Tuesday, April 24, 2012

तासीर में सादगी वाली कहानी और एक शब्दावली जिसमें ढेरों मां की गालियां और यौन अंगों का जिक्र है

फिल्मः 21 जम्प स्ट्रीट
निर्देशकः फिल लॉर्ड और क्रिस मिलर
कास्टः जोना हिल, चैनिंग टेटम, डेव फ्रेंको, आइस क्यूब
स्टारः ढाई, 2.5
फिल लॉर्ड और क्रिस मिलर के निर्देशन में बनी '21 जम्प स्ट्रीट को लेकर दुविधा ये हो सकती है कि इसे कैसी फिल्म माना जाए। यह एक एडल्ट लेंग्वेज वाली फिल्म भी है जिसमें मां की गालियों और यौन अंगों से जुड़ी लंबी शब्दावली है। यह एक मस्ती भरी गंदी (मजाकिया लहजे में) कॉमेडी है जिसकी तासीर को सादगी भरा रखा गया है। इसमें अब तक आ चुकी हॉलीवुड कॉमेडी फिल्मों के जितने जाहिर स्टीरियोटाइप हो सकते हैं... हैं, उतनी ही ताजगी भी है। हो सकता है एक सीन में एक यार कहकहा लगाकर हंस पड़े तो पास बैठा दोस्त चुप ही रहे। पर ठीक है, बुरी नहीं है।

शुरू होते ही विचित्र लुक वाले मॉर्टन (जोना हिल) के दर्शन होते हैं। हाई स्कूल के बाकी बच्चों के बीच अपने सुनहरे बालों और ब्रेसिल्स वाले दांतों में वह अलग ही दिखता है। वह अपनी एक सुंदर क्लासमेट को प्रॉम नाइट में ले जाने के लिए पूछ रहा है, पर हमेशा की तरह घिग्गी बंध जाती है और अटक जाता है। उसे देख कुछ दूर खड़ा उतना ही विचित्र जेंको (चैनिंग टेटम) जोर जोर से हंस पड़ता है। दोनों ही साधारण छात्र हैं। मॉर्टन पढ़ने में अच्छा है पर कूल नहीं दिखता। जेंको कूल दिखता है, पर पढ़ने में जीरो है। खैर, सात साल कहानी आगे बढ़ती है। अब ये नजर आते हैं मेट्रोपॉलिटन पुलिस एकेडमी में। नए रंग-रूप में दोनों एक-दूजे को देख चौंक जाते हैं। ग्रेजुएशन की क्लास 123 में दोनों साथ हैं। दोस्ती हो जाती है। मॉर्टन जेंको की मदद मैथ्स और दूसरे लिखित कोर्स में करता है, वहीं जेंको उसे फिजिकली मजबूत बनाता है।
तो पासआउट होने के बाद दोनों की पहली तैनाती साइकिलों पर पार्क पेट्रोलिंग में होती हैं। इस दौरान ये एक ड्रग डीलर (डिरे लुइस) को पकड़ लेते हैं पर उसे मिरांडा राइट्स पढ़कर सुनाना भूल जाते हैं। मिरांडा राइट्स दरअसल वह नियम होते हैं जो गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी पहनाते वक्त आरोपी को सुनाने होते हैं (कि, तुम्हें चुप रहने का अधिकार है। जो भी तुम कहोगे वो तुम्हारे पक्ष में और तुम्हारे खिलाफ जा सकता है। तुम्हें एक वकील रखने का भी अधिकार है, अगर खुद नहीं अफॉर्ड कर सकते तो स्टेट तुम्हें मुहैया करवाएगा।)

इस गलती के लिए उन्हें 21 जम्प स्ट्रीट नाम की दूसरी गुप्त डिवीजन में भेज दिया जाता है। किसी चर्च जैसी लगने वाली इस जगह 21 जम्प स्ट्रीट में इन्हें यीशू की मूर्ति के नीचे किसी फादर की जगह खड़ा मिलता है कैप्टन डिकसन (आइस क्यूब) जो मुंह खोलता है और थोक के भाव मां-बहन और जननांगों से जुड़ी गालियां निकालता है। ये डिविजन हाई स्कूलों में अपने गुप्त अफसर भेजती है और ड्रग्स और दूसरे अपराधों का भंडा फोड़ करती है। इन्हें भी एक मिशन के लिए इन्हीं की हाई स्कूल में भेजा जाता है। जब ये जाते हैं तो देखते हैं कि कैंपस में बहुत कुछ बदल गया है।

फॉक्स नेटवर्क पर 1987 से शुरू हुई टीवी सीरिज '21 जम्प स्ट्रीट अमेरिका में टीनएजर्स के बीच बड़ी लोकप्रिय हुई थी। उतने ही सुपरहिट हुए थे उसमें काम करने वाले यंग जॉनी डेप। उस टीवी सीरिज के मुकाबले यह फिल्म ज्यादा मजाकिया है। सीरिज से दो-तीन नामी एक्टर्स कुछ पलों के लिए फिल्म में अवतरित होते हैं। एक बड़ा एक्टर सरप्राइज है। फिल्म का सह लेखन किया है इसमें अभिनय करने वाले जोना हिल ने। अभिनय में वह और टेटम मुझे एक्साइटिंग तो नहीं लगे पर नए लगे। हंसाते हैं। गालियां बकने वाले कैप्टन डिकसन के रोल में आइस क्यूब शुरू में ओवर एक्टिंग करते लगते हैं, बाद में दर्शकों को आदत हो जाती है। कुछ प्रभावी हैं एनवायर्नमेंट के लंबे लेक्चर देने और स्कूल में ड्रग बांटने वाले एरिक के रोल में डेव फ्रेंको की।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, April 15, 2012

जब रचनात्मक उधारी क्लीशे हो जाए तो बात जैसी-तैसी हंसी को ही मौलिकता मानकर करनी पड़ती है

फिल्मः हाउसफुल 2: डर्टी डजन
निर्देशकः साजिद खान
कास्टः अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, मिथुन चक्रवर्ती, रितेश देशमुख, जॉनी लीवर, असिन, जैक्लिन फर्नांडिस, श्रेयस तलपड़े, जरीन खान, शहजान पदमसी, चंकी पांडे, बोमन ईरानी
स्टारः तीन, 3.0

शुरू करने से पहलेः अपने व्यक्तिगत स्वाद, ज्ञान, पसंद, नापसंद, विचारधारा और मनोरंजन के पैमाने के लिहाज से मैं इस फिल्म को आधा स्टार भी दे सकता था, पर इस खास फिल्म में मैंने थियेटर में बैठे तकरीबन 95 फीसदी दर्शकों की हंसी का ख्याल भी रखा। जिनमें ऐसे भी बहुत थे जो दुनियादारी की टेंशन लेकर और कुछ रुपये खर्च करके थियेटर में आए थे, सिर्फ मनोरंजन पाने के लिए। मुझे लगा कि उस मनोरंजन को देने के लिए यहां तकरीबन तीन घंटे से कुछ कम की इस फिल्म में मेहनत की गई। बाकी पहलुओं की बात करूं तो तकनीकी रूप से भी फिल्म में कहीं कोई नजर आने वाली खामी नहीं है। अदाकारों की अदाकारी भी पर्याप्त रूप से की गई है। कहीं कोई दिखता शून्य नहीं है।

एक काल्पनिक सीन है। ब्रिटेन के मशहूर उद्योगपति जेडी बने मिथुन अपनी नौकरानी (नाटे कद की एक अंग्रेज महिला) के पीछे पेड़ के इर्द-गिर्द भाग रहे हैं। वह नाटी महिला अपने छोटे-छोटे कदमों से दौड़ रही है, दर्शक हंस रहे हैं। मिथुन अपनी धोती उठाए कुछ हल्के वहशियाना अंदाजा में पीछे-पीछे कूदते चल रहे हैं। दो चक्कर लगाने के बाद वह पेड़ के पीछे उस नौकरानी को पकड़ लेते हैं। यहां सीन खत्म हो जाता है और निर्देशक साजिद खान ने अपने अंदाज में एक पर्याप्त थोथा सीन गढ़ दिया होता है। दर्शक लापरवाह हंसी की जुगाली करते हुए अगले सीन में बढ़ जाते हैं। फिल्म में इस सीन ने मुझे जितना दर्द दिया, किसी दूसरे सीन ने नहीं। हालांकि हाउसफुल-2 की कहानी में इस सीन का कोई महत्वपूर्ण संदर्भ नहीं था, ये सीन नहीं होता तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। पर इसे रखा गया। दरअसल, अक्षय कुमार और जॉन अब्राहम का किरदार अपने-अपने ससुर (ऋषि-रणधीर कपूर) को ये बताने में लगा हुआ है कि वह ही उद्योगपति जेडी के असली बेटा है, दूसरा वाला तो नाजायज है (उस नाटे कद की ब्रिटिश नौकरानी से)। बस, ये नाजायज वाला फिकरा दुरुस्त करने के लिए सीन में बौने कद वालों पर यह भद्दा मजाक किया जाता है। तो इस फिल्म में वाहियात होने की यह एक सबसे चरम मनस्थिति है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं हे बेबी या हाउसफुल का भी प्रशंसक नहीं रहा हूं। साजिद खान के बॉलीवुड के सबसे सफल निर्देशक होने के दंभ भरने और उनकी फिल्मों में नजर आने वाली सौ फीसदी रचनात्मक उधारी मुझे भविष्य में भी उनकी फिल्मों से उदासीन करती है। हाउसफुल-2’ में भी हिंदी, अंग्रेजी और एनिमेटेड फिल्मों के कई रचनात्मक पहलू उधार लिए लगते हैं, पर साजिद की फिल्म है इसलिए ये नई बात नहीं है और न ही करने की बात है, वक्त जाया होगा। एक सबसे बुरे सीन के अलावा फिल्म में फूहड़पना भी है, पर उसकी माफी भी इसलिए दी जा सकती है क्योंकि आखिर में किरदारों को नैतिक रखा गया है। मसलन, अक्षय और जॉन अपने पिता रणजीत के पास जाते हैं। अक्षय और उनके पिता के व्याभिचारी होने को इतने वक्त तक फिल्म में सेलिब्रेट किया जा रहा होता है, मगर तभी हम सुनते हैं कि रणजीत जॉन से कह रहे हैं,
मुझे इसे (अक्षय) अपना बेटा कहने में शर्म आती है।
आज तक इसने किसी लड़की को हाथ तक नहीं लगाया

जॉन चौंकते हुए अक्षय का चेहरा देखता है, कि ये अय्याश लगने वाला मर्यादित कैसे हो सकता है। दर्शकों को भी तसल्ली हो जाती है कि भई लड़का तो नैतिक है। अब सवाल है कि रणजीत तो अय्याश ही ठहरा। तो तभी, ये दोनों अपने इस डैडी को बताते हैं कि कैसे अपने दोस्त के बाप की बेइज्जती का बदला ये दोनों ले रहे हैं और चिंटू-डब्बू की बेटियों को फंसाने के बाद वो दोनों पूरी दुनिया के सामने रिश्ता तोड़ देंगे। इतना सुनते ही रणजीत अक्षय के चेहरे पर एक तमाचा जड़ देता है। अब चौंकने की बारी दर्शकों की
रणजीत कहता है,
देखो बेटा, मैंने तुम दोनों को जिदंगी में बहुत सी चीजें सिखाई हैं। लेकिन धोखा देना नहीं सिखाया। याद रखो। जिंदगी में किसी का कितना भी बुरा कर देना, लेकिन उसका भरोसा मत तोड़ना। इससे बुरा कुछ नहीं होता

कैसेनोवा की छवि वाले और आउ... जैसी वहशी ध्वनियां मुंह से निकालने वाले इस किरदार के मुंह से इतनी ऊंची बातें सुनकर हम फिल्म के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं। दो नैतिक चीजें अब तक हो चुकी होती हैं। अब आते हैं अस्पताल, जहां श्रेयस तलपड़े के किरदार जय के पिता (वीरेंद्र सक्सेना) दिल के दौरा आने के बाद से भर्ती हैं। यहां जय और जॉली (रितेश) आए हैं, और जय अपने पिता को बताता है कि वह कैसे उनके अपमान का बदला ले रहा है। इतना सुनने के बाद वह कहते हैं कि मैंने तुम्हें ये नहीं सिखाया था। ऐसा मत करो, ये गलत है। और, जय-जॉली भी बुरा रास्ता छोड़ देते हैं।

हैंगओवर जब आई तो बाथरूम में शेर होने के सीन को देख साजिद ने ‘हाउसफुल’ में भी घर में शेर वाला सीन रखा। उन्होंने नाइट एट म्यूजियम से वह सीन लिया जहां छोटा सा बंदर हीरो को थप्पड़ें मारता है, फिर उनकी फिल्म में बंदर अक्षय को यूं ही हंसाने वाले अंदाज में थप्पड़ मारता है। मैंने शुरू में ही कहा था कि रचनात्मक उधारी पर मैं कोई बात नहीं करना चाहता, इसलिए अगर ‘हाउसफुल-2’ में जॉन के हाथ और रितेश के जननांग को मुंह से पकड़ने वाला अजगर दिखता है, या अक्षय और श्रेयस के पिछवाड़े को काटने वाला मगरमच्छ होता है, तो नकल की चिंता करने के बजाय उस पर प्राकृतिक हंसी हंसना ही चतुर विकल्प बचता है। यहां मौलिकता की तो बात करनी ही नहीं है। इसके अलावा फिल्म में हंसी जरूर आती है। बार-बार आती है। जो किरदार अपनी बाकी फिल्मों में पत्थर का चेहरा बनाए रखते हैं, वो यहां भाव निकालते हैं। इन जानवरों वाले सीन में चारों अभिनेता पसीना-पसीना हो चेहरे पर अनेकों भाव लाते हैं।

फिल्म में चारों हीरोइन (असिन, जैक्लिन, शहजान, जरीन) हैं, पर सिर्फ व्यस्क फिल्मों की नजर आने वाले कामुक तत्वों जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए। उनके कपड़े भी वैसा ही होते हैं। इस लिहाज से फिल्म का मनोरंजन धीमा-धीमा एडल्ट ही होता जाता है। जाहिर है परिवार वाले दर्शकों के लिए कुछ गानों में नजर आऩे वाले उभार और झटके उनके सपरिवार फिल्म देखने के चुनाव को कठिन बनाते हैं।

फिल्म में किरदारों के हाव भाव और शारीरिक मुद्राओं से मुझे लगता है साजिद ने 'हाउसफुल-2’ बनाने से पहले चार्ली चैपलिन की फिल्में जरूर देखी हैं। उन्होंने शारीरिक कॉमेडी के अब तक ज्यादा इस्तेमाल नहीं हुए पहलू को भुनाने की कोशिश की है। जैसे, मगरमच्छ और अजगर वाले सीन में सब हीरो हैं। जैसे, आखिरी पास्ता (चंकी पांडे) एक घर के टॉयलट की खिड़की से लटककर, छत पर चढ़कर दूसरे घर में जाते हैं, फिर दूसरे से वापिस पहले में आते हैं। ये कुछ वैसा ही हास्य है। मसलन, मैंने अजगर वाले सीन जितना एक्सप्रेसिव चेहरा जॉन अब्राहम की किसी दूसरी फिल्म में नहीं देखा है। इसी धार पर श्रेयस-रितेश का भी चेहरा भी है। ये भाव एक्टर्स से निकलवाने की बधाई साजिद को जा सकती है। अगर 'पापा तो बैंड बजाएं गाने को भी देखें तो उसमें भी चारों एक्टर्स का लाइन में घुटने मोड़ते और सीधे होते हुए चलने का डांस स्टेप मूक कॉमेडी के ब्लैक एंड वाइट युग की कुछ यादें ताजा करता है।
सतही मगर तात्कालिक खिलखिलाहट के पल
# 'क्यों थक री है’ बोलते अक्षय। या बाद में मुट्ठी बांधकर उनका 'जय भद्रकाली’ बोलना।
# 'आई एम जोकिंग’ कहने का चंकी का अंदाज।
# जॉली बनकर धोखा दे रहे चारों एक्टर्स को देख दुविधा में पड़ चुके जॉनी लीवर का इंटरवल के बाद अंग्रेजी बोलने वाला सीन। और, क्लाइमैक्स में जग्गा डाकू की बंदूक से छिपे इन चारों को ढूंढते हुए अलग-अलग भाषाओं में जॉनी का बात करना। काश, जॉनी लीवर का सही इस्तेमाल हमारी फिल्मों में हो।
# सफेद रुमाल लेकर जग्गा के सामने आए चिंटू (ऋषि कपूर) गोली चलने के बाद वापिस खंभे के पीछे छिप जाते हैं और बोलते हैं, बुड्ढा पागल हो गया है। ये पूरा संवाद।
# फिल्म में असली रणजीत की एंट्री और उनका ट्रेडमार्क लार टपकाने वाला तरीका।

अगर कहानी का अंदाजा लेना हो
लंदन में रहने वाले चिंटू (ऋषि) और उनके नाजायज भाई डब्बू (रणधीर) हमेशा एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। इसी चक्कर में दोनों अपनी-अपनी बेटियों हेना (असिन) और बॉबी (जेक्लीन) के लिए लंदन का सबसे रईस लड़का ढूंढने का जिम्मा मैरिज ब्यूरो वाले आखिरी पास्ता (चंकी पांडे) को सौंपते हैं। अनजाने में चिंटू रिश्ता लेकर आए जय (श्रेयस) के पिता का इतना अपमान करते हैं कि उन्हें हार्ट अटैक आ जाता है। बदला लेने के लिए जय अपने दोस्त जॉली (रितेश) के साथ मिलकर चिंटू को सबक सिखाने की ठानता है। इसमें वह अपने पुराने दोस्तों सनी (अक्षय) और मैक्स (जॉन) को भी शामिल कर लेता है। मगर नाटक कुछ लंबा खिंच जाता है और बाद में चार पिता, उनकी चार बेटियां, चार लड़के और ढेर सारा असमंजस पैदा हो जाता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

वीडियोगेम्स में भावप्रवणता नहीं होती, फिल्मों में होती है, बैटलशिप में भी नहीं है

फिल्म: बैटलशिप
निर्देशकः पीटर बर्ग
कास्टः टेलर किच, लियाम नीसन, ब्रुकलिन डेकर, रिहाना, एलेग्जेंडर स्कार्सगार्द, तदानोबू असानो, पीटर मेकनिकोल, जेसी प्लीमोन्स
स्टारः दो, 2.0'बैटलशिप किसी वीडियोगेम की तर्ज पर बनी (असल में बच्चों के वीडियोगेम पर) फिल्म है इसलिए इसमें बहुत सी जगहें, शिप, किरदार, एलियन और एक्शन सीन है। तो हो सकता है कि बहुतेरी चीजों में बहुत असमंजस लगे, इसलिए आसान हो वही बात करेंगे। शुरू करने से पहले कह दूं कि 'डिस्ट्रिक्ट 9’ आज भी एलियंस को लेकर बनी मेरी पसंदीदा फिल्म है। 'बैटलशिप’ पर आएं तो ये अब तक की सभी कमर्शियल एलियन अटैक और अमेरिकी सेनाओं की जवाबी कार्रवाही पर बनी फिल्मों का मिला-जुला रूप है। ऐसे में जैसे इसकी कहानी चलती है उसमें कुछ नए की उम्मीद करना व्यर्थ है।

खैर, अमेरिका में हवाई के समंदर में नेवल एक्सरसाइज चल रही है। एडमिरल शेन (लियाम नीसन) चीफ हैं। इसी एक्सरसाइज में लेफ्टीनेंट एलेक्स हूपर (टेलर किच) भी हैं जो भरपूर टेलंट के बावजूद अपने खराब बर्ताव और बड़े लापरवाह रवैये की वजह से सबकी हताशा का कारण बनते हैं। वह एडमिरल शेन की बेटी समांथा (ब्रुकलिन डेकर) से प्यार करते हैं, शादी करना चाहते हैं, पर एडमिरल को कैसे कहें, ये दुविधा है। उन्होंने नौसेना का इतना अनुशासन तोड़ा है कि सस्पेंड किए जाने वाले हैं। पर तभी ब्रम्हांड में ब्रम्हास्त्र सी तेज गति से सैटेलाइट्स को तबाह करते हुए आ रहे तीन एलियन विमान समंदर में इन नेवल शिप के बीचों-बीच आ धमकते हैं। वो ऊर्जा जुटा रहे हैं और अपने ग्रह से संपर्क करना चाह रहे हैं। इन्होंने समंदर में दो शिप तबाह कर दिए हैं। अब हूपर, ऑफिसर कोरा (रिहाना, पहली फिल्म इस पॉप सिंगर की), उनके दो-तीन दूसरे साथी और कई जापानी नौसैनिक ही बीच समंदर रह गए हैं और जिन्हें बेहद ताकतवर एलियंस का मुकाबला करना है।

मैं जिन फालूदा चीजों की बात कर रहा था उनमें वो संदर्भ भी हैं, जहां रक्षा मंत्रालय में अफरा-तफरी मची हुई है और दूसरे मुल्क पर भी हमला हो गया है। ये सीन भी हमले के बाद इसी अंदाज में दिखाए जाते हैं। एक ओर हूपर और उसका दल एलियंस के सामने फंसे हुए हैं, वहीं उसकी गर्लफ्रेंड समांथा भी बाहर से एक रिटायर्ड अपाहिज अश्वेत सैनिक की मदद से कुछ करने में लगी है। पहले एलियन सर्वशक्तिमान लग रहे होते हैं, बाद में उन्हें हराने का तोड़ ढूंढ ही लिया जाता है। एक-एक चीज पहले की देखी-भाली है।

फिल्म के विजुअल इफैक्ट बिलाशक कमाल के हैं। इतने झक्कास कि क्या कहें। सिर्फ इन विजुअल्स को देखने के लिए फिल्म थियेटर में देखी जा सकती है। मगर कुल मिलाकर ये कुछ पकाती है। क्योंकि इसकी कहानी बड़ी कमजोर है। इमोशन बिल्कुल नहीं हैं। अमेरिकी देशभक्ति का जो हर बार वाला डोज यहां दिया जाता है, वो भी असर नहीं करता। निर्देशक पीटर बर्ग की इस फिल्म में स्पेशल इफैक्ट इतने उत्तम तरीके से बनाए गए हैं कि अफसोस होता है कहानी पर मेहनत क्यों नहीं की गई।

कहीं न कहीं यही गलती पीटर ने अपने पूरे फिल्मी करियर में की है। उन्होंने ड्वेन जॉनसन, जो रॉक के नाम से मशहूर हैं, को लेकर 'वेलकम टू जंगल' नाम की फिल्म बनाई। मुझे तब पसंद आई थी। खासतौर पर ड्वेन का जंगल में लोकल आदिवासी मगर कूल डूड जैसे लगने वाले फाइटर लड़ाकों के साथ द्वन्दयुद्ध। उन सीन में ड्वेन के स्टंट वाकई में कमाल कच्चे थे। 'बैटलफील्ड' में एलियंस के धातु से बने कवच उनका आकर्षण खत्म करते हैं। फिल्म में एलियन से हूपर के लड़ने का एक सीन है, जो तमाम खर्चे और विजुअल वजन के बावजूद भावहीन है। इसी तरह पीटर की विल स्मिथ के साथ 2008 में एक नवीन किस्म की सुपरहीरो फिल्म 'हैनकॉक' आई थी। टीशर्ट-हाफ पेंट और हाथ में दारू की बोतल लिए ये सुपरहीरो कमाल के यथार्थ के साथ उड़ता है। फिल्म की कहानी भी नई थी कि एक सुपरहीरो है पर वो इतना लापरवाह है कि उसका अच्छा काम भी लोगों को बुरा लगता है। ठीक वैसे ही जैसे बैटलफील्ड में हूपर को सब पोटेंशियल वाला ऑफिसर कहते हैं पर उसमें अनुशासन न होना, सबकी नजरों में उसे बुरा बना देता है। एक तरह से हैनकॉक और हूपर दोनों एक ही पिता की संतान हैं। वो पिता है डायरेक्टर पीटर बर्ग। पीटर नए तरीके जरूर खोजते हैं, पर कहानी और किरदारों का भावहीन अभिनय सारी मेहनत पर पानी फेर देता है। 'बैटलफील्ड' में हल्का-फुल्का हास्य भी है, समंदर में एलियन विमानों से बढ़िया लड़ाई भी है पर मनोरंजन की निरंतरता और कहानी में दर्शकों को फुसलाने वाले मनोवैज्ञानिक मोड़ नहीं हैं।

ये कैसी अजीब बात है कि जैसा डायरेक्टर पीटर बर्ग के साथ है कि उनके किरदारों की तरह उनमें भी प्रतिभा है पर आज तक उस प्रतिभा से वो खुद को साबित नहीं कर पाए हैं। ठीक ऐसा ही फिल्म के मुख्य कलाकार टेलर किच के साथ है। टेलर ही इस साल आई बेहद शानदार स्पेशल इफैक्ट्स वाली मगर अच्छे से नहीं बन पाई फिल्म 'जॉन कार्टर' में महायोद्धा जॉन कार्टर बने थे। मगर देखिए, समृद्ध तकनीकी प्रयोग से भरी दोनों ही फिल्मों में टेलर किच का काम दब गया।

बैटलफील्ड को वीडियोगेम के दीवाने देख सकते हैं, विजुअल इफैक्ट्स के दीवाने भी, पर जो फिल्मी कथ्य के दीवाने हैं उन्हें रास नहीं आएगी।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 14, 2012

बराबर बांटेगा भलाई, बिट्टू!

फिल्मः बिट्टू बॉस
निर्देशकः सुपवित्र बाबुल
कास्टः पुलकित सम्राट, अमिता पाठक
स्टारः ढाई, 2.5निर्देशक सुपवित्र बाबुल और निर्माताओं ने अपनी इस फिल्म को शुरू में ही इतना कमतर समझा कि 'इस बार सबकी लेगा बिट्टू जैसी घटिया पंचलाइन का इस्तेमाल करने चले। जबकि फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती तो बिट्टू के भीतर की 'मुन्नाभाईनुमा’ अच्छाई है। वह इस घोर कलयुग या कहें तो 'दूसरों के मामले में टांग नहीं अड़ानी चाहिए जैसी मॉडर्न घरेलू सीखों वाले टाइम में भी लोगों की मदद करता है। अपनी जिंदगी का बाद में और दूसरों की खुशी का ख्याल पहले रखता है। जबकि कहते हैं कि ऐसे भले काम अब डम्ब और डफर किस्म के लोग ही करते हैं, हीरो लोग तो स्टाइल मारते हैं और स्टंट करते हैं। बिट्टू व्यावहारिक है, स्मार्ट है और आदर्श है।

मगर इसे निभाने में पुलकित सम्राट गजब के नहीं लगते हैं। उनका पंजाबी एक्सेंट लडख़ड़ाता है। चेहरे पर भाव भी एकसर ही हैं। हंसने के सीन में उनका चेहरा कॉमिकल नहीं होता और रोने के सीन में कलेजा नहीं फटता। ऐसा ही अमिता की एक्टिंग के साथ है। जब उनकी किरदार मृणालिनी बिट्टू को एक चैनल हेड से मिलवाने ले जाती है, तो ऑफिस से बाहर आने के बाद उनका लडऩे का अंदाज बड़ा ही लाउड है, कर्कष है। कान दुखने लगते हैं। दुख के साथ कहूंगा कि अमिता भावहीन अभिनय करती हैं। उन्हें कुछ दिन थियेटर और नाटकों में गुजारने चाहिए। सुपवित्र बाबुल का निर्देशन इंटरवल के बाद कमाल का होता है, पर आखिर में रफ्तार और नए तरीके के क्लाइमैक्स की गाड़ी पंचर होकर चलती है। गौतम मेहरा के डायलॉग फीके हैं। लेकिन इन सबके बावजूद कहूंगा कि एक बार 'बिट्टू बॉस’ जरूर देखें। अलग लगेगा, अच्छा भी लगेगा। शिमला में शादीशुदा जोड़ों की फिल्में बनाने गया बिट्टू कैसे एक-दो कपल्स की मदद करता है, इसका लुत्फ उठाने के लिए ही सही।

इसकी कहानी एक आदर्श वीडियोग्राफर की है। कहा जाता है कि आनंदपुर, पंजाब में किसी के घर शादी की रस्में शुरू नहीं होतीं, जब तक बिट्टू (पुलकित) वीडियोग्राफर नहीं पहुंच जाए। खुशमिजाज, टशन वाला और भले दिल का बिट्टू ऐसी ही एक शादी में मृणालिनी (अमिता) से टकरा जाता है। रुकावटों के बाद प्यार होता भी है तो मृणालिनी बिट्टू के अडिय़ल मगर सच्चे रवैये से नाराज होकर कहती है कि वह कभी सक्सेसफुल नहीं हो सकता। इन बातों को दिल पर ले वह पैसे कमाने के गलत रास्ते को चुन लेता है। मगर उसके भीतर का भला इंसान क्या उसे बुरा करने देगा? नहीं करने देगा तो अमिता कैसे मिलेगी? इन सवालों के साथ कहानी नए तरीके से आगे बढ़ती है।

मेरे कलेजे को ठंडक मिली इस फिल्म के जरिए एक निर्मल कॉमिक किरदार के फिल्मों में प्रवेश से। चाहे उन्हें आगे फिल्मों में उनके मुताबिक रोल न ही मिल पाएं, पर वो यहां लुभाते हैं। उनका निभाया किरदार शिमला में बिट्टू को टैक्सी चलाते हुए मिलता है। दुर्भाग्य से इन एक्टर का नाम नहीं पता, पर परदे पर उन्हें देख कोई हंसे बिना नहीं रहेगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, April 5, 2012

"हालांकि मेरी फिल्म का हीरो सामाजिक संदेश नहीं देता, मुश्किलें दूर नहीं करता, पर मेरी फिल्में आसान होती हैं"

इमरान हाशमी से बातचीत

एक वक्त में इन्होंने फौज में लेफ्टीनेंट बनने की परीक्षा दी थी, पर सलेक्शन नहीं हुआ। फिर फिल्मों में आ गए, पर एक फौजी वाला अटल रवैया एग्जाम वाले दिनों से उनके साथ चला आया। तभी तो बुद्धिजीवियों द्वारा उन्हें बी ग्रेड एक्टर माना जाने या कॉमेडी शोज में सीरियल किसर कहकर खारिज करने की बातों ने उनपर असर नहीं डाला। उन्होंने 'गैंगस्टर' और 'मर्डर' में भी खुद को सिंगल स्क्रीन का स्टार साबित किया था, जो लोग इतने के बाद भी उन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं थे, उनके लिए 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' और 'द डर्टी पिक्चर' जैसे अलग किरदार भी आए। ये इमरान हाशमी हैं। बीते नौ साल से फिल्में कर रहे हैं। सफलता दर अपने समकालीन एक्टर्स से बेहतर है। उनकी आने वाली फिल्में हैं 'मर्डर-3', 'राज-3', 'रश', 'जन्नत-2', 'शंघाई' और 'घनचक्कर'। चूंकि मर्डर, राज और जन्नत के सीक्वल नियमित मिजाज के ही होंगे, इसलिए ज्यादा उत्साह उन्हें शंघाई, घनचक्कर और रश में देखने को लेकर है।

इमरान कहते हैं कि 'जन्नत-2' उनके लिए अब तक की भावनात्मक रूप से सबसे ज्यादा बहा देने वाली फिल्म थी। 'इमोशनल सीन्स के अलावा फिल्म में मुझे नॉर्थ इंडियन एक्सेंट पकडऩे में बहुत मेहनत करनी पड़ी।' भाषा के लिहाज से उन्हें दिबाकर बैनर्जी की फिल्म 'शंघाई' में अपने किरदार (संभवत: प्रेस फोटोग्रफर) का लहजा भी बहुत कठिन लगता है। फिल्म में वह अभय देओल और कल्कि के साथ काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता की 'घनचक्कर' में वह फिर से विद्या बालन के साथ दिखेंगे। वह बताते हैं, 'ये बड़ी फनी रियलिस्टिक कॉमेडी है। लोगों को खूब हंसाएगी। कुछ मायनों में पाथ ब्रेकिंग होगी।' वैसे अपने रोल छिपाकर रखने वाले इमरान यहां बताते हैं कि घनचक्कर में वह एक बैंक के लॉक एक्सपर्ट बने हैं। इन सबके बीच एक खास फिल्म 'रश' भी रहेगी। इसमें इमरान एक न्यूज चैनल के खोजी पत्रकार सैम ग्रोवर का किरदार निभाएंगे। (इस फिल्म के निर्देशक शमीन देसाई शूटिंग के बीच ही चल बसे, बची शूटिंग उनकी बीवी प्रियंका ने पूरी की) खैर, प्रस्तुत है उनसे हुई इस बातचीत के कुछ अंश:

आप हर फिल्म के साथ खुद को साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में कैसा लगता है जब कॉमेडी शोज में और दूसरे मंच पर आपको सीरियल किसर कहा जाता है?
मुझे इस इमेज या परसेप्शन से लगाव नहीं है। गलत भी हो सकता हूं पर शायद इन लोगों के दिमाग में है कि किसिंग मेरी फिल्मों में एक तय चीज होती है। तो वो उसे इस्तेमाल करते हैं अपने चुटकुलों में। मुझे तो इस बात को हल्के में ही लेना पड़ेगा। उसके बारे में सीरियस हो जाऊं और रोना शुरू कर दूं तो फिर मुझसे बड़ा बेवकूफ कोई हो नहीं सकता।

स्टार्स की फिल्में हिट या फ्लॉप होती हैं तो उनके करीबी उन्हें बताते हैं कि इसमें तुम्हारा काम ऐसा था। ये बुरा था ये अच्छा था। आपको ये फीडबैक कैसे मिलता है? दोस्त बताते हैं या आप खुद अनजान जगहों पर जाकर लोगों को सुनते हैं, थियेटरों में जाते हैं?
फैमिली और फ्रेंड्स हैं। वह बताते हैं। दूसरा, मैं खुद सिंगल स्क्रीन थियेटर्स में जाता हूं। वहां बैठकर लोगों के बीच फिल्में देखता हूं। छोटे शहरों में खुले दिल से लोग बताते हैं। फिल्म जैसी होती है बिल्कुल दिल से वैसा बता देते हैं। पसंद आती है तो गले लगाते हैं, पसंद नहीं आती तो सीधा मुंह पर कहते हैं। मुझे उनका रिएक्शन पसंद आता है। मुंबई जैसी बड़ी जगहों के मल्टीप्लेक्स में लोगों का रिएक्शन ईमानदार नहीं होता। वो हाथ मिलाते हैं, ऑटोग्राफ लेते हैं बस। तो मैं वहां नहीं जाता।

ये आपकी फिल्मों के चयन में भी नजर आता है। आप चुनते भी वही हैं जो आसानी से समझ आती हों। जो बौद्धिक तौर पर लोगों को डराने की बजाय उन्हें हल्के से एंटरटेन करके निकल जाए। क्या आप इरादतन वैसी फिल्म चुनते हैं या अब तक वैसी ही मिली हैं?
मैं ये समझता हूं कि जिस फिल्म में सरल बात कहनी होती है वही सबसे ज्यादा टफ होती है। सब्जेक्ट तो हर तरह के आते हैं पर मेरी फिल्मों में कोशिश ये रहती है कि आसानी से बात कही जाए। समझने में कहीं कुछ बोझ न लगे। हां, मेरी फिल्मों में ये बातें गहरे अर्थों में नहीं कही जाती है। मेरी फिल्म का हीरो आपको कोई मैसेज नहीं देता, आपकी परेशानियों को सुलझाता नहीं है। कहानी काल्पनिक भी होती हैं पर कहीं न कहीं ये आपकी असल जिंदगी से आकर मिलती हैं। आपको लगता है कि हां, फिल्म में कुछ न कुछ सच्चा है।

कुछ इंडियन फिल्मों के हीरो लोग की आदत होती है कि वो फिल्म करेंगे, उसके बाद इंट्रोवर्ट हो जाएंगे जब तक रिलीज होती है। फिर दूसरी फिल्म में जुट जाएंगे, ज्यादा विज्ञापन नहीं करेंगे और खुद को थोड़ा रहस्यमयी रखेंगे, ताकि उनकी अगली फिल्म आए तो लोगों को देखने में मजा बहुत आए। जैसे, अनिल कपूर हैं। विज्ञापन नहीं करते हैं, या दूसरे स्टार्स हैं। क्या आपने भी ऐसा सोच रखा है या अनजाने में ही आपकी ऐसी छवि बन गई है?
मैं विज्ञापन नहीं करूंगा ऐसा तो कोई प्रण नहीं ले रखा। पर, व्यक्तित्व की बात पर कहूंगा कि ओवर एक्सपोजर से जो मिस्ट्री एलीमेंट यानि रहस्य वाला तत्व है वह चला जाता है। 'स्टार्स शुड बी एनिग्मेटिक।' अगर ऐसा नहीं होता और आपके बारे में लोग सबकुछ जान जाएंगे तो मजा नहीं आएगा। खासकर मेरी फिल्मों में, मैं ऐसे ही कैरेक्टर करता हूं। मेरी फिल्मों के कैरेक्टर्स में थोड़ा रहस्य वाला तत्व होता है और मेरी पर्सनल लाइफ में भी वैसी ही मिस्ट्री मैं बनाकर रखता हूं। इससे लोग मेरे बारे में कम जानेंगे और ये मेरी फिल्मों के किरदारों को और जानने लायक बनाएगा।

अंतर्मुख से
# फिल्में: ज्यादा नहीं देखता, शूटिंग में बिजी रहता हूं।
# कुछ तो पसंद होंगी: हां, राजकुमार गुप्ता की 'नो वन किल्ड जैसिका', दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' और मिलन लुथरिया की फिल्में।
# किसी भी सीन से पहले: अपनी लाइन याद करता हूं। माहौल में घुसता हूं। दूसरे एक्टर्स से बात करता हूं। निर्देशक से बात करता हूं।
# अनुभव कहां से सीखते हैं: लाइफ से जुड़ा रहता हूं। हर चीज ईमानदारी से देखता हूं। विश्लेषण करता हूं। यह ही तय कर रखा है।
# घर का इंटीरियर: मैंने, मेरे डैड और मेरी वाइफ ने मिलकर डिजाइन किया है।
# पसंद है: ट्रैवल करना।
# फिल्मी पार्टीज: बोरिंग लगती हैं।
# दोस्तों की पार्टीज: ...में जाता हूं।
# बेटा अयान: फरवरी में दो साल का हुआ है। जिम्मेदारी है। सही से निभाने की कोशिश कर रहा हूं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

हैपी हंगर गेम्स! मुबारकबात में छिपा गूढ़ सामाजिक व्यंग्य, पहचान सको तो पहचानो, बाद में मत बोलना बताया नहीं था

Happy Hunger Games. May the odds be ever in your favour.

फिल्मः द हंगर गेम्स (अंग्रेजी)
निर्देशकः गैरी रॉस
कास्टः जैनिफर लॉरेंस, जॉश हचरसन, डोनल्ड सदरलैंड, वेस बेंटली, वूडी हैरलसन, लियाम हैम्सवर्थ
स्टारः तीन, 3.0डायरेक्टर गैरी रॉस की ये फंतासी फिल्म हमारे दौर के समाजों के लिए बहुत रेलेवेंट है। इसकी सतह पर ठीक-ठाक मनोरंजन चलता रहता है, जिसे देखा जा सकता है। वहीं दूसरी परत पर रिएलिटी शोज और लोगों को मूर्ख बनाकर रखने की सरकारों की साजिशों पर टिप्पणी भी चलती रहती है। मतलब सामाजिक बहस की बहुत सारी चीजें मिलती हैं। जैसे, हंगर गेम्स नाम के खूनी ग्लैमर भरे टीवी प्रोग्रैम के पीछे का क्या मनोरंजन निर्माण है, पता चलता है। फिर कैसे पेनम देश का प्रेसिडेंट कोरियोलिनस (डोनल्ड सदरलैंड) 'उम्मीद’ और 'राष्ट्रभक्ति’ जैसे शब्दों में लोगों को बरगलाए रखता है।

इन गेम्स के ऑर्गनाइजर सेनेका (वेस बेंटली) से वह कहता है...
हम हर साल इन गेम्स में एक विनर का कंसेप्ट क्यों रखते हैं?
डिस्ट्रिक्ट्स को डराना ही हो, तो हम हर साल कोई 24 लोग चुनकर उन्हें सीधे गोली भी मार सकते हैं।
लोग डरे रहेंगे और प्रोसेस भी छोटा होगा। पता है क्यों?
होप।
लोगों को होप देने के लिए।
उम्मीद देने के लिए।
क्योंकि उम्मीद एक अकेली ऐसी चीज है जो डर से ज्यादा मजबूत होती है

फिल्म से दो पल के लिए बाहर आकर देखें, तो क्या ये उम्मीद वाला जाल हमें हमारे चारोंमेर बुना हुआ नहीं दिखाई देता? हमारे टीवी कार्यक्रमों में? हमारी सरकारों के बयानों में? खैर आगे बढ़ते हैं। इन गेम्स में यंग केटनिस एवरडीन और पीटा मलार्क का मैंटोर (जैसे हमारे सिंगिंग और डांस रिएलिटी शोज में मैंटोर होते हैं) हैमिच (वूडी हैरलसन) है, जो एक बार ये गेम्स जीत चुका है। वो दिल का भला है, पर इस तंत्र से भीतर तक इतना ऊब चुका है कि शराब पीता रहता है। उसने सारी आशाएं त्याग दी हैं। किसी क्रांति की या बदलाव की उम्मीदें छोड़ दी हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमने छोड़ी हैं। या फिरदामिनी के गोविंद (सनी देओल) ने छोड़ दी थी, जब तक कि किसी पराई कमजोर नौकरानी ऊर्मी को न्याय दिलाने के लिए अपनी जिदंगी दाव पर रख देने वाली दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्रि) उसे नहीं मिल गई थी। जो काला कोट उसने उतार फेंका था, वह उसने फिर से पहना। शराब छोड़ी और इंदरजीत चड्ढा (अमरीश पुरी) को कोर्ट में धूल चटाई। ‘दामिनी’ का ये संदर्भ ‘हंगर गेम्स’ पर बिल्कुल खरा उतरता है। क्योंकि जब डिस्ट्रिक्ट एक और दो के प्रशिक्षित प्रतियोगी लड़के-लड़कियों की आंखों में खून बहाकर ये रिएलिटी शो जीतने की अमानवीयता नजर आ रही होती है, ठीक उसी वक्त हैमिच को किशोरवय लड़की केटनिस की आंखें नजर आती हैं। मेहनतकश, पुरुषार्थ और सदाचार से भरी आंखें। हैमिच गलत नहीं होता। केटनिस अपनी अच्छाई नहीं छोड़ती। ग्लैमर और सत्ता के भटकाव के किसी भी मोड़ पर नहीं छोड़ती। जो क्रांति नामुमकिन लगती है, वह संभवतः आती है। सुजैन कॉलिन्स के 2008 में लिखे इस उपन्यास (हंगर गेम्स) के दूसरे (कैचिंग फायर) और तीसरे (मॉकिंगजय) भाग में। जो आप संभवतः फिल्म के दूसरे और तीसरे सीक्वल में देख पाएंगे।

शुरू में हैमिच इन लड़के-लड़की को टालता रहता है, पर बाद में वह भी अपने स्तर पर कोशिशें करता है। अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि शुरू के एक-दो सीन के अलावा हैमिच कहीं भी शराब की बोतल पकड़ लड़खड़ाते नहीं दिखता। हमारे गोविंद की तरह। हैमिच हमें और केटनिस-पीटा को स्पॉन्सरशिप के छल के बारे में बताता है। वह सीधी-स्वाभिमानी केटनिस को सिखाता है कि जब ये खेल शुरू होगा तो तुम्हें जिंदा रहने के लिए खाने-पीने, दवा और पानी की जरूरत होगी। उसके लिए स्पॉन्सर चाहिए। और, स्पॉन्सर तभी मिलते हैं जब लोग तुम्हें लाइक करें। (इस लाइक शब्द की माया बड़ी भारी है, जो फेसबुक जैसे माध्यमों पर अनाज मंडी में बिखरे गेहूं के दानों जितनी असंख्य हो रही है, बहुत कुछ सोचने की गुंजाइश है अभी) जब खेल शुरू होते हैं तो हैमिच खराब सिस्टम के भीतर रहते हुए ही कुछ न कुछ करता है। आग के घावों से तड़प रही केटनिस के लिए मरहम भिजवाता है। स्पॉन्सर्स के जरिए। बाद में दर्शकों को मसाला देने के लिए केटनिस और पीटा के बीच के अनाम रिश्तों को लव स्टोरी बनाकर बेचा जाता है। हालांकि असल में होता बस इतना ही है कि पीटा मन ही मन केटनिस को बहुत पहले से चाहता है। वहीं वह पीटा की एक भलाई को कभी नहीं भूल पाई है। कि एक वक्त में जब वह भूख से किलबिला रही थी, बेकरी वाले के बेटे पीटा ने जानवरों के लिए रखी ब्रेड चुपके से उसके लिए फेंकी थी। केटनिस कृतज्ञ है, पर पीटा कहता है कि मुझे तुम्हें कुछ और गरिमामय तरीके से वह ब्रेड देनी चाहिए थी।

हंगर गेम्स की कहानी पर आते हैं। पेनम देश के डिस्ट्रिक्ट-12 में रहती है 16 साल की केटनिस एवरडीन (जैनिफर लॉरेंस)। घर में मां और इस साल 12 की हुई बहन प्रिम है, जिसे वह जान से ज्यादा प्यार करती है। यहां के अत्याधुनिक महानगर 'द कैपिटॉल’ का बाकी मुल्क पर नियंत्रण है। बाकी सब जिलों में गरीबी है। सालाना होने वाले 'हंगर गेम्स’ में 12 जिलों से 12 से 18 साल के दो लड़के-लड़की लॉटरी से भेंट (बलि, फिल्म में इन्हें ट्रिब्यूट कहा जाता है) के तौर पर चुने जाते हैं। हिस्सा लेने वाले 24 यंगस्टर्स में से 23 मरते हैं और एक जीतता है। किसी रिएलिटी शो की तरह इसकी तैयारी और प्रसारण होता है। तो इस बार 74वें हंगर गेम्स में प्रिम चुन ली जाती है, पर उसे बचाने के लिए बड़ी बहन केटनिस वॉलंटियर करती है। उसके साथ डिस्ट्रिक्ट-12 से पीटा (जॉश हचरसन) को चुना जाता है।

इस फिल्म में किसी अच्छी फिल्म वाले पलों को महसूस करना हो तो ऐसा ही एक पल कहानी के इस मोड़ पर आता है। जब ट्रिब्यूट्स का नाम पुकारे जाने के बाद वहां सामने खड़े लोगों के चेहरों पर मरघट सी शांति छा जाती है। बाद में जब उन्हें रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए गाड़ी घर आती है तो गाड़ी में बैठने के बाद पीटा रोने लगता है। वह रो रहा है और उसे ले जाने आई हंगर गेम्स की प्रतिनिधि, मेकअप में पुती (फिल्म में दिखाए गए आधुनिक वक्त में पहने जाने वाले सभ्रांत इंग्लिश-फ्रेंच कपड़ों के फैशन के साथ) ऐफी (एलिजाबेथ बैंक्स) इन खेलों की बर्बरता से नावाकिफ राखी सावंत जैसी सतही समझ लिए बोलती जाती है...
कि तुम्हें खुश होना चाहिए,
कि तुम दोनों अपने देश के लिए चुने गए हो,
जिसके लिए लोग तरसते हैं,
अब तुम हीरो हो जाओगे

यानि वह अवसरों, फेम और महानगरीय लालचों की बातें बड़बड़ा रही होती है। और, एक आम आदमी की लाचारी, बेबसी और भलमनसाहत लिए पीटा आंखों से पानी टपका रहा होता है। उसे पता है कि उसे एक ग्लैमर के जहर से बने टीवी रिएलिटी शो की भेंट चढ़ जाना है। वजह सिर्फ इतनी सी है कि उसके इस मुल्क में लोकतंत्र नहीं है, जो तथाकथित लोकतंत्र है भी, वो लोगों को कितना भरमाए रखता है। मनोरंजन, महानगर और विकास के असंवेदनशील खोखले नारों में।

जिला-12 से केटनिस-पीटा दोनों को रॉयल ट्रेन में महानगर लाया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे ऑडिशन होने के बाद छोटे-छोटे कस्बों से प्रतिभागियों को मुंबई लाया जाता है, ईंटो या लकड़ी के घरों में रहने वालों को दानवाकार चमकीली ईमारतों वाले इस महाशहर में। महाशहर लाकर इनके शरीर को रगड़कर-बाल उतारकर ब्यूटी डिजाइनिंग और वस्त्र सज्जा की जाती है। अलग से होटलनुमा फ्लैट्स में ठहराया जाता है। फिर इवैल्यूएशन की नौटंकी शुरू होती है। जैसे इंटरव्यू में या जजेज से सामने डांस रिएलिटी वाले या सिंगिंग रिएलिटी वाले प्रतिभागी परफॉर्म करते हैं, उसी तरह फिल्म में होता है। केटनिस-पीटा दोनों हॉल के बाहर बैठे हैं। नाम पुकारा जाता है, केटनिस अंदर जाती है, वहां उसे अपना कोई टेलंट दिखाना है और जो जज करने वाले सिविलाइज्ड वनमानुष वहां ओपेरानुमा हॉल की बालकनी में बैठे हैं, उनका ध्यान सोशलाइट्स की तरह बातें करने पर है। कोई उसपर ध्यान नहीं देता। वह अपना नाम पुकारकर कहती है,

डिस्ट्रिक्ट 12 से इवैल्यूएशन के लिए केटनिस ऐवरडीन हाजिर है...”

सब स्थिर होते हैं, बैठते हैं, वह धनुष चलाती है, पहला तीर निशाने से जरा दूर लगता है। सब हंसते हैं और फिर से बातों में बिजी हो जाते हैं। केटनिस का अगला तीर टारगेट के सीने में लगता है, मगर कोई उसे देख नहीं रहा होता है। वो वहां डिनर टेबल पर रखे भुने सूअर के इर्द-गिर्द खड़े होकर हंसी-ठिठोली कर रहे होते हैं। इतना देखने के बाद केटनिस का अगला तीर सूअर पर जाकर लगता है। सब भौंच्चके रह जाते हैं। फिर वह एलीट दर्शकों के समक्ष झुकने के किसी बैले डांसर वाले अंदाज में पीछे घुटनों को मोड़कर सिर झुकाती है (उनका मजाक उड़ाते हुए) और कहती है, इन योर कंसीडरेशन सर ये हिस्सा बेहद आनंददायी होता है।

डेथ रेस जैसी तमाम ऐसी फिल्में जो हमारे लिए खून-खराबे वाली कचरा फिल्मों की श्रेणी में आती है, हमें बार-बार आने वाले वैश्विक समाज का आइना दिखाती है। जब टीवी का प्रकोप किस हद तक बढ़ जाएगा। प्रैक्टिकल होने और जो लोगों को पसंद आता है वो दिखाते हैं...’ वाले पूंजावादी तर्क पर हमें सोचने को बहुत कुछ देती हैं। ‘हंगर गेम्स’ इनसे अलग है। और, इसे अलग बनाते हैं गैरी रॉस अगर याद हो तो नौ साल पहले गैरी ने ही टॉबी मैग्वायर को लेकर सीबिस्किटजैसी शानदार स्पोर्ट्स बायोपिक बनाई थी। कम कद के कुछ गैर-मैचो घोड़े सीबिस्किट और उसके जॉकी रेड की ये कहानी हीरो या विजेता की तय छवि के बिल्कुल उलट बनाई गई थी। गैरी ने इसका निर्देशन किया था। फिल्म बड़ी सराही गई।

हंगर गेम्स जरूर देखें। और कुछ अलग दृष्टिकोण के साथ देंखें। क्योंकि ऐसा बार-बार नहीं होगा कि मनोरंजन के पूरी तरह पूंजी आधारित हो चुके इस मीडियम में हर बार कोई मुद्दों को इतने सार्थक ढंग से सिस्टम की नजरों से बचाकर फिल्म में डाल पाएगा। गैरी रॉस ने डाला है और कॉलिन्स ने लिखा है, तो विमर्श करिए। फिल्म में कुछ अश्वेत किरदारों के जरा वाद-विवाद की गुंजाइश युक्त चित्रण के साथ करिए। करिए जरूर।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी