फिल्मः तीन थे भाई
डायरेक्टरः मृगदीप सिंह लांबा
कास्टः ओमपुरी, दीपक डोबरियाल, श्रेयस तलपड़े, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह
स्टारः तीन
'लिसन सुनो भई, चूज चुनो भई... तीन थे भाई।' गुलजार के ये बोल और दलेर मेंहदी की आवाज इन भाइयों की फिल्म को नई पहचान देते हैं। बाकी काम करते हैं टॉम एंड जैरी की तरह गिरते-पड़ते, झगड़ते ओमपुरी, श्रेयस तलपड़े और दीपक डोबरियाल। शुरू के बीस मिनट बहुत आनंद देते हैं पर उसके बाद से फिल्म के आखिर तक सीन दर सीन छोटे-छोटे गैप आने लगते हैं। कुछ कमी महसूस होने लगती है। ये कमी रही स्क्रिप्ट में। कुछ ऑडियंस को इससे झल्लाहट होगी, तो कुछ फिल्म के बारे में अपना व्यू यहीं से तय कर लेंगे। फिल्म में डायलॉग्स को फनी रखने की कोशिश की गई है, पर ये सब मिलकर भी फिल्म को एक संपूर्ण कहानी नहीं बना पाते हैं। अच्छी बात ये है कि फिल्म कहीं वल्गर नहीं होती, बस ...ओ? टॉपलेस हाउस और सिलिकॉन्स जैसे जुमलों को छोड़ दें तो। काम तीनों एक्टर्स का अच्छा है पर अपने कैरेक्टर में सबसे ज्यादा इनोवेशन डाल पाए दीपक डोबरियाल। उनका खास जिक्र। एंजॉय करने के लिए फ्रेंड्स और फैमिली का साथ बेस्ट रहेगा।
कौन हैं ये तीन
ये तीन सगे भाई हैं। सबसे बड़े चिकरजीत यानी चिक्सी गिल (ओमपुरी), दूसरे हैप्पी गिल (दीपक डोबरियाल) और सबसे छोटे फैंसी गिल (श्रेयस तलपड़े). प्योर पंजाबी हैं। एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, पर छोटों को बड़े का लिहाज है। चिक्सी की तीन बेटियां हैं पर कोई लड़का उन्हें पसंद नहीं करता। हैपी की डॉक्टरी नहीं चल रही। ...और फैंसी को अंग्रेजी बोलने की फैंसी है, इसलिए रीजनल फिल्मों में भी साइड रोल नहीं मिलता। एक दिन तीनों को वकील का फोन आता है। दादाजी (योगराज सिंह) गुजर गए हैं और पीछे एक वसीयत और अजीब सी शर्त छोड़ गए हैं। इसके मुताबिक अगले तीन साल दादा की हर बरसी पर पूरा एक दिन इन्हें एक-दूसरे के साथ बिताना होगा। यहीं से सारी उठा-पटक शुरू होती है। सवाल खड़ा होता है, कि क्या बड़ा अपनी बेटियों की शादी कर पाएगा, छोटा अमेरिका जाकर अपनी हॉलीवुड मूवी बना पाएगा रिटर्न ऑफ ए ब्लू लगून, और मंझला बड़ा डॉक्टर हो जाएगा, खुद का हॉस्पिटल खोल पाएगा।
प्रेजेंटेशन का अंदाज
चार्ली चैपलिन की साइलेंट कॉमेडी फिल्मों में अगर आप हिंदी संवाद डाल दें, तो कुछ-कुछ तीन थे भाई वाला असर पैदा होता है। ओमपुरी का बड़े भाई का लाउड कैरेक्टर, बीच वाले भाई के रूप में शर्मीले-कुछ डरपोक से दीपक और तीसरे मूर्ख लेकिन साहसी और खुराफाती भाई के तौर पर श्रेयस। तीनों के कैरेक्टर में ये गुण सोच-समझकर और पूरे बैलेंस के साथ डाले गए हैं। बर्फीला मौसम, वाइन, कुत्ता, घर की चिमनी, पुराना दरवाजा, अफीम और पंजाबी लेंगवेज इन तीनों के साथी कैरेक्टर बन जाते हैं। म्यूजिक अरेंजमेंट में काफी वेरिएशन है। अमेरिकन बीहड़ों वाली फिल्मों में बजने वाला गिटार भी, क्लासिकल वीणा भी, बुल्ले शाह भी, ढोलक भी और प्योर देसी पेटी भी।
जो अच्छा नहीं है
खासतौर पर ये सीन। ओमपुरी के कैरेक्टर का परिचय दिया जा रहा है। चिकरजीत यानी चिक्सी, भटिंडा का मशहूर सड़ियल, नाड़ों की दुकान है, तीन मोटी बेटियां, न तो इनकी बेटियां सुशील है, न ही इनकी इन गायों को कोई अपने खूंटे से बांधेगा। कॉमेडी क्रिएट करने के लिए मुझे ये जोक पसंद नहीं आया। भारी शरीर वाली लड़कियों के लिए अपमानजनक है, चाहे इरादा सिर्फ हंसाने का ही क्यूं न रहा हो।
हंसी मलाई मार के
श्रेयस के कैरेक्टर फैंसी का ओपनिंग सीन बहुत मजेदार है। पंजाबी फिल्म की शूटिंग चल रही है। डाकू बने श्रेयस का डायलॉग सीक्वेंस है... लंबरदारा, जो बड़ा इंप्रैसिव हैं। श्रेयस के करियर के बेस्ट सीन्स में से एक हैं। एक्टिंग, टाइमिंग, पंजाबी मूवीज के डाकू की इमेज का मजाकिया अंदाज और शब्दों के उच्चारण को देखते हुए ये सीन तकरीबन परफैक्ट बन पड़ता है। चूंकि पहले की फिल्मों में श्रेयस हिंदी के शब्दों को देसी लहजे में बोलने के कोशिश में सफल नहीं हो पाते थे, यहां भी यही डर था। पर इस फिल्म में वो ये गलती नहीं करते। हंसाने का एक अंदाज डायरेक्टर मृगदीप ने ये भी सोचा कि घर गिराने आई जेसीबी मशीन किसी हाथी की तरह पीछे के हिस्से पर खड़ी हो जाती है और फिर अगले हिस्से को सूंड की तरह उठाकर चिंघाड़ती हैं।
प्योर डायलॉग
सबसे अच्छे पंजाबी शब्दों के इस्तेमाल वाली लाइन ओमपुरी और योगराज सिंह के हिस्से आती हैं। ओमपुरी का वकील दोस्त कहता है कि दादा की वसीयत के मुताबिक तीनों भाइयों को एक पूरा दिन और रात साथ बितानी होगी। इस पर ओमपुरी कहते हैं, दो दिन इन्हें झेलने की खुर्क नहीं है मुझे (खुर्क शब्द का इस्तेमाल), या फिर ये कहावत, मां जिन्ने झल्ले, मेरे पल्ले। गांव की रामलीला में रावण का रोल कर रहे दादा की भूमिका में योगराज सिंह का संवाद है, खेंच के पकड़ इस बांदर दी रस्सी, नहीं पिलाणी एनू लंका दी लस्सी। ये पूरा सीन ही अच्छा है। फिल्म में एक जगह वह कहते हैं, दूसरों का चेहरा लाल देख के अपने मुंह पे चपेड़े नहीं मारते ओए।
रियल का गांव
हैपी बने दीपक अपने बचपन के लव गुरलीन (रागिनी खन्ना) को याद कर रहे है। इन यादों में उनके बचपन का स्कूल सेंट पर्सेंट किसी पंजाबी पिंड का प्राइमरी स्कूल लगता हैं, जहां बच्चियां दो चोटियों में लाल रिबन बांधकर आती हैं और लड़के नीले शर्ट-पेंट में। स्कूल की लोकेशन भी असली है। रिव्यू में डायरेक्टर के ऑब्जर्व करने के तरीके और बारीकी पर मैं अक्सर बात करता हूं, यहां इस सीन में गांव के कच्चेपन को डायरेक्टर मृगदीप ने अच्छे से उभारा है। दीपक सड़क किनारे दीवार सहारे अपनी साइकिल टिकाकर उसपर खड़ा है। ऊंची दीवार से गर्दन निकालकर अंदर खेत पार कोयले वाली इस्त्री कर रही गुरलीन (रागिनी खन्ना) को देख रहा है। उसपर किसी गांव की कुड़ी की तरह गुरलीन का नजरें नीची कर लेना... ये पूरा सीन बिना किसी मिलावट के हाजिर होता है। बस एक कसर रह जाती है। इस्त्री के कपड़ों में जो काला ब्लाउज छोटा छोटा फैंसी टोपी समझकर निकाल लेता है वो किसी गांव का नही बल्कि इंटरनेशनल फैशन ब्रैंड का लगता है। इसका कारण क्या रहा, प्रॉडक्शन की कमी रही.. ये तो फिल्म बनाने वाले ही बता सकते हैं। इसके अलावा छितर, कुटापा, लेडीज बनियान, धोबियों वालियों की कुड़ियां.. फिल्म में कई जगह पर ऐसी क्षेत्रीय भाषा और शब्दों का इस्तेमाल है।
आखिर में...
चंडीगढ़ वालों के लिएः इस शहर का जिक्र दो बार आता है, पहला तो जब हीरोइन रागिनी का एडमिशन 'लॉ कॉलेज चंडीगढ़' में हो जाता है और दूसरा जब तीनों भाई फिल्म के पहले हाफ के बाद सड़क पर 'चंडीगढ़ 20 किलोमीटर' के बोर्ड के सामने खड़े होते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी
डायरेक्टरः मृगदीप सिंह लांबा
कास्टः ओमपुरी, दीपक डोबरियाल, श्रेयस तलपड़े, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह
स्टारः तीन
'लिसन सुनो भई, चूज चुनो भई... तीन थे भाई।' गुलजार के ये बोल और दलेर मेंहदी की आवाज इन भाइयों की फिल्म को नई पहचान देते हैं। बाकी काम करते हैं टॉम एंड जैरी की तरह गिरते-पड़ते, झगड़ते ओमपुरी, श्रेयस तलपड़े और दीपक डोबरियाल। शुरू के बीस मिनट बहुत आनंद देते हैं पर उसके बाद से फिल्म के आखिर तक सीन दर सीन छोटे-छोटे गैप आने लगते हैं। कुछ कमी महसूस होने लगती है। ये कमी रही स्क्रिप्ट में। कुछ ऑडियंस को इससे झल्लाहट होगी, तो कुछ फिल्म के बारे में अपना व्यू यहीं से तय कर लेंगे। फिल्म में डायलॉग्स को फनी रखने की कोशिश की गई है, पर ये सब मिलकर भी फिल्म को एक संपूर्ण कहानी नहीं बना पाते हैं। अच्छी बात ये है कि फिल्म कहीं वल्गर नहीं होती, बस ...ओ? टॉपलेस हाउस और सिलिकॉन्स जैसे जुमलों को छोड़ दें तो। काम तीनों एक्टर्स का अच्छा है पर अपने कैरेक्टर में सबसे ज्यादा इनोवेशन डाल पाए दीपक डोबरियाल। उनका खास जिक्र। एंजॉय करने के लिए फ्रेंड्स और फैमिली का साथ बेस्ट रहेगा।
कौन हैं ये तीन
ये तीन सगे भाई हैं। सबसे बड़े चिकरजीत यानी चिक्सी गिल (ओमपुरी), दूसरे हैप्पी गिल (दीपक डोबरियाल) और सबसे छोटे फैंसी गिल (श्रेयस तलपड़े). प्योर पंजाबी हैं। एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, पर छोटों को बड़े का लिहाज है। चिक्सी की तीन बेटियां हैं पर कोई लड़का उन्हें पसंद नहीं करता। हैपी की डॉक्टरी नहीं चल रही। ...और फैंसी को अंग्रेजी बोलने की फैंसी है, इसलिए रीजनल फिल्मों में भी साइड रोल नहीं मिलता। एक दिन तीनों को वकील का फोन आता है। दादाजी (योगराज सिंह) गुजर गए हैं और पीछे एक वसीयत और अजीब सी शर्त छोड़ गए हैं। इसके मुताबिक अगले तीन साल दादा की हर बरसी पर पूरा एक दिन इन्हें एक-दूसरे के साथ बिताना होगा। यहीं से सारी उठा-पटक शुरू होती है। सवाल खड़ा होता है, कि क्या बड़ा अपनी बेटियों की शादी कर पाएगा, छोटा अमेरिका जाकर अपनी हॉलीवुड मूवी बना पाएगा रिटर्न ऑफ ए ब्लू लगून, और मंझला बड़ा डॉक्टर हो जाएगा, खुद का हॉस्पिटल खोल पाएगा।
प्रेजेंटेशन का अंदाज
चार्ली चैपलिन की साइलेंट कॉमेडी फिल्मों में अगर आप हिंदी संवाद डाल दें, तो कुछ-कुछ तीन थे भाई वाला असर पैदा होता है। ओमपुरी का बड़े भाई का लाउड कैरेक्टर, बीच वाले भाई के रूप में शर्मीले-कुछ डरपोक से दीपक और तीसरे मूर्ख लेकिन साहसी और खुराफाती भाई के तौर पर श्रेयस। तीनों के कैरेक्टर में ये गुण सोच-समझकर और पूरे बैलेंस के साथ डाले गए हैं। बर्फीला मौसम, वाइन, कुत्ता, घर की चिमनी, पुराना दरवाजा, अफीम और पंजाबी लेंगवेज इन तीनों के साथी कैरेक्टर बन जाते हैं। म्यूजिक अरेंजमेंट में काफी वेरिएशन है। अमेरिकन बीहड़ों वाली फिल्मों में बजने वाला गिटार भी, क्लासिकल वीणा भी, बुल्ले शाह भी, ढोलक भी और प्योर देसी पेटी भी।
जो अच्छा नहीं है
खासतौर पर ये सीन। ओमपुरी के कैरेक्टर का परिचय दिया जा रहा है। चिकरजीत यानी चिक्सी, भटिंडा का मशहूर सड़ियल, नाड़ों की दुकान है, तीन मोटी बेटियां, न तो इनकी बेटियां सुशील है, न ही इनकी इन गायों को कोई अपने खूंटे से बांधेगा। कॉमेडी क्रिएट करने के लिए मुझे ये जोक पसंद नहीं आया। भारी शरीर वाली लड़कियों के लिए अपमानजनक है, चाहे इरादा सिर्फ हंसाने का ही क्यूं न रहा हो।
हंसी मलाई मार के
श्रेयस के कैरेक्टर फैंसी का ओपनिंग सीन बहुत मजेदार है। पंजाबी फिल्म की शूटिंग चल रही है। डाकू बने श्रेयस का डायलॉग सीक्वेंस है... लंबरदारा, जो बड़ा इंप्रैसिव हैं। श्रेयस के करियर के बेस्ट सीन्स में से एक हैं। एक्टिंग, टाइमिंग, पंजाबी मूवीज के डाकू की इमेज का मजाकिया अंदाज और शब्दों के उच्चारण को देखते हुए ये सीन तकरीबन परफैक्ट बन पड़ता है। चूंकि पहले की फिल्मों में श्रेयस हिंदी के शब्दों को देसी लहजे में बोलने के कोशिश में सफल नहीं हो पाते थे, यहां भी यही डर था। पर इस फिल्म में वो ये गलती नहीं करते। हंसाने का एक अंदाज डायरेक्टर मृगदीप ने ये भी सोचा कि घर गिराने आई जेसीबी मशीन किसी हाथी की तरह पीछे के हिस्से पर खड़ी हो जाती है और फिर अगले हिस्से को सूंड की तरह उठाकर चिंघाड़ती हैं।
प्योर डायलॉग
सबसे अच्छे पंजाबी शब्दों के इस्तेमाल वाली लाइन ओमपुरी और योगराज सिंह के हिस्से आती हैं। ओमपुरी का वकील दोस्त कहता है कि दादा की वसीयत के मुताबिक तीनों भाइयों को एक पूरा दिन और रात साथ बितानी होगी। इस पर ओमपुरी कहते हैं, दो दिन इन्हें झेलने की खुर्क नहीं है मुझे (खुर्क शब्द का इस्तेमाल), या फिर ये कहावत, मां जिन्ने झल्ले, मेरे पल्ले। गांव की रामलीला में रावण का रोल कर रहे दादा की भूमिका में योगराज सिंह का संवाद है, खेंच के पकड़ इस बांदर दी रस्सी, नहीं पिलाणी एनू लंका दी लस्सी। ये पूरा सीन ही अच्छा है। फिल्म में एक जगह वह कहते हैं, दूसरों का चेहरा लाल देख के अपने मुंह पे चपेड़े नहीं मारते ओए।
रियल का गांव
हैपी बने दीपक अपने बचपन के लव गुरलीन (रागिनी खन्ना) को याद कर रहे है। इन यादों में उनके बचपन का स्कूल सेंट पर्सेंट किसी पंजाबी पिंड का प्राइमरी स्कूल लगता हैं, जहां बच्चियां दो चोटियों में लाल रिबन बांधकर आती हैं और लड़के नीले शर्ट-पेंट में। स्कूल की लोकेशन भी असली है। रिव्यू में डायरेक्टर के ऑब्जर्व करने के तरीके और बारीकी पर मैं अक्सर बात करता हूं, यहां इस सीन में गांव के कच्चेपन को डायरेक्टर मृगदीप ने अच्छे से उभारा है। दीपक सड़क किनारे दीवार सहारे अपनी साइकिल टिकाकर उसपर खड़ा है। ऊंची दीवार से गर्दन निकालकर अंदर खेत पार कोयले वाली इस्त्री कर रही गुरलीन (रागिनी खन्ना) को देख रहा है। उसपर किसी गांव की कुड़ी की तरह गुरलीन का नजरें नीची कर लेना... ये पूरा सीन बिना किसी मिलावट के हाजिर होता है। बस एक कसर रह जाती है। इस्त्री के कपड़ों में जो काला ब्लाउज छोटा छोटा फैंसी टोपी समझकर निकाल लेता है वो किसी गांव का नही बल्कि इंटरनेशनल फैशन ब्रैंड का लगता है। इसका कारण क्या रहा, प्रॉडक्शन की कमी रही.. ये तो फिल्म बनाने वाले ही बता सकते हैं। इसके अलावा छितर, कुटापा, लेडीज बनियान, धोबियों वालियों की कुड़ियां.. फिल्म में कई जगह पर ऐसी क्षेत्रीय भाषा और शब्दों का इस्तेमाल है।
आखिर में...
चंडीगढ़ वालों के लिएः इस शहर का जिक्र दो बार आता है, पहला तो जब हीरोइन रागिनी का एडमिशन 'लॉ कॉलेज चंडीगढ़' में हो जाता है और दूसरा जब तीनों भाई फिल्म के पहले हाफ के बाद सड़क पर 'चंडीगढ़ 20 किलोमीटर' के बोर्ड के सामने खड़े होते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी