Sunday, October 16, 2011

ये वीर मस्केटियर दिल की सुनते हैं, इसलिए हमारे हीरो हैं

फिल्मः थ्री मस्केटियर्स (अंग्रेजी)
निर्देशकः पॉल डब्ल्यू.एस. एंडरसन
कास्टः लोगन लर्मन, मैथ्यू मैकफिदयन, रे स्टीवनसन, ल्यूक इवॉन्स, क्रिस्टोफर वॉल्ट्ज, माइला जोवोविच, ऑरलेंडो ब्लूम, गैब्रिएला वाइल्ड, फ्रेडी फॉक्स, जेम्स कॉर्डन
स्टारः तीन स्टार, 3.०


'स्लमडॉग मिलियनेयर' का क्लाइमैक्स। होस्ट प्रेम कुमार बने अनिल कपूर का जमाल मलिक से आखिरी सवाल। 'द थ्री मस्केटियर्स' कहानी में एथोस और पॉर्थोज के अलावा तीसरा मस्केटियर कौन है? पॉल डब्ल्यू एस एंडरसन के निर्देशन में बनी इस थ्रीडी फिल्म से पहले हम जैसे ज्यादातर दर्शकों का 'द थ्री मस्केटियर्स' से वास्ता इसी फिल्म ने करवाया था। अब परिचय दुरुस्त हो गया है। ये एक अच्छी फिल्म है। जरूर देखने जाएं। तीन यौद्धा जो एक हार के बाद नकार दिए गए। चौथा आता है और ये फिर से फ्रांस की रक्षा को आगे आते हैं। डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुरानी कहानी होते हुए भी फिल्म रेलेवेंट लगती है। वजह है इन मस्केटियर्स का कूल एटिट्यूड। खासकर पॉर्थोज बने रे स्टीवनसन का। जो दिखने में जितने भीमकाय हैं उतने ही ज्यादा फनी हैं। चूंकि ये मस्केटियर दिल की आवाज फॉलो करते हैं इसलिए उनमें वो मर्दाना घमंड नहीं है। अपनी कमजोरियों के प्रति ये कूल हैं। जब रॉशफोर्ट और उसके सैनिक कॉन्सटेंस (गैब्रिएला वाइल्ड) को बंदी बना लेते हैं और उसकी एवज में रानी का हार मांगते हैं तो एथोज डॉर्टेजियन को कहता है, 'तुम अपने प्यार को बचाओ, फ्रांस की रक्षा होती रहेगी।' फिल्म में तीनों मस्केटियर्स के सर्वेंट प्लैंशे बने जेम्स कॉर्डन अपने भारी शरीर के साथ हल्के हंसी के लम्हे लाते हैं। पियेर गेरॉ की डिजाइन की हुईं हैरतअंगेज कॉस्ट्यूम फिल्म को अलग ही स्तर पर ले जाती है। फिल्म में भव्य फ्रैंच आर्किटेक्टर है, ग्लेन मैकफर्सन की सिनेमेटोग्रफी है और थ्रीडी का यूज है। इन सबके बावजूद फिल्म बड़ी सिंपल और समझने में आसान रखी गई है।

तीन नहीं चार मस्केटियर्स की कथा
अलेग्जांद्र डुमास के 1844 में लिखे इस नॉवेल की कहानी को बहुत बार यूज किया जा चुका है। यहां कहानी को जरा सा आसान बनाया गया है। गेस्कॉनी का रहने वाला यंग गरीब मगर बहादुर लड़का डॉर्टेजियन (लोगन लर्मन) पेरिस आया है मस्केटियर बनने। यहां उससे टकरा जाते हैं फ्रांस के मशहूर थ्री मस्केटियर। एथोज (मैथ्यू मैकफिदयन), पॉर्थोज (रे स्टीवनसन) और अरामिस (ल्यूज इवॉन्स) एक बुरे वाकये के बाद से किवदंती हो चुके हैं। लाइमलाइट में नहीं हैं। दारू पीते हैं, कार्डिनल रिचेयू (क्रिस्टोफर वॉल्ट्ज) के सैनिकों को पीटते हैं और फिर दारू पीकर सो जाते हैं। फ्रांस का किंग लूइस चौदहवां (फ्रेडी फॉक्स), पॉर्थोज के शब्दों में कहें तो बच्चा है। माने मैच्योर नहीं है। कार्डिनल इंग्लैंड के बकिंघम (ऑरलेंडो ब्लूम) के साथ मिलकर फ्रांस की सत्ता हथियाना चाहता है। इस काम में उनकी मदद कर रही है कभी एथोज को दगा देने वाली मिलाडी (माइला जोवोविच)। खैर, अब इन चारों मस्केटियर्स के पास एक मौका आता है फ्रांस की सेवा करने का और दुश्मनों के प्लैन चौपट करने का। अपने मजाकिया लेकिन वीरों वाले तेवर लेकर ये आगे बढ़ते हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

हिंदी फिल्मों को शालीन संवेदनशील मोड़ देते नागेश कुकुनूर

फिल्मः मोड़
निर्देशकः नागेश कुकुनूर
कास्टः आयशा टाकिया, रणविजय सिंह, रघुवीर यादव, तन्वी आजमी, निखिल रत्नपारखी
स्टारः ढाई स्टार, 2.५


नागेश कुकुनूर 'इकबाल' और 'डोर' में जितनी अलग-अलग कहानियों और माहौल में हमें लेकर चलते हैं, उसी की अगली कड़ी है 'मोड़।' लोकेशन अलग, किरदार अलग, मोड़ अलग, बातें अलग मगर समानता एक.. वो है सादगी। कहानी में सस्पेंस भी आता है तो इतना नहीं कि झकझोरे। आराम से आता है। एंटरटेनमेंट के दीवानों को और असंवेदनशील होकर फिल्में निगलने वालों को 'मोड़' स्लो लगेगी। सीटियां मारने के ज्यादा मौके नहीं है। हंसने की जल्दबाजी करेंगे तो सीरियस और भावुक बात की खिल्ली उड़ा बैठेंगे। बॉलीवुड में जैसी कॉपी-पेस्ट फिल्में बनती हैं, वहां घिसी-पिटी कहानियों का जैसे दोहराव होता रहता है, उन सबसे अलग कहीं दूर ये फिल्म शालीनता से खड़ी नजर आती है। दोस्तदारों और मनोरंजनगारों की महत्वाकांक्षा को 'मोड़' पूरा नहीं कर पाएगी, पर हां, फैमिली ऑडियंस और बच्चे जरूर इस भावभीनी स्टोरीटेलिंग को एंजॉय करेंगे। अगर कहूं तो आज के दौर में नागेश और श्याम बेनेगल ही ऐसे दो फिल्मकार बचे हैं तो बिना साइड इफेक्ट और सोशल जुड़ाव वाली फिल्म रचते हैं। अगर देख सकें तो देखें।

सुकून भरी स्टोरी
हरियाली शांत पहाडिय़ों पर बसा है एक छोटा सा कस्बा गंगा। यहां के लोग खुश हैं, कोई अपराध नहीं है, शुद्ध पाने के झरने बहते हैं और इसी माहौल में अपने घर में ही घड़ीसाज का काम करती है अरण्या (आयशा टाकिया)। पिता अशोक महादेव (रघुवीर यादव) किशोर कुमार के भक्त हैं और ऐसे ही बुजुर्ग भक्तों के साथ मिलकर अपनी स्कूल और ऑरकेस्ट्रा चलाते हैं। बाप-बेटी का रिश्ता प्यारा है। अशोक को उनकी वाइफ छोड़कर चली गई, उन्हें उसके आने का इंतजार है। अरण्या ने कह रखा है कि बाबा जब तक शराब नहीं छोड़ेंगे मेरे घर नहीं आना। यहीं पर म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की दुकान है गंगाराम (निखिल रत्नपारखी) की। उसे अरण्या की हां का इंतजार है तभी तो वजन घटाने वाले इलेक्ट्रिक बेल्ट को लगाए रखता है। एक और बात, गंगाराम का दस लाख का कर्ज अरण्या के घर पर बकाया है। अरण्या की कम्युनिस्ट सोच वाली जीजी यानी बुआ गायत्री (तन्वी आजमी) पास ही में अपना छोटा सा रेस्टोरेंट चलाती है। ये तो है कहानी का माहौल। अब आते हैं एंडी (रणविजय) पर। वह अरण्या के पास अपनी भीगी घड़ी ठीक करवाने आता है। फिर रोज आने लगता है। प्यार होता है। वह बताता है कि क्लास 10 बी में दोनों साथ पढ़ते थे। कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब उसे पता चलता है कि एंडी की तो दस साल पहले एक्सीडेंट में मौत हो गई थी। तो फिर ये लड़का कौन है? और अरण्या से क्या चाहता है? फर्स्ट हाफ के बाद यही सस्पेंस खुलता है।

अनूठी चीजें और रेफरेंस
# अरण्या का घर सुंदर घडिय़ों से सजा है और किशोर भक्त अशोक महादेव का घर किशोर कुमार की बहुत सी तस्वीरों से। गायत्री का रेस्टोरेंट भी सादगी से सजा है। अरण्या की काइनेटिक भी इतिहास होती चीजों में से है। ये सब सेटिंग्स करीने से की गईं हैं।
# किशोर भक्त मंडली में हिंदु, मुसलमान, सिख और ईसाई चारों हैं। दिखने में ये भले ही खास न लगे पर ये देखिए आज भी एक फिल्ममेकर अपने काम में सामाजिक सद्भाव को लाने की कोशिश कर रहा है। जरा, बाकी समकालीन फिल्ममेकर्स की फिल्मों पर नजर डालिए। क्या ऐसा मिलता है?
# इस हरे-भरे कस्बे में कॉरपोरेट आना चाहते हैं, अपनी होटल बनाने और लोगों की जमीनों का अधिग्रहण करने। एक और नेशनल इश्यू का रेफरेंस। तन्वी की कैरेक्टर गायत्री कस्बे में पोस्टर भी लगाती है 'गो बैक आर.के.सी।'

डायलॉग इस मिजाज के
# मेरा दोस्त कहता है कि सच्चे प्यार की जीत होती है, पर जीत पीछे लगने से होती है। (एंडी बने रणविजय अरण्या से)
# मैं तुम्हें मुझे न बोलने की सजा दूंगा। (कितना हिला देने वाला डायलॉग है, गंगाराम बने निखिल रत्नपारखी अरण्या से, जब वो उसके लव प्रपोजल को स्वीकार नहीं करती)

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गजेंद्र सिंह भाटी

माइकल पिंटो को देख गुस्सा क्यों आता है

फिल्मः माई फ्रेंड पिंटो
निर्देशकः राघव धर
कास्टः प्रतीक बब्बर, कल्कि कोचलिन, अर्जुन माथुर, दिव्या दत्ता, श्रुति सेठ, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अमीन हाजी, करीम हाजी
स्टारः ढाई, 2.5

नीले होते परदे पर जब 'संजय लीला भंसाली फिल्म्स' नाम उभरता है तो दर्शकों में फुसफुसाहट शुरू हो जाती है। 'अरे यार ये उसी बेकार डायरेक्टर की फिल्म तो नहीं। मुझे नहीं पसंद।' फिर ओपनिंग क्रेडिट्स आते हैं, समीर-पिंटो के बचपन की ब्लैक एंड व्हाइट फोटो में छिपे। डेब्युटेंट डायरेक्टर राघव धर की ये रचनात्मकता उस नीलेपन से ध्यान हटाती है। परदे पर पिंटो आता है और दर्शक उसके कैरेक्टर में इंट्रेस्ट लेने लगते हैं। चार्ली चैपलिन और रॉवन एटकिंसन इन दोनों ही ने जो हास्य ईजाद किया था, उसे प्रतीक यहां फॉलो करते नजर आते हैं। आप प्रतीक के ऊपर की तरफ अधखुले होठों और बेबी स्टेप्स लेते कदमों में चैपलिन को पाएंगे। वहीं चीजों से टकराने, सामान गिराने, अपनी पीछे जलती कार छोड़ जाने और मल्लू डॉन को परदे से लटककर अनजाने में ही बचाने में एटकिंसन यानी मिस्टर बीन को। 'माई फ्रेंड पिंटो' कहीं-कहीं खूब हंसाती है, पर ओवरऑल बहुत अच्छी नहीं है। पिंटो के रोल के साथ बहुत कुछ किया जा सकता था, पर प्रतीक की कुछ सीमाएं हैं, यहीं पर कैरेक्टर कुचला जाता है। प्रतीक के साथ फ्रेम में जहां-जहा शकील खान और दिव्या दत्ता है, वहीं वह ऑरिजिनल लग पाते हैं। दिव्या का नशे में झूमते हुए पिंटो से बात करने वाला सीन बेदाग है। शायद सबसे ठीक। फिल्म के गानों में लॉन्जी फर्नांडिस की कोरियोग्रफी है। चूंकि वह संजय भंसाली की फिल्मों में रेग्युलर हो गए हैं ऐसे में यहां भी गानों में वैसे ही स्टेप दिखते हैं। म्यूजिक निराश करने वाला है। एक बार देखने के लिए फिल्म बुरी नहीं है, ट्राई कर सकते हैं। ज्यादा शिकायत नहीं होगी।

कहानी पिंटो की
माइकल पिंटो (प्रतीक बब्बर) गोवा के किसी छोटे से गांव में पला बढ़ा है। मुंबई अपने दोस्त समीर (अर्जुन माथुर) के पास आया है। ममा के गुजरने के बाद अब दुनिया में बचपन के बेस्ट फ्रेंड समीर के अलावा कोई नहीं है। समीर अपनी नौकरी और अपनी म्यूजिक कंपनी बनाने के सपने में उलझा है। उसकी वाइफ सुहानी (श्रुति सेठ) पिंटो को देखकर ज्यादा खुश नहीं होती। अब कहानी इसी रात के कुछ घंटों की है। कि कैसे समीर और सुहानी पिंटो को अपने फ्लैट पर छोड़कर एक पार्टी में जाते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि पिंटो वहां से निकलकर अपने भोलेपन से मुंबई को दोस्त बना लेता है। उस रात वह स्ट्रगलिंग डांसर आरती (कल्कि कोचलिन), रिटायर हो चुके मलयाली डॉन (मकरंद देशपांडे), बी ग्रेड फिल्मों की एक्ट्रेस रेशमा (दिव्या दत्ता) और बहुत से दूसरे लोगों के दिलों में जगह बना लेता है।

किरदारों का काम-धाम
# प्रतीक का चेहरा मासूम जरूर है पर फेक लगता है, डायलॉग डिलीवरी में तो वो अभी पासिंग मार्क्स लेना भी नहीं सीखे हैं।
# कल्कि के जमा चार-पांच सीन हैं। फिल्म में वो डांसर बनना चाहती हैं, पर हम पूरे दो घंटे बस प्रतीक को ही नाचते देखते हैं। टैक्सी से उतरती कल्कि की पहली झलक बहुत आकर्षक है, उसके बाद खास नहीं।
# 'लगान' के बाघा यानी अमीन हाजी अपने हमशक्ल भाई करीम हाजी के साथ नजर आते हैं। इनके रोल भी अधपके हैं।
# राज जुत्शी को उनके नकली दांतों में पहचान पाना मुश्किल होता है।
# मकरंद देशपांडे का बेस्ट वर्क 'सर' में ही पीछे छूट गया है। शुरू के सीन्स में तो ये ही समझ नहीं आता कि वो पारसी डॉन हैं कि साउथ इंडियन। बाद में जब कहीं लिखा आता है मल्लू डॉन, तब मालूम चलता है।
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गजेंद्र
सिंह भाटी

Thursday, October 13, 2011

कहानी सुना पाने के लिए 'हीरो विद अ थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़ने की ही जरूरत नहीं है

अंजुम रजबअली से बातचीत...

अंजुम रजबअली सुलझे हुए फिल्म राइटर हैं। गोविंद निहलानी की फिल्म 'द्रोहकाल' में सह-लेखन से उन्होंने शुरुआत की। उनकी लिखी 'आरक्षण' कुछ हफ्ते पहले रिलीज हुई। प्रकाश झा की पिछली चारों फिल्मों की स्क्रिप्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहे अंजुम ने 'चाइना गेट', 'गुलाम', कच्चे धागे' और 'राजनीति' जैसी फिल्में भी लिखी हैं। साथ ही साथ वह एफटीआईआई, पुणे और मुंबई के विस्लिंग वुड़्स फिल्म स्कूल में एचओडी हैं।

इन दिनों किस काम में व्यस्त हैं?
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट, पुणे में ऑनररी हैड ऑफ द डिपार्टमेंट हूं। विस्लिंग वुड्स में भी यही जिम्मा संभाल रहा हूं। दोनों जगह पढ़ाता हूं। वर्कशॉप भी होते रहते हैं। 'इप्सा' सोसायटी की फैलोशिप में चीफ एडवाइजर हूं। फिल्म राइटर एसोसिएशन में कमिटी मैंबर हूं। जहां तक लिखने का काम है तो प्रकाश की अगली फिल्म लिख रहा हूं। 'इश्किया' फेम अभिषेक चौबे के साथ स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। केरल के फिल्ममेकर साजी करूण के लिए भी अंग्रेजी में एक स्क्रिप्ट लिखी है।

इन दोनों फिल्म स्कूलों में बैकग्राउंड और टैलंट के लिहाज से कैसे स्टूडेंट आते हैं?
दोनों के फाइनेंशियल बैकग्राउंड अलग होते हैं। उनमें अपने-अपने समाज और उनकी सोशल-इकोनॉमिक रिएलिटी का भी फर्क होता है। मगर उनमें यूनिवर्सल ह्यूमन क्वेस्ट एक बराबर होती है। चाहे रतन टाटा का बेटा हो या ऑफिस पीयून का, दोनों में खोज की भावना समान होती है। इंटेंसिटी समान होती है। मैं अध्यापक के तौर पर उन्हें बस इतना बता सकता हूं कि तुम्हारी रिएलिटी ये है। दोनों ही संस्थानों के बच्चों को जिंदगी और आसपास के सवाल परेशान करते हैं और यहीं से आइडिया और क्रिएटिविटी आते हैं।

क्या 'हीरो विद थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़े बगैर भी कभी कोई किस्सागो किसी गांव से आकर अपनी कहानी से हमें हिलाकर रख सकता है?
सौ प्रतिशत। कैंपबेल की किताब 'हीरो विद...' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट कोई आविष्कार नहीं हैं। इन्हें किसी ने अपने मन में नहीं गढ़ा है। अगर कोई नेचरल तरीके से चीजों के टच में हो, तो ही काफी है। आदमी के अपने बेसिक स्ट्रगल से ड्रामा निकलता है। हां, इन्हें पढऩे से क्लैरिटी आ जाती है। जो अपने टैलंट को नेचरली आगे बढ़ाते हैं उन्हें फिल्म स्कूलों की जरूरत नहीं है। हां, जिन्हें लगता है कि गाइडेंस चाहिए, वो आएं तो उनकी हैल्प होती है।

दोनों संस्थानों के स्टूडेंट्स ने अब तक किन अच्छी फिल्मों पर काम किया है?
पुणे में सात साल के कोर्स में और विस्लिंग वुड्स में पांच साल के कोर्स में तकरीबन हमारे स्टूडेंट्स ने पंद्रह बेहद अच्छे क्रेडिट लिए हैं। उन्होंने 'शैतान', 'रॉक ऑन', 'आगे से राइट' और 'कच्चा लिंबू' जैसी हिंदी फिल्में लिखी हैं तो 'मी शिवाजी राजे भोसले बोलतोय' जैसी मराठी और अपर्णा सेन की 'इती मृणालिनी' जैसी बंगाली फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी हैं।

'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों की लेखन शैली को आप कैसे देखते हैं?
इन फिल्मों के कैरेक्टर अपने समाज से बहुत गहरे से जुड़े हैं। असल लाइफ से जुड़े इश्यू निकलकर आते हैं। दर्शकों को पहले ही पता था, हमें अब पता लग रहा है कि इस किस्म की ऑथेंटिसिटी रखी जाए तो लोग रिलेट कर सकते हैं। 'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों में आपको बड़े मुद्दों की जरूरत नहीं है, एक स्कूटर भी इश्यू बन सकता है। पहले हमें बड़े ड्रामा चाहिए थे। अमिताभ अपनी मां को लेने आ रहा है, और मंदर इंडिया अपने बेटे को मार रही है। अब इनकी जरूरत नहीं है। माहौल खुला है, लोगों का नजरिया विस्तृत हुआ है। हबीब फैजल ने ये फिल्म लिखी तो कहा कि ये वही लोग हैं जिनसे वह वास्ता रखते हैं। जैसे जयदीप की 'खोसला का घोंसला' थी। 'चक दे इंडिया' थी। 'तारे जमीं पर' थी। अब बड़ी फिल्मों में भी इन मुद्दों को लेकर विश्वास है।

'डेल्ही बैली' और 'कॉमेडी सर्कस' के बीच क्या राइटर्स की कोई आचार संहिता होती है?
नहीं, होती तो नहीं है। सब व्यक्तिगत एस्थैटिक सेंस और व्यक्तिगत मूल्यों पर निर्भर करता है। मुझे ये चीजें गवारा नहीं इसलिए मैं नहीं लिखता हूं। कुछ लिखते हैं। कुछ हद तक ये सोशल सच्चाई का प्रतिबिंब है।

प्रॉड्यूसर्स-राइटर्स मसले में कौन सही है?
फिल्ममेकिंग के एक हिस्से के तौर पर राइटिंग की हमेशा अवहेलना की गई है। राइटर के रोल को प्रॉड्यूसर सही से समझ नहीं पाते। उन्हें सही वैल्यू नहीं देते। राइटर भी वही लिख रहे हैं जो डायरेक्टर कहता है। वो उसमें इंडिपेंडेंट वैल्यू कुछ नहीं लाते। समाधान इसी में है कि प्रॉड्यूसर-राइटर एक दूसरे के बीच के इक्वेशन को समझें।

अपने अनुभव से, रिसर्च करके या टीम में, क्या स्क्रिप्ट लिखने का कोई तय तरीका है?
वैसे तो बहुत होते हैं, पर मूल बात ये है कि क्या एक व्यक्ति के तौर पर आप इमोशनली कनेक्ट कर पा रहे हैं। जयदीप ने कहीं पढ़ा कि वीमन हॉकी की टीम कुछ टूर्नामेंट जीतकर आई है और मीडिया में उसको बहुत छोटी सी जगह मिली। हालांकि क्रिकेट को बहुत ज्यादा स्पेस मिलती है। तो उसे अचंभा हुआ कि यार ये भी तो एक अचीवमेंट है। जब वो गया और कैंप देखा तो वह इमोशनली प्रभावित हुआ। वो बोल रहा था और उसकी आंखों में आंसू आ रहे थे। ऐसा इमोशनल कनेक्शन होना सबसे जरूरी है।

कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग में क्या फर्क है?
कहानी मुख्यत: छह-आठ पेज या पंद्रह पेज तक की फ्री फ्लोइंग कहानी है। बाद में मैं स्टेपआउट लाइन बनाता हूं जिसे स्क्रीनप्ले कहते हैं। फिल्म के जो 100 मूमेंट होते हैं उन्हें कैप्चर करके एक-एक सीन में तोड़ा जाता है। इनका ब्यौरा स्क्रीनप्ले के तौर पर लिखा होता है। अब इन एक-एक सीन को बयां करते हुए डायलॉग लिखे जाते हैं, जो कैरेक्टर बोलता है।

अपने बारे में कुछ बताएं।
एक छोटे से गांव कलागा से हूं जो काठियावाड़, गुजरात में है। वहां जमीन है, खेतीबाड़ी है। पिता किसान थे। शुरुआती बचपन गांव में गुजरा। फिर मुंबई में पढ़ाई हुई। फिल्मराइटर बनने का नहीं सोचा था। साइकॉलजी में मास्टर्स किया। संयोग से बाबा आजमी (शबाना आजमी के भाई) से दोस्ती हो गई। उसने कहा तो लिखा फिर अच्छा लगने लगा। महबूब खान, विमल रॉय, गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल की फिल्में पसंद थी। जब कहानियां लिखने की बात आई तो मुझे अपने गांव आने वाले सिंगिंग स्टोरीटेलर 'बारोठ' याद आए। तो बारीकी से याद करने लगा कि कैसे थे, कैसे गाते थे, क्या रिदम होती थी। फिर जिन गोविंद निहलानी का काम मैं बहुत पसंद करता था उन्हीं के साथ 'द्रोहकाल' लिखी। फिर महेश भट्ट के लिए 'गुलाम' लिखी। उसके बाद राजकुमार संतोषी के और प्रकाश झा के साथ काम किया।

चंद पसंदीदा स्क्रिप्ट
# पिरवी (शाजी करूण)
# ब्लू (विदेशी भाषा में)
# जो जीता वही सिकंदर
# दीवार
# लगान
# पाथेर पांचाली
# मेघे ढाका तारा

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गजेंद्र
सिंह भाटी

Sunday, October 9, 2011

एटॉम, हमारा रॉकी बेलबोआ

फिल्म: रियल स्टील
निर्देशक: शॉन लेवी
कास्ट: ह्यू जैकमेन, डकोटा गोयो, इवेंजलीन लिली
स्टारः साढ़े तीन, 3.५


'...एज द डेज कीप टर्निंग इनटू नाइट' गाने की धीमी सूदिंग आवाज के साथ चार्ली का ग्रे ट्रक दौड़ा जा रहा है, पीछे अपने रोबॉट को लादे। ओल्ड अमेरिका की सड़कों, खाली खेतों और कस्बों से गुजरता हुआ। बीच में मेलों में जगमगाते तंबू आ रहे हैं। दरअसल ये वो कंट्रास्ट है जो एक रोबो या मशीनी मानव वाली फिल्मों में हम नहीं देख पाते हैं। कुछ ऐसा ही झक्कास मशीनी सा हमने 1979 में आई 'मैड मैक्स' में देखा था। रेगिस्तान में चीथड़ों और लेदर के न जाने कौन से जमाने के फैशनेबल कपड़े पहने जंगली से मगर इंसान, उनकी गाडिय़ां और तेल की लूट। हीरो मेल गिब्सन। हथियारों के साथ ये बीहड़ का कंट्रास्ट था। हाल ही में डेनियल क्रेग की 'काऊबॉयज वर्सेज एलियंस' आई। उसमें भी स्पेसशिप में आए एलियंस से घोड़ों पर गायें टोरने वाले चरवाहों का मुकाबला था। कम से कम अत्याधुनिक हथियार और बस दुनाली बंदूकों के साथ। चाहते तो डायरेक्टर शॉन लेवी 'रियल स्टील' में उड़ते स्पेसशिप, अल्ट्रा मॉडर्न डिजाइन के शहर, गैजेट्स और कॉम्पलैक्स रोबो लैंग्वेज रख सकते थे पर उन्होंने नहीं रखकर इस फिल्म को स्पेशल बनाया। इससे फिल्म इंसानी होकर दर्शकों के ज्यादा करीब हो जाती है। यही तो वजह है कि इमोशन के इस निचोड़ से 'एटॉम' की जापानी रोबॉट 'ज्यूस' से बॉक्सिंग फाइट आंखों में आंसू ले आती है। यही तो वजह है कि एटॉम 2011 का रॉकी बेलबोआ लगने लगता है। पीपुल्स चैंपियन हो जाता है। अपनी सरलता, आरामदायक वॉचिंग और ट्रीटमेंट की वजह से ये फिल्म एक मस्ट वॉच बन जाती है। जो लोग फिल्मों के नाम पर उलझा हुआ मांझा छोड़ जाते हैं उन्हें देखना चाहिए कि एक अच्छी फिल्म बनाने में बस इतना ही कॉमन सेंस लगता है, डेढ़ होशियारी नहीं। बिना उम्मीदों के जाएं, मगर जरूर देखें। फैमिली, फ्रैंड्स और खुद के साथ।

चार्ली और मैक्स की कहानी
पूरी रात अपना ट्रक ड्राइव करके चार्ली केंटन (ह्यू जैकमेन) अपने रोबॉट एमबुश को 2020 के अमेरिका में कहीं बॉक्सिंग करवाने ले जा रहा है। पर उसका रोबॉट भिड़ता है बहुत वजनी सांड सिक्स शूटर से और ध्वस्त हो जाता है। कर्ज में डूबे चार्ली की लाइफ कुछ ऐसी ही है। अपने बॉक्सिंग करियर में कुछ नहीं कर पाया है, अब पता चलता है कि उसकी पूर्व गर्लफ्रेंड मर गई है और पीछे चार्ली का 11 साल का बेटा मैक्स (डकोटा गोयो) छोड़ गई है। इन बाप-बेटे को कुछ वजहों से साथ रहना है। मैक्स रोबो बॉक्सिंग को अलग नजरिए से देखता है और फिर उसे पुरानी जेनरेशन का रोबो एटॉम मिलता है। यहीं से आगे की एक्साइटिंग हार-जीत की जर्नी शुरू होती है।


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गजेंद्र
सिंह भाटी

Saturday, October 8, 2011

सच्चे दोस्त साथ बैंक तक लूटा करते हैं

फिल्म: थर्टी मिनट्स ऑर लेस
निर्देशक: रुबिन फ्लैश्चर
कास्ट: जेसी आइजनबर्ग, अजीज अंसारी, दिलशाद वदसारिया, डैनी मेकब्राइट, निक स्वॉर्डसन
स्टार: ढाई, 2.5

'थर्टी मिनट्स ऑर लेस' के पोस्टर पर बड़े अक्षरों में लिखा था 'फ्रॉम द मेकर्स ऑफ जॉम्बीलैंड।' बता दूं कि 'जॉम्बीलैंड' डायरेक्टर रुबिन फ्लैश्चर की पहली और सबसे मजेदार फिल्म थी। इसमें भी जेसी आइजनबर्ग थे। तो वो जो डरपोक, निराश और फेल लड़के की इमेज मजबूती से जेसी के करियर में बनी उसमें रुबिन की इस पहली फिल्म का भी हाथ था। फिर 'द सोशल नेटवर्क' ने जेसी का रुतबा बदला। अब आई है 'थर्टी मिनट्स...।' इस फिल्म में उतना और वैसा एंटरटेनमेंट नहीं है जिसके होने की अनिवार्य शर्त हॉलीवुड की फिल्मों में बड़ी बेदर्दी से रखी जाती है। जिसमें ताबड़तोड़ स्पीड, लच्छेदार डायलॉग और हमारे प्रियदर्शन की फिल्मों जैसी भागमभाग हो। 'थर्टी मिनट्स...' में ये सब नहीं है। जो लोग स्क्रिप्ट के नेचरल और सिंपल होने की अहमियत समझते हैं, उन्हें ये तीन स्टार वाली अच्छी फिल्म लगेगी, बाकियों के लिए आधा स्टार कम। जेसी और अजीज का तालमेल जितना हंसोड़ और सुहावना है, उतना ही ढीला तालमेल है डैनी और निक स्वॉर्डसन का। फिल्म की पहली और सबसे अरुचिकर चीज यही है। दोस्त लोग जा सकते हैं, एंजॉय करेंगे। फैमिली के साथ इसलिए नहीं जा सकते क्योंकि इसे 'ए' रेटिंग मिली है। आप फिल्म में कहीं अचानक असहज हो उठेंगे। जो दर्शक कन्फ्यूज हैं वो डीवीडी का इंतजार कर सकते हैं या फिर फिल्म के टीवी पर आने का। फिल्म का एक फनी डायलॉग मुझे वो लगा जब निक के शरीर पर बम बंधा है और शेट उसे निकालने के उपाय ढूंढ रहा है और बोलता है, 'वॉट डिड दे डू इन हर्ट लॉकर।'

आधी कहानी
विटोज पिज्जा में डिलीवरी बॉय है निक (जेसी आइजनबर्ग)। विटोज की '30 मिनट में पिज्जा घर वरना फ्री' वाली पॉलिसी का शिकार निक हमेशा होता है। हमेशा कुछ सेकंड से चूक जाता है। बॉस की डांट खाता है। उसका स्कूल टाइम बेस्ट फ्रेंड शेट (अजीज अंसारी) अब खुद स्कूल टीचर है। निक उसकी जुड़वा बहन कैटी (दिलशाद वदसारिया) से प्यार करता है, पर शेट से छिपकर। वहीं, ड्वेन (डैनी मेकब्राइट) और ट्रैविस (निक स्वॉर्डसन) दो नाकारा इंसान हैं। बैठे मक्खियां मारना और फालतू काम करना पसंद है। इनके ढीले मिजाज पर ड्वेन का पूर्व आर्मीमैन पिता चिढ़ता है और इनको खूब सुनाता है। पर अब ड्वेन किसी हत्यारे को हायर करके अपने पिता को मरवाना चाहता है। (सीरियसली मरवाना चाहता है, पर फनी लगता है) ताकि फिर उसे कोई कुछ न कहे और पिता के पैसों से वह प्रॉस्टिट्यूशन का बिजनेस शुरू कर सके। इतनी कहानी इसलिए सुना दी क्योंकि फिल्म में कुछ सरप्राइजिंग है तो उसका ट्रीटमेंट और कैरेक्टर्स। कहानी नहीं। सुपारी की एवज में उसे एक लाख डॉलर की रकम देनी पड़ेगी। इसके लिए वह ट्रैविस के साथ मिलकर सोचता है कि किसी बंदे को बैंक लूटने के लिए ब्लैकमेल करे और पैसे का इंतजाम करे। इन दोनों के लिए बैंक लूटने वाला वो बंदा बदकिस्मती से बनता है निक। ऐसे में क्या उससे कट्टी कर चुका शेट उसका साथ देगा? लास्ट में क्या होगा? कैसे होगा? यही निककहानी है।

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गजेंद्र सिंह भाटी