Friday, May 6, 2016

फिल्में मैं पूंजीगत प्राप्ति के लिए नहीं कला के लिए बनाता हूं, मैं जागरूकता के साथ रचा आर्ट पसंद करता हूं: राम रेड्‌डी

.Q & A. .Raam Reddy, film writer and director (THITHI).  
The character of Century Gowda in a still from Thithi.

आज बेंगलुरु, मैसूर, मंड्या और हुबली में 23 शोज़ के साथ तिथि रिलीज हो रही है। ये बड़ी विरली सी फिल्म है। दिसंबर के अंत में इसका पहला टीज़र सार्वजनिक किया गया तो सेंचुरी गवडा के विचित्र लेकिन अपने से पात्र ने हैरान किया। ये बुजुर्ग, जो बैठा है, आने-जाने वाले बच्चों और एक पुरुष को छेड़ रहा है, कोस रहा है। भारतीय गांवों में ऐसे व्यंग्य भरे और अल्हड़ पात्र बहुत हैं, हमने देखे हैं लेकिन फिल्मों में इन्हें जगह नहीं मिली है। युवा निर्देशक राम रेड्‌डी की कथ्य को लेकर सोच का भी एक अंदाजा उठा। दिलचस्पी बहुत बढ़ी। अब तो दूसरा टीज़र (उतना ही सटका हुआ) और पूरा ट्रेलर भी मौजूद है लेकिन पहले टीज़र की हस्ती वैसी ही बनी हुई है। राम भारत के युवा फिल्मकारों की उस नई प्रजाति का हिस्सा हैं जो पुराने पथों पर नहीं चलते, वे अपने ही रास्ते बना रहे हैं, फिल्म बनाने की अपनी ही विधियां तलाश रहे हैं और उसमें जबरदस्त साबित हो रहे हैं। निश्चित तौर पर तिथि ऐसी फिल्म है जिसे मिस नहीं किया जाना चाहिए।

साढ़े तीन साल की अवधि में ये कृति तैयार हुई है। पिछले साल बेहद प्रतिष्ठित लोकार्नो फेस्ट में इसने दो शीर्ष पुरस्कार जीते। गोल्डन लियोपर्ड और सर्वोत्कृष्ट पहली फिल्म। इससे पहले पट्‌टाभिरामा रेड्‌डी द्वारा निर्देशित संस्कारा ही ऐसी कन्नड़ फिल्म थी जिसने (1972 में) लोकार्नो में सम्मान पाया था। बुधवार, 3 मई को इसे बेस्ट कन्नड़ फिल्म का नेशनल अवॉर्ड राष्ट्रपति के हाथों मिला। माराकेच, पाम स्प्रिंग्स, सेन फ्रैंसिस्को, मामी और अन्य फिल्म समारोहों में भी तिथि जीती। जिस भी फिल्मकार और दर्शक ने इसे देखा, प्रभावित हुए बगैर नहीं रहा। अगर सब ठीक रहा तो फिल्म देश के बाकी राज्यों में भी लग सकेगी।

राम और उनका परिवार बेंगलुरु में रहता है। कर्नाटक के पहले मुख्यमंत्री के.सी. रेड्‌डी उनके दादा लगते हैं। राम ने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। फिर 2012 में चैक गणराज्य की राजधानी में बने प्राग फिल्म स्कूल से निर्देशन का कोर्स किया। 8-9 शॉर्ट फिल्में बनाईं जिनमें से दो फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई। तिथि की यात्रा ने 2014 में ठोस मोड़ लिया जब एनएफडीसी के फिल्म बाजार में वर्क-इन-प्रोग्रेस सेक्शन में निर्माता इस कहानी से प्रभावित हुए और साथ दिया। ये कहानी और स्क्रिप्ट राम के साथ उनके करीबी दोस्त ऐरे गवडा ने लिखी है जिनके गांव में ही फिल्म स्थित है। राम तबला वादक हैं, फोटोग्राफी और अन्य कलात्मक गतिविधियों का शौक भी रखते हैं। उन्होंने 19 की उम्र में It's Raining in Maya नाम का नॉवेल भी लिखा। उनसे कुछ बात हुई। प्रस्तुत है:

क्या कर्नाटक के अलावा भी देश के किसी हिस्से में ये फिल्म रिलीज हो रही है?
इस चीज पर हम काम कर रहे हैं। आइडिया ये है कि अगर हम पहले अपने होम स्टेट और अपनी भाषा में सफल हो पाएं तो एक मजबूत स्थान पर होंगे और राष्ट्रीय स्तर पर वितरकों के पास जा पाएंगे। योजना है ये कि हम सही शो टाइमिंग प्राप्त कर सकें। जब तक हम कमर्शियल रूप से सफल नहीं होंगे, तब तक वितरक हमें हमारी मर्जी की शो टाइमिंग नहीं देंगे। मैं ये देख रहा हूं कि चाहे हमें कम शो ही मिलें लेकिन वो शाम के शोज़ हों या प्रमुख समय (रात) के शो हों जब लोग जाते ही हैं। क्षेत्रीय फिल्मों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर रिलीज का इतिहास आमतौर पर अच्छा नहीं रहा है। ऐसी जिन फिल्मों ने अच्छा प्रदर्शन किया है वे वो फिल्में रही हैं जिन्होंने छोटे स्तर पर शुरू किया और बाद में फैल गईं। तो ये सब कर्नाटक में तिथि की सफलता पर निर्भर करता है। अगर ये कमर्शियली सफल रही तो हम निश्चित तौर पर और जगह भी रिलीज करेंगे। मैं खास तौर पर चाहता हूं कि अंतत: इसे प्रमुख शहरों में ला पाऊं। निश्चित तौर पर मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, दिल्ली और अन्य बड़े शहर। हमारे वितरक बहुत रुचि ले रहे हैं कि हम एक-एक करके कदम बढ़ाएं और मैं सहमत हूं कि हमारे जैसी फिल्म के लिए यही सही रास्ता है।

क्योंकि शिप ऑफ थिसीयस जैसी कुछ फिल्मों ने हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय सम्मान पाया है और थियेटर्स तक पहुंची हैं..
हां, हालांकि उन्होंने पूंजीगत सफलता नहीं पाई है..

लेकिन बड़ी फिल्मों के समानांतर रिलीज हो पाना पहले यूं नहीं हो पाता था। जैसे आपकी फिल्म ने बाहुबली: द बिगिनिंग और बजरंगी भाईजान जैसी भीमकाय फिल्मों के साथ नेशनल अवॉर्ड पाया है। दर्शकों के बीच अब इन फिल्मों का फर्क मिट रहा है।
जी, सही है।

आपने तिथि बनाई, चैतन्य तम्हाणे ने कोर्ट या चाहें आनंद गांधी हों जिन्होंने शिप ऑफ थिसीयस बनाई.. आप लोग अचानक ही आए। न जाने इतने वर्षों से कहां, क्या कर रहे थे। फिर एकाएक अपनी ऐसी फिल्में ले आए जो रचनात्मक रूप से बहुत-बहुत अलग थीं और जिन प्रक्रियाओं के साथ आप लोगों ने बनाईं, वो भी। जैसे, आपने फिल्म बिलकुल अलग प्रक्रिया से बनाई। आमतौर पर कहानी और स्क्रीनप्ले पहले आता है और बाद में निर्माता से मिला जाता है और बाद में कास्टिंग होती है, फिर लोकेशन ढूंढ़ी जाती है लेकिन आप पहले एक गांव (नोडेकोप्लु, जिला मंड्या, कर्नाटक) गए। फिर लोगों से मिले। फिर पात्र ढूंढ़े। फिर कहानी और स्क्रिप्ट आई।  ये विशेष तरीका था। यहां तक कि फिल्म स्कूल से पढ़ते हुए भी आपको ऐसा तरीका नहीं सिखाया गया होगा।  आप जैसे फिल्मकारों का ये दृष्टिकोण क्या है?
मुझे लगता है कि इसके पीछे कुछ वजहें हैं। पहली, डिजिटल माध्यम लोगों को उस लागत पर फिल्म बनाने की अनुमति दे रहा है जो किफायती है। जिससे निर्माता ऐसे आइडियाज़ पर जोखिम ले पा रहे हैं जो अन्यथा कर पाना संभव न था। अगर बजट बड़ा न हो तो मेरे हिसाब से तिथि हम फिल्म फुटेज पर बना ही नहीं सकते। क्योंकि फिल्म फुटेज की बर्बादी और 100 ग्रामीण अभिनेताओं के साथ आप जोखिम नहीं ले सकते। ये संभव नहीं। ये उन प्रमुख कारणों में से है जिससे कुछ ऐसा घटित कर पाने की क्षमता हो पाती है। और संभवत: कोर्ट जैसी फिल्म के साथ भी ये सही बैठता है। इसमें भी बहुत सारे टेक-रीटेक हुए थे। इस स्थिति में किसी इंडिपेंडेंट फिल्म को फिल्म रील पर शूट कर पाना संभव ही नहीं है। गैर-पेशेवर अभिनेताओं के साथ काम करने और उन्हें सिनेमाई परदे पर लाने में अब तकनीक बहुत मदद कर रही है।
   ये एक बात है। दूसरी वजह ये है कि ऐसी फिल्में जो सफल हो पाई हैं उनके पीछे ऐसे निर्माता थे जिन्होंने बिना किसी शर्त पूरे मनोयोग से अपना समर्थन दिया। जैसे चैतन्य के साथ विवेक (गॉम्बर) थे। उन्होंने चैतन्य के दृष्टिकोण में अपना भरोसा रखा और उन्हें पूरा समर्थन दिया। ये फिल्में ऐसी हैं जो बनानी आसान नहीं हैं और उनके लिए आपको किसी निर्लिप्त भाव वाले निर्माता की जरूरत पड़ती है। ऐसे बहुत-बहुत फिल्मकार हैं जिनके पास कुशलता है लेकिन जब ऐसी (तिथि) कहानी हो और आप शूट कर रहे हों और जब तक आप बनाने के जटिल और मौलिक रास्ते को सोच पाते हो आपका समय पूरा हो चुका होता है। मैं शिप ऑफ थिसीयस के बारे में बहुत ज्यादा तो कुछ नहीं जानता लेकिन इसे बनाने में बरसों लगे। मुझे लगता है फिल्म 2 से 3 साल तक धन जुटाने में लगी रही। तो चाबी यही है कि लंबे समय तक ऐसी परियोजनाओं में जुटे रह सकें और निर्माता का बेशर्त समर्थन मिले।
   तीसरी वजह ये है कि हमारी प्रक्रियाएं इससे तय होती हैं कि एक खास किस्म की फिल्ममेकिंग के पीछे इरादा क्या है? तो अगर मैं पहले स्क्रिप्ट लिख लेता और फिर किसी गांव में जाकर स्क्रिप्ट की परिस्थितियों का मेल बैठाने की कोशिश करता तो ऐसा नहीं कर पाता। क्योंकि आप उन ग्रामीणों को उस झुकाव तक नहीं ले जा सकते जहां वे कोई और ही इंसान बन जाएं और ऐसा करना हमारे इरादा भी नहीं है। अगर मुझे पेशेवर एक्टर्स मिलते तो मैं एक बुरी फिल्म बनाकर उठता। ऐसा होना ही चाहिए कि गैर-पेशेवर अभिनेता आपके स्क्रीनप्ले को सूचित करें। किसी भी गैर-पेशेवर एक्टर वाली फिल्म में ये मूलभूत ही है कि उन एक्टर्स के व्यक्तित्व और उनका मनोविज्ञान आपको बताए कि उनका किरदार कैसे लिखा जाना है। या तो ऐसा हो, नहीं तो फिर आप महीनों, महीनों तक कास्टिंग करते रहें.. जैसे कोर्ट ने महीनों, महीनों कास्टिंग की। हजारों और हजारों ऑडिशन लिए गए। ये कुछ ऐसे तत्व हैं जो फिल्म की मौलिक और अपरंपरागत प्रक्रियाओं में योगदान देते हैं और मौजूदा से जरा अलग होते हैं।

और दर्शकों का क्या? जिस गति और स्तर तक फिल्ममेकर विकसित हो रहे हैं क्या दर्शक भी उतना बदले हैं या पहले जैसे ही बने हुए हैं?
ये विशुद्ध रूप से इस कारण से कि हमारे यहां 100 करोड़ से ज्यादा लोग हैं और ये दुनिया के सबसे युवा देशों में शुमार होता है। मुझे लगता है हमारे यहां पॉपुलर कल्चर काफी ज्यादा उदार और असंकीर्ण है, जो ऐसा होने दे रहा है। और इस प्रकार के कंटेंट के लिए बाजार भी तैयार हो चुका है। आमतौर पर हम विशुद्ध कमर्शियल फिल्मों के कल्चर से ही आते हैं जहां पर कहानी कहने के खास तरीके को स्टैंडर्ड बना दिया गया है लेकिन फिर भी बदलाव हो रहा है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि जैसे मैंने कहा हम एक बहुत युवा देश हैं और नई पीढ़ी की तादाद काफी है। हमारे यहां सबसे ज्यादा जनसंख्या 20 से 30 के आयुवर्ग की है। उनका जायका अभी निर्मित हो रहा है, बदल रहा है। चूंकि ये इतना युवा देश है तो चीजें बदल रही हैं। स्वाद के हिसाब से भी इंटरनेट के जरिए हमारी अंतरराष्ट्रीय विषय-वस्तु तक पहुंच है। अब ऐसी फिल्में विदेशों में ही सीमित नहीं है और हम सिर्फ अपने तक ही सिमटे नहीं रह गए हैं। एक समय ऐसा था जब हम सिर्फ बॉलीवुड या क्षेत्रीय भाषा वाला सिनेमा देखते थे लेकिन इंटरनेट के कारण अब स्थिति वैसी नहीं है। लोग दुनिया भर का सिनेमा देख रहे हैं।
   हमारे यहां ऐसे अंग्रेजी चैनल हैं जो ऐसी फिल्में दिखा रहे हैं जो सिर्फ हॉलीवुड की नहीं हैं। अलग-अलग दिशाओं से नए जायकों की पैदावार हो रही है। तो दर्शक भी बदल रहे हैं। हालांकि बड़ा जमीनी जन-समूह नहीं बदल रहे। अगर तिथि जैसी फिल्मों को एक कमर्शियल वितरक ले रहा है और उसकी कमर्शियल रिलीज हो रही है तो इसका मतलब है कि इस उद्योग ने ऐसे दर्शक तो पैदा किए हैं। अब इंटरनेट भी बराबरी की जमीन तैयार कर रहा है, वो आर्ट का लोकतंत्रीकरण कर रहा है। जनसमूह अब दक्ष और विशेषज्ञ हो चुके हैं। सिनेमा में और मांग कर रहे हैं। वो बहुत ज्यादा उपभोक्तावादी होते जा रहे हैं, इस लिहाज से कि वे चुनने के लिए विकल्प चाहते हैं। मैं कभी भी कमर्शियल सिनेमा के खिलाफ नहीं रहा हूं। मैं बस वैरायटी चाहता हूं। सिनेमाघरों में कमर्शियल स्तर पर वैरायटी। जैसे कि फूड कोर्ट होते हैं जहां हर तरह के व्यंजन का विकल्प होता है। जब आप एक मल्टीप्लेक्स जाते हैं तो आपके पास एक विशुद्ध कमर्शियल फिल्म देखने का विकल्प भी होना चाहिए, एक एिनमेटेड फिल्म का भी और एक इंडिपेंडेंट फिल्म का भी। चॉयस हमेशा वहां होनी चाहिए। इन सबका सह-अस्तित्व होना चाहिए।

मान लें कला के लोकतंत्रीकरण के बाद, आज से 20-30 साल बाद जब वो आदर्श स्थिति फिल्म निर्माण विधा में आए तो वो क्या हो?
ऐसी स्थिति जहां निर्माता कम शर्तों के साथ मौजूद हो। अगर आप एक निर्माता हैं और निर्देशक का साथ मुक्त भाव से दें तो वही कुंजी है। क्योंकि मुझे लगता है हम एक इंटस्ट्री के तौर पर वहां जूझ रहे हैं कि निर्माता कला के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि धन के दृष्टिकोण से निर्देशक को सहारा देते हैं। मैं ये कह रहा हूं कि आप निर्माता हैं तो किसी भी डायरेक्टर को ही चुन लीजिए, कोई ऐसा ले लीजिए आपके हिसाब से जिसके नजरिए में कमर्शियल तत्व हैं। एक निर्माता के तौर पर ये आपका अधिकार क्षेत्र है कि ऐसा निर्देशक चुनें जो आपको ठीक लगे लेकिन फिर आपको उसे पूरा सपोर्ट देना होगा और आपको ये समझना होगा कि ये क्षेत्र गुणवत्ता का है, यही पहला कदम होना चाहिए और यहीं पहुंचने में हम संघर्ष कर रहे हैं। आप सीधे आकर ये नहीं कह सकते कि फिल्म को 10 मिनट छोटा कर दो। आप ऐसा कर सकते हैं लेकिन आर्ट की देखरेख की भावना के साथ और ये अभी भी हमारे देश में होता नहीं है।
   दूसरी चीज है वितरण अधिकार। अच्छे कंटेंट से संचालित होने वाली फिल्मों या कथ्य उन्मुख फिल्मों के वितरण की समस्या आती है। ये चिकन और एग वाली स्थित है। वितरक आपका साथ तभी देगा जब फिल्म को दर्शक स्वीकार करें, दर्शक उसे तभी स्वीकार करते हैं जब आप थीम मुताबिक चुनो.. और उनकी यही जड़ता बनी हुई है। तो मेरे लिए आदर्श स्थिति वो होगी जब निर्माता अपने निर्देशक को निष्काम भाव से सपोर्ट करे और उसमें पूरा भरोसा जताए। चाहे उसके लिए किसी ऐसे को चुन लोग जिसका दिमाग कमर्शियल हिसाब से सोचता हो लेकिन फिर उसे पूरी तरह समर्थन दो। और वितरकों को फिल्म चुननी चाहिए जब वे उसके कंटेंट में विश्वास रखते हों। कलात्मक फिल्म को भी ऐसे ही बेचो जैसे किसी कमर्शियल फिल्म को बेचोगे। और धीरे-धीरे लोगों का स्वाद बदलेगा। एक कम से कम नियंत्रण वाली फिल्म इंडस्ट्री बहुत फायदे की होगी। जो एक तरह से सेक्युलर हो, जहां जियो और जीने दो वाली बात हो।
  मैं ये पूरी यकीन से सोचता हूं कि इंटरनेट आने वाले पांच से दस बरसों में फिल्म वितरण को पूरी तरह से बदल देगा। अभी वैश्विक वितरण व्यवस्था की योजना में सिनेमाघर जहां खड़े हैं, वो हाल पूरी तरह बदल जाएगा। जैसे, सभी ए-लेवल के फिल्म फेस्टिवल, स्टूडियोज, नेटफ्लिक्स और अन्य सभी मंच पारंपरिक वितरकों को पूरी तरह बेदखल कर दे रहे हैं। अब सारी अर्थव्यवस्था इंटरनेट पर आ गई है। और जब अर्थव्यवस्था इंटरनेट पर है तो बहुत सारी चीजें बदल जाती हैं। इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए आप हजारों फिल्मों से महज एक क्लिक की दूरी पर होते हो। इस अनुभव को पाने के लिए आप जो प्रयास अभी करते हैं वो काफी अलग है जैसे आप पैसे देते हैं, कार में बैठते हैं, थियेटर जाते हैं। तो जड़ता का जाना जरूरी है। और कंटेंट का लोकतंत्रीकरण इस लिहाज से इंटरनेट से होगा। वितरण के मंच भी बदलेंगे। एक फिल्ममेकर होने के लिए ये बहुत अच्छा वक्त है। मैं सोच रहा था कि अगर 20 साल पहले पैदा हुआ होता तो कुछ भी समान न होता।

मार्क जकरबर्ग ने भी वर्चुअल रिएलिटी के आविष्कार ऑक्युलस रिफ्ट में धन (2 बिलियन डॉलर में खरीदा) लगाया है जो वीडियो देखने के अनुभव को बिलकुल बदल देगा..
हां, बिलकुल। आनंद गांधी भी इसमें पूरी तरह लगे हैं। मैंने हाल ही में बॉम्बे में उनके साथ वक्त बिताया और वो ये महाकाय रिग्स बना रहे हैं और पूरी तरह वर्चुअल रिएलिटी पर काम कर रहे हैं। मुझे लगता है कि ये निश्चित तौर पर भविष्य होगा कि हम आर्ट का अनुभव कैसे लेते हैं। ये छोटे से शुरुआत करेगा लेकिन बाद में एक नया अनुभव और अपने आप में नया माध्यम बन जाएगा।

आर्ट में आविष्कार की हद तक ऐसे प्रयत्न हो रहे हैं। जैसे आपने तिथि की एक तरह से खोज ही की। या फिर स्वीडिश बैंड विंतरगेतान (Wintergatan) का काम। जैसे इन लड़कों ने एक ट्रैक बनाने के लिए अनोखी वैज्ञानिक मशीन बनाई जिसे बनाने में 11 महीने लगे।
हां, है न ये पागलपन (हंसते है).. मार्बल्स के स्वर..

ऐसे तमाम प्रयोगी लोगों का नाम इतिहास में लिखा जाएगा कि ये अपने समय के ऐसे रचनाकार थे और बिलकुल नए तरीके से सोच रहे थे। क्योंकि अभी हमारे दिमाग रेडीमेड रास्तों पर ही डेरा डाले हैं। जब भी हमें रचनात्मकता में कोई संदर्भ लेना होता है तो हम सैकड़ों या हजारों साल पहले की कृतियों पर चले जाते हैं। अगर हमें संगीत पर बात करनी है तो हम क्लासिकल (दक्षिण भारतीय, हिंदुस्तानी) के बारे में बात करने लगते हैं लेकिन हम मौजूदा संगीत से ऐसे संदर्भ नहीं दे पाते क्योंकि मौजूदा समय में कोई ऐसी रचना नहीं कर रहा। तिथि में आपने कुछ अपने मुताबिक ही रचा है जिसमें कोई स्टार नहीं है, कोई गाना उस लिहाज से नहीं है, इसमें काम कर रहे लोगों को कोई मैथड एक्टिंग भी नहीं आती, वो नवाजुद्दीन सिद्दीकी या इरफान खान जैसे मंझे अभिनेता भी नहीं हैं, आप खुद भी पहली बार के निर्देशक हैं, उम्र में भी कम हैं लेकिन फिल्म ऐसी रचकर लाए हैं जिसमें एक भी नोट हिला हुआ नहीं है। मौजूदा परिदृश्य में युवा लोगों के जेहन में चीजों की खोज करने और रचने की प्रवृति को कैसे देखा जा सकता है? कला और तकनीक में वे गुजरे वर्षों की प्रक्रियाओं को अपना नहीं रहे बल्कि अपने ही आविष्कार कर रहे हैं।
एक तो ये कि पुराने ढांचों के कारण हमारे भीतर के कलाकारों को अपनी आवाज नहीं मिल पाई थी, इंडस्ट्री और इसके स्ट्रक्चर्स की बात हमने की थी। फिल्म को आवश्यक रूप से कभी विशुद्ध आर्ट नहीं माना गया। शायद 70 के दशक में माना गया है तो समानांतर सिनेमा का आंदोलन शुरू हुआ था लेकिन बाद में वो भी बिजनेस बनकर रह गया। इस गतिरोध को तोड़ने में हम आर्टिस्ट लोगों की बड़ी रुचि है। जैसे कि किताबें लिखी जाती हैं। ये बहुत रोचक है कि कैसे जादुई यथार्थवाद (Magic realism) को सिनेमा का जॉनर नहीं माना जाता। और मैं कहूंगा वो सिर्फ इसलिए क्योंकि निर्माता इस श्रेणी की फिल्मों में धन नहीं लगाते। जबकि लेखक अपने कमरों में बैठे इन पर किताबें लिख रहे हैं। फिल्मों में जादुई यथार्थवाद क्या करता है कि ये आपको ज्यादा रचनात्मक बनने का अवसर देता है, अगर आप नायकत्व (Heroism) पर फिल्में बना रहे हैं तो ऐसा नहीं कर पाते हैं। तो आर्टिस्ट लोगों में रचनात्मकता के प्रति एक अंतर्निहित झुकव होता है। मुझे लगता है अब ऐसे निर्माता हैं जो समग्र भाव से साथ दे रहे हैं। और आपके पास कुछ नया आजमाने की जगह है और आप अपने अंदर के कलाकार को ऐसा करने देते हैं। तो ये निश्चित रूप से एक प्रमुख वजह है।
   एक अन्य बात और है कि दुनिया में हर साल बहुत सी फिल्में बनती हैं। जैसे किसी ने मुझे आंकड़ा बताया था जो गलत भी हो सकता है कि हर साल अच्छी प्रोडक्शन वैल्यू की और अच्छे निर्देशकों की करीब 600 फिल्में रिलीज होती हैं। हर साल 15,000 फिल्में बनती हैं। अगर हम भारत की बात करें तो यहां स्थिति और भी दीवानगी भरी है। यहां हर साल हजारों फिल्में बनती है जो खास नहीं हैं। अगर सालाना 15,000 वैश्विक फिल्मों की बात करें तो उनमें से 50 के करीब फिल्में ही हैं जो सिनेमाघरों में रिलीज और लोगों के बीच लोकप्रियता के लिहाज से वर्ल्ड सिनेमा सक्सेस बन पाती हैं। जैसे इस साल सन ऑफ सॉल (Son of saul), मस्टैंग (Mustang) और एम्ब्रेस ऑफ द सरपेंट (Embrace of the serpent)। दुनिया की उन 15,000 फिल्मों में से आप करीब ऐसी 50 फिल्मों को हटके गिन सकते हो। अब अगर आप मौलिक नहीं होंगे तो फिर उन 15,000 फिल्मों से आपको क्या बात अलग करती है? तो ये कुछ आर्ट की बात है और कुछ विश्व परिस्थिति को समझने की बात है। तो आपको खुद को अपनी हदों के पार धकेलना होगा, मौलिक होना होगा, समझदार होना होगा और जो भी रचने जा रहे हैं उसे लेकर ईमानदार होना होगा।
   अगर आप रचनात्मक और मौलिक होकर ऐसी एक्सपेरिमेंटल फिल्म बना देते हैं जो किसी आर्ट इंस्टॉलेशन जैसी है तो आप सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पाएंगे, ये असंभव होगा। लेकिन अगर आप मौलिक होंगे और एक अलग तरीके की कथानक आधारित फिल्म बनाएंगे तो उन 15,000 फिल्मों से अलग हो पाने का रास्ता बन पाएगा। और शायद उन 20 फिल्मों में भी शामिल हो सकते हैं जो विश्व स्तर पर असर डालती हैं। इसी तरह भारत में, मुझे लगता है ऐसी ही चीजें हैं जो लोगों को तय पैमाने से भी आगे जाने और अलग चीजें आजमाने की ओर धकेल रही हैं। जिस किस्म की मौलिक फिल्में आ रही हैं उससे मैं ये महसूस कर रहा हूं कि अगले पांच साल में परिणाम और बेहतर से बेहतर होते जाएंगे। 
   मैं ये भी सोचता हूं कि इंडिपेंडेंट फिल्मों के मुल्क के तौर पर हम अभी शुरुआत ही कर रहे हैं। जैसे हमारी इंडी फिल्में अभी भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हैं। वे अभी भी ऑटरनुमा (auteuristic) नहीं हैं। कोर्ट ऐसी फिल्म है जो पूरी तरह ऑटरनिर्मित थी। पूरी तरह। निश्चित तौर पर इसके साथ ही एक ऑटर (चैतन्य तम्हाणे) का जन्म हुआ है। ये बहुत ही विशुद्ध और बहुत ही बढ़िया तरीके से बनाई गई है। लेकिन मैं कहूंगा कि आम इंडी फिल्म सर्किट अभी भी भावुक है और उसमें दर्शक पाने की चाह बनी हुई है। लेकिन एक ऑटर वो है जो दर्शकों की इज्जत जरूर करता है लेकिन वो फिल्में उनके लिए नहीं बनाता है।

क्या आप कर्नाटक फिल्म उद्योग के लोगों के साथ फिल्म बनाएंगे? उन्होंने आपकी बहुत तारीफ की है। आपको कर्नाटक का गौरव कहते हैं। हालांकि वे आपकी फिल्ममेकिंग के बिलकुल विपरीत हैं। क्या आपको लगता है कि तिथि उन्हें अलग तरीके से फिल्म बनाने के लिए प्रेरित करेगी? क्या आप कर्नाटक फिल्मों के सितारों के साथ काम करेंगे?
एक करियर की अवधि में कुछ भी हो सकता है। मैं आमतौर पर मौजूदा पल में ही समर्पित रहता हूं। जैसे अभी मैं जो कर रहा हूं। वैसे सामान्य तौर पर मैं किसी एक इंडस्ट्री में यकीन नहीं रखता। मैं इंडस्ट्री के आधार पर सोचता भी नहीं हूं चाहे वो कर्नाटक हो या राष्ट्रीय स्तर पर। मैं जैसी फिल्में बनाता हूं उन्हीं के लिहाज से सोचता हूं। मैं कभी किसी भी चीज से उत्प्रेरित हो जाऊंगा और महसूस करूंगा कि यही वो चीज है जो मैं करना चाहता हूं और उसे बनाने के लिए जो भी रास्ता या आभियांत्रिकी चाहिए वो करना शुरू कर दूंगा। लेकिन तब तक किसी फिल्म उद्योग में काम करना बड़ा मुश्किल है जब तक वे मुझे मेरी मर्जी की फिल्म बनाने में मदद न करें। और अभी ऐसा संभव कम ही लगता है। मैं फिल्में बनाने का काम किसी पूंजीगत प्राप्ति या किसी और चीज के लिए नहीं कर रहा हूं। मैं ये आर्ट के लिए कर रहा हूं। मैं जागरूकता के साथ रचित कला को पसंद करता हूं। इस संदर्भ में कि मैं जानता था कि तिथि ऐसी फिल्म है जिसे पसंद किया जा सकता है और उसी लिए मैंने उसे एक खास तरीके बनाया। मैं इसे फनी बनाना चाहता था। हम जानते थे कि लोगों को हंसना पसंद है। अगर आप ये जानते हैं तो महसूस कर लेंगे कि आपकी फिल्म की तैनाती कैसे कर सकते हैं ताकि ये सफल हो सके। ये नहीं कि ये कला में योगदान दे बल्कि कैसे ये आर्थिक ढांचे वाली दुनिया में सफल हो सके। आपके सवाल का जवाब दूं तो मूलत: ये निर्भर करता है कि फिल्म का आइडिया क्या है? बाकी सब कुछ उल्टे क्रम में सोच (backward engineered) लेता हूं। अगर फिल्म का आइडिया गैर-पेशेवरों के साथ काम करने को कहेगा तो मैं उनके साथ काम करूंगा। अगर आइडिया कहता है कि मुझे रेगिस्तान में जाकर सिर्फ एक आदमी के साथ अपनी फिल्म बनानी है तो मैं बनाऊंगा। ये सब निर्भर करता है कि विचार को क्या दरकार है।

आप कैसे तय करते हैं कि संबंधित पल में जो आइडिया आपको आया वो अंतिम है? और वो उस अंतिम रचना में तब्दील हो ही जाएगा जैसे आप कल्पना कर रहे हैं। आपके जेहन में कई आइडिया होते हैं आप किसी एक को कैसे तय करते हैं? चुनने का पैमाना क्या है? या ये सिर्फ गट फीलिंग होती है?
मुझे लगता है ये गट फीलिंग ही है। निजी रूप से देखें तो अलग-अलग लोगों की अलग प्रक्रियाएं होती हैं। मैं सिर्फ एक ही आइडिया पर पूरी तरह फिक्स हो जाता हूं। मैं जब एक आइडिया खड़ा कर रहा होता हूं तो खुद को अन्य विचारों पर मंडराने नहीं देता हूं। मैं खुद को कहीं भी और जाने की अनुमति नहीं देता। मैं सिर्फ और सिर्फ एक आइडिया के बारे में सोचता हूं कि उसे बनाऊंगा कैसे? शुरुआत एक दृश्य से भी हो सकती है, एक फीलिंग से भी हो सकती है और फिर उसे आगे निर्मित करने की प्रक्रिया होती है। बेहद सूक्ष्म आइडियाज़ के निर्माण से ये शुरू होता है। मैं अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों को भी जानता हूं जो इस प्रक्रिया में बहुत ही प्रतिभाशाली और विरले हैं। वो इतनी तेजी से काम करते हैं और इतनी मजेदार फिल्में बनाते हैं। मुझे उनकी प्रक्रियाएं बहुत पसंद है। लेकिन मैं उन जितना कुशल और गतिशील नहीं हूं। मैं धीरे-धीरे सोचता हूं। और आगे बढ़ता हूं। मैं कुछ भी लिखकर उसे रद्दी में नहीं फेंकता। बंद नहीं करता। कभी नहीं। अगर मैं कुछ लिखता हूं और मुझे वो पसंद नहीं आता तो मैं उसे दोबारा लिखता हूं। 
   मेरी निजी प्रक्रिया ये हुई कि गट फीलिंग से पहला आइडिया आता है और फिर सूक्ष्म आइडियाज़ का एक अनुशासित निर्माण होता है और कुछ वक्त तक मैं पीछे मुड़कर नहीं देखता। जैसे मैंने 18-19 की उम्र में एक नॉवेल लिखा था। वो तिनके से शुरू किया था और उसे खत्म करना आसान नहीं था। मैंने उसकी हर चीज को बार-बार लिखा। हर अध्याय को। मुझे इसे लिखने में 3 साल लगे। ये मेरे जीवन का पहला इतना लंबा लेखन था और मुझे बड़ी मुश्किल हुई थी। लेकिन मैंने अधूरा नहीं छोड़ा, पूरा किया। मैं कभी चीजों को यूं जाने नहीं देता हूं। ये बहुत जरूरी है कि आप एक बार किसी चीज को लेकर प्रतिबद्धता जता दें तो फिर उसे पूरा करें।

अगर मैं 25 के करीब हूं और किसी भी आर्ट फॉर्म में अपना करियर शुरू कर रहा हूं और जब मैं रचनात्मक फैसले ले रहा हूं तो मुझे लगता है कि ऐसी एक अंदरूनी व्यवस्था भीतर है जो मुझे ये काम सक्षमता से करने दे रही है। ये व्यवस्था या ताकत उस रचनात्मक महौल से भी आती है जो बचपन में हमें मिलता है। माता-पिता ने हमें जो कहानियां सुनाई हो, हमें फिल्में दिखाने ले गए हों। हमारे पूर्व जीवन में ऐसी क्रियाओं से हम उम्दा फैसले इस उम्र में जाकर ले पाते हैं। जैसे आपने कहा कि एक खास स्पष्टता चीजों को लेकर है और एक बार जो शुरू करते हैं उसे खत्म करते ही हैं। आपके जीवन में ये मूल्य और व्यवस्था कैसे आई?
मेरा पूरा परिवार ही परफेक्शनिस्ट लोगों का है। हम लोगों पर कभी दबाव नहीं रहा कि अपने इस परफेक्शन को किसी खास क्षेत्र में ही भेजना है। मैं कलाकारों के परिवार से नहीं आता हूं लेकिन वहां विचार ये रहा है कि एक बार जो भी चीज हम उठाएं तो उसे पूरे समर्पण के साथ करें। मेरी मां (अनीता रेड्‌डी, पद्मश्री) सोशल वर्कर हैं। मैं ऐसे किसी को नहीं जानता जो उनसे ज्यादा काम करता हो। काम को लेकर उनके मूल्य पागलपन की हद तक हैं। उनके अंदर बहुत सारी ऊर्जा है। हमारी परवरिश ऐसे हुई और हममें ये विकसित किया गया कि हम हटके हो सकते हैं लेकिन जो भी करेंगे वो अपने सर्वश्रेष्ठ, कड़ी मेहनत और अनुशासन के साथ। मैं कुछ भी बन सकता था। विज्ञान का क्षेत्र ले सकता था। अर्थशास्त्री बन सकता था। उस दौरान भी मेरा अंदाज इसी तरह का होता।

आपके पिता और भाई? उनसे क्या प्रेरणा मिली?
बहुत। मेरे पिता (प्रताप रेड्‌डी) तिथि में पहले निर्माता भी हैं। हम एक अध्यात्म-उन्मुख परिवार हैं। अाध्यात्मिकता इस हिसाब से नहीं कि किसी धर्म से जुड़े हैं बल्कि अपने भीतर की ओर एक यात्रा। मेरे पिता स्पिरिचुअली बहुत केंद्रित हैं। मेरे जीवन के सबसे स्थिर, अपनी जड़ों में केंद्रित और बेफिक्र लोगों में वे हैं। मेेरे जीवन में बेपनाह स्थिरता उनसे आती है। चाहे कोई भी संकट आ जाए उनको कोई फर्क नहीं पड़ता, उनकी स्पिरिचुअल ताकत की वजह से। मेरे भाई (सिद्धार्थ रेड्‌डी) के साथ भी ऐसा ही है। वो भी आर्टिस्ट हैं। वो वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी करते हैं। स्टॉक मार्केट में भी हैं। वो भी अाध्यात्मिक हैं। अाध्यात्मिक वातावरण कला में पवित्रता और विचारों में पवित्रता लाता है। चीजों की ओर देखने का बहुत ही सीधा और सपट तरीका, बहुत जटिल नहीं, बहुत दुनियावी नहीं। इसी से एक किस्म का खुलापन आता है। मेरी बहन (पूजा रेड्‌डी नाकामूरा) भी हैं जो पूरी तरह अलग हैं। उनके पास भाषा विज्ञान (Linguistics) में पीएचडी है। वो अमेरिका में हैं। तो हम पांच लोगों का परिवार है। खुश रहते हैं, खुश रहने देते हैं। इस वातावरण से सारा फर्क पड़ा। खासतौर पर बचपन के उन अनुभवों के बिना आज ये जज़्बा और खुशी नहीं होती।

बचपन में कॉमिक बुक्स, कहानियां, संगीत किस पर जोर था?
म्यूजिक से तो मैं आज भी प्यार करता हूं। ये ऐसी कला है जो मुझे सबसे ज्यादा भावुक करती है। संभवत: फिल्मों से भी ज्यादा।

आप साज भी बजाते हैं।
हां, मैं तबला बजाता हूं। अपने लिए बजाते हुए आनंद लेता हूं। आर्ट फॉर्म के तौर पर मैं संगीत का सबसे ज्यादा अहसानमंद हूं।

ये तिथि की धुनों में दिखता भी है जो बहुत अलग है। फिल्म देखने के अनुभव और कहानी को अलग ही आवरण दे देता है। पर अन्य साहित्य और फिल्मों में क्या पसंद रहा?
मैं पढ़ता बहुत था। इतनी फिल्में नहीं देखी थीं। पढ़ने में मुझे जादुई यथार्थवाद बहुत पसंद रहा है। ये जॉनर मुझे बहुत लुभाता है। अपनी फिल्मों में भी मैं इसे निश्चित तौर पर टटोलना चाहूंगा। मुझे लगता कि अपने सिनेमा में इसे ज्यादा एक्सप्लोर नहीं किया गया है और दर्शकों को ये सही रूप में समझ भी नहीं आता। लेकिन लोगों को चम्मच से तो वो नहीं खिला सकते न जो वो देखना चाहते हैं। बहुत से लोग रहे हैं जो जब मैजिक रियलिज़्म में सफल रहे हैं तो उन्होंने बहुत ही अच्छा किया है। मुराकामी (Haruki Murakami), मार्केज़ (Gabriel García Márquez), येन मार्टल ( Yann Martel), इटालो कैल्वीनो (Italo Calvino) कुछ ऐसे लोग हैं जो बहुत ही ताकतवर मूड रचते हैं, और उनका यथार्थ उनके कलात्मक मनोवेग के लिए इतना मौलिक है कि उनके जैसे कोई नहीं कर सकता। इन लोगों की दुनियाएं भी बेहद विशेष तरह की हैं। जैसे लाइफ ऑफ पाई की दुनिया ऐसी है जो कभी उस तरह से फिर नहीं रची जा सकी है। ये जैसे लिखी गई है उसमें भी सच्ची है और जैसे प्रस्तुत की गई है उसे लेकर भी सच्ची है। इसका स्वरूप (form) से बहुत लेना देना है। जैसे मुझे लगता है कि मैजिक रियलिज़्म में फॉर्म और कंटेंट समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। मैं ये नहीं कहता कि कंटेंट महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ कंटेंट से संचालित होने लगें और फॉर्म जरूरी न लगे। इन लोगों का फॉर्म और कथानक का संतुलन मुझे बहुत-बहुत पसंद है। मैं इसे अपनी आने वाली परियोजनाओं में काफी बरतूंगा। तिथि में जितना किया है उससे भी ज्यादा। तिथि ज्यादा यथार्थवादी है और ऐसे ही हमने इस बनाया लेकिन मैं खुश होऊंगा अगर इसे बहुत निजी रूप में एक्सप्लोर कर पाया तो।

मैजिक रियलिज़्म जॉनर की कौन सी फिल्में आपको सबसे अच्छी लगती हैं?
कहना कठिन है। इस सवाल से मैं हमेशा जूझने लगता हूं। मैं बताता हूं कि मैजिक रियलिज़्म में कुछ उल्लेखनीय फिल्में हैं जो मेरी पसंदीदा नहीं हैं। जैसे Eternal Sunshine of the Spotless Mind (2004) उल्लेखनीय है। Groundhog Day (1993) उल्लेखनीय है। मुझे ऐसा भी लगता है कि In the Mood for Love (2000) जादुई यथार्थवाद है। हालांकि ये नहीं है लेकिन जैसे ये चरम पर जाती है वो बहुत ताकतवर है। मियाज़ाकी (Hayao Miyazaki) के कुछ एनिमेशन हैं मैजिक रियलिज़्म के दायरे में हैं। मैजिक रियलिज़्म और फैंटेसी के बीच बड़ी महीन रेखा है। अब मैड मैक्स (Mad Max 1979-2015) जैसी फिल्म को लें जिसे मैं शायद फैंटेसी की ओर जाता हुआ देखता हूं लेकिन इसे मैजिक रियलिज़्म कहा जाता है। इसमें कई तत्व ऐसे हैं जो फैंटेसी जॉनर में आते हैं। बहुत से ईस्टर्न यूरोपियन सिनेमा में मैजिक रियलिज़्म के तत्व हैं। मुझे महीन मैजिक रियलिज़्म पसंद है जो परत में चलता है न कि फैला हुआ। मैंने मैजिक रियलिज़्म पर शॉर्ट फिल्में बनाई हैं। "बसंत’ (Jaro, 2013) चैक गणराज्य में स्थित थी, "पंख’ (Ika, 2012) तेलुगु में थी। इन्हें देखेंगे तो जान पाएंगे कि मैजिक रियलिज़्म में मेरी रुचि किसमें हैं। एक आर्टिस्ट के तौर पर इसमें मैं क्या ढूंढ़ना चाहता हूं। तिथि में ये उसकी लय और चीजों में नजर आता है।

आपने कहा कि जीवन के शुरुआती वर्षों में ज्यादा फिल्में नहीं देखी, तो जब विश्व सिनेमा से वास्ता पड़ा तो किन फिल्मों ने आपको बहुत प्रभावित किया?
जैसे बहुत से फिल्मकार कहते हैं कि उन्होंने रेजिंग बुल (Raging Bull, 1980) या कोई एक फिल्म 10 बार देखी और उनकी जिदंगी बदल गई। ईमानदारी से कहूं तो मेरे लिए कोई ऐसी एक फिल्म नहीं थी जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। जब मैं सेंट स्टीफंस में पढ़ने लगा तो मैंने अलग-अलग तरह की बौद्धिक फिल्में देखीं और लेखन देखा। तब मैं वर्ल्ड सिनेमा से थोड़ा-बहुत परिचित हुआ ही था। पहली फिल्म जो मैंने देखी वो ईरानी थी। बहुत से लोग वर्ल्ड सिनेमा में अपनी शुरुआत ईरानी फिल्मों से ही करते हैं। मैंने तुर्की की भी कुछ फिल्में देखीं। ऐसी फिल्मों में आप लोगों को इस आर्ट फॉर्म पर बिलकुल अलग तरीके से काम करते देखते हैं और आप पाते हैं कि उनके लिए एक फिल्म कितनी अहमियत रखती है। गस वन सांत (Gus Van Sant) की शुरुआती फिल्में मैंने देखी। मेरे मन में उन्हें लेकर बड़ी इज्जत जन्मी। मुझे याद है उन्हें देखते हुए मैं सोचता था कि इस आदमी में माद्दा है। उनकी फिल्मों का ढांचा ऐसा होता है कि .. जैसे उनकी एक फिल्म है एलीफेंट (Elephant, 2003) जो मुझे इतनी ज्यादा प्रिय नहीं है लेकिन ऐसी फिल्म बनाने में बहुत जिगरा लगता है। आपके पास जिगरा होना चाहिए कि किसी को 70 मिनट तक बोर करो और आखिरी 3 मिनट में शॉक कर दो। फिर मैंने वॉन्ग कार-वाय (Wong Kar-wai) की फिल्में देखनी शुरू कीं जो इतनी काव्यात्मक थीं, कथ्य-हीन से स्वरूप वाली जहां चीन में स्थित फिल्म में वे स्पेन का म्यूजिक देते हैं। ऐसी चीजें सिनेमा क्या होता है इसे लेकर आपके विश्व दर्शन को फैलाव देती हैं। वहीं आप जब हॉलीवुड या ऐसी आम फिल्में देखते हुए बड़े होते हैं तो ऐसा नहीं हो पाता। मैंने धीरे-धीरे फिर खुद को निर्मित करना शुरू किया। धीरे-धीरे मैंने सोचना शुरू किया कि मेरी स्टाइल वाले फिल्मकार कौन हैं और मैं किनकी ओर आकृष्ट होता हूं? ये फिल्मकार ऐसे हैं जो एक-दूसरे को कॉपी नहीं करते। जैसे वॉन्ग कार-वाय जैसा कोई नहीं है, हेनेके (Michael Haneke) जैसा कोई नहीं है।

तिथि को लेकर सबसे अच्छी तारीफ आपने कौन सी पाई है?
फ्रांसिस फोर्ड कोपोला (Francis Ford Coppola) को ये बहुत पसंद आई। उन्होंने मुझसे कहा कि वे सेंचुरी गवडा बनना चाहते हैं। ये मेरे लिए सबसे कूल पल था। कोपोला की अपोकलिप्स नाओ (Apocalypse Now, 1979) और द गॉडफादर (The Godfather 1972-1990) ने एक लिहाज से मॉडर्न क्लासिकल सिनेमा रचा था। वे इसके अग्रदूतों में रहे हैं। उन्होंने अपनी फिल्में भयावह परिस्थितियों में बनाई हैं। जैसे द गॉडफादर को देखें तो लगता है कि ये बहुत ही व्यवस्थित और लयबद्ध प्रोडक्शन है लेकिन ये सबसे अधिक बिखरे हुए, कोलाहल भरे और बगैर-समर्थन वाले प्रोडक्शंस में से था। लेकिन फिल्म देखते हुए ऐसा नहीं लगता। उनके अलावा (15वें माराखेच इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल) ज्यूरी में जॉन पियेर ज़नेत (Jean-Pierre Jeunet) भी थे। ये मोरक्को की बात है। उनकी एमिली (Amélie, 2001) भी एक ऐसी फिल्म है जो मैंने वर्ल्ड सिनेमा दायरे में शुरू-शुरू में देखी थी। सबसे कलात्मक फिल्मों में से एक। कुछ लिहाज से कॉमेडी को लोग जॉनर में ही नहीं गिनते। उन्हें लगता है कि कॉमेडी करते हुए आपको कलात्मक होने की जरूरत नहीं है। कि आपको बस जोक मारने हैं लेकिन ये कतई सच नहीं है। एमिली इसका सबूत है। मुझे लगता है कि एमिली को बनाना एक बहुत जटिल काम रहा होगा। ये बहुत ही यथार्थपरक है और बिलकुल भी आसान नहीं है।

अपनी नई फिल्म (Distant Vision) के साथ भी वे सबको चौंकाने वाले हैं। ये पांच साल में बनेगी और 500 पन्नों लंबी इसकी स्क्रिप्ट है। ये भी एक इटैलियन फैमिली की चार पीढ़ियों की कहानी है।
हां, वो इस बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि वे लाइव परफॉर्मेंस जैसा कुछ शूट कर रहे हैं। फिल्म कई लाइ‌व कैमरा के बीच घटित होगी। पूरी फिल्म लाइव दिखाई जाएगी। वे अब भी खुद को अपनी क्षमताओं से परे धकेल रहे हैं और ये ही मजा है, वरना जीवन पूरी तरह बोरिंग हो जाए।

जैसे आपने कहा कॉमेडी को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। जब 2012 में एक ऑडिटोरियम में गुरविंदर सिंह की अन्ने घोड़े दा दान देख रहा था तो लोग सबसे गंभीर और पीड़ादायक मौकों पर हंस रहे थे। उसमें डार्क ह्यूमर है जिस पर हंसा नहीं जाता। तिथि एक अलग फिल्म है। लेकिन पूछना चाहता हूं कि एक डायरेक्टर के तौर पर आप किसानों और ग्रामीणों की दशा को कितना महसूस करते हैं? ग्रामीणों की कठिनाइयां बनाम कॉमेडी जो हम दिखा रहे हैं तिथि में, इससे हम हासिल क्या कर रहे हैं सिवा कलाकत्मक रूप से एक मजेदार फिल्म देने के?
मैं समझ रहा हूं आप क्या कह रहे हैं। मैं आर्ट में नैतिकता से दूर ही रहता हूं। कहानी में तीन मुख्य किरदार हैं और उन्हें एक खास तरीके से इरादतन एक-दूसरे का विरोधाभासी रखा गया है। भौतिकवाद (materialism) और अभौतिकवाद (non-materialism) पर भी इसमें टिप्प्णी है। कई बातों में एक बात यह भी है कि फिल्म सिर्फ गांव-केंद्रित नहीं मानव-केंद्रित भी है। आप भौतिकतावादी ढंग से किसी चीज के पीछे हो तो ये कई मायनों में आत्म-विनाशकारी है। यही फिल्म के सूत्रधार के साथ होता है। अगर आप फिल्म के किरदारों से खुद को थोड़ा अलग करके देख सकें तो उस स्थिति में होने के अलावा आप बहुत आत्म-शक्ति भी पा सकते हैं।
   हम कभी भी राजनीतिक वकतव्य देने के इच्छुक नहीं थे, हम मानवीय टिप्पणी कर रहे थे। ये सिर्फ स्थिति ही थी कि हम किसानों के साथ काम कर रहे थे। कोई राजनीतिक इरादा न था। सिर्फ एक इरादा था और मानवीय परिस्थितियों पर टिप्पणी के लिहाज से इस फिल्म में सार्वभौमिकता है। मैंने कभी भी उन संघर्षों को महसूस नहीं किया जब मैं वहां गया.. ये जीवन जीने का एक तरीका था। जिस क्षेत्र में हमने शूट किया वो उपजाऊ जमीन वाला था और उनके यहां खेती की संस्कृति है और वे अच्छा कर रहे हैं। हम उस संस्कृति के प्रति ईमानदार बने रहे। ये हमारे शहरों से अलग दुनिया थी। वहां कोई कठिनाई नहीं थी।
  ये बहुत ही अपने में सिमटा समुदाय था और वे बहुत मजबूत थे। वे लाउड थे, खुश थे, उनके जीवन में सकारात्मकता थी और इसे फिल्म में होना ही था। सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्में अच्छी और उपयोगी हैं लेकिन कई बार ये नेगेटिव भी हो सकता है। हमारे देश और उसकी संस्कृति में इतनी सकारात्मकता है और ये बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर है और उसे भी सामने लाया जाना जरूरी है। है न? हमें अच्छे की ओर भी देखने की जरूरत है। इस कहानी में कुछ कभी न भूले जा सकने वाले पात्र हैं और फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने की प्रक्रिया में हमने बहुत कुछ सीखा। मुझे लगता है उन्हें देखने के बाद उनसे कुछ ग्रहण किया जा सकता है। खासकर के फिल्म के दो पात्रों से। तिथि एक सादगी है और मानव स्थिति पर टिप्पणी है। ये राजनीतिक चीज नहीं है।

आप सही हैं कि हमारे गांव हमें सकारात्मकता देते हैं, हम बहुत कुछ सीखते हैं वहां के जीवन जीने के तरीके से जिसे फिल्मों में ज्यादा टटोला नहीं गया है। लेकिन वहां जाित भेद है, ऐसी परंपराएं हैं जो माननी ही पड़ती हैं। जैसे आप प्राग में पढ़े हैं, वहां की सभ्यता में एक किस्म की निजी स्वतंत्रता है। क्या ये ठीक है कि गांवों में वैयक्तिकता या आजादी नहीं है? क्या शहर वैयक्तिकता, आजादी देते हैं, प्रगतिवादी होने देते हैं? गांवों का विचार समुदाय पर आधारित है, निजता पर नहीं। आप जब तिथि बना रहे थे तो मंड्या में सकारात्मकता देखी लेकिन उन परंपराओं का क्या जैसे कोई मर गया है तो 12 दिनों तक भला एक गरीब परिवार मिठाई और भोज की व्यवस्था कहां से करेगा? आदमी रोता है और कर्ज लेकर शोक के दिनों में देसी घी का भोज पूरे गांव के लिए आयोजित करता है। आपको लगता है कि किसी सुधार की जरूरत है? या जो भी जीवन अभी वहां है वो अच्छा है?
ये एक रोचक सवाल है लेकिन मैं आर्ट की ओर ऐसे नहीं बढ़ता हूं। मैं पॉजिटिव चीजें ही लेना पसंद करता हूं। मुझे लगता है कि गांवों में सकारात्मकता है और वो शहरों से ज्यादा है। जैसे समुदायायिकता का मजबूत भाव होने के कई फायदे हैं। लोग गांव में ज्यादा आत्म-निर्भर हैं। वहां विषमताएं या असमानताएं इतनी नहीं हैं जितनी कि शहरों में है। शहरों में गैर-बराबरी भयंकर है। गांव में लोग तकरीबन समान स्तरों पर ही हैं जो कि पॉजिटिव बात है। ऐसी कई अच्छी चीजें गांवों में हैं। मुझे लगता है कि कृषक समुदाय भी एक विकसित समुदाय है। मुझे लगता है कि शहरों में हम लोग अति-उपभोक्तावादी हो गए हैं। निजी तौर पर अगर आप मुझसे पूछें और जिस स्पिरिचुअल परिवार से मैं आता हूं, तो मुझे लगता है कि सबसे सही और एकमात्र रास्ता भीतर ही है। यदि हर इंसान अपने भीतर की यात्रा करे तो समाज की बहुत सी समस्याएं चाहे वो गांव में हों या शहर में हल हो जाएंगी। फिल्म को भी मानवीय स्तर पर मैं ऐसा ही अहसास देना चाहता था।
Raam Reddy with Ere Gowda.

अपने दोस्त ऐरे गवडा के बारे में बताएं जो फिल्म को रचने में आपके भागीदार हैं?
बहुत गहरा रिश्ता है हमारा। फिल्म बनाना आमतौर पर बहुत ही जटिल प्रक्रिया है लेकिन हमारे बेजोड़ साथ से ये आसान हुआ। हम दोनों के दिमागों ने एक-दूसरे का बेहतरी से साथ दिया। ऐरे बहुत अच्छा लेखक है। हम बहुत सालों के दोस्त हैं। हमारी दोस्ती किन्हीं कर्मों का ही फल लगती है क्योंकि हम अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं और उसका दोस्ती पर कहीं असर नहीं पड़ा। हम लोगों ने तिथि मिलकर बनाई है। फिल्म देखते हुए आपको हमारा रिश्ता भी नजर आएगा। हास्य को जैसे हमने बुना है, किरदार जैसे हैं, उनमें बहुत सारा मैं भी हूं, बहुत सारा वो भी है। वो ग्रामीण जीवन को बहुत भीतर से जानता है और उसने जितनी संभव थी उतनी प्रामाणिकता दी। इसी कारण फिल्म बहुत ईमानदार और पर्यवेक्षणीय (observational) बनी। इसमें जो ईमानदारी है उसमें कोई मसाला नहीं है। ये दुनिया जैसी थी हमने वैसी ही कैप्चर की है। ऐरे उसी गांव से हैं जिसमें हमने शूट किया और जहां के सब किरदार है।

निराश और हतोत्साहित होते हैं तो हौसला पाने के लिए क्या करते हैं? आपके जीवन दर्शन के केंद्र में क्या है?
मेरे जीवन दर्शन के केंद्र में ये है कि जो ये पल है इसी में जिओ। जब आप मौजूदा पल में ही जीने लगते हैं तो आप बुझते नहीं हैं। ये समझा पाना कठिन है, ये हर बार संभव नहीं लेकिन आप तभी बुझ जाते हैं जब मौजूदा पल से बाहर सोच रहे होते हैं। आप या तो अतीत में मनन कर रहे होते हैं या फिर भविष्य को लेकर बेचैन होते हैं। मैं हमेशा इसी पल पर ध्यान केंद्रित करता हूं। इसमें बहुत ताकत है। इसके अलावा मेरा ये भरोसा भी है कि हर चीज नहीं होने वाली है, हर बार सफलता नहीं मिलने वाली है लेकिन अगर आप अपने दिल के प्रति ईमानदार रहें और फिर फेल हों तो उसे स्वीकार करना आसान होता है बजाय उसके कि आपको दिल मना कर रहा हो और आप वो काम करते जाएं। इसका कोई परिमाप नहीं है लेकिन जो भी आ रहा है सामने, उसे आप लेते जाएं।

वाकई?
भारत वो देश है जिसने शून्य की संकल्पना की। हम सबसे प्राचीन और बुद्धिमत्तापूर्ण सभ्यताओं में से हैं। भीतर की ओर यात्रा के लिहाज से हमारे इतिहास में किसी भी अन्य स्थान के मुकाबले ज्यादा गहराई है। और मुझे लगता है कि अभी हम ऐसा देश हैं जो बहुत ज्यादा बाहर की ओर देखने लगे हैं। अगर हम अपनी जड़ों की ओर लौटें तो वहां बहुत समझदारी मिलेगी। जैसे 10 या 15 हजार साल पू्र्व या 5000 साल पूर्व जब योग की रचना की गई।
The other three generations in the film.

Raam Reddy, 26, is from Bengaluru. He is a very talented Indian film writer and director. His first feature film Thithi has been very very exciting. It has won many prestigious awards all over the world including the Golden Leopard at the Locarno I'ntl Film Fest in 2015 and a National Award this year for the Best Kannada Film. The film opens today in Karnataka.
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Monday, September 28, 2015

मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है, उसमें चाह रहती है कि चीजें इससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं: कनु बहल

.Q & A  .Kanu Behl, film writer and director (TITLI).

Amit Sial, Shashank Arora and Ranvir Shorey in a still from Titli.
ये भी ‘तितलियों’ की हत्या का दौर है। चैतन्यता, प्रेम, आजादी, यौन उन्मुखता, समानता, प्रकृति, फकीरी और सहिष्णुता पर संकट है। इस बीच कनु बहल की फिल्म ‘तितली’ आ रही है। कहानी दिल्ली में रहने वाले एक परिवार की है। तीन भाई हैं। सबसे छोटा है तितली। संवेदनशील है और आपराधिक पेशे से दूर जाना चाहता है, उसका ये नाम संभवत: इसीलिए रखा गया है। ये भूमिका नवोदित शशांक अरोड़ा ने अदा की है। बड़े भाई विक्रम का रोल रणवीर शौरी और प्रदीप का रोल अमित सियाल ने किया है। तितली की शादी नीलू से की जाती है जो किसी और से प्यार करती है। नीलू के रोल में शिवानी रघुवंशी हैं। तीनों भाइयों के पिता की भूमिका वरिष्ठ रंगकर्मी और एक्टर-डायरेक्टर ललित बहल ने की हैं। वे नवोदित निर्देशक कनु के पिता हैं।

दिल्ली में पले-बढ़े कनु की मां नवनिंद्र बहल भी वरिष्ठ अदाकारा और एक्टर-राइटर-डायरेक्टर हैं। नोएडा की एपीजे स्कूल में पढ़े कनु ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज से बिजनेस में बैचलर्स डिग्री ली। 2003 में वे कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (SRFTI) सिनेमा की पढ़ाई करने गए। चार साल बाद 2007 में मुंबई पहुंचे और वहां निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की दूसरी फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए!’ में असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए। उनकी अगली फिल्म ‘लव सेक्स और धोखा’ (2010) में भी वे ए.डी. थे। उन्होंने जर्मनी के चैनल ZDF और जापान के NHK के लिए डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। 2010 में कनु ने अपनी पहली फिल्म ‘तितली’ लिखनी शुरू की जिसकी स्क्रिप्ट 2012 में एनएफडीसी की स्क्रीनराइटर्स लैब में चुनी गई। फिल्म में उनके सह-लेखक हैं शरत कटारिया जो पहले ‘भेजा फ्राय’ जैसी फिल्म लिख चुके हैं और बतौर निर्देशक इस साल उनकी पहली फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ आई है। ‘तितली’ का निर्माण दिबाकर बैनर्जी और यशराज फिल्म्स ने किया है। इसका फिल्मांकन सिद्धार्थ दीवान और एडिटिंग नम्रता राव ने की है। फिल्म पिछले साल फ्रांस के केन (Cannes) फिल्म फेस्ट की विशेष श्रेणी ‘अं सर्तेन रगाद’ (Un Certain Regard) में प्रदर्शित की गई तब से और चर्चा में है। यहां ‘कैमरा दॉर’ (Caméra d'Or) श्रेणी में भी इसे नामांकित किया गया। विश्व के 22 से ज्यादा फिल्म महोत्सवों में अब तक जा चुकी है।

‘तितली’ भारत भर के सिनेमाघरों में 30 अक्टूबर को प्रदर्शित होने जा रही है। इसके अलावा कनु अपनी अगली फिल्म भी लिख रहे हैं। इसका नाम ‘आगरा’ बताया जाता है। ये एक 24 साल के लड़के की कहानी है जो एक लड़की के प्यार में पड़ जाता है। लेकिन जल्द ही ज्ञात होता है कि वो लड़की काल्पनिक है। अभी भारत में प्रेम की परिस्थिति क्या है इसे भी ये कहानी प्रस्तुत करेगी। कनु से उनके जीवन, तितली, सिनेमा और सोच पर बात हुई। प्रस्तुत है:

एक साल पहले ‘तितली’ का ट्रेलर आ गया था और केन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी तब चली गई थी। क्या तब पूरी तरह तैयार नहीं हो गई थी? या भारतीय प्रिंट में समय लगा?
नहीं, दरअसल फिल्म का अंतरराष्ट्रीय चक्र (festival cycle) करीब एक से डेढ़ साल लंबा होता है। एक बार केन (Cannes) चली जाती है तो काफी सारे शीर्ष फेस्टिवल्स में जाती है। हम फेस्टिवल फेरे को पहले पूरा करना चाहते थे। फिल्म पूरे जहां में कुछ सबसे बड़े फिल्म महोत्सवों में गई है। ये रॉटरडैम (Rotterdam) में गई है जो नीदरलैंड्स में होता है। गोटेनबर्ग (Gothenburg) में गई है जो स्वीडन में होता है। एएफआई (American Film Institute), लॉस एंजेलस में गई है। बीएफआई (BFI), लंदन में गई है। इसने 9* पुरस्कार जीते हैं। आमतौर पर ऐसी छोटी फिल्म के लिए काफी प्रयास करने पड़ते हैं। इंटरनेशनल मॉडल को फॉलो करना पड़ता है। इसके पीछे का सारा आधार तैयार करना होता है।

समाज में बहुत सारे विषय और चिंताएं हैं लेकिन पितृसतात्मक (Patriarchal) समाज पर ही आपने अपनी पहली फिल्म क्यों बनाई? ऐसा क्या लिंक रहा इस विषय से?
बहुत ईमानदारी से बोलूंगा। मैंने जब ये फिल्म लिखनी शुरू की थी तो मुझे नहीं पता था कि ये किन-किन थीम्स से रूबरू होगी। मैंने इससे पहले एक और फिल्म लिखी थी जिसकी स्क्रिप्ट मैं एक-डेढ़ साल लेकर घूमा हूं। दिबाकर (बैनर्जी) को भी पढ़ाई। मैंने बनाने की कोशिश की और कहीं न कहीं मुझे अहसास हुआ कि यार, ये ईमानदार फिल्म नहीं है! मैंने बस लिखने के लिए एक फिल्म लिख दी है। इसका कोई मतलब नहीं है। उसके बाद मैं डिप्रेशन में चला गया पांच-छह महीने। घर बैठा। मैंने सोचा कि यार तुमने शुरू क्यों किया था? तुम फिल्म क्यों बनाना चाहते थे सबसे पहले? वो इसलिए कि मुझे कहानी कहनी थी। सच्ची कहानी। जो अपने से जुड़ी हो। फिर वहां से पूरा विचार शुरू हुआ कि इस बार मैं जो लिखूंगा उससे मेरा अपना जीवन और अनुभव जुड़ा होना चाहिए। अच्छे तरीके से और भली-भांति तो मैं अपने परिवार को ही जानता था। सोचने लगा, तो वो एक बहुत ही नेचुरल सब्जेक्ट बन गया मेरे लिए... नॉर्थ इंडिया में रहते हुए, दिल्ली में रहते हुए .. जो कि एक बहुत पेट्रियार्कल सोसायटी है। मेरा अपने पिता से बहुत ही मुश्किल रिलेशनशिप रहा है। कुछ वो चीजें स्क्रिप्ट में ढुलनी शुरू हुईं।

 तो फिल्म बन गई एक ऐसे युवा के बारे में जो अपने बड़े भाई से भागना चाहता है क्योंकि बड़ा भाई बहुत हिंसक है। उसे मारता है, पीटता है, तंग करता है। इसमें कुछ अतिरिक्त बात लाने और इन बिंदुओं को तीखा करने के लिए मैंने और शरत (कटारिया) ने उसे एक फैमिली में सेट किया कि वो एक कारजैकर्स (कार लूटने वाले) की फैमिली से है। क्योंकि ... तभी-तभी ये रेप केस (दिल्ली, 2012) भी हुआ था। उसे भी समझने की कोशिश कर रहे थे। हम लोग लड़खड़ा रहे थे, ढूंढ़ रहे थे कि ये फिल्म है क्या? ये सारी चीजें अभी मैं बोल रहा हूं तो आपको लगेगा कि सोच के करीं, पर सच्चाई ये है कि ये सारे जो फिल्म के दरवाजे थे वो बतौर लेखक हमारे सामने एक-एक करके खुले। हमें ये भी लगा था कि इस फैमिली का हिंसक होना जरूरी है न सिर्फ घर में बल्कि बाहर भी। तो हमने कारजैकिंग की पृष्ठभूमि बनाई और उसके बारे में रिसर्च करना शुरू किया। कहानी के मुझसे जुड़े इमोशंस ये थे कि मेरा अपने फादर से डिफिकल्ट रिलेशनशिप था जो कि अपने आप में ही बहुत कॉमन चीज हैं। शरत का भी अपने पिता से कठिन रिश्ता था, सिद्धार्थ (दीवान) जिन्होंने फिल्म शूट कीं उनका भी अपने पिता से रिश्ता कठिन था। तो ये सबके भी विचार जुड़ते गए फिल्म में, जैसे-जैसे क्रू एड होती गई। शुरुआत यहीं से हुई थी।

 उसे हम पकड़ कर चले और पहला ड्राफ्ट लिखा। इससे ये कहानी चार मर्दों के परिवार की बन गई। एक पुरुषों वाली फैमिली में कोई लड़की आती है और क्या होता है? लेकिन फिर सोचा कि यार, बड़े भाई का किरदार तो आरोपित (accusatory) करने वाला लग रहा है। बड़ा भाई तितली को मार रहा है लेकिन इसमें तो हम गए ही नहीं कि ये ऐसा क्यों कर रहा है? इस घर में बड़ा पैटर्न क्या है? हमने बात करना शुरू किया कि यार अगर हम बोल रहे हैं कि ये जो छोटा लड़का है, वो अपने भाई से भागना चाह रहा है क्योंकि उसे बड़ा भाई जैसा है वैसा पसंद नहीं है तो वो भाई ऐसा बना क्यूं? विचार आया कि ये बाप क्या कर रहा है यहां? इसका क्या रोल है? उसे जब तलाशा तो हमें बाप मिला फिल्म में। एक और ड्राफ्ट लिखा तो लगा कि अच्छा, बड़ा भाई बाप की वजह से ऐसा है। लेकिन फिर हमने सवाल पूछा कि बाप ऐसा क्यों कर रहा है? तो उससे हमें एक दादाजी की फोटो मिली घर में। देखिए, ..फिल्म एक स्पेस है जिसमें हम 100 या 110 दस मिनट में एक स्टोरी कहना चाह रहे हैं.. और जिस दिन हमें आइडिया आया कि घर में एक दादाजी की फोटो है जिसकी पिताजी बार-बार पूजा करते हैं तो वो चक्र (circularity) ज्ञात हुआ। तब हमें पता चल गया कि ये फिल्म किस बारे में हैं?

