Wednesday, September 7, 2011

मूंदड़ों का वह लड़का सेंसलेस न था

जगमोहन मूंदड़ा 1948-2011

तब का कलकत्ता। बड़े बाजार की तंग गलियों में राजस्थान से आकर बसे मारवाड़ी बाणियों की बड़ी रिहाइश में एक घर मूंदड़ों का भी था। उसी घर में रहता था जगमोहनदास नाम का वो लड़का। टॉलीगंज में अपने एक रिश्तेदार के घर की खिड़की में बैठता तो इंतजार करता सामने पुरानी इमारत की छत पर नहाने के बाद बाल सुखाने आया करती उस नई-नवेली बंगाली दुल्हन का। कामुकता के साथ वो उसका पहला वास्ता था। घर में सख्त दादी को फिल्में पसंद न थीं। ले देकर साल में एक-आध धार्मिक फिल्म दिखा दी जाती। पर उसे बंधना न था। व अंग्रेजी बोलना चाहता था। खुले समाज में जीना चाहता था। बारह बरस के जगमोहन ने 'कागज़ के फूल' देखी तो न जाने कैसे अपनी कम उम्र के उलट ये समझ बना ली कि एक फिल्म में निर्देशक की अहमियत सबसे ज्यादा होती है। बीते रविवार की सुबह जब उस लड़के ने अपनी अंतिम सांस ली, तो वह 62 साल का था और उसे लोगों ने एक फिल्म निर्देशक के तौर पर पहचाना। वह निर्देशक जिसने 'बवंडर', और 'प्रोवोक्ड' जैसी सार्थक फिल्में बनाई।

क्या इन दो फिल्मों के परे कोई जगमोहन मूंदड़ा था ही नहीं? क्या इसके अलावा उन्हें 'नॉटी एट फॉर्टी' और 'अपार्टमेंट' जैसी खारिज फिल्में बनाने वाला मान लिया जाए? क्या उनकी फिल्मों में कोई सिनेमैटिक भाषा नहीं होती थी? कोई कहानी नहीं होती थी?

ये सवाल बहुत बाद में आए, भारत में तो जगमोहन मूंदड़ा को बहुत पहले से ही बी ग्रेड इरॉटिक हॉलीवुड थ्रिलर्स बनाने वाला माना गया, जबकि ऐसा था नहीं। इतना जरूर था कि पूरी जिंदगी वो एक किस्म की फिल्में बनाने तक सीमित नहीं रहे। संजीव कुमार और शबाना आजमी को लेकर 1982 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'सुराग' बनाई। फिर 1985 में दीप्ति नवल और शबाना की शीर्ष भूमिकाओं वाली वूमन सेंट्रिक फिल्म 'कमला' बनाई। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी की फिल्मों जैसे फ्रेम्स वाली 'कमला' भारत में नेशनल अवॉर्ड के लिए नामित हुई। यहां से लेकर 2000 में 'बवंडर' आने तक जग मूंदड़ा (हॉलीवुड में उनका नाम) ने अमेरिकन ऑडियंस के लिए इरॉटिक हॉरर-थ्रिलर फिल्में बनाईं। ये फिल्में थीं 'द जिग्सॉ मर्डर्स' (1988), 'हैलोवीन नाइट्स' (1988), 'नाइट आइज' (1990), 'एलए गॉडेस' (1993), 'सेक्सुअल मेलिस' (1994) और 'टेल्स ऑफ द कामसूत्र : मॉनसून' (1998) हालांकि इनमें कोई बड़े अमेरिकी सितारे नहीं थे, पर अपनी समकालीन कम बजट वाली थ्रिलर्स से बेहतर 'जग मूंदड़ा मार्का' नयापन इनमें होता था।

वो सेंसलेस नहीं थे। कमतर भी नहीं थे। ऐसा होता तो 'बवंडर', 'कमला', 'प्रोवोक्ड' और 'शूट ऑन साइट' जैसी बिना नुक्स वाली फिल्में न बनती। साथिन भंवरी देवी के साथ हुए रेप की सच्ची घटना पर बनी 'बवंडर' की बेहतरीन फिल्म थी। वो हर तरह की फिल्में बनाते थे। 'नॉटी एट फॉर्टी' की स्क्रिघ्ट लेकर गोविंदा मिले तो वो बना दी, किसी महिला प्रधान स्क्रिघ्ट के लिए ऐश्वर्या राय ने संपर्क किया तो उन्होंने 'प्रोवोक्ड' बना दी। लॉस एंजेल्स उनका पहला घर था, जहां वो आईआईटी मुंबई से पढऩे के बाद गए थे। जहां उन्होंने थियेटर किराए पर लेकर कुछ साल हिंदी फिल्में दिखाईं। जहां देवआनंद की 'देस परदेस', राज कपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' और यश चोपड़ा की 'कभी कभी' के प्रीमियर उन फिल्ममेकर्स की मौजदूगी में वहां हुए।

मैं समझता हूं उनका अच्छा काम आना बाकी थी। उनकी पॉलिटिकल सटायर 'किस्सा कुत्ते का' की शूटिंग अक्टूबर से शुरू होने वाली थी। वह सोनिया और राजीव गांधी की प्रेम कहानी पर 'सोनिया' बनाना चाहते थे, जो राजनीतिक पेचों में फंसी थी। उन्होंने कोलकाता जाकर चित्रा बैनर्जी की शॉर्ट स्टोरी पर 'भद्रलोक' बनाने की सोची थी। वह 'बर्दाश्त' बनाना चाहते थे। एक ऐसे आदमी की कहानी जिसने जिंदगी में बहुत अन्याय झेला है पर अब उसका जवाब देना चाहता है। मगर ये चारों कहानियां अनकही रह गईं। जगमोहन मूंदड़ा ने श्रेष्ठ अमर फिल्में भी बनाई और पॉपकॉर्न सिनेमा भी। मगर हॉलीवुड और हिंदी दोनों अलग फिल्मी धाराओं को उन्होंने बिना मिलाए बनाया, जो बहुत कम निर्देशक कर पाते हैं। उन्होंने चुपचाप बिना किन्हीं फिल्मी हथकंडों के फिल्में बनानी शुरू कीं और उसी ईमानदारी के साथ बनाते हुए हमारे बीच से चले गए।

लोग शायद उन्हें भूल जाएंगे, मगर मैं और मेरे दोस्त नहीं। हम लोगों के लिए 'बवंडर' हमारे उस उम्र के किस्सों और बेशकीमती यादों का अहम हिस्सा थी। हम दोस्त जब-जब अपने बीते दोस्ताने और भोलेपन भरी हंसी-ठिठोली का जिक्र बुढ़ापे की देहरी लांघने तक करेंगे, तब-तब जगमोहन मूंदड़ा और रेतीली माटी की कहानी 'बवंडर' को याद करेंगे। हम तुरंत हंसेंगे और उस दौर में लौट जाएंगे। सिर्फ जगमोहन मूंदड़ा की बदौलत। फिल्में यही तो करती हैं और जो फिल्मकार हमारी उस वक्त की फिल्मों को बनाने वाला रहा होता है, वो बस खुद की जिंदगी का हो जाता है। अपनी तमाम फिल्मी कमियों और आलोचनाओं के बावजूद। ... और फिर 'बवंडर' तो आज भी उन लाजवाब ठोस फिल्मों में से है। दुआओं में रहोगे तुम... जगमोहन मूंदड़ा।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, September 2, 2011

मनोरंजन और मैसेज बगैर देखना चाहें तो हाजिर है पीले जूतों वाली लड़की

फिल्म: दैट गर्ल इन यैलो बूट्स
निर्देशक: अनुराग कश्यप (I hope you feel the film, because you will not enjoy it.)
कास्ट: कल्कि कोचलिन, प्रशांत प्रकाश, कुमुद मिश्रा, पूजा सरूप, गुलशन दैवय्या, नसीरूद्दीन शाह, शिवकुमार सुब्रमण्यम
स्टार: ढाई, .5

'दैट गर्ल इन यैलो बूट्स' की शूटिंग शुरू करने से पहले निर्देशक अनुराग कश्यप जरूर वल्र्ड सिनेमा में गिनी जाने वाली कोरियाई या यूरोपियन फिल्मों के खुमार में रहे होंगे। एक फिल्ममेकर के लिए उन फिल्मों का जोन ही ऐसा होता है कि आपको उठ-जगाकर एक खास बोल्ड-ब्रीफ-क्रू फिल्मशैली बरतने के लि सम्मोहित कर देता है। बहुत अच्छी बात है। मगर इस तरह की फिल्में (ये फिल्म भी) फैमिली (या अकेले भी) मनोरंजन और अच्छे सामाजिक संदेश इन दो सबसे अहम लक्ष्यों को ठोकर मारते हुए आगे बढ़ती है। उन्हें निर्देशक खुद के लिए और खास दर्शकों को बौद्धिक तौर पर संतुष्ट करने के लिए ही बनाता है। हां, रेगुलर फिल्में इन फिल्मों से धाकड़ सिनेमैटिक लेंगवेज और तरोताजा लगने वाली स्क्रिप्ट के सबक सीख सकती हैं। आते हैं 'दैट गर्ल...' पर। ये फिल्म आपको खुश नहीं करेगी। चौंकाने के लिए और बीच-बीच में आंखों पर हाथ रखने के लिए बनाई गई है। देखने वाले इसे फिल्म फेस्टिवल्स में या यूटीवी वल्र्ड मूवीज चैनल पर किसी दिन देखेंगे। फिल्म के विषय और कुछ एडल्ट कंटेंट को छोड़ दें तो तारीफ का सबसे बड़ा कोना है अनुराग का अलग कथ्य वाला समृद्ध निर्देशन। फिर राजीव रवि की सिनेमेटोग्रफी और श्वेता वेंकट की एडिटिंग। अपनी इमेज के लिहाज से कल्कि अपने रोल में कहीं भी उन्नीस नहीं नजर आती हैं। मगर कहीं-कहीं कमाल तो कहीं ओवर। एक्टिंग में छाप छोड़ जाते हैं पूजा सरूप (न जाने ये अब तक मुंबई में सिर्फ थियेटर ही क्यों कर रही थीं) और गुलशन दैवय्या (हिंदी फिल्मों के यादगार गैंगस्टर्स में शामिल होते हुए)। फिल्म कभी भूले-भटके दोबारा देखूंगा भी तो इनकी एक्टिंग और फिल्ममेकिंग के हिस्सों को पढऩे के लिए।

पीले जूते किसके
बस
इतना जानें कि ब्रिटेन से रूथ अपने पिता के स्नेह भरे पत्र के सहारे उन्हें ढूंढने आई है। फोटो नहीं है, पता नहीं और मां का इस फैसले में समर्थन नहीं है। चूंकि वीजा संबंधी अड़चने हैं और पिता की तलाश करनी है तो एक मसाज पार्लर में काम करती है। पार्लर की मालकिन माया (पूजा सरूप) अच्छे दिल की लेकिन चौबीस घंटे फोन पर 'पकवास' करने वाली औरत है। रूथ ऑफिस-ऑफिस डोनेशन की शक्ल में घूस देती है। सादे कपड़ों वाला इंस्पेक्टर (कार्तिक कृष्णन) भी उसे घर के आगे ही बैठा मिलता है। एक्सट्रा मनी बनाने के लिए पार्लर में मसाज के अलावा 'और भी कुछ' करती है। बायफ्रैंड प्रशांत (प्रशांत प्रकाश) भी रूथ की जिंदगी में कुछ हल नहीं करता, बल्कि उसे मुश्किलें ही देता है। एक इच्छुक गैंगस्टर चितियप्पा गौड़ा (गुलशन दैवय्या) है जो फिल्म को इंट्रेस्टिंग करता है और रूथ को परेशान। मुंबई और रूथ की जिंदगी में अंधेरा बढ़ रहा है। क्लाइमैक्स बेहद कम एक्साइटिंग है इसके लिए तैयार रहें।

स्क्रिप्ट के दायरे में
आपको कई संदर्भ दिखाई देते हैं। ओशो का एनलाइटनमेंट, जिम मॉरिसन वाली टाई, पासपोर्ट ऑफिस में अफसर बाबू (मुश्ताक खान) की जेनुइन डकार और पीले जूते। 'गुलाल' में राम प्रसाद बिस्मिल की लिखी 'सरफरोशी की तमन्ना' की पुनर्रचना की गई थी और यहां करमारी गाने में कबीर के बदले-रखे शब्द हैं, जो सैंकड़ों साल बाद मुंबई की गंदली हकीकत पर फिलॉसफी की तरह फिट होते हैं। ये गीत फिल्म की सबसे यादगार चीज है। फिल्म में लिरिक्स वरुण ग्रोवर के हैं, उनकी अच्छी शुरुआत। फिल्म का म्यूजिक वल्र्ड सिनेमा वाली फिल्मों की सिग्नेचर ट्यून जैसा लगता है। इसकी अच्छी वजह है बैनेडिक्ट टेलर का नरेन चंदावरकर के साथ मिलकर संगीत देना। डायलॉग विविध किस्म के हैं। मसलन, तुम बड़ी सती सावित्री हो!; तुम कौनसी ब्रम्हा की छठी औलाद हो!; आई लाइक योर टीथ, सोर्ट ऑफ बग्स बनी मीट्स जूलिया रॉबट्र्स। यहां तक कि सिर्फ चंद सेकंड के लिए जब पीयूष मिश्रा ऑटो वाला बनकर आते हैं और रूथ को मा और दर बोलना सिखाते हैं।

एक जरूरी बात
चितियप्पा गौड़ा (गुलशन दैवय्या) नाम का अनोखा गैंगस्टर। अपुन, ठोक डाल, मच मच, खोखा, मेरे कू और भाई मैं क्या बोलता ए... न जाने मुंबई के सांचों में ढले गैंगस्टर्स की ये शब्दावली हिंदी फिल्मों में कितनी लंबी है, पर एक जैसी है। चितियप्पा की भाषा तरोताजा करने वाली है। कन्नड़ बोलता है, फिर कोशिश करके अंगे्रजी भी बोल ही लेता है। बस। अब ये चितियप्पा हमारी मूवीज में खास इसलिए है कि इसके कपड़े, बोली और व्यवहार स्टीरियोटिपिकल नहीं है। जैसा कि हमारी फिल्मों में दिखाया जाता है। दूसरा हमेशा डॉन या तो मराठी होते हैं या उत्तर भारतीय। जैसे कि 'मुंबई मेरी जान' में थॉमस (इरफान खान) से पहले कोई व्यथित कन्नड़, तमिल, तेलुगू या मलयालम बोलने वाला प्रवासी कामगार यूं हमारी फिल्मों में न दिखा था। अब 'दैट गर्ल...' चितियप्पा को लाई है। पूरे ऑरिजिनल ढंग से। जब वो अपने आदमियों के साथ रूथ के घर जाता है तो हम चौंक जाते हैं, क्योंकि ये कथित गुर्गे दिखने में इतने बूढ़े और सिंपल पेंट-शर्ट डाले नहीं होते थे। जो बकवास नहीं करते, रिवॉल्वर नहीं रखते, मीट की दुकान नहीं होते और गालियां नहीं बकते। ये अंदर रसोई से कॉफी बनाकर लाते हैं। लड़की से अदब से पेश आते हैं और बात-बात पर उचकते नहीं हैं। बात गुलशन दैवय्या की। एक संपूर्ण मॉडलनुमा हीरो की तरह गुलशन कुछ महीने पहले एक टीवी कमर्शियल में दिखे थे, बेहद संपूर्ण। फिर 'दम मारो दम' में। फिर प्रभावी ढंग से 'शैतान' में। अब 'दैट गर्ल...' में। उनकी एक्टिंग में घिसावट और बासीपन नहीं हैं। आगे भी उनपर संजीदगी से नजर रहेगी। पूरा सरूप पर भी।

आखिर में...
फिल्म में नसीरूद्दीन शाह, रजत कपूर, रोनित रॉय, मकरंद देशपांडे और पीयूष मिश्रा दिखते हैं। न जाने क्यों दिखते हैं। क्योंकि स्क्रिप्ट में उनका विशेष महत्व नहीं है। मित्रवत वजहें हो सकती हैं क्योंकि इन सबकी जगह अनजान कलाकार भी होते तो कुछ बदलता नहीं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, September 1, 2011

शब्दहीन कर देती है बहादुर 'बोल'

फिल्म: बोल (पाकिस्तानी फिल्म)
निर्देशक: शोएब मंसूर
कास्ट: हुमैमा मलिक, मंजर सेहबई, शफकत चीमा, जैब रहमान, अम्र कश्मीरी, आतिफ असलम, इमान अली, माहिरा खान
स्टार: साढ़े तीन, 3.0
अगर आधी रात में भी पांच किलोमीटर दूर जाकर एक 'बोल' देखने की सूरत हो, तो मैं हंसते-हंसते हर सुबह पांच किलोमीटर दूर जाकर एक 'बॉडीगार्ड' देखने को तैयार हूं। खुशी है कि काफी दिन बाद इतनी गले तक तृप्त कर देने वाली फिल्म देखी। ये कोई मनोरंजन करने वाली फिल्म नहीं है, बल्कि उम्दा स्टोरीटेलिंग है। जैसे कि 'मदर इंडिया' है। शोएब मंसूर पाकिस्तानी सिनेमा को नई इज्जत बख्शने वाले फिल्मकार बने हैं। पहले 'खुदा के लिए' से और अब 'बोल' से। फिल्में बनाने के तमाम नियमों को साधारण से साधारण तरीके से फॉलो करती हुई भी ये फिल्म बेहतरीन बनती है, सिर्फ इसलिए कि अपनी कहानी के प्रति ईमानदार बनी रहती है और आखिर तक बनी रहती है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि इसे फैमिली के साथ देखें कि नहीं, पर इतना जरूर कहूंगा कि तमाम एडल्ट कंटेंट होते हुए भी कोई पिता-पुत्र या मां-बेटी असहज हुए बिना इसे देख सकते हैं। ये एडल्ट तत्व परदे पर बिल्कुल भी नहीं आता, पर आप समझ जाते हैं। वाह, कितनी भली बात है। जब फिल्म खत्म होगी तो आप उसी एक्सपीरियंस से गुजर चुके होंगे जिसके लिए फिल्म देखने हम थियेटर जाया करते हैं। ये फील गुड फिल्म तो नहीं, पर मस्ट वॉच है, ताकि आपको पता लगे कि हम बॉलीवुड के दर्शक इस मीडियम के लेकर कितने करप्ट हो चुके हैं, कितने विकल्पहीन हो चुके हैं और कितने पशु हो चुके हैं।

बोल की कहानी
पाकिस्तान
के प्रेसिडेंट फांसी की सजा पाई जैनब (हुमाइमा मलिक) की माफी की अपील खारिज कर देते हैं, पर आखिरी ख्वाहिश के तौर पर उसे देश के मीडिया के सामने अपनी कहानी सुनाने की मंजूरी दे देते हैं। वह सुनाती है। बंटवारे के बाद हकीम साहब (मंजर सेहबई) दिल्ली से लाहौर आ जाते हैं। बेटे की चाहत में सात बेटियां जनते जाते हैं। बेटा सैफी (अम्र कश्मीरी) होता भी है, तो आदमी होकर भी औरतों जैसा होता है। बीवी सुरैया (जैब रहमान) और बेटियां हकीम साहब के दकियानूसी और कट्टर धार्मिक विचारों तले घर को बर्बाद होते देखती हैं। पर बड़ी बेटी जैनब गालियां और पिटाई खाते हुए भी पिता का विरोध करती चलती है। बहनों को पिता पढऩे नहीं देते। घर से बाहर जाने नहीं देते। छोटी बहन आयेशा (माहिरा खान) डॉक्टर मुस्तफा (आतिफ असलम) के साथ मिलकर रॉक बैंड बनाती है, पर छिप-छिपकर। हकीम साहब की जिंदगी में न चाहते हुए भी चकला चलाने वाले साका कंजर (शफकत चीमा) और तवायफ मीना (इमान अली) आते हैं। बीच में मुद्दे हैं इस समाज में आर्थिक तंगी के बावजदू दर्जनों बच्चे जनते पुराने ख्यालों के लोग, जो उसे ऊपरवाले की रहमत मानते हैं। सवाल है, जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो। अहम सवाल इस कट्टर समाज में औरत होने के मायनों का भी है।

पाक ईमान से बनी फिल्म
# दिन परेशां है, रात भारी है... जैसे बेहद सिंपल और कारगर गीत और म्यूजिक फिल्म की डार्क टोन को सहलाते चलते हैं।
# भारत-पाकिस्तान का मैच चल रहा है। बेटी मन ही मन सचिन की सेंचुरी पूरी होने की ख्वाहिश रखती है। हकीम साहब आगबबूला हो डांटते हैं। बेटियों को इबादत करने को कहते हैं। पाकिस्तान हारा तो खैर नहीं। यहां जैनब पिता के जड़ विचारों को 'ऑस्ट्रेलिया में तो कोई इबादत नहीं करता फिर भी वो सालों से बेस्ट हैं' जैसे लॉजिक देती है। स्क्रिप्ट में क्रिकेट के साथ 'पाकीजा' और मीनाकुमारी के संदर्भ है। इसलिए कि धर्म के इस हिस्से में फिल्में और संगीत हराम हैं।
# अपने बेटे सैफी के जीने और मरने के फैसला करने के लिए हकीम साब आंख मूंदकर जब अपनी धार्मिक किताब के पन्ने पर अंगुली रखते हैं तो किताब फैसला देती है 'डुबोया मुझको मेरे होने ने, न होता मैं तो क्या होता।' देखिए ऐसी बेजोड़ छोटी-छोटी पंक्तियां स्क्रिप्ट को कितना समृद्ध बनाती हैं।
# फिल्म के आखिर में मेक्डॉनल्ड की तर्ज पर बची बहनों के 'जैनब्स कैफे' खोलने का पश्चिमी पूंजीवादी अंत बहस करने लायक है, अंतिम नहीं।
# हुमाइमा मलिक का अभिनय बहुत अच्छा है। पाकिस्तान के वरिष्ठ थियेटर एक्टर और अभिनेता मंजर सेहबई की अदाकारी इंडियन एक्टर्स के लिए अच्छी-खासी सीख है। बेहतरीन। अम्र कश्मीरी और जैब रहमान की महत्वपूर्ण अदाकारी के बीच रोचक कैरेक्टर साबित होते हैं साका कंजर बने शफकत चीमा। यहां तक कि फिल्म के शुरू में हकीम साहब के घर सैफी को मांगने आए किन्नर का सीन भी आप देखें तो उसका अभिनय दंग कर देता है।

आखिर में दो किस्से...
1. फिल्म खत्म हुई और चंडीगढ़ के थियेटर में आखिर वही लड़के तालियां बजाने के मजबूर हो गए जो शुरू में हर गंभीर और इमोशनल सीन में हंस रहे थे और दूसरों का ध्यान बंटा रहे थे। इनमें वो लड़का था जो इंटरवल में अपने दोस्तों से कह रहा था, 'यार ये क्या फिल्म है। इतनी ज्यादा बैड फीलिंग वाली। मुझसे तो देखी नहीं जा रही चल बाहर होकर आते हैं।'
2. पाकिस्तान में औरतों के हालात का संदर्भ फिल्म में सबसे प्रमुख है और मुस्लिम युवतियों की अपनी इमेज पर वो लड़का रात के दो बजे लिफ्ट में अपने दोस्तों को वाकया सुना रहा था। 'बोल' ने बोलने को जो प्रेरित कर दिया था। मैं भी सामने खड़ा लिफ्ट से नीचे उतर रहा था। दरअसल जब वह किसी एग्जाम के सिलसिले में हैदराबाद गया था। उसने वहां किसी मुहल्ले में एक मुस्लिम लड़की से एग्जाम सेंटर वाली स्कूल का पता पूछा और लड़की बोली, 'यू गो स्ट्रैट एंड टेक लेफ्ट टर्न, यूल बी देयर।' लड़का शॉक सा अपने दोस्तों से कह रहा था 'कम ऑन यार! वो सिंपल सी दिखने वाली लड़की पापड़ बनाती थी और उसके स्मार्ट जवाब ने मेरा दिमाग हिला दिया।' लिफ्ट लोअर बेसमेंट में जा रही थी, मैं उन लोगों की बातों को ओर सुनना चाह रहा था पर मुझे अपर बेसमेंट में उतरना था। मतलब ये कि फिल्म में जो उपाय सुझाया गया है, उसे वह लड़का खुद के साथ हुए वाकये से पुख्ता कर रहा था। माने, फिल्म बनाना सार्थक हुआ।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, August 12, 2011

'मिल्खा को शब्दों में शायद समझा न पाऊं'

फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा से मुलाकात
कॉलेज के बाद दिल्ली की गलियों में महीनों यूरेका फोब्र्स के वेक्यूम क्लीनर बेचने वाले राकेश बिल्कुल नहीं बदले। तब दोस्त मल्टीनेशनल्स में लगे और ये सेल्समैन बने। आज साथी फिल्ममेकर सुनी-सुनाई आसानी से बनने वाली कमर्शियल फिल्में बना रहे हैं और वह इंडिया के आइकॉनिक धावक मिल्खा सिंह पर बायोपिक अक्टूबर तक शुरू करने वाले हैं। थोड़ा नर्वस हैं, पर भेड़चाल में घुसने की मंशा नहीं है।
हाल ही में आपने 'तीन थे भाई' प्रॉड्यूस की थी। क्या लगा नहीं था कि वसीयत की कहानी पर दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, तो इसे क्यों प्रॉड्यूस किया जाए?
दुनिया में गिने-चुने प्लॉट ही होते हैं। बस बोलने का तरीका और कहानी में अनोखापन अलग होता है। ये एक कैरेक्टर ड्रिवन स्टोरी थी, सुनते ही मुझे कैरेक्टर्स से प्यार हो गया। इतनी जगह रामलीलाएं होती हैं, कहते तो वो भी एक ही कहानी हैं।

फ़िल्म बनाते वक्त आपमें
बैठे प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर पर किसका प्रैशर होता है, मार्केट का या क्रिएटिव हूक का?
मेरा तो मेरे से ही होता है, अपने आप से। कि एक्सीलेंस का पीछा करता रहूं, काम अच्छा हो जाए। गलतियां तो इस दौरान होती रहती हैं। पर आपका छोटा सा प्रयास भी ऑडियंस को छूता है। हमारी ऑडियंस बहुत ब्रिलियंट है, वो दो मिनट में पहचान जाती है, कि किसने क्या किया है।

'भाग मिल्खा भाग' की शूटिंग चंडीगढ़ के आस-पास शुरू होने वाली थी। पर मैंने कहीं पढ़ा कि आप थोड़ा सा नर्वस हो रहे हैं?
थोड़ा सा? मैं रातों को सो नहीं पाता। इसके लिए थोड़ा सा कहना तो बहुत कम होगा। बड़ी चैलेंजिंग स्टोरी है। एक रियल लाइफ स्टोरी पर काम करने और उसे ड्रमैटिक बनाने में जरूरतें ही कुछ और हो जाती हैं। रियल इंसान पर बात कर रहे हैं तो हकीकत से जुड़े रहने होता है, सिनसियर बने रहना है, स्टोरी से जस्टिस करना है। मैं जब इस जर्नी में घुसता हूं तो दिल में इमोशन उमडऩे लगते हैं, शायद मैं आपको जुबां से समझा न पाऊं।

80-100 करोड़ में फिल्में बन रही हैं, स्टार्स करोड़ों फीस ले रहे हैं, पर रिजल्ट अच्छा नहीं दे रहे है?
ये स्क्रिप्ट तय करती है कि पैसा कितना लगे। अगर द्वितीय विश्व युद्ध पर या आजादी पर या कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्म बना रहे हैं तो बजट बड़ा होगा। अगर आप 'शोले' बना रहे हैं जिसमें ट्रेन सीक्वेंस है या बहुत सी रॉबरी हैं तो बजट बड़ा होगा। मगर सिंपल आइडिया पर रोमेंटिक या कॉमेडी बना रहे हैं तो बजट कम होना चाहिए। हमें अपने बजट को स्टार्स की तुलना पर नहीं लाना चाहिए। सौ-डेढ़ सौ करोड़ की फिल्म बनाइए पर वो परदे पर दिखना चाहिए। पर जरूरत से ज्यादा खर्चा खराब है। मैं दूसरों की बात क्यों करूँ, मैंने 'दिल्ली-6' बनाई और जहां एक रुपया खर्च करना था वहां दो रुपए खर्च किए। पर अब मैं सीख चुका हूं।

'दिल्ली-6' में काला बंदर था, तो 'अक्स' में नेगेटिव पॉजिटिव का चेंज-इंटरचेंज। लोगों को ये एब्सट्रैक्ट पॉइंट समझ नहीं आए, ऐसे में फिल्ममेकर के तौर पर क्या बीतती है?
यही सोचता हूं कि मेरे को सीखना चाहिए। जो मैं बोल रहा हूं वो सही है, बस उसके बोलने के तरीके को और सहज करूं तो और फिल्म का आधार और व्यापक हो जाएगा। जरूरी ये नहीं कि फिल्म पांच या सात करोड़ में बनी है, जरूरी ये है कि उसकी कीमत सौ रूपए जितनी है कि नहीं। अपनी मेहनत से कमाए 100 रुपए से टिकट खरीदकर ऑडियंस फिल्म देखने जाती है, तो उसको उसकी कीमत मिलनी चाहिए। कई बार उसे 100 में हजार रूपए का अनुभव होता है, कई बार प्राइसलेस। जैसे लगा कि 'रंग दे बसंती' में हमने लाखों का अनुभव ले लिया, पर कई बार ऐसे नहीं हुआ।

'रंग दे बसंती' में क्रांतिकारियों की फुटेज और मौजूदा दौर को जैसे मिक्स किया, क्या वैसा ही 'भाग मिल्खा..' में भी करना पड़ेगा?
रंग दे.. में एक फिल्म में दो फिल्में चल रही थी। एक 1920 की क्रांति थी, जो चंद्रशेखर आजाद से होते हुए भगतसिंह तक पहुंची थी। पर मिल्खा जी की स्टोरी में हम मिल्खा जी पर ही फोकस्ड रहे हैं। फिल्म में हमें एक तो ग्यारह साल के मिल्खा को दिखाना है और एक बीस से अठाइस साल तक के मिल्खा को।

पर वो ब्लैक एंड वाइट दौर तो क्रिएट करना होगा न?
हां, पर आज मिलता नहीं है। आज की सड़कें देख लीजिए, तब मिट्टी की सड़कें होती थी। पहले टीवी, उसके एंटीने, मोबाइल टावर्स कुछ नहीं होते थे, तो ऐसी जगहें ढूंढनी पड़ेंगी। ईंटें भी अलग होती थी, मिट्टी के घर होते थे, अलग गाडिय़ां होती थी, तो वो सब ढूंढ-ढूंढ कर लानी पड़ेगी।

यूं नहीं लगता कि फिल्मों में एंट्री लेने से पहले बहुत कहानियां थी और अब कुछ भी आइडिया नहीं है?
सौ प्रतिशत ऐसा ही है। कमाल का सवाल है। जो आपके अंदर ये है वो ही बाहर निकलेगा। आप राइट साइड से खाली होते हैं तो अपने आप को भरने की बहुत जरूरत है, इसलिए लाइफ से जुडऩा पड़ता है। जैसे आप जुड़े हुए थे पहले। फ्रैश आइडियाज के लिए लोगों से मिलो, लोगों से प्यार करो, जिंदगी से प्यार करो, सोचो, जिनके लिए आप बनाना चाह रहे हो वैसे ही माहौलों में जाओ। बैसिकली अपने आप को सिंपल रखो, अलग मत रखो। खुद को रीइनवेंट करते रहो।

कौन सी फिल्मों पर काम कर रहे हैं?
दो-चार कहानियां और है। एक 'राजा' हैं, मिथिकल है, 1898 में सेट है। कृष्ण की कहानी है उनकी बांसुरी की कहानी है। 'कैजुअल कामसूत्र' है जो वल्र्ड फैशन में धूसर ग्रामीण अक्स दिखाएगी। कहानियां तो हैं। एक 'भैरवी' है।

कुछ और...
# मेरी फेवरेट फिल्में 50 और 60 के दशक की हैं। जब हम एस्केपिस्ट सिनेमा में नहीं घुसे थे, उससे पहले की। मैं अभी भी उन फिल्मों के इर्द-गिर्द ही घूम रहा हूं।
# सक्सेस को रिपीट करना जिंदगी में सबसे बोरिंग चीज है।
# ये सोचना गलत है कि अमेरिका से फिल्म कोर्स करके आओगे तो फिल्म बनाओगे। बनाओगे भी तो गलत, क्योंकि वो ज्यादा से ज्यादा एक अमेरिकन आइडिया मेड इन इंडिया होगी।
# बदलाव तभी आएगा जब कस्बों और छोटे शहरों से फिल्में बननी शुरू होंगी। जब वहां से सब्जेक्ट आएंगे, वहां से लोग आएंगे।

Monday, August 8, 2011

अधबीच बहस आते वीडियो किस्से

एन. चंद्रा जैसे फिल्ममेकर ने 1993 में मिथुन चक्रवर्ती को लेकर 'युगांधर' बनाई थी। इसमें नक्सलवाद, वामपंथ, पूंजीवाद, जनता, सिस्टम, विचार और भटकाव जैसे उन विषयों पर बात की गई जिनको लेकर हमारे समाज की बहस अधबीच में है। पर इस अधबीच के बीच ही निर्देशक तीन घंटे की फिल्म बनाता है और अपनी मनपसंद साइड ले लेता है। वह बहुत मौकों पर गलत भी होता है। चूंकि फिल्म माध्यम कहानी कहते-कहते हमारा ब्रेनवॉश करने की क्षमता रखता है तो समाज की राय प्रभावित होती है। इस बीच उन ऑडियंस का क्या जो निर्देशक के लॉजिक से इत्तेफाक नहीं रखती। क्या एक लोकतांत्रिक सेटअप में दोनों पक्षों को जगह नहीं मिलनी चाहिए?

चाहती
तो 'युगांधर' भी नक्सली विरोध के विचार में कोई एक पक्ष ले सकती थी, पर ये मूवी हिंसा और अंहिसा दोनों पर वास्तविक स्टैंड लेती है और एक कम हानिकारक राह सुझाती है। एक सीन है। फौज ने पास ही में डेरा डाल दिया है और कृष्णा (मिथुन) अपने लोगों से कहता है, 'हमारे बीच के आधे लोग... औरतें, बच्चे और घायल हैं, मगर हम लड़ेंगे। क्योंकि हमारी लाशें देखकर कोई तो कहेगा कि आखिर इतने लोगों ने क्यों और किस कारण से अपनी जानें दे दी।' फिल्म के आखिर में अहिंसा का रास्ता चुनने वाले कृष्णा को गांधी की तरह असेसिनेट कर दिया जाता है। फिर परदे पर एक गांधी सा लगने वाला आदमी आता है और कहता है, 'देख कृष्णा मुझे मेरी जमीन 20 साल बाद मिल गई है।' इसके बड़े मायने हैं।

अब आते हैं जल्द रिलीज होने जा रही प्रकाश झा की 'आरक्षण' पर। फिल्म में एक डायलॉग है, 'अगर आप आरक्षण के साथ नहीं तो उसके खिलाफ हैं।' फिल्म में सैफ का मूछों वाला रूप और अग्रेसिव संवाद बेहद कैची जरूर हैं, पर समाज में इकोनॉमिक रिजर्वेशन, धार्मिक रिजर्वेशन और जाति आधारित रिजर्वेशन के विरोध में तर्क देने वाले आम लोग और जर्नलिस्ट भी बसते हैं। फिर कहूंगा, बात सही-गलत के साथ एक-दूसरे को बोलने की बराबर जगह देने की भी है। ये भी नहीं है कि हर दर्शक फिल्म पर अपने फीडबैक दे पाए या नई फिल्म बनाकर अपने जवाब दे दे। फिल्में अभी भी वन वे ट्रैफिक ही हैं। थोड़े वक्त पहले एनडीटीवी इमैजिन पर लॉन्च हुआ सीरियल 'अरमानों का बलिदान-आरक्षण' मैरिट की वकालत करता था और आधार बनाता था मंडल कमीशन के दौर को। यहां भी फिल्म मीडियम का इमोशनल इस्तेमाल करके इस सामाजिक बहस को प्रभावित करने की कोशिश की गई। जो फिल्मों को सिर्फ बर्गर की तरह खाते हैं, वो बिना सोचे-समझे उस लॉजिक के हो जाते हैं।

शिक्षा मंत्री रहते हुए कपिल सिब्बल ने 10वीं क्लास तक फेल-पास सिस्टम को हटाने की बात कही। अब भारत के हजारों अंदरुनी गावों में राजीव गांधी विद्यालयों में टीचर लगे नौजवान शिकायत करते हैं कि बच्चा पढ़ेगा नहीं, कॉपी खाली छोड़ देगा तो भी पास करना पड़ेगा। यहीं पर आती है 'थ्री इडियट्स', एलीट एजुकेशन के दायरे में रहते हुए कुछ फील गुड बात कहती है। फिल्म एक गैर-लिट्रेचर माने जाने वाले अंग्रेजी नॉवेल से प्रेरित थी, पर इसने फिल्म के जरिए एजुकेशन सिस्टम कैसा हो इस बहस पर एक अपने मन की टिप्पणी कर दी थी।

आप इशरत जहान एनकाउंटर और सोहराबुद्दीन शेख-कौसर बी एनकाउंटर के तथ्यों को देख रहे हैं और आपके सामने 'आन: मेन एट वर्क', 'अब तक छप्पन' और 2007 में आई विश्राम सावंत की 'रिस्क' है। इन फिल्मों में हर एक एनकाउंटर के साथ हमें मजा आता जाता है। कभी खुद से पूछा है क्यों? आप कभी पूछते नहीं और आपकी सोशल डिबेट कमजोर हो जाती है। ये जरूर याद रखिए की फिल्मों से किसी भी गलत विचार और इंसान तक को जस्टिफाई किया जा सकता है, फिर ये तो एनकाउंटर है। मधुर भंडारकर की 'आन' से होते हुए पुनीत इस्सर की 'गर्व' और हैरी बवेजा की 'कयामत: सिटी अंडर थ्रेट' तक पहुंचें तो सारे बुरे किरदार मुसलमान हैं। हां, कुछ भले मुसलमान भी स्क्रिप्ट में डाल दिए जाते हैं ताकि दर्शक का लॉजिक चुप हो जाए। ऐसा ही किरदार है सुनील शेट्टी का। एक पाकिस्तानी फौजी अधिकारी से बात करते वक्त भारतीय मुलमानों को देशभक्त बताने में ये स्क्रिप्ट बेहूदगी की हद तक स्टीरियोटिपिकल थी। एक लाइन गौर फरमाएं, 'अरे, पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान तो हिंदुस्तान में रहते हैं।' ये फिल्में ये भी प्रूव कर देना चाहती हैं कि हर आतंकी और अंडरवल्र्ड डॉन मुसलमान ही होता है।

दिल्ली की अदालत ने संविधान की धारा-377 पर एक पॉजिटिव फैसला सुनाया था। पर हिंग्लिश और हिंदी दोनों ही फिल्मों में अब भी फुसफुसाते हुए 'डू यू नो, शी इज लेस्बो' और 'तुम गे हो?' सुनाई दे ही जाता है। इनसे लेकर 'कॉमेडी सर्कस' तक में एलजीबीटी (गे) कम्युनिटी पर भद्दे मजाक किए जाते हैं।

'गुजारिश' में ईथन मेस्कैरेनहस की इच्छा मृत्यु यानी मर्सी किलिंग की याचिका खारिज हो जाती है। हमारे सभ्य समाज और कानून में इसे मंजूरी नहीं हैं पर संजय लीला भंसाली ने अपनी कहानी में फैसला किया कि दोस्त और सर्वेंट सोफिया मरने में ईथन की मदद करेगी। और फेयरवेल पार्टी के साथ ईथन एक हैपी मैन की तरह मरता है।

हाल ही में निर्देशक अश्विनी चौधरी ने माना था कि एक डायरेक्टर को अपनी कहानी का भगवान होने की फीलिंग होती है। वह जब चाहता है बरसात होती है, जब चाहता है कैरेक्टर रोता है और जब चाहता है हंसता है। मगर फिल्मी भगवान के वीडियो किस्सों और चाहत से बहुत कम बार असल जिंदगी के मुद्दे हल होते हैं। नीरज पांडे की ' वेडनसडे' में मुंबई बम धमाकों से पीडि़त एक आम आदमी पूरी कानून व्यवस्था और सिस्टम को अपने हाथ में लेता है, और कथित मुस्लिम आतंकियों को सिस्टम के हाथों फिल्मी अंदाज में मरवा देता है। उसे लगता है कि उसने धमाकों के जवाब में सही प्रतिक्रिया दी है। अगर यही सही है तो ऐसा सिविलियन जस्टिस तो बिहार में चोर को साइकिल के पीछे बांधकर खींचने का भी है। उसे पेड़ से बांधकर जानवरों की तरह मारने में भी है। क्या हम उसे स्वीकार कर सकते हैं?

गजेंद्र सिंह भाटी
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साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से

Saturday, August 6, 2011

मूड नहीं आपकी आपात आवश्यकता है 'आई एम कलाम'

फिल्म: आई एम कलाम
निर्देशक: नील माधव पांडा
कास्ट: हर्ष मायर, गुलशन ग्रोवर, हसन साद, पितोबाश त्रिपाठी, बिएट्रिस, मीना मीर
स्टार: तीन, 3.0

चूंकि मैं खुद बीकानेर मूल का हूं इसलिए फिल्म में भाषा और किरदारों के मारवाड़ी मैनरिज्म में रही बहुत सारी गलतियों को जानता हूं। मगर उन्हें यहां भूलता हूं। डायरेक्टर नील माधव सोशल विषयों पर फिल्में और डॉक्युमेंट्री बनाते हैं। उनकी ये पहली फिल्म बच्चों के लिए काम करने वाले स्माइल फाउंडेशन के बैनर तले बनी है। खासतौर पर बच्चों और हर तबके को समझ आए इसलिए फिल्म बेहद सिंपल रखी गई है। ऐसे में बात करने को दो ही चीजें बचती हैं। एक एंटरटेनमेंट और दूसरा मैसेज। दोनों ही मामलों में फिल्म 80-100 करोड़ में बनने वाली फिल्मों से लाख अच्छी है। धोरों पर बिछे म्यूजिक और दृश्यों को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए। एक बार सपरिवार जरूर देखें।

कलाम से मिलिए
अपने धर्ममामा भाटी (गुलशन ग्रोवर) के फाइव स्टार नाम वाले ढाबे पर काम करने लगा है छोटू (हर्ष मायर)। जयपुर रोड़ पर बसे रेतीले डूंगरगढ़ और बीकानेर की लोकेशन है। ढाबे पर बच्चन का बड़ा फैन लिप्टन (पितोबाश त्रिपाठी) भी काम करता है। वह छोटू से जलता है क्योंकि तेजी से फ्रेंच व अंग्रेजी बोलना और भाटी मामा जैसी चाय बनाना सीखकर बाद में आया छोटू सबकी आंखों का तारा बन रहा है। ऊपर से वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी भी बनना चाहता है। पास ही में एक हैरिटेज हवेली है जहां रॉयल फैमिली रहती है और सैलानी भी आकर रुकते हैं। सुबह-सुबह अपनी ऊंटनी पर बैठकर चाय पहुंचाने जाते छोटू (खुद को वह कलाम कहलवाना ज्यादा पसंद करता है) की दोस्ती हवेली के राजकुमार कुंवर रणविजय (हसन साद) से हो जाती है। मगर दोनों की मासूम दोस्ती के बीच ऊंचे-नीचे की खाई है। मगर छोटू के सपने अडिग हैं, उसकी आंखों में भयंकर पॉजिटिविटी है और चेहरे पर हजार वॉट की स्माइल है। बच्चों की शिक्षा और उन्हें सपने देखने देने की सीख के साथ फिल्म खत्म होती है। एक नैतिक शिक्षा की अच्छी कहानी की तरह क्लाइमैक्स करवट बदलता है।

सुंदर निर्मल कोशिश
अपने-अपने बच्चों को हर कोई ये फिल्म आपातकालीन तेजी से दिखाना चाहेगा। इसमें आज के प्रदूषित माहौल का एक भी कार्बन कण नहीं है। अच्छी भाषा और स्वस्थ मोटिवेशन के साथ सिनेमा के आविष्कार को सार्थक करते हुए हम हमारे वक्त की सख्त जरूरत वाली कहानी परदे पर देखते हैं। ओवरऑल आडियंस के साथ खासतौर पर बच्चों के लिए 'चिल्लर पार्टी' के बाद आई दूसरी अच्छी फिल्म है 'आई एम कलाम'।

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इस फिल्म की टेक्नीक और शुद्धता-अशुद्धता पर मुट्ठी भर बातें और हो सकती है। कहां इसकी शूटिंग हुई। वो जगह कैसी है। बीकानेर के जिस भैंरू विलास में फिल्म के बहुत बड़े हिस्से को फिल्माया गया, उसका इतिहास क्या रहा है। कैसे उस हैरिटेज हवेली की अपनी एक शेक्सपीयर के नाटकों सी तबीयत वाली कहानी है। वो ढाबा असल में कैसे डूंगरगढ़ रोड़ पर बना है। उस ऊंटनी के मालिक का क्या नाम है। उस ऊंटगाड़ी में बैठे ढोली का नाम क्या है। कैसे फिल्म की स्टारकास्ट के कपड़ों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। कैसे एक उड़ीसा मूल का फिल्म डायरेक्टर मारवाड़ की पृष्ठभूमि, उसकी रेत, उसके भाषाई रंगों, वहां के कल्चर में छिपी सत्कार की शैली और लोगों को अपने तरीके से एक दो घंटे की फिल्म में दिखाता है। कैसे उसके इस परसेप्शन को दुनिया भर के लोग 'आई एम कलाम' देखने के बाद अपना सच बना लेते हैं। चूंकि फिल्म का संदेश पवित्र है इसलिए ये सब बातें और तकनीकियां बाद में भी देखी-भाली जा सकती हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी