सोमवार, 30 अप्रैल 2012

देवत्व बड़ी बात नहीं है मनुष्यत्व है: मानवीय गुणों वाली ऐसी ही पौराणिक फिल्म 'रैथ ऑफ द टाइटन्स'

फिल्म: रैथ ऑफ टाइटन्स
निर्देशक: जोनाथन लीब्समैन
कास्ट: सैम वर्थिंगटन, टॉबी कबेल, रोजमंड पाइक, लियाम नीसन, एडगर रमाइरेज, राल्फ फिएन्स
स्टार: साढ़े तीन, 3.5


मुझे डर था कि डायरेक्टर जोनाथन लीब्समैन की 'रैथ ऑफ द टाइटन्स' कहीं कुछ महीने पहले रिलीज हुई तरसेम सिंह की 'इममॉर्टल्स' जैसी ही न निकले। शुक्र था ऐसा नहीं हुआ। ये फिल्म भंयकर विजुअल इफैक्ट्स वाली है। इसमें ज्वालामुखी की आग से बना विशालकाय दानव क्रोनोस है। यहां हथौड़े के प्रहार देवताओं के सिरों पर पड़ते हैं, आवाज आती है जैसे कोई गाडिय़ा-लोहार बर्तन टांच रहा हो। यहां दो मुंह वाला आग उगलता प्राणी किमेरा मछुआरों के पूरे गांव में विनाश मचा देता है। टारटरस की जेल से निकले तीन धड़ और आधा दर्जन हाथों वाले खूनी पिशाच सेनाओं पर हमला बोलते हैं। ऐसा और भी बहुत कुछ है। मगर फिल्म में लीब्समैन ने हास्य को इतने सुंदर तरीके से पिरोया है, जो मैंने 'हैरी पॉटर', 'ट्रांसफॉर्मर्स' या किसी भी दूसरी पौराणिक सी लगने वाली थ्रीडी फिल्म में नहीं देखा है। ये बड़ी बात है।

मसलन, जब जंगल में पर्सियस का सामना मध्यनेत्र वाले ताड़ के पेड़ से भी लंबे मानवों से होता है। बाद में उन विशालकाय मानवों को पता चलता है कि वह देवताओं के राजा का पुत्र है, तो वो उसका साथ देते हैं। पर्वतों से होकर उनके गुजरने वाले सीन में एक महामानव अपना सिर ही मसलता रहता है, क्योंकि पर्सियस ने उसे सिर पर उसी जगह पीटा था। दूसरा, वह सीन, जहां क्वीन एंड्रोमडा के पास हीरे और ताज चुराने वाला एजेनॉर (देवता पसाइडन का बेटा) कैद है। फिल्म में वह सबसे फनी है। एक्टर टॉबी कबेल का शानदार काम। जब वह भूलभुलैया में खो जाता है तो वहां क्लूलेस होना या बड़बोला बनना या आखिरी सीन में पर्सियस के बेटे हेलियस को बुलाना (एंड्रोमडा के साथ पर्सियस की प्रेम कहानी बताने के अंदाज में), उससे बातें करना। टॉबी इस भारी-भरकम फिल्म को अपने मिजाज से इतना स्ट्रेस फ्री कर देते हैं कि मनोरंजनरसास्वादन करने की प्रक्रिया में हमें बतौर दर्शक कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती।

हास्य की बात करूं तो ब्रिटिश एक्टर बिल नाइली कहानी में तकनीक के देवता हेफेस्टस बने हैं। उनका पहला सीन बेहद रोचक और हंसाऊ है। बेहतरीन। इस सीन को देखकर अभिनय के छात्र कुछ बेहद बारीक और शानदार गुर सीख सकते हैं। पर्सियस, एजेनॉर और एंड्रोमडा आते हैं हेपेस्टस से मदद मांगने। जब वह उसके निवास स्थान में घुसते हैं तो वह बड़बड़ता हुआ आता है जैसे अंदर कोई और भी बैठा है। वह एक बात तीनों आगंतुकों से सुनता हैं तो उसका जवाब देने के लिए पीछे मुड़कर अंधेरे में किसी से पूछता है, कि वो ऐसा कह रहे हैं, करना है कि नहीं। हर बार सुनने और पूछकर बताने की प्रक्रिया दोहराता है। जबकि होता यह है कि अंदर कोई नहीं होता। वह तकनीक का देवता है पर रहता इस मजाकिया इंसानी अंदाज में है, जैसे कि हमारी फिल्मों में जगदीप और दिनेश हिंगोरानी रहा करते थे।

कहानी दो साल पहले आई 'क्लैश ऑफ द टाइटन्स' के बाद आगे बढ़ती है। जैसा कि सब जानते हैं पर्सियस (सैम वर्थिंगटन) देवताओं के राजा ज्यूस (लियाम नीसन) का बेटा है। वह अपने 10 साल के बेटे हेलियस का साथ पाने के लिए एक साधारण मछुआरा बनकर रह रहा है। एक दिन ज्यूस आकर पर्सियस से दुनिया की रक्षा करने को कहता है। क्योंकि पाताल में टारटरस जेल की दीवारें कमजोर हो रही हैं, जिसमें कई शैतान और राक्षस क्रोनोस कैद हैं। उन्हें आजाद कराने में ज्यूस का ही दूसरा बेटा युद्ध का देवता ऐरस (एडगर रमाइरेज) और ज्यूस का भाई पाताल का देवता हेडस (राल्फ फिएन्स) लगे हुए हैं। मगर पर्सियस मना कर देता है। वह अपनी आम इंसान वाली जिंदगी और बेटे के साथ को खोना नहीं चाहता है। मगर बाद में जब ज्यूस को पाताल में ऐरस और हेडस कैद कर लेते हैं तो पर्सियस के लिए लडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इस काम में उसे क्वीन एंड्रोमडा (रोजमंड पाइक) और एजेनॉर (टॉबी कबेल) का साथ मिलता है।

अपनी तकनीक और पौराणिक कहानी में यह फिल्म जितनी भारी है, अपने इंसानी होने में उतनी ही सरल। किरदारों का हंसना-हंसाना, गिरना-गिराना, पिटना-पीटना और गलतियां करना उसे महज विजुअल इफैक्ट वाले काल्पनिक किरदारों की कहानी ही नहीं रहने देता, ये सब दर्शकों को उनकी रोजमर्रा की भावनाओं जैसा ही लगने लगता है। इसी वजह से 'रैथ ऑफ...' उनके करीब हो जाती है।

लीब्समैन ने पिछले साल 'बैटलफील्ड: लॉस एंजेल्स' के निर्देशन में जितना निरुत्साहित किया था, 'रैथ ऑफ...' में उतना ही खुश। फिल्म बड़ी संतुलित है। शानदार विजुअल इफैक्ट्स हैं जो थ्रीडी में भी अंधेरे भरे नहीं लगते। इतने सारे किरदारों और पौराणिक पहलुओं के बावजूद फिल्म बड़ी आसान लगती है। दैत्यों, दानवों, पिशाचों, देवताओं, इंसानों और उडऩे वाले घोड़े (पर्सियस का काला घोड़ा पगेसस) की गाथा होने के बावजूद फिल्म में इमोशन बहुत सारे हैं, बहुत अच्छे से हैं।

हर बार थ्रीडी फिल्मों और महाइंसानी किरदारों वाली फिल्मों से मेरी शिकायत रहती है कि उनमें इमोशन नहीं हैं। यहां वह शिकायत काफी हद तक दूर होती है।
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गजेंद्र सिंह भाटी