 असल में फिल्म पितृसत्ता से भी ऊपर उठकर एक फैमिली के बारे में है। परिवार के पावर डायनेमिक्स (power dynamics) आपस में क्या होते हैं उस बारे में है। परिवार में जो ये भूत घूमते रहते हैं न चित्रों के.. और इन एक से दूसरी छवि में जो हस्तांतरित (pass on) होता रहता है.. ये एक्चुअली उसके बारे में है। तब हमें पता चला कि इस लड़के को लगता है कि वो बड़े भाई से भागना चाहता है पर असल में तो वो बाप से या दादा की फोटो से भागने की कोशिश कर रहा है। और शरीर के भागने से कुछ नहीं होगा। आप कितना भी भाग जाओ वो तो हमारे अंदर है। ये करते-करते स्क्रिप्ट की यात्रा रही है। ये मेल डॉमिनेशन से पेट्रियार्की से सर्कुलैरिटी पर चली गई है। मेरे हिसाब से पेट्रियार्की एक रनिंग थीम है फिल्म की। अगर हम सबसे बड़े माले पर जाकर इस पूरी ईमारत को देखें तो सबसे बड़े तौर पर ये फिल्म फैमिली सर्कुलैरिटी के बारे में है।

आपने फिल्म के साथ इतना वक्त बिताया है कि उसे बहुत स्तर पर और बहुत लहजों से जानते हैं। लेकिन बाहर से सिर्फ ट्रेलर देखते हैं तो मोटे तौर पर पेट्रियार्की ही समझ आती है। बड़ा चैलेंज अभी भी हमारे यहां पितृसत्ता वाला समाज है। आप रोज घटनाएं देख रहे हैं। पढ़ने-लिखने के दौरान निराशा ही होती है। ‘मैं हूं मर्द तांगे वाला’ और ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’ के अमिताभ से लेकर हालिया ‘बाहुबली’ के प्रभास को ले सकते हैं जो शिवेंदु का किरदार करते हैं जिसमें हीरोइन (तमन्ना भाटिया) का उद्देश्य होता है कि वो बदला लेना चाहती है तो नायक उसे रोक देता है। अर्थ दिखता है ‘तू खूबसूरत रह, तू मुझसे लव कर, तेरा काम मैं करूंगा’।
बिल्कुल। ‘तितली’ पेट्रियार्की के बारे में ही है लेकिन इससे पहले भी ऐसी फिल्में रही हैं जो शायद इस मसले को डील कर चुकी हैं। हम बात कर रहे थे कि जब ये सारी फिल्में हैं तो हम अपनी फिल्म क्यों बना रहे हैं? यही बात क्यों कह रहे हैं? तो तय हुआ कि हम इस पर ही खत्म नहीं करना चाहते थे कि हमारे यहां पेट्रियार्की है और वो खराब है, हम उससे जूझ रहे हैं। ये तो सबको मालूम है। इस बात पर तो कई सदियों से लड़ाई चल ही रही है। लेकिन एक बार जब हमने मजबूती से तय कर लिया कि ‘तितली’ में इस विषय पर बात करना चाहते हैं तो उसके बाद हमारा पूरा प्रयास इस पर था कि ये क्यों है? और ये कहां से आती है? और इस पूरी डिबेट को खोला कहां जाए? इसकी शुरुआत कहां से होती है? और अगर इसे तोड़ना है तो क्या किया जाए? बात सिर्फ वहीं पर नहीं रुक जानी चाहिए जहां हर फिल्म ले जा चुकी है। बात उससे आगे जानी चाहिए। पेट्रियार्की के ढांचे को कैसे तोड़ा जाए? फैमिली के मायने क्या हैं? क्यों ये जुड़ी तो उसी से है न! प्रयास इसी पर रहा है कि परिवार और पितृसत्ता को समझा जाए और उसमें जो गलत पैटर्न नजर आ रहे हैं उनसे कैसे जूझा जाए। ये प्रॉबल्म इतना बड़ा है तो इसका मामूली सॉल्यूशन से काम नहीं चल सकता। हमने सोचा कि इसके भीतर जाकर कुछ फिल्टर व परदे और खोले जाएं जो हमें नजर (view) दे कि शायद इस मसले का हल यहां से खुल सकता है। क्योंकि पेट्रियार्की का स्ट्रक्चर हम सबसे बड़ा है। हम उन्हीं परिवारों, उसी पितृसत्ता और उन्हीं भूतों से जूझते हुए कुछ समझे बगैर 80 साल का जीवन जी लेते हैं। यही 70-80 साल अगर पेट्रियार्की के स्ट्रक्चर को समझकर उसका समाधान ढूंढ़ने में लगाएं तो शायद उसे बेहतरी से तोड़ पाएंगे, न कि इंसानों से ही लड़ते रहें। तो फिल्म शुरू उसी लड़ाई से होती है।

यानी आप उपाय भी साथ में बताने की कोशिश कर रहे हैं जो ज्यादातर फिल्मकारों द्वारा नहीं किया जाता। सत्यजीत रे की ‘महानगर’ बहुत चतुराई से दर्शक से कहती है कि घर की औरत को बाहर निकालो, शुरू में दिक्कत होगी आपको, मां-बाप को लेकिन बाद में बदलाव स्वीकार हो जाता है। ‘अशनी संकेत’ में जाति व्यवस्था पर बहुत मानवीय तरीके से बता देते हैं जहां उनका ध्यान इंसान की बुराई पर नहीं समस्या के ढांचे पर है कि ये समस्या रहेगी अगर आप इसे ऐसे रहने देंगे तो। ‘पाथेर पांचाली’ भी ऐसी थी। या अरुणा राजे की ‘रिहाई’ बहुत ही मजबूत नारीवादी फिल्म थी। आपने कहा कुछ पहले फिल्में रहीं जो इस विषय पर बात कर चुकी हैं, आप के जेहन में कौन सी थीं?
मैं इतनी फिल्में नहीं देखता आजकल। पिछली बार फिल्में फिल्म स्कूल में ही देखी थीं। मैं लिट्रेचर से ज्यादा जुड़ा था। इस संदर्भ में आर. डी. लैंग (R. D. Laing) हैं पॉपुलर साइकैट्रिस्ट, उनकी किताब है ‘द पॉलिटिक्स ऑफ द फैमिली’ (The Politics of the Family)। ये हमारा प्रमुख दस्तावेज बनी थी फिल्म के लिए। मेरी जो समझ है वो इससे बनी, और इससे मेरा वास्ता संयोग से ही हुआ था। मैंने किसी को स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट पढ़ने के लिए दिया था कि हम क्या कर रहे हैं और हम बहुत एक्साइटेड हो गए थे कि ये देखो हमें लग रहा है कि हमने कुछ नया ढूंढ़ िलया है। ये सर्कुलैरिटी की बात किसी ने नहीं की थी। उन्होंने पढ़ी और जवाब दिया कि ‘आपने कभी आर. डी. लैंग पढ़ा है?’ मैंने और शरत ने बोला, नहीं सर हमने तो नहीं पढ़ा है। तो बोले, ‘आप ये किताब पढ़ो।’ जब पढ़ी तो अहसास हुआ कि हम जो सोच रहे थे कि हमने नया ढूंढ़ा है दरअसल एक इंसान अपना पूरा जीवन इसी बारे में बात करते हुए निकाल के गया है। इस पेशे में उन्होंने जो भी पचास-साठ साल बिताए वो इसी इश्यू पर लिख रहे थे। सर्कुलैरिटी पे ही लिख रहे थे। कि कैसे पीढ़ियों में व्यक्तित्व यात्रा करते हैं। एक जेनरेशन की पर्सनैलिटी दूसरे पे आती है। हम अपने ही आसपास के लोगों से लड़ते रहते हैं, ब्लेम करते रहते हैं लेकिन शायद ये साइकल ब्रेक करना ज्यादा जरूरी होता है। बाकी फिल्में तो हैं ही लेकिन हमने स्क्रिप्ट लिखते हुए कोई फिल्म नहीं देखी जो परिवार से जुड़ी हो। हमने फिल्मों के अपने सामान्य ज्ञान से ही बातें लीं कि वे कहां तक पहुंची हैं। मेरा तो फिल्म स्कूल जाने का पूरा इरादा ही यही था कि क्या फिल्में बन चुकी हैं और कहां आगे जाया जा सकता है? सेम फिल्में दोबारा बनाने का कोई सेंस नहीं है।

शरत कब जुड़े ‘तितली’ से? और सवाल ये था कि एक निर्देशक या लेखक जो मूल कॉन्सेप्ट अपने दिमाग में पैदा करता है उसे किसी सह-लेखक की जरूरत क्यों पड़ती है? दूसरा, आपके विचार को वो उतनी ही आत्मीयता या मौलिकता से कैसे जान सकता है? क्योंकि वो तो दूसरा आदमी है। और फिर प्रोसेस क्या रहता है लिखने में? वो क्या मदद कर पाता है? जैसे ‘मसान’ में नीरज (घेवन) ने वरुण ग्रोवर को साथ जोड़ा था। तो अच्छी बात बन बड़ी। आपकी फिल्म में भी शरत हैं। क्या सह-लेखक एक बाहरी ही नहीं बना रहता?
Sharat and Kanu.
मेरे हिसाब से फिल्ममेकिंग बहुत सहयोगपूर्ण (collaborative) काम होता है। शरत से लेकर सिद्धार्थ (जिन्होंने शूट की) से लेकर नम्रता (जिन्होंने एडिट की) तक हर इंसान अपनी कहानी इस फिल्म में लेकर आया। इसीलिए ये फिल्म इतनी अच्छी बनी है। शरत तो इसका सबसे पहला हिस्सा था जब कोई नहीं था। शरत का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उससे मैं मिला था करीब अक्टूबर 2012 में। और हमें करीब डेढ़ साल लगा ये फिल्म लिखने में। उसका आना बहुत जरूरी इसलिए था क्योंकि एक तो मुझे लगता है हर स्क्रिप्ट एक जीता जागता इंसान होती है। मुझे लगता है उसमें इतनी सारी चीजें, इतने सारे किरदार होते हैं कि एक आदमी का उस पर खेलना थोड़ा सीमित हो जाता है। दो लोग जब मिलकर खेल रहे हैं और उनमें लेन-देन होता है बातचीत का तो हर पात्र के अंदर जो जीवन है थोड़ा बढ़ता है। और खिल उठता है। और उसके अंदर का प्ले ज्यादा दिखता है। हम दोनों के व्यक्तित्व भी थोड़े विरोधाभासी हैं। तो विरोध थे। लेकिन बहुत जल्द ही हमें एक कॉमन चीज को मिल गई, वो ये कि हम दोनों एक ही जगह से थे। कम और ज्यादा हम दिल्ली के समान इलाकों से थे। मैं पटपड़गंज में रहता था और शरत वेस्ट दिल्ली में रहता था। जिन लोगों के बारे में हम बात कर रहे थे उनको मैं और वो बहुत अच्छे से जानते थे। वहीं पर हमको एक बहुत स्ट्रॉन्ग कॉमन ग्राउंड मिल गया। जब हम किसी भी चीज के बारे में बात करते थे तो बहुत जल्दी हमारा एक कोड बन जाता था। शरद की मजबूती है राइटिंग की, वो है कैरेक्टर्स और डायलॉग्स.. और मेरा स्ट्रक्चर का सेंस है और कहानी का सेंस है तो वो एक बहुत अच्छी चाबी बनी और हम दोनों जुड़ गए। वो बहुत बड़ी ताकत थी।

.. मैं ऑथर स्टोरी में बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखता हूं। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर कोई ऑथर होता है या कोई बहुत बड़ी चीज होता है। मुझे लगता है डायरेक्टर अपना बहुत राजनीतिकरण करते हैं। जबकि फिल्म में टीम वर्क होता है। शरत टीम का सबसे पहला हिस्सा था और दोनों के आने से कहानी कोई तीसरी ही चीज बन गई। मेरे न होने से भी वह नहीं होती और उसके न होने से भी। जब दोनों साथ आए और बात करनी शुरू की, कि भई ये क्यों हो रहा है? शरत बोला कि भई तू तो तितली को बिल्कुल ही पीड़ित (victim) दिखा रहा है और बड़ा भाई बस विलेन ही बन रहा है। उस सवाल पर हम आगे बढ़े। उसके बाद मैंने सवाल पूछे उसके शरत ने जवाब दिए। ये जो मंथन होता है इसके बिना सिर्फ एक राइटर-डायरेक्टर के लिए - कम से कम मेरे मामले में अगर मैं दूसरों की बात न भी करूं - प्रोसेस थोड़ा सा एकाकी (lonely) हो जाता है और थोड़ा सा लाइफ उसमें से जाती रहती है। मुझे लगता है एक को-राइटर के होने से एक वैधता (validity) मिलती है, कहानी को सार्वभौमिकता (universality) मिलती है। क्योंकि वो सिर्फ आपकी कहानी नहीं होती.. आपके पास मौका आ जाता है ये देखने का कि ये किसी और की कहानी भी बन सकती है कि नहीं? या ये सिर्फ मेरी कहानी है? और जिस पल आपको पता चलता है कि हां ये किसी और की कहानी बन सकती है इसका मतलब.. सही है। इसका मतलब आप एक ऐसी विशेष (archetypal) चीज बोल रहे हैं जो आपसे आगे बढ़कर एक बड़ी परिस्थिति के बारे में भी बात कर रही है।

क्या ऐसा होता है कि जिस स्क्रिप्ट या कहानी पर आप जितना वक्त बिताते हैं वो उतनी अच्छी होती जाती है.. या उल्टा? जैसे ‘पीके’ है तो उसमें राजकुमार हीरानी और अभिजात जोशी ने तीन-चार साल बिता दिए और आपने इस पर डेढ़ साल और शायद एक साल पहले किया होगा। या ऐसा भी होता है कि दस दिन या एक-दो सिटिंग में आपने लिख दी हो वो भी आइकॉनिक बन सकती है?
नियम तो कोई नहीं है। मैं सिर्फ इतना बोल सकता हूं कि अच्छी फिल्में एक कहानी के बारे में नहीं होती, कैरेक्टर्स के बारे में होती हैं। मेरे हिसाब से। और कैरेक्टर आता है आपकी लाइफ के निचोड़ से, अनुभव से। जितना ज्यादा आप उसे समय देते हैं वो कैरेक्टर उतना ही ज्यादा आपसे बात करने लग जाता है। और एक्चुअली बहुत सारी लिखाई होती है कैरेक्टर के पास पहुंचने तक.. वही सारा जो एफर्ट होता है, सारा जो डिजाइन होता है वो वही होता है कि कब आप अपने और कैरेक्टर के बीच की दीवार हटा दें और वो आपसे सच्चाई से बात करने लगे। कुछ लोग होते हैं जो दस-दस दिन में भी स्क्रिप्ट लिख लाते जाते हैं और बड़ी अच्छी होती है। लेकिन मेरा विश्लेषण ये है कि ऐसे लोग थोड़े से बिखरे (sporadic) हो जाते हैं। उनकी एक स्क्रिप्ट बहुत अच्छी होती है, फिर एक नहीं, फिर एक बहुत अच्छी होती है। वो थोड़ा सा त्रुटि वाला प्रोसेस (Error sticken process) होता है। कभी कभी हो जाता है कभी नहीं होता है। लेकिन जितना टाइम आप किसी चीज को दें उतना वो आपको वापस देती है, ये तो तय है। अगर आप उतना ही समर्पित हैं अपने प्रोसेस को लेकर.. सिर्फ टाइम के लिए टाइम लगाएंगे तो जाहिर है कुछ नहीं होगा.. अगर आप उतने ही समर्पण के साथ अपनी कहानी और पात्रों के पीछे जा रहे हैं और उनकी पूंछ पकड़कर बोलें कि हां भई बताओ तुम क्या कहना चाहते हो.. तो मुझे लगता है ज्यादा टाइम हमेशा फायदेमंद ही होता है।

‘तितली’ को लेकर एक्टर्स, सिनेमैटोग्राफर, एडिटर और बाकी टीम को आपका ब्रीफ क्या रहा?
हमने सबसे पहले तो सबको वो किताब पढ़ाई। फिर कुछ म्यूजिक था। एक-दो गाने थे जो मैंने सबको सुनाए। जो मूड देते हैं फिल्म का। कि हम ये मूड देना चाहते हैं.. 

गाने मतलब?
मैंने जो म्यूजिक सुना हुआ था लाइफ में जिससे मुझे पता लगा कि हम इस मूड का पीछा कर रहे हैं। वो गाने। और हमारा एक शब्द था - मैं अपनी हर फिल्म में एक शब्द रखता हूं जो कहानी का पूरा निचोड़ होता है। ‘तितली’ में वो शब्द था उत्पीड़न (oppression)। ‘तितली’ हर तरह के ऑप्रेशन के बारे में है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यही थी कि ये फिल्म चक्र (circularity) के बारे में है। इस बारे में है कि कैसे जिस इंसान की पर्सनैलिटी से आप सबसे ज्यादा दूर भागना चाहते हो.. आप जितना दूर उससे भागते हो वो उतना ही आपके अंदर जागना शुरू हो जाता है। आप दूर भाग तो जाते हो लेकिन क्योंकि आप इतना उसके बारे में सोच रहे हो कि उसकी लौ आपके अंदर उतनी ही जलनी शुरू हो जाती है। इस फिल्म का हर पात्र, हर पल, हर कॉस्ट्यूम, हर प्रॉपर्टी, हर बात इसी बारे में है। इसे इसी लेंथ से देखना है। इसके अलावा ये बात की कि तुम्हारी लाइफ में क्या अनुभव थे जो इस चीज से जुड़ते हैं? और जब भी किसी से ये बात करते थे तो कोई न कोई नया अनुभव जुड़ता था। देखिए, फैमिली ऐसी चीज है कि जिससे हर कोई जुड़ा होता है। तो हरेक का अनुभव है और हम मानवों के पैटर्न इतने समान हैं कुल मिलाकर कि हर किसी की फैमिली में कुछ न कुछ झगड़ा या परेशानी होती था। बात करते थे तो वो वहीं से निकल कर आता था। कि हां यार, मैं अपने पिता जैसा नहीं बनना चाहता था लेकिन अब मैं बड़ा हो रहा हूं तो उन्हीं के जैसा बनता जा रहा हूं। कि हां मैं अपनी मां से इतना ज्यादा कुढ़ती थी, पूरी कोशिश करी कि कभी अपनी मां जैसी न बनूं लेकिन अब मुझे लगता है कि यार मैं तो बिलकुल वैसी ही होती जा रही हूं।

आपका बचपन ज्यादा कहां बीता? पंजाब में या दिल्ली में? कैसा था? किस किस्म के बच्चे थे? क्या तब घर में माहौल लिट्रेचर या कहानियों का था?
मेरे लिए तो अपने बारे में कहना थोड़ा मुश्किल ही है कि कैसा था? मेरे माता-पिता से शायद आपको बात करनी चाहिए.. लेकिन घर में माहौल था। मेरे पिता (ललित बहल).. वो भी फिल्म में हैं। इसमें पिता का रोल कर रहे हैं। वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। उनकी फीचर डेब्यू है ‘तितली’। माहौल शुरू से था। पापा एक्टर हैं, प्रोड्यूसर हैं, डायरेक्टर हैं... उन्होंने दूरदर्शन के लिए काफी काम किया। जब सैटेलाइट चैनल्स नहीं आए थे उससे पहले। शॉर्ट फीचर्स करते थे वो। दिल्ली में काफी जाने-माने हैं अपने वर्क के लिए। मेरी मां एक्टिंग टीचर हैं। वे प्रोफेसर थीं पटियाला के डिपार्टमेंट ऑफ टेलीविजन एंड थियेटर में। खुद लिखती भी हैं। वे दोनों साथ में टीम की तरह ही काम करते थे। मेरी मां लिखा करती थीं जो मेरे पिता डायरेक्ट करते थे या उल्टा होता था मां डायरेक्ट करती थी और पिता लिखते थे। तो आप कह सकते हैं कि वातावरण तो था ही। मैं बच्चा था तो याद है कि मां के साथ जाया करता था ‘द टेन कमांडमेट्स’ (The Ten Commandments, 1956) जैसी फिल्में देखने। ‘बेन हर’ (Ben-Hur, 1959) देखने। दिल्ली में शकुंतलम (सिनेमाघर) था तो वीकेंड पर मुझे याद है हम लोग वहां चले जाया करते थे। कोई न कोई क्लासिक लगी होती थी। मेरी शुरुआती याद भी ‘बेन हर’ की ही है। कि इसमें इतनी बारीकी से ह्यूमन लाइफ को कैप्चर किया गया है। सोचता था कि ये क्या दुनिया है? तो वो सब माहौल था, लिट्रेचर भी था ही, पढ़ने पर एक ज़ोर था। मेरे शुरू के करीब 8-9 साल पटियाला में गुजरे, उसके बाद मैं दिल्ली आ गया। फिर मैं 20-22 की उम्र तक दिल्ली में ही रहा। उसके बाद कैलकटा गया सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट। वहां पढ़ा चार साल। और 2007 से मैं बॉम्बे में हूं। कुछ सात-आठ साल हो गए यहां।

लिट्रेचर कैसा था? कॉमिक्स या स्टोरी बुक्स या कुछ और?
मैं सब कुछ पढ़ता था। कॉमिक्स पढ़ता था। उसी से शुरू किया। बॉलीवुड एक गहरा प्रभाव था। फिल्में देखना शुरू किया। 17-18 साल तक मैं सब कुछ देखता था। विश्व साहित्य में भी क्लासिक्स से लेकर नाबोकोव (Vladimir Nabokov 1899-1977) तक जो भी लाइब्रेरी में मिलता था पढ़ लेता था। थोड़ा सा मुझे लगता है स्पलिट पर्सनैलिटी (दोहरा व्यक्तित्व) है, दोस्त भी थे, बाहर भी बहुत रहता था लेकिन कैसे न कैसे अपने आप में भी था और पढ़ने में भी बहुत टाइम निकाल लेता था। पता नहीं मैं दोनों चीजें कैसे करता था। एक्टिव भी था फिजिकली लेकिन साथ ही घर पर बिलकुल अकेला बैठ लगातार दो-तीन दिन तक पढ़ता भी रहता था। ये दोनों ही बातें मुझमें आ गईं कि एक समय में अंतर्मुखी हो जाता हूं और दूसरे ही पल बाहर जाकर लोगों से इंटरैक्ट कर सकता हूं जब भी जरूरत हो।

इतिहास में देखें तो सबसे अमर कहानियां या आर्टवर्क जन्मा है तो भीषण त्रासदी में या अमानवीय घटनाओं से। हिटलर का संदर्भ देखें तो कितने आर्टवर्क और फिल्में रची गईं। वियतनाम युद्ध के बाद हम वॉर पर कितनी कालजयी फिल्में देख पाते हैं। भविष्य में आप और क्रिएटिव रहें, सृजन करते रहें इसके लिए जीवन में कोई कष्ट है जो निश्चित है? जैसे कहते हैं लेखक अगर पीड़ा में नहीं है तो अच्छा नहीं लिख सकता कभी..। आप सोचते हैं कि कष्ट की सप्लाई बंद हो गई तो मिडियोक्रिटी आ जाएगी?
जी बिलकुल सोचा है। आपसे पूरी तरह सहमत हूं। ये तो एक निरंतर चिंता हर आर्टिस्ट की होती ही है। पर मुझे नहीं लगता वो इतना ज्यादा किसी दर्द से जुड़ा होता है। विचार से जुड़ा होता है। ऐसे अगर आप देखें तो ऐसी अतीव-पीड़ा (extra ordinary pain) मेरी लाइफ में कुछ भी नहीं है जो किसी और ने महसूस न की हो। कई लोगों ने मुझसे भी ज्यादा पेन फील किया है लेकिन उन्होंने शायद बाहर आकर इतना अभिव्यक्त नहीं किया होगा जितना मैं करने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे लगता है ये पेन से ज्यादा विचार से जुड़ा होता है। और सक्सेस आने से पेन कम भी हो जाए तो मुझे नहीं लगता है उससे फर्क पड़ता है। फर्क इससे पड़ता है कि आपकी सक्सेस आपके पास समय कितना छोड़ती है विचार के लिए। ..और अपने अंदर मंथन के लिए। और फिर भी उतने ही सवाल पूछते रहें आप। उतना वक्त आपके पास बचता है या नहीं बचता? मुझे लगता है फर्क इसी बात का होता है। ऐसे तो बहुत से लोगों ने सफलतापूर्वक मर्डर के बारे में भी लिखा है जिन्होंने खुद कभी मर्डर नहीं किया। ये प्रतिबिंबित करने के बारे में है। कि आप अपने आसपास की चीजों को कितना गहरे में समझ पाते हैं और उसे रिफ्लेक्ट कर पाते हैं। अंदर की पीड़ा की कितनी थाह ले पा रहे हैं। मेरे लिए हर फिल्म ह्यूमनिस्ट होनी जरूरी है। जैसे तितली में भी पांच किरदार हैं और फिल्म का नाम तितली है लेकिन वो सिर्फ तितली के बारे में नहीं लिखी गई है न? पांचों किरदारों के लिए लिखी गई है। पांचों के दर्द हैं, उन सबके लिए लिखी गई है। मेरा काम एक फिल्मकार के तौर पर ये नहीं है कि मैं अपना दर्द बढ़ाए रखूं या अपना दर्द बरकरार रखूं और सिर्फ उसके बारे में बात करूं। मैं वो कहानियां करना चाहूंगा जिनमें हम सबने जो अपने दर्द बनाए हुए हैं उनके बारे में बात की जाए। ये पूरी तरह प्रतिबिंबित करने से जुड़ा होता है। और वो रिफ्लेक्शन टाइम कैसे बचाऊं मैं अपने लिए, आगे जाते हुए, वो मेरी चिंता है। उसकी तरफ मैं ध्यान दे भी रहा हूं।

जीवन का वो पल कब था जब कहा कि सिर्फ फिल्में ही करनी हैं? आप इतना आश्वस्त क्यों थे कि इसी में पूरी जिदंगी बिता पाएंगे?
कठिन सवाल है। कोई एक पल नहीं था। शायद मैं बहुत भाग्यशाली था क्योंकि मैंने कहानियों को बहुत पास से देखा। 4-5 साल का था, जबसे होश संभाला था कहानियां बनते हुए देख रहा था, उनका पावर देख रहा था। मैंने और कुछ इतना करीब से देखा ही नहीं। लेकिन तब भी.. मैंने बड़े होते हुए अपने माता-पिता को इतना स्ट्रगल करते हुए देखा टेलीविजन में.. जितनी वो मेहनत करते थे जितना काम करते थे मेरे हिसाब से उन्हें इसका उतना फल नहीं मिला। इस वजह से काफी टाइम तक मैं ऑलमोस्ट उल्टे मूड में था। सोच चलती रही। फिर काफी समय बाद वर्ल्ड सिनेमा के संपर्क में आया तो लगा कि ये जगह, ये काम है मेरे लिए, कि ऐसी भी फिल्में होती हैं। मैंने कीज़्लोवस्की (Krzysztof Kieśslowski) की ‘ब्लू’ (Blue, 1993) देखी, या कुबरिक (Stanley Kubrick) की ‘शाइनिंग’ (The Shining, 1980) देखी या ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’ (2001: A Space Odyssey, 1968) देखी.. या फिर कुस्तरिका (Emir Kusturica) की ‘अंडरग्राउंड’ (Underground, 1995) देखी। इस एक्सपीरियंस से जब गुजर रहा था तो मैं हिल गया कि ये बहुत ज्यादा इंस्पायरिंग है.. अगर ये काम है तो मुझे एक कोशिश तो करनी है कुछ महत्वपूर्ण करने की। वो मेरे लिए प्रेरक वक्त रहा 21-22 साल की उमर में। तब पहली बार आत्मविश्वास के साथ मैंने बोला कि हां मुझे ये करना है। फिल्में करनी हैं और मुझे इस तरह की फिल्में करनी हैं।

फिल्ममेकिंग जैसी अस्थिर चीज को जो भी छात्र या आकांक्षी लोग अपने लिए चुनें और उसमें सफल न हो पाएं तो क्या करें? ये तो तय है कि हर कोई सफल न होगा। हर कोई ‘तितली’ या ‘मसान’ तो नहीं बना सकता।
मुझे लगता है आपको फिल्मों में नहीं आना चाहिए अगर ये लगता है कि आगे सफल न हुए तो क्या करेंगे। ये थोड़ा सा पागलों वाला काम है। चाहे जितना भी अव्यावहारिक लगे लेकिन कभी ये सोचें ही नहीं कि मेरा बैकअप प्लान क्या होगा। क्योंकि ये पेशा बैकअप प्लान के लिए नहीं बना है। और ये करियर है भी नहीं। मुझे नहीं लगता फिल्मों को आपको करियर की तरह देखना चाहिए। ये जीवन जीने का एक तरीका (way of life) है। आप कुछ कहानियां कहना चाहते हैं। और वो कहानियां आपके अंदर हैं। और आप उन कहानियों से जूझ के और कई बार अपने आप से लड़कर उन्हें बाहर लाते हैं। तो वो भी एक तरह का ध्यान (meditation) है न! एक तरह का .. थोड़ा घिसा-पिटा (corny) लगता है शब्द पर .. पूजा है! उसके बीच में अगर आप अपना ध्यान हटाएंगे ये सोचने में कि स्थिरता, करियर.. तो आपका मेडिटेशन थोड़ा सा खराब होगा। ये जूझने वाला मामला है। हो जाता है। मैं भी वित्तीय तौर पर कोई बहुत स्थिर या सुरक्षित आदमी नहीं हूं। पर इतना विश्वास तो जरूर होता है कि हम अगला दिन देख लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर आप ‘मसान’ या कुछ खास तरह की फिल्में बनाना चाहते हैं, कहानियां कहना चाहते हैं तो आपका सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है वो ये है कि मुझे ये कहानी कहनी है। वो कैसे हो, कब हो और उससे जुड़ी हुई कठिनाइयां जो हैं उनसे जूझा जा सकता है।

आपने सत्यजीत रे फिल्म संस्थान में जाने से पहले कैसा सिनेमा देखा था और बाद में कैसे सिनेमा से वास्ता हुआ? कैसा तर्जुबा था?
वहां जाने से दो साल पहले से मैं समान किस्म का सिनेमा ही देख रहा था। जाने से पहले मैंने कीज़्लोवस्की देखा था। कुस्तरिका देखा था। लेकिन फिल्म स्कूल में जाकर और भी बहुत देखा। समकालीन भी और क्लासिक सिनेमा भी। ऑरसन वेल्स (Orson Welles, 1915-1985) भी देखा, अब्बास कीरोस्तामी (Abbas Kiarostami, 1940 - ) देखा। समकालीन में ज़ाक ऑर्दियाद (Jacques Audiard) देखा, स्टीव मेक्वीन (Steve McQueen) देखा। स्टीव की ‘हंगर’ (Hunger, 2008) देखी, ‘शेम’ (2011) देखी। हर किस्म का सिनेमा देखा। कोरियन सिनेमा में आजकल क्या हो रहा है। पर मुझे लगता है मेरे लिए जो सबसे बड़ा प्रभाव था जो पूरी तरह अप्रत्याशित था वो था डॉक्युमेंट्री। मैंने डॉक्युमेंट्री के बारे में कभी सोचा नहीं था। इत्तेफाकन ये हुआ कि जिन सालों में मैं फिल्म स्कूल में था उन सालों में डॉक्युमेंट्री मूवमेंट कैलकटा में बहुत स्ट्रॉन्ग हो रहा था और वो इंस्टिट्यूट से ही शुरू हो रहा था। उससे मेरा इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ के प्रति एक्सपोजर बहुत बढ़ा। जिसने मेरी फिल्म को भी काफी प्रभावित किया है। बहुत मैं उसका शुक्रगुजार रहा क्योंकि हमारे यहां डॉक्युमेंट्रीज़ बहुत सीमित और अरुचि वाली हैं लेकिन इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ देखकर मुझे एक अलग तरह की आजादी उनमें मिली। जिसे कहते हैं न कि कहानी से छुटकारा मिला और कैरेक्टर से प्यार हुआ और मुझे ये समझ में आया कि फिक्शन फिल्मों में भी कैसे वो अप्लाई किया जा सकता है? कैसे वो फ्रीडम दिया जा सकता है जहां कहानी के स्ट्रक्चर से ऊपर उठकर आप खाली एक किरदार के साथ चल सकते हैं।

कुछ ऐसी विस्फोटक डॉक्युमेंट्रीज़ जो बहुत प्रासंगिक हैं?
बहुत सारी हैं। कोसोकोवस्की की बहुत इंट्रेस्टिंग हैं। एक रशियन फिल्ममेकर हैं विक्टर कोसोकोवस्की (Viktor Kossakovsky)। उनकी बहुत सारी फिल्में हैं। वो अपने आप में.. बहुत अलग हैं। हमारे यहां इंडिया में निष्ठा जैन की फिल्में हैं जिनकी हाल ही में ‘गुलाबी गैंग’ आई। इससे पहले उन्होंने बहुत अच्छी फिल्में बनाई हैं। एक बहुत कमाल लिथुएनियन फिल्ममेकर हैं ऑड्रियस स्टोनिस (Audrius Stonys )।

डॉक्युमेंट्रीज़ में षड्यंत्र सुझाने वाली या हिला देने वाली फिल्मों की काफी संख्या है और वे इस कदर होती हैं कि उन्हें मान लिया जाए तो जीना मुश्किल हो जाता है। ‘जाइटगाइस्ट’ (Zeitgeist, 2007-2011) है, ‘फूड इंक’ (Food, Inc. 2008) है, वॉलमार्ट (Wal-Mart: The High Cost of Low Price, 2005) के बारे में है, या जापान में डॉल्फिन किलिंग पर बनी ‘द कोव’ ( The Cove, 2009) जिसे ऑस्कर भी मिला। दुनिया में हो रही ये साजिशें (conspiracy theories) देख हम इतने दुखी हो जाते हैं कि लगता है अब कुछ भी नहीं करना चाहिए मुझे मर जाना चाहिए ये दुनिया इतनी खराब है।
हम सब लोग ही इन सब चीजों से तो जूझते ही हैं। पॉइंट ये है कि हम इन सब विचारों का मूल क्या निकालते हैं, इन्हें मजबूत कैसे करते हैं और मुझे लगता है कि जो भी फिल्ममेकर ऐसी कोई फिल्में बनाता है तो इस उद्देश्य से ही बनाता है कि इसे देखकर कोई दुखी हो जाए या असमंजस में पड़ जाए या निराश हो जाए। बाकी हर इंसान जो भी काम कर रहा है और जो भी क्षेत्र उसने चुना है, उसके इर्द-गिर्द कोई मुद्दा फिल्म ने उठाया है तो उस पर जो एक्शन ले सकता है उसे लेना चाहिए। उधर ही आगे जाया जा सकता है। अन्यथा तो जीवन का कोई मतलब ही नहीं है। मेरा इससे डील करने का तरीका यही है कि किसी ऐसी सूचना से या किसी ऐसे इमोशन से एक्सपोज़ होता हूं जो मुझे बहुत डिस्टर्ब करता है या जिससे मैं बहुत ज्यादा प्रभावित होता हूं .. तो मैं वापस उसकी ओर जाता हूं, विचार मंथन करता हूं और उससे कुछ अच्छी चीज या अपना कुछ आउटपुट लेने की कोशिश करता हूं। मैं जितना योगदान दे सकता हूं उस मुद्दे को उठाने में या सॉल्यूशन की ओर जा सकता हूं उतना योगदान में अपने क्षेत्र में कर रहा हूं। वही एक विचार है जो हर वर्क ऑफ आर्ट करना चाहता है। आदर्श रूप से तो वही सबको करना चाहिए।

नम्रता राव एडिटिंग टेबल पर और सिद्धार्थ दीवान विजुअली कौन सी ऐसी चीजें या विचार लाए जो सिर्फ उन्हीं का योगदान था ‘तितली’ में?
ये इतना करीबी और साथ का काम होता है कि मेरे लिए बोलना मुश्किल है... । सिद्धार्थ की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वो कैमरा को छुपा देते हैं। हमने जब सोचा कि हमें इस फिल्म का मिजाज डॉक्युमेंट्री की तरह रखना है। ऐसा देखते हुए आपको लगना ही नहीं चाहिए कि फिक्शन फिल्म देख रहे हो, ऐसा लगे कि एक्सीडेंटली ये लोग रील पर कैप्चर हो गए। कैमरा दिखता नहीं है। ऐसा लगता है कि ये लोगों का जीवन है और पता नहीं हम कैसे इसे देख पा रहे हैं।

 एक हम लोगों का सबसे बड़ा डर इमेज को लेके, फिल्म के विजुअल लुक को लेके ये था कि जब एक खास तबके के लोगों की कहानियां कही जाती हैं तो ये बहुत शोषण भरा (exploitative) हो जाता है कभी कभी। ऐसा लगता है कि फिल्म गंदगी या धूल के बारे में ज्यादा है और लोगों के बारे में कम है जबकि हमारा शुरू से ही ये अटेम्प्ट था कि ये फिल्म इन लोगों के बारे में है और ये लोग इस स्पेस में रहते हैं। तो इस स्पेस को सबसे ज्यादा समग्रता (totality) से कैसे रेप्रेजेंट किया जाए? स्पेस का दुरुपयोग कैसे न किया जाए? मुझे लगता है ये सिद्धार्थ और प्रोडक्शन डिजाइनर पारुल दोनों का योगदान कि इस स्पेस को उसकी गरिमा दी, सही कोनों (areas) की ओर देखा, लोगों की ओर देखा, उनके भावों की ओर देखा, ये देखा कि कैसे उनकी बेचैनी (desperation), कैसे उनके हालात भी आएं लेकिन कैसे वो शोषण भरा (exploitative) न हों? फिल्म का विजुअल टेक्सचर जो कि उभर के आता है उसमें उनका योगदान है। हालांकि हमारी अपनी फिल्म है तो अपनी ही तारीफ लगती है लेकिन मुझे लगता है ये उन सबसे कम फिल्मों में से है जो अपने स्पेस की गरिमा को जिंदा रखती है और इसमें इसे नीचा करके देखने वाली दृष्टि नहीं है जो हमारी सबसे बड़ी चिंता थी।

Shashank, Amit, Lalit Behl, Shivani Raghuvanshi and Ranvir in a scene.

 सिद्धार्थ और पारुल ने फिल्म के जैसे रंग चुने.. हम लोगों को शुरुआती विचार था कि थोड़ा ब्लू (नीले) और यैलो (पीले) में जाएंगे .. फिर जब रेकी पर गए.. असल इलाकों में गए तो हमने देखा कि ज्यादा पिंक (गुलाबी) और ग्रीन (हरा) यूज़ होता है। और क्या होता है कि लोगों के पास कभी-कभी पैसे नहीं होते हैं तो वो एक ही कमरा पेंट करवा लेते हैं। बहुत सारे घर हमने देखे जिसमें मिसमैच कलर थे। एक कलर पिछले पंछे (coat) का रह गया था या नए का रह गया था। और न जाने क्यों चमक (brightness) देने के लिए लोगों का आइडिया पिंक का है... तो पिंक और ग्रीन को यूज करने का विचार था और दूसरा हम उत्पीड़न/दमन (opression) की बात कर रहे थे तो तमाम रेकी के बाद हम तीनों ने सोचा कि पिंक और ग्रीन ज्यादा रियल और अभी के रंग रहेंगे .. ये रंग ही वो लोग हैं.. न कि एक झूठा प्रतिनिधित्व है जो हमेशा ब्लू और यैलो का रहता है कि जो थोड़ा सा वॉर्म कर देता है और फ्रेम को थोड़ा सा उठा देता है। उसके बजाय पिंक और ग्रीन लिए गए, वही थीम हमने रखी। हमारा फिल्म में एक डिवाइड भी ये बना कि घर का स्पेस, कॉलोनी का स्पेस और शहर का स्पेस। .. जब ये (पात्र) बाहर जाते हैं तो मॉल्स और सिटी ज्यादा सिल्वर और ब्लू बन जाते हैं। असल में हमने सिटी को ज्यादा ब्लू और सिल्वर किया, घर को और इनकी गली और इनके स्पेसेज को पिंक और ग्रीन में देखा। तो ऐसे ही एलिमेंट्स और रंगों का इस्तेमाल .. कि इतने मौन (mutedly) ढंग से क्यों हम इनकी कहानी के इमोशन कह रहे हैं। जो इनकी बेचैनी है और जो कहेंगे हालात - बेहतर शब्द की गैर-मौजूदगी में - हैं, सिर्फ रंग से उनका प्रतिनिधित्व कैसे करना है, वो भी आपके सिर में बहुत अवचेतन वाले तरीके (in a subconscious way) से। हमने एक पक्ष लिया कि इस फिल्म में चीजों को हम यूं ही चमका कर या ठूंसकर नहीं दिखा देंगे, ये फिल्म वैसी ही होगी जैसा है। बहुत मौकों पर लगता है कि फिल्में फिल्ममेकर्स को रेप्रेजेंट करती हैं लेकिन एक्चुअली मैं ये मान रहा हूं ... मेरा सबसे फेवरेट फिल्ममेकर है क्यूबरिक (Stanley Kubrick).. क्योंकि कोई क्यूबरिक नहीं है सिर्फ उसकी फिल्में हैं। वो हर एक फिल्म, एक हस्ती है, उसके बीच में क्यूबरिक नहीं आते हैं। वो नहीं बोलते कि मेरी फिल्म है। एक फिल्म जो है वैसे ही प्रस्तुत कर दी जाए, ये भी एक बड़ा टैलेंट है कि हम लोग इसके अंदर न आ जाएं। हम एक-दूसरे की आंखों में झांककर कह सकें कि ये फिल्म इस फिल्म के बारे में ही है और ये जो स्पेस है वो स्पेस रेप्रजेंट होनी चाहिए। तो पारुल और सिद्धार्थ के ये बड़े योगदान थे।

 नम्रता की बात करूं तो लोगों को लेकर उनकी अंतर्दृष्टि और वे कैसे उनकी ओर देखती हैं ये खास है। हम दोनों ने एडिट (editing) पर शुरू से ही तय किया था कि ये फिल्म प्रतिक्रियावादी (reactive) नहीं होगी। ये डायलॉग के बारे में नहीं है। ये इस बारे में है कि जब लोग दूसरे लोगों की ओर देखते हैं, और उन्हें लगता है हम देखे नहीं जा रहे। हम कैसे चोरी छुपे एक-दूसरे को देखते हैं, कैसे एक-दूसरे को ऑब्जर्व करते हैं.. तो एडिट पैटर्न पूरा उस पर निकला। नम्रता की जो बहुत ही महीन समझ है लोगों की, रिश्तों की.. वो इसमें स्थानांतरित हुई कि लोग जब दूसरे लोगों को देखते हैं .. बात करते हुए .. तो वो फिल्म कैसे बदलती है। बहुत सारा एडिट फिल्म के इस नजरिए के साथ है, जो उनके और मेरे दोनों के लिए बहुत रोचक था। क्योंकि उन्होंने भी देखने का एक नया नजरिया विकसित किया।

एक एडिटर फिल्म को कितना तब्दील करता है? आपने अगर स्क्रिप्ट पर डेढ़ साल बिताया है और एक-एक अक्षर बहुत सोच-विचार-शोध के बाद लिखा है कि यहां ये दृश्य ऐसे ही होगा। क्या एडिटर उसे बिलकुल बदल देता है? दृश्यों का क्रम या संरचना बदलता है?
नहीं, ये बहुत बड़ा क्लीशे है। एडिटिंग एक अन्य प्रोसेस है जहां फिल्म दोबारा लिखी जाती है। खासकर तितली जैसी फिल्म जो शूट ही डॉक्युमेंट्री स्टाइल में की गई है और डॉक्युमेंट्री में शुरू से होता है कि फिल्म बना रहे हैं और धीरे-धीरे कैरेक्टर को जान रहे हैं और कैरेक्टर का जैसे-जैसे पता चलता है तो कुछ नई ही फिल्म निकल आती है। हमारे सीमित संसाधनों में ऐसा बहुत हुआ। छोटी सी फिल्म है हमारी, बहुत ज्यादा हम शूट नहीं कर पाए लेकिन उसके बीच में भी बहुत सारी चीजें हमने करी थीं तो नम्रता ने तकरीबन री-कंस्ट्रक्ट ही की फिल्म.. हां ये जरूर था कि नम्रता जब तक आईं तो 8-9 महीने का एडिट हो चुका था। वो फिल्म पर तीसरी एडिटर थीं। मैं इससे पहले दो अन्य एडिटर्स पर काम कर रहा था। चीजें जिस दिशा में जा रही थीं उनसे अंतत: मैं खुश नहीं था। लेकिन जब तक वे आईं बहुत कुछ हो चुका था। लेकिन अगर ओवरऑल प्रोसेस की बात करें तो उस 8-9 महीने के फेज़ में बहुत सी री-राइटिंग हुई थी। हमने बहुत लंबे-लंबे हिस्से शूट किए जो फिल्म में है ही नहीं। ये जानते हुए कि ये फिल्म के लिए जरूरी नहीं हैं। री-राइट और एडिट के प्रोसेस के बाद लगा कि ये जरूरी नहीं हैं। ये इस प्रोसेस का बहुत ऑर्गेनिक हिस्सा है। ये पहले भी हो रहा था और नम्रता के आने के बाद बहुत ज्यादा हुआ। वो आईं तब हमारा 2 घंटे 40 मिनट का कट था, बाद में वो 2 घंटे और 4 मिनट का रह गया। तो ये करीब 30 पर्सेंट कम हो गया था।

दिबाकर के साथ आपने 8 साल बिताए हैं। उन्होंने आपसे कुछ सीखा होगा। आपने उन्हें ऑब्जर्व करते हुए पूरी जिंदगी के लिए क्या सीख ली है?
अनुशासन। ठहराव। दिबाकर के साथ काम करते हुए सबसे बड़ी बात जो मैंने सीखी है वो ये कि सारा काम शांति से हो सकता है और शांति से काम कम से कम दस गुना बेहतर होता है। मैं खुद बहुत गर्म दिमाग था जब मैं फिल्म स्कूल से निकला था। मेरा अनुभव बहुत सीमित था। और मैं वैसे काम करता था जैसा मैंने अपने पेरेंट्स को करते हुए देखा। लेकिन जब मैंने ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के वक्त दिबाकर को जॉइन किया और शांत माहौल देखा तो सोचा, यार ये तो बहुत शांति से काम हो रहा है और कई गुना ज्यादा अच्छा काम हो रहा है। बहुत ही गहन स्तर का अनुशासन, कठोर परिश्रम.. वो हर पहलू पर काम करते रहते हैं .. चाहे स्क्रिप्ट हो, एडिट हो, चाहे उनका शूट करने का तरीका हो.. वो अंतिम छोर तक, सिरे तक चीजों को लेकर जाते हैं, जब तक आपको पूरा विश्वास न हो जाए और उससे ऊपर भी 50 परसेंट पक्का करना और उस पक्के पर भी आपको विश्वास न हो जाए कि इससे ज्यादा अब मेरे पास कुछ बचा नहीं है। ज्यादातर फिल्मकार थोड़े आलसी होते हैं और एक बिंदु के बाद उन्हें कुछ अच्छा मिल जाता है तो उसके आगे नहीं जाते लेकिन ये जो दृढ़ता (rigor) है दिबाकर की.. अच्छे से भी आगे जाना और चलते रहना जब तक यकीन न हो जाए कि अब इससे बेटर अगले पांच साल तक मैं कुछ नहीं कर सकता.. वो मुझे लगता है बहुत महत्वपूर्ण पाठ है जो मैंने सीखा है।

आज आपकी सर्वकालिक पसंदीदा फिल्में कौन सी हैं? जिन्हें बार-बार देखते हैं।
बहुत सारी हैं। कुस्तरिका की ‘अंडरग्राउंड’। कुबरिक की - वैसे तो आप उनकी कोई भी फिल्म उठा लें - ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’। कीरोस्तामी की ‘विंड विल कैरी अस’ (The Wind Will Carry Us, 1999)। ज़ाक ऑर्दियाद की ‘अ प्रोफेट’ (2009)। स्टीव मैक्वीन की ‘हंगर’। डारर्डीन ब्रदर्स (Jean-Pierre & Luc Dardenne) की ‘रॉजे़टा’ (Rosetta 1999)। सब अलग-अलग फिल्में हैं और वर्ल्ड सिनेमा का इतना विस्तृत नजरिया देती हैं कि आप ...। बहुत फिल्में हैं पर मेरे जेहन में एकाएक ये ही आ रही हैं।

टैरेंस मलिक (Terrence Malick) की?
मुझे उनका काम पसंद है पर उनका मैथड.. अपनी फिल्मों को बनाने में वे खुद को जिस प्रोसेस में झोंकते हैं वो बहुत-बहुत मुश्किल होता है। हाल के दिनों में वो कुछ निराशाजनक रहे हैं मेरे लिए लेकिन उनका हर प्रोजेक्ट सांसें थाम देने वाला रहा है। उनके प्रयास का जो दायरा होता है वो एक्सीलेंट है। ‘द ट्री ऑफ लाइफ’ (The Tree of Life, 2011) मुझे काफी अच्छी लगी थी। लेकिन क्रिश्चन बेल वाली उनकी पिछली फिल्म (Knight of Cups, 2015) के साथ ऐसा नहीं था। लेकिन निश्चित तौर पर सिनेमा के मास्टर्स में से एक हैं।

और वर्नर हरजॉग (Werner Herzog)?
वे तो दादाजी हैं। फिल्मों के ग्रांडफादर हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझे उनके बारे में बोलना भी चाहिए। वे अमेजिंग हैं। उनकी सारी डॉक्युमेंट्रीज़, उनका सारा फिक्शन वर्क इस दुनिया से परे है।

बीते एक-दो साल में अच्छी लगी भारतीय या विदेशी फिल्म?
मुझे अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ बहुत अच्छी लगी।

चारों ओर विलाप की स्थिति है, क्या चीज है जो आपको उम्मीद देती है? क्रिएटिव लोगों के पास उम्मीद कहां से आती है जब नेगेटिव चीजों से घिरे हैं?
बहुत इंट्रेस्टिंग सवाल है। इससे हम सभी जूझ रहे हैं। मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, कहीं से भी आ रहा हो वो अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है। उसके अंदर मंथन चलता है, एक गुस्सा होता है, इस गुस्से के कई नाम हो सकते हैं। उसके अंदर एक चाह रहती है कि चीजें जैसी हैं उससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं? कोई भी क्रिएटिव आदमी, आर्टिस्ट कहीं भी काम कर रहा हो वो इसी जरूरत से संचालित होता है कि वो इस बारे में बोलना चाहता है कि ये चीज ऐसी क्यों है और इससे बेहतर होनी चाहिए। वो होप यहीं से आती है कि शायद जिस भी बारे में वो सोच रहा है, जो भी उसे विचलित कर रहा है उसके बारे में बात करने के बाद वो चीज बेहतर हो सकती है। मुझे लगता है इसीलिए कहा जाता है कि क्रिएटिव लोग सबसे विचलित करने वाले टाइम में रहते हैं क्योंकि ये उन्हें ज्यादा ईंधन देता है, ज्यादातर फूड फॉर थॉट देता है ताकि निराशा (hopelessness) के बारे में बात कर सकें। ये आर्टिस्टों के लिए अच्छा है, जितना ज्यादा निराशा होगी उतना ज्यादा उनके काम की क्वालिटी प्रतिबिंबित होगी।

रचनात्मक गतिरोध की अवस्था में उम्मीद कहां से लेंगे? आगे जब आइडियाज़ नहीं सोच पाएंगे या फिल्में कई स्तरों पर फंसने लगेंगी या वित्तीय दुश्वारियां होंगी।
मैं सिंपल सा आदमी हूं। सबकी तरह कनफ्यूज हूं। सबकी तरह परेशान हूं। लेकिन हिम्मत है.. जज्बा है। कोशिश है कि झूठ न बोला जाए। जो कहानी है, जिस पर काम कर रहे हैं, उसे जितनी सच्चाई से बोला जा सके वो बोला जाए.. और उसमें वक्त लगता है। बात ये नहीं है कि फिल्म बन नहीं रही है.. मैं बस अपना समय ले रहा हूं जो भी मैं कर रहा हूं। जो अगली भी फिल्म है। क्योंकि मुझे पता है ये एक बहुत जटिल कहानी है। एक फिल्मकार के तौर पर एक कदम आगे ले जाएगी। प्रोसेस जारी है। मैं अपनी अगली फिल्म लिख रहा हूं। लड़खड़ाहट तो चलती रहती है और उसे तो मान लेना चाहिए हर फिल्मकार को। उसे तो हिस्सा बना लेना चाहिए अपनी जिंदगी का। कनफ्यूजन को, ठोकरों (stumbling) को। सुबह उठकर बोलना चाहिए कि अरे आज मैं कनफ्यूज्ड हूं, आओ आओ.. और आप उस कनफ्यूज़न को गले लगा लें। उसकी ओर मुस्कराएं और कहें, हम फिर से दोस्त हैं इस पूरे दिन के लिए। क्योंकि वहीं से ऊर्जा (kick) आती है। अगर वो नहीं होगा और सुबह उठकर आपको पता होगा कि आप हूबहू क्या लिखने वाले हैं, कौन सी फिल्म बनने वाली है तो उसका मतलब है कि कुछ गलत है। या कुछ गलत जाने लगा है।

फलसफा..?
मेरा मोटो नहीं है पर ये कुछ ऐसा है जो मैं हाल ही में ढूंढ़ रहा हूं और मेरी लाइन होगी कि ‘बस एक और दिन’ (just another day)। हम हर दिन को बहुत ज्यादा महत्व देने की कोशिश करते हैं अपनी लाइफ में। लेकिन अगर वो प्रेशर हम अपने ऊपर से निकाल दें और हर दिन को उस दिन के लिए जिएं, तो हमें अपने आप को और जीवन को जानने में थोड़ी आसानी हो जाती है। मैं अकसर जागता हूं तो खुद से कहता हैं .. बस एक और दिन।

‘तितली’ या ऐसी अन्य जागरूक फिल्में हैं, ये सिर्फ उन्हीं के समझ में आती हैं जो पहले से जागरूक हैं। जैसे ये केन फिल्म फेस्ट में गई तो फ्रेंच समाज इतना विकसित है कि वो बहुत तारीफ करेगा जब भी ऐसे प्रयास देखेगा। लेकिन जो लोग खुद आक्रांता हैं या अत्याचार करते हैं, लोगों का दमन करते हैं वो कभी न ये फिल्म समझने वाले हैं, न मानने वाले हैं?
ऐसा बिलकुल नहीं है। देखिए, ‘तितली’ फेस्टिवल के लिए बिलकुल नहीं बनी थी। मैंने कभी ये सोच के नहीं बनाई थी कि मेरे को ये फिल्म केन लेकर जानी है, ये जो भी हुआ है वो फिल्म जैसी बनी है उसकी वजह से हुआ है।

..मान लें कि मैं संदर्भ के साथ ये समझ चुका हैं कि एक औरत और एक आदमी में समानता होनी चाहिए। और मेरे कुछ दोस्त हैं जो बिलकुल विपरीत हैं, वो ये सब करते हैं घर में और कभी पश्चाताप नहीं करते। तो उस आदमी को तो ‘तितली’ पहले समझ में आनी चाहिए तभी समाज बेहतर होगा लेकिन वो कभी समझेगा ही नहीं और स्वीकार नहीं करेगा।
आपको क्या लगता है क्यों नहीं समझते हैं? आप बोल रहे हैं कि फिल्म कमसमझ आने वाली (obtuse) होती है। बाकी सब की बात तो नहीं कर सकता लेकिन मुझे लगता है कि ‘तितली’ ऐसी (obtuse) नहीं है। वो हाड़ मांस के लोगों के बारे में है। ऐसे लोगों के बारे में है जिनको आप जानते हैं। जिनसे आप रिलेट कर सकते हैं। वो सारे कैरेक्टर भी इसलिए पास हैं आपके जीवन के.. आप ये नहीं बोल पाएंगे ‘तितली’ देख के कि यार समझ में नहीं आ रही। आप ये शायद कह सकते हैं कि यार ये लोग बहुत देखे हुए हैं और मैं अब नहीं देखना चाहता। ये इतने करीब हैं मेरे कि मैं देख कर असहज हो रहा हूं कि मैं नहीं देख पाऊंगा ये फिल्म। ये जरूर बोल सकते हैं आप। लेकिन समझने में कठिन है ये कोई नहीं बोलेगा। मेरा अपना स्टैंड ये है एक फिल्मकार के तौर पर कि मैं फेस्टिवल्स के लिए फिल्म नहीं बना रहा, मैं एक फिल्म बना रहा हूं जो लोगों तक जुड़नी चाहिए। जो मेरे से जुड़ी हुई है कहानी और हाड़-मांस के लोगों के बारे में है, ये शायद मेरी सारी फिल्मों के बारे में सच रहेगा। मैं आपको ये कहना चाहता हूं कि ये केन जाना और बुद्धिजीवी और ये.. 

..नहीं, ये केंद्र नहीं है। मसलन, मेरी बड़ी बहन जो मुश्किल से पूरे जीवन में तीन-चार बार थियेटर भेजी गई हैं, उन्हें मैंने कहा कि ‘पीकू’ देख सकती हैं, अच्छी फिल्म है। बहन गृहिणी हैं। कॉलेज की पढ़ाई भी घर रहकर की। पितृसत्ता वाला समाज रहा। उन्होंने कहा कि इसमें (टॉयलेट कॉमेडी, घर की बातें) जो है वो हम रोज देखते हैं, कुछ मूड फ्रेश करने या खुश करने वाली फिल्म होती तो ठीक रहता। तो सवाल का केंद्र ये है कि उन्हें ही सशक्त करने वाली चीज है जो उन्हें ही नहीं सुहाती। ये चिंता नहीं? आपने अपना प्रयास दिया तितली’ बनाकर, पर जिन्हें समझना चाहिए वो न समझें तो?
मेरा ये सोचना है कि मैं अकेला ये बीड़ा नहीं उठा सकता कि मुझे समाज बदलना है या बड़ा बदलाव लाऊं। मैं एक इंसान हूं एक बहुत बड़े ढांचे में। जो मुझे अपनी सच्चाई से करना है वो मैं कर रहा हूं। इसके बाद मुझे लगता है बीड़ा दर्शकों के हाथ में खुद है, वो उन्हें खुद ही उठाना पड़ेगा। वो कोई चम्मच से उनके मुंह में डालकर बदल भी नहीं सकता। चीजें नहीं बदल सकती जब तक वे खुद पैरों पर खड़े होकर बोलें कि हां हमें कुछ आगे का (evolved) देखना है। जीवन की कुछ विकसित समझ लेनी है। और ईमानदारी से कहूं तो मैं इस चीज से खुद को परेशान भी नहीं करता। मेरा काम है, जो मैं कर रहा हूं वो करना पूरी सच्चाई से। इसके बाद मैं इस विश्वास के साथ फिल्में बनाता हूं कि अगर मैं ये कहानी सिंपल तरीके से कह रहा हूं, सिंपल डायलॉग के साथ, सिंपल किरदार हैं, तो लोग उसे देखेंगे और कंज्यूम करेंगे। और घर जाकर साथ वाले को बोलेंगे यार प्लीज ये देखकर आओ, ये समझ में आ रही है। ऑडियंस का बीड़ा भी उतना ही है जो उन्हें कभी न कभी तो उठाना ही होगा। ये सारी चीजें बहुत बड़े मुद्दों से जुड़ी नहीं हैं, ये सारी चीजें एजुकेशन से जुड़ी हैं, सिस्टम से जुड़ी हैं। ये सब बदलने के लिए एक बड़े स्तर पर बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है। सब मिलकर छोटा-छोटा अपना किरदार निभाकर पूरा कर सकते हैं। वो हम सबको साथ में ही करना है।

जब आप 3 साल की सीरियाई बच्चे ऐलान कुर्दी का समंदर किनारे पड़ा शव या ऐसी कोई भी मानवीय कहानी/छवि देखते हैं तो आपके भीतर क्या प्रक्रिया घटनी शुरू होती है?
मैं भी सबसे पहले एक इंसान के तौर पर ही प्रतिक्रिया देता हूं। क्योंकि मैं फिल्ममेकर बाद में हूं। और मेरे लिए वो कनेक्शन बनाए रखना जरूरी है। कुछ अलग नहीं चलता है। मुझे लगता है ये लंबा प्रोसेस होता है, आप रोज का अपना ह्यूमन एक्सपीरियंस निचोड़ते जाते हैं और उसे एक ह्यूमन की तरह ही कंज्यूम करते हैं। जब भी आप किसी कहानी को लिखना शुरू करते हैं तो उसमें इस निचोड़ के कुछ-कुछ कुछ-कुछ हिस्से बाहर आ जाते हैं। तो मेरे लिए वो इतना कॉन्शियस प्रोसेस नहीं है। और मैं उसे कॉन्शियस रखता भी नहीं हूं। क्योंकि मैं अपने अवचेतन (sub-conscious) को प्रोसेस करने देता हूं जो भी होता है। अगले डेढ़-दो साल तक उसके संदर्भ में जो मेरे अनुुभव बाहर आते हैं पहले ही प्रोसेस किए हुए वो कहानी में जुड़ते जाते हैं। क्योंकि प्रयास यही रहता है कि कहानी को जितना आज की दुनिया से जुड़ा बना सकते हैं उतना बनाएं। कॉन्शियसली अगर आप हर चीज को उस तरह से देखने लग जाएं तो बहुत ही उपभोक्तावादी रवैया (consumerist attitude) बन जाता है। फिर तो आप हर चीज को निचोड़कर स्टोरी बनाना चाह रहे हो। जो कि जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है कि जीवन जिओ और अनुभव करो जो भी अनुभव कर सकते हो। फिर अपनी कहानी आने दो।

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे (FTII) के अध्यक्ष के तौर पर गजेंद्र चौहान (टीवी-सीरीज ‘महाभारत’ के युधिष्ठिर बने थे) की नियुक्ति गलत हैं, इसका छात्र विरोध कर रहे हैं। एक छात्रा-छात्र में एक्टिविस्ट को कहां तक चलकर रुक जाना चाहिए और एक फिल्मकार को सक्रिय हो जाना चाहिए?
देखिए एक्टिविज़्म की तो बात ही नहीं है। सबसे पहले इस पर एक्टिविज़्म का लेबल लगाना बहुत ही ज्यादा गलत है। मुझे लगता है ये एक बहुत ही ज्यादा बेवकूफाना हरकत है जिसने भी गजेंद्र चौहान को नियुक्त किया है। वो बिलकुल भी योग्य नहीं हैं। मैं खुद फिल्म स्कूल से हूं और बिल्कुल समझता हूं जो ये स्टूडेंट मुद्दा उठा रहे हैं। सबसे पहले तो हमें ये समझना चाहिए कि ये स्कूली बच्चे नहीं हैं। 15-16 साल के नहीं हैं। ये सब एडल्ट हैं। 25-26 साल के लोग हैं। जो अपनी शिक्षा खत्म करके एक ऐसी जगह आए हैं जहां उन्हें आजादी से मन की विधा पढ़नी है। ऐसा नहीं है कि स्टूडेंट्स प्रिंसिपल बदलने को बोल रहे हैं। वे ऐसा व्यक्ति चाहते हैं जो उनको आगे लेकर जा सके। ये उनका अधिकार है। ये सब बहुत ही वयस्क नजरिए से आपसे बात कर रहे हैं कि आप किस तरह के फिगरहैड को नियुक्त कर रहे हैं। एशिया का प्रीमियर फिल्म स्कूल है वो, एशिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म स्कूल है जिसे देश-विदेश के संस्थानों के समर्थन वाले ख़त आ रहे हैं कि आप ये क्या कर रहे हैं? ये दुखदायी स्थिति है कि 100 दिन से वो लोग लगे हुए हैं और उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। अगर आप जागरूक लोगों को बोलेंगे कि वो एक्टिविस्ट हैं तो फिर दुनिया का क्या होगा? वो स्टूडेंट तो बस अपने आप-पास होने वाली परिस्थिति से वाकिफ हैं। और पर्याप्त रूप से रूचि रखते हैं दुनिया से संबंध विकसित करने की। जो उन्हें वहां पर सिखाया जाता है। वही तो उस मंदिर की सबसे बड़ी सीख है। वहां सबसे पहले यही सिखाया जाता है कि आपको अपने आंखों-कानों के दरवाजे बंद नहीं करने हैं, उनको खुला रखना है और जो अपने आप-पास का जीवन है उसे निचोड़कर अपने दिल में लेकर आना है। जो उनके मंदिर में हो रहा है उसके बारे में ही बात नहीं करेंगे और इस बात करने को आप एक्टिविज़्म बोलने लग जाएंगे तो ये कितना न्यायपूर्ण है!

ये तर्क दिया गया है गजेंद्र जी के खिलाफ कि उन्होंने ‘खुली खिड़की’ और अन्य सी-ग्रेड फिल्में की हैं। क्या ये स्टूडेंट्स का एलिटिस्ट होना नहीं हो गया? क्या संदर्भ गलत लिया गया है कि सिर्फ वे ही ज्ञानवान हैं?
मैं बिलकुल सहमत नहीं हूं। अगर आपने देखा हो तो और भी लोग जिनकी बात हो रही है उस ओहदे के लिए.. जैसे मान लीजिए अनुपम खेर हैं, उन्होंने भी हर तरह का काम किया है। उन्होंने बहुत सारी अच्छी फिल्में की हैं लेकिन वो खुद सबसे पहले मानेंगे कि उन्होंने खराब फिल्में भी की हैं। ये आपकी खराब फिल्मों के बारे में नहीं हैं, ये आपकी योग्यता के बारे में हैं। जिस इंसान से टेलीविजन इंटरव्यू पर पूछा जाता है कि आपकी फेवरेट इंटरनेशनल फिल्म क्या है? और वो खुलेआम कहता है कि ‘मैं जवाब देने से मना करता हूं’ (I refuse to comment), तो वो खुद ही बोल रहा है कि मैं इस पद को योग्य नहीं हूं। एफटीआईआई के चेयरमैन से आप क्या उम्मीद करते हैं? - कल को अगर वो बात कर रहे हैं किसी एक्सचेंज प्रोग्राम में या कहीं जाकर हमारे स्टूडेंट्स के बारे में बोल कर रहे हैं तो वो वार्ता, सुनने लायक, जागरूक और तथ्यपरक तो होनी चाहिए न? उनका तो अनुभव और शब्दावली ही बॉलीवुड तक सीमित है, बात ये हो रही है। ये फिल्में (सी-ग्रेड) करने के बावजूद अगर उनका ज्ञान होता, अनुभव विस्तृत होता तो मुझे नहीं लगता किसी को भी समस्या होती क्योंकि वो उनकी बातों और व्यक्तित्व में साफ झलकता। और सिर्फ गजेंद्र चौहान की भी बात नहीं है। उनकी नियुक्ति के अलावा जो समिति भी गठित हुई है, उसमें आठ में से चार लोग भी पर्याप्त योग्यता नहीं रखते.. कि वो संस्थान में शैक्षणिक फैसले ले सकें स्टूडेंट्स के प्रतिनिधि के तौर पर जिससे क्रिएटिव माहौल बन सके संस्थान में। ये राजनीतिक होना, एलिटिस्ट होना या एक्टिविस्ट होना नहीं है। ये सिर्फ करिकुलर के उच्च शैक्षणिक पैमानों के बारे में है और रचनात्मकता के बारे में है जो हमारी फिल्म स्कूल में है। सिर्फ वही मसला है।

नई सरकार आने के बाद सेंसर बोर्ड की नीतियां भी बदल गई हैं। मानें कि अगर दो कार्यकाल तक ये सरकार रहती है तो आप कैसे सामना करेंगे? कुछ महीने पहले दिल्ली में फिल्मकारों के एक समूह ने सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ से मुलाकात की थी। उस दौरान उन्हें मुंबई आने और इंडस्ट्री से मेल-जोल बढ़ाने का निमंत्रण दिया तो वे कथित तौर पर बोले, ‘तो आप चाहते हैं मैं आऊं और तुम सबके लिए आइटम नंबर करूं।’ आप इसे कैसे देखते हैं? ये क्या सोच है? फिल्मों की आर्ट फॉर्म का सम्मान न देना।
ये कोई नई समस्या नहीं है। पहले भी थी, आज भी है। 70 के दशक में जब श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल और बहुत सारे अन्य फिल्मकार काम कर रहे थे तब भी ये ही मुद्दे थे, तब भी सरकारें यही करती थीं, ये कोई नई बात नहीं है। ये हमेशा से होता आया है। मैं अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूं। मुझे जो कहना है मैं वो कह सकता हू्ं। उसके बाद जो भी हालात हैं वो बदलते रहते हैं। अभी कुछ हैं कल को कुछ और भी हो सकते हैं। अंतत: बात तो यही है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं, अभी जो सरकार है वो भी लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई है और मान लीजिए ये लोगों के पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो कल को एक और सरकार आ जाएगी। हमें कहीं न कहीं लोकतंत्र में विश्वास तो रखना ही पड़ेगा। और अपने आप में फेथ रखना पड़ेगा। उसके साथ हम अपने मुद्दे उठाकर आगे चलते रहेंगे। ये चीजें एक्चुअली एड करती हैं, ये हमें निराश नहीं करें। बोलें तो अच्छी हैं।

जीवन में कैसे विषय आकर्षित करते हैं जिन पर आगे फिल्में बनाना चाहेंगे?
हर तरह की चीज फेसिनेट करती है। मेरी आजमाइश ये है कि मैं हर तरह की बातों पर बात कर पाऊं। मुझे साइंस-फिक्शन भी उतनी ही रोचक लगती है जितना एक ड्रामा लगता है। जितना थ्रिलर इंट्रेस्ट करता है, जितना एक पोलिटिकल फिल्म इंट्रेस्ट करेगी। मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा। निर्भर करेगा कि मेरी खुद की समझ कितनी है कहानी के बारे में जिंदगी के तब के बिंदु पर। बहुत ही ज्यादा एक गतिशील (dynamic) और बदलने वाली (malleable) सी चीज है। पर मेरी रूचि काफी व्यापक है। मौजूदा समय में मुझे फैमिली स्ट्रक्चर में बहुत रुचि है। न सिर्फ वो एक महीन लेवल पर ह्यूमन अंडरस्टैंडिंग देता है बल्कि व्यापक दुनिया के लिहाज से एक समझ दे जाता है। तो अभी मैं उसमें काम कर रहा हूं क्योंकि उसमें सूक्ष्म और स्थूल (micro & macro) का बहुत अच्छा जुड़ाव नजर आता है। लेकिन अंतत: मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा और सब में गोता लगाना चाहूंगा। इसीलिए मुझे क्यूबरिक जैसा फिल्मकार बहुत ही पसंद है क्योंकि उनकी फिल्में एक-दूसरी से बिलकुल अलग थीं। उनसे भौचक्का हूं।

 
Kanu Behl

Kanu Behl is a young and talented film writer and director based in Mumbai. His directorial debut TITLI is slated to release on October 30 this year. It has gone to several prestigious international film festivals in last one year or so. Most prominently, it was selected in the Un Certain Regard section of the Cannes Film Festival (France) in 2014. It is produced by Dibakar Banerjee and Yashraj Films. Kanu is from Delhi. In 2003, he joined the Satyajit Ray Film and Television Institute and did his PG diploma in cinema. Later he assisted director Dibakar Banerjee on Oye Lucky! Lucky Oye! in 2007-2008 and co-worte Dibakar's next Love Sex aur Dhokha. Kanu as also writing his next titled Agara.

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