Sunday, April 15, 2012

जब रचनात्मक उधारी क्लीशे हो जाए तो बात जैसी-तैसी हंसी को ही मौलिकता मानकर करनी पड़ती है

फिल्मः हाउसफुल 2: डर्टी डजन
निर्देशकः साजिद खान
कास्टः अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, मिथुन चक्रवर्ती, रितेश देशमुख, जॉनी लीवर, असिन, जैक्लिन फर्नांडिस, श्रेयस तलपड़े, जरीन खान, शहजान पदमसी, चंकी पांडे, बोमन ईरानी
स्टारः तीन, 3.0

शुरू करने से पहलेः अपने व्यक्तिगत स्वाद, ज्ञान, पसंद, नापसंद, विचारधारा और मनोरंजन के पैमाने के लिहाज से मैं इस फिल्म को आधा स्टार भी दे सकता था, पर इस खास फिल्म में मैंने थियेटर में बैठे तकरीबन 95 फीसदी दर्शकों की हंसी का ख्याल भी रखा। जिनमें ऐसे भी बहुत थे जो दुनियादारी की टेंशन लेकर और कुछ रुपये खर्च करके थियेटर में आए थे, सिर्फ मनोरंजन पाने के लिए। मुझे लगा कि उस मनोरंजन को देने के लिए यहां तकरीबन तीन घंटे से कुछ कम की इस फिल्म में मेहनत की गई। बाकी पहलुओं की बात करूं तो तकनीकी रूप से भी फिल्म में कहीं कोई नजर आने वाली खामी नहीं है। अदाकारों की अदाकारी भी पर्याप्त रूप से की गई है। कहीं कोई दिखता शून्य नहीं है।

एक काल्पनिक सीन है। ब्रिटेन के मशहूर उद्योगपति जेडी बने मिथुन अपनी नौकरानी (नाटे कद की एक अंग्रेज महिला) के पीछे पेड़ के इर्द-गिर्द भाग रहे हैं। वह नाटी महिला अपने छोटे-छोटे कदमों से दौड़ रही है, दर्शक हंस रहे हैं। मिथुन अपनी धोती उठाए कुछ हल्के वहशियाना अंदाजा में पीछे-पीछे कूदते चल रहे हैं। दो चक्कर लगाने के बाद वह पेड़ के पीछे उस नौकरानी को पकड़ लेते हैं। यहां सीन खत्म हो जाता है और निर्देशक साजिद खान ने अपने अंदाज में एक पर्याप्त थोथा सीन गढ़ दिया होता है। दर्शक लापरवाह हंसी की जुगाली करते हुए अगले सीन में बढ़ जाते हैं। फिल्म में इस सीन ने मुझे जितना दर्द दिया, किसी दूसरे सीन ने नहीं। हालांकि हाउसफुल-2 की कहानी में इस सीन का कोई महत्वपूर्ण संदर्भ नहीं था, ये सीन नहीं होता तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। पर इसे रखा गया। दरअसल, अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम का किरदार अपने-अपने ससुर (ऋषि-रणधीर कपूर) को ये बताने में लगा हुआ है कि वह ही उद्योगपति जेडी के असली बेटा है, दूसरा वाला तो नाजायज है (उस नाटे कद की ब्रिटिश नौकरानी से)। बस, ये नाजायज वाला फिकरा दुरुस्त करने के लिए सीन में बौने कद वालों पर यह भद्दा मजाक किया जाता है। तो इस फिल्म में वाहियात होने की यह एक सबसे चरम मनस्थिति है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं हे बेबी या हाउसफुल का भी प्रशंसक नहीं रहा हूं। साजिद खान के बॉलीवुड के सबसे सफल निर्देशक होने के दंभ भरने और उनकी फिल्मों में नजर आने वाली सौ फीसदी रचनात्मक उधारी मुझे भविष्य में भी उनकी फिल्मों से उदासीन करती है। हाउसफुल-2’ में भी हिंदी, अंग्रेजी और एनिमेटेड फिल्मों के कई रचनात्मक पहलू उधार लिए लगते हैं, पर साजिद की फिल्म है इसलिए ये नई बात नहीं है और न ही करने की बात है, वक्त जाया होगा। एक सबसे बुरे सीन के अलावा फिल्म में फूहड़पना भी है, पर उसकी माफी भी इसलिए दी जा सकती है क्योंकि आखिर में किरदारों को नैतिक रखा गया है। मसलन, अक्षय और जॉन अपने पिता रणजीत के पास जाते हैं। अक्षय और उनके पिता के व्याभिचारी होने को इतने वक्त तक फिल्म में सेलिब्रेट किया जा रहा होता है, मगर तभी हम सुनते हैं कि रणजीत जॉन से कह रहे हैं,
मुझे इसे (अक्षय) अपना बेटा कहने में शर्म आती है।
आज तक इसने किसी लड़की को हाथ तक नहीं लगाया

जॉन चौंकते हुए अक्षय का चेहरा देखता है, कि ये अय्याश लगने वाला मर्यादित कैसे हो सकता है। दर्शकों को भी तसल्ली हो जाती है कि भई लड़का तो नैतिक है। अब सवाल है कि रणजीत तो अय्याश ही ठहरा। तो तभी, ये दोनों अपने इस डैडी को बताते हैं कि कैसे अपने दोस्त के बाप की बेइज्जती का बदला ये दोनों ले रहे हैं और चिंटू-डब्बू की बेटियों को फंसाने के बाद वो दोनों पूरी दुनिया के सामने रिश्ता तोड़ देंगे। इतना सुनते ही रणजीत अक्षय के चेहरे पर एक तमाचा जड़ देता है। अब चौंकने की बारी दर्शकों की
रणजीत कहता है,
देखो बेटा, मैंने तुम दोनों को जिदंगी में बहुत सी चीजें सिखाई हैं। लेकिन धोखा देना नहीं सिखाया। याद रखो। जिंदगी में किसी का कितना भी बुरा कर देना, लेकिन उसका भरोसा मत तोड़ना। इससे बुरा कुछ नहीं होता

कैसेनोवा की छवि वाले और आउ... जैसी वहशी ध्वनियां मुंह से निकालने वाले इस किरदार के मुंह से इतनी ऊंची बातें सुनकर हम फिल्म के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं। दो नैतिक चीजें अब तक हो चुकी होती हैं। अब आते हैं अस्पताल, जहां श्रेयस तलपड़े के किरदार जय के पिता (वीरेंद्र सक्सेना) दिल के दौरा आने के बाद से भर्ती हैं। यहां जय और जॉली (रितेश) आए हैं, और जय अपने पिता को बताता है कि वह कैसे उनके अपमान का बदला ले रहा है। इतना सुनने के बाद वह कहते हैं कि मैंने तुम्हें ये नहीं सिखाया था। ऐसा मत करो, ये गलत है। और, जय-जॉली भी बुरा रास्ता छोड़ देते हैं।

हैंगओवर जब आई तो बाथरूम में शेर होने के सीन को देख साजिद ने ‘हाउसफुल’ में भी घर में शेर वाला सीन रखा। उन्होंने नाइट एट म्यूजियम से वह सीन लिया जहां छोटा सा बंदर हीरो को थप्पड़ें मारता है, फिर उनकी फिल्म में बंदर अक्षय को यूं ही हंसाने वाले अंदाज में थप्पड़ मारता है। मैंने शुरू में ही कहा था कि रचनात्मक उधारी पर मैं कोई बात नहीं करना चाहता, इसलिए अगर ‘हाउसफुल-2’ में जॉन के हाथ और रितेश के जननांग को मुंह से पकड़ने वाला अजगर दिखता है, या अक्षय और श्रेयस के पिछवाड़े को काटने वाला मगरमच्छ होता है, तो नकल की चिंता करने के बजाय उस पर प्राकृतिक हंसी हंसना ही चतुर विकल्प बचता है। यहां मौलिकता की तो बात करनी ही नहीं है। इसके अलावा फिल्म में हंसी जरूर आती है। बार-बार आती है। जो किरदार अपनी बाकी फिल्मों में पत्थर का चेहरा बनाए रखते हैं, वो यहां भाव निकालते हैं। इन जानवरों वाले सीन में चारों अभिनेता पसीना-पसीना हो चेहरे पर अनेकों भाव लाते हैं।

फिल्म में चारों हीरोइन (असिन, जैक्लिन, शहजान, जरीन) हैं, पर सिर्फ व्यस्क फिल्मों की नजर आने वाले कामुक तत्वों जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए। उनके कपड़े भी वैसा ही होते हैं। इस लिहाज से फिल्म का मनोरंजन धीमा-धीमा एडल्ट ही होता जाता है। जाहिर है परिवार वाले दर्शकों के लिए कुछ गानों में नजर आऩे वाले उभार और झटके उनके सपरिवार फिल्म देखने के चुनाव को कठिन बनाते हैं।

फिल्म में किरदारों के हाव भाव और शारीरिक मुद्राओं से मुझे लगता है साजिद ने 'हाउसफुल-2’ बनाने से पहले चार्ली चैपलिन की फिल्में जरूर देखी हैं। उन्होंने शारीरिक कॉमेडी के अब तक ज्यादा इस्तेमाल नहीं हुए पहलू को भुनाने की कोशिश की है। जैसे, मगरमच्छ और अजगर वाले सीन में सब हीरो हैं। जैसे, आखिरी पास्ता (चंकी पांडे) एक घर के टॉयलट की खिड़की से लटककर, छत पर चढ़कर दूसरे घर में जाते हैं, फिर दूसरे से वापिस पहले में आते हैं। ये कुछ वैसा ही हास्य है। मसलन, मैंने अजगर वाले सीन जितना एक्सप्रेसिव चेहरा जॉन अब्राहम की किसी दूसरी फिल्म में नहीं देखा है। इसी धार पर श्रेयस-रितेश का भी चेहरा भी है। ये भाव एक्टर्स से निकलवाने की बधाई साजिद को जा सकती है। अगर 'पापा तो बैंड बजाएं गाने को भी देखें तो उसमें भी चारों एक्टर्स का लाइन में घुटने मोड़ते और सीधे होते हुए चलने का डांस स्टेप मूक कॉमेडी के ब्लैक एंड वाइट युग की कुछ यादें ताजा करता है।
सतही मगर तात्कालिक खिलखिलाहट के पल
# 'क्यों थक री है’ बोलते अक्षय। या बाद में मुट्ठी बांधकर उनका 'जय भद्रकाली’ बोलना।
# 'आई एम जोकिंग’ कहने का चंकी का अंदाज।
# जॉली बनकर धोखा दे रहे चारों एक्टर्स को देख दुविधा में पड़ चुके जॉनी लीवर का इंटरवल के बाद अंग्रेजी बोलने वाला सीन। और, क्लाइमैक्स में जग्गा डाकू की बंदूक से छिपे इन चारों को ढूंढते हुए अलग-अलग भाषाओं में जॉनी का बात करना। काश, जॉनी लीवर का सही इस्तेमाल हमारी फिल्मों में हो।
# सफेद रुमाल लेकर जग्गा के सामने आए चिंटू (ऋषि कपूर) गोली चलने के बाद वापिस खंभे के पीछे छिप जाते हैं और बोलते हैं, बुड्ढा पागल हो गया है। ये पूरा संवाद।
# फिल्म में असली रणजीत की एंट्री और उनका ट्रेडमार्क लार टपकाने वाला तरीका।

अगर कहानी का अंदाजा लेना हो
लंदन में रहने वाले चिंटू (ऋषि) और उनके नाजायज भाई डब्बू (रणधीर) हमेशा एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। इसी चक्कर में दोनों अपनी-अपनी बेटियों हेना (असिन) और बॉबी (जेक्लीन) के लिए लंदन का सबसे रईस लड़का ढूंढने का जिम्मा मैरिज ब्यूरो वाले आखिरी पास्ता (चंकी पांडे) को सौंपते हैं। अनजाने में चिंटू रिश्ता लेकर आए जय (श्रेयस) के पिता का इतना अपमान करते हैं कि उन्हें हार्ट अटैक आ जाता है। बदला लेने के लिए जय अपने दोस्त जॉली (रितेश) के साथ मिलकर चिंटू को सबक सिखाने की ठानता है। इसमें वह अपने पुराने दोस्तों सनी (अक्षय) और मैक्स (जॉन) को भी शामिल कर लेता है। मगर नाटक कुछ लंबा खिंच जाता है और बाद में चार पिता, उनकी चार बेटियां, चार लड़के और ढेर सारा असमंजस पैदा हो जाता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

वीडियोगेम्स में भावप्रवणता नहीं होती, फिल्मों में होती है, बैटलशिप में भी नहीं है

फिल्म: बैटलशिप
निर्देशकः पीटर बर्ग
कास्टः टेलर किच, लियाम नीसन, ब्रुकलिन डेकर, रिहाना, एलेग्जेंडर स्कार्सगार्द, तदानोबू असानो, पीटर मेकनिकोल, जेसी प्लीमोन्स
स्टारः दो, 2.0'बैटलशिप किसी वीडियोगेम की तर्ज पर बनी (असल में बच्चों के वीडियोगेम पर) फिल्म है इसलिए इसमें बहुत सी जगहें, शिप, किरदार, एलियन और एक्शन सीन है। तो हो सकता है कि बहुतेरी चीजों में बहुत असमंजस लगे, इसलिए आसान हो वही बात करेंगे। शुरू करने से पहले कह दूं कि 'डिस्ट्रिक्ट 9’ आज भी एलियंस को लेकर बनी मेरी पसंदीदा फिल्म है। 'बैटलशिप’ पर आएं तो ये अब तक की सभी कमर्शियल एलियन अटैक और अमेरिकी सेनाओं की जवाबी कार्रवाही पर बनी फिल्मों का मिला-जुला रूप है। ऐसे में जैसे इसकी कहानी चलती है उसमें कुछ नए की उम्मीद करना व्यर्थ है।

खैर, अमेरिका में हवाई के समंदर में नेवल एक्सरसाइज चल रही है। एडमिरल शेन (लियाम नीसन) चीफ हैं। इसी एक्सरसाइज में लेफ्टीनेंट एलेक्स हूपर (टेलर किच) भी हैं जो भरपूर टेलंट के बावजूद अपने खराब बर्ताव और बड़े लापरवाह रवैये की वजह से सबकी हताशा का कारण बनते हैं। वह एडमिरल शेन की बेटी समांथा (ब्रुकलिन डेकर) से प्यार करते हैं, शादी करना चाहते हैं, पर एडमिरल को कैसे कहें, ये दुविधा है। उन्होंने नौसेना का इतना अनुशासन तोड़ा है कि सस्पेंड किए जाने वाले हैं। पर तभी ब्रम्हांड में ब्रम्हास्त्र सी तेज गति से सैटेलाइट्स को तबाह करते हुए आ रहे तीन एलियन विमान समंदर में इन नेवल शिप के बीचों-बीच आ धमकते हैं। वो ऊर्जा जुटा रहे हैं और अपने ग्रह से संपर्क करना चाह रहे हैं। इन्होंने समंदर में दो शिप तबाह कर दिए हैं। अब हूपर, ऑफिसर कोरा (रिहाना, पहली फिल्म इस पॉप सिंगर की), उनके दो-तीन दूसरे साथी और कई जापानी नौसैनिक ही बीच समंदर रह गए हैं और जिन्हें बेहद ताकतवर एलियंस का मुकाबला करना है।

मैं जिन फालूदा चीजों की बात कर रहा था उनमें वो संदर्भ भी हैं, जहां रक्षा मंत्रालय में अफरा-तफरी मची हुई है और दूसरे मुल्क पर भी हमला हो गया है। ये सीन भी हमले के बाद इसी अंदाज में दिखाए जाते हैं। एक ओर हूपर और उसका दल एलियंस के सामने फंसे हुए हैं, वहीं उसकी गर्लफ्रेंड समांथा भी बाहर से एक रिटायर्ड अपाहिज अश्वेत सैनिक की मदद से कुछ करने में लगी है। पहले एलियन सर्वशक्तिमान लग रहे होते हैं, बाद में उन्हें हराने का तोड़ ढूंढ ही लिया जाता है। एक-एक चीज पहले की देखी-भाली है।

फिल्म के विजुअल इफैक्ट बिलाशक कमाल के हैं। इतने झक्कास कि क्या कहें। सिर्फ इन विजुअल्स को देखने के लिए फिल्म थियेटर में देखी जा सकती है। मगर कुल मिलाकर ये कुछ पकाती है। क्योंकि इसकी कहानी बड़ी कमजोर है। इमोशन बिल्कुल नहीं हैं। अमेरिकी देशभक्ति का जो हर बार वाला डोज यहां दिया जाता है, वो भी असर नहीं करता। निर्देशक पीटर बर्ग की इस फिल्म में स्पेशल इफैक्ट इतने उत्तम तरीके से बनाए गए हैं कि अफसोस होता है कहानी पर मेहनत क्यों नहीं की गई।

कहीं न कहीं यही गलती पीटर ने अपने पूरे फिल्मी करियर में की है। उन्होंने ड्वेन जॉनसन, जो रॉक के नाम से मशहूर हैं, को लेकर 'वेलकम टू जंगल' नाम की फिल्म बनाई। मुझे तब पसंद आई थी। खासतौर पर ड्वेन का जंगल में लोकल आदिवासी मगर कूल डूड जैसे लगने वाले फाइटर लड़ाकों के साथ द्वन्दयुद्ध। उन सीन में ड्वेन के स्टंट वाकई में कमाल कच्चे थे। 'बैटलफील्ड' में एलियंस के धातु से बने कवच उनका आकर्षण खत्म करते हैं। फिल्म में एलियन से हूपर के लड़ने का एक सीन है, जो तमाम खर्चे और विजुअल वजन के बावजूद भावहीन है। इसी तरह पीटर की विल स्मिथ के साथ 2008 में एक नवीन किस्म की सुपरहीरो फिल्म 'हैनकॉक' आई थी। टीशर्ट-हाफ पेंट और हाथ में दारू की बोतल लिए ये सुपरहीरो कमाल के यथार्थ के साथ उड़ता है। फिल्म की कहानी भी नई थी कि एक सुपरहीरो है पर वो इतना लापरवाह है कि उसका अच्छा काम भी लोगों को बुरा लगता है। ठीक वैसे ही जैसे बैटलफील्ड में हूपर को सब पोटेंशियल वाला ऑफिसर कहते हैं पर उसमें अनुशासन न होना, सबकी नजरों में उसे बुरा बना देता है। एक तरह से हैनकॉक और हूपर दोनों एक ही पिता की संतान हैं। वो पिता है डायरेक्टर पीटर बर्ग। पीटर नए तरीके जरूर खोजते हैं, पर कहानी और किरदारों का भावहीन अभिनय सारी मेहनत पर पानी फेर देता है। 'बैटलफील्ड' में हल्का-फुल्का हास्य भी है, समंदर में एलियन विमानों से बढ़िया लड़ाई भी है पर मनोरंजन की निरंतरता और कहानी में दर्शकों को फुसलाने वाले मनोवैज्ञानिक मोड़ नहीं हैं।

ये कैसी अजीब बात है कि जैसा डायरेक्टर पीटर बर्ग के साथ है कि उनके किरदारों की तरह उनमें भी प्रतिभा है पर आज तक उस प्रतिभा से वो खुद को साबित नहीं कर पाए हैं। ठीक ऐसा ही फिल्म के मुख्य कलाकार टेलर किच के साथ है। टेलर ही इस साल आई बेहद शानदार स्पेशल इफैक्ट्स वाली मगर अच्छे से नहीं बन पाई फिल्म 'जॉन कार्टर' में महायोद्धा जॉन कार्टर बने थे। मगर देखिए, समृद्ध तकनीकी प्रयोग से भरी दोनों ही फिल्मों में टेलर किच का काम दब गया।

बैटलफील्ड को वीडियोगेम के दीवाने देख सकते हैं, विजुअल इफैक्ट्स के दीवाने भी, पर जो फिल्मी कथ्य के दीवाने हैं उन्हें रास नहीं आएगी।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 14, 2012

बराबर बांटेगा भलाई, बिट्टू!

फिल्मः बिट्टू बॉस
निर्देशकः सुपवित्र बाबुल
कास्टः पुलकित सम्राट, अमिता पाठक
स्टारः ढाई, 2.5निर्देशक सुपवित्र बाबुल और निर्माताओं ने अपनी इस फिल्म को शुरू में ही इतना कमतर समझा कि 'इस बार सबकी लेगा बिट्टू जैसी घटिया पंचलाइन का इस्तेमाल करने चले। जबकि फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती तो बिट्टू के भीतर की 'मुन्नाभाईनुमा’ अच्छाई है। वह इस घोर कलयुग या कहें तो 'दूसरों के मामले में टांग नहीं अड़ानी चाहिए जैसी मॉडर्न घरेलू सीखों वाले टाइम में भी लोगों की मदद करता है। अपनी जिंदगी का बाद में और दूसरों की खुशी का ख्याल पहले रखता है। जबकि कहते हैं कि ऐसे भले काम अब डम्ब और डफर किस्म के लोग ही करते हैं, हीरो लोग तो स्टाइल मारते हैं और स्टंट करते हैं। बिट्टू व्यावहारिक है, स्मार्ट है और आदर्श है।

मगर इसे निभाने में पुलकित सम्राट गजब के नहीं लगते हैं। उनका पंजाबी एक्सेंट लडख़ड़ाता है। चेहरे पर भाव भी एकसर ही हैं। हंसने के सीन में उनका चेहरा कॉमिकल नहीं होता और रोने के सीन में कलेजा नहीं फटता। ऐसा ही अमिता की एक्टिंग के साथ है। जब उनकी किरदार मृणालिनी बिट्टू को एक चैनल हेड से मिलवाने ले जाती है, तो ऑफिस से बाहर आने के बाद उनका लडऩे का अंदाज बड़ा ही लाउड है, कर्कष है। कान दुखने लगते हैं। दुख के साथ कहूंगा कि अमिता भावहीन अभिनय करती हैं। उन्हें कुछ दिन थियेटर और नाटकों में गुजारने चाहिए। सुपवित्र बाबुल का निर्देशन इंटरवल के बाद कमाल का होता है, पर आखिर में रफ्तार और नए तरीके के क्लाइमैक्स की गाड़ी पंचर होकर चलती है। गौतम मेहरा के डायलॉग फीके हैं। लेकिन इन सबके बावजूद कहूंगा कि एक बार 'बिट्टू बॉस’ जरूर देखें। अलग लगेगा, अच्छा भी लगेगा। शिमला में शादीशुदा जोड़ों की फिल्में बनाने गया बिट्टू कैसे एक-दो कपल्स की मदद करता है, इसका लुत्फ उठाने के लिए ही सही।

इसकी कहानी एक आदर्श वीडियोग्राफर की है। कहा जाता है कि आनंदपुर, पंजाब में किसी के घर शादी की रस्में शुरू नहीं होतीं, जब तक बिट्टू (पुलकित) वीडियोग्राफर नहीं पहुंच जाए। खुशमिजाज, टशन वाला और भले दिल का बिट्टू ऐसी ही एक शादी में मृणालिनी (अमिता) से टकरा जाता है। रुकावटों के बाद प्यार होता भी है तो मृणालिनी बिट्टू के अडिय़ल मगर सच्चे रवैये से नाराज होकर कहती है कि वह कभी सक्सेसफुल नहीं हो सकता। इन बातों को दिल पर ले वह पैसे कमाने के गलत रास्ते को चुन लेता है। मगर उसके भीतर का भला इंसान क्या उसे बुरा करने देगा? नहीं करने देगा तो अमिता कैसे मिलेगी? इन सवालों के साथ कहानी नए तरीके से आगे बढ़ती है।

मेरे कलेजे को ठंडक मिली इस फिल्म के जरिए एक निर्मल कॉमिक किरदार के फिल्मों में प्रवेश से। चाहे उन्हें आगे फिल्मों में उनके मुताबिक रोल न ही मिल पाएं, पर वो यहां लुभाते हैं। उनका निभाया किरदार शिमला में बिट्टू को टैक्सी चलाते हुए मिलता है। दुर्भाग्य से इन एक्टर का नाम नहीं पता, पर परदे पर उन्हें देख कोई हंसे बिना नहीं रहेगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, April 5, 2012

"हालांकि मेरी फिल्म का हीरो सामाजिक संदेश नहीं देता, मुश्किलें दूर नहीं करता, पर मेरी फिल्में आसान होती हैं"

इमरान हाशमी से बातचीत

एक वक्त में इन्होंने फौज में लेफ्टीनेंट बनने की परीक्षा दी थी, पर सलेक्शन नहीं हुआ। फिर फिल्मों में आ गए, पर एक फौजी वाला अटल रवैया एग्जाम वाले दिनों से उनके साथ चला आया। तभी तो बुद्धिजीवियों द्वारा उन्हें बी ग्रेड एक्टर माना जाने या कॉमेडी शोज में सीरियल किसर कहकर खारिज करने की बातों ने उनपर असर नहीं डाला। उन्होंने 'गैंगस्टर' और 'मर्डर' में भी खुद को सिंगल स्क्रीन का स्टार साबित किया था, जो लोग इतने के बाद भी उन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं थे, उनके लिए 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' और 'द डर्टी पिक्चर' जैसे अलग किरदार भी आए। ये इमरान हाशमी हैं। बीते नौ साल से फिल्में कर रहे हैं। सफलता दर अपने समकालीन एक्टर्स से बेहतर है। उनकी आने वाली फिल्में हैं 'मर्डर-3', 'राज-3', 'रश', 'जन्नत-2', 'शंघाई' और 'घनचक्कर'। चूंकि मर्डर, राज और जन्नत के सीक्वल नियमित मिजाज के ही होंगे, इसलिए ज्यादा उत्साह उन्हें शंघाई, घनचक्कर और रश में देखने को लेकर है।

इमरान कहते हैं कि 'जन्नत-2' उनके लिए अब तक की भावनात्मक रूप से सबसे ज्यादा बहा देने वाली फिल्म थी। 'इमोशनल सीन्स के अलावा फिल्म में मुझे नॉर्थ इंडियन एक्सेंट पकडऩे में बहुत मेहनत करनी पड़ी।' भाषा के लिहाज से उन्हें दिबाकर बैनर्जी की फिल्म 'शंघाई' में अपने किरदार (संभवत: प्रेस फोटोग्रफर) का लहजा भी बहुत कठिन लगता है। फिल्म में वह अभय देओल और कल्कि के साथ काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता की 'घनचक्कर' में वह फिर से विद्या बालन के साथ दिखेंगे। वह बताते हैं, 'ये बड़ी फनी रियलिस्टिक कॉमेडी है। लोगों को खूब हंसाएगी। कुछ मायनों में पाथ ब्रेकिंग होगी।' वैसे अपने रोल छिपाकर रखने वाले इमरान यहां बताते हैं कि घनचक्कर में वह एक बैंक के लॉक एक्सपर्ट बने हैं। इन सबके बीच एक खास फिल्म 'रश' भी रहेगी। इसमें इमरान एक न्यूज चैनल के खोजी पत्रकार सैम ग्रोवर का किरदार निभाएंगे। (इस फिल्म के निर्देशक शमीन देसाई शूटिंग के बीच ही चल बसे, बची शूटिंग उनकी बीवी प्रियंका ने पूरी की) खैर, प्रस्तुत है उनसे हुई इस बातचीत के कुछ अंश:

आप हर फिल्म के साथ खुद को साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में कैसा लगता है जब कॉमेडी शोज में और दूसरे मंच पर आपको सीरियल किसर कहा जाता है?
मुझे इस इमेज या परसेप्शन से लगाव नहीं है। गलत भी हो सकता हूं पर शायद इन लोगों के दिमाग में है कि किसिंग मेरी फिल्मों में एक तय चीज होती है। तो वो उसे इस्तेमाल करते हैं अपने चुटकुलों में। मुझे तो इस बात को हल्के में ही लेना पड़ेगा। उसके बारे में सीरियस हो जाऊं और रोना शुरू कर दूं तो फिर मुझसे बड़ा बेवकूफ कोई हो नहीं सकता।

स्टार्स की फिल्में हिट या फ्लॉप होती हैं तो उनके करीबी उन्हें बताते हैं कि इसमें तुम्हारा काम ऐसा था। ये बुरा था ये अच्छा था। आपको ये फीडबैक कैसे मिलता है? दोस्त बताते हैं या आप खुद अनजान जगहों पर जाकर लोगों को सुनते हैं, थियेटरों में जाते हैं?
फैमिली और फ्रेंड्स हैं। वह बताते हैं। दूसरा, मैं खुद सिंगल स्क्रीन थियेटर्स में जाता हूं। वहां बैठकर लोगों के बीच फिल्में देखता हूं। छोटे शहरों में खुले दिल से लोग बताते हैं। फिल्म जैसी होती है बिल्कुल दिल से वैसा बता देते हैं। पसंद आती है तो गले लगाते हैं, पसंद नहीं आती तो सीधा मुंह पर कहते हैं। मुझे उनका रिएक्शन पसंद आता है। मुंबई जैसी बड़ी जगहों के मल्टीप्लेक्स में लोगों का रिएक्शन ईमानदार नहीं होता। वो हाथ मिलाते हैं, ऑटोग्राफ लेते हैं बस। तो मैं वहां नहीं जाता।

ये आपकी फिल्मों के चयन में भी नजर आता है। आप चुनते भी वही हैं जो आसानी से समझ आती हों। जो बौद्धिक तौर पर लोगों को डराने की बजाय उन्हें हल्के से एंटरटेन करके निकल जाए। क्या आप इरादतन वैसी फिल्म चुनते हैं या अब तक वैसी ही मिली हैं?
मैं ये समझता हूं कि जिस फिल्म में सरल बात कहनी होती है वही सबसे ज्यादा टफ होती है। सब्जेक्ट तो हर तरह के आते हैं पर मेरी फिल्मों में कोशिश ये रहती है कि आसानी से बात कही जाए। समझने में कहीं कुछ बोझ न लगे। हां, मेरी फिल्मों में ये बातें गहरे अर्थों में नहीं कही जाती है। मेरी फिल्म का हीरो आपको कोई मैसेज नहीं देता, आपकी परेशानियों को सुलझाता नहीं है। कहानी काल्पनिक भी होती हैं पर कहीं न कहीं ये आपकी असल जिंदगी से आकर मिलती हैं। आपको लगता है कि हां, फिल्म में कुछ न कुछ सच्चा है।

कुछ इंडियन फिल्मों के हीरो लोग की आदत होती है कि वो फिल्म करेंगे, उसके बाद इंट्रोवर्ट हो जाएंगे जब तक रिलीज होती है। फिर दूसरी फिल्म में जुट जाएंगे, ज्यादा विज्ञापन नहीं करेंगे और खुद को थोड़ा रहस्यमयी रखेंगे, ताकि उनकी अगली फिल्म आए तो लोगों को देखने में मजा बहुत आए। जैसे, अनिल कपूर हैं। विज्ञापन नहीं करते हैं, या दूसरे स्टार्स हैं। क्या आपने भी ऐसा सोच रखा है या अनजाने में ही आपकी ऐसी छवि बन गई है?
मैं विज्ञापन नहीं करूंगा ऐसा तो कोई प्रण नहीं ले रखा। पर, व्यक्तित्व की बात पर कहूंगा कि ओवर एक्सपोजर से जो मिस्ट्री एलीमेंट यानि रहस्य वाला तत्व है वह चला जाता है। 'स्टार्स शुड बी एनिग्मेटिक।' अगर ऐसा नहीं होता और आपके बारे में लोग सबकुछ जान जाएंगे तो मजा नहीं आएगा। खासकर मेरी फिल्मों में, मैं ऐसे ही कैरेक्टर करता हूं। मेरी फिल्मों के कैरेक्टर्स में थोड़ा रहस्य वाला तत्व होता है और मेरी पर्सनल लाइफ में भी वैसी ही मिस्ट्री मैं बनाकर रखता हूं। इससे लोग मेरे बारे में कम जानेंगे और ये मेरी फिल्मों के किरदारों को और जानने लायक बनाएगा।

अंतर्मुख से
# फिल्में: ज्यादा नहीं देखता, शूटिंग में बिजी रहता हूं।
# कुछ तो पसंद होंगी: हां, राजकुमार गुप्ता की 'नो वन किल्ड जैसिका', दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' और मिलन लुथरिया की फिल्में।
# किसी भी सीन से पहले: अपनी लाइन याद करता हूं। माहौल में घुसता हूं। दूसरे एक्टर्स से बात करता हूं। निर्देशक से बात करता हूं।
# अनुभव कहां से सीखते हैं: लाइफ से जुड़ा रहता हूं। हर चीज ईमानदारी से देखता हूं। विश्लेषण करता हूं। यह ही तय कर रखा है।
# घर का इंटीरियर: मैंने, मेरे डैड और मेरी वाइफ ने मिलकर डिजाइन किया है।
# पसंद है: ट्रैवल करना।
# फिल्मी पार्टीज: बोरिंग लगती हैं।
# दोस्तों की पार्टीज: ...में जाता हूं।
# बेटा अयान: फरवरी में दो साल का हुआ है। जिम्मेदारी है। सही से निभाने की कोशिश कर रहा हूं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

हैपी हंगर गेम्स! मुबारकबात में छिपा गूढ़ सामाजिक व्यंग्य, पहचान सको तो पहचानो, बाद में मत बोलना बताया नहीं था

Happy Hunger Games. May the odds be ever in your favour.

फिल्मः द हंगर गेम्स (अंग्रेजी)
निर्देशकः गैरी रॉस
कास्टः जैनिफर लॉरेंस, जॉश हचरसन, डोनल्ड सदरलैंड, वेस बेंटली, वूडी हैरलसन, लियाम हैम्सवर्थ
स्टारः तीन, 3.0डायरेक्टर गैरी रॉस की ये फंतासी फिल्म हमारे दौर के समाजों के लिए बहुत रेलेवेंट है। इसकी सतह पर ठीक-ठाक मनोरंजन चलता रहता है, जिसे देखा जा सकता है। वहीं दूसरी परत पर रिएलिटी शोज और लोगों को मूर्ख बनाकर रखने की सरकारों की साजिशों पर टिप्पणी भी चलती रहती है। मतलब सामाजिक बहस की बहुत सारी चीजें मिलती हैं। जैसे, हंगर गेम्स नाम के खूनी ग्लैमर भरे टीवी प्रोग्रैम के पीछे का क्या मनोरंजन निर्माण है, पता चलता है। फिर कैसे पेनम देश का प्रेसिडेंट कोरियोलिनस (डोनल्ड सदरलैंड) 'उम्मीद’ और 'राष्ट्रभक्ति’ जैसे शब्दों में लोगों को बरगलाए रखता है।

इन गेम्स के ऑर्गनाइजर सेनेका (वेस बेंटली) से वह कहता है...
हम हर साल इन गेम्स में एक विनर का कंसेप्ट क्यों रखते हैं?
डिस्ट्रिक्ट्स को डराना ही हो, तो हम हर साल कोई 24 लोग चुनकर उन्हें सीधे गोली भी मार सकते हैं।
लोग डरे रहेंगे और प्रोसेस भी छोटा होगा। पता है क्यों?
होप।
लोगों को होप देने के लिए।
उम्मीद देने के लिए।
क्योंकि उम्मीद एक अकेली ऐसी चीज है जो डर से ज्यादा मजबूत होती है

फिल्म से दो पल के लिए बाहर आकर देखें, तो क्या ये उम्मीद वाला जाल हमें हमारे चारोंमेर बुना हुआ नहीं दिखाई देता? हमारे टीवी कार्यक्रमों में? हमारी सरकारों के बयानों में? खैर आगे बढ़ते हैं। इन गेम्स में यंग केटनिस एवरडीन और पीटा मलार्क का मैंटोर (जैसे हमारे सिंगिंग और डांस रिएलिटी शोज में मैंटोर होते हैं) हैमिच (वूडी हैरलसन) है, जो एक बार ये गेम्स जीत चुका है। वो दिल का भला है, पर इस तंत्र से भीतर तक इतना ऊब चुका है कि शराब पीता रहता है। उसने सारी आशाएं त्याग दी हैं। किसी क्रांति की या बदलाव की उम्मीदें छोड़ दी हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमने छोड़ी हैं। या फिरदामिनी के गोविंद (सनी देओल) ने छोड़ दी थी, जब तक कि किसी पराई कमजोर नौकरानी ऊर्मी को न्याय दिलाने के लिए अपनी जिदंगी दाव पर रख देने वाली दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्रि) उसे नहीं मिल गई थी। जो काला कोट उसने उतार फेंका था, वह उसने फिर से पहना। शराब छोड़ी और इंदरजीत चड्ढा (अमरीश पुरी) को कोर्ट में धूल चटाई। ‘दामिनी’ का ये संदर्भ ‘हंगर गेम्स’ पर बिल्कुल खरा उतरता है। क्योंकि जब डिस्ट्रिक्ट एक और दो के प्रशिक्षित प्रतियोगी लड़के-लड़कियों की आंखों में खून बहाकर ये रिएलिटी शो जीतने की अमानवीयता नजर आ रही होती है, ठीक उसी वक्त हैमिच को किशोरवय लड़की केटनिस की आंखें नजर आती हैं। मेहनतकश, पुरुषार्थ और सदाचार से भरी आंखें। हैमिच गलत नहीं होता। केटनिस अपनी अच्छाई नहीं छोड़ती। ग्लैमर और सत्ता के भटकाव के किसी भी मोड़ पर नहीं छोड़ती। जो क्रांति नामुमकिन लगती है, वह संभवतः आती है। सुजैन कॉलिन्स के 2008 में लिखे इस उपन्यास (हंगर गेम्स) के दूसरे (कैचिंग फायर) और तीसरे (मॉकिंगजय) भाग में। जो आप संभवतः फिल्म के दूसरे और तीसरे सीक्वल में देख पाएंगे।

शुरू में हैमिच इन लड़के-लड़की को टालता रहता है, पर बाद में वह भी अपने स्तर पर कोशिशें करता है। अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि शुरू के एक-दो सीन के अलावा हैमिच कहीं भी शराब की बोतल पकड़ लड़खड़ाते नहीं दिखता। हमारे गोविंद की तरह। हैमिच हमें और केटनिस-पीटा को स्पॉन्सरशिप के छल के बारे में बताता है। वह सीधी-स्वाभिमानी केटनिस को सिखाता है कि जब ये खेल शुरू होगा तो तुम्हें जिंदा रहने के लिए खाने-पीने, दवा और पानी की जरूरत होगी। उसके लिए स्पॉन्सर चाहिए। और, स्पॉन्सर तभी मिलते हैं जब लोग तुम्हें लाइक करें। (इस लाइक शब्द की माया बड़ी भारी है, जो फेसबुक जैसे माध्यमों पर अनाज मंडी में बिखरे गेहूं के दानों जितनी असंख्य हो रही है, बहुत कुछ सोचने की गुंजाइश है अभी) जब खेल शुरू होते हैं तो हैमिच खराब सिस्टम के भीतर रहते हुए ही कुछ न कुछ करता है। आग के घावों से तड़प रही केटनिस के लिए मरहम भिजवाता है। स्पॉन्सर्स के जरिए। बाद में दर्शकों को मसाला देने के लिए केटनिस और पीटा के बीच के अनाम रिश्तों को लव स्टोरी बनाकर बेचा जाता है। हालांकि असल में होता बस इतना ही है कि पीटा मन ही मन केटनिस को बहुत पहले से चाहता है। वहीं वह पीटा की एक भलाई को कभी नहीं भूल पाई है। कि एक वक्त में जब वह भूख से किलबिला रही थी, बेकरी वाले के बेटे पीटा ने जानवरों के लिए रखी ब्रेड चुपके से उसके लिए फेंकी थी। केटनिस कृतज्ञ है, पर पीटा कहता है कि मुझे तुम्हें कुछ और गरिमामय तरीके से वह ब्रेड देनी चाहिए थी।

हंगर गेम्स की कहानी पर आते हैं। पेनम देश के डिस्ट्रिक्ट-12 में रहती है 16 साल की केटनिस एवरडीन (जैनिफर लॉरेंस)। घर में मां और इस साल 12 की हुई बहन प्रिम है, जिसे वह जान से ज्यादा प्यार करती है। यहां के अत्याधुनिक महानगर 'द कैपिटॉल’ का बाकी मुल्क पर नियंत्रण है। बाकी सब जिलों में गरीबी है। सालाना होने वाले 'हंगर गेम्स’ में 12 जिलों से 12 से 18 साल के दो लड़के-लड़की लॉटरी से भेंट (बलि, फिल्म में इन्हें ट्रिब्यूट कहा जाता है) के तौर पर चुने जाते हैं। हिस्सा लेने वाले 24 यंगस्टर्स में से 23 मरते हैं और एक जीतता है। किसी रिएलिटी शो की तरह इसकी तैयारी और प्रसारण होता है। तो इस बार 74वें हंगर गेम्स में प्रिम चुन ली जाती है, पर उसे बचाने के लिए बड़ी बहन केटनिस वॉलंटियर करती है। उसके साथ डिस्ट्रिक्ट-12 से पीटा (जॉश हचरसन) को चुना जाता है।

इस फिल्म में किसी अच्छी फिल्म वाले पलों को महसूस करना हो तो ऐसा ही एक पल कहानी के इस मोड़ पर आता है। जब ट्रिब्यूट्स का नाम पुकारे जाने के बाद वहां सामने खड़े लोगों के चेहरों पर मरघट सी शांति छा जाती है। बाद में जब उन्हें रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए गाड़ी घर आती है तो गाड़ी में बैठने के बाद पीटा रोने लगता है। वह रो रहा है और उसे ले जाने आई हंगर गेम्स की प्रतिनिधि, मेकअप में पुती (फिल्म में दिखाए गए आधुनिक वक्त में पहने जाने वाले सभ्रांत इंग्लिश-फ्रेंच कपड़ों के फैशन के साथ) ऐफी (एलिजाबेथ बैंक्स) इन खेलों की बर्बरता से नावाकिफ राखी सावंत जैसी सतही समझ लिए बोलती जाती है...
कि तुम्हें खुश होना चाहिए,
कि तुम दोनों अपने देश के लिए चुने गए हो,
जिसके लिए लोग तरसते हैं,
अब तुम हीरो हो जाओगे

यानि वह अवसरों, फेम और महानगरीय लालचों की बातें बड़बड़ा रही होती है। और, एक आम आदमी की लाचारी, बेबसी और भलमनसाहत लिए पीटा आंखों से पानी टपका रहा होता है। उसे पता है कि उसे एक ग्लैमर के जहर से बने टीवी रिएलिटी शो की भेंट चढ़ जाना है। वजह सिर्फ इतनी सी है कि उसके इस मुल्क में लोकतंत्र नहीं है, जो तथाकथित लोकतंत्र है भी, वो लोगों को कितना भरमाए रखता है। मनोरंजन, महानगर और विकास के असंवेदनशील खोखले नारों में।

जिला-12 से केटनिस-पीटा दोनों को रॉयल ट्रेन में महानगर लाया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे ऑडिशन होने के बाद छोटे-छोटे कस्बों से प्रतिभागियों को मुंबई लाया जाता है, ईंटो या लकड़ी के घरों में रहने वालों को दानवाकार चमकीली ईमारतों वाले इस महाशहर में। महाशहर लाकर इनके शरीर को रगड़कर-बाल उतारकर ब्यूटी डिजाइनिंग और वस्त्र सज्जा की जाती है। अलग से होटलनुमा फ्लैट्स में ठहराया जाता है। फिर इवैल्यूएशन की नौटंकी शुरू होती है। जैसे इंटरव्यू में या जजेज से सामने डांस रिएलिटी वाले या सिंगिंग रिएलिटी वाले प्रतिभागी परफॉर्म करते हैं, उसी तरह फिल्म में होता है। केटनिस-पीटा दोनों हॉल के बाहर बैठे हैं। नाम पुकारा जाता है, केटनिस अंदर जाती है, वहां उसे अपना कोई टेलंट दिखाना है और जो जज करने वाले सिविलाइज्ड वनमानुष वहां ओपेरानुमा हॉल की बालकनी में बैठे हैं, उनका ध्यान सोशलाइट्स की तरह बातें करने पर है। कोई उसपर ध्यान नहीं देता। वह अपना नाम पुकारकर कहती है,

डिस्ट्रिक्ट 12 से इवैल्यूएशन के लिए केटनिस ऐवरडीन हाजिर है...”

सब स्थिर होते हैं, बैठते हैं, वह धनुष चलाती है, पहला तीर निशाने से जरा दूर लगता है। सब हंसते हैं और फिर से बातों में बिजी हो जाते हैं। केटनिस का अगला तीर टारगेट के सीने में लगता है, मगर कोई उसे देख नहीं रहा होता है। वो वहां डिनर टेबल पर रखे भुने सूअर के इर्द-गिर्द खड़े होकर हंसी-ठिठोली कर रहे होते हैं। इतना देखने के बाद केटनिस का अगला तीर सूअर पर जाकर लगता है। सब भौंच्चके रह जाते हैं। फिर वह एलीट दर्शकों के समक्ष झुकने के किसी बैले डांसर वाले अंदाज में पीछे घुटनों को मोड़कर सिर झुकाती है (उनका मजाक उड़ाते हुए) और कहती है, इन योर कंसीडरेशन सर ये हिस्सा बेहद आनंददायी होता है।

डेथ रेस जैसी तमाम ऐसी फिल्में जो हमारे लिए खून-खराबे वाली कचरा फिल्मों की श्रेणी में आती है, हमें बार-बार आने वाले वैश्विक समाज का आइना दिखाती है। जब टीवी का प्रकोप किस हद तक बढ़ जाएगा। प्रैक्टिकल होने और जो लोगों को पसंद आता है वो दिखाते हैं...’ वाले पूंजावादी तर्क पर हमें सोचने को बहुत कुछ देती हैं। ‘हंगर गेम्स’ इनसे अलग है। और, इसे अलग बनाते हैं गैरी रॉस अगर याद हो तो नौ साल पहले गैरी ने ही टॉबी मैग्वायर को लेकर सीबिस्किटजैसी शानदार स्पोर्ट्स बायोपिक बनाई थी। कम कद के कुछ गैर-मैचो घोड़े सीबिस्किट और उसके जॉकी रेड की ये कहानी हीरो या विजेता की तय छवि के बिल्कुल उलट बनाई गई थी। गैरी ने इसका निर्देशन किया था। फिल्म बड़ी सराही गई।

हंगर गेम्स जरूर देखें। और कुछ अलग दृष्टिकोण के साथ देंखें। क्योंकि ऐसा बार-बार नहीं होगा कि मनोरंजन के पूरी तरह पूंजी आधारित हो चुके इस मीडियम में हर बार कोई मुद्दों को इतने सार्थक ढंग से सिस्टम की नजरों से बचाकर फिल्म में डाल पाएगा। गैरी रॉस ने डाला है और कॉलिन्स ने लिखा है, तो विमर्श करिए। फिल्म में कुछ अश्वेत किरदारों के जरा वाद-विवाद की गुंजाइश युक्त चित्रण के साथ करिए। करिए जरूर।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, April 3, 2012

आमिर खानः मुलाकात फिल्म मार्केटिंग के सिद्ध गुरू से, बात सत्यमेव जयते, टेलीविजन में प्रवेश और प्रचार के तरीकों की

कोई पांच महीने पहले अक्टूबर में, मुंबई में, आमिर से बात-मुलाकात हुई थी। उस वक्त उन्होंने सत्यमेव जयते(तब नाम तय न हुआ था) और अपने टेलीविजन में आखिरकार प्रवेश करने के बारे में पहली घोषणा की थी। कम्युनिकेशन या सम्प्रेषण की कला में तो वह माहिरों के माहिर हैं ही। इसलिए बात करने में मिलनसार, मृदुभाषी, मुस्काते हुए और चतुर लगने ही थे। लगे भी। हालांकि इस आभा में कितना अभिनय था और कितनी असलियत ये जानता था। पर इतना भीतर तक व्यक्तित्व विश्लेषण में जाने की कोई वजह नहीं थी। हालांकि जाना। पर ये विश्लेषण बातें करने या लिखने में यहां थोपूंगा नहीं। तो इस दौरान उन्होंने सामूहिक सवालों के चतुराई से जवाब दिए और बाद में मार्केटिंग को लेकर अपनी समझ शायद पहली बार इतने विस्तार से बताई। (जो शायद आप सिर्फ यहीं पढ़ पाएंगे)। मैं नहीं समझता कि जो लोग फिल्में बनाना चाह रहे हैं, या बना रहे हैं या फिल्म लेखन के लिहाज से हैं, उन्हें प्रचार करने की मानसिकता पर इतनी बेहतरीन सीख मिल पाएगी। क्योंकि आमिर ने अपनी हर फिल्म के साथ दर्शक खींचकर दिखाए हैं। चाहे उन्हें बरगलाकर या चाहे ईमानदारी से।

लोगों नेथ्री ईडियट्स देखी।गजनीके वक्त पहली बार मार्केटिंग में फिजीकल प्रयास होते देखे। सिर मुंडाए गजनी के पुतले तो थे ही, साथ ही सिर मुंडाए लड़के भी मल्टीप्लेक्सेज में खड़े किए गए। आमिर खुद इसी लुक में जगह-जगह गए।डेल्ही बैली में उनका पैसा लगा था। उन्हें पता था कि लगान, सरफरोश और थ्री इडियट्सजैसी फिल्मों से उन्होंने एक संदेश देने वाले सामाजिक स्टार की जो छवि इतने वक्त में बनाई है, वो ‘डेल्ही बैली’ में इस्तेमाल हुई अभद्र भाषा और इशारों की वजह से रिसेगी। पर उसमें भी उन्होंने दिमाग लगाया। टीवी पर ट्रैलर्स के साथ ऐसे प्रोमो आने शुरू हुए जिनमें वह सीन में आते हैं और सोफे पर बैठ अपने दर्शकों को संबोधित करना शुरू करते हैं। वह करते हैं कि मैंने इतने साल में जो इज्जत कमाई है वो ये लड़के (इमरान, वीर, कुणाल) डुबोने वाले हैं। क्योंकि इस फिल्म में ऐसे बहुत से शब्द और सीन हैं जो बच्चों और फैमिली के देखने लायक नहीं हैं। बाद में तीनों एक्टर उनके पास आकर बैठते हैं। उनसे बात करते हैं कि आमिर भी चिढ़कर गाली देने लगते हैं। फिर कहते हैं सॉरी।

... तो ये उनका फंडा बड़ा चला। जनता की अदालत में बरी भी हो गए फिल्म की अश्लीलता को स्वीकार करके और फिल्म चल गई तो प्रॉड्यूसर के तौर पर खूब पैसे भी बना लिए। ये नमूना है उनके प्रचार करने के अनूठे तरीकों का। पीपली लाइव के वक्त फिल्म में एक किरदार पान-चिप्स की दुकान के आगे खड़ा होकर आमिर खान को मार्केटिंग और फिल्में चलाने का ज्ञान दे रहा होता है। लोगों को ये अनूठा लगा कि देखो जिसकी फिल्म है, उसी की इतनी खुलकर टांग कोई फिल्म में खींच रहा है। इस दौरान अपनी व्यक्तिगत रणनीति के तहत वो गुम हो गए। बोले ढूंढ के दिखाओ कंपीटिशन है। कोई खोजे तो सही। वो इंडिया के अलग-अलग हिस्सों में भेष बदलकर घूमते रहे और वीडियो वेब पर अपलोड करते रहे। इस तरह के किस्से खूब हैं। उनका मार्केटिंग मिजाज कयामत से कयामत तक के वक्त से है। जब वह पैदल भागकर ऑटो, टैक्सी, बस स्टैंड और मुंबई में जगह-जगह पोस्टर लगा रहे थे और लोगों से उनकी फिल्म देखने आने के लिए कह रहे थे।

अब जब बारी टीवी की आई तो उन्होंने बड़ी पूर्व स्थिति में ही लोगों को अवगत करवा दिया कि मैं टीवी पर आ रहा हूं, और इस स्ट्रॉन्ग और पावरफुल मीडियम का मुझे सही और अच्छा इस्तेमाल करना है। उनके ये कहने के कुछ महीने बाद कल अप्रैल की दो तारीख को प्रमोशन के दूसरे चरण के तहत तीन स्मार्ट वीडियो सत्यमेव जयतेकी वेबसाइट (कुछ घंटे पहले ही) बनाकर अपलोड कर दिये गए हैं।

पहले प्रोमो में वह घर में बालकनी सी किसी जगह में बैठे थाली में कुछ निवाले लिए, खाना खाते हुए, कह रहे हैं, आजकल इतना कियोस है. इतने चैनल्स, इतने टीवी चैनल्स, मीडिया। हम लोग एक दिन देखते हैं, दूसरे दिन भूल जाते हैं। आंखों से मत देखो, दिल से देखकर देखो। शो का नाम होना चहिए, दिल से देखकर देखो (आखिर में अंगुलियां चाटते हुए गुनगुनाते हैं, दिल देके देखो, दिल देके देखो...) इस पहले प्रोमो को उन्होंने बड़ा हल्का और गैर-प्रोमो जैसा रखा है। वह किससे बात कर रहे हैं ये नहीं दिखाया गया है। वह जनता को बोल रहे हैं, पर अप्रत्यक्ष तौर पर। उनकी थाली स्टील की है। आमतौर पर स्टार लोग स्टील की थाली में यूं ही घर में कहीं भी बैठकर खाना खाते होंगे, ये धारणा बन नहीं पाई है। यहां इस चीज को भुनाया गया है। दूसरा, थाली खाली ही है। दो निवाले हैं बस। खैर, इस पर दर्शक की नजर भी कहां जाती है। प्रोमो की स्क्रिप्ट बड़ी सीधी, सरल और छोटी है। मीडिया के जरिए ही प्रचार कर रहे हैं। कह रह हैं, हर दूसरे दिन जनता पहले को भूल जाती है। इसी भूल जाने – न भूल जाने के क्रम में ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि उनके प्रोग्रैम का प्रोमो लोगों को याद रहे। आखिर में लाइन तो ये आ रही थी कि दिल से देखो। जो अब एक महा घिसीपिटी लाइन फिल्मों में हो चुकी है। कि दिल से करो, दिल से देखो, दिल से सोचो, दिल से फैसला लो, दिल की सुनो। न जाने क्या-क्या। यहां ये किया गया कि दिल से देखो की बजाय आमिर कहते हैं दिल से देखकर देखो। फिर कहते हैं प्रोग्रैम का नाम भी यही होना चाहिए था। हो सकता था, बिल्कुल, किसने रोका था। आप ही बनाने वाले, पैसा लगाने वाले। पर ये तो बातें हैं साहब।


दूसरा प्रोमो कुछ यूं है कि यहां वो संभवतः अपने दोस्तों के साथ (या सत्यमेव जयते बनाने वाली टीम के सा, जिसमेंजॉकोमॉनके डायरेक्टर सत्यजीत भट्कल भी हैं, जिनसे मैं मिला था और तब उन्होंने प्रोग्रैम के बारे में कुछ भी बताने से मना कर दिया था। और, दोपहर के खाने की प्लेट थामे वहडेल्ही बैलीपर मेरे ख्याल जान रहे थे। उन्हें पसंद आई ये फिल्म, मुझे जिन आचार संहिता वाली वजहों से नापसंद आई उनपर टिप्पणी देते हुए खाना खा रहे थे। मैंने कहा फैमिली नहीं देख सकती साथ, वो बोले तो क्या हुआ। फैमिलीज को बदलना चाहिए मैंने कुछ गुस्से में कहा, भारत को किस तरह बदलना चाहिए या क्या करना चाहिए या उसका मनोरंजन कैसा हो ये मुंबई क्यों तय करे जाहिर है, वो जरा खफा हुए।) घर के किसी कमरे में बैठे हैं। उनका एक दोस्त कहता है, अरे आमिर, यार इतना रुलाएंगे क्या पब्लिक को?” आमिर कहते हैं, उल्टा बोल रहा है तू, रोने दे पब्लिक को, गुस्सा आने दे। (यहां कॉफी या ब्लैक टी का सिप लेते हुए..) एंटरटेनमेंट का मतलब ये थोड़े ही है कि बस हंसाते रहो। दिल पे लगनी चहिए। दिल पे लगेगी ना, तो बात बनेगी। अंत मैं चलते-चलते अपनी पिछली तमाम बातों से बेपरवाह होने के अभिनय के साथ (लोगों यहीं आप लोग बनते हो) वह बड़बड़ाते हैं, शक्कर नहीं डाला इसमें (मग में देखते हुए)। तो बड़ा सिंपल है इसका विश्लेषण करना। ‘सत्यमेव जयते’ में अपनी कहानियों के साथ आमिर के सामने बैठने वाले लोग खूब रोने वाले हैं, साथ में हरसंभव है कि आमिर भी आंसू बहाएंगे। सच्चे-झूठे का नहीं कह सकता है, पर एक एक्टर अपने भीतर के एक्टर को नहीं निकाल सकता। दूसरा मान मन भी तो वैसा ही है न, सामने वाले के मन की बात निकलवाने के लिए पटाकर उसके दिल में घुसता है। कुछ अपनी गम भरी कहानी सुनाता है। सामने वाला आश्वस्त हो, उसे खुद सा समझ अपनी निजी जिंदगी उसके सामने उघाड़कर रख देता है। आसुंओं का सैलाब आता है। एंकर आमिर ये सैलाब निकलवाएंगे भी और उन्हें इसके संभालना भी होगा।


तीसरा वीडियो भी घर में शूट हुआ है। इसमें भी टीशर्ट पहने वह घर में कहीं सोफे पर बैठे हैं। अपनी बिल्ली के माथे पर अंगुलियां फिरा रहे हैं। कह रहे हैं, मैं क्या चाह रहा हूं कि अम्मी और जो हमारे घर में काम करती हैं , फरजाना, वो दोनों साथ में बैठकर ये शो देखे। मेरे रिश्तेदार बनारस में, किरण के पैरेंट्स अम्मा-अप्पा बैंगलोर में (यहां उनकी आंखें तीनों प्रोमो में से पहली बार कैमरे के लेंस में सीधा देखती है, यानी हमारी तरफ) एक साथ बैठ कर देखें। हाथ में चाय के पारदर्शी क को होठों के करीब लाते हैं, फूंक मारकर सिप को कुछ ठंडा करते हैं, तभी मुट्ठी बांधकर ऊपर लाकर कह उठते हैं, सबका अपना शो हो। हर जिंदगी से टकराए। इस प्रोमो के पीछे के संकेत ये भी हैं कि चूंकि स्टार ग्रुप के तमाम चैनलों पर (कम से कम आठ) ‘सत्यमेव जयते’ एक वक्त पर एक साथ टेलीकास्ट होगा। जाहिराना तौर पर प्राइम टाइम में ही, ताकि सब लोग साथ देखें। तो यहां उन्होंने विज्ञापन की शक्ल में लोगों को ये घुट्टी पिलाई है कि मेरी अम्मी, घर में काम करने वाली फरजाना, किरण (डायरेक्टर धोबी घाट, आमिर की दूसरी बीवी) के बैंगलोर में बैठे अम्मा और अप्पा सब साथ बैठकर ये शो देखेंगे और ये हर तरह के आदमी की जिदंगी को कहीं न कहीं छूएगा। तो जरूर देखें।


तीनों प्रोमो इतने हल्के और गैरइरादतन अंदाज में बनाए गए हैं कि लोगों को भनक भी नही लगेगी कि कितनी आसानी से इस प्रोग्रैम सत्यमेव जयते को देखने का मन आपमें अबूझे ही ब चुका होगा। ये सारी बातें इस कार्यक्रम या आमिर पर कोई टिप्पणी नहीं हैं, बल्कि मार्केटिंग के गर्भ को समझने की कोशिश है। आप लोग समझें। समझेंगे तो कोई आपके मनोरंजन के टेस्ट के साथ खेल नहीं सकेगा। चूंकि ये प्रोग्रैम टीवी पर जब जून में आना शुरू होगा तो बहुत भीड़ खींचेगा। और उस दौरान होता यही है कि दुनिया की भेड़चाल शुरू हो जाती है। सब की देखादेखी आप भी कोलावेरी डी चबाने लगोगे, वो भी स्वेच्छा से नहीं, अप्रत्यक्ष मनोवैज्ञानिक आंधी के बहाव में। तो विश्लेषण करिए।

मुंबई में आमिर से मिलने के दौरान वहां मौजूद स्टार इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ उदय शंकर ने एक टिप्पणी की जो नई बात बताती है। उन्होंने आमिर के साथ काम करने के अनुभव पर कहा, मैं अपनी पूरी लाइफ में इतना चैलेंज्ड नहीं हुआ जितना आमिर के साथ काम करते हुए। मैंने मीडिया में एक ट्रैनी की तरह काम शुरू किया था। डरते हुए हर दिन मीटिंग में घुसता था, अभी आमिर के साथ मीटिंग करनी हो तो वैसे ही डरते हुए घुसता हूं। क्योंकि जिन चीजों के लिए मैं लगातार आश्वस्त रहा हूं कि ये तो ऐसे ही होता है, आमिर के साथ मीटिंग में पांच-पंद्रह मिनट में ही लगता है कि नहीं ये ऐसे नहीं होता है। मेरे सारे पूर्वानुमान और धारणाएं ध्वस्त हो जाती। उदय मीडिया की दुनिया में आगंतुकों और महत्वाकांक्षियों के लिए आदर्श हैं। कैसे स्टार न्यूज से होते हुए वो मार्केटिंग और बेचने की कला में सिद्धस्त हुए और बड़े ओहदे पर पहुंचे।

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खैर, इन तमाम बातों के बाद हम पहुंच गए हैं, उस बातचीत पर जो सबसे खास है। आलोचनात्मक होने के बाद अब समझने के नजरिए में घुसे तो बड़ी रोचक फिलॉसफी आमिर खान की है, प्रचार करने के तरीकों को लेकर। अपनी फिल्मों को आर्ट और कमर्शियल कहे जाने को लेकर। गौर से पढ़िए और एक सिद्ध फिल्मकार-एक्टर के वाकिफ होइए। उनके बातचीत के कुछ अंश:

आपकी मार्केटिंग शैलियों की बड़ी बातें होती हैं। विस्तार से बताएंगे कि प्रचार पर आपकी समझ क्या है, हर बार नया आइडिया कैसे ले आते हैं, जो चल भी पड़ता है?
....जब आप मुझे कहें कि अपनी जिंदगी का सबसे अच्छा वाकया सुनाओ, और यहां समझो पार्टी चल रही है, और हम लोग म्यूजिक सुन रहे हैं, खाना-वाना खा रहे हैं और आपको मैं बोलता हूं कि “यार कोई अपनी जिंदगी की कोई अच्छी कहानी बताएं”। तो आप सोचेंगे कि क्या बताऊं और फाइनली आप कहेंगे कि “यार हां, एक दफा मैं कैलकटा में था और वहां ये ये ये ये हु”। और आ अपनी कहानी ऐसे सुना देंगे। अब जरा कुछ अलग सिचुएशन की कल्पना कीजिए। कल्पना करिए कि वही पार्टी चल रही है, म्यूजिक चल रहा है, लोग खाना खा रहे हैं, वही जगह है। घंटी बजती है, एंड यू एंटर! मैं गेट खोलता हूं और आप आते हैं, कहते हैं “आमिर यू वोन्ट बिलीव वॉट हैपन्ड (तुम यकीन नहीं करोगे मेरे साथ क्या हुआ)! ऐसी अविश्वसनीय चीज मेरे साथ हुई। अरे, म्यूजिक बंद करो यार, मेरी बात सुनो तुम लोग”। .. वॉट योर डूंइग ऐट दैट टाइम इज मार्केटिंग (इस वक्त आ जो कर रहे होते है वही मार्केटिंग है)।

लोग मुझे हमेशा पूछते हैं कि आप नए डरेक्टरों के साथ काम करते हैं। या उन डरेक्टरों के साथ काम करते हैं जिनकी फिल्में अब तक कामयाब नहीं हुई हैं। और, आपके साथ वो इतनी कामयाब हो जाती हैं। तो क्या आ घोस्ट डायरेक्ट करते हैं? बिल्कुल, मैं घोस्ट डायरेक्ट नहीं करता हूं। मैं अपने काम का क्रेडिट किसी को नहीं दूंगा, बड़ा क्लियर हूं इस बारे में। तो कैसे वो फिल्में अच्छी बनती हैं, उसकी ये वजह है।

यहां मैंने दो चीजें कही हैं आपको।

एक ये कि डायरेक्टर वो होता है.. काम तो बहुत लोग जानते हैं, कैमरा कहां रखना है? एडिटिंग कैसे करनी है?.. टेक्नीकल चीजें बहुत सारे लोग जानते हैं और मैं आपको दस दिन में सिखा दूंगा। लेकिन क्या आपके पेट के अंदर कहानी है जो बाहर निकलने के लिए उछल रही है। वो आपको अच्छा डायरेक्टर बनाती है। तो जब आप दरवाजे से अंदर आते हैं और बोलते हैं “यार (ताली पीटते हुए), क्या मेरे साथ हुआ है, आप लोग बिलीव नहीं करोगे!” तो आपके अंदर एक कहानी है जो आप बोलना चाह रहे हो और वो आप अच्छी तरह बोलोगे। आप तरीका निकालोगे कि किस तरह अच्छी बोलूं। और जब लोग आपकी कहानी नहीं सुनेंगे और अपना खाना खाएंगे और म्यूजिक सुनेंगे तो आप सबसे बोलोगे, अरे म्यूजिक बंद करो यार! अरे नितिन मेरी बात सुन यार! सुन मेरे को। तो आप जो लोगों का ध्यान अपनी तरफ करोगे, वो क्या है, वही तो मार्केटिंग है।

तो ये मैंने बड़ा सिम्प्लीफाई करके बोला है। तो मैं फिल्में वही करता हूं जिसमें लगता है कि यार मजा आएगा करके। और, डायरेक्टर वो होता है, जिसकी कहानी होती है, जो कहानी बोलने के लिए तड़प रहा है, उसको मैं चुनता हूं। और जब तैयार होती है तो हम सब एक्साइटेड हैं और सबको बोलते हैं कि यार म्यूजिक बंद करो हमारे पास अच्छी कहानी है। वो ही तो मार्केटिंग है, और क्या मार्केटिंग है? आप समझे। तो वो एक्साइटमेंट हममें है, क्योंकि वो चीज हमनें बनाई है जो हम बनाना चाहते थे, और अब जो प्लेटफॉर्म अवेलेबल है उसका मैं इस्तेमाल कर रहा हूं। सब लोग कर रहे हैं मैं भी कर रहा हूं।

लेकिन फर्क क्या है? फर्क ये है कि मैंने कुछ बनाया है जिसके बारे में मैं एक्साइटेड हूं। अब आप ये सवाल जब ‘थ्री इडियट्स’ से पहले मुझे पूछते हैं तो कहते हैं यार ये क्लेवर जवाब दे रहा है। लेकिन अब आप सोचिए। ‘थ्री इडियट्स’ मैं बना चुका हूं। मैंने फिल्म देख ली। मैंने क्या बनाया मुझे मालूम है। हम सब ने एज अ टीम क्या बनाया है हमको मालूम है। अब हम उसको मार्केट करते हैं। तो हमारी एक्साइटमेंट लेवल जाहिर है एक लेवल की होगी और आप तक पहुंचेगी ही पहुंचेगी। और उसका और कुछ हो नहीं सकता।

इसमें स्ट्रैटजी...
स्ट्रैटजी इसमें कहां है भैया। यू गो विद योर हार्ट। जब मैंने और मेरी टीम ने ‘तारे जमीं पर’ बनाई है तो हम जानते हैं कि हमने क्या बनाया है। वी आर एक्साइटेड अबाउट इट। हां, हम नर्वस भी हैं क्योंकि कोई नहीं जानता आखिर में फिल्म कैसी होगी? लेकिन हम जानते हैं कि हमने जो बनाया है वो बहुत अच्छा मटीरियल है। जिस तरीके से आप मार्केट करते हैं वो आपको फील होता है, चाहे वो प्रोमो के थ्रू हो, चाहे वो गाने के थ्रू हो, चाहे वो इंटरव्यू के थ्रू हो। हर बार इनटेंजिबल कोई चीज है जो आपको टच करेगी।रंग दे बसंती आप ले लीजिए, लगान आप ले लीजिए। ये सब अलग-अलग वक्त थे। ‘लगान’ तो... मैं अब 12 साल की बात कर रहा हूं। मैं तो अपनी फिल्मों को शुरू से मार्केट करता आ रहा हूं। तब कोई टेलीविजन नहीं था, हम इसे छायागीत पर दिखाते थे। छायागीत पे हमने दिखाया था कयामत से कयामत तकका गाना। तब कोई एंटरटेनमेंट चैनल नहीं था तो हम कैसे बताएं लोगों को? अंततः हम एक्साइटेड हैं और वो हमारी एक्साइटमें आप तक पहुंच रही है। देखिए, हर फिल्म का प्रोमो आता है। ऐसी तो कोई फिल्म नहीं है जो हमने ताले में बंद करके रिलीज की है। या किसी भी प्रोड्यूसर ने। हर फिल्म का प्रोमो आता है, हर फिल्म का प्रेस कॉन्फ्रेंस होता है, हर फिल्म म्यूजिक रिलीज करती है। जो नॉर्मल मार्केटिंग जिसको कहते हैं वो हर आदमी करता है वो मैं भी करता हूं। क्यों लोग एक फिल्म को देखते हैं और एक फिल्म को नहीं देखते?

जिस तरीके से आप मार्केट करते हैं...
इट्स नॉट द वे यू मार्केट द फिल्म। आप गलत बोल रहे हैं। आप मुझे क्रेडिट मत दो, आप गलत आदमी को क्रेडिट दे रहे हो। मैं बोल रहा हूं, उस मटीरियल में एक चीज है जिसकी वजह से मैं इंस्पायर हो रहा हूं। अब मैं उछल रहा हूं, मैं क्या करूं। मैं इतना एक्साइट हो रहा हूं कि वो आप तक पहुंच रहा है। इसमें (फिल्म या कंटेंट) अगर पावर नहीं है न, तो वो मुझमें नहीं आएगा। तो मैं भी बुझा-बुझा सा रहूंगा और आपको भी लगेगा कि यार इस दफा कुछ एक्साइटेड नहीं लग रहा है। अभी जिस शो में काम कर रहा हूं, मैं एक्साइटेड हूं इस शो के बारे में। क्योंकि इस दफा मैं कुछ अलग कर रहा हूं, हो सकता है मैं फेल हो जाऊं। पर मैं एक्साइटेड हूं इसके बारे में इसी लिए तो कर रहा हूं।
तो मैं ये कह रहा हूं कि अगर अच्छी मार्केटिंग कर रहा हूं तो इसका मतलब ये नहीं है कि मैं क्लेवर हूं। आपको गलतफहमी हो रही है अगर आप ये सोचते हैं कि मैं क्लेवर हूं। आपको गलतफहमी हो रही है। मैं वही कर रहा हूं जो मुझे लगता है कि उस खास प्रॉडक्ट के लिए जरूरी है। ‘तारे जमीं पर’ की स्टोरी ही बिल्कुल अलग थी। मैं ‘तारे जमीं पर’ को वैसे मार्केट नहीं कर सकता था जैसे मैंने ‘गजनी’ को किया। ‘गजनी’ इज अ फिजीकल फिल्म। मेरे लिए मटीरियल हमेशा डिक्टेट करता है कि मैं कैसे मार्केट करूंगा फिल्म को। और, मटीरियल मुझसे खुद कहता है। मुझे उसके बाद सोचने की जरूरत नहीं पड़ती।

मौजूदा समाज को कैसे देखते हैं और ये कार्यक्रम उसमें कितना बदलाव लाएगा?
ज्यादा तो मैं क्या कह सकता हूं, पर ये जरूर है कि लाइफ में बदलाव आ रहा है। जब मैं लोगों से मिलता हूं तो मुझे लगता है कि खास किस्म का आइडियलिज्म लौट रहा है। ज्यादा से ज्यादा लोग ऊंचे लेवल की इंटेग्रिटी की लाइफ जीना चाहते हैं। और मैं यकीन भी करना चाहूंगा कि ऐसा हो रहा है। मैं ये नहीं कह सकता कि मैं ही कोई बड़ा बदलाव ले आउंगा, पर बदलाव हो रहा है। मैं अपने स्तर पर कु करता हूं, हो सकता है उससे लोगों की जिदंगी में कुछ चेंज आता है, कुछ नहीं आता। पर मैं इसकी घोषणा नहीं करना चाहूंगा।

किस किस्म का काम करते हैं, परिभाषित कर सकते हैं? आर्ट, कमर्शियल, प्रायोगिक?
मेरे काम को एक शब्द में डिफाइन कर पाना बड़ा मुश्किल काम होता है। लोग पूछते हैं कि आपकी फिल्म आर्ट फिल्म है कि कमर्शियल फिल्म। अब आप बताइए कि ‘तारे जमीं पर’ आर्ट फिल्म है कि कमर्शियल फिल्म। अगर आर्ट फिल्म बोलूंगा तो डिस्ट्रीब्यूटर बोलेंगे किनहीं साहब! हमने तो बहुत बनाए हैं"। कमर्शियल फिल्म बोलूंगा तो क्रिटीक्स बोलेंगे कि नहीं साब! बड़ी आर्टिस्टिक फिल्म है"। अब रंग दे बसंती’... पोस्टर में आप देखिए कि घोड़े पे आ रहा हूं मैं, अब ये बताइए कि आर्ट फिल्म है कि कमर्शियल। जब मैंने ये फिल्म साइन की तो मेरी छोटी बहन का फोन आया। औ उस वक्त भगत सिंह की कहानी चार बार आ चुकी थी, फिल्मों में। तो फरहत मेरी छोटी बहन है जो उसका फोन आया, कि क्या हो रहा है आजकल। तो मैंने बोलायार मैंने एक फिल्म साइन की है। तो मेरी फैमिली में काफी सेलिब्रेशन होता है जब मैं फिल्म साइन करता हूं। अरे, आमिर ने फिल्म साइन कर ली, मुबारक हो मुबारक हो! उन्हें बहुत कम दफा सुनने को मिलती है ये न्यूज। तो मेरी बहन ने बोला,अच्छा फिल्म साइन कर ली, कौन सी फिल्म साइन की। मैंने कहा, फिफ्ट रीमेक ऑफ भगत सिंह। तो वो बोली, नहीं नहीं हाउ कुड यू मेक फिफ्थ रीमेक ऑफ भगत सिंह। मैंने कहा नहीं, मैं तो कर रहा हूं। तो मैं कैसे डिस्क्राइब करूं।

टेलीविजन पर आजकल वही शो चलता है जिसमें तड़का लगा हो?
पता नहीं यार, पकवान भी अलग-अलग तरह के होते हैं। और, मैं तो बनाता ही अंदाजे से हूं। मेरी कोशिश ये रहती है कि उसका एक अलग डिसटिंक्ट स्वाद बरकरार रहे। अलग महक आए। वरना ये होता है कि हम जब कभी-कभी रेस्टोरेंट में जाते हैं, तो वहां हमको मसाला सेम मिलता है, हर डिश में वही मसाला है। यानी चाहे में बैंगन का भर्ता ऑर्डर करूं या कबाब, मसाला मुझे वही मिलना है। इसलिए मैं जो भी बनाता हूं कोशिश करता हूं कि उसमें अलग स्वाद आए, अलग महक आए। इस शो में भी वही कोशिश है करने की। आशा है लोगों को पसंद भी आएगा।

सत्यमेव जयते में क्या अलग है?
आज तक जितनी भी फिल्में मैंने की हैं, उनमें अलग-अलग किरदार निभाए हैं। और कुछ हद तक हर किरदार में आपको मैं भी कहीं न कहीं नजर आया होउंगा, पर ये पहली बार होगा कि मैं जो हूं, मैं जिस किस्म का इंसान हूं वैसा दिखूंगा, किसी टीवी शो के कैरेक्टर की तरह नहीं। पहली बार आपको आमिर खान यानी मेर पर्सनैलिटी देखने को मिलेगी।

खुद होस्ट बने हैं, आपका फेवरेट होस्ट कौन है?
बहुत सी चार्मिंग पर्सनैलिटी वाले लोग हैं। अमित जी, शाहरुख, रितिक, सलमान। मैं एक टाइम में सिद्धार्थ बासु के क्विज शो देखता था। खूब एंजॉय करता था। एक स्पोट्र्स होस्ट थे एस.आर. तलियाज, ऐसा ही कुछ नाम था उनका, जिन्हें मैं रियली एंजॉय किया करता था। वो अमेजिंग टेलीविजन होस्ट थे।

नहीं लगता कि अपने समकालीन अदाकारों से आप लेट हो गए हैं, टीवी पर आने में?
नहीं मैंने इसमें टाइमिंग के बारे में नहीं सोचा। मुझे नहीं लगता कि टाइमिंग लेट हो गई। पर यही सही वक्त है।
(जरा दूरी पर बैठे उदय शंकर बोल पड़ते हैं:- दो तरह की एडवांटेज लोग लेते हैं, एक तो अर्ली मूवर एडवांटेज और आमिर शायद अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो लेट मूवर एडवांटेज लेते हैं। मैं आपको बता सकता हूं कि इस शो को लेकर मेरी आमिर के साथ क्या बातें हुईं थीं। मैं जब गया था इनके पास चार-पांच साल पहले। कि आपको भी टीवी करना चाहिए। तो उन्होंने कहा कि हां, मैं टीवी देखता हूं कभी-कभी, और मेरे मन में ये आता है कि बड़ा पावरफुल मीडियम है, और मैं करना भी चाहता हूं, पर मैं करूंगा तभी जब मुझे समझ में जाएगा कि टीवी पर करना क्या चाहिए। और आप अपने कोई प्लैन मेरे लिए रोकिए मत। क्योंकि कई बार ये सोचते हुए मुझे बहुत टाइम लग जाता है। और हुत टाइम लिया। दो साल लिए। तो उनका फैसला बिल्कुल सही है, क्योंकि टीवी पर ना बहुत बड़ी बात है पर टीवी पर आकर आप क्या करेंगे ये उससे भी बड़ी बात है। और टाइम का इतना फर्क नहीं पड़ता क्योंकि टीवी कोई ऐसा मीडियम नहीं है जो कल ही पैदा हुआ था और कल ही खत्म हो जाएगा।)

सत्यमेव जयते के बारे में...
# 22 सालों में मेरा सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है।
# अगर जो सोचा है उसका दसवां हिस्सा भी पा लिया तो निहाल हो जाऊंगा।
# शो में मैं ट्रैवल करूंगा, कभी नहीं कर पाया तो लोग मुझ तक आएंगे।
# अगर शो के दौरान मेरे अंदर का असली आमिर फूट पड़े तो मुझे कोई एतराज नहीं है।
# मैंने उदय से कहा कि यार उदय, हम ये शो तो करेंगे पर आई वॉन्ट ऑल योर चैनल्स। क्योंकि इसे हर व्यक्ति देखे। और उसे देखना भी चाहिए। जिस वक्त हिंदी इंग्लिश में आएगा, उसी वक्त बाकी भाषाओं में भी साथ-साथ प्रसारित होगा।

कुछ केसर के पत्ते जो रह गए...
# अम्मी मुझे कहती है कि अभी तुम जो कमा रहे हो उसका चार गुना ज्यादा कमा सकते हो। पर मुझे प्राइस में इंट्रेस्ट नहीं है, मुझे काम इंट्रेस्ट करना चाहिए।
# अभी ‘द ड्यून सीरिज’ पढ़ रहा हूं।
# मैं चैनल बदलता रहता हूं। रुकता वहीं हूं जहां गोविंदा जी की फिल्में आ रही होती हैं। उनकी फिल्मों में ह्यूमर बहुत होता है।
# कभी अपनी ऑटोबायोग्रफी लिखना चाहूंगा। बहुत सी ऐसी चीजें भी उसमें लिखूंगा जो लोगों को नहीं पता हो।
# अभी (कुछ वक्त पहले) मेरे घर पर कंस्ट्रक्शन हो रहा है, इसलिए मैं और किरण अम्मी के साथ रह रहे हैं। टीवी पर जो अम्मी देखती हैं, वही देख लेता हूं।

भूली बिसरी पहली फिल्महोलीपर
सच मैं कहूं तो मुझे कोई आइडिया नहीं है। मैं तो ये भी भूल चुका हूं कि उसका पोस्टर कैसा दिखता था। वो फिल्म रिलीज ही नहीं हुई न। उसे नेशनल अवॉर्ड मिला तो वो टीवी पर दिखाई गई। जबरदस्ती (मजाकिया अंदाज में)। क्योंकि कोई देखना ही नहीं चाहता था। केतन ने और हमने बड़े प्यार से, चाव से बनाई थी।
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गजेंद्र सिंह भाटी