बने, किस तरह का मोटिवेशन था उनका, किन मुश्किलों से गुजरना पड़ा उन्हें। ये बहुत अच्छा मैसेज है आज के यूथ के लिए। यूथ में थोड़ा बहुत कनफ्यूजन हमेशा रहता है, क्योंकि मौके इतने ज्यादा हो गए हैं, उन्हें लगता है कि आसानी से कुछ भी बन सकता हूं। मगर त्याग तो करना पड़ता है। ये स्पिरिट का बहुत अच्छा मैसेज है।

एक्टिंग, डायरेक्शन, प्रोडक्शन आपने किया। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपने और जोया नेब्राइड एंड प्रेजुडिसके तीन सॉन्ग लिखे थे। वो कैसे हुआ?
एक्चुअली, गुरिंदर जी की फिल्म में मेरे पिता जावेद अख्तर साहब लिरिक्स लिख रहे थे हिंदी में। तो गुरिंदर जी ने कहा कि वो चाहती हैं कि इंग्लिश में लिरिक्स भी वो ही लिखें। उन्होंने कहा कि “दरअसल अंग्रेजी में लिरिक्स लिखने में मैं इतना कम्फर्टेबल नहीं हूं। लेकिन जोया और फरहान दोनों इंग्लिश में पोएट्री लिखते हैं, शायद मैं उनसे बात कर सकता हूं। आप मिल लीजिए, अगर लगे कि वो कुछ अच्छा लिखकर दे सकते हैं तो ठीक है।“ हमारी मुलाकात हुई गुरिंदर जी से, हमने एक गाना लिखकर दिया, और उन्हें बहुत अच्छा लगा। बस वही हुआ।

जिंदगी मिलेगी दोबारामें जावेद साहब की लिखी पोएट्री की लाइन्स आप फिल्म में बीच-बीच में जिस अंदाज में बोलते रहते हैं उसे काफी पसंद किया गया। (बहुत-बहुत शु्क्रिया), उसमें आपने खुद कुछ ध्यान रखा या जावेद साहब से बात की?
मैंने उनसे काफी बात की। मैंने उन्हें कहा कि आप मुझे रिसाइट करके टेप या सीडी में दे दीजिए। मैं सुनता रहूंगा क्योंकि एक अंदाज होता है बोलने का, जो मतलब हम डायलॉग लिखते हैं, डायलॉग बोलते हैं। जब आप नज्म पढ़ते हो या करीमा पढ़ते हो, तो उसमें जो वजन होता है, और कि कहां वजन आना चाहिए, कहां जल्दी बात निकल जाए या थोड़ा पॉज भी रहे। ये सब सीखना पड़ेगा। तो ये मैंने उनसे सीखा है। अगर घर में इतने टेलंटेड पोएट हैं तो कहीं और जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। मैं बहुत भाग्यशाली हूं इस मामले में, कि मैं उनसे इस मामले में इतनी डीटेल में बात कर सकता हूं।

आपने एचआईवी एड्स पर एकपॉजिटिवनाम की शॉर्ट फिल्म बनाई थी। उसकी मेकिंग कैसे हुई?
मेरा ये मानना है कि एचआईवी अवेयरनेस इस देश के लिए बहुत जरूरी है। ताकि आप एचआईवी अवॉयड कर सकें, सेफ्टी से अपनी जिंदगी जी सकें। एक ये भी पहलू है कि अगर आपकी फैमिली में, दोस्तों में किसी को ये इनफेक्शन हो जाए तो बहुत जरूरी है कि उनके साथ आपका बर्ताव बदले नहीं। क्योंकि वो बस एक मरीज है, उसने कोई जुर्म नहीं किया है। मतलब, लोग उन्हें कभी-कभी आउटकास्ट कर देते हैं। तो ये सब बताना-दिखना फिल्मों में बहुत जरूरी था। मीरा जी (मीरा नायर, डायरेक्टर) जो हैं उन्होंने मुझे फोन करके पूछा कि क्या मैं एक शॉर्ट फिल्म बनाना चाहूंगा। मैं खुद भी सोच रहा था कि किस तरीके से इस मुद्दे को उठाया जाए। मुझे लगा कि मैं ऐसे परिवार की बात करूं जिसमें एक मेंबर को ये इनफेक्शन हो गया है। उस फिल्म की सीडी डिस्ट्रीब्यूट हुई थी हर जगह। इंटरनेट पर भी फ्री अवेलेबल थी। सिर्फ मेरी फिल्म को ही नहीं, विशाल (भारद्वाज) ने भी एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी, संतोष सिवन ने भी एक फिल्म बनाई थी और मीरा खुद ने। चारों शॉर्ट फिल्मों को लोगों ने बहुत सराहा है।

आपने एक्टिंग कहीं सीखी, क्योंकि एफर्टलेस लगती है?
नहीं, मुझे शौक बचपन से था एक्टिंग था। जब बड़ा हुआ तो, अंदर एक आवाज होनी चाहिए जो कहे कि अब तुम तैयार हो, वो आवाज मैंने 2008 तक कभी सुनी नहीं (हंसते हुए)। इसलिए मैं दूर ही रहा हूं। क्योंकि बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है, किसी और की स्क्रिप्ट होती है, डायरेक्शन होता है, तो मतलब अपने मन को बहलाने के लिए आप एक्टर नहीं बन सकते। जब मुझे लगा कि अब मैं एक्टिंग करने के लिए तैयार हूं, मैं डिलीवर कुछ कर पाऊंगा, तब मैंने ये स्टेप ले लिया। थैंक यू अगर आपको एफर्टलेस लगी।

दिल चाहता हैको नेशनल अवॉर्ड मिला। लोगों ने सराहा। आपको पता है कि देश के अंदरुनी हिस्सों में युवाओं पर इसका कितना असर पड़ा? फीडबैक मिलता है उसका?
हां, मिलता है। तब इंटरनेट और दूसरा कम्युनिकेशन इतना था नहीं। पर जब मैं ट्रेवल कर रहा था ‘लक्ष्य’ बनाने के दौरान देहरादून, दिल्ली और लद्दाख तो ये जानकर अमेजिंग लगा कि कहां-कहां लोगों ने फिल्म देखी है। और आज भी मैं कहीं जाता हूं, जैसे अभी कुछ दिन पहले कानपुर में था, इंदौर में था, जहां भी मैं जाता हूं लोग उस फिल्म के बारे में जिक्र हमेशा करते हैं। यूथ पर इस फिल्म का बड़ा असर रहा और खुशी की बात है अगर आपका पहला काम कुछ ऐसा कर दिखाए या यादगार हो जाए। अपने आपको लकी मानता हूं।

मौजूदा फिल्मों में कौनसी पसंद है?
जो कुछ अलग कर रही हैं, जैसे एक ‘देल्ही बैली’ थी। उसने कुछ नियम तोड़े हैं हालांकि उसमें कॉन्ट्रोवर्शियल भी था। मगर मेरी ये सोच है कि अगर सिनेमा को इवॉल्व करना है तो हमें थोड़ा सा खुलना पड़ेगा। अगर एक ही नियम के भीतर घूमते रहेंगे तो लोग बोर हो जाएंगे। वही सब कुछ हो रहा है, उसी जबान में लोग बात कर रहे हैं, तो आपको बदलने की जरूरत है। थोड़ा बहुत रियल होना जरूरी है। उसके अलावा ‘डर्टी पिक्चर’ थोड़ी बहुत अच्छी लगी, वो अलग सी थी। ‘सिंघम’ मुझे एक्चुअली बहुत पसंद आई, जो एक मेनस्ट्रीम रिवाइवल ऑफ द ओल्ड फॉर्म्युला कहते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी