Saturday, March 12, 2011

ऐसे एलियन अटैक बहुत देखे हैं जी

फिल्मः बैटलः लॉस एंजेल्स और वर्ल्ड इनवेजनः बैटलफील्ड लॉस एंजेल्स
डायरेक्टरः जोनाथन लीब्समैन
कास्टः एरॉन एकार्ट, मिशेल रॉड्रिग्स, माइकल पेना, नजिंगा ब्लेक, ने-यो, ब्रिजेट मॉयोनाहन
स्टारः ढाई स्टार 2.5

जब 1971 के भारत-पाकिस्तान वॉर की ब्लैक एंड वाइट क्लिप्स दूरदर्शन पर नजर आती थी तो उसमें रेगिस्तान सी जमीन पर गोलियां चलाते बहुत सारे सैनिक दिखते थे, किसी की शक्ल या कोई एक कहानी नहीं दिखती थी ये एक बात है जो हॉलीवुड फिल्म 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में भी है। फिल्मी माध्यम के लिए ये एक घातक पहलू हो जाता है जब इस तरह के विषयों वाली फिल्म में कोई व्यक्तिगत मुकाबला हीरो और विलेन में नहीं होता। पूरी फिल्म में एलियन हमलावरों की शक्ल नहीं दिखती या किसी अमेरिकन सैनिक से सीधा मुकाबला नहीं दिखता है। सब ग्रुप्स में है। उधर से भी गोलिया चल रही हैं, इधर से भी। बस बीच में आधा दर्जन दूसरी हॉलीवुड फिल्मों के प्लॉट हैं, जो किसी फटे पैजामे पर पैबंद की तरह लगते रहते हैं। सब-कुछ किसी वीडियोगैम जैसा है। कम ह्यूमन और ज्यादा मशीनी। फिल्म का एक और निराशाजनक पहलू है, किसी ऑरिजिनल बैकग्राउंड स्कोर या म्यूजिक का न होना। अगर डर, हमले, मुकाबले, साहस और जीत के इमोशन से जुड़ी कोई धुन इनवेंट की जाती तो लॉस एंजेल्स का ये नकली बैटल असली लगता। टाइम पास से जरा सी कम मूवी है, कोई दूसरा ऑप्शन नहीं हो तो ही देखिएगा।

एलियन कहां से आएः कथा
कहानी आज ही के वक्त की है। अब से पहले की जितनी अफवाहें एलियंस को लेकर थी वो लॉस एंजेल्स की धरती पर सच हो गई हैं। बाहरी ग्रह की अंजानी ताकतों ने हमला कर दिया है। मरीन स्टाफ सार्जेंट माइकल (एरॉन एकार्ट) को एक नई प्लाटून के साथ कुछ सिविलियंस को बचाने और वहां बम फटने से पहले इवैक्यूएशन करने का काम सौंपा जाता है। प्लाटून में एक यंग ऑफिसर के अंडर उन्हें काम करना है। एक्सपीरियंस और क्षमता उनकी ज्यादा है। ये उलझन है, तो सिर पर बड़ी मुसीबत है एलियन अटैक की। आखिर में उनका उद्देश्य सिर्फ इस छोटे मिशन से बढ़कर पूरे अमेरिका और पूरी दुनिया की रक्षा करना हो जाता है। इस फिल्म में अगर सबसे ज्यादा सही अनुमान लगाने लायक कुछ है तो वो है इसकी कहानी।

विश्व तबाही पर फिल्में
इसमें कोई नई बात नहीं कि इन फिल्मों में हर बार एलियन का अटैक अमेरिका पर ही होता है, और फिर अमेरिकन उन्हें हराकर पूरी दुनिया को बचा लेते हैं। मुझे लगता है कि अगर इस मूल रवैये में बदलाव न भी हो, तो कम से कम हमले के तरीके और दुनिया को बचाने के तरीके में तो कुछ नया किया ही जा सकता है। स्टीवन स्पीलबर्ग की 'सेविंग प्राइवेट रायन' में टॉम हैंक्स की प्लाटून के जिम्मे युद्ध क्षेत्र से एक यंग सैनिक को बचाकर लाने काम आता है, तो यहां एरॉन एकार्ट को चंद पुलिसवालों (जो मारे जा चुके हैं) को बचाना है। 'ब्लैक हॉक डाउन' में भी सोमालिया में भेजी अमेरिकी टुकड़ी की यही कहानी होती है। दोनों ही फिल्मों और 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में सेना की टुकड़ी मिशन पर निकली है और सामने खतरे बहुत बड़े हैं। क्लाइमैक्स में लॉस एंजेल्स से एलिंयस का सफाया करने के बाद एरॉन एकार्ट का कैरेक्टर प्लाटून के साथ कैंप में लौटता है और बिना आराम किए फिर दूसरे शहर के लिए निकलने को तैयार होने लगता है। अपना असला भरने लगता है। ये सिचुएशन बिल्कुल 'ब्लैक हॉक डाउन' के क्लाइमैक्स से मिलती है।

इस सब्जेक्ट पर खास काम
इस विषय पर बनी फिल्मों में 'डिस्ट्रिक्ट नाइन' सबसे अलग रही है। ये पहली एलियन विषय वाली मूवी थी जो अमेरिकन एंगल से नहीं बनी थी। इसकी कहानी साउथ अफ्रीका की धरती पर करवट लेती है। जेम्स कैमरून की 'अवतार' का एक एंगल हॉलीवुड मूवीज के लिहाज से समाजवादी रहा और ये 'बैटल:लॉस एंजेल्स' से भी मिलता है। उसमें अमेरिकी पैंडोरा ग्रह पर जाते हैं, वहां के नेचरल रिर्सोसेज पर कब्जा करने और वहां की लोकल कौम को मिटाने। 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में अमेरिकी मीडिया के विजुअल्स दिखते हैं। इनमें एक विशेषज्ञ का कमेंट होता है, 'हर विदेशी अटैक सबसे पहले रिर्सोसेज के लिए होता है। अटैक करने वाले वहां की मूल जनता, देशज जनता को खत्म करते हैं। ऐसे ही उपनिवेश यानी कॉलोनाइजेशन शुरू होता है। अमेरिका का कॉलोनाइजेशन शुरू हो चुका है।'

एंटरटेनमेंट वाली बात
'इंडिपेंडेंस डे', 'मैन इन ब्लैक', 'ट्रांसफॉर्मर्स' और 'टर्मिनेटर' इस कैटेगरी की सबसे एंटरटेनिंग मूवीज हैं। इनमें कॉमेडी, देश पर खतरा, एलियन से डर, वीक कॉमन मैन और मजबूत कॉमन मैन जैसे तत्व है, जो इस तरीके से मिलाए गए हैं कि इन फिल्मों की एक रिपीट वैल्यू बन गई है। 'बैटल: लॉस एंजेल्स' में इन सब तत्वों की कमी पड़ती है। एरॉन एकार्ट और टेक्नीकल सार्जेंट एलेना सेंटोज बनी मिशेल रॉड्रिग्स इस फिल्म के दो ऐसे चेहरे हैं जो फिल्म से जोड़े रखते हैं। वजह शायद ये रही एरॉन हाल ही में बहुत पसंद की गई 'रैबिट होल' में दिखे थे और मिशेल 'रेजिडेंट ईविल' और 'अवतार' जैसी फिल्मों में खुद को ऐसी फिल्मों की खास एक्ट्रेस साबित कर चुकी हैं। इस फिल्म में एक ह्यूमन आस्पेक्ट जो आकर्षित करता है वो है एरॉन के कैरेक्टर का एक्सपीरियंस्ड होते हुए भी एकेडमी से नए निकले लुटेनेंट के अंडर में काम करना। पर बाद में ये अनुभवी स्टाफ सार्जेंट हीरो बनकर उभरता है। डायरेक्टर जोनाथन ने टेक्नीकली फिल्म में नई चीजें की है। उन्होंने थ्री-डी कैमरा से शूट नहीं किया है। ये दिखता भी है। इससे गली के शॉट और बाकी सीन रॉ लगते हैं। एक दो जगहों पर ही सही दर्शक कुर्सियों के सिरों पर रहते हैं।

आखिर में...
फिल्म देखते वक्त मुझे 'द सोशल नेटवर्क' के ओपनिंग बैकग्राउंड स्कोर की याद आई। उस म्यूजिक ने मार्क जकरबर्ग की फिल्मी कहानी को एक नई पहचान दे दी थी। काश, जोनाथन लीब्समैन ने अपनी लॉस एंजेल्स पर हमले वाली इस फिल्म में म्यूजिक पर कुछ ऐसा ही भरोसा किया होता। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 27, 2011

127 घंटों का हौसला

फिल्मः 127 आवर्स
निर्देशकः
डैनी बोयेल
कास्टः जेम्स फ्रैंको
स्टारः साढ़े तीन 3.5

उन लोगों के लिए '127 आवर्स' एक डॉक्युमेंट्रीनुमा छोटी और साधारण फिल्म हो सकती है जो इसे बिना खास कोशिश के देखेंगे डैनी बॉयेल की इस फिल्म का सबसे ज्यादा मजा लेना है तो आप एक फिल्म राइटर, डायरेक्टर या स्टोरीटेलर बनकर इसे देंखे। या फिर आपको इंसानी जज्बे और संघर्ष की कहानियों से लगाव हो। अगर ये सब नहीं है, तो ये फिल्म आपको बोरिंग भी लग सकती है और आखिरकार इंस्पायरिंग भी। साइमन बुफॉय और डैनी की लिखी '127 आवर्स' में बिना ड्रामा के भी बहुत सारा ड्रामा और फिल्मीपन दिखता है। यही इसकी खासियत भी है। अगर तालियां बजाने, पॉपकॉर्न खाने और फन के लिए जाना है तो न जाएं। लेकिन अपनी फैमिली की, एक बूंद पानी की, अपने प्यार की, बचपन की यादों की, मुश्किल वक्त की, हिम्मत की, हौसले की, जिंदगी की और मौत की कहानी सुनना चाहते हैं, तो दिल बड़ा रखकर जरूर जाएं। एक बड़े इरादों वाली छोटी सी फिल्म आपका इंतजार कर रही है।

सत्य है स्टोरी
ये ऑटोबायोग्राफिकल फिल्म अमेरिका के एक माऊंटेन क्लाइंबर एरॉन रेलस्टन (जेम्स फ्रैंको) की जिंदगी पर बनी है। 2003 की बात है। हमेशा की तरह अपनी स्पीड से चल रहे अमेरिका में एरॉन अपनी ही तैयारी में है। भीड़-भाड़ से दूर केनियनलैंड नेशनल पार्क में वह रात के स्टे के बाद सुबह अपनी बाइसाइकल पर ब्लू जॉन केनियन के पथरीले-धूल भरे इलाके में एडवेंचर करने निकलता है। बिल्कुल आश्वस्त से एरॉन का एडवेंचर और जिंदगी उस वक्त थम जाती है जब केनियनरिंग (माउंटेनियरिंग) करते हुए एक बड़ी चट्टान के बीच दरार में उसका हाथ बड़े पत्थर के नीचे दब जाता है। दूर-दूर तक उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है। कोई है तो एरॉन के मरने का इंतजार करती सिर पर मंडरा रही चील, नीचे रेंग रही चींटी और एक गिरगिट। अब तय है कि वह बड़ा सा पत्थर उसके हाथ पर से नहीं हटेगा... तो एरॉन क्या करेगा? ये 127 घंटे यानी पांच दिन उसकी हिम्मत का कैसे इम्तिहान लेते हैं? ये सवाल क्लाइमैक्स में सुलझते हैं। हालांकि एरॉन के नॉवेल 'बिटवीन अ रॉक एंड अ हार्ड प्लेस' को पहले पढ़ा जा सकता है।

डैनी की बात
फिल्में कैसी हों? कमर्शियल मसाला वाली या आर्टिस्टिक रिएलिटी पर आधारित? इस लंबी और अभी आगे भी चलने वाली बहस का एक जवाब डैनी बोयेल की ये फिल्म है। एक ऑटोबायोग्रफी जिसमें हर तरह के इमोशन और ड्रामा हैं, रिएलिटी भी है, सिनेमैटिक एक्सिलेंस भी है, फिल्ममेकिंग में जुड़ती नई चीजें भी हैं। ऐसा लगता है कि 'स्लमडॉग मिलियनेयर' के लिए ऑस्कर जीत चुकने के बाद '127 आवर्स' को उन्होंने ऑस्कर के बोझ तले दबकर नहीं बनाया है। एकदम फ्रैश माइंड से बनी फिल्म लगती है, जिसमें एक फिल्ममेकर के तौर पर खुद को प्रूव करने की कोई कोशिश नहीं है। इंसानों से रहित दुनिया डैनी को आकर्षित करती है। वो एक्ट्रीम ऑपोजिट्स में मूवी बनाते हैं। भीड़ वाली बनाएंगे तो 'ट्रैनस्पॉटिंग' जैसी नशीली, बदबूदार और चिपचिपाहट वाली फिल्म चुनेंगे। फिर 'स्लमडॉग मिलियनेयर' बनाएंगे। इसमें उनकी फिल्म बनाने की ब्रिटिश शैली बॉलीवुड के रास्ते चलती है। वो यहां दो भाइयों के 'दीवार' वाले फॉर्म्युले के साथ अनिल कपूर को लेते हैं और 'हू वॉन्ट्स टु बी ए मिलियनेयर' के टीवी ड्रामा को भी। जब भीड़ के उलट अकेलेपन को लेंगे तो '28 डेज लेटर' बनाएंगे, जिसमें सूनसान लंदन की सड़कें दिखेंगी। अब पूरी '127 आवर्स' भी है। इसमें मोटा-मोटी एक ही कैरेक्टर है और उसे निभाया है जेम्स फ्रैंको ने।

आखिर में...
# जेम्स फ्रैंको के इस रोल के लिए कोई भी एक्टर जिंदगी भर इंतजार करेगा। हर घंटे के साथ उनका फीका पड़ता चेहरा और कमजोरी दिखती है, साथ ही उनके एटिट्यूड में आस से भरी चिंगारी भी। दोनों को साथ रख पाना मुश्किल काम होता है, पर उन्होंने करके दिखाया।
# ए. आर. रहमान के म्यूजिक वाला आखिरी गाना इफ आई राइज... फिल्म में मेरा फेवरेट है। आवाज भी रहमान और डीडो की है। इस फिल्म के साथ रहमान ने अपने म्यूजिक को 'स्लमडॉग मिलियनेयर' से आगे ले जाने की कोशिश की है और वो इसमें सफल भी रहे हैं। एरॉन के संघर्ष के पलों में हल्की तबले की थाप और हल्की वीणा की झंकार भी दिल हुमार लेती है।
# फिल्म के शुरू में क्रेडिट्स पेश करने का तरीका भा गया। स्क्रीन तीन हिस्सों में बांटकर दुनिया के कुछ भीड़ भरे सीन और खेल दिखाए जाते हैं। बस क्रेडिट्स में ही। खेल और खेलों की विनिंग स्पिरिट शायद इस शुरू के सीन का संदर्भ है। बाद में इसमें एरॉन की कहानी जोड़ दी जाती है। फिल्म जब खत्म होती है तो पता चलता है कि डैनी बोयेल ने शुरू के क्रेडिट्स में वैसे भीड़भरे रशेज क्यों डाले थे। इसके साथ ही फिल्म एक पूरा सर्कल ले लेती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 26, 2011

एक फेरा तनु-मनु और पप्पी जी का

फिल्मः तनु वेड्स मनु
निर्देशकः आनंद एल. रॉय
कास्टः आर. माधवन, कंगना रानाउत, दीपक डोबरियाल, स्वरा भास्कर, एजाज खान, राजेंद्र गुप्ता, जिमी शेरगिल
स्टारः तीन स्टार 03

अच्छी बात ये है कि 'तनु वेड्स मनु' बॉलीवुड की कोई फिक्स फॉर्म्युला वाली लव स्टोरी नहीं है। ये अरैंज्ड मैरिज वालों की फिल्म है, जिन्हें कॉलेज या बस स्टॉप पर प्यार नहीं होता। होता है तो सूरज बड़जात्या की 'विवाह' की तरह पहली बार लड़की देखने उसके घर जाने के वक्त से होता है, फिर टूटता-बिखरता रहता है। गुंजाइश थी कि ये इंटरवल के बाद 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' जैसी ड्रमैटिक या लंबे-लंबे डायलॉग वाली फिल्म हो जाती, पर डायरेक्टर आनंद राय ने तनु-मनु के प्यार की जर्नी को उससे बिल्कुल अलग रखा है। ये फिल्म 'ब्रेक के बाद' और 'आई हेट लव स्टोरीज' की तरह फेक या कॉस्मेटिक्स में दबी परतों वाली मूवी भी नहीं है। हां, इतना जरूर है कि कम उम्र वाली जेनरेशन के मन में पप्पीजी, मन्नू, तनु और पायल की कई अदाएं हमेशा के लिए बस जाएंगी। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें एक बार देखा जा सकता है, मगर 'तनु वेड्स मनु' एक ऐसी फिल्म है जिसे एक बार तो जरूर देखना चाहिए। फिल्म का एक भी सेकेंड बासी नहीं लगता, ये मनोरंजन के मामले में कम-बेशी लग सकती है। जो भी हो ऐसी फिल्में जरूर बनती रहनी चाहिए।

आशकां दा दरस
एक बड़ी इनोवेटिव सी स्टार्ट के बाद हम पहुंच जाते हैं चमनगंज कानपुर। लंदन में डॉक्टर मनोज शर्मा उर्फ मनु (आर. माधवन) अपने मां-पिता और दोस्त पप्पी (दीपक डोबरियाल) के साथ आया है त्रिवेदी जी (राजेंद्र गुप्ता) के घर उनकी लड़की तनुजा उर्फ तनु (कंगना रानाउत) को देखने। लड़की को जैसे-तैसे देखने के बाद वह हां कर देता है, पर शादी नहीं होती। अब हम पहुंचते हैं कपूरथला। यहां मनु के दोस्त जस्सी (एजाज खान) और तनु के साथ दिल्ली में पढ़ी बिहार की पायल (स्वरा भास्कर) की शादी है। बगावती और रॉकेट से तेज तनु और भलाई पुरुष मनु यहां भी मिलते हैं। फिर कुछ दिक्कतें सामने आती हैं। अपने अलग ही रंग के साथ मूवी आगे बढ़ती है। फिल्म की प्रेजेंटेशन और फिल्म की कॉमन मैन वाली दुनिया सबसे खास है, जो कहीं भी ग्लैमर-एंटरटेनमेंट कोशंट को कम नहीं होने देती।

एक्सक्लूसिव कॉमन लोग
कानपुर, दिल्ली और कपूरथला की छतें एक्सक्लूसिवली आपको यहां दिखेंगी। छतों पर पप्पी और मनु की खाट दिखती हैं। इनके साथ घर का सामान, छत पर बने कमरे का पुराना घिसा हुआ लकड़ी का दरवाजा, रस्सी पर और इधर-उधर सूखते रोजमर्रा के फीके कपड़े इस घर को फिल्मी नहीं असल रिहाइश बना देते हैं। ऐसी ही मेहनत कैरेक्टर्स पर हुई है। मूवी को खास लोकल और कॉमन कैरेक्टर्स वाली बनाने में मदद करते हैं आस-पास मोहम्मद रफी के पुराने गाने, गोविंदा के टिपिकल ट्रक-टैक्सी छाप गाने, ओल्ड मॉन्क का पव्वा, टीवी पर चलता सीरियल 'बालिका वधू', डिस्कवरी पर घोड़े-घोड़ी
के प्रेम और सहवास की बातें, विविध भारती पर अमीन सयानी की आवाज में फिल्मी गानों का फरमाइशी प्रोग्रैम और क्लाइमैक्स में किसी असल अंधेरी सड़क पर आमने-सामने खड़ी दो बारातें। इन दिनों 'बैंड बाजा बारात' और 'दो दूनी चार' जैसी कई फिल्में आई हैं जिनमें कहानी, किरदार, लोकेशन और घरों की डीटेल्स पर ईमानदारी से काम किया गया। ये फिल्म उनमें से एक है।

ये तो हम हैं
फिल्म की एक खास बात ये रही कि इसमें कोई भी परफैक्ट मॉडल जैसे चेहरे-मोहरे वाला नहीं है। आर. माधवन, दीपक डोबरियाल, कंगना, स्वरा, एजाज, जिमी शेरगिल और फिल्म के सभी साइड आर्टिस्ट अपने-अपने कैरेक्टर की खामियों-खूबियों के साथ हैं। इनमें से कुछ तो दीवाना कर देते हैं। कंगना का दीपक के कैरेक्टर को ओए पप्पी जी... कहने का अंदाज हो या स्वरा का बिहारी एक्सेंट में लगाएंगे दो लप्पड़ अभी... .. दोनों ही अदाओं के साथ आते हैं। शादी के संगीत में कंगना ने नाचते वक्त जो ब्रोकेड का सूट पहना है या क्रेडिट्स के वक्त जुगनी...सॉन्ग में उनकी फुल स्लीव्ज ब्लाउज वाली लाल साड़ी जरूर औरतों और लड़कियों का ध्यान खींचेगी। माधवन कुछएक जोड़ी टी-शर्ट-पैंट और लोअर में पूरी फिल्म कर लेते हैं, ये भी एक तथ्य है।

खास जिक्र
अपने कैरेक्टर को पकड़ने में खुद के मैनरिज्म, बर्ताव, शरीर के ढंग और आवाज में सबसे ज्यादा बदलाव किया है दीपक डोबरियाल ने। दीपक ने अपनी आवाज को यूपी की मूल टोन वाली आवाज सा बनाया है। हालांकि सीधे-सीधे देखने पर इसमें कोई एफर्ट नहीं दिखता है, पर लगा बहुत है। इससे पहले उस प्रदेश की आवाज वाले जिन कॉमेडी करते फिल्मी इंसानों को दिखाया जाता था, वो किरदार नपे-तुले और सांचों में ढले होते थे। दीपक ने अपने इस कैरेक्टर से उन सब किरदारों को इस घिसे-पिटे मजाक से मुक्त किया है।

हैपी मूमेंट
मनु घर की छत पर चारपाई पर लेटा मोहम्मद रफी के सैड सॉन्ग सुन रहा है। पप्पी बात करते हुए कहता है, 'अगर तनु जी आपकी किस्मत में लिखी हैं तो आप उनको लंदन साथ लेकर जाओगे, वरना भईय्या जितने चाहे मोहम्मद रफी के गाने गा लो, कुछ नहीं होना।' ये फिल्म का दूसरा सबसे अच्छा डायलॉग है। पहले नंबर पर भी है दीपक डोबरियाल का ही सीन और डायलॉग। अपना नाम बताने से पहले पप्पी का झूमकर शरमाकर कहना कि नाम लिखकर बताएं कि दे कर... शायद 'तनु वेड्स मनु' का सबसे मनोरंजक और उम्दा सिचुएशनल डायलॉग है।

रंगरेज संगीत
ट्रेन में तनु और मनु की फैमिली पिकनिक पर जा रही है और लड़कियां शादी-ब्याह के गीत की तरह ..तब मन्नू भइय्या का करिहें .. गाना ट्रेन में गा रही हैं। फिल्म के नएपन और थीम को बेहतर करते हैं इस गाने के बोल। फिल्म की धड़कन का काम करता है वडाली ब्रदर्स की आवाज में गाया राजशेखर का लिखा गीत। कृष्णा ने इसके म्यूजिक को फोक-फिल्मी तेवर का ही रखा है। बोल हैं...ए रंगरेज मेरे, ये बात बता रंगरेज मेरे, ये कौन से पाणी में तूने, कौन सा रंग घोला है.. के दिल बन गया सौदाई।

आखिर में...
बेस्ट परफॉर्मर मुझे लगे दीपक डोबरियाल। 'दाएं या बाएं' इनकी पिछली फिल्म का नाम था, जिसे मौका मिले तो डीवीडी पर जरूर देखें। कोई एक दशक पहले तक टेली सीरिज 'स्टार बेस्टसेलर' में पहली बार नजर आए दिल्ली के इस थियेटर एक्टर ने इस कमर्शियल फिल्म में भी खुद को प्रूव करके दिखाया है। उनको देखना एक डिलाइट है।
(प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, February 24, 2011

'मैं मांसाहारी एक्टर हूं, मुझे मीटी रोल चाहिए'

मिलिए 'तनु वेड्स मनु' फिल्म के लीड एक्टर्स में से एक स्वरा भास्कर से। पायल का कैरेक्टर प्ले कर रही स्वरा इसमें तनु (कंगना रानाउत) की दोस्त बनी हैं...

'माधोलाल कीप वॉकिंग' जैसी छोटी मगर सराही गई फिल्म से पहली बार परदे पर दिखने वाली स्वरा भास्कर को अब भी अपनी पहली फिल्म 'नियति' की रिलीज का इंतजार है। ये बिहार में लड़कों के अपहरण और जबरन विवाह जैसे सोशल इश्यू पर बनी थी। इन दो गैर-कमर्शियल फिल्मों के बीच स्वरा की पहली कमर्शियल बॉलीवुड फिल्म 'तनु वेड्स मनु' इस शुक्रवार 25फरवरी को थियेटरों में आ रही है। फिल्म में उनका रोल बिहार से ताल्लुक रखने वाली एक एनर्जेटिक लड़की पायल का है जो इंटरकास्ट मैरिज कर रही है। चूंकि फैमिली की कद्र समझती है इसलिए इस शादी के लिए उन्हें भी राजी कर लिया है। फिल्म के पहले हाफ में पायल की शादी के संदर्भ में ही तनु (कंगना) और मनु (आर. माधवन) की मुलाकात होती है। दिल्ली में पली-बढ़ी स्वरा के पिता रक्षा विशेषज्ञ सी. उदय भास्कर हैं तो मां इरा भास्कर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में सिनेमा की प्रफेसर।

फिल्म में अपने कैरेक्टर का एक्सेंट कैसे पकड़ा? इसके जवाब में स्वरा कहती हैं, 'मेरी मां बिहार से हैं और बाकी काफी परिवार अब भी बिहार में रहता है। ऐसे में मेरे रोल में उस इलाके के जिस साउंड की जरूरत थी उससे मैं वाकिफ थी। इसके साथ ही फिल्म के राइटर भी यूपी से हैं तो उस इलाके का ट्वेंग उनके पास था। म्यूजिक डायरेक्टर मधेपुरा बिहार से थे।' फिल्म में स्वरा के साथ जोड़ी है टीवी एक्टर एजाज खान की। उनके सरदारों वाले लुक और पंजाब में शूटिंग के अनुभव के सवाल पर स्वरा की आवाज में उत्साह झलकने लगता है। वह बताती हैं, 'एजाज तो इतना असली सरदार लग रहा था कि लोग आ आ कर उससे पंजाबी में बात कर रहे थे। मीका भी आकर पंजाबी बोलने लगे, तो उसने कहा कि सर मैं एजाज हूं मुंबई से। हमने पंजाब में डेढ़ महीने की शूटिंग में इतने मजे किए कि बता नहीं सकती। जालंधर, अमृतसर और बाकी इलाकों से आए आर्टिस्ट इतनी बढ़िया एक्टिंग कर रहे थे कि आपको ये सब स्क्रीन पर दिखेगा।' इसके साथ वह ये भी कहती हैं, 'वो जूनियर आर्टिस्ट बच्चियां मेरी मेंहदी और दुल्हन वाले सीन में इतने देसी तरीके से प्रैंक कर रही थीं कि मैं तो दंग रह गई। जब हम गुरुद्वारे में शादी का सीन शूट कर रहे थे तो वहां बैठे लोग पिन पॉइंट कर रहे थे। कहने लगे कि इतनी बार फेरे ले लोगे तो सच्ची में शादी हो जाएगी ध्यान रखना। जिस घर में शूट कर रहे थे उन्होंने भी असली प्रोसेस बताया। मैंने पहले सिर्फ सुना ही था कि पंजाब के लोग जिंदादिल होते हैं, पर वो सच में जिंदादिल निकले।'

फिल्म की शूटिंग जालंधर, पंजाब, कपूरथला और लखनऊ में हुई है। स्वरा के मुताबिक 'तनु वेड्स मनु' का सेलिंग पॉइंट इसकी कमाल की स्क्रिप्ट है। परफॉर्मेंस में माधवन, दीपक डोबरियाल, एजाज और कंगना सबका काम अच्छा है। दीपक तो दिल्ली में मेरे थियेटर ग्रुप में सीनियर रह चुके हैं। उनका काम भी अमेजिंग है। पर स्क्रिप्ट ऐसी है कि हर दस मिनट में उम्मीद के उलट चीजें मिलेंगी। जो लव स्टोरी इसमें है वो बाकी बॉलीवुड लव स्टोरी जैसी नहीं है। इसमें आपको कोई पुराना क्लीशे नहीं मिलेगा। फिल्म बनने के दौरान के दिलचस्प किस्से बताते हुए वह कहती हैं, 'मैं दो वाकये बताती हूं। एक बार डांस डायरेक्टर सरोज जी का इंतजार कर रही थी। कुछ दूर एक मोटी-छोटी औरत भी खड़ी थी। मैंने किसी टेक्नीशियन से पूछा कि अब तक सरोज जी नहीं आई तो उसने कहा कि तुमने पहचाना नहीं ये ही सरोज जी हैं.. तुमने नमस्ते भी नहीं किया। पहले मैं नहीं मानी पर बाद मैं गई और जैसे ही उनको नमस्ते किया तो वो भी झेंप गईं और सब जोर-जोर से हंसने लगे। मैं पानी-पानी हो गई। बाद में सरोज जी आईं तो मैंने दूर से ही उन्हें नमस्ते किया। तो ऐसी ही हंसी मजाक खूब हुई। हम जालंधर के आसपास जब शूटिंग कर रहे थे तो जालंधर-चंडीगढ़ हाइवे पर एक खाने की जगह थी, जहां मैं और एजाज अकसर जाते थे। वहां एजाज की बहुत सी फैन लड़कियां भी आ जाती थीं और मुझसे पूछती कि क्या आप एजाज के साथ हैं। तो इस तरह मैंने उस दौरान उनके बीच चिट पास करने का काम किया।'

फिल्म के डायरेक्टर आनंद राय इससे पहले फिल्म 'स्ट्रैंजर्स' और 'थोड़ी लाइफ थोड़ा मैजिक' को डायरेक्ट कर चुके हैं। उनके साथ काम करने के अनुभव पर स्वरा कहने लगती हैं, 'वह जाने माने डायरेक्टर रह चुके हैं। उनकी खासियत ये है कि सबसे प्यार से बात करते हैं और हर अदाकार से काम भी प्यार से ही निकलवा लेते हैं।' पंजाबी तासीर वाली 'तनु वेड्स मनु' के दोनों गाने साड्डी गली भुल्ल के वी आया करो...और जुगनी... शीर्ष पर चल रहे हैं, तो इसमें डांस भी बड़ा करना पड़ा होगा? इस पर वह कहती हैं, 'मेरी फॉर्मल ट्रेनिंग डांस में ही है। मैंने भरतनाट्यम सीखा है लीला सेमसन से। इस मूवी में तो बिंदास टाइप डांस है। हम सब ऐसे ही नाचे भी।'

आर्ट और कमर्शियल दोनों ही फिल्मों का अनुभव स्वरा को हो चुका है। ये पूछने पर कि दोनों में कौनसा प्रेफर करती हैं, वह कहती हैं, 'ऑफबीट और आर्ट सिनेमा के साथ समस्या ये होती है कि उसकी पहुंच नहीं होती, कमर्शियल फिल्मों की पहुंच दूर तक होती है। पर एक एक्टर का काम होता है कि वो दोनों ही करे। अगर उसे लंबा करियर देखना है तो कमर्शियल ज्यादा जरूरी है।' अब बॉलीवुड को कैसे लेना है? इसके जवाब में स्वरा कहती हैं, 'मैं बेसीकली अब लीड रोल करना चाहती हूं। ऐसी मूवीज जो लोगों तक पहुंचे, ऐसा नहीं कि एक्ट्रेस है तो बस पेड़ पकड़े नाचते रहो। मैं मांसाहारी एक्टर हूं तो मुझे मीट चाहिए, मीटी रोल चाहिए। ऐसा रोल जिसमें कुछ करने को हो।'(प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, February 23, 2011

कुछ इरानियन लुक वाली सतरंगी पैराशूट

हिंदी फिल्म 'सतरंगी पैराशूट' के निर्देशक विनीत खेत्रपाल से संक्षेप में बातचीत

मेरे लिए नए फिल्मकार और अपनी पहली फिल्म बना सकने वाले (डेब्युटेंट) फिल्मकार हमेशा कौतुहल और महत्व का विषय रहे हैं। अपनी फिल्म बना पाना एक तपस्या है। तमाम विषम परिस्थियों से गुजरते हुए, हारते, रोते और घुटनों पर गिरते-उठते हुए एक फिल्म बन पाती है। इनकी फिल्म बनती है तो तब के दौर में फिल्म निर्माण के तमाम सूत्र पता चल पाते हैं। एक ऐसी ही फिल्म है 'सतरंगी पैराशूट।' इसके प्रोमो टेलीविजन पर इन दोनों काफी भीनी-भीनी उत्सुकता जगा रहे हैं। इसे प्रॉड्यूस और डायरेक्ट किया है दिल्ली के विनीत खेत्रपाल ने। लंदन से फिल्ममेकिंग पढ़कर लौटे विनीत ने अपनी उम्र के दूसरे फिल्ममेकर्स की तरह किसी डार्क फिल्म या रोमैंटिक कॉमेडी की बजाय कहानी चुनी कुछ भोले बच्चों की, जो सपने देखना चाहते हैं। ये फिल्म इस शुक्रवार 25 फरवरी को रिलीज हो रही है। परिचय स्वरूप इस युवा डेब्युटेंट फिल्मकार से एक संक्षिप्त साक्षात्कारः

अपने बारे में बताएं। ब्रिटेन से फिल्ममेकिंग सीखकर लौटने से लेकर सतरंगी पैराशूट बनने तक की जर्नी कैसी रही?
पैदाइश, पढ़ाई और परवरिश दिल्ली में हुई। स्कूल में होने वाले प्ले में एक्टिव रहता था, डायरेक्शन का भूत रहता था। ग्रेजुएशन के बाद लंदन में चार साल फिल्ममेकिंग पढ़ी। डेढ़ साल पहले भारत लौटा तो एड फिल्में और डॉक्यूमेंट्री बनाईं। मैंने कुल छह एड फिल्में बनाईं जिनमें एक इक्रेडेबल इंडिया भी थी। चार डॉक्यूमेंट्री बनाईं, जिनमें एक बीबीसी के लिए थी। 'सतरंगी पैराशूट' को पेपर पर लिखने से लेकर पोस्ट प्रॉडक्शन-डबिंग सब करने तक कुछ छह महीने लगे।

ये फिल्म किस बारे में है?
बच्चों की कहानी है जो नैनिताल में शुरू होकर मुंबई तक जाती है। कहानी के मेन प्रोटोगनिस्ट हैं आठ बच्चे। हिंदुस्तान में बच्चों पर फिल्में कम ही बनती हैं, इसलिए मैंने इस विषय को चुना। मूवी में मैसेज ये कि नन्हे बच्चों को अपने सपनों के पीछे जरूर दौड़ना चाहिए। बाकी फिल्मों की तरह इसमें बैंग-बैंग कुछ भी नहीं है। सब लाइट हार्टेड है, फिल्म में कुछ भी ओवर नहीं होता है।

फिल्म के म्यूजिक में क्या खास है?
सॉफ्ट-हल्का सा म्यूजिक है। खास ये है कि लता मंगेशकर ने फिल्म के लिए गाना गाना स्वीकार किया। उन्होंने 83 उम्र में एक आठ साल की बच्ची के लिए गाना गाया है। मैं नया लड़का हूं, पर सब सिंगर और एक्टर फिल्म के बारे में वन-लाइनर सुनते ही राजी हो गए। बाकी सिंगर्स में राहत फतेह अली खान, श्रेया घोषाल, कैलाश खेर और शान जैसे नाम हैं।

बच्चों की फिल्म है, मगर प्रोमो में संजय मिश्रा पुलिसवाले बने कुछ आपत्तिजनक डायलॉग बोलते दिखते हैं?
ये दरअसल प्रोमो में फिल्म के संदर्भ से अलग लग रहा है। फिल्म के ओवरऑल मैसेज में देखेंगे तो साधारण ही लगेगा।

शूटिंग कहां पर और कितने दिनों में हुई?
कुल अस्सी फीसदी शूटिंग नैनिताल में हुई और बाकी मुंबई में। क्रू थी 125-150 लोगों की। छह महीने में शूटिंग पूरी हो गई। सबका इतना सहयोग था कि नैनिताल में 45 दिन का शूट 32 दिन में निपट गया। बीच में खूब बारिश हुई, पर सब आर्टिस्ट आकर बोले कि जो चीज दस दिन में खत्म होने वाली थी वो हम तीन दिन में करेंगे।

इस प्रोसेस में सबसे बेस्ट चीज क्या थी?
मैंने एक बार एक्टर्स को कैरेक्टर समझाए तो उसके बाद सबने अपनी तरफ से रोल में कुछ न कुछ जोड़ा। के. के. मेनन, जैकी श्रॉफ, संजय मिश्रा, राजपाल यादव और रुपाली गांगुली जैसे सब एक्टर पहले पांच दिन कैरेक्टर्स में घुले, फिर डिस्कशन हुआ और उसके बाद शूटिंग शुरू हुई। पहले ये डर था कि मूवी में बच्चे क्या काम ठीक से कर पाएंगे। शेड्यूल भी तय दिनों का था, मौसम भी खराब था। पर आखिर में सब ठीक रहा। के. के. और संजय जैसे एक्टर्स जैसे ही सेट पर आते तो पूरा सेट लाइव हो जाता था। सब मोटिवेट हो जाते थे।

बच्चों की कास्टिंग कैसे हुई?
पूरे भारत में हमने दस हजार बच्चों का ऑडिशन लिया। सब टेलेंटेड थे। इनमें से आठ बच्चे फिट हुए। इनका रिहर्सल लिया। आठ साल का बच्चा पप्पू इसमें मेन प्रोटोगनिस्ट है। आपने इस छोटे एक्टर को सर्फ एक्सेल के एड में रोजी मिस का कुत्ता मर जाने पर उनको हंसाने के लिए कुत्ता बनते देखा होगा।

पहली फिल्म के लिए ये कहानी ही क्यों चुनी?
देखिए, कोई मूवी बिना नैतिकता नहीं आती। हालांकि मैंने दस-पंद्रह स्क्रिप्ट पहले पढ़ी थी, पर इसका पंच इतना मजबूत लगा कि पहले इसे ही बनाया।

अब जब बना चुके हैं तो क्या फीलिंग हो रही है? क्या कुछ मुश्किलें भी आईं?
हम सब लोगों को तो बहुत अच्छा लग रहा है। इंतजार है लोगों के रिएक्शन का। जहां तक मुश्किलों की बात है तो पिक्चर बनाना जितना आसान था, ऑडियंस तक इसे पहुंचाना उतना ही मुश्किल। पर जब रिलीज डेट सामने आती है तो संतुष्टि मिलती है। फिल्म को प्रिव्यू में देखने वाले सभी लोगों का यही कहना था कि इसका लुक फ्रैश है और कंटेंट भी अच्छा है।

पिछले दो साल में कोई दर्जन भर डेब्युटेंट डायरेक्टर बॉलीवुड में आए हैं और सबने अच्छी फिल्में बनाई हैं। अब पहली फिल्म बनाना इतना आसान क्यों हो गया है?
आडियंस को चाहिए रियल फिल्में। डेब्यूटेंट 25 से 30 की उम्र में आते हैं। उनके दिमाग में और युवा दर्शकों के मन में एक ही तरीके के सब्जेक्ट चल रहे होते हैं, यही सबसे बड़ी वजह है। दूसरा हर मूवी एक कंसेप्ट के साथ आ रही है। किसी प्रॉड्यूसर के पास जाते हैं तो वो सबसे पहले ये नहीं पूछते कि एक्टर कौन सा लोगे, वो पूछते हैं कि कंटेंट क्या है। कंटेंट अच्छा है तभी मूवी चलेगी। मोबाइल जैसी टेक्नोलजी ऐसी है कि बच्चे भी आज दो मिनट-दो मिनट की क्लिप मूवी बना लेते हैं।

बच्चों के इमोशंस को ईरानी फिल्में बहुत अच्छे से डील करती हैं, क्या वो भी प्रेरणा रही हैं?
ईरानी मूवीज सॉफ्ट इमोशन को केप्चर करती हैं। मुझे एक ऐसी फिल्म 'काइट रनर' बहुत पसंद आई। 'सतरंगी पैराशूट' में भी आपको कुछ ऐसा इरानियन लुक देखने को मिलेगा। इसकी झलक आपको मेरी मूवी में भी दिखेगी।

कौनसी फिल्में और फिल्ममेकर फॉलो करते हैं?
ऑनेस्टी से कहता हूं, बहुत फिल्में फॉलो की हैं। कोई मूवी नहीं छोड़ता हूं। सब देखता हूं। आमिर खान की सब मूवीज का क्रेज है। आमिर कंसेप्ट से लेकर हर चीज पर खरे उतरते हैं। बॉलीवुड में राजू हीरानी और यशराज चोपड़ा मुझे खूब पसंद हैं। अनुराग कश्यप को भी पंसद करता हूं। अंग्रेजी फिल्मों में 'सिटीजन केन' सबसे ज्यादा पसंद हैं। डायरेक्टर्स में स्टीवन स्पीलबर्ग के बाद डैनी बॉयल और जैम्स कैमरून बेहतरीन हैं।

इंडिया से बाहर स्टूडेंट इंडियन फिल्मों को कैसे देखते हैं?
लंदन में हम करीब पांच-छह इंडियन स्टूडेंट थे। सब गोरों में बॉलीवुड को जानने की जिज्ञासा रहती थी। 'मुगले आजम', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और अनुराग कश्यप की 'देव डी' ...इन तीन फिल्मों पर खूब बात होती थी। जब कोर्स करके निकल रहा था तो 'थ्री इडियट्स' आ गई। विदेशी बच्चे क्यूरियस होकर पूछते थे कि यार, बॉलीवुड की फिल्में इतनी भव्य दिखती हैं, ये तो हॉलीवुड की फिल्मों से महंगी होती हैं। अब मेरी मूवी आ गई है तो क्यूरियस हैं, वहां पर उसे प्रमोट कर रहे हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 19, 2011

इस खून की माफी नहीं मिलेगी

फिल्मः सात खून माफ
निर्देशकः
विशाल भारद्वाज
कास्टः प्रियंका चोपड़ा, विवान शाह, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफान खान, अन्नू कपूर, अलेक्जांद्र दाइशेंको, नसीरुद्दीन शाह, उषा उत्थुप, हरीश खन्ना, शशि मालवीय, कोंकणा सेन शर्मा, मास्टर अयूष टंडन, रस्किन बॉन्ड
स्टारः ढाई 2.5

लिफ्ट में उन फनलविंग यंग दोस्तों में एक मैं ही अजनबी था। 'सात खून माफ’ देखने के दौरान हर सीरियस सीन का उन्होंने मजाक उड़ाया और अब वापिस जा रहे थे। कैसी फिल्म है, इसे उन्हीं की भाषा में कहें तो ...सिर भारी हो गया, यार कुछ समझ ही नहीं आया। हां ये कुछ ऐसी ही मूवी है। विशाल भारद्वाज उन फिल्म मेकर्स में से हैं जो हिंदी फिल्मों के एक कोने में बैठे अपनी ही तरह की फिल्में बना रहे हैं। इनमें कुछ लिट्रेचर होता है, तो कुछ वर्ल्ड सिनेमा। उनकी मूवीज दर्शकों के लिए एक्सपेरिमेंटल फिल्मी भाषा वाली साबित होती हैं। कभी डार्क, डिफिकल्ट और परेशान करती तो कभी प्यारी सी 'ब्लू अंब्रैला’ जैसी। जिन लोगों को अंग्रेजी नॉवेल पढऩा और फिल्में बनाना पसंद हैं, उनके लिए 'सात खून माफ’ अच्छी फिल्म है और जो खुश होने के लिए फिल्में देखने जाते हैं उन्हें यहां खुशी के अलावा सब कुछ मिलेगा। ये फैमिली या दोस्तों के साथ जाकर देखने वाली मूवी नहीं है। ज्यादा अटेंशन रखते हैं तो अकेले जा सकते हैं। फिल्म के आखिर में सुजैना की इस शॉर्ट स्टोरी को लिखने वाले नॉवेल राइटर रस्किन बॉन्ड का भी छोटा सा रोल है.. उन्हें पहचानना न भूलें।

बात सात की
कहानी है सुजैना उर्फ सुल्ताना उर्फ एनी उर्फ सुनयना (प्रियंका चोपड़ा) की। 1964 के आस-पास की बात है। पिता की मौत के बाद सुजैना अपने पॉन्डिचेरी वाले घर में कई फैमिली मेंबर जैसे सर्वेंट्स के साथ रहती हैं। इनमें घोड़ों की देखभाल करने वाला कम कद का गूंगा (शशि मालवीय) है, एक बटलर गालिब (हरीश खन्ना) है, मैगी आंटी (ऊषा उत्थुप) है और गूंगा का गोद लिया बेटा (जिसे गूंगे ने कभी गोद में नहीं लिया) अरुण (मास्टर अयूष टंडन) है। अब आते हैं काम की बात पर और जल्दी से सब पति परमेश्वरों से मिलते हैं। सुजैना की पहली शादी होती है मेजर एडविन रॉड्रिग्स (नील नितिन मुकेश) से। मेजर साब कीर्ति चक्र विजेता हैं और ऑपरेशन ब्लू स्टार में हिस्सा ले चुके हैं। एक टांग लड़ाई में चली गई। मदाम की दूसरी शादी होती है जमशेद सिंह राठौड़ उर्फ जिमी (जॉन अब्राहम) से और तीसरी मोहम्मद वसीउल्ला खान उर्फ मुसाफिर (इरफान खान) से होती है। आगे बढ़ते हैं। पति नंबर चार हैं निकोलाइ व्रॉन्सकी (अलेक्जांद्र दाइशेंको), पांचवें हैं कीमत लाल (अन्नू कपूर) और छठवें पति हैं डॉक्टर मधुसूदन तरफदार (नसीरुद्दीन शाह), सातवां पति सरप्राइज है.. हालांकि ये सरप्राइज चौंकाता नहीं है, बस कहानी को स्पष्ट एंगल पर खत्म करता है। इस कहानी को नरेट करते हैं अरुण (विवान शाह) और सुजैना।

बेकरां हैं बेकरां
फिल्म के म्यूजिक को चतुराई से बरता गया है। इसमें हर शादी की कहानी को रियलिस्टिक बनाने के लिए कैरेक्टर के मिजाज का म्यूजिक इस्तेमाल होता रहता है। मेजर एडविन की कहानी में घुसते ही बैकग्राउंड में तानाशाह और हिंसक माहौल वाला म्यूजिक भी घुसता है। उसका गूंगे के साथ लड़ने के वक्त वो क्रूरता वाला-बेदर्दी वाला थाप, फिर मौत के वक्त चर्च का म्यूजिक और चर्च में जिमी से शादी करने से लेकर इस कहानी के अंत तक गिटार का ही खास इस्तेमाल म्यूजिक में हुई बारीक मेहनत को दिखाता है। मसलन, गिटार बजाने वाले जिमी की कहानी में ओ मामा.. जैसे गिटार आधारित गाने से फिल्म का टेस्ट बदल देना। वादियों की कहानी के दौरान कश्मीर की हवा सा पूरा फेफड़ों भरा सुकून म्यूजिक में दिखता है। बेकरां हैं बेकरां, आंखें बंद कीजे ना, डूबने लगे हैं हम, सांसें लेने दीजे नां... विशाल ने खुद गाया है। मुझे फिल्म का बेस्ट गाना लगा। जब निकोलाइ की कहानी का हिस्सा आता है तो घर की वाइन से लेकर संगीत तक पर रशियन असर आता है। डार्लिंग आंखों से आंखों को.. गाने की मैलोडी भी रूसी गाने 'कलिंका’ से ली गई है। मास्टर सलीम का गाया आवारा.... हवा पे रखे सूखे पत्ते आवारा, पांव जमी पर लगते ही उड़ लेते हैं दोबारा, आवारा... फिल्म का दूसरा सबसे अच्छा लिखा और पिरोया गाना है।

कैसे-कैसे एक्टर लोग
नील नितिन मुकेश मेजर के रोल में मेच्योर लगते हैं। प्रियंका से भी मेच्योर। एक 'मर्द’ होने का जो जरूरी भाव उनके रोल के लिए जरूरी था, वो ले आते हैं। इरफान अपने शायर वाले रोल में भले ही नया कुछ न डाल पाएं हों पर एक पति के तौर पर वो एक्सिलेंट लगे हैं। अपनी मौत को सामने देखकर जो उनकी आंखों से छिपे आंसू ढलक रहे होते हैं, उन्हें शायद ज्यादा लोगों ने नोटिस नहीं किया होगा। जॉन अब्राहम की स्टोरी में ड्रग्स से होने वाली कमजोरी से उनका ढीला पड़ा शरीर देख पाना आश्चर्य था। कैरेक्टर के लिए बॉडी में इतना बदलाव अच्छा लगा। विवान अपनी पहली फिल्म में किसी मंझे हुए एक्टर से लगते हैं। नसीर परिवार का एक और नगीना हैं वो। अन्नू कपूर को 'तेजाब’ और 'जमाई राजा’ जैसी फिल्मों के छोटे मगर सदाबहार रोल के बाद यहां कीमत लाल बने देखना लाजबाव रहा। वो एक अलग ही किस्म के आम इंसान लगते हैं। मिसाल के तौर पर सुजैना के साथ रात बिताने के बाद उनका थैंक्यू बोलने का तरीका और बाद में एक सीन में फफक-फफककर उससे शादी करने की गुहार लगाने को लिया जा सकता है। रूसी एक्टर अलेक्जांद्र और नसीरुद्दीन शाह की भी ठीक-ठाक मूमिका है। प्रियंका की बात करें तो आखिर की तीन कहानियों के दौरान उनके चेहरे के बदलाव में उम्र आगे-पीछे लगने लगती है। पहली तीन कहानियों में उनसे सहानुभूति होती है, बाद की तीन में वो विलेन लगती हैं।

कहानियों का कैलेंडर
ये फिल्म चूंकि सुजैना की लंबी जिंदगी के कई हिस्से दिखाती है ऐसे में कहानी किस साल में कही जा रही है, ये दिखाना जरूरी था। फिल्म में आउटडोर लोकेशन या पब्लिक प्लेसेज वाले सीन तो हैं नहीं, ऐसे में डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने कैलेंडर बना दिया भारत में हो रही तब की राजनीतिक, सामाजिक और दूसरी घटनाओं को। सबसे पहले दिखती है दूरदर्शन के प्रोग्रैम कृषि दर्शन की झलकी। उसके बाद आता है टी-सीरिज और वो दौर जब फिल्मी गानों की ट्यून पर माता के भजन गाए जाते थे। छोटे-बड़े रूप में बर्लिन की दीवार, वी पी सिंह की सरकार, बप्पीदा का गान, बाबरी विध्वंस और कश्मीर में प्रदर्शन करते पत्थरबाज लड़कों का जिक्र दिखाया जाता है। देख तो दिल के जान से उठता है... में मेंहदी हसन और गुलाम अली के रेफरेंस हल्के ही सही नजर आते है। रेफरेंस की छोटी-छोटी कई बातें आती रहती हैं। कुडानकुलम न्यूक्लियर प्रोजैक्ट का जिक्र है। सुजैना के चौथे पति निकोलाइ के मुंह से ही हमें पता चलता है कि उनकी कहानी के दौर में भारत न्यूक्लियर ताकत बनने में रूस की मदद ले रहा है। फिल्म में एंटोल फ्रैंस के नॉवेल 'द सेवन वाइव्ज ऑफ ब्लूबर्ड’ और नॉवेल अन्ना कुरेनिना की कॉपी दिखती हैं। सबसे लेटेस्ट टाइम में हम पहुंचते हैं छठवी कहानी में जब रेडियो पर मुंबई के होटल ताज और ट्राइडैंट पर आतंकवादी हमले की खबर आती है। संदीप उन्नीकृष्णन के शहीद होने की खबर सुनाई जाती है।

तवे से उतरे ताजा डायलॉग
नसीरुद्दीन शाह के बेटे विवान बने हैं अरुण कुमार। अरुण पूरी फिल्म में सूत्रधार हैं। सुजैना की कहानी बताते हैं। इनका कैरेक्टर्स से मिलवाने का तरीका बड़ा सहज और ह्यूमर की टोन वाला है। वॉयसओवर में ताजगी है। वसीउल्ला से मिलवाते वक्त ये कहना... वसीउल्ला अपनी शायरी में जितना नाजुक और रूहानी है... प्यार में उतना ही बीमार या फिर निकोलाइ से सुजैना की शादी के वक्त कहना... इंडिया का न्यूक्लियर टेस्ट सफल रहा और हिरोशिमा हुआ मेरा दिल। दो विस्फोट हुए। एक तो साहेब (प्रियंका) की शादी और दूसरा मैं मॉस्को रवाना हो गया।... दोनों ही डायलॉग के दौरान विवान अलग किस्म के कम्फर्टेबल एक्टर लगते हैं। इनकी आवाज से ये पुख्ता होता रहता है। मेजर रॉड्रिग्स बने नील सुजैना से कहते हैं, तितली बनना बंद करो, यू आर ए मैरिड वूमन तो फिल्म को यूं ही खारिज करना मुश्किल हो जाता है। ये डायलॉग गहरे अर्थों वाले हैं। इनमें चुटीला व्यंग्य हैं, जैसे कि ये डायलॉग.. यही होता है मियां, जल्दी-जल्दी शादी करो और फिर आराम-आराम से पछताओ। फिल्म की सीधी आलोचना करना शायद इसलिए भी मुश्किल है कि फिल्म के कई पहलुओं पर खासा अच्छा काम किया गया है।

मलीना देखी है...
डायरेक्टर गायसिपी टॉरनेटॉर की 2000 में आई इटैलियन फिल्म 'मलीना’ में मलीना (मोनिका बेलुची) भी कुछ ऐसी ही औरत होती हैं, जिसपर पास के एक लड़के का क्रश होता है। उस फिल्म में वो कारण स्पष्ट होते हैं जिनकी वजह से 12 साल का रेनेटो मलीना के प्रति फिल्म के आखिर तक आकर्षित रहता है। 'सात खून माफ’ में अरूण (विवान) सुजैना पर मोहित क्यों होता है इसका सिर्फ एक ही लॉजिक दिया जाता है। वो ये कि उसे नौकरों वाली जिंदगी से निकालकर सुजैना पढ़ने-लिखने स्कूल भेजती है। एक लड़के के एक बड़ी उम्र की औरत पर इस तरह फिदा होने की विश्वसनीय कहानी तो 'मलीना’ ही है 'सात खून माफ नहीं।‘

आखिर में...
आदमखोर शेर या पैंथर को पकडऩे की कहानियां सिर्फ 'सत्यकथा’ में ही पढ़ी थीं। हिंदी मूवीज में ऐसा काफी कम देखने को मिलता है। पैंथर पकड़ने के लिए बकरी बंधी है और मेजर रॉड्रिग्स सुजैना के साथ ऊंची मचान पर बैठे हैं। ऐसे कई अलग-अलग रंग सुखद हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी