शुक्रवार, 28 जून 2013

ये ग़लत ख़्याल है कि फ़िल्मों में हमारी हीरोइन्स ही हमारा समाज हैं, हमारे समाज की औरतें तो ऐसी नहीं हैं : सुभाष घई

 Q & A  .Subhash Ghai, Ace filmmaker, India.
Posters of Subhash Ghai Films.
तब एक चैनल आया करता था, एटीएन। दोपहर में ‘मेरी जंग’ उस पर बहुत दिखाई जाती थी। हर बार अच्छी लगती थी। अरुण (अनिल कपूर), उसकी मां (नूतन) और छोटी बहन कोमल (खुशबू) की कहानी। पिता (गिरीष कर्नाड) पर ख़ून का झूठा इल्ज़ाम लगता है और एक नामी वकील ठकराल (अमरीश पुरी) फांसी दिलवा देता है, उसकी बेगुनाही जानते हुए भी। “जिंदगी, हर कदम, इक नई, जंग है... जीत जाएंगे हम, जीत जाएंगे हम, तू अगर संग है... जिंदगी...” इस गीत को गाते हुए नन्हा सा अरुण छहरहा-गंभीर नौजवान अरुण वर्मा बन जाता है। एक वकील। डिफेंस लॉयर। ठकराल की केस स्टडी करता हुआ। छोटी बहन को मां-बाप दोनों का प्यार देता है। मां तो पति की फांसी और घर नीलाम होने के बाद पाग़ल हो जाती है। अरुण को नहीं पता कि वह पाग़लखाने में है। खैर, उनके दुख, संघर्ष, संघर्षों का सामना करने की हिम्मत, जिजिविषा और बदला चुकाने की बारी... एक ऐसी कहानी का हिस्सा बनते हैं जिसे देखने का मन बार-बार करता था।

ये हिम्मत देती थी। कि, जैसे इन्हें दुख आ रहे हैं, हमें भी आ रहे हैं और हमें भी हिम्मत रखनी चाहिए। कि जैसे ये पढ़-लिखकर लायकी ला रहे हैं और जीकर दिखा रहे हैं, हमें भी जीना चाहिए। अरुण वर्मा की लड़ाई हमारी लड़ाई बन गई थी। मां बनी नूतन की बतौर अभिनेत्री वही छवि ज्यादा करीब हो गई थी, ‘बंदिनी’ वाली नहीं। दुखियारी मां, जो पागल है, क्या उसे न्याय मिलेगा? पर मौका मिलता है। अरुण के पास डॉ. आशा माथुर (बीना) का केस आता है। उस पर मरीज को दवाई के नाम पर ज़हर देकर मारने का इल्ज़ाम है। वह केस लड़ने से मना कर देता है क्योंकि झूठे केस नहीं लेता। लेकिन जब डॉ. की बहन गीता (मीनाक्षी शेषाद्रि) अरुण को कहती है, “जिसके पास कोई सबूत कोई गवाह नहीं होते, क्या वे बेगुनाह नहीं होते”, तो वह द्रवित हो जाता है। ये वही पंक्ति है जो उसकी मां ने ठकराल को कभी अदालत में अपनी पति की जान की भीख मांगते हुए कही थी और किसी ने अरज नहीं सुनी थी, लेकिन 8 साल का अरुण सुन रहा था। तो अब अरुण केस लड़ता है। अदालत में उसका अभूतपूर्व हीरोइज़्म दिखाते हुए और असामान्य रास्ता अपनाते हुए सबूत के तौर पर पड़ी ज़हर भरी दवा की शीशी पी जाना, आज भी जेहन में ताज़ा-ताज़ा जिंदा है। पूरे अधिकार से वह दृश्य दिमाग में बिस्तर लगाए लेटा है। इतने बरसों से। कभी वकील बनना होता तो पक्का ही ऐसे प्रयोग जरूर करता। तो यूं वह डॉक्टर आशा को छुड़वा लेता है।

फिर वह पियानो वाला क़िस्सा आता है। हिंदी सिनेमा में पियानो जैसे उपकरण वो चीज़ें हैं जो हमारे घरों के लिए सिर्फ फ़िल्मी ही बात थीं। भला असली दुनिया में कौन तो पियानो बजाता था और कौन तो बजाते हुए गाता था! बहरहाल ब्रिटिश राज की एक बड़ी निशानी यूं पीछे छूट गई थी, शायद। जब अरुण को अप्रतिम मदद के लिए फीस बताने का अनुरोध डॉक्टर कपल (आशा के पति के रोल में परीक्षित साहनी) करते हैं तो अरुण उनके घर पड़ा पियानो मांग लेता है। ये वही पियानो होता है जो उसके पिता बजाते हुए गाते थे। उस पर लगा कृष्ण का स्टिकर डायरेक्टर सुभाष घई की तमाम फ़िल्मों की एपिक भारतीय फिलॉसफी का प्रतिनिधित्व करता है। सारी ‘कर्मा’, ‘खलनायक’, ‘विधाता’, ‘विश्वनाथ’, ‘राम लखन’, ‘मेरी जंग’ और ‘परदेस’ ऐसी ही जिंदगी के संघर्ष की भारतीय फिलॉसफी से बनी थीं। ये फिलॉसफी उस दौर में गांवों से शहरों और शहरों से महानगरों में आकर जिंदगी का संघर्ष करने वाले हमारे पिताओं का ईंधन भी थी और उस पीढ़ी का आईना भी। वो बूढ़ी हो रही पीढ़ी आज भी ‘शराबी’, ‘कर्मा’ और ‘मशाल’ में खुद को ढूंढती है, हालांकि दौर अब दूसरे किस्म की पीढ़ी का आ चुका है। अब जो संघर्ष कर रहे हैं वो ‘इंडियन आइडल जूनियर’ और ‘डांस इंडिया डांस लिटिल चैंप्स’ में अपने बच्चों की प्रतिभा की आस पर कर रहे हैं। बाकी जिनके पिता लोगों की जिंदगी घई, चोपड़ा, देसाई और मेहरा की फ़िल्मों के नायकीय संघर्ष का अक़्स थी, उनके बच्चे आज या तो फेसबुक की लाइफ में राज़ी हैं या फिर कॉरपोरेट सेक्टर का हिस्सा हो गए हैं और एसी वाले ऑफिस में बैठने को “आई हैव अराइव्ड” मानते हैं। उनके पिता भी खुश हैं कि ऐसा जिंदगी की जंग लड़ने का पुण्य-प्रताप है।

तो अब क़िस्से में विक्रम ठकराल (जावेद जाफरी) आता है। “बोल बेबी बोल, रॉक एंड रॉल” पर जावेद का नाचना फ़िल्मी डांस में तब ‘द बिग थिंग’ था। भारत के कस्बों और छोटे शहरों में उन्हें इंडिया का माइकल जैक्सन कहा जा रहा था, बड़े शहरों का पता नहीं। फ़िल्मी डांस को लेकर कुछ ऐसा ही आश्चर्य एन. चंद्रा की 1991 में आई फ़िल्म ‘नरसिम्हा’ में रवि बहल का नृत्य था। पतले जूते, जरा ऊंची चढ़ी फिटेड पैंट और तितली की तरह माइकल जैक्सन वाले अंदाज में उर्मिला को छेड़ते हुए “हम से तुम दोस्ती कर लो, ये हसीं ग़लती कर लो...” गाने पर उनका नाचना, आज भी बचकाना नहीं लगता। तो जावेद के क़िरदार का नाच कॉलेज में कोमल को मन मोह लेता है। वह अरुण की बहन को प्यार के चंगुल में फंसा लेता है। दोनों भागने की योजना भी बना लेते हैं। आधी रात को वह उसे भगा ले जाने के लिए आता है कि विकी की गर्लफ्रेंड आ जाती है और उसकी योजना चौपट कर देती है। गुस्से में आया विकी उसका क़त्ल कर देता है। अदालत में केस दर्ज़ होता है। बेटे का केस ठकराल साहब लड़ते हैं और सामने होता है अरुण। अब एक कोर्ट सागा शुरू होता है। अंत सुखद होता है। जिंदगी की जंग में अरुण और उसकी मां की जीत होती है। अंत में वही ठकराल बेटे के गम में पागल होकर उसी पागलखाने पहुंच जाता है जहां अरुण की मां इतने साल गुजारती है। फ़िल्म पागलखाने की गली में जाते ठकराल पर खत्म होती है।

‘मेरी जंग’ तब हर बार पूरी मासूमियत और न के बराबर फ़िल्म निर्माण ज्ञान के साथ देखी थी। जैसे कि देश के प्राथमिक दर्शकों ने सुभाष घई की बाकी संघर्ष-कथाओं को भी देखा था। उनकी तब की किस फ़िल्म ने द्रवित नहीं किया है। आज भी टेलीविज़न पर ‘राम लखन’, ‘विधाता’, ‘कर्मा’ और ‘परदेस’ समेत सभी फ़िल्मों की रिपीट वैल्यू उतनी ही है। इन्हें अगले पचास साल भी प्रसारित किया जाता रहे तो दर्शक मोहित होकर वैसे ही देखेंगे। जाहिर है इन फ़िल्मों के नायकों और उनकी लड़ाइयों से सहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन इसमें तो कोई संदेह नहीं कि ये देश की सत्य कथाओं का ही फ़िल्मी रूप रही हैं। सुभाष घई से मेरी इस मुलाकात में उन्होंने कहा भी कि उनकी कहानियां अख़बार, मैग़जीन, दूसरी पठन सामग्री और फर्श से अर्श तक पहुंचे लोगों से मिलने और जानने से आई हैं। और फिर ज्यादातर दर्शकों ने जिंदगी के इन बहावों का अपने थपेड़ों से मिलान किया है। जब-जब ये मिलान हो जाता है, फ़िल्में मास्टरपीस हो जाती हैं।

सुभाष घई की बाकी कुछ फ़िल्मों की भी ऐसी ही अमिट यादें हैं। उनकी भी कहानियां यूं ही याद हैं। किसी भी पल आप झुक जाएं, रो रहे हों, निराश हों और पस्त हों तो उनकी शुरू की दस-बारह फ़िल्मों में किसी की भी डीवीडी लगा लें, आप हौंसले के साथ उठ खड़े होंगे। हां, उन फ़िल्मों के अंत कोई सृजनात्मक सुझाव नहीं देंगे, लेकिन काम की चीज़ उन फ़िल्मों की कहानियों के बीच ही मिलेगी। ‘यादें’, ‘किसना’ और ‘युवराज’ में उनका निर्देशन वो जादू नहीं जगा पाया। हालांकि ‘यादें’ अब टेलीविज़न पर देखें तो बुरी नहीं लगती। उसमें धड़कता दिल नजर में आता है। हां, कोका कोला और दूसरे उत्पादों का अंदरूनी विज्ञापन दिल दुखाता है लेकिन ध्यान कहानी पर रखें तो ठीक लगता है। ‘किसना’ और ‘युवराज’ भी ऐसी ही कोशिश थे, बस कुछ सही नहीं हो पाया। सुभाष ने बीच में ‘इक़बाल’ जैसी फिल्मों का निर्माण भी किया जिसका निर्देशन नागेश कुकुनूर ने किया और जो काफी सराही गई।

Subhash Ghai. Photo Courtesy: Mukta Arts
तो शोमैन अब कोई चार बरस बाद फिर बतौर निर्देशक लौट रहे हैं। उनकी इस फ़िल्म का नाम ‘कांची’ है। रिलीज के वक्त नाम बदला जा सकता है। इसमें उन्होंने नई अभिनेत्री का चुनाव किया है। मिष्ठी कोलकाता से। देश के कई हिस्सों में ऑडिशन के बाद उन्होंने अपनी नई तारिका का चुनाव किया है। ये तरीका भी उनकी पिछली कुछ फ़िल्मों की तर्ज पर है। जैसे ‘परदेस’ में गंगा के रोल के लिए महिमा चौधरी जैसे नए चेहरे का चुनाव किया गया था और जो सफल रहा था। दो मैं से एक हीरो के रोल में कार्तिक को चुना गया है जो इससे पहले ‘प्यार का पंचनामा’ और ‘आकाशवाणी’ में काम कर चुके हैं। खल चरित्रों में ऋषि कपूर और मिथुन चक्रवर्ती हैं।

सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू करने से पहले सुभाष के बारे में कुछ जान लेते हैं। वह नागपुर में जन्मे। पंजाबी पृष्ठभूमि से हैं। पिता डेंटिस्ट थे, दिल्ली में प्रैक्टिस करते थे इसलिए हाई स्कूलिंग दिल्ली से की। फिर रोहतक, हरियाणा से कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया। उसके बाद फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से फ़िल्ममेकिंग की पढ़ाई की। शुरू में कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया। 1970 में आई ‘उमंग’ में वह मुख्य भूमिका में भी थे। नहीं चले तो 1976 में ‘कालीचरण’ से बतौर निर्देशक शुरुआत की। ये फ़िल्म उन्हें शत्रुघ्न सिन्हा के सौजन्य से मिली जो उसी साल सुभाष घई की लिखी ‘ख़ान दोस्त’ में नजर आ चुके थे। ‘कालीचरण’ बहुत सफल रही। यहां से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने दिलीप कुमार को विधाता (1982), कर्मा (1986) और सौदागर (1991) में डायरेक्ट किया। जैकी श्रॉफ और अनिल कपूर को हीरो (1983) और मेरी जंग (1985) के जरिए मजबूत करियर दिया। अनिल, जैकी और सुभाष ने ‘कर्मा’, ‘राम लखन’ और ‘त्रिमूर्ति’ में भी साथ काम किया। 1997 में उन्होंने ‘परदेस’ और 1999 में ‘ताल’ का निर्देशन किया। दोनों बेहद पसंद की गईं। बतौर प्रोड्यूसर भी सुभाष घई ने ‘जॉगर्स पार्क’, ‘एतराज’, ‘इक़बाल’, ‘36 चाइना टाउन’, ‘शादी से पहले’, ‘अपना सपना मनी मनी’ और ‘गुड बॉय बैड बॉय’ जैसी फ़िल्में बनाईं। अब ‘कांची’ बन रही है। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीतः

प्रश्न. आपको क्या लगता है अभिनेता फ़िल्मों को बनाते हैं, या फ़िल्में अभिनेताओं को बनाती हैं?
सुभाष घईः जब हम फ़िल्में बनाते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल ही यही होता है, फ़िल्में चलती हैं या स्टार चलते हैं? जवाब में यही माना गया है कि फ़िल्में चलती हैं, तब स्टार चलते हैं। तो फ़िल्मों में क्या चलता है? फ़िल्मों में चलती है कहानी, स्क्रिप्ट, क़िरदार। स्क्रिप्ट का रोल सबसे अहम होता है। जब एक्टर उस क़िरदार को निभाता है तो उसकी वजह से वह स्टार बनता है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में जब शाहरुख खान ऐसे क़िरदार में होते हैं जो लड़की को कहता है कि “जब तक तुम्हारे पिता जी मुझे मंजूरी नहीं देंगे, मैं शादी नहीं करूंगा”, है न! उससे वो स्टार बन गए। ‘परदेस’ से वो स्टार बन गए। वही एक्टर पहले इतनी फ़िल्मों में संघर्ष कर रहा था। यानी हर एक्टर का पूरा दारोमदार कैरेक्टर पर होता है। जैसे डायरेक्टर का पूरा दारोमदार स्क्रिप्ट पर होता है तो एक्टर का क़िरदार पर होता है।

अब जब हम एक विषय लिखते हैं या स्क्रिप्ट लिखते हैं तो पहले ये सोचते हैं कि ये जो रोल है, ये स्टार को करना चाहिए या न्यूकमर को करना चाहिए। स्टार करेगा तो कौन से स्टार को करना चाहिए। जैसे, एक शर्मीली लड़की का क़िरदार है तो क्या उसे काजोल को करना चाहिए या करीना को करना चाहिए। हरेक की अपनी-अपनी पर्सनैलिटी है। कौन सी पर्सनैलिटी सूट करेगी, उसके हिसाब से हम चेहरा ढूंढ़ते या कास्ट करते हैं। क्योंकि गलत कास्टिंग से फ़िल्में फ्लॉप हो जाती हैं। आप कितना भी बड़ा स्टार लीजिए... जैसे अभी देखिए, मैंने एक गलत स्क्रिप्ट अपने स्टार के लिए ली, उसका नाम है ‘युवराज’। उसी पर बात करते हैं। कभी-कभी जिंदगी में हो जाता है। मैंने सलमान के साथ वो फ़िल्म बनाई जिसके पीछे स्क्रिप्ट नहीं है, क्लासिकल म्यूजिक है, जिसमें इंटरनेशनल नोट्स हैं, ए आर रहमान का म्यूजिक है। जब मेरे दोस्त बोनी कपूर ने ‘वॉन्टेड’ बनाई, एक्शन बनाई तो वहां से ये आदमी स्टार से सुपरस्टार बन गया। इसका मतलब मेरी कास्टिंग कहीं न कहीं गलत हो गई। उसके लिए सबजेक्ट एक्शन ही बनाना चाहिए था या उसी तरह का सबजेक्ट बनाना चाहिए था। मिसमैच हो गया। मैंने अपनी जिंदगी में हमेशा कोशिश की है कि स्क्रिप्ट स्टार रहे, चाहे वो ‘कालीचरण’ फ़िल्म थी, ‘खलनायक’ थी या कोई भी दूसरी फ़िल्म थी।

छोटी सी मिसाल दूंगा मैं आपको ‘परदेस’ की। जब मैं ‘परदेस’ बना रहा था तो पिछली रही थी ‘खलनायक’, और सब चीज़ें आसान थीं। जब मैंने कहानी लिखी तो उसके बाद अपनी प्रोडक्शन टीम को बुलाया। सबसे पहले मैंने शाहरुख को बुलाया। ‘दिलवाले दुल्हनिया...’ चल गई थी। मेरी एक फ़िल्म ‘त्रिमूर्ति’ में वह काम कर चुका था जो फ्लॉप रही थी। मैंने उसे बुलाया और कहा कि, देखो शाहरुख ये मेरे पास एक कहानी है। इसमें एक लड़की है और तुम उसका मैच कराने जाते हो और ऐसा कराते-कराते ही तुम दोनों को प्यार हो जाता है। वह कहने लगा कि “मैं करना चाहता हूं सर आपके साथ”। अब वो तो तय हो गया लेकिन जो लड़की है, गंगा, वो कहां से लें? फ़िल्म का नाम तब दरअसल ‘गंगा’ था, ‘परदेस’ नहीं था। जैसे अभी ‘कांची’ है। तो मैंने कहा कि ये लड़की नई होनी चाहिए। मेरे बंदे ने कहा कि सर आपको पता है न, माधुरी को ये सब्जेक्ट सुनाया हुआ है, और माधुरी को पता लग गया है कि आप ‘गंगा’ बना रहे हैं। खैर, उसके बाद माधुरी ने मुझे फोन किया कि “सुभाष जी, मैंने सुना है आप ‘गंगा’ बना रहे हैं”। मैं उसका मतलब समझ गया कि उसने क्यों फोन किया है। मैंने कहा, माधुरी तुम बहुत बड़ी स्टार हो। पहले ‘राम-लखन’ की, तब लोकप्रिय हुई और फिर ‘खलनायक’ के बाद तो उसमें बहुत इजाफा हुआ। तो माधुरी, ऐसा है, मैंने सोचा है कि इस रोल को नई लड़की करे तो बेहतर है। तुम्हे ये नहीं करना चाहिए। वो बोली, “क्यों, मैं एक्ट्रेस नहीं हूं?” मैंने कहा, एक्टर तो बहुत अच्छी हो तुम, लेकिन इस फ़िल्म में स्टार पावर नहीं चाहिए क्योंकि जब भी कोई स्टार गंगा का रोल करेगी तो वो बन के करेगी। आर्टिफिशियल लगेगी। बच्चों से खेल रही है, बड़ी हो रही है, अमरीश पुरी आ गया है, सबसे बातें कर रही है ... जो नया इंसान इन दृश्यों को करेगा वो कैरेक्टर लगने लगेगा। तो वो उदास भी हो गई बेचारी। मैंने कहा कि तुम्हें जब पिक्चर दिखाऊंगा तब तुम समझोगी। फिर मैंने नई लड़की ली।

उसके बाद जो दूसरे लड़के (अपूर्व अग्निहोत्री) का रोल था, उसमें भी यही हुआ। दूसरे एक्टर कहने लगे कि “सलमान को ले लीजिए क्योंकि शाहरुख और सलमान की जोड़ी अच्छी होगी। माधुरी, सलमान, शाहरुख तीनों को ले लोगे तो पैसा भी मिल जाएगा और लोग भी आ जाएंगे। फ्राइडे भी बुक हो जाएगा। मंडे ड्रॉप हो जाएगा तो कोई नहीं, चलेगा”। मैं बोला, मैं फ़िल्में मंडे ड्रॉप के लिए नहीं बनाता हूं। मेरी फ़िल्म जो है वो मंडे के लिए भी होनी चाहिए। मेरी फ़िल्म को लोग बार-बार देखने चाहिए। आई कैन नॉट मेक फ़िल्म फॉर वन वॉच। मैं हमेशा ऐसी फ़िल्म बनाता हूं जिसे दोबारा, दोबारा, दोबारा देखा जा सके और हर बार आप उसमें कुछ नया खोज लें। मैं प्रपोजल नहीं बनाता हूं, फ़िल्म बनाता हूं। लेकिन मेरे डिस्ट्रीब्यूटर और कलाकार लोगों ने भी जिद कर ली, कि “साहब प्राइस में बहुत फर्क है। वो इतने में बिकने जा रही है और ये इतने में बिकेगी। वो सौ में बिकने जा रही है और ये चालीस में बिकेगी”। मैंने कहा चालीस में ही बना दो और मैंने ‘परदेस’ बना डाली। मैंने ‘हीरो’ बना डाली। मैंने बहुत सी फ़िल्में ऐसे ही बनाईं। ‘कालीचरण’ में रीना से लेकर, फिर टीना से लेकर माधुरी, मनीषा, महिमा चलते रहे। आज जो फ़िल्में बन रही हैं वो बहुत कॉस्मैटिक्स से बन रही हैं, लेकिन सोलफुल नहीं हैं, उनमें दिल नहीं है। लड़कियों के कैरेक्टर में एक आत्मा होनी चाहिए। ये गलत ख्याल है कि फ़िल्मों में जो हमारी हीरोइन्स हैं वो ही हमारा समाज हैं। हमारे समाज की औरतें तो ऐसी नहीं हैं। मेरी अगली फ़िल्म ‘कांची’ में कांची का क़िरदार असल के करीब है। ये सोलफुल फ़िल्म है और ऐसी बनेगी कि लोग बार-बार देखेंगे, सौ बार भी देखेंगे तो बोर नहीं होंगे।

प्रश्न. ‘कांची’ के लिए ऑडिशन करने आप देश के कुछ हिस्सों में गए थे...
घईः देखिए कितनी बड़ी विडंबना है ईश्वर की। मेरे ऑफिस में बेचारे हजारों लड़के-लड़कियां आते हैं, जो कहते हैं कि एक छोटा रोल दे दो जी, एक साइड रोल दे दो। और मैं उन सबको छोड़कर खुद कांची ढूंढने निकला।

प्रश्न. कहानी क्या है? कांची कैसा क़िरदार है?
घईः कांची एक जम्मू और कश्मीर, पंजाब, हिमाचल या उत्तर भारत की रहने वाली कोई पहाड़ी लड़की है जिसने जवान होने के बाद पहली बार संसार देखा है। जैसे 15 से 19 साल का होने के बाद पहली बार किसी को होश आता है। जन्म के बाद से ही वो समझती है कि यही सबसे खूबसूरत दुनिया है। उस लड़की के लिए सब कुछ उसका परिवार है, दोस्त हैं, समुदाय है और गांव है। उसको कुछ पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है। एक दुनिया शहरों की भी है, वहां के लोगों की भी है। वह अपनी दुनिया में बहुत खुश है। वह बहुत ही खुश लड़की है। बस खुशी है और कुछ नहीं है। उसकी जिंदगी में ट्रैजिडी होती है। अब वो ट्रैजिडी ऐसे बड़े तूफान से आती है कि विश्वास करना मुश्किल हो जाता है। उन हालातों से वह लड़ती है, इस दौरान उसे वो सब बातें याद आती हैं जो उसने गलत समझकर इग्नोर की थी। तब वो आक्रामक थी, कुछ भी बोलती थी, कुछ भी करती थी। उसका अपना राज था। लेकिन जब उसने देखा कि मेरे इस खूबसूरत गांव को, खूबसूरत लोगों को, खूबसूरत साथियों को खत्म कर दिया गया है... तो अब उसके अंदर एक नई औरत जाग जाती है और वो औरत मशाल लेकर आगे चलती है और बड़ी से बड़ी देश की जो ताकत है उसके मुकाबले में खड़ी होती है। इनके सामने वह अदनी सी बनकर खड़ी होती है।

प्रश्न. फ़िल्म में और कौन से क़िरदार हैं?
घईः कांची है, उसकी जिंदगी में आने वाले दो लड़के हैं। एक पहले और दूसरा बाद में आता है। दो विलेन हैं। भयंकर वाले हैं। एक हैं ऋषि कपूर जो बहुत रईस आदमी का रोल कर रहे हैं और एक हैं मिथुन चक्रवर्ती जो बहुत ही ताकतवर आदमी बने हैं, डॉन बने हैं। अब इनके सामने एक छोटी सी लड़की खड़ी है। जब फ़िल्म आएगी, कांची का क़िरदार निभाने वाली लड़की बहुत बड़ी सुपरस्टार होगी। क्योंकि जैसे मैंने कहा, कैरेक्टर स्टार बनाता है। जैसे, ‘इक़बाल’ फ़िल्म हमने बनाई तो उसमें कोई अकल नहीं कोई शकल नहीं कुछ भी नहीं, बेचारा मराठी थिएटर का एक लड़का था श्रेयस। हमने उसको कास्ट किया। वो कितना बड़ा एक्टर बन गया ‘इक़बाल’ के बाद। कैरेक्टर से बना है न, यूं ही थोड़े बना है। मुझे मेरी इस स्क्रिप्ट पर गर्व है। स्क्रिप्ट मैंने और आकाश खुराना ने मिलकर लिखी है।

प्रश्न. जितनी नई तरह की स्क्रिप्ट और फ़िल्में इन दिनों आ रही हैं, उन्हें आप किसी तरह देखते हैं?
घईः अब खाने की ही बात करें तो बीस साल पहले तक बस राजमा-चावल की ही बात होती थी, अब देखिए थाई आ गया, वाई आ गया, ये भी आ गया, वो भी... वैरायटी का धीरे-धीरे विभाजन होता चला गया। इसी तरह सिनेमा का भी है। एक रियलिस्टिक सिनेमा है, एक अलग सिनेमा है, एक कमर्शियल सिनेमा है, एक लार्जर दैन लाइफ सिनेमा है, लेकिन पहले हमारे पास 300 थियेटर होते थे आज हमारे पास 5000-6000 स्क्रीन्स हैं। ये सिर्फ दस साल में बढ़ी हैं। अब इतनी स्क्रीन्स में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ हो, ‘थ्री इडियट्स’ हो, ‘जब तक है जान’ हो या ‘सन ऑफ सरदार’ हो, सबका स्थान है। आप हर तरीके की, आकृति की फ़िल्में बना सकते हैं। जो जैसा है वैसा है। अगर पंडित रविशंकर हैं तो बिस्मिल्लाह खान भी हैं, जाकिर हुसैन भी हैं। ये सब संगीतज्ञ हैं और सबके अपने-अपने राग हैं, तो इनके तरीके इनके ही माने जाएंगे। अब सुभाष घई की फ़िल्म है तो सुभाष घई की ही मानी जाएगी। यश जी की फ़िल्म उनके अंदाज की होती हैं। तो स्थान है सबके लिए। आप अच्छी फ़िल्म बनाओ। स्टार को लेकर दो दिन धोखाधड़ी होती है, लोग आ जाते हैं फिर उनको लगता है कि पिक्चर नहीं अच्छी है, लेकिन तब तक तो 100-200 करोड़ रुपये कमा लिए डिस्ट्रीब्यूटर ने और मंडे को कहते हैं कि सॉरी सॉरी सॉरी अच्छी नहीं लगी।

प्रश्न. आपने जब कांची के लिए नई लड़की की तलाश को लेकर ट्वीट किया था तो उसमें पोस्टर डाला था रेड ऐंट रिडंप्शन का, जो वीडियोगेम सीरीज है। उसकी काऊबॉय अंदाज वाली नायिका रेगिस्तान में खड़ी होती है वेस्टर्न ड्रेस में तो क्या उससे कोई लेना-देना है कांची का?
घईः देखिए क्या है, एक होता है ट्रेलर और एक होता है टीजर। तो हम लोग टीज करते रहते हैं, कि वो ऐसी तो नहीं? ऐसी तो नहीं? ऐसी तो नहीं?... उसके पहले भी मैंने चार-पांच आकृतियां और दी थीं। अलग-अलग तरीके का मतलब है कि वो कुछ हटके है, नॉर्मल नहीं है। हम लोग टीजर भेजते रहते हैं। टीज करने का मतलब होता है, आधा आप बताइए, आधा हम बताएंगे।

प्रश्न. अभी जो आपने कहानी बताई, उसमें कांची की जो बदले वाली भावना है, वैसी ही वीडियोगेम की नायिका वाली लगती है। तो क्या ये टीजर होकर हकीकत में समानता तो नहीं है?
घईः दम है आपकी बात में। एक लड़का-लड़की जो मिलते हैं, बिछड़ते हैं और फिर मिल जाते हैं। एक लॉस्ट एंड फाउंड का बेस होता है, एक बदला होता है, अच्छा आदमी बुरा बन जाता है और बुरा आदमी अच्छा बन जाता है (A good man becomes a bad man, a bad man becomes a good man) ये होता है... ये दस तो कहानियां हैं हमारे पास और दस हजार फ़िल्में बन चुकी हैं। लेकिन किस तरह से बनती है फ़िल्म, उसके कैरेक्टर्स कितने अद्भुत तरीके से आते हैं, कितने इंट्रेस्टिंग लगते हैं, ये अंत में मायने रखता है। शेक्सपियर के हिसाब से भी 36 प्लॉट से ऊपर नहीं हैं हमारे पास ड्रामा में।

प्रश्न. मेरी बहुत जिज्ञासा है जानने की कि एक क्रिएटिव आदमी को कोई चीज़ जब खनकती है किसी क्षण में कि ये वो स्टोरी है, तो आपके लिए वो कौन सा वक्त था, वो कनविक्शन कैसे आया कि यही मुझे बनानी है? वो जो स्पेशल मूमेंट होता है, क्योंकि आपने बहुत कम फ़िल्में बनाई हैं लेकिन ज्यादातर शाहकार हैं। तो वो जो पल आता है वो बहुत पावरफुल होता है, वो आपको कब महसूस हुआ?
घईः वो मूमेंट आपकी खबरों से आता है, मैगजीन्स की कहानी से आता है, एक फोटोग्राफ देख ली, एक चीज़ सुन ली, कहीं ख्याल आया, किसी ने कुछ सुना दिया..। जैसे ‘परदेस’ की कहानी थी, उसमें मैं जब अमेरिका गया तो कोई अमरीश पुरी जैसा कैरेक्टर था जो बिलियनेयर था। उसने मेरे से कहा पीने के बाद कि “सर, सुभाष जी, मैं यहां दस डॉलर लेकर आया था और लाखों डॉलर कमा लिए मैंने। पैसे तो कमा लिए, बच्चे गवां दिए। अमेरिकन हो गए हमारे बच्चे”। मैं जब लौटा तो ये बात दिमाग में घूम रही थी। ‘विधाता’ पिक्चर में किसी ने कहा कि “मैं बहुत गरीब आदमी था, अपने बच्चे को दूध पिलाने के पैसे नहीं मिले तो मैंने शराब बेचनी शुरू की, मैं लिकर किंग बन गया, करोड़पति बन गया मैं। बेटा बड़ा हो गया तो बोला कि मैं क्या लोगों से ये कहूं कि मैं आपका बेटा हूं, लिकर किंग का। आप तो क्रिमिनल हैं, चोर हैं”। तो उन्होंने बताया। मैंने ये ‘विधाता’ पिक्चर में दिखाया कि आप जिसके लिए करते हैं, वही बच्चा बड़ा होकर आपको सुनाता है। ये जो वेदनाएं हैं, अहसास हैं, अनुभूतियां हैं... जब ये अनुभूतियां आपको क्लिक करती हैं तब कहानी तय हो जाती है। तो इसी तरह ‘कांची’ में भी एक वेदना है। जो आम लोग हैं, गरीब लोग हैं, बहुत गरीब हैं, उनके अंदर बहुत गुस्सा है लेकिन वो रियलाइज करते हैं कि गुस्सा है तभी हमें दिखता है। अब गणपति उत्सव वाले खुश रहते हैं, फेस्टिवल वगैरह में, अच्छे से रहते हैं। उनको गरीबी से कोई शिकायत नहीं है। है उनका, जीवन है। लेकिन जिस वक़त चीज़ सामने आती है, तो बहुत बड़ी होकर। तो मुझे किसी की वेदना बहुत चुभ गई। ये आम लोगों की वेदना है। ऐसे क़िरदार बहुत हैं। आप कह लीजिए की आम आदमी की बात है। पार्टी भी बन गई अब तो।

प्रश्न. जैसे ‘परदेस’ में गंगा थी, जो गांव से आई थी, ‘ताल’ में ऐश्वर्या राय का क़िरदार था... तो वैसा ही है कांची का भी?
घईः बिल्कुल, ये भी गांव से शहर आती है।

प्रश्न. आपकी कोई नायिका शहर से गांव क्यों नहीं जाती?
घईः नहीं, गई होगी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। कौन सी फ़िल्म में गई थी... ‘खलनायक’ में शहर से गांव में ही जाती है न। ट्रैवलिंग होती है न, जर्नी होती है। स्टोरी खुद ट्रैवल करती है, वो अपना फ्लो लेती है।

प्रश्न. सुभाष घई ने अपने नाम को बनाए रखने के लिए क्या किया है?
घईः हर नाम या ब्रैंड का उद्देश्य यही होना चाहिए की वो अपनी गुणवत्ता बरकरार रखे। कि मेरी क्वालिटी पहले से बेहतर होनी चाहिए या कम से कम उतनी तो रहनी चाहिए। चाहे तो चाय के बारे में हो, कोका कोला के बारे में हो, न्यूजपेपर के बारे में हो। ब्रैंड का सबसे बड़ा डर यही होता है कि मुझे क्वालिटी में नीचे नहीं आना। मुझे कोई अफसोस नहीं है कि किसना या युवराज नहीं चली है, लेकिन क्वालिटी में तो कहीं फर्क नहीं आया है न। हमने ऐसी कसर नहीं छोड़ी कि कोई कह सके, यार ऐसा क्या कर दिया। कभी सब्जेक्ट वक्त से आगे का होता है, कभी सब्जेक्ट नहीं मैच करता है, ऐसा होता है लेकिन क्वालिटी की जिम्मेदारी रहती है और वो कांची में भी होगी।

प्रश्न. म्यूजिक कौन दे रहे हैं?
घईः इस्माइल दरबार हैं, सलीम-सुलेमान भी होंगे। इरशाद गाने लिख रहे हैं। मैं समझता हूं कि इस्माइल दरबार बहुत ही गुणी म्यूजिक कंपोजर हैं। अगर संगीत में क्वालिटी देनी है तो ये लोग लाएंगे।

प्रश्न. फ़िल्मों में पंजाब के रंग ज्यादा क्यों दिखते हैं?
घईः हमारी बॉलीवुड इंडस्ट्री में 75 फीसदी से ज्यादा लोग पंजाबी हैं। पंजाबी अपने कल्चर को लेकर आए। जितने कलर पंजाब में हैं वो सेलिब्रेशन के हैं। वो लोग हर चीज़ को सेलिब्रेट करते हैं और सिनेमा तो सेलिब्रेशन ही है। इसलिए।

प्रश्न. आपके प्रोडक्शन हाउस ने हीरोइन के रोल के लिए जो क्राइटेरिया दिया था उसमें लिखा था कि रंग गोरा होना चाहिए। तो धूसर क्यों नहीं हो सकती वो, जैसे आपने कहां गांव से आई है?
घईः वो फेयर है…

प्रश्न. नहीं, लेकिन धूसर या गेहुंए से तो फेयर बहुत आगे आ जाता है न?
घईः फेयर वो भी होता है, फेयर का मतलब होता है एक साफ स्किन। आमतौर पर जब पहाड़ी लड़की दिखाते हैं तो सिनेमैटिकली ऐसा ही गोरा रंग होना चाहिए। उसी संदर्भ में है और कोई कारण नहीं है।

प्रश्न. पालतू हैं घर पर?
घईः हां, एक डॉगी है, हैपी सिंह नाम है उसका।

प्रश्न. कपड़े कैसे पहनना पसंद करते हैं आप?
घईः दिन में वाइट पहनता हूं, रात को काला पहनता हूं।

प्रश्न. खाने में क्या पसंद है आपको?
घईः सबसे ज्यादा राजमा पसंद है, आलू के परांठे पसंद हैं और भिंडी है। बाकी स्टाइल मारने के लिए कुछ भी खा लेता हूं। थाई भी, चाइनीज भी। उसे बोलते हैं, चलो स्टाइल मारा जाए।

प्रश्न. सिर्फ खाने का ही शौक है कि बनाते भी हैं?
घईः नहीं, नहीं, बनाता नहीं हूं, बस बिल पे कर देता हूं।

प्रश्न. सोते कितने बजे हैं?
घईः 12-12.30 बजे सोता हूं और 5.30 पर उठता हूं।

प्रश्न. किताबें कौन सी पढ़ना पसंद हैं?
घईः मैं ओशो की किताबें ज्यादा पढ़ता हूं। जितनी भी व्यक्तित्व निखारने की किताबें हैं, फिलॉसफी की हैं, जो समाज के कन्वेंशन पर हैं, वो ज्यादा पढ़ता हूं। जेम्स हार्ले की किताबें पढ़ता हूं।

प्रश्न. सेलफोन कौन सा बरतते हैं?
घईः मेरा और मेरी बेटी का मुकाबला चलता रहता है कि लेटेस्ट टेक्नोलॉजी किसके पास आई है। मैं आईफोन-5 यूज करता हूं।

प्रश्न. आपकी सर्वकालिक पसंद फ़िल्में कौन सी हैं?
घईः ऑलटाइम फेवरेट मूवी मेरी ‘मदर इंडिया’ है सर। वो मैं भूल ही नहीं सकता कभी।

प्रश्न. आपको अपनी ही कोई फ़िल्म फिर से इस जमाने में, इस जमाने के युवाओं के लिए बनाने का मौका मिले तो कौन सी बनाएंगे?
घईः ‘हीरो’।

प्रश्न. दोस्त और परिवार कितने महत्वपूर्ण हैं आपके लिए?
घईः बहुत ज्यादा। दोस्त मेरे लिए ज्यादा जरूरी हैं, रिश्तेदारों से भी ज्यादा। मैं होस्टल बॉय रहा हूं, होस्टलों में पढ़ा-बढ़ा हूं तो दोस्त मेरे लिए बहुत प्यारे हैं। मेरी दुनिया ही मेरे दोस्तों में है।

प्रश्न. खाली वक्त में क्या करते हैं?
घईः संगीत सुनता हूं। सिम्फनी से लेकर फोक सॉन्ग तक सब सुनता हूं।

प्रश्न. विस्लिंग वुड्स के लिए जमीन को लेकर जो पूरा मसला चला है इससे आपने क्या सबक लिया है?
घईः मैं दो लाइन में बताऊंगा। मैं जिंदगी में बहुत बार फेल हुआ हूं। हर हार को अवसर मानकर मैंने खुद को मजबूत बनाया है। उसे फायदा बनाकर मैं आगे बढ़ा हूं। उसी को स्टेपिंग स्टोन बनाया है। जो जमीन हमारी हरियाणा से गई है, वो तो हुड्डा साहब हमारे इंस्टिट्यूट में आए थे, अच्छा लगा कि विकास के लिए ये करना चाहिए। तो उन्होंने कहा कि “भई आप तो यहां के हैं और यहां के लिए फ़िल्म बनाओ, इंस्टिट्यूट बनाओ”। मैंने कहा कि हां, मैं नॉर्थ इंडिया में करना चाहता हूं। पंजाब सरकार ने हमें कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया और हरियाणा सरकार दे रही है तो जरूर करेंगे। झझ्झर में हमको 20 एकड़ जमीन दी तो हमने जमीन खरीदी। लेकिन उन्होंने क्या किया कि बोला, पंचायत से दिला देंगे। जब वक्त लगने लगा तो उन्होंने कहा कि फेवर किया है। क्या होता है कि जब भी सेलेब्रिटीज का नाम आता है, सीएम का नाम आता है तो उसको पीआईएल में तुरंत लिस्टेड किया जाता है कि ये फेवर की गई है। अब मुझे फेवर चाहिए होता तो मैं बिल्डिंगें बनाता, कमर्शियल कॉम्पलैक्स बनाता, मुझे फ़िल्म स्कूल बनाने की, एक बेफायदे की चीज़ बनाने की क्या जरूरत थी। इसमें नुकसान मेरा नहीं हुआ, हरियाणा का हुआ, पंजाब का हुआ, वहां के बच्चों का हुआ है। ये नहीं होना चाहिए। मैं फिर भी प्रयास करूंगा, दोबारा से अप्रोच करने के लिए पंजाब और हरियाणा दोनों की सरकारों से, कि ये होना चाहिए। मजे की बात ये है कि वो भी चाहते हैं। जब ये जमीन चली गई तो उसका दुख हरियाणा के सीएम को और ऑफिसर्स को भी हुआ, क्योंकि वो चाहते थे। फायदा तो इससे सभी को होता न, ये पब्लिक इंट्रेस्ट में है, बच्चों के लिए है।

प्रश्न. काफी वक्त पहले अंजुम रजबअली से बात हुई थी, जो एफटीआईआई और आपके इंस्टिट्यूट दोनों में स्क्रिप्ट राइटिंग पढ़ाते हैं। उन्होंने बताया था कि आपके इंस्टिट्यूट से निकल रहे बहुत से बच्चे फ़िल्मों में अच्छा कर रहे हैं।
घईः हमारे विस्लिंग वुड्स के 90 परसेंट बच्चे मीडिया इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं और वेल प्लेस्ड हैं। 500 ग्रेजुएट्स निकले हैं हमारे यहां से। हमारे यहां 40 फीसदी विदेशी स्टूडेंट्स हैं। विश्व के शीर्ष-10 संस्थानों में ये आता है जबकि पूरी दुनिया में 1240 स्कूल हैं। ट्रैजेडी ये है कि लोग पीआईएल कर देते हैं और अब कुछ माहौल ऐसे चला है कि जहां लैंड है वहां करप्शन है, ऐसा तो नहीं होना चाहिए न। हर जमीन का सौदा तो भ्रष्टाचार नहीं है न, विकास के लिए भी तो हो सकता है न। ये सोच और दृष्टिकोण चाहे मीडिया में हो, समाज में हो, राजनीति में हो, हमें बदलना पड़ेगा। नहीं तो हम किसी को भी तरक्की नहीं करने देंगे। जो असली लोग हैं, ईमानदार लोग हैं, समाजवादी हैं, शिक्षाविद् हैं वो आगे ही नहीं आएंगे। सरकार इस तरह से तो हमको कभी मदद कर ही नहीं पाएगी। तो ये पूरा दृश्य चेंज होना बहुत जरूरी है।

Subhash Ghai came into films in 1970 as an actor. Later on he started writing and directing films. Now he is a very well known Indian film director, producer and screenwriter. His most notable films are Kalicharan (1976), Vishwanath (1978), Karz (1980), Vidhaata (1982), Hero (1983), Meri Jung (1985), Karma (1986), Ram Lakhan (1989), Saudagar (1991), Khalnayak (1993), Pardes (1997) and Taal (1999). Ghai is shooting his latest ‘Kaanchi’ these days. With this movie he’s once again launching a new girl (Mishthi from Kolkata) as the leading lady.
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रविवार, 16 जून 2013

गीतांजलि राव की ‘चाय’ : आधारभूत

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



गीतांजलि राव की ‘चाय’ चार ऐसे लोगों की कहानी है जो अलग-अलग परिवेश और पृष्ठभूमि से आते हैं। ये अलग-अलग जगहों पर चाय बनाते हैं। इनमें एक चितौड़गढ़, राजस्थान की 18 साल की युवती है। वह किसी शहर में चाय बनाती है। दूसरा कोल्हापुर मूल का लड़का है, 10 साल का, मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर चाय बनाता और पकड़ाता है। तीसरे एक 80 साल के बुजुर्ग हैं जो केरल के किसी बस स्टैंड पर चाय की दुकान लगाते हैं। चौथा एक 19 साल का कश्मीरी लड़का है जो बरिस्ता में चाय बनाता है। फ़िल्म भारत के उन लाखों-करोड़ों लोगों को समर्पित है जो अलग रंग, ढंग और स्वाद की चाय बनाते हैं, पिलाते हैं लेकिन पीने वाले को दिखती है तो बस चाय की गिलास या कप, वह चाय बनाने वाला या वाली नहीं दिखते। शायद यही परिपेक्ष्य गीतांजलि का रहा क्योंकि पूरी फ़िल्म के दौरान चारों किरदारों की शक्ल दिखाई नहीं देती। वे बस अपनी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं और अपनी कहानियां सुनाते हैं।

Gitanjali Rao
पांचों फ़िल्मों में ये सबसे आधारभूत है, जाहिर है चाय से आधारभूत देश में क्या होगा। इन्हीं कहानियों में समाज की सोच और बदलाव भी छिपे मिलते हैं। मूलतः गीतांजलि एक एनिमेटर हैं। इसके अलावा वह फ़िल्मकार और रंगकर्मी भी हैं। उन्होंने मुंबई के जेजे इंस्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड आर्ट से फाइन आट्र्स की पढ़ाई की। उनकी एनिमेटेड फ़िल्म ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2006 में फ्रांस के कान फ़िल्म महोत्सव के क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। वहीं इसे बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म के तीन पुरस्कार भी मिले। विश्व के 100 से ज्यादा फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आ चुकी ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2008 के ऑस्कर पुरस्कारों की आखिरी 10 फ़िल्मों में भी चुना गया।

इसके अलावा उन्होंने ‘ब्लू’, ‘ऑरेंज’ और ‘गिरगिट’ जैसी उम्दा एनिमेटेड शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। ‘कलाइडोस्कोप’ को देखना भी अनूठा अनुभव है। गीतांजलि ने अनेकों विज्ञापनों में अपनी जादुई रचनात्मकता दिखाई है। यहां पर वे पूरी की पूरी विज्ञापन फ़िल्में उपलब्ध हैं, एक-एक करके सभी देखें, आनंद आएगा। साथ ही, अनुराग कश्यप फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड की हर फ़िल्म से पहले लोगो का जो विजुअल नजर आता है जिसमें चांद पर चढ़ी बिल्ली की आकृति ‘ए’ अक्षर बन जाती है, वह भी गीतांजलि ने ही बनाया है।

(बातचीत के लिए गीतांजलि राव उपलब्ध नहीं हो पाईं)

Gitanjali Rao is an animator, film maker and theatre artist. She graduated with honors as a Bachelor of Fine Arts from Sir J. J. Institute of Applied Art, Mumbai, in 1994. She has made a couple of animated shorts like ‘Printed Rainbow’ (Short listed in the last ten films for the Oscars in 2008), ‘Orange’, ‘Blue’ and ‘Girgit’. Her string of popular and award winning commercials can be seen here. Her most recent work in ‘Chai’, a short film made for ‘India Is’ campaign.
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शनिवार, 15 जून 2013

वासन बाला की ‘गीक आउट’ : वो सोया नहीं, जागा है

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

    
वासन बाला से पिछले साल उनकी फीचर फ़िल्म ‘पैडलर्स’ के वक्त भी बात (यहां पढ़ें) हुई थी। वह बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आई। अब अगली फीचर के लेखन पर वह गंभीरता से जुटे हैं। उनकी शॉर्ट फ़िल्म ‘गीक आउट’ सबों में जटिल है। इसे सतह देखकर नहीं समझा जा सकता। दृश्यों में विविधता और विषय-वस्तु के लिहाज से पाचों शॉर्ट फ़िल्मों में इसका दायरा सबसे व्यापक है। दस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद आपके पास बात करने को इतना कुछ होता है कि तीन घंटे की फ़िल्मों को देखने के बाद भी नहीं होता।

फ़िल्म की कहानी पारंपरिक मायनों वाली नहीं है, ये पारस्परिक सभ्याचार वाले समाजों में ठिठके-दुबके सभी गीक्स के स्वप्निल निशाचरी मन की मृगतृष्णाओं और खोयेपन में जगी चौकन्नी छलांगों के बारे में है। जिन इंटरनेट उनींदों को महज वर्चुअल बावरा समझकर आज का समाज न देखने का सायास अभिनय कर रहा है, वो धीरे-धीरे कैसे दुनिया को हमेशा के लिए बदलते जा रहे हैं, अंदाजे से बाहर है। इस्तांबुल के गेजी पार्क वाले प्रदर्शनों को जो वैश्विक वर्चुअल समर्थन मिला है और वर्चुअल होते हुए भी आंदोलन को जो सचमुच की ऊष्णा मिली है वह उस बदलाव का ठोस सबूत है। उस बड़े वैश्विक बदलाव को लेकर नासमझी के इस वक्त को वासन ने ‘गीक आउट’ में समझा-समझाया है। कुछ वर्षों बाद ये फ़िल्म उस चेंज का दस्तावेज साबित होगी। अगर उक्त संदर्भ और ‘गीक आउट’, दोनों को पूरी तरह समझना है तो वासन से हुई ये बातचीत काफी मदद करेगी। गीक्स, ये वक्त, इसमें छिपी भौतिक बदलावों की परतें और आने वाली पीढ़ियों पर उन्होंने समझदारी वाली बातें की हैं। वासन, श्लोक, अनुभूति और नीरज महत्वपूर्ण सोच वाले युवा हैं और फ़िल्म बनाने की विधि जानते हैं। खुशी है कि विधि संभवतः सही हाथों में है। कुछ वर्षों में इनकी बनाई फ़िल्में अनूठा सिनेमा प्रस्तुत कर देंगी, मुझे लगता है। पढ़ें, वासन बाला से बातचीतः

गीक आउट को वैसे तो प्रोमो में आप स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन फिर भी अपनी परिभाषा में बताएं?
जैसे मैं ऑफिस में देखता हूं कि हम मर्दाना बात काफी कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ बात ही करते हैं। जैसे बचपन में हम लोग आपस में पूछते थे कि हनुमान और ब्रूस ली में लड़ाई हुई तो कौन जीतेगा। ये फ़िल्म उन चीजों का एक अलग और जटिल विस्तार है। लाइफ आपको एक दायरे में बांध रही है तो आप शायद उन यादों को और समकालीन तरीके से याद करना चाहते हो। जो तब हनुमान और ब्रूस ली था, अभी वो सुपरमैन, बैटमैन से लेकर वुल्वरीन तक बहुत कुछ हो गया है। इसने ट्विटर, फेसबुक और लिंक्डइन के रूप में नया आकार ले लिया है।

जैसे, मैं हेल्पलेस आदमी हूं लेकिन अगर मुझे किसी बात का गुस्सा है या मेरा कोई ओपिनियन है तो... पहले क्या होता था, कि बुजुर्ग 50-60 साल के बाद संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे, खासकर तमिलियन। जैसे मैं भी दक्षिण भारतीय हूं और हमारी फैमिली में भी कोई न कोई टाइम्स ऑफ इंडिया को लेटर लिखता था और इंतजार करता था कि वो छपेगा या नहीं छपेगा। और वो छपकर आता था तो बहुत खुश हो जाते थे और हम लोगों को पढ़कर सुनाते थे। दादा हुए या दादी या कोई रिश्तेदार, वे बोलते थे कि देखो आज टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ लो हमारा लेटर आया है, लेटर टू द एडिटर ...लेकिन आज एक ब्ल़ॉग से लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कोई भी मत हो आपका, आप तुरंत अभिव्यक्त कर सकते हो। उस पर कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई बैठकर आपका ओपिनियन एडिट नहीं करने वाला है। आपसे कोई नहीं कह रहा है कि कैसे लिखना चाहिए। ये जो एम्पावरमेंट है, ताकत है ये किसी सुपरहीरो से कम नहीं है, उस आदमी के लिए जो बंध चुका है अपने काम से, अपनी जियोग्राफी से या दूसरे हिसाब से। ये फ़िल्म उसी बिंदु को लेकर एक विस्तार है, बढ़ा-चढ़ा विस्तार।

Vasan Bala
जैसे, एक आदमी कंप्यूटर पर बैठा है और वो दस टैब खोले हुए है। एक में निठारी हत्याकांड के बारे में पढ़ रहा है, एक में आरूषि मर्डर केस के बारे में पढ़ रहा है, एक उसका फेसबुक पेज खुला है, एक उसका ट्विटर पेज खुला है और एक यूट्यूब पर कोई ट्रेलर देख रहा है। अगर उसके 10-15 टैब्स खुले हों और वह उन तमाम टैब्स के बीच आ-जा रहा है, तो क्या अनुभव रहा होगा उसका। ये फ़िल्म वही है। मतलब आप पहले थोड़े बुद्धिजीवी बनते हो, चलो आपने नक्सलियों के बारे में पढ़ लिया, आपको बुरा लग रहा है, आपको कुछ लिखना है, अरुंधति रॉय के आप साथ हो - विरोधी हो, आप सोच रहे हो, फिर आपको फेसबुक पर मैसेज आ जाता है, आपके फ्रेंड का ऐसी ही किसी फिलॉसफी के बारे में। या फेसबुक पर वो जो टिपिकल अपडेट होते हैं न, कि आई डोन्ट लाइक लायर्स... ठीक है वो अजीब है मजाकिया है लेकिन आप व्यक्त कर सकते हो, शायद वो नोट कर लिया और उसके बाद किसी लड़की का फोटो देख लिया फेसबुक पर तो उसका पीछा करने लगे, उसकी तस्वीरें देखने लगे। फिर बाहर आए और ट्विटर पर कुछ लिख दिया। उसके बाद यूट्यूब पर एक वीडियो देख लिया। तो फ़िल्म मूलतः वो है। फिर जब रिएलिटी में आप आते हो, तो वो जो रंग और एक सुपरहीरो क्वालिटी है, बढ़ाई-चढ़ाई, वो कम हो जाती है। वो सब चला जाता है और आप फिर से असल दुनिया में आ जाते हो। अब जो चेहरे दिखते हैं वो ही असल हैं, वो ही हालात असल हैं। ऐसे विचार दिखाने की कोशिश थी, पर एक्सपेरिमेंट ही है। लिखा भी था तब आइडिया था कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आएगा और गाली भी पड़ने वाली है।

गीक्स की जो परिभाषा है तो क्या ये वही हैं जिनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच है, जो महानगरों में रहते हैं? क्या उनके अलावा भी कोई गीक हो सकता है? कस्बाई या गांव का आदमी? या किसी और परिपेक्ष्य में...
जरूर। सुपररहीरो की जो परंपरा रही है वो ये कि सुपरहीरो अपनी पहचान छिपाकर रखता है और उसकी जो आम असहाय इंसान वाली पहचान है वो लोगों के सामने होती है। उसी प्रकार इंटरनेट आपके लिए बहुत ही बढ़िया लबादा है। ये बहुत बढ़िया परदा है जिसके पीछे आप छिप सकते हो और किसी पर भी वार कर सकते हो। उस हिसाब से इंटरनेट की पहुंच वाला कोई भी सुपरहीरो बन सकता है। जैसे, गांव में जिनके पास इसकी पहुंच नहीं होती, वो शायद इसीलिए चद्दरमार करते हैं। किसी को खेत में पकड़ लिया, चद्दर में लपेटा और मार दिया। नहीं, ये तो मजाकिया बात हो गई लेकिन गांव में भी आज एक जागरूकता तो है। जब-जब उसे प्लेटफॉर्म मिलेगा जहां वो अपनी राय दे पाए वहां-वहां वो मौका गीक बनने का सबको मिलेगा। जैसे पहले लेटर टु एडिटर हुआ करते थे या चिट्ठियां हुआ करती थीं, वैसे ही आजकल ये है कि आपको रुकना नहीं होगा कि कोई एडिटर छापे। इसमें आप छप भी जाते हैं और पूरी दुनिया भर में उसकी खबर हो जाती है।

जितने भी गीक हैं दुनिया के उनको ज्ञान बहुत है दुनिया का, सूचना की बौछार उन पर हो रही है, वो दीन-दुनिया के सारे इवेंट्स जानते हैं, उनका एक मत है लेकिन क्या इससे रियल लाइफ में वो कुछ फर्क डाल पाते हैं या कभी डाल पाएंगे?
दरअसल ये जो एम्पावरमेंट है, एक तरह से थोड़ा खोखला एम्पावरमेंट भी है। अल्पावधि में ये आपको सशक्त महसूस करवाएगा और आपको लगने लगेगा कि दुनिया तो अब बदल दोगे, लेकिन दीर्घावधि में ये सिर्फ शब्द ही रहेंगे। ये फिजिकल (भौतिक) नहीं है, वर्चुअल (छाया) है। लेकिन उसी कॉन्ट्रास्ट में अगर आप देखो तो एक आदमी के अलावा लाखों जुड़ गए तो शायद ईजिप्ट गिर जाए। जैसे विकीलीक्स हैं, वो अपने आप में एक क्रांति हैं। ये तो सच है कि अगर हमने ढंग से हमारी बातों को प्रस्तुत किया तो जैसे ईजिप्ट में है, जैसे क्यूबा में है, वैसे अगर वो लोगों को जोड़ पाए तो फर्क भी पड़ेगा। इसमें एम्पावरमेंट को बहुत कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) तरीके में हमें ढालना पड़ेगा। मतलब अभी तो हम बहुत ही इंडिविजुअलिस्टिक हैं, हम अपनी-अपनी निजी ग्लोरी में घुसे हैं कि यार मैंने बोल दिया है। जैसे, मैं शाहरुख को पसंद नहीं करता हूं तो मैं खुद ही उसके ट्विटर अकाउंट पर जाकर लिख दूंगा कि भाई मैं तुझे पसंद नहीं करता। तो इस खेल से जब हम ऊपर उठेंगे तो शायद सीरियस तरीके से ओपिनियन देने का मौका है हमारे पास, एकजुट होने का मौका है। गंभीर होंगे, साथ होंगे तो काफी कुछ हो सकता है। अभी जैसे फ्लैशमॉब या पीसमार्च होते हैं तो मेरे ख्याल से छोटे-मोटे लेवल पर हो ही रहा है, आगे भी होंगे। मतलब अभी तो लोग खेल रहे हैं, जब इस खेल से थक जाएंगे और उनका कंस्ट्रक्टिव यूज होगा तो पक्के तौर पर कुछ बदलाव होगा। मेरे ख्याल से हो भी रहा है।

जैसे दिल्ली की घटना हुई थी तो उस समय भी बहुत से ऑब्जर्वेशन थे कि जितने लोग जंतर-मंतर पर जा रहे थे उनमें ज्यादातर फेसबुक और ट्विटर से प्रेरित होकर जा रहे थे, बाकी लोग जेएनयू या दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं की स्टूडेंट पॉलिटिक्स से जुड़े थे।
...सही, सही... ये फ़िल्म में है भी। एक असहाय गुस्से को दिखाया है। जैसे हमें लगता है कि अगर हम वहां होते तो हम कुछ करते। ये उसी तरह का है। पहुंचना आसान हो गया है। सही चीजों के लिए आप पहुंचोगे तो मेरे ख्याल से वो सुनी जाएंगी।

जितना हम लोगों के पास, जो शहरों में बैठे हैं, इंटरनेट की उपलब्धता है या जो बड़े उदार विचार रखते हैं, वैसे ही जो तमाम ऐसी ताकतें हैं जो दकियानूसी हैं, या कहें तो औरतों के अधिकारों को दबाने वाली हैं या खुली सोच को दबाने वाली हैं, उनके भी फेसबुक पेज हैं, वो भी ट्विटर पर एक्टिव हैं, वो भी गीक हैं अपने मायनों में। तो फिजिकली ही नहीं, वर्चुअली भी वो हैं और अपनी जय... फलानी संस्था खोलकर बैठे हैं। तो इसे आप कैसे देखते हैं? उनका इस स्पेस पर होना क्या यहां भी एक पुरानी वाली ही लड़ाई नहीं खोल देता है? क्योंकि एक तरीके से हमें लगता है कि जितने भी गीक्स हैं वो सही हैं या उनके पास इतना नॉलेज है कि वो सही ही करना चाहते हैं बस कर नहीं पाते हैं।
ये एक्चुअली बहुत सही बात बोली जो इस फ़िल्म में भी है। इसमें अगर आप देखोगे तो लीड कैरेक्टर बॉक्सिंग रिंग में दो दूसरे लोगों से लड़ रहा है। वह कहता है, “मेरे जैसे दूसरे लोग भी हैं लेकिन वो मुझे तरह-तरह की चीजें कहते हैं पर मैं सहमत नहीं होता”। फिर उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। तो वह ट्विटर पर चलने वाले वॉर से जोड़ने के लिए था। आखिर में वह कहता है, “अनफॉलो, कि ये चीज मुझे रोकती है तो मुझे उसे अनफॉलो करना है”। फिर उन दोनों को लात मार देता है रिंग के बाहर। वो अपनी जगह है लेकिन आप सही कह रहे हो कि एम्पावरमेंट दोनों जगह है, दोनों को मिल रहा है। मतलब मैं न्यूट्रल और लिबरल होकर बहस कर सकता हूं तो एक एक्सट्रीम लेफ्ट विंग और एक एक्सट्रीम राइट विंग भी आर्ग्युमेंट दे सकता है। ये प्लेटफॉर्म एक अजीब सी समानता दे रहा है। जैसे कुएं में ये पानी पिएगा और ये पानी नहीं पिएगा... जिसके साथ 25 साल पहले ऐसा हुआ वो आज एक-बराबर बनकर रह सकता है, पॉजिटिव को प्रस्तुत कर सकता है। प्रोज और कॉन्स तो रहेंगे ही। जरूरी नहीं है कि इंटरनेट लिबरल्स के लिए ही है, वो तो सभी के लिए है। वही है कि कितना मजबूती से आप अपनी बातें रख सकते हैं। आम आर्ग्युमेंट में क्या होता है कि कोई इंसान डरा हुआ हो तो उसके सामने वाला उसे चिल्लाकर ही चुप करवा देगा, इंटरनेट पर वो तो नहीं हो सकता है कम से कम। आपको अपनी पूरी बात कहने की आजादी है, दूसरा कोई आपकी बात काट नहीं सकता। मेरे ख्याल से आर्ग्युमेंट रखने के लिए बहुत बढ़िया जगह है और इसके साथ हम इवॉल्व भी होंगे और बेहतर इवॉल्व होंगे। अभी तो मजा आ रहा है। अभी तो बहुत कुछ करने को मिल रहा है। वो होता था न कि बचपन में एक चम्मच शक्कर खा ले तो बच्चा कूदता रहता है पूरे घर में पूरे दिन। अभी तो मेरे ख्याल से उस तरह का एक माहौल है। जब ये माजरा थोड़ा स्पष्ट होगा तो मेरे ख्याल से ये दौर कुछ और ही होगा।

अगर इंटरनेट पूरी आजादी दे रहा है और हमें मजा आ रहा है और ये बहुत पॉजिटिव सब कुछ लग रहा है, तो क्या इसके साथ एक खामी ये नहीं आ गई है कि जो निजी जीवन में हमारे अपने हैं उनको हम कम वक्त दे रहे हैं?
आइसोलेशन तो मैं मानता हूं, होता है। जितना लाखों अनजान लोगों से हम जुड़ रहे हैं उतना पांच अपने लोगों से दूर जा रहे हैं। मानता हूं ऐसा हो रहा है। जैसे, पति-पत्नी भी बाहर डिनर पर जाते हैं तो दोनों अपने-अपने स्मार्टफोन खोलकर वर्चुअल लोगों से इंटरैक्ट कर रहे हैं और सामने उनकी दूरी बढ़ रही है। इसका भी एक दौर है क्योंकि ये आपको अपने अंदर सोख लेती है, इतना एम्पावर करती है कि क्या कहें। तो इवॉल्यूशन होगा, अभी जितना जोश है उतना एम्पावरमेंट हैं, जाहिर है आप ज्यादा घुस चुके हैं उस चीज में तो एक बिंदु के बाद आपको दोनों चीजों का अहसास होगा कि ये इतना सा ठीक है और इतना ठीक नहीं है। ये इंट्रेस्टिंग सा है पर पता चलेगा आगे आने वाले सालों में। एक जेनरेशन जैसे मेरी जेनरेशन है जो दूरदर्शन, ब्लैक एंड वाइट और मारुति 800 से आई है। जब वो वक्त आएगा तो हम काफी बूढ़े हो चुके होंगे। तब एक ऐसी जेनरेशन होगी जो सिर्फ इसी मैं पैदा हुई होगी। बढ़िया से बढ़िया इंटरनेट स्पीड में, ग्लोबलाइज्ड दुनिया में और मॉल में पैदा हुई होगी। वो इस चीज को कैसे यूज करती है देखना बहुत इंट्रेस्टिंग होगा। कैसी फैमिली वैल्यूज और अपना कैसा समाज वो बनाना चाहेंगे, देखना होगा। उनकी बातें, शायद बहुत रोचक होगी सुननी। हम तो बीच की पीढ़ी के हैं तो रियलाइज भी करते हैं और खुद को रोक भी लें कि चलो डिनर के दौरान फोन नहीं यूज करना है या ये नहीं करना है वो नहीं करना है। पर जो युवा एब्सोल्यूट फ्रीडम में पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से आने वाले तीस साल में महानगरों में तो कम से कम वर्ग भेद नहीं होगा क्योंकि तब का युवा कॉन्शियस होकर इन चीजों से गुजरा नहीं होगा कि यार मेरे पास तो दो रुपए की पेंसिल है और उसके पास इतनी महंगी पेंसिल है। इस तरह की छोटी-छोटी चीजों से हम गुजरे हैं, वो जो नहीं गुजरा होगा, वो कैसे रिएक्ट करेगा टेक्नोलॉजी को लेकर और उसकी एडवांसमेंट को लेकर, देखना ज्यादा रोचक होगा शायद।

फ़िल्म का पहला विचार आपको कब आया और अंतिम मसौदे तक पहुंचने में कितना वक्त लगा?
आइडिया मुझे अपने ट्विटर के दोस्तों से आया था। मैं ट्विटर पर एक्टिव नहीं रहता हूं बस फॉलो करता हूं, देखता रहता हूं। मेरे जो दोस्त हैं वो आपस में जैसे जज्बे के साथ लड़ते रहते हैं और किसी को कुछ भी बोल देते हैं। कभी-कभी ये माध्यम विस्तार, पहुंच और ताकत भी देता है। जैसे मैं कहूंगा कि “काम नहीं है” तो दोस्त पूछेगा कि “तू बोल क्या-क्या कर सकता है”, तो मैं कहूंगा कि “ये ये कर सकता हूं”। इसे वो ट्विटर पर डाल देगा कि “मेरा दोस्त है उसे काम चाहिए”, “मेरा दोस्त है उसे घर चाहिए”। ये एम्पावरमेंट है जिससे पहले आपकी पहुंच बहुत सीमित थी। दूसरी तरफ वो जो बचकानी हरकतें करते हैं। जैसे, कोई फ़िल्म रिलीज हुई और उस पर जो आर्ग्युमेंट चल रहा है वो न जाने किस लेवल पर चला जाता है। असल जिदंगी में मैं इन सबको जानता हूं। जैसे एक का ट्विटर हैंड है वो एक अलग व्यक्तित्व होगा और जो असली है वो एक अलग पर्सनैलिटी होगा और मैं दोनों को जानता हूं। उसकी ट्विटर पर दस-पंद्रह हजार की फॉलोइंग है और लोग डरते हैं उससे, वो आर्ग्यू जब करता है तो लोग चुप हो जाते हैं और सचमुच की जिदंगी में मैं उसे देखता हूं और जानता हूं कि कैसा है उसकी आवाज क्या है। तो वो जो कॉन्ट्रास्ट है, वो प्रेरणा थी इस फ़िल्म की। मतलब आदमी एक वर्चुअल स्पेस में हल्क बन सकता है और असली जिदंगी में जैसे हल्क बनने से पहले जो डरा हुआ डॉक्टर है वो हो सकता है, तो एक तरह से वो ही शुरुआत थी कहानी की।

लिखने में कितना वक्त लग गया?
उसमें कुछ व्यवस्थित नहीं था। मतलब कुछ भी लिख दिया था कि ऐसे-ऐसे-ऐसे होगा। मन में था कि देखते हैं विजुअल्स के साथ इसका बनता क्या है। हम लोग एक रैंडमनेस (भटकाव) के साथ कोशिश कर रहे थे फ़िल्म बुनने की। हम लोगों को आम स्टोरीटेलिंग की आदत है कि ‘ये ऐसे ऐसे है’, लेकिन हमारी जो वर्चुअल जिदंगी है वो मेरे ख्याल से ‘ये है ये है ये है’ नहीं है। तो वो रैंडमनेस जरूरी थी कि आप यहां से वहां कूद रहे हो अपने मन में। आप जब बैठकर दिन में सपने भी ले रहे होते हो तो अजीब से अजीब परिस्थितियों में होते हो। ऑस्कर भी कलेक्ट कर रहे होते हो, भाग भी रहे होते हो, कहीं मुड़ भी रहे होते हो, तो उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसा कुछ बांधा नहीं था मैंने स्टोरी के साथ, अलग-अलग सब्जेक्ट थे। ऐसा इंडिया के बारे में मैसेज भी है। जैसे, वो स्लो मोशन में एक दिशा में भाग रहा है जहां एक शहरी आदमी शायद ही जाता है। वहां बताया जाता है कि “जब आप शहर में मॉल बना रहे हो तब जंगल में युद्ध लड़ा जा रहा है, सिविल वॉर”। वहां लोगों के पास घर-बार नहीं हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया गया तो वो लड़ रहे हैं। ये उसका एक प्रस्तुतिकरण था, पर बहुत ग्लैमरस प्रस्तुतिकरण था।

एक सुपरहीरो क्लीशे के काम भी आता है कि एक सुपरहीरो जो होता है उसे एक्सट्रीम पेन से गुजरना पड़ता है, इससे पहले कि वो तय करे कि सुपरहीरो बनेगा। ये उसी का संदर्भ था। जैसे, वो नक्सली अपनी गर्लफ्रेंड के साथ भाग रहा है और जंगल में वो इंडियन आर्मी के हाथों मारी जाती है, तब वो लड़ाई करता है तो सोचता है कि अब मैं शहर जाकर लड़ूंगा। अकसर आपने देखा हो तो सुपरहीरो कहीं का भी रहने वाला हो शहर में आकर ही अपनी जंग लड़ता है। यानी आप कहीं पर भी अपनी जंग जारी रख सकते हो। वो चाहता तो जंगल में भी लड़ाई चालू रख सकता था, पर आता तो शहर में ही है और बिल्डिंग की छत पर खड़ा होता है। ये जो अलग-अलग छवियां हैं इन्हें लिया गया है।

जैसे वो ट्रेन वाला सीक्वेंस है जहां पर वो लड़की उसे आकर थैंक यू कहती है और वो शरमा जाता है और उसके बाद एक घटनाओं की श्रंखला होती है। ये बेसिकली हमारे जो इंस्टाग्रैम अपडेट्स हैं, हमारे जो अच्छे वाले फेसबुक अपडेट्स हैं कि यार आज में इस पार्टी में गया, वो जो होता है न कि सामने कैमरा रखकर आप खुद की फोटो खींच लेते हो और अलगअलग पोज देते हो। मतलब आप भले ही मोटे हो लेकिन सिर्फ अपना पेट खींचते हो कि पूरी बॉडी न दिखे। मतलब वो कैजुअली मैनिप्युलेटेड अच्छी वाली तस्वीरें जो होती हैं, ये वो वाला हिस्सा है। और इंटरनेट पर जैसे आप देखोगे कि कोई बिल्ली का वीडियो डाल देगा तो छह लाख लोग उसे देख लेंगे लेकिन एक सीरियस इश्यू के बारे में बात करोगे तो कोई नहीं देखता। ये उस तरह की चीजें हैं। जैसे वो बिल्ली लाकर दे रहा है और बुड्ढियों के साथ सीडी देख रहा है। मतलब वो जो बहुत ही कन्वेंशनल क्यूट चीजें लोग करते हैं इंटरनेट में खोते हुए।

फिर स्टोरी का प्रोग्रैशन ये है कि वो अब इन चीजों से पक चुका है। अब उसे सुपरहीरो विजिलांते वाली चीजें आ रही हैं, वो लोगों से लड़ रहा है, लोग उसे कुछ कह रहे हैं, उसे मान ही नहीं रहे। फिर वो फेसबुक में अपने दिन बिताने लगता है और लड़कियों को स्टॉक कर रहा है। बाथ टब से लेकर वो जो आगे वाले सीन हैं, उनका मतलब यही है कि फेसबुक पर वह लड़कियों की तस्वीरें स्टॉक कर रहा है और फिर हम देखते हैं कि वो लड़की उसके सामने बैठी है और वो उससे बात नहीं कर पाता, उसकी बातचीत सिर्फ इतनी ही है कि यूट्यूब पर कमेंट छोड़ देता है उसके लिए कि मुझे तुम पर यकीन है। लड़की ने शायद इंडिया अगेंस्ट करप्शन की तरफ से अर्णब गोस्वामी के शो पर हिस्सा लिया हो और वो देख रहा है यूट्यूब पर। उसे बस वही रास्ता दिखता है कि मैं यूट्यूब पर कमेंट छोड़ दूंगा जबकि सपनों में और वर्चुअल लाइफ में वो सुपरहीरो है और उस लड़की को बचाता है और सब दुनिया को बचा रहा है। यानी जब रिएलिटी की बात आती है तो यही भाव हैं, यही हमारे ख्वाब हैं और उतने में ही सिमट जाते हैं।

आखिर में जब वो लोग अपनी डेस्क ऊपर कर रहे होते हैं, वो क्या करते हैं?
हा हा, वो एकदम गीक वॉर होते हैं कि एक मैकेनिकल डेस्क है और देखते हैं सबसे पहले ऊपर कौन करेगा। फ़िल्म में तो बहुत सीरियस दिखाया है पर असल मैं ऐसे सीरियस होता नहीं है। जैसे, दो लोग कागज की गेंद बनाते हैं और कचरे के डिब्बे में फेंकने की कोशिश करते हैं कि किसकी पहले गई। ये वैसा ही है। ये छोटी-मोटी चीजें हैं इसमें आप अपनी खुशी दिखाते हो क्योंकि आगे आप सोशियली बहुत चैलेंज्ड हो। आप एक पार्टी की जान नहीं हो। आपके लिए लोग रुकते नहीं हैं, आप उनमें से हो जिसे पूछना पड़ता है “कहां जा रहा है कहां जा रहा है, मैं आऊं मैं आऊं”। आपके जाने या न जाने से लोगों को फर्क नहीं पड़ता। हम जैसे लोग आपस में मिलते हैं तो एक अजीब सा इंटरेक्शन होने लगता है। ये उस तरह की स्थिति थी जहां मुझे दिखा कि गूगल के दफ्तर में ऐसी बैंच है जो ऊपर-नीचे होती हैं, तो मैंने सोचा कि हां रोज ये लोग शायद करते होंगे तो यूज करता हूं। जब कैमरा सेट हो रहा था, लाइट सेट हो रही थी तो मैं ऐसे किसी और के साथ खेल रहा था।

किन-किन लोगों को कास्ट किया और क्यों किया?
विकी (कौशल) को मैं तीन-चार साल से जानता हूं। उससे समर्पित और कमाल लड़का मैंने देखा नहीं है। लुक और परफॉर्मेंस में और एक इंसान के तौर पर उसने मेरे सामने ही ग्रो किया है। उसके साथ तो मैं हमेशा ही काम करना चाहता था। मुझे पता था कि बिना एक भी डायलॉग के बहुत सटल एक्सप्रेशन में एक वही है जो कर पाएगा। जहां बेहद एक्शन की डिमांड है वो भी कर लेगा और जहां अभिनय की जरूरत है वो भी कर लेगा। नेहा (चौहान) को मैंने ‘एलएसडी’ (लव सेक्स और धोखा) में देखा था। फ़िल्म में उसके काम से काफी प्रभावित था मैं। उसकी लाइफ भी अजीब रही थी, वो दोस्त की शादी में नाच रही थी, वो वीडियो दिबाकर ने देखी और उसे चुना। मुझे उसका लुक काफी रोचक लगा था, पारंपरिक नहीं था। जैसे आप हीरोइन चुनते हो तो एकदम गोरी-चिट्टी और मर्यादाओं वाली, तो नेहा उन धारणाओं को तोड़ रही थी। जब भी वो एक कमरे में चलकर आती थी तो लड़के रिएक्ट करते थे। मुझे वो अच्छा लगा कि उसका एक अजीब तरह का अट्रैक्शन है, जो कि पारंपरिक तरीकों से आप नहीं लगते हो। नेहा अच्छी एक्ट्रेस है। काफी उत्साहित है। उसके अलावा जितने भी लोग हैं, सारे मेरे दोस्त ही हैं। जैसे, कोई ट्रेन में पीछे खड़ा है तो प्रॉडक्शन वाला है।

कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया?
कुछ-कुछ जगहों पर रेड एपिक (Red Epic) किया है जहां पर एक्शन है और जंगल के सीक्वेंस हैं। बाकी जगहों पर जहां परमिशन नहीं ले सकते थे जैसे ट्रेन हो गई वहां पर 5डी (Canon EOS 5D) यूज किया।

इस फ़िल्म में जैसे दो-तीन बिंदु हैं कि “जंगलों में युद्ध लड़े जा रहे हैं और शहरों में मॉल खड़े किए जा रहे हैं” या “दिल्ली की उस बस में मैं होता”, ऐसे बिंदु क्या अपनी बाकी फ़िल्मों में भी आप लाना चाहेंगे?
ये जिदंगी से ताल्लुक तो रखते ही हैं। आप अखबार उठाओ तो पढ़ सकते हो। मेरे ख्याल से किरदार कोई भी हो पुट तो किए ही जा सकते हैं, कितना वो रजिस्टर कर पाएंगे पता नहीं। अब जैसे इसमें मजाक के तौर पर डाल दिया है तो शायद ध्यान नहीं जा रहा लेकिन अब उस मूमेंट में कितना हो सकता है उतना ही किया जा सकता है। लेकिन बात ये है कि मैं अपने पॉइंट रखता जाऊं, बाकी लोग पहले हफ्ते में समझेंगे या दूसरे में या मिस कर देंगे। ठीक लगा तो शायद समझ जाएं।

फ़िल्में कौन सी देखीं हाल में?
ऐसी कोई मजेदार फ़िल्म देखी नहीं। एक ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ बहुत ही चर्चित फ़िल्म रही जो कान में थी और लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरे ख्याल से एक अजीब सा माहौल बन रहा है जहां लोग नहीं चाहते कि फ़िल्म में एक्सट्रीम हिंसा हो या खून-खराबा हो तो उसे वो बिल्कुल नकार रहे हैं। मेरे ख्याल से फिर से वो दौर आएगा जहां साफ फ़िल्में होंगी। इंटरनेशनली भी मैं देख रहा हूं कि माहौल रिएलिटी या हिंसा दिखाने का नहीं है। डार्क फ़िल्में लोग नकार रहे हैं।

ऐसा क्यों, क्योंकि निकोलस की पिछली फ़िल्म ‘ड्राइव’ में भी हिंसा को बहुत ही शांत-सुरम्य तरीके से दिखाया गया था और लोगों ने पसंद भी किया, ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ भी शायद वैसी ही है फिर ऐसा क्यों? टैरेंटीनो भी पोएटिक सा वॉयलेंस दिखाते हैं लेकिन उन्हें उनके फैन्स देवता मानते हैं। ये जो हिंसा को नकारने वाले दर्शक हैं, ये नई पीढ़ी के हैं या उस पीढ़ी के जो काफी वक्त से सिनेमा देख रही है?
दोनों। दोनों ही नकार रहे हैं। टैरेंटीनो को आप फिर भी इतना सीरियस नहीं पाएंगे। मतलब टैरेंटीनो की फ़िल्म में मुझे नहीं लगता कि मैं रिएलिटी ढूंढता हूं। मैं तो एंटरटेनमेंट ही ढूंढ रहा होता हूं। लेकिन निकोलस की फ़िल्में एक बहुत ही अलग जोन में जाती हैं और वो एक घुटन सा महसूस करवाती हैं। मैं तो ऐसे सिनेमा से जुड़ना चाहूंगा जो ज्यादा रियल है, ज्यादा रेजोनेंट है। भले ही वो बहुत ही डिबेटेड फ़िल्में हों क्योंकि अच्छी बात ये है कि वो समानांतर भाषाओं में हैं ताकि सब लोग देख सकें। वो एक ऐसी चीज होगी जो कुछ लोगों को बहुत ही बेकार लगेगी और कुछ लोगों को बहुत ही पसंद आएगी। आज के वक्त में एक बहुत ही कमाल माहौल है कि हर आदमी अपना अलग नजरिया रख रहा है न कि आयातित नजरिया। इस लिहाज से निकोलस जो करने की कोशिश कर रहे हैं वो काफी हिम्मत का काम है। उनका करियर फॉलो करने में मजा आएगा।

और किसी फ़िल्म से जुड़े हैं कि अपनी पटकथा पर ही काम कर रहे हैं?
अपनी कहानी ही लिख रहा हूं। वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ में राइटर था पर वो काम काफी पहले ही खत्म हो गया था।

Vasan Bala is a Mumbai based filmmaker. He has made a Short film called ‘Geek Out.' Last year, he made ‘Peddlers' which was received very well at various National - International film festivals. He has worked with Anurag Kashyap on 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots', 'Gulaal' and ‘Bombay Velvet’ (Script). He was an associate director to Michael Winterbottom on 'Trishna'. Now he’s writing his next movie.
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शुक्रवार, 14 जून 2013

श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’ : खेल जो करप्ट नहीं हुआ

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



श्लोक शर्मा का अब तक का काम आगे के लिए उम्मीदें जगाता है। उनकी शॉर्ट फिल्म ‘सुजाता’ को ही लें। एक ऐसी लड़की की कहानी जिसकी जिंदगी में बहुत छटपटाहट है। मजबूरी है कि रिश्तेदारों के यहां रहना पड़ता है। रिश्ते में लगता उसका एक भाई है। उसका बड़ा डर है। बचने के लिए वह पते बदलती है, पहचान बदलती है लेकिन कहीं से मदद नहीं मिलती। अंततः वह चीजें अपने हाथ में लेती है। 2011 में बनी ‘सुजाता’ में मुख्य भूमिका हुमा कुरैशी ने निभाई है। इसके अलावा श्लोक की दो शॉर्ट फिल्में दो साल पहले आ चुकी हैं। ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ और ‘ट्यूबलाइट का चांद’। देखकर सुख मिलता है। उनकी ‘हिडन क्रिकेट’ इस साल बनाई गई पांचों शॉर्ट फिल्मों में सबसे छोटी है, कोई साढ़े तीन मिनट की। हम बहुत बार ये पंक्ति दुहराते हैं कि भारत में क्रिकेट एक धर्म है, हिडन क्रिकेट एक नास्तिक के नथुनों में उड़कर आता वो लोबान का धुँआ है जो उसी ऊपरवाले के लिए सुलगाया गया है। ये क्रिकेट स्टेडियम में खेला जाने वाला नहीं है, पार्कों में खेला जाने वाला नहीं है और ये खेला जाने वाला है ही नहीं, ये गलियों, दुकानों, झरोखों, सड़कों, मुहानों और जमानों में बिना दिखे बहने वाला है।

 मुंबई में रह रहे श्लोक ने सबसे पहले 2004 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘द ब्लू अम्ब्रेला’ में बतौर प्रोडक्शन असिस्टेंट काम किया था। विशाल की ही फिल्म ‘ओमकारा’ और एड्स विषय पर बनी शॉर्ट फिल्म ‘ब्लड ब्रदर्स’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। इसके बाद उन्होंने अनुराग कश्यप के साथ ‘नो स्मोकिंग’, ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’, ‘देव डी’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में निर्देशन और निर्माण के अलग-अलग स्तरों पर काम किया। सिनेमा के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में इस साल बनाई गई ‘बॉम्बे टॉकीज’ में वह सहयोगी निर्देशक रहे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लेकर वह अपनी पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामखोर’ की शूटिंग पूरी कर चुके हैं। अभी पोस्ट-प्रोडक्शन किया जा रहा है। उनसे ‘हिडन क्रिकेट’ पर यह संक्षिप्त बातचीत हुई।

कहां जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े?
नई दिल्ली से हूं। परवरिश मध्य प्रदेश के बिलासपुर और मुंबई के सायन क्षेत्र में हुई। ज्यादातर बचपन और लड़कपन सायन में ही बीता और यहीं से अपनी पढ़ाई भी पूरी की।

Shlok Sharma
हिडन क्रिकेट नाम क्यों रखा?
क्योंकि यह क्रिकेट आपको आम क्रिकेट की तरह दिखता नहीं है। इसे खेलते वक्त एक मैदान, यूनिफॉर्म पहने खिलाड़ी, एक बल्ला और गेंद, इनमें से किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। हिडन क्रिकेट हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है जिसे हम लोग बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर जाते हैं।

कहानी जेहन से अस्तित्व में कैसे आई?
मेरे जेहन में 3 साल पहले ही आ गई थी लेकिन सही वक्त नहीं मिल पा रहा था। फिर ये प्रोजेक्ट आया तो गूगल और गुनीत मोंगा (निर्माता) के सौजन्य से यह विचार हकीकत में बदला।

गेंद बल्ला कहानी है... गाने के बोल पर अंतिम राय कैसे बनी और म्यूजिक कैसा चाहते थे?
इसके गीतकार वरुण ग्रोवर और संगीतकार विशाल खुराना अत्यंत प्रतिभाशाली हैं। फ़िल्म के म्यूजिक के संदर्भ में हमने सोच रखा था कि हिंदुस्तान का ध्यान फ़िल्म की ओर खींचना है। साथ ही उन लोगों का परिचय क्रिकेट के जुनून से करवाना है जिन्हें इस खेल में ज्यादा दिलचस्पी नहीं हैं। यहीं से शुरुआत हुई। आगे गाने के बोल और फ़िल्म के संगीत का पूरा श्रेय वरुण और विशाल को है।

शूटिंग कहां और किस कैमरा से की? क्रू कितना बड़ा था और कितने दिन लगे?
ज्यादातर शूटिंग पटियाला के आसपास की है। फिल्मांकन में कोई 3 दिन लगे। हमने रेड एपिक (Red Epic) पर शूट किया एक बहुत ही छोटे क्रू के साथ। जितने कम लोग, उतनी ज्यादा फुर्ती और उतनी ही कम गड़बड़ी।

शूटिंग के दौरान चुनौतियां क्या रहीं?
वही जो हर शूट पर होती हैं। गर्मी और भीड़। हमने सड़कों और बिल्डिंगों पर भाग-भाग कर शूट किया। मगर हमारी टीम ने इन सारी चुनौतियों को आधा कर दिया था। उनका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूं।

बाकी शॉर्ट फ़िल्मों में ‘हिडन क्रिकेट’ ही है जो सबसे छोटी 3 मिनट की है, ऐसा क्यों?
मुझे जो भी कहना था उसके लिए इतना वक्त काफी था। इससे लंबी होती तो खींची हुई महसूस होती।

छोटी फ़िल्म में भी बहुत प्रयास लगता है, उस प्रयास के लिए हिम्मत कैसे मिलती है?
किसी भी कलाकार को अपने आप को पेश करने के लिए हिम्मत नहीं, एक दृष्टी, एक जिद्द, एक जूनून और जूनून को प्रोत्साहित करने वाली टीम की जरूरत होती है। बाकी सब तो अपने आप हो जाता है।

इससे पहले क्या कर चुके हैं?
इससे पहले कुछ शॉर्ट फ़िल्में बनाईं। उनमें से कुछ ने अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में पुरस्कार भी जीते। अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स और वासेपुर’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। अब अपनी पहली फ़िल्म ‘हरामखोर’ के पोस्ट-प्रोडक्शन में व्यस्त हूं। साथ में अगली स्क्रिप्ट का लेखन भी चल रहा है।

आपको कैसे विषय लुभाते हैं?
मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प इंसान और उनकी मनोवृत्ति लगती है। इंसानों का स्वभाव अत्यंत अप्रत्याशित होता है। यह मुझे बहुत लुभाता है। मैं अपने बचपन से भी बहुत ज्यादा प्रभावित हूं और मुझे लगता है की इन दोनों का प्रभाव मेरी फ़िल्मों में झलकता है।

विश्व और भारत में सबसे पसंदीदा फ़िल्मकार कौन हैं? क्यों?
सच पूछिये तो मैंने ज्यादा फ़िल्में देखी नहीं हैं मगर इस इंडस्ट्री में आने के पहले मुझे विशाल जी (भरद्वाज) और गुलज़ार सर ने काफी प्रभावित किया है। खासकर विशाल जी की ‘मक़बूल’ और गुलज़ार साब की ‘माचिस’, ‘हु तू तू’ और ‘आंधी’ मुझे खासतौर पर याद हैं। इन सब में इंसानी प्रवृति का विस्तृत वर्णन और संवेदनशील प्रस्तुति, मुझे इतने साल बाद भी हूबहू याद है।

क्या फिलॉसफी पढ़ते हैं? किसकी ने संतुष्ट किया है?
फिलॉसफी तो नहीं पढ़ी मगर इतना मालूम है कि जिस दिन संतुष्ट हो गया, उस दिन रुक जाऊंगा और जिस दिन रुक गया, उस दिन मेरा कौतुहल और चाह खत्म हो जाएगी। और भला बिना चाह के कौन जीता है?

फ़िल्मकार मन में क्या सोच तांडव किया करती है?
वही अंर्तद्वंद जो किसी भी इंसान के मन में चलता है, बस उसे पेश करने के नज़रिए में फर्क होता है।

Shlok Sharma is an Indian filmmaker. He started working as a production assistant on Vishal Bhardwaj’s ‘The Blue Umbrella’ in 2004. He was an assistant director on ‘Omkara’ and ‘Blood Brothers’, both directed by Vishal. He has worked with Anuraag Kashyap on ‘No Smoking’, ‘Dev D’, ‘That Girl in Yellow Boots’, ‘Gangs of Wasseypur’ and ‘Bombay Talkies.’ In 2010 he made three short films ‘The Joy of Giving’, ‘Cut it’ and ‘Tubelight Ka Chaand’. Next year he made another short ‘Sujata.’ Now he has come up with ‘Hidden Cricket.’ He has finished shooting his first feature film ‘Haraamkhor’ with Nawazuddin Siddiqui. Post production of the film is on.
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गुरुवार, 13 जून 2013

अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’ : ये फैसला मेरा है

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

   

अनुभूति कश्यप की इस फिल्म का शीर्षक पहले ‘दढ़ियल’ था। अंततः यह ‘मोइ मरजाणी’ नाम के साथ प्रस्तुत हुई। सादगी और सीदे कथ्य से सजी ये कहानी है पटियाला की मोना चड्ढा की। वह एक इंटरनेट कैफे चलाती है। एक छोटा बेटा है। मोना जिंदगी की कुछ मामूली और कुछ भारी-भरकम परिस्थिति से गुजर रही है। इसी दौरान मुंबई से पटियाला, परेश उनसे मिलने आ पहुंचते हैं जिनसे दोस्ती इंटरनेट चैटिंग के जरिए हुई। भविष्य की इनकी आपसी संभावनाएं हैं। चूंकि मोना एक परिस्थिति से गुजर रही है और मिलने की हालत में नहीं है और न मिलने पर जिंदगी का बहुत महत्वपूर्ण मोड़ छूट जाएगा। तो असमंजस और निराशा है। खैर, यहां से कहानी एक सुहावनी दिशा चलती है। अनुभूति इस वक्त दो फ़िल्मों की पटकथा पर काम कर रही हैं, लिख रही हैं। फ़िल्मकारी उन्होंने राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के सानिध्य में सीखी है। वह ‘नो वन किल्ड जैसिका’, ‘देव डी’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘पीटर गया काम से’ जैसी फिल्मों का हिस्सा रही हैं। ‘मोइ मरजाणी’ को लेकर अनुभूति से बातचीत हुई।

मोइ मरजाणी नाम क्यों चुना फ़िल्म का?
मुझे एक पंजाबी शब्द चाहिए था इस लड़की के लिए जो उसके किरदार का वर्णन करे। तो मोइ मरजाणी शब्द उपयुक्त लगा क्योंकि इसमें शरारतीपन भी है और किसी को प्यार से बुलाया जाने वाला पुट भी। जैसे कोई दादी अपनी पोती को बुलाएगी, डांटेगी भी तो उसे मोइ मरजाणी बोलेगी। इसमें प्यार भी होता है और डांट भी होती है। जैसे, “मोइ मरजाणी तूने सब काम खराब कर दिया”।

Anubhuti Kashyap
इसका पहला विचार आपको कब आया और अंतिम ड्राफ्ट तक पहुंचने के दौरान कहानी किस दौर से गुजरी?
इस दौरान किरदारों को दिमाग में कैसे बड़ा करती रहीं? मुझे फ़िल्म बनाने के थोड़ा पहले आया इसका आइडिया। हमें संभवतः जनवरी में गूगल की तरफ से संदेश आया था कि आप अपने आइडिया फटाफट सोचें और बताएं, फिर डिसकस करके फ़िल्म बनानी है। तो जनवरी से मैं सोचने लगी कि क्या करूं। फिर मेरे दिमाग में ये कहानी आई। ये एक औरत से प्रेरित है जिनसे मैं मिली थी। मेरे दिमाग में तभी से ये इश्यू था। सोचना शुरू किया तो लगा कि ठीक है इसी पर पिक्चर बना लेते हैं। तुरंत बनानी ही थी तो ड्राफ्ट फटाफट तैयार हो गया। 10-15 दिन में। मैंने मार्च में लिखी और फिर पटियाला जाकर फटाफट शूट कर ली।

ये जो फ़िल्म का पूरा लम्बा तट है, ये जो डिसकशंस चल रहे हैं किरदारों की पृष्ठभूमि में... माने दर्शकों को 15-20 मिनट की फ़िल्म में जो दिख रहा है उसके पीछे एक 200-300 मिनट की फ़िल्म आपकी खुद की होती है जिसका सार इस छोटी सी फ़िल्म में होता है। तो वो सारे विचार क्या थे। जैसे, फ़िल्म की किरदार मोना का बेटा कहता है, “मम्मी आप दाढ़ी में ही अच्छे लगते हो” या आखिर में वो लोग डॉक्टर के पास जा रहे होते हैं। तो एक फ़िल्मकार के पास ये होता है न, कि क्या उसका किरदार कहानी के आखिर में करे। क्या दाढ़ी के साथ उसका होने वाला पति उसे स्वीकार करे या फिर समाज के हिसाब से समाज की चीजों को भी थोड़ा देखते हुए वह अपने आप को सही करे। उसका बेटा जो बिल्कुल मासूम है वो उसे उसी स्वरूप में स्वीकार कर रहा है लेकिन शायद उसका पति न कर पाए या शायद वह खुद भी न कर पाए। तो इस मनन में आप निष्कर्ष पर कैसे पहुंचीं? कि हां, उनका डॉक्टर के पास जाना बुरा नहीं है और जिनको भी ऐसी दिक्कत है उन्हें ऐसा करवाना चाहिए।
जब मैं लिख भी रही थी तो मेरे दिमाग में ऐसी कोई ब्रेव हिरोइन नहीं थी जो दुनिया से लड़कर खुद को उसी स्वरूप में स्वीकार कर ले और हमेशा जिंदगी भर ऐसे ही रहे। मैं सिंपल कैरेक्टर पसंद करती हूं। हम लोग बातें जितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन करेंगे वही। मैं भी शायद ऐसी परिस्थिति में होती तो ऐसा ही करती। मैं ऐसा कोई परमानेंट इलाज जरूर करवाती। मैं साधारण किरदार पसंद करती हूं और इसे मैंने ऐसे ही लिखा था। ऐसे लिखा कि अगर उसका पति उसको स्वीकार भी करता है तो पहली बात ये कि वह अपने आप से कम्फर्टेबल नहीं थी इसलिए वह डॉक्टर के पास गई। फिर वह अपने बॉयफ्रेंड से छिप भी रही थी क्योंकि जाहिर है वह अपने आप को ऐसे दिखाना नहीं चाहती थी। असुरक्षित थी इसको लेकर। वह एक नॉर्मल लड़की है जिसकी जिंदगी में असुरक्षाएं हैं। बाद में उसने शायद बहुत सोचकर और बहुत स्ट्रेस के साथ तय किया कि नहीं मैं झूठ पर ये रिश्ता शुरू नहीं कर सकती। उसके लिए ऐसा करना ही बहुत हिम्मत वाली चीज थी और बहुत बड़ा कदम था। ऐसा करने के बाद जब उनकी नॉर्मल बातें होती हैं और उसके बाद तय करते हैं कि डॉक्टर के पास जाएंगे। ये सब सोचने के लिए मैंने बस अपने आप को उस सिचुएशन में डाला। सोचा कि मैं कैसे रिएक्ट करती। मैं जानती हूं कि कहानी को बहुत ही ड्रमैटिक और विशाल बना सकती थी कि हीरोइन तय कर लेती, “मैं जिंदगी भर ऐसे ही रहूंगी और मैं शेव करती रहूंगी” लेकिन नहीं, मैं एक नेरेटिव और सिंपल कहानी लिखना चाहती थी, इसलिए हालातों को ऐसा रखा।

आप जब कुछ भी लिखती हैं तो आपको ड्राइव क्या करता है? दिमाग करता है कि दिल ड्राइव करता है?
दोनों। दोनों बहुत जरूरी हैं। दिल तो जरूर ड्राइव करता है लेकिन मुझे उसके उपरांत विश्लेषण भी करना होता है तो दिमाग भी थोड़ा लगाना पड़ता है।

मतलब अगर मैं ये कहूं कि दिमाग का इस्तेमाल कहानी बनने के बिल्कुल बेसिक स्तर पर अगर हम करने लगें तो बननी मुश्किल हो जाती है।
ठीक कहा, वहां तो आप बिल्कुल नहीं कर सकते। पहली पूरी कहानी दिल से निकलती है और फिर उसको सुधारने का काम दिमाग से किया जाता है।

आपको कौन से फ़िल्मकार सबसे ज्यादा पसंद हैं? ऐसे कौन से फ़िल्म और फ़िल्मकार हैं जिन्होंने इतना चौंकाया कि यार ये फ़िल्में और ये दुनिया भी होती है और आप एक्सप्लोर करती गईं।
बहुत बहुत बहुत सारे हैं। मुझे बहुत सारे फ़िल्ममेकर्स और बहुत सारी फ़िल्में पसंद हैं। वर्ल्ड सिनेमा में तो खैर बहुत सारे ही लोग हैं। हमारे देश में मैं दिबाकर बैनर्जी की बहुत बड़ी फैन हूं, विशाल भारद्वाज की बहुत बड़ी फैन हूं और अनुराग कश्यप मेरे भाई, उनकी फैन हूं। पुराने जमाने के फ़िल्ममेकर्स में गुरुदत्त हैं, ऋषिकेश मुखर्जी हैं। विदेशी फ़िल्मकारों में तो बहुत सारे नाम है। मैं फ़िल्में बता सकती हूं। मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में आती है ‘मैमरीज ऑफ मर्डर’ (2003, बॉन्ग जून-हो), ‘फाइट क्लब’ (1999, डेविंड फिंचर) और भी बहुत सारी। वेस्टर्न फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक भी पसंद आते हैं। कोएन ब्रदर्स मेरे पसंदीदा में से हैं। कुछ फ़िल्ममेकर्स हैं जिनकी सारी ही फ़िल्में मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं। उनमें कोएन ब्रदर्स हैं, क्लिंट ईस्टवुड हैं।

क्लिंट ईस्टवुड बाकी बताए नामों की तुलना में सिंपल फ़िल्में बनाते हैं, तो क्या उनकी प्रस्तुति की सादगी पसंद आती है आपको?
हां, मुझे उनकी फ़िल्मों की सादगी, जटिलता सब कुछ पसंद आती है। अपनी फ़िल्मों में भी मुझे ये दोनों ही चीजें बेहद पसंद हैं।

बाकी चार शॉर्ट फ़िल्में ले लें या आजकल की ज्यादातर फ़िल्में, उनमें म्यूजिक को बिल्कुल अलग सा प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। वहीं आपने बेहद साधारण सा संगीत अपनी फ़िल्म में रखा है और इस मोर्चे पर जरा भी महत्वाकांक्षी होने की कोशिश नहीं की है। इसकी क्या वजह थी?
जब शॉर्ट फ़िल्म बनाते हैं तो खर्च करने के लिए इतना बड़ा बजट नहीं होता। दूसरा हमने जो भी म्यूजिक यूज किया है वो फ़िल्म की सादगी को ध्यान में रखते हुए किया है। फ़िल्म के आखिर में एक छोटा सा पीस बनाया तो हमें कुछ कमाल नहीं चाहिए था। बस वैसा चाहिए था जैसा आज छोटे-छोटे कस्बों में बनाया जाता हैं। हमें नया और तरोताजा करने वाला नहीं चाहिए था बल्कि ऐसा चाहिए था जो उस कल्चर से आ रहा हो। जब मैं फ़िल्म शूट करने पटियाला गई तो वहां टैक्सी और गाड़ियों में जिस तरह का म्यूजिक चलता है, वहां पर हर घर में एक एल्बम या गाना बनाने वाला होता है, मैं उस तरह का म्यूजिक चाहती थी। ऐसा लगे कि पटियाला के ही किसी बंदे ने बनाया है। साधारण इसलिए क्योंकि अगर म्यूजिक मूल विषय को ढकने लगे तो व्यर्थ हो जाता है।

आप हैं नॉर्थ इंडिया के एक हिस्से कीं और रहती हैं मुंबई में, फिर फ़िल्म पंजाबी पृष्ठभूमि वाली क्यों बनाई?
वो दरअसल इसलिए क्योंकि दो साल पहले मेरी शादी हो चुकी है और मेरे हस्बैंड पंजाब से हैं। इसलिए मैं दोनों कल्चर (महाराष्ट्र और पंजाब) को जोड़ने की कोशिश कर रही थी।

पटियाला में आपका शेड्यूल कितने दिन का था? और क्रू कितना बड़ा था?
हमने तीन दिन में शूट की फ़िल्म। क्रू बहुत छोटा सा था। मेरे चार एक्टर थे, मैं थी, कैमरामैन था, कैमरामैन के दो असिस्टेंट थे और मेरे साथ एक एडी था। पांच चंडीगढ़ के लड़के थे जिन्होंने हमारा प्रोडक्शन का काम किया, कास्टिंग की, सबकुछ किया, हर चीज की मदद की, हमें भाग-भागकर खाना लाकर दिया।

कैमरा कौन सा बरता?
ऐरी एलिक्सर (Arri Elixir)।

एक्टर्स कहां से हैं? और उन्हें कैसे चुना?
मुख्य अदाकारा कनिका कालरा चंडीगढ़ से ताल्लुक रखती हैं पर बॉम्बे में रहती हैं अपने परिवार के साथ। उन्हें यहीं से कास्ट किया। उनकी सहेली जो बनी हैं जीना भाटिया और बच्चा द्विज हांडा, ये दोनों दिल्ली के हैं। द्विज का काम मैंने देखा हुआ है ‘चिल्लर पार्टी’ में तो उसे यूं लिया। इन दोनों को दिल्ली से बुला लिया। श्रेयस पंडित जो लीड मेल हैं वो पूना में रहते हैं, उन्हें वहां से बुलाया।

कनिका को आपने उनके किरदार को लेकर क्या ब्रीफ किया था?
दरअसल उन्हें कास्ट करने का सुझाव कुछ दोस्तों ने दिया था, कि ये एक एक्ट्रेस हैं जिन्होंने पहले काम किया है, फिलहाल व्यस्त नहीं हैं। दोस्तों ने कहा कि वो तुम्हारी कैरेक्टर जैसी प्रतीत होती हैं। रियल लाइफ में बहुत जिंदादिल और उछलकूद मचाने वाली लड़की हैं। जब मिली और उनके साथ थोड़ा टाइम बिताया तो पाया कि वह असल किरदार के काफी करीब थीं। मेरा ब्रीफ उन्हें यही था कि आप जैसे हो वैसे ही रहो।

कैसे विषय आपको आकर्षित करते हैं जो संभवतः भविष्य में आपकी फ़िल्मों का आधार बनें?
मुझे ज्यादातर रिलेशनशिप वाली स्टोरीज पसंद आती हैं। कोई भी ऐसी कहानी जो दिल निचोड़ने वाला ड्रामा हो। मैं ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाना चाहूंगी। कुछ भी जो थोड़ा सा असामान्य हो। आम परिस्थितियों से थोड़ा सा हटकर हो।

‘मोइ मरजानी’ को देखें तो उसमें आपकी किरदार एक किस्म का जीवन जी रही है, वह एक निर्णय लेती है और आखिर में उसकी जिदंगी में कुछ अच्छा होता है, एक संदेश भी मिलता है। लेकिन थोड़ा सा बाहर अगर उससे आपको लाऊं मैं और फिर दुनिया या भारत को देखें, आज की औरतों और उनकी समस्याओं को देखें, तो आपको कैसी दुनिया और कैसी औरतें देखनी पसंद होंगी? वो क्या कर रही हों या किस तरफ आगे बढ़ रही हों कि आपको बहुत पसंद आएगा?
कहीं भी दिखता है कि परंपरा से हटके कोई भी औरत कुछ करती है तो मुझे आकर्षित करता है। अगर परंपरा में रहकर ही कुछ अलग करे तो वो मुझे बहुत मनमोहक लगता है। जैसे, गुलाब गैंग थी। ...अनपढ़ औरत गांव में लेकिन पूरी सरकार और व्यवस्था को चुनौती दे रही है। ऐसा ही छोटे स्तर पर हो तो बहुत आकर्षित करता है। हालांकि मैं कोई फैमिनिस्ट नहीं हूं पर किसी भी फील्ड में औरतों को आगे बढ़ते देखना चाहूंगी और मर्दों से भी आगे। मुंह बंद करके कोई अत्याचार सहता रहे वो मुझे नहीं पसंद है। इसे तोड़ने के लिए जो भी किया जाए वो मुझे अच्छा लगता है।

ऑडियंस को पूरी फ़िल्म के बीच दो जंप देने हैं या इंटरवल से पहले ऐसा होना ही है, ऐसे जितने भी कमर्शियल फंडे हैं, उनकी अभी आप कितनी परवाह कर रही हैं? डर रही हैं? या कितना समाधान ढूंढकर रख लिया है?
अभी तक तो बिल्कुल सोच नहीं रही हूं उस बारे में। न ही डर रही हूं। न कॉन्फिडेंट हूं। अभी तो वो ख्याल ही नहीं है। अभी तो उस स्टेज पर हूं कि कहानी लिख रही हूं, बिना ये सोचे कि क्या वर्क करेगा क्या नहीं। मुझे लगता है एक बार जब अपनी स्क्रिप्ट मैं पूरी कर लूंगी और प्रोड्यूसर के पास लेकर जा रही होउंगी, तब इन सब बातों के बारे में सोचूंगी।

राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के साथ किन-किन फ़िल्मों में आपने काम किया है?
‘आमिर’ में मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम किया था। फिर ‘देव डी’। राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में मैंने वैसे कोई हिस्सा नहीं लिया था पर उसका रिसर्च मैंने किया था। उसके बाद ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में मैं असिस्टेंट डायरेक्टर थी। बीच में एक और फ़िल्म में काम किया था ‘पीटर गया काम से’ जो अभी नहीं आई है। जॉन ओवेन एक म्यूजिक डायरेक्टर हैं उन्होंने बनाई है। उसमें डायलॉग्स और परफॉर्मेंस में मैंने मदद की थी।

Anubhuti Kashyap is a young Indian filmmaker. She has made a beautiful short film called 'Moi Marjani.' At present, she's writing two of her future films. She has been part movies like ‘Dev D’, ‘No One Killed Jessica’, ‘Gangs Of Wasseypur’ and ‘Peter Gaya Kaam Se’.
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नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’ : रिश्तों की रसायनशाला

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 

 
नीरज घैवन हैदराबाद में पले-बढ़े। इंजीनियरिंग की, एक कंसल्टिंग फर्म में एक साल काम किया और मार्केटिंग में एमबीए की डिग्री ली। फ़िल्में बनाने के लिए उन्होंने मार्केटिंग में भविष्य छोड़ दिया। बाद में अनुराग कश्यप से जुड़े। उनको कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायरेक्शन में असिस्ट किया। पिछले साल आई ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर और स्क्रिप्ट सुपरवाइजर रहे। अनुराग की ही आने वाली फिल्म ‘अग्ली’ में वह सेकेंड यूनिट डायरेक्टर हैं। नीरज 2011 में अपनी पहली शॉर्ट फिल्म ‘शोर’ बना चुके हैं। फिल्म का प्रीमियर अबु धाबी फ़िल्म फेस्टिवल में हुआ। फिर साउथ एशियन इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल, न्यू यॉर्क में इसने पुरस्कार जीता। अब उनकी दूसरी शॉर्ट फिल्म ‘द एपिफनी’ आई है। यह एक तलाकशुदा जोड़े की कहानी है। पुणे में अपने कॉलेज रीयूनियन में हिस्सा लेकर दोनों न चाहते हुए भी एक ही गाड़ी में मुंबई लौट रहे हैं। रास्ते में मदद के लिए पुकार रही एक बूढ़ी औरत और उसके पोते को ये कार में लिफ्ट देते हैं। ये छोटा और अगंभीर लगने वाला कदम उनकी जिंदगी में नए मायने लेकर आता है। आगे फ़िल्म वर्ग, संस्कृति, नैतिकता, पुराने घावों और असल जिंदगी की हकीकतों को पिरोती चलती है। अपनी अगली फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे नीरज ने ‘द एपिफनी’ पर बात की।

एपिफनी शब्द के क्या मायने हैं?
एक अजीब सा वाकया जो हमारी आम सोच में नहीं होता लेकिन फिर कहीं से आ जाता है और उस सोच को बदल देता है। यही एपिफनी है। जैसे, इस जोड़े की जिंदगी में वह बूढ़ी औरत एपिफनी बनकर आती है।

इस कहानी के पीछे के हजारों विचार क्या रहे?
मैंने पहले ‘शोर’ नाम की एक फ़िल्म बनाई थी। वह भी एक शादीशुदा जोड़े के बारे में थी लेकिन वह एक अलग जोन में रची-बसी कहानी थी। मुझे यह विषय बहुत लुभाता है। एपिफनी के सिलसिले में मुझे कहा गया था कि इंडिया इंक के बारे में फ़िल्म बनाएं। मैंने कहा कि मैं इनक्रेडेबल इंडिया के बाकी विज्ञापनों की तरह इसे नहीं बनाना चाहता कि जहां सिर्फ जयपुर के बाग, रंग, महल और बनारस के घाट जैसी चीजें दिखाकर छोड़ दी जाएं। मेरे लिए यह इंडिया मेरा वाला था। यहीं पर मैंने यह कहानी चुनी। एक तलाकशुदा कपल की कहानी होने के अलावा यह इंडिया के बारे में बात करने के लिए रूपक (मेटाफर) है। जैसे, हम लोग कहते हैं कि हम एक सेक्युलर देश हैं, समदर्शी देश हैं, लेकिन क्या सच में हैं ? शायद शहरों में हम आगे हो गए हैं तो ऐसा मानते हैं लेकिन छोटे शहरों और गांवों में तो आज भी वही भारत है। अभी भी भेदभाव तो है। इन सबके बीच देश में अच्छा यह है कि किसी को छोटी सी दिक्कत हो जाए तो सारे जमा हो जाते हैं। जैसे, एक मोहल्ले में बहुत से लोग रहते हैं। सब अलग-अलग तरह से रहते और जीते हैं। पानी के घड़े तक को लेकर बात हो जाती है कि “तुम तो मच्छी बनाते हो”, “इसमें से बास आती है”। लेकिन मान लीजिए मुंबई में हमला हो गया तो ये बातें भूल सब फोन करके हाल-समाचार लेते हैं कि “यार तुम घर पहुंच गए क्या ठीक-ठाक”। तो यह एक मानवीय चेहरा है। भारतीय होने का यह श्रेय बड़ा है। हम में इतनी भाषाएं और इतने प्रांत है, इतनी विभिन्नता है फिर भी हम किसी न किसी चीज से जुड़े हैं। मेरे लिए इन चीजों को किसी न किसी रूप में फ़िल्म में दिखाना जरूरी था। मसलन, इस कपल ने मान लिया है कि हम साथ नहीं रह सकते। फिर अकस्मात उन्हें एक गाड़ी में साथ जाना पड़ता है, उनके एक दोस्त को आना होता है लेकिन वह आ नहीं पाता। अब कोई चारा नहीं है। मुंबई भी एक ऐसी ही गाड़ी है जिसमें हर तरह के लोग साथ में हैं। इतनी विविधता के बावजूद। हम सब रह रहे हैं लेकिन जब भी कुछ होता है तो साथ आ जाते हैं। जैसे, ये दोनों कार में जा रहे हैं और इनकी अनबन शुरू हो जाती है। बाद में बातचीत बंद हो जाती है। यहां वह बूढ़ी औरत आती है और वह इंडिया का सिंबल होती है।

Neeraj Ghaywan
फ़िल्म में जो भारत है वो रुढ़िवादी समाज वाला भारत नहीं है। पहले ऐसा होता था कि मर्द कहते थे कि “औरत तुम घर पर बैठो” या “तुम दहेज लेकर नहीं आई हो”, अब डिबेट एक-दूसरे की विचारधारा पर है, आइडियोलॉजी के झगड़े हैं। वो जमाना गया जब प्रथाएं थीं और हम उन पर झगड़ रहे थे। ‘द एपिफनी’ में आप देखेंगे कि वह औरत सबसे सफल है, वह गाड़ी चला रही है। उसका पति आदर्शवादिता की वजह से अटका हुआ है। पीछे जो बूढ़ी महिला बैठी हैं वह गांवों में बसा भारत है। ये कल्चरल डिवाइड है। फिर देखिए कि वह आदमी बुढ़िया की मदद करना चाहता है जबकि उसकी भाषा भी नहीं जानता। वहीं उसकी पूर्व-पत्नी जो उस बूढ़ी औरत की भाषा (मराठी) जानती है फिर भी उसके प्रति उत्साहकारी एटिट्यूड नहीं रखती। न चाहते हुए भी उसे बूढ़िया और उसके पोते की मदद करनी पड़ती है। आगे जाकर जब दोनों को पता चलता है कि बच्चे की हालत सही नहीं है, वह बेहोश हो गया है तो सकपका जाते हैं और अपना झगड़ा भूल जाते हैं। कि हम लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर दी, इतना अटपटा हो गया है। अब वो चाहते हैं कि बुढ़िया को हेल्प करें और जुट जाते हैं मदद करने में। कहानी में इन सब विचारों के कई स्तर हैं। जैसे, वह औरत अगर शुरू में बुढ़िया और बच्चे को अपने गाड़ी में नहीं बैठाना चाहती तो इसलिए क्योंकि उसे ऑफिस के काम से जल्दी पहुंचना है। हम ऑफिस के प्रैशर की वजह से कभी-कभी अपनी नैतिकता खो देते हैं। हालांकि बाद में वह हेल्प करना चाहती है।

तलाकशुदा पति-पत्नी का परदे पर निर्माण...
मैं कोई बहुत ग्रेट राइटर नहीं हूं इसलिए मैं अपने विषय के संबंध में बहुत सारे लोगों से बात करता हूं। मैं मानता हूं कि सच कल्पना से बहुत आगे होता है और बहुत सुंदर होता है। सिनेमा में भी वही दिखाना चाहता हूं। चूंकि ये कहानी मूलतः एक तलाकशुदा जोड़े की थी इसलिए असल जिदंगी में तलाक ले चुके जोड़ों से मैंने बातें की। उन्होंने बताया कि तलाक के बाद के झगड़े बेहद अलग तरीके से होते हैं। उनमें बहुत ज्यादा बातें नहीं होती हैं, व्यंग्य या ताने ज्यादा होते हैं। इस वजह से मेरे मन में था कि मुख्य भूमिकाओं के लिए असली पति-पत्नी को लेना चाहिए। यहीं पर रत्नाबली और सुहास को लिया। रत्नाबली सच में बंगाली हैं और सुहास पंजाबी। दोनों पति-पत्नी हैं। जब तलाकशुदा जोड़े की असल जिदंगी बतानी थी तो नाटकीयता से समझौता किया। एक बहुत जरूरी चीज थी जो मैं बताना चाहता था कि ऐसा नहीं होता कि अंत में सब कुछ बदल जाता है। सब कुछ नहीं बदलता है। आप देखेंगे कि इन दोनों किरदारों के रिश्ते में भी ज्यादा कुछ बदलाव हुआ नहीं। जैसे, आखिर में वह कहती है कि “तुम बेटी से मिलने आ सकते हो”, तो ये हल्का सा चेंज है। असल जिंदगी में बड़ा चेंज नहीं आता है। यहां तक भी हो कि ये दोनों शायद मुंबई पहुंचने के बाद कभी भी नहीं मिलेंगे।

फिर फ़िल्म बनाने में कितना वक्त लग गया? क्या पड़ाव रहे?
उस वक्त मैं एक फ़िल्म में जुटा हुआ था और जद्दोजहद में था। मन मेरा आधा-अधूरा था। बहुत सारी चीजें कर रहा था। ‘अग्ली’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। माइंड सेट नहीं था तो ‘द एपिफनी’ को लिखा और विचार और विकसित होने लगा, कोई 10-15 दिन गए होंगे। क्योंकि वो आइडिया दिमाग में पलता रहता है, फिर ‘कुछ ऐसा करें वैसा करें’ दिमाग में घुटता रहता है। लिखने बैठा तो 10 दिन में शायद लिख दिया था। शूटिंग में बहुत दिक्कत हुई। पूना-बॉम्बे हाइवे दूर था, बहुत से लोगों ने कहा कि पास के ही हाइवे पर शूट कर लो लेकिन मुझे लगता है कि हर कहानी का एक शोर होता है और हमें उसी में जाना चाहिए। मेरा सिद्धांत है कि जिन लोगों की बात कर रहा हूं उनकी दुनिया में जाकर ही बात करूं। इसलिए पूना-बॉम्बे हाइवे पर ही जाकर शूट किया।

दिक्कत क्या आई शूटिंग में?
दिक्कत ये थी कि आमतौर पर सेट्स पर एक मॉनिटर होता है जिसमें डायरेक्टर देखता रहता है कि शॉट में क्या हो रहा है। मेरे साथ दिक्कत ये थी कि गाड़ी के बोनट पर कैमरा रखा हुआ था तो मैं अंदर बाजू में नहीं बैठ करता था। ऊपर से कैमरा छोटा था तो उसमें भी नहीं दिख रहा था कि क्या हो रहा है। मॉनिटर नहीं था तो कलाकारों के परफॉर्मेंस के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा था, ये चीज सबसे ज्यादा दिक्कत कर देती है। चूंकि मुझे अंदेशा पहले से था इसलिए मैंने दोनों के साथ बहुत वर्कशॉप कीं। एक चुनौती ये थी कि फ़िल्म में वास्तविकता की प्रस्तुति कैसे हो क्योंकि फ़िल्म बनाते वक्त आपकी ऑब्जेक्टिविटी चली जाती है। इसलिए कुछ तलाकशुदा लोगों को मैंने दिखाई। दो-तीन लोग रो दिए। मैं आश्वस्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लगता है एकदम से जिंदगी हमारे सामने आ गई है। बाद में और लोगों को भी दिखाया। उनके फीडबैक को भी मैंने अंतिम नहीं माना था। मगर अब जब फ़िल्म उपलब्ध है और इतने सारे लोग बोल रहे हैं कि फ़िल्म ने बहुत टच किया है तो राहत होती है। लोगों ने इतने मैसेज किए हैं कि इनबॉक्स भर गया है। मैं बहुत खुश हूं। जो देख रहे हैं, कनेक्ट कर रहे हैं। मुझे ये भूख नहीं है कि दस लाख या पचास लाख लोग इसे देखें। जितने लोग भी देखे उन्हें पसंद आए और वे आकर ये भी बताएं कि क्या अच्छा नहीं लगा। इतनी तारीफ के बाद लगता है कि कोई तो बोले ये खामी थी। जैसे, एक ने लिखा कि “आप शायद ड्रामा और दिखाते”। इस पर मैंने लिखा कि “मैंने तीन-चार कपल से पूछा था और उन्होंने कहा कि तलाकशुदा कपल का माजरा अलग होता है, उसमें ड्रामा नहीं जंचता”।

तकनीक वाला या मूल सिनेमा...
‘शोर’ बनाई तो लोगों को बहुत पसंद आई। मैंने सोचा नहीं था कि इतनी पसंद आएगी। मगर ‘द एपिफनी’ के वक्त मैं चाहता था कि सिर्फ क्राफ्ट पर ध्यान दूं। जैसे, आपको सिर्फ एक सीमित स्पेस दे दिया जाए और कहा जाए कि बस एक कैमरा है और कुछ नहीं है माध्यम, तो आप कैसे करेंगे? मैं ऐसी ही मुश्किल परिस्थिति से भिड़ना चाहता था। आखिरकार ये चीजें न भी हों तो फ़िल्ममेकिंग का सबसे प्योर फॉर्म तो नेरेटिव ही होता है। वो तो आपके साथ हमेशा ही होता है। मुझे वो दिख जाता है तो मैं सब भूल जाता हूं। साधन जरूरी होते हैं लेकिन उनके बगैर जो सिनेमा बने वो पवित्रतम रूप होता है सिनेमा का।

ऐसे पवित्रतम रूप वाले सिनेमाकारों में आपको कौन पसंद आते हैं?
बेला तार (हंगरी) हैं। मैंने उनकी तकरीबन सारी फ़िल्में देखी हैं। उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। अफसोस कि उन्होंने फ़िल्में बनाना छोड़ दिया है। डारिएन ब्रदर्स (जाँ पियेर और लूक डारिएन, बेल्जियम) मेरे फेवरेट्स में से एक हैं। उनकी फ़िल्मों में कुछ भी टेक्नीकली करप्ट करने वाला नहीं होता है। इनारित्तू (आलेहांद्रो गोंजालेज इनारित्तू, मेक्सिको) की फ़िल्में बहुत ही इंटरपर्सनल होती हैं। असगर फरहादी (ईरान) की सारी फ़िल्में मैंने देखी हैं। इनके अलावा माइकल हेनिके (ऑस्ट्रिया) हैं, फैलिनी (फेडरीको फैलिनी, इटली) हैं। इन सबकी फ़िल्मों पर बड़ा हुआ हूं।

संगीत को लेकर आपकी सोच क्या रही?
म्यूजिक नरेन चंदावरकर ने दिया है। वह पहले ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में म्यूजिक दे चुके हैं, हाल ही में उन्होंने ‘शिप ऑफ थीसियस’ में भी म्यूजिक दिया है। इस फ़िल्म के दौरान हुआ क्या कि हमें जल्दी में बनानी थी। तीन दिन में शूट किया, दो दिन में एडिट किया और दो दिन में पोस्ट प्रोडक्शन किया। म्यूजिक डायरेक्टर ने बोला कि “मुझे टाइम दो मैं खुश नहीं हूं, मैं अपने आप से ही करता हूं”। डेडलाइन का प्रैशर था पर मैं अच्छा महसूस कर रहा था कि वो इतनी मेहनत कर रहे थे। तो मैंने कहा, ठीक है करिए। उन्होंने पूरी रात जागकर क्लैरिनेट के साथ प्रयोग किए। इस तरह अलग रहा। मैं रॉ इंस्ट्रूमेंट्स में जाता हूं। वाइडर स्पेस में जो इंस्ट्रूमेंट काम करते हैं वो बाकी में नहीं करते। जैसे, एंड क्रेडिट्स में बहुत अच्छा क्लैरिनेट आता है। फ़िल्म के शुरू में बहुत रॉ म्यूजिक आता है, बीच में डिस्टर्ब करने वाला साउंड आता है और आखिर में क्लैरिनेट आता है।

एंड क्रेडिट्स में दोस्तों को शुक्रिया कहा...
दरअसल मैं बहुत लोगों की राय लेता हूं। वरुण ग्रोवर और मैं बहुत अच्छे दोस्त हैं। उसके साथ मिलकर मैंने अगली फ़िल्म लिखी है जिसे डायरेक्ट करूंगा। द्विजोत्तम भट्टाचार्य ने बहुत मेहनत की। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से सब हैंडल किया। अनुभूति भी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं, उन्होंने भी बहुत मदद की। अपनी जिंदगी से उन्होंने फ़िल्म को बहुत कुछ दिया। कुणाल शर्मा भी, इन सबको शुक्रिया कहा।

मुख्य भूमिकाओं के लिए रत्नाबली, सुहास और ज्योति सुभाष का चुनाव कैसे किया?
‘शोर’ एक बनारसी कपल की कहानी थी जो बनारस छोड़कर आते हैं बंबई में गुजारा करने। आदमी की नौकरी चली गई है। काम मिल नहीं रहा है, वह ऑटोरिक्शा ढूंढ रहा है और घर में गरीबी है। तो औरत सिलाई का काम शुरू करती है। उसमें उनकी लड़ाई शुरू हो जाती है। बाद में पता चलता है कि ऑटो का परमिट महंगा है और वो सिलाई उसके लिए कर रही है। उन किरदारों के सिलसिले में मेरे दोस्त वासन बाला ने मुझे रत्नाबली के बारे में बताया कि वो कल्कि कोचलिन के साथ अंग्रेजी थिएटर करती हैं। उन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती है। तो विनीत सिंह जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हैं, ‘शोर’ में हैं, उन्होंने रत्नाबली को बनारसी डिक्शन सिखाया। रत्नाबली ने फ़िल्म के लिए अपना पूरा कायपलट किया। साड़ी पहनी, चोटी बांधी, तेल लगाया, बनारसी हिंदी बोली... तो मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। मैंने कहा कि आपके साथ ही अगली फ़िल्म बनाऊंगा। उनके हस्बैंड सुहास भी एक्टर हैं। उन्होंने ‘तलाश’ में छोटा रोल किया है। उन्होंने बहुत बार साथ काम किया। सुहास ने ‘शोर’ में म्यूजिक किया। तो दोनों एक्टर थे और मुझे सेमी-डॉक्युमेंट्री स्टाइल में शूट करना अच्छा लगाता है इसलिए सोचा कि इस रियल कपल को लिया जाना चाहिए। अम्मा (ज्योति सुभाष) को तो मराठी फ़िल्मों में देखा था। बहुत अच्छी-अच्छी फ़िल्मों में वह काम कर चुकी हैं। उनका काम मुझे बहुत पसंद है। उनका चेहरा ही इतना अच्छा है।

एक ही फ्रेम में देहाती भाषा, परिवेश और कच्चापन लिए अम्मा हैं और वो दोनों शहरी पति-पत्नी। इससे एक अलग ही दृष्टिगत विरोधाभास पैदा होता है, उनकी सोच में भी वो फर्क है?
अम्मा का नजरिया भी वैसा ही है जैसा गांव के लोगों का होता है। जैसे, गांव के लोगों को लगता है कि शहर के लोग बहुत सुखी हैं, उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। अब फ़िल्म में उन्हें नहीं पता कि ये दोनों औरत-मर्द तलाकशुदा हैं। एक मौके पर वह कहती भी हैं कि तुम्हारे पास तो सब कुछ है फिर क्यों झगड़ा करते हो। कुछ लोगों का नजरिया होता है कि पैसा ही सब कुछ है। लेकिन वो बूढ़ी अम्मा अपने नजरिए में ज्यादा खुश है। जैसे, फ़िल्म में एक जगह उसे समझ नहीं आता कि दोनों का शुक्रिया अदा कैसे करें तो वह टिफिन में पोहा लाती है और उन्हें खिलाती है।

जो वैचारिक बहस इन पति-पत्नी के बीच चलती रहती है कि एक आदर्शवादी है और दूसरी प्रगतिवादी, उसके रेशे कैसे बुने?
फ़िल्म में इनके बीच दो तरह की बहस होती हैं। पहली हल्कीफुल्की होती है, जैसे “तुम फिश खाती हो”, “सरसों का तेल लगाती हो” या “तुम बटर पनीर मसाला...”। यानी तूतू-मैंमैं वाली फाइट। लेकिन दूसरी गंभीर होती है। जैसे, सुहास उसे यहां तक कह देता है कि “तुम बहुत ही घटिया (घृणित) इंसान हो, तुमने मुझे अपनी बेटी से तीन साल दूर रखा”। अगर आपने पढ़ी हो तो अयान रैंड की एक किताब है ‘फाउंटेनहैड’। उसमें दो आर्किटेक्ट होते हैं। एक हावर्ड रोर्क है जो बहुत आदर्शवादी है। वहीं उसका दोस्त पीटर कीटिंग है जो कहता है कि मैं बिल्डिंग बनाऊंगा क्योंकि पैसे आएंगे और मुझे आगे बढ़ना है। फिलॉसफी के बारे में इन दोस्तों के बीच बहुत बातें होती हैं। इसी तरह मैंने दर्शकों को फ़िल्म के किरदार भी समझाए हैं कि सुहास आदर्शवादी है और रत्नाबली प्रैक्टिकल। वह कहती है कि “मुझे पैसे कमाने हैं क्योंकि अपनी बच्ची की उतनी अच्छी परवरिश करनी है, जितनी मैं चाहती हूं”। इसीलिए सुहास की आदर्शवादी सोच पर चोट करते हुए वह कहती है कि, “वैन इट कम्स टु फैमिली, यू हैव टु वॉक अवे टु बिकम दिस बिग वाइज मैन, मिस्टर हावर्ड रोर्क आहूजा”।

आपने कौन सा कैमरा यूज किया ? और क्रू कितना बड़ा था?
बाकी की फ़िल्में बड़े कैमरे पर शूट हुईं पर मेरी फिल्म का स्पेस छोटा था और डबल कैमरा सेट अप था इसलिए 5डी पर शूट किया। डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी) संतोष वसंदी का आइडिया था कि हम लोग लैंस से बढ़िया लुक ला सकते हैं। रत्नाबली हालांकि गाड़ी चलाना जानती हैं पर एक नई गाड़ी, ट्रकों से भरे हाइवे पर चलाना मुश्किल था और जब दो कैमरा आपके आगे हों तब और भी। तो क्रू को जरा बड़ा रखा।

Neeraj Ghaywan is a young and an emerging Indian filmmaker. He has an engineering and marketing background which he left behind to persue filmmaking. Since then he has assisted filmmaker Anurag Kashyap on few of his recent projects. He was the script supervisor and assistant director for ‘Gangs of Wasseypur’ and second unit director for the upcoming ‘Ugly’. Before ‘The Epiphany,’ Neeraj had made a wonderful short film called ‘Shor’ (Noise), in 2011. At present he is working on the script of his first full length feature film.
